Research Flex
ISBN: 978-93-93166-40-1
For verification of this chapter, please visit on http://www.socialresearchfoundation.com/books.php#8

भारत की लोक और जनजातीय कला समकालीन संदर्भ में इसकी प्रासंगिकता

 डॉ रश्मि बाजपेयी
असिस्टेंट प्रोफेसर
चित्रकला विभाग
एस0 एन0 सेन डिग्री कॉलेज
कानपुर  उत्तर प्रदेश, भारत 

DOI:
Chapter ID: 16348
This is an open-access book section/chapter distributed under the terms of the Creative Commons Attribution 4.0 International, which permits unrestricted use, distribution, and reproduction in any medium, provided the original author and source are credited.

सारांश

किसी भी कला का प्रारूप तथा विकास उस क्षेत्र विशेष पर आधारित होता है। जहाँ पर कलाकार निवास करते है स्थान विशेष की जनजातीय अथवा लोककला वहां की संस्कृति तथा समृद्धि की प्रतीक होती है प्राचीन काल से लोक कला में समय परिवर्तन का प्रभाव पूर्णतः दिखता है कि किस प्रकार से उनसे निकली कला आज समकालीन परिवेश में उपस्थिति दर्ज करा कर विश्व में भारतीय कला का प्रतिनिधित्व कर रही है।

मुख्य शब्द- लोक कला, आदिवासी कला प्रतीक तथा चिन्ह, समकालीन कला, भारतीय संस्कृति।


अध्ययन का उद्देश्य

भारतीय लोक कला के विभिन्न स्वरूपो और प्रतीकों के महत्व का समकालीन कला के साथ अध्ययन और उसकी उपयोगिता का भारत की कला पर क्या प्रभाव पड़ता हैभारतीय आदिम कला संस्कृति सदैव समृद्धशाली रही है। भारत के अनेक प्रदेशों में अधिकता से आदिवासियों का बसाव है। आदिवासी कला परम्परा के तत्व आज भी उनके उत्सवों में देखने को मिलते हैं। जनजातीय कलायें बहुत ही साधारण होती है पर उनमें सजीवता की प्रधानता होती है । भारत के प्रत्येक राज्य में कला की अपनी एक विशेष शैली और पद्धति विद्यमान है। वर्तमान समय में भारत सरकार और अनेक सरकारी एवम् गैर सरकारी संस्थाओं ने आदिवासी कला को बढ़ावा देने का भरपूर प्रयास किया हैं प्रत्येक राज्य तथा शहर इन आदिवासी कलाओं के विकास के लिये सामूहिक प्रदर्शनियाँ तथा कला एक्सपो का आयोजन हर साल कराते हैं। भारत की लोक चित्रकारी में उन धार्मिक तथा आध्यात्मिक तत्वों को प्रयोग किया जाता है जो उनके दैनिक जीवन के कार्यों से सम्बन्धित होती हैं। आज भारत की लोक तथा आदिवासी कला की मांग विदेशों में बहुत है।

कुछ विद्वानों के उपयोगी अध्ययन के कारण भारतीय आदिवासी कला आज विश्व कला जगत में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखती है जैसे 'डब्लू जी आर्चर स्टैला क्रेमरिश 'डॉ० वैरियर एल्विन और 'श्रीमती कमला देवी . चटोपाध्यायहैं।

"भारत भवन का रूपंकर (आदिवासी कला संग्रह) एक मात्र ऐसा स्थान है जहाँ आधुनिक कलाकृतियाँ तथा लोक कला कृतियाँ एक साथ संग्रहीत तथा प्रदर्शित की जाती है।"

आदिवासियों की कला से लिये प्रतीकों तथा आकृतियों के द्वारा आधुनिक कला में तैयार बिम्ब समसामयिक आधुनिक चित्रकला को एक नई तकनीक प्रदान करते है। ये बिम्ब आधुनिक कलाकारों को प्रतीकों तथा आकृतियों के महत्व के बारे में अन्वेषणात्मक रूप से सोचने को बाध्य करते है ।

प्राचीन काल से ही आत्म संतुष्टि ही महत्वपूर्ण तथ्य रहा है। भारतीय कला में निर्जीव तथ्योंविचारों का कभी कोई स्थान नहीं रहा। भारतीय कला के अनुसार वही कला श्रेष्ठ है जो आपको आपके परिवेश से पूर्णता जोड़ती है और आपको आत्मिक शांति और सुख प्रदान करती है।

आज के दौर में बदलते शैक्षिक प्रारूपतकनीकी विकास और बिम्बों की नई अवधारणाओं ने यह आवश्यक कर दिया कि आधुनिक कलाकारों को ज्यादा विस्तृत या गहन अध्ययन उन तथ्यों का करना चाहिये जो विभिन्न क्षेत्रों या देशों में दैनिक जीवन में किये जाते है जिसे हम अपनी भारतीय कला को अधिक सम्पन्न और विकसित बना सके ।

इन्हीं लोक प्रारूपों को जब अधिकता से ग्रहण किया जाने लगा तथा उसे आधुनिक कला में प्रयोग किये जाने लगा तो कलाकारों को प्रतीकों की सरलता विचित्रता और आनन्द अनुभूति का अहसास होने लगा। इसलिये जिस कार्य को करने में आनन्द की प्राप्ति हो निश्चय ही वही कार्य या कृति श्रेष्ठतम होगी।

कलाकृति की सार्थकता तो इसी में है कि उस कृति जो कुछ महत्वपूर्ण तथा संदेशात्मक है वह स्वयं उस कृति से बाहर आये और कलाकार के विचार और अनुभवों को स्वयं प्रकाशित करे। जैसे प्रकृति बिना किसी भेदभाव के सभी प्राणी मात्र कोवनस्पतियो से एक सी जीवनदायिनी वस्तुओं को देती रहती है वह किसी से कुछ लेती नहीं परन्तु सभी को आनन्द प्रदान करती है। कला का स्वरूप प्रकृति से मिलता जुलता है वह कलाकारों को विचारों का सुख तथा दर्शकों को दृष्टि का सुख प्रदान करती है।

आदिवासियों की कला पूर्णताप्रतीकात्मक कला पर आधारित होती है। प्रतीकों तथा बिम्बों की सहायता से वह अपने चित्रण विषय को सरलता से व्यक्त कर लेते है। 'श्री असित कुमार हलदारका यह कथन ठीक ही है कि, "अध्यात्मिक तथ्यों को सरलता पूर्वक सीखने और समझने में प्रतीक अथवा बिम्बों की भाषा अत्यन्त सरल होती है। इसी सरलता के कारण समाज पर व्यापक प्रभाव डालने में समर्थ होते है।

मानव जीवन के सभी क्षेत्रों में प्रतीकों के महत्व व व्यापकता को देखते हुए 'बादलेबरने कहा है कि

"मनुष्य प्रतीकों के बन कुँजों से होकर चलता हैप्रतीकों के वन कुँज जो अपरचित भी है और गंभीर भी। फिर भी आँखों मेंपरिचय की आमा लिये जो प्रतीक मनुष्यों के पीछे-पीछे चलते है।" 2

समकालीन कलाकारों ने पश्चिमी कला का अनुकरण न करके पूर्व की गरिमामय कला को जाना पहचाना और उनके प्रतीकों आकारों तत्वों को अपनी आधुनिक कला में प्रयोग करके लुप्त होती पूर्वी कला को नया जीवन प्रदान किया। आधुनिक समकालीन कला में भारतवर्ष का स्थान विश्व कला में उत्तरोत्तर स्थान प्राप्त कर रहा है। यदि हम सम्पूर्ण भारतीय कला परम्परा पर दृष्टिपात करें तो देखेंगे कि आदि काल से आधुनिक काल तक कला परम्परा प्रतीकों की सहायता से अपने पूर्ण विकास व उत्कर्ष पर पहुँचने में सफल हुई हैं। आधुनिक कला तो पूर्ण रूप से प्रतीकात्मक ही है। इसमें प्रतीकों का एक जाल सा बना रहता है।

समकालीन भारतीय कलाकारों में जीवन के विविध विषयों सामाजिकधार्मिकशिकारआमोद प्रमोदश्रृंगारतंत्रप्राकृतिक चित्रण को बिम्बों के माध्यम से बड़ी सहजता से चित्रित कर दिया । धार्मिक तथा जादू टोना तंत्र से सम्बन्धित चित्रों को विकसित करने में प्रतीकात्मक कला शैली का विशेष योगदान है। अनेक देवी-देवता जो भी देखें नहीं जा सके मात्र प्रतीकों के माध्यम से ही उनका चित्रण हुआ और सभी ने उसे स्वीकार्य भी किया। प्रतीकात्मक शैली अथवा बिम्बों के अभाव में भारतीय कला के विकास की कल्पना नहीं की जा सकती है। समस्त आधुनिक कला प्रतीकों का आश्रय लेकर ही विकसित हुई है।

कला तो हर जीवन के अंदर होती है उसकी रस लेने की प्रवृत्ति उसके आवेगों तथा संवेगों पर आधारित होती है पर यह प्रवृत्ति आदिवासी कलाकारों से बढ़कर किसी के अन्दर नहीं होती है। यह बात प्रमाण के साथ कुछ प्रसिद्ध आदिवासी कलाकारों के द्वारा सामने आई जैसे जनगढ़ श्याम सिंहभूरीबाईसोनाबाई रजवारभज्जू श्याम सिंह आदि। इनमें कोई कला विद्यालय तो क्या विद्यालय का रूख नहीं किये हुए था और चित्रकला की पारम्परिक शैली का ज्ञाता न था । पर उनके कलाकार्य स्वयं ही किसी शैली के अविष्कार लगते हैं। उनके कार्यों में सरलता तथ सहजता की अधिकता होती है।

आदिवासियों का रेखीय चित्रण ही उनकी कला का सार है। उनमें रेखाओ का ज्ञान बहुत ही विलक्षण होता है। बिना किसी प्रशिक्षण के ही उनके चित्र सांकेतिक संदेश पूर्ण होते है अवसर के अनुकूल चित्रण यथा - त्योहारविवाहउत्सव आदि आदिवासियों का ध्येय होता है ।

भारत देश एक प्राचीन सांस्कृतिक प्रधान देश है और यह आश्चर्यजनक है कि यहाँ ग्रामीण परिवेश के रहने वाले जनमानस असभ्य जाने जाते है । यही असभ्य माने जाने वाले कलाकार जब कलाकृतियाँ बनाते है तो उनकी कृतियाँ संसार में प्रसिद्ध पाती है। जिसकी एक मिसाल है गोण्ड जनजाति की लोक चित्रकला । ऐसे ही सम्पूर्ण भारत के विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न लोक कलायें विद्यमान है जो भारतीय संस्कृति को बल तथा प्रसिद्धि दे रही है। "आदिवासियों के जीवन का हर पहलू विश्वासअंधविश्वासधार्मिक भावनाभय निर्भय तथा सुख-दुख से परिपूर्ण होता है। प्रकृति द्वारा प्राप्त हर वस्तुओं के लिये आदिवासी बहुत अधिक कृतज्ञ होते हैं। इन्हीं प्राकृतिक तत्वों से उनका जीवनयापन होता है। ये प्रकृति की अनुकूलता तथा प्रकृति प्रदत्त वस्तुओं के लिये प्रकृति को दैवीय स्वरूप स्थान प्रदान करते है और श्रद्धा भक्ति भाव प्रदर्शित करते है। प्रकृति के विनाशी रूप या प्रतिकूलता होने पर भयभीत भी होते है।

भारतीय गाँवों ही नहीं वरन शहरी परिवेश में भी लोककला के संग्रह का अत्यधिक चलन है। प्राचीन समय से लेकर वर्तमान समय तक आदिवासी कला में समय का प्रभाव साफ परिलक्षित होता है। औद्योगीकरण और आधुनिकीकरण का प्रभाव आदिवासी कला पर भी दिखाई देता है। आदिवासी कला को आधार बनाकर आदिवासी कला प्रतीकों को अपनाकर कितने ही आधुनिक चित्रकार कला जगत में अपना महत्वपूर्ण स्थान बना रहे है ।

आदिवासी कला संस्कृतियों का मुख्य तथा महत्वपूर्ण तत्व यह है कि यह कला अपने पुरातन सौन्दर्य तथा प्रमाणिकता के कारण आज सम्पूर्ण विश्व में अपना महत्वपूर्ण स्थान बना रही है और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भारतीय आदिवासी कला की मांग निरन्तर बढ़ती जा रही है। शायद इस बात का अनुमान समकालीन चित्रकार जे० स्वामीनाथन ने बहुत पहले ही लगा लिया था कि कला के शाश्वत रूप को ही बढ़ावा देकर और भारतीय आदिवासी कला को पश्चिमी कला के निरर्थक स्वरूप के समक्ष गौरव के साथ प्रस्तुत किया जा सकता है आदिवासियों की संस्कृति ही कुछ ऐसी ही है कि उनमें सृजनात्मकता कूट-कूट कर भरी होती है अगर हम उनकी सृजनात्मकता के बारे में विचार करें तो शायद विश्व के समस्त नवीन अनुसंधानों का श्रेय इन्हीं आदिवासी जन समुदायों को जाता है यथा-अग्निपहियाअस्त्र शस्त्रखेती आदि ।

समसामायिक कलाकार जे० स्वामीनाथन ने इसी दृष्टिकोण को अपनाते हुए अपनी चित्रकारी में सुख और आत्म संतोष का अनुभव किया। उन्होंने आदिवासी कलाकारों के चित्रकर्म को ख्याति दिलाने के लिये भोपाल में 'आदिवासी म्यूजियम में आदिवासी कलाकारों के चित्रण कार्य को प्रदर्शित कराया जिससे उनकी कला को सम्पूर्ण दुनिया में देखा जा सके। यह स्वामीनाथन का आदिवासियों के प्रति आंतरिक तथा असीम प्रेम था जो दिनप्रतिदिन स्वामी जी को उनकी तथा उनकी कला की और आकर्षित करता रहता था। आदिवासियों के चित्र कर्म अलौकिक तथा मन को शांति प्रदान करने वाले होते हैं।

मध्य प्रदेश के एक नहीं बल्कि कई मशहूर आदिवासी कलाकारों से बात करने पर आप को ज्ञात होगा कि श्री स्वामीनाथन जी ने ही उन्हें इस मुकाम तक पहुँचाया। अपनी प्रगति तथा प्रसिद्धि का श्रेय वह स्वामीनाथन जी को ही देते है कुछ प्रसिद्ध आदिवासी कलाकार भूरी बाई जनगढ़ श्यामआनन्द श्यामलाडोबाईकलावती श्यामवेंकर सिंह श्यामभज्जू श्यामदुर्गाबाई आदि है।

जनगढ़ सिंह श्याम के कार्य को देखकर उनके कुछ साथी कलाकार उनके साथ भोपाल आने को तैयार हो गये। जनगढ़ सिंह श्याम तो चित्रकृतियों को बिन्दु तथा सीधी रेखा से मरते थे आनन्द सिंह श्याम के साथ उनकी पत्नी कलावती श्याम भी चित्रकर्म करती हैं उनकी अपनी अलग शैली है। आनन्द सिंह श्याम कहते हैं कि वह हर साल एक बड़ी पेटिंग सिर्फ लाल रंग से ही बनाते हैं वह कहते हैं लाल रंग से बनी चित्रकृति बहुत ही आषापूर्ण और ओजपूर्ण दिखती है।

इसी प्रकार वेंकट सिंह ष्याम प्रारम्भ में कोयले से चित्र बनाते थे उन्होंने सोचा क्यों न अपनी चित्रकला में कुछ परिवर्तन करके जीविकोपार्जन हेतु चित्रण किया जाये अतः उन्होंने कॉमर्शियल चित्रपोस्टर बनाने शुरू कर दिये। यह जनगढ़ सिंह श्याम के भतीजे हैं। बाद में यह बार्सीलोना गये जहाँ उन्होंने अपनी कला को आधुनिक कला के साथ मिलाकर चित्रण कार्य शुरू किया ।

जनगढ़ श्याम सिंह के ही भतीजे भज्जू श्याम ने गोंड आदिवासी कला का विस्तृत आधार प्रदान किया। इन्होंने कथा चित्रों की किताबों का कार्य किया इनकी अब तक 10 किताबें प्रकाशित हो चुकी है जिन पर गोंड चित्रकला का प्रारूप है। इन्होंने लंदनपेरिसफ्रांसजर्मनी आदि में अपनी कला को प्रदर्शित किया। इनके गोंड कला को प्रचारित प्रसारित करने के काम को लेकर भारत सरकार ने 2018 में इन्हें 'पदम श्री अवार्ड से सम्मानित किया है। चेन्नई स्थित 'तारा बुक्सने भज्जू श्याम के साथ दस किताबों को गोंड चित्रकला से चित्रित कराया । भज्जू बताते है कि इन किताबों में वह परम्पराओं देवी देवताओंकथानायकोंप्रकृतिपशु-पक्षियों आदि का चित्रण करते हैं भज्जू श्याम जी देश विदेश में कई चित्रकला कार्यशालाओं में भाग ले चुके हैं।

निष्कर्ष
उपरोक्त तथ्यों से यह बात सिद्ध होती है कि आज विश्व कला में भारत की जनजातीय अथवा आदिवासी लोक कला महत्वपूर्ण योगदान है। विभिन्न राज्यों की विशिष्ट लोक कला के माध्यम से भारतीय समकालीन कलाकार सम्पर्ण विश्व मे भारत का नाम विशिष्टिता की ओर ले जा रहे हैं और भारतीय कला को सम्मान दिला रहे है। समकालीन कला कार पश्चिमी कला अघंनमल को व्यागकर अपनी गौरवमयी लोक कला को अपना कर कला के क्षेत्र मे नित नये प्रयोग कर रहे हैं
संदर्भ ग्रन्थ सूची   
1. अग्रवाल गिर्राज किशोर कला समीक्षापृष्ठ सं0 135
2. डॉ० अग्रवाल श्याम बिहारी- कला त्रैमासिकलोक कला विशेषांकजनवरी-मार्च 2002 पृ० 3
3. बाजपेई अशोक जादुई लिपिभारत भवन प्रकाशनभोपाल मार्च, 1983 पृ० 1
4. एनचन्द्रशेखरन पूर्वी और पश्चिमी पृ0 17 5. डॉसूर्यकान्त - भीरजापुर के आदिवासी और करमाचौमासा वर्ष 33 अंक 103 मार्च - जून 2017 पृ0 52
6. गुप्ता नीलिमा - भारतीय लोकलास्वाति पब्लिकेशन नई दिल्ली
7. तिवारी कपिल - सम्पदाआदिवासी लोक कला परिषद।