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ग्रामीण एवं नगरीय समुदाय की अवधारणा |
डॉ. स्वामी प्रसाद
एसोसिएट प्रोफेसर
समाज शास्त्र विभाग
राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय
हमीरपुर उत्तर प्रदेश, भारत
डा0 अविनाश प्रताप सिंह
प्राध्यापक
राजनीति विज्ञान
शासकीय महाकौशल कला एवं वाणिज्य स्वशासी महाविद्यालय
जबलपुर, मध्य प्रदेश, भारत
डा0 शक्ति गुप्ता
प्राध्यापक
राजनीति विज्ञान
राजकीय महाविद्यालय
मौदहा, हमीरपुर, उत्तर प्रदेश, भारत
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DOI: Chapter ID: 16629 |
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मानव का ग्राम्य जीवन का साथ उस समय से है जब वह अपना घुमन्तू जीवन छोड़कर एक स्थान पर बसकर कृषि कार्य करने लगा। गाँवों ने मानव जीवन को स्थिरता और अनेक सुविधाएं प्रदान कीं। कृषि करने के लिए यह आवश्यक था कि मानव अपनी खेती की देखभाल करने के लिए एक पर स्थान रहे। कृषि ने ही मानव को एक स्थान पर बसने के लिए मजबूर किया, जिसका परिणाम हुआ गाँवों का उदय और ग्रामीण जीवन का प्रारम्भ। स्थिर ग्रामीण जीवन ने मानव को सभ्यता एवं संस्कृति के निर्माण में योग दिया। अतः मानव संस्कृति का इतिहास ग्रामों की संस्कृति से बंधा हुआ है। ग्रामीण समुदायों के अध्ययन से हमें प्राचीन संस्कृति और आदिम मानव-जीवन का ज्ञान प्राप्त होता है। इससे हम उस विकास क्रम को समझ सकते हैं जिससे मानव जीवन गुजर कर वर्तमान स्थिति तक पहुंचा है। सुमदाय का अर्थ ‘समुदाय’ शब्द का प्रयोग हम किसी बस्ती, एक गाँव, एक नगर अथवा एक राष्ट्र, आदि के लिए करते हैं। समुदाय मनुष्यों का एक ऐसा समूह है जो एक भौगोलिक क्षेत्र में निवास करता है जिसमें ‘हम’ की भावना होती है तथा जिनका एक सामान्य जीवन होता है। मानव की अधिकांश आवश्यकताएं समुदायों में ही पूरी होती है। एक समुदाय में निवास करने वाले लोगों में एकता और सामूहिकता की भावना होती है। वे घनिष्ठता के सूत्र में बंधे होते हैं। मैकाइवर एवं पेज लिखते हैं, ”किसी छोटे या बड़े समूह के सदस्य जब साथ-साथ इस प्रकार रहते हैं कि वे किसी विशेष प्रकार के हित में ही भागीदार न होकर सामान्य जीवन की आधारभूत स्थितियों में भाग लेते हैं तो ऐसे समूह को समुदाय कहा जाता है।“[1] समुदाय की आधारभूत कसौटी यह है कि मनुष्य के समस्त सामाजिक सम्बन्ध उसके भीतर ही मिल जायें। समुदाय के दो आधार है: स्थानीय क्षेत्र और सामुदायिक भावना। किंग्सले डेविस के अनुसार, ”समुदाय वह छोटा स्थानीय समूह है जिसमें सामाजिक जीवन के सभी पहलू सम्मिलित होते हैं।“ बोगार्डस लिखते हैं, ”एक समुदाय एक सामाजिक समूह है जो एक निश्चित क्षेत्र में निवास करता है और जिसमें ‘हम’ की भावना होती है।”[2] समुदाय एक निश्चित क्षेत्र में निवास करने वाले मानव समूह को कहते हैं जिसके सदस्यों में ‘हम’ की भावना होती है और जिनका एक सामान्य जीवन होता है समुदाय की विशेषताएं (1) एक सामान्य निश्चित भू-भाग (2) सामुदायिक भावना (3) सामान्य जीवन- (4) समानताओं का क्षेत्र (5) स्वतः जन्म- (6) आत्म-निर्भर- ग्रामीण सुमदाय ग्रामीण समुदाय ऐसे समुदाय हैं जो प्रकृति पर प्रत्यक्ष रूप से निर्भर हैं, जिनका एक निश्चित स्थान है, जिनकी आजीविका प्रकृति से प्रथम बार उत्पन्न हुई वस्तुओं से चलती है तथा जिनका आधार छोटा होता है। इन समुदायों में घनिष्ठता, निकटता, प्राथमिक सम्बन्ध, अनौपचारिकता और समानता पायी जाती है। मैरिल और एलरिज लिखते हैं, ”ग्रामीण समुदाय के अन्तर्गत संस्थाओं और ऐसे व्यक्तियों का संकलन होता है जो छोटे से केन्द्र के चारों ओर संगठित होते हैं तथा सामान्य प्राकृतिक हितों में भाग लेते हैं।“ ग्रामीण समुदाय में मानव के सभी हितों की पूर्ति होती है। सिम्स के अनुसार, ”समाजशास्त्रियों में ‘ग्रामीण समुदाय’ को ऐसे बड़े क्षेत्रों में रखने की प्रवृत्ति बढ़ रही है, जिसमें समस्त अथवा अधिकतर प्रमुख मानवीय हितों की पूर्ति होती है। सेण्डरसन ग्रामीण समुदाय को परिभाषित करते हुए लिखते हैं, ”एक ग्रामीण समुदाय में स्थानीय क्षेत्र के लोगों की सामाजिक अन्तःक्रिया और उनकी संस्थाएं सम्मिलित हैं जिसमें वह खेतों के चारों ओर बिखरी झोंपड़ियों तथा पुरवा या ग्रामों में रहती हैं और जो उनकी सामान्य क्रियाओं का केन्द्र है।“ ग्रामीण समुदायों में सांस्कृतिक और सामाजिक समानताएं पायी जाती हैं, वहाँ अनौपचारिक और प्राथमिक सम्बन्धों की प्रधानता होती है, जनसंख्या का घनत्व कम होता है, अतः उनका आकार लघु होता है और वे कृषि तथा प्रकृति पर निर्भर होते हैं। ग्रामीण समुदाय की विशेषताएं ग्रामीण विशेषताओं को हम ग्रामीण जीवन का अंग कह सकते हैं। इन विशेषताओं के आधार पर ही ग्राम और नगर में भेद किया जाता है। ग्रामीण समुदाय की प्रमुख विशेषताएं निम्न प्रकार है:- (1) जीवन-यापन प्रकृति पर निर्भर- (2) समुदाय का छोटा आकार- (3) कम जनसंख्या- (4) प्रकृति से घनिष्ठ सम्बन्ध- (5) समरूपता- (6) प्राथमिक सम्बन्धों की प्रधानता- (7) सरल एवं सादा जीवन- (8) सामाजिक गतिशीलता का अभाव- (9) धर्म, प्रथा और रूढ़ियों का महत्व- (10) सामुदायिक भावना- भारतीय ग्रामीण समुदाय की विशेषताएं भारत एक ग्राम-प्रधान देश है जिसकी 72.22 प्रतिशत जनसंख्या गाँव में ही निवास करती है। ग्रामीण समुदाय की जिन विशेषताओं का उल्लेख किया गया हैै, वे तो भारतीय ग्रामीण समाज में भी पायी जाती है, किन्तु कई विशेषताएं ऐसी हैं जो भारतीय गाँवों में विशिष्ट और मौलिक हैं। भारतीय ग्रामीण समुदाय की प्रमुख विशेषताएं निम्न हैं- (1) संयुक्त परिवार(2) कृषि मुख्य व्यवसाय- (3) जाति प्रथा- (4) जजमानी प्रथा- (5) ग्राम पंचायत (6) भाग्यवादी- (7) सरल एवं सादा जीवन- (8) जनमत का अधिक महत्व- (9) सामाजिक समरूपता (10) प्रथाओं और धर्म का महत्व (11) स्त्रियों की निम्न स्थिति- (12) अशिक्षा- (13) आत्म निर्भरता- नगरीय समुदाय ई.बी. बर्गल ने उचित ही कहा है, ”प्रत्येक व्यक्ति यह जानता है कि नगर क्या है, किन्तु किसी ने भी संतोषजनक परिभाषा नहीं दी है।“ नगर केवल एक निवास का स्थान ही नहीं वरन् एक विशिष्ट पर्यावरण का सूचक भी हैं। यह जीवन जीने का एक विशिष्ट ढंग और एक विशिष्ट संस्कृति का सूचक भी है। नगरों की जनसंख्या अधिक होती है, वहाँ जनघनत्व भी अधिक पाया जाता है। व्यवसायों की बहुलता एवं भिन्नता, औपचारिक व द्वैतीयक सम्बन्धों की प्रधानता, भोगवाद, भौतिकवाद, व्यक्तिवाद, कृत्रिमता, जटिलता, व्यस्तता, गतिशीलता, आदि नगरीय समुदायों की प्रमुख विशेषताएं हैं। नगरों में हमें बेकारी, भिक्षावृत्ति; अपराध, नशाखोरी एवं वेश्यावृत्ति की बहुलता देखने को मिलती है। वहाँ परिवार, नातेदारी एवं पड़ोस का अधिक महत्व नहीं होता। वहाँ व्यक्ति अपनी विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अनेक द्वैतीयक संगठनों का सदस्य होता है। कानूनी दृष्टिकोण से नगर वह स्थान है जिसे उच्च सत्ता के चार्टर द्वारा नगर (शहर) घोषित किया गया हो। नगर की यह परिभाषा आधुनिक सन्दर्भ में तो ठीक है, किन्तु प्राचीन समय में चार्टर द्वारा किसी निवास स्थान को नगर घोषित करने की प्रथा नहीं थी। यदि हम शब्द रचना की दृष्टि से देखें तो ‘शहर’ या ‘नगर’ शब्द अंग्रेजी भाषा के सिटी City का हिन्दी अनुवाद है। स्वयं ‘सिटी’ शब्द लैटिन भाषा के ‘सिविटाज’ Civitas से बना है जिसका तात्पर्य है नागरिकता। अंग्रेजी भाषा 'Urban' का शब्द लैटिन भाषा के श्न्तइंदनेश् से बना है जिसका अर्थ है ‘शहर’। लैटिन भाषा के श्न्तइेश् का अर्थ भी श्ब्पजलश् अर्थात शहर ही है। नगर की परिभाषा जनसंख्या के आधार पर भी की गई। अमरीका के जनगणना ब्यूरो ने नगर ऐसे स्थान को माना है जहाँ की जनसंख्या 25,000 या उससे अधिक हो। फ्राँस में 2,000 तथा मिस्र में 11,000 जनसंख्या वाले क्षेत्र को नगर माना है। क्लिकॉक्स (Willcox) ने ऐसे क्षेत्र को जहाँ का जनघनत्व 1,000 व्यक्ति प्रतिवर्ग मील तथा जेफरसन ने 10,000 प्रति वर्ग मील आबादी क्षेत्र को नगर कहा है। व्यवसाय के आधार पर भी नगर की परिभाषा की गई है। विलकॉक्स के अनुसार, ”जहाँ मुख्य व्यवसाय कृषि है, उसे गाँव तथा जहाँ कृषि के अतिरिक्त अन्य व्यवसाय प्रचलित हैं, उसे नगर कहेंगे।“ बर्गल लिखते हैं, ”नगर ऐसा स्थान है जहाँ के अधिकतर निवासी कृषि कार्य के अतिरिक्त अन्य उद्योगों में व्यस्त हों।“ कुछ विद्वान ऐसे क्षेत्र को नगर कहते हैं जहाँ अपरिचितता अधिक हों, अर्थात जहाँ लोग एक-दूसरे से परिचित कम हों। लुईस वर्थ नगर को परिभाषित करते हुए लिखते हैं, ”समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से एक नगर की परिभाषा सामाजिक भिन्नता वाले व्यक्तियों के बडे़, घने बसे हुए स्थाई निवास के रूप में की जा सकती हैं।“ ममफोर्ड के अनुसार, ”नगर स्पष्ट अर्थों में एक भौगोलिक ढांचा है, एक आर्थिक संगठन एवं एक संस्थात्मक प्रक्रिया, सामाजिक प्रक्रियाओं का मंच और सामूहिक एकता का एक सौन्दर्यात्मक प्रतीक है।“ नगरीय समुदाय की विशेषताएं विभिन्न विद्वानों ने शहर अथवा नगरीय समुदाय एवं जीवन की विशेषताओं का उल्लेख किया है: (1) जनसंख्या की बहुलता- (2) जनसंख्या की विभिन्नता- (3) व्यवसायों की बहुलता एवं विभिन्नता- (4) श्रम-विभाजन एवं विशेषीकरण- (5) द्वैतीयक सम्बन्धों की प्रधानता (6) कृत्रिमता- (7) गतिशीलता- (8) विभिन्नता- (9) व्यक्तिवादिता- (10) सामाजिक समस्याएं- (11) शिक्षा एवं संस्कृति के केन्द्र- (12) राजनीतिक गतिविधियों के केन्द्र (13) सुरक्षा- (14) स्वास्थ्य एवं मनोरंजन की सुविधा- (15) मानव सभ्यता के पोषक- (16) नगरीय समुदायों में धर्म, परिवार का कम महत्व पाया जाता है (17) प्रतिस्पर्द्धा- (18) आर्थिक विषमता- (19) यातायात एवं सन्देशवाहन की सुविधाओं की बहुलता (20) फैशन के प्रति लगाव नगरों की विशेषता (21) मुद्रा अर्थव्यवस्था (22) लिखित आलेख- (23) आविष्कार एवं तकनीक- (24) सुदृढ़ प्रशासन(25) सांस्कृतिक आविष्कार- ग्रामीण एवं नगरीय जीवन में अन्तर प्रो. सोरोकिन और जिमरमैन ने ग्रामीण एवं नगरीय जीवन में भेद प्रकट करने के लिए एक तालिका दी है जो निम्नांकित है:-
विस्तृत सम्पर्क, द्वैतीयक सम्बन्धों की प्रधानता, जटिलता, कृत्रिमता विभिन्न कसौटियों के आधार पर ग्रामीण एवं नगरीय जीवन में निम्न भेद स्पष्ट हैं। मैकाइवर एवं पेज के अनुसार, ”परिवार पर्याप्त निश्चित यौन सम्बन्ध द्वारा परिभाषित एक ऐसा समूह है जो बच्चों के जनन एवं लालन-पालन की व्यवस्था करता है।“[3] डॉ. दुबे के अनुसार, ”परिवार में स्त्री और पुरूष दोनों को सदस्यता प्राप्त रहती है, उनमें से कम-से-कम दो विपरीत यौन व्यक्तियों को यौन सम्बन्धों की सामाजिक स्वीकृति रहती है और उनके संसर्ग से उत्पन्न सन्तान परिवार का निर्माण करते है। जी0पी0 मारडॉक के अनुसार ”परिवार एक ऐसा सामाजिक समूह है जिसके लक्षण सामान्य निवास, आर्थिक सहयोग और जनन है। इसमें दो लिंगों के बालिग शामिल है जिनमें कम-से-कम दो व्यक्तियों में स्वीकृत यौन सम्बन्ध होता है और जिन बालिग व्यक्तियों में यौन सम्बन्ध है, उनके अपने या गोद लिये हुए एक या अधिक बच्चे होते हैं।“[4] लूसी मेयर के अनुसार, ”परिवार एक ग्रार्हस्थ समूह है जिसमें माता-पिता और संतान साथ-साथ रहते हैं। इसके मूल रूप में दम्पत्ति और उसकी सन्तान रहती है।“[5] मूल रूप में परिवार की संरचना पति-पत्नी और बच्चों से मिलकर बनी होती हैं। इस दृष्टि से प्रत्येक परिवार में कम-से-कम तीन प्रकार के सम्बन्ध विद्यमान होते हैं: (क) पति-पत्नी के सम्बन्ध। (ख) माता-पिता एवं बच्चों के सम्बन्ध। (ग) भाई-बहिनों के सम्बन्ध प्रथम प्रकार का सम्बन्ध वैवाहिक सम्बन्ध होता है। जबकि दूसरे एवं तीसरे प्रकार के सम्बन्ध रक्त सम्बन्ध होते हैं। इसी आधार पर परिवार के सदस्य परस्पर नातेदार भी हैं। एक परिवार में वैवाहिक एवं रक्त सम्बन्धों का पाया जाना आवश्यक है। इन सम्बन्धों के अभाव में परिवार का निर्माण सम्भव नहीं है। ग्रामीण परिवार प्रारम्भ में परिवार का निर्माण प्राणिशास्त्रीय आवश्यकताओं के कारण हुआ जो आगे चलकर मानव की अनेक सामाजिक सांस्कृतिक आवश्यकताओं की पूर्ति का साधन बन गया। परिवार के कारण ही आज मानव जाति अमर बनी हुई है। मानव के उद्विकास के साथ-साथ परिवार के अनेक रूप प्रकट हुए हैं। विभिन्न संस्कृतियों में हमें परिवार के अनेक रूप देखने को मिलेंगे। मैकाइवर एवं पेज परिवार को परिभाषित करते हुए लिखते हैं, ”परिवार वह समूह है जो कि लिंग सम्बन्ध पर आधारित होता है और यह काफी छोटा एवं इतना स्थायी है कि बच्चों की उत्पत्ति और पालन-पोषण करने योग्य है।“ परिवार ही वह समूह है जहाँ स्त्री-पुरूष के यौन सम्बन्धों को सामाजिक स्वीकृति प्राप्त होती है। परिवार में ही सन्तानें जन्म लेती हैं और उनका भरण-पोषण किया जाता है। ग्रामीण परिवार की विशेषताएं विश्व के सभी कृषि प्रधान समाजों में परिवार का संयुक्त रूप देखने को मिलता है। इसमें केन्द्रीय परिवार की तुलना में सदस्यों की संख्या अधिक होती है और दो तीन पीढ़ियों के सदस्य साथ-साथ रहते हैं। ग्रामीण परिवार अधिकांशतः पितृ-स्थानीय, पितृवंशीय एवं पितृसत्तात्मक होते हैं। ऐसे परिवारों में सम्पत्ति का हस्तान्तरण पिता से पुत्र को होता है, बच्चों का वंश परिचय पिता के परिवार द्वारा दिया जाता है और विवाह के बाद पत्नी पति के घर पर आकर निवास करती है। ग्रामीण पर्यावरण ने ग्रामीण परिवारों को प्रभावित कर उन्हें एक विशिष्ट स्वरूप प्रदान किया है। यही कारण है कि ग्रामीण परिवार की विशेषताएं अन्य परिवारों से भिन्न हैं। ग्रामीण परिवार की मूल विशेषताएं इस प्रकार हैं: (1) अधिकाधिक सजातीयता- (2) संयुक्त परिवार की प्रधानता- (3) कृषक-गृहस्थी पर आधारित- (4) अनुशासन एवं अन्योन्याश्रितता- (5) पारिवारिक अहंमन्यता की प्रबलता- (6) परिवार में पिता की सत्ता- (7) विभिन्न कार्यों में घनिष्ठ सहभागिता- ग्रामीण संयुक्त परिवार संयुक्त परिवार प्रणाली भारतीय समाज की प्रमुख विशेषता रही है। आदिकाल से ही यह हिन्दू समाज व्यवस्था एवं ग्रामीण समाज की आधारशिला रही है। सम्पूर्ण ग्रामीण भारत में ऐसे परिवारों की बहुलता रही है जिसमें दादा-दादी, माता-पिता, पुत्र और पौत्र साथ-साथ निवास करते हों, जिनकी सम्पत्ति सामूहिक हो और जो सामूहिक रूप से आर्थिक क्रियाओं में भाग लेते हों तथा पूजा एवं उत्सव का आयोजन सामूहिक रूप से ही करते हों। ग्रामीण संयुक्त परिवार की विशेषताएं (1) बड़ा आकार- (2) सामान्य निवास- (3) सामान्य उपासना- (4) सामूहिक सम्पत्ति- (5) सहयोगी व्यवस्था- (6) कर्त्ता का सर्वोच्च स्थान- (7) पारस्परिक अधिकार और कर्तव्य- ग्रामीण संयुक्त परिवार के कार्य अथवा लाभ संयुक्त परिवार ग्रामीण समाज में अनेक उपयोगी कार्य करता है जिससे समाज व्यवस्था सुचारू रूप से चलती है। ग्रामों में कृषि की प्रधानता के कारण तो संयुक्त परिवार का महत्व और भी बढ़ जाता है। संयुक्त परिवार ही बच्चों के समुचित लालन-पालन में योग देता है। परिवार में दादा-दादी सरलता से बच्चों की देखरेख कर लेते हैं ओर बीमारी, आदि के समय अपने अनुभव के आधार पर छोटा-मोटा इलाज स्वयं ही करने में समर्थ होते हैं। संयुक्त परिवार समाजीकरण का कार्य भी करता है। बच्चा परिवार के विभिन्न सदस्यों के सम्पर्क में आकर प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त करता है और मानवीय गुणों को सीखता है। संयुक्त परिवार श्रम-विभाजन का भी अच्छा उदाहरण पेश करता है। स्त्रियाँ गृह कार्य और कृषि से सम्बन्धित छोटा-मोटा कार्य करती है तो पुरूष वाह्य कार्य और ऐसे कार्य करते हैं जिसमें अधिक शक्ति की आवश्यकता होती है। बालक छोटे-मोटे कार्य द्वारा अपना योग देते हैं। संयुक्त परिवार अपने सदस्यों के लिए आपत्तियों का बीमा है। बीमारी, बुढ़ापा, दुर्घटना एवं शारीरिक-मानसिक अयोग्यता की स्थिति में परिवार ही भरण-पोषण और इलाज का खर्च उठाता है। वह विधवा और परित्यक्ता बाहिनों व बेटियों को भी संरक्षण प्रदान करता है। संयुक्त परिवार अपने सदस्यों पर अनुशासन और नियंत्रण बनाये रखता है। वही सामाजिक परम्पराओं, रूढ़ियों, आदि का पालन कराकर संस्कृति की रक्षा भी करता है। संयुक्त परिवार ही व्यक्तिवादी प्रवृत्ति पर रोक लगाता है और उसके स्थान पर सामूहिकता को प्रोत्साहन देता है। सामूहिकता की भावना ही आगे चलकर सदस्यों में राष्ट्र प्रेम और एकता की भावना जाग्रत करती हैं। संयुक्त परिवार अपने सदस्यों के लिए मनोरंजन भी प्रदान करता है। छोटे बच्चों के साथ उनकी बोली में बोलकर सदस्य प्रफुल्लित महसूस करते है। संयुक्त परिवार में उत्सव और त्यौहार भी चलते ही रहते हैं। बड़े परिवार में रिश्तेदारों का आना-जाना भी बना रहता है। संयुक्त परिवार अपने सदस्यों का आर्थिक संरक्षण ही नहीं, वरन् सामाजिक सुरक्षा भी प्रदान करता है। संयुक्त परिवार ने समष्टिवादी समाज के निर्माण में योग दिया है। अपनी उपयोगी एवं महत्वपूर्ण भूमिकाओं के कारण ही संयुक्त परिवार आज भी ग्रामीण समाज में अपना अस्तित्व बनाये हुये हैं। ग्रामीण संयुक्त परिवार के दोष प्रत्येक संस्था की उत्पत्ति समय की देन होती है। जिन परिस्थितियों में संयुक्त परिवार का जन्म हुआ, वे संयुक्त परिवार के अनुकूल थीं। उस समय की कृषि व्यवस्था ने संयुक्त परिवार प्रथा को अनिवार्य बना दिया था, किन्तु समय के साथ-साथ परिस्थितियां बदलीं और संयुक्त परिवार में कई दोष उत्पन्न हो गए। संयुक्त परिवार के प्रमुख दोष इस प्रकार है: (1) संयुक्त परिवार व्यक्ति की कुशलता में बाधक है। संयुक्त परिवार मं कमाने वाले और न कमाने वाले को समान सुविधाएं उपलब्ध होती हैं। कार्य की प्रेरणा समाप्त हो जाती है। परिवार आलसी और अकुशल लोगों का केन्द्र बन जाता है। (2) संयुक्त परिवार में होनहार बालकों के व्यक्तित्व का विकास नहीं हो पाता, क्योंकि यहाँ मूर्ख और बुद्धिमान सभी के साथ समानता का व्यवहार किया जाता है। (3) संयुक्त परिवार सदस्यों की गतिशीलता में भी बाधक है। परिवार का स्नेहपूर्ण वातावरण सदस्यों को घर छोड़कर बाहर नहीं जाने देता। परिणामस्वरूप सदस्यों में क्षमता नहीं आ पाती। (4) संयुक्त परिवार के सदस्यों में बच्चों, आय-व्यय और पक्षपात, आदि को लेकर पारस्परिक द्वेष एवं कलह की स्थिति पाई जाती है। (5) ऐसे परिवार में स्त्रियों की भी दुर्दशा होती है। उन्हें कठोर नियंत्रण में रहना और कभी-कभी गुलाम की तरह जीवन व्यतीत करना पड़ता है। ऐसे परिवार में स्त्रियों की स्वतन्त्रता का हनन होता है। (6) संयुक्त परिवार में सदस्यों की अधिकता के कारण गोपनीय स्थान का अभाव होता है। (7) संयुक्त परिवार ने अनेक सामाजिक समस्याओं, जैसे दहेज प्रथा, बाल विवाह, पर्दा प्रथा, आदि को जन्म दिया है। (8) जब संयुक्त परिवार के सदस्यों में परस्पर तनाव की स्थिति होती है। तो सम्पूर्ण परिवार का वातावरण शुष्क एवं नीरस हो जाता है। (9) संयुक्त परिवार के मुखिया की सत्ता निरंकुश एवं स्वेच्छाचारितापूर्ण होती है। परिणामस्वरूप अन्य सदस्यों की स्वतंत्रता छिन जाती है और उनका व्यक्तित्व दबकर रह जाता है। आज भारत औद्योगिक अवस्था की ओर अग्रसर हो रहा है और कृषि की प्रधानता धीरे-धीरे कम होती जा रही है। ऐसी अवस्था में संयुक्त परिवार का स्थान एकाकी परिवार लेते जा रहे हैं, क्योंकि संयुक्त परिवार बदली हुई परिस्थितियों के अनुरूप आवश्यकताओं को पूर्ण करने में सक्षम नहीं हैं। ग्रामीण संयुक्त परिवार को परिवर्तित करने वाले कारक वर्तमान में ग्रामीण संयुक्त परिवार परिवर्तन के दौर में है। इनकी संरचना और प्रकार्यों में अनेक परिवर्तन आ रहे हैं। इन परिवर्तनों के लिए निम्नांकित कारक उत्तरदायी हैं: (1) औद्योगीकरण- (2) नगरीकरण- (3) पाश्चात्य शिक्षा एवं संस्कृति(4) कानूनों का प्रभाव- (5) पारिवारिक झगड़े- (6) यातायात के नवीन साधन- (7) जनसंख्या में वृद्धि (8) व्यक्तिवादिता- (9) स्त्री स्वतन्त्रता- (10) संयुक्त परिवार के कार्यों का हास- नगरीय परिवार परिवार सर्वत्र पाए जाते हैं, चाहे वह ग्रामीण क्षेत्र हो, नगरीय क्षेत्र हो या जनजातीय क्षेत्र। नगरीय क्षेत्रों में भी परिवार का वही अर्थ है जो ग्रामीण क्षेत्रों में है। नगरों में एकाकी या नाभिक परिवार अधिकांशतः देखने को मिलते हैं। केन्द्रीय या नाभिक परिवार इस प्रकार के परिवार को एकाकी परिवार या प्राथमिक परिवार भी कहा जाता है। ऐसे परिवार आधुनिक, औद्योगिक और नगरीय समाजों की प्रमुख विशेषता है। औद्योगीकरण व नगरीकरण के बढ़ने के साथ-साथ इस प्रकार के परिवारों की संख्या भी बढ़ती जा रही है। जहाँ कृषि प्रधान समाजों में संयुक्त परिवार व्यवथा की प्रधानता पाई जाती रही है, वहीं औद्योगिक व नगरीय समाजों में नाभिक या केन्द्रीय परिवारों की। आज की बदली हुई परिस्थिति में विशेषतः नगरीय क्षेत्रों में परिवार की संयुक्तता बनाए रखना कठिन हो गया है। आधुनिक सभ्यता एवं संस्कृति के प्रसार तथा भौतिकवादी व व्यक्तिवादी दृष्टिकोण के विकास ने एकाकी परिवारों को बढ़ाने में विशेष योग दिया है। आज व्यक्ति नाते-रिश्तेदारों की दृष्टि से विशेष न सोचकर अपनी पत्नी तथा बच्चों के दृष्टिकोण से ही सोचता है। यही कारण है कि संयुक्त परिवार में रहने वाले बहुत से लोग आज एकाकी या नाभिक परिवार स्थापित करने की दृष्टि से सोचते हैं। नगरीय परिवार की विशेषताएं नगरीय परिवार की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित है: (1) सीमित आकार- (2) सम्बन्धों में औपचारिकता- (3) नाभिक परिवार- (4) परिवार उपभोग की इकाई- (5) स्त्रियों की उन्नत स्थिति- (6) नातेदारी का कम महत्व- (7) अनुशासन तथा नियन्त्रण की कमी(8) परम्परा का कम महत्व- (9) परिवार के कार्यों का स्थानान्तरण(10) सत्ता में माता और बच्चों की भागीदारी परिवार में परिवर्तन: बदलता स्वरूप परिवर्तन एक सार्वभौमिक तथ्य है। समाज और उसका कोई भी अंग परिवर्तन के प्रभाव से बच नहंी सका हैं। 18वीं सदी के अन्त से ही यूरोप में और भारत में 19वीं सदी से ही जबकि औद्योगीकरण एवं नगरीकरण में वृद्धि हुई; परिवार में अनेक परिवर्तन प्रारम्भ हुए। औद्योगीकरण से पूर्व परिवार एक उत्पादनशील इकाई था, किन्तु औद्योगीकरण होने पर उत्पादन कारखाने में होने लगा; पति, पत्नी और बच्चे सभी कारखानों में काम पर जाने लगे। इससे बच्चों की उपेेक्षा हुई, पिता का परिवार पर नियंत्रण शिथिल हुआ एवं सदस्यों की स्वतंत्रता एवं व्यक्तिवादिता में वृद्धि हुई। औद्योगीकरण ने स्त्रियों को आर्थिक स्वतंत्रता प्रदान की। वे पुरूष की आर्थिक दासता से मुक्त हुई। अब स्त्री घर की चहारदीवारी से बाहर आयी और घर अस्त-व्यस्त हुआ। स्त्री-पुरूषों में समानता की मांग हुई। राज्य एवं उसके कार्यों के विस्तार ने भी परिवार के कई कार्य हथिया लिये। नगरीकरण के कारण लोग गाँव छोड़कर शहरों में जाने लगे। शहरों में एकाकी परिवारों की बहुतायत पायी जाती है तथा वहाँ परिवार में स्त्री-पुरूषों को अधिक स्वतंत्रता एवं अधिकार प्राप्त हैं। आधुनिक चिकित्सा एवं औषधि विज्ञान ने भी परिवार कल्याण कार्यक्रय में सहयोग देकर परिवार के आकार को छोटा किया है। पश्चिमी सभ्यता एवं संस्कृति, व्यक्तिवादी विचार, यातायात से नवीन साधनों एवं विभिन्न प्रकार के संघों एवं संगठनों के निर्माण ने भी परिवार की संरचना एवं प्रकार्यों को प्रभावित किया है और उसमें अनेक परिवर्तन लाने में योग दिया है। परिवार में आने वाले प्रमुख परिवर्तन इस प्रकार हैं: (1) अब परिवार केवल एक उपभोग की इकाई ही रह गया है, निर्माण एवं उत्पादक इकाई नहीं। (2) परिवार का आकार छोटा हो गया है। माता-पिता और बच्चों के अतिरिक्त परिवार में अन्य सम्बन्धी साधारणतः नहीं रहते। परिवार में बच्चों की संख्या घटी हैं। अब निर्बाध गति से बच्चों को जन्म देना उचित नहीं माना जाता। (3) परिवार के कार्यों में परिवर्तन हुआ है। पहले उत्पादन एवं उपभोग की इकाई था। सारा निर्माण कार्य परिवार में ही होता था। परिवार में ही व्यक्ति की आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति होती है, शिक्षा-दीक्षा, लालन-पालन, बीमारी एवं वृद्धावस्था में सेवा-सुश्रूषा होती थी, किन्तु अब परिवार के इन कार्यों को अन्य संस्थाओं ने ग्रहण कर लिया है। लालन-पालन का कार्य अब नर्सरी में तथा शिक्षा प्रदान करने का कार्य स्कूलों में होता है। अनाथों एवं वृद्धों के लिए अनाथालय, पुअर होम एवं रैनबसेरों का प्रबन्ध किया गया है। खाने के लिए होटल एवं रेस्तारां तथा वस्त्र धोने के लिए लाउण्ड्री का उपयोग बढ़ा है। चिकित्सा तथा शिशु एवं मातृ-कल्याण का कार्य अस्पताल, आदि कर रहे हैं। (4) परिवार के सहयोगी आधार में कमी आयी है। अब परिवार का सदस्य अन्य सदस्यों की तुलना में स्वयं के बारे में स्वयं के बारे में ही अधिक सोचने लगा है। वह व्यक्तिवादी होता जा रहा है। (5) पति-पत्नी के सम्बन्धों में परिवर्तन हुआ है। अब पति परमेश्वर की धारणा के स्थान पर मित्र एवं साथी के भाव पनपे हैं। स्त्री अब पुरूष के पांव की जूती नहीं समझी जाती और न ही पति निरंकुश शासक। (6) विवाह और यौन सम्बन्धों में परिवर्तन-अब विवाह एक धार्मिक संस्कार न रहकर समझौता मात्र रह गया है जिसे जब चाहे तोड़ा जा सकता है। अब अन्तर्जातीय विवाह व प्रेम विवाह होने लगे हैं। जीवन-साथी का चयन अब माता-पिता के स्थान पर स्वयं लड़के-लड़की करने लगे हैं। (7) परिवार में पिता के अधिकारों में हास हुआ है और पारिवारिक निर्णयों में परिवार के अन्य सदस्यों की भी सलाह ली जाने लगी हैं। (8) स्त्रियों को सम्पत्ति में अधिकार मिला है। इससे पूर्व केवल पुरूष ही परिवार की सम्पत्ति में उत्तराधिकारी थे। (9) स्त्रियों को गृह-बन्धन से मुक्ति मिली है, वे आर्थिक एवं सामाजिक दृष्टि से स्वतंत्र हुई हैं। अब पत्नियां एवं पुत्रियों को पिता व पति से स्वतन्त्र धनोपार्जन की छूट मिली है। (10) परिवार में विघटन कुछ बढ़ा है। दिन-प्रतिदिन तलाकों में वृद्धि होने लगी हैं। (11) नातेदारी का महत्व घटा है और लोग रिश्तेदारों से दूर भागने लगे हैं। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि परिवार परिवर्तन के दौर से गुजर रहा है। उसकी संरचना और प्रकार्यों को आधुनिक परिवर्तनकारी शक्तियों ने परिवर्तित किया है फिर भी उसकी समाप्त होने की कोई सम्भावना नहीं हैं। बी0के0 रामानुजम का कथन है कि वर्तमान में या तो आर्थिक आवश्यकताओं के कारण या व्यक्तिगत कारणों से नाभिक परिवार स्थापित करने की ओर झुकाव है। पी0डी0 देवानन्दन एवं एम0एम0 थॉमस ने लिखा है कि परिवर्तन के इतने कारकों के कारण नाभिक परिवारिक प्रतिमान की ओर है, जिसमें एक पति-पत्नी अपने अविवाहित बच्चों के साथ पाए जाते हैं। यह प्रतिमान व्यक्तिगत स्वतंत्रता और सभी सदस्यों के विशेष रूप से स्त्रियों और बच्चों के स्वतंत्र निर्णय का अधिक मात्रा में आदर करेगा। वर्तमान समय में बदलते हुए परिवारिक प्रतिमानों से सम्बन्धित कुछ नवीन समस्याएं भी सामने आई हैं। आज स्त्रियां आर्थिक कारणों से नौकरी करने लगी हैं और उनके पति भी उनके नौकरी करने को बुरा नहीं समझते। कठिनाई यह है कि पुरूष, परिवार में उनकी बदली हुई परिस्थतियाँ और भूमिका को स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। वे नहीं चाहते कि उनकी पत्नियाँ घरों में अपने परम्परागत दायित्वों की तनिक भी अवहेलना करें, जबकि वास्तविकता यह है कि नौकरी के कारण अब वे घर में उतना समय नहीं दे पातीं और न ही उतनी कुशलता से सब पारिवारिक कार्यों को पूर्ण कर पाती हैं। स्त्री की इस नवीन भूमिका ने परिवार में तनाव की स्थिति पैदा कर दी है, क्योंकि वह नौकरी करती हुई पति, सास, ससुर, बच्चों तथा अन्य रिश्तेदारों की सब प्रकार की अपेक्षाओं को पूर्ण नहीं कर पाती। नगरीय क्षेत्रों में वर्तमान में एक ओर विवाह की आयु बढ़ रही है और दूसरी ओर स्कूलों एवं कालेजों में लड़के-लड़कियों को एक-दूसरे के सम्पर्क मंे आने का मौका मिला है। उन्हें आपस में भावात्मक सम्बन्ध स्थापित करने का सुअवसर प्राप्त हुआ है, परन्तु आज भी अधिकतर विवाह माता-पिता द्वारा ही निश्चित किए जाते हैं। लड़के लड़कियों को जीवन साथी के चुनाव में अपेक्षित स्वतन्त्रता प्राप्त नहीं है। अपने मनचाहे लड़के के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित नहीं कर पाने के कारण आज अनेक लड़के-लड़कियों में निराशा पाई जाती है। यह निराशा आगे चलकर उनके पारिवारिक सम्बन्धों पर कुप्रभाव डालती है। अब तक माता-पिता अपने लड़कों से सामान्यतः यह आशा करते हैं कि वे वृद्धावस्था में उनकी देखभाल करेंगे। परम्परागत मूल्यों के अनुसार माता-पिता की सेवा करना विशेषतः सन्तान का पवित्र कर्तव्य समझा जाता था। आज भी सिद्धान्त रूप में इस बात को स्वीकार अवश्य किया जाता है, लेकिन आज की आर्थिक कठिनाइयों के समय में विशेषतः नगरीय क्षेत्रों में कई लड़के यह दायित्व निभाने को तैयार नहीं हैं। यदि सभी पुत्र मिलकर इस दायित्व को पूरा करें तब तो कोई कठिनाई नहीं आती, परन्तु यह भार जब एक पुत्र पर ही आ पड़ता है तो मानव की स्थिति पैदा हो जाती है। माता-पिता की परिवार में सर्वोपरि सत्ता होती है, परन्तु व्यवहार में वे आश्रितों की स्थिति में पहुंच जाते हैं। यह स्थिति काफी सीमा तक पारिवारिक तनाव के लिए उत्तरदायी बन जाती है। ग्रामीण क्षेत्रों से नगरों में शिक्षा प्राप्त करने हेतु आने वाले छात्र, कालान्तर में यह महसूस करने लगते हैं कि उनमें और उनके परिवार में कोई भी समानता नहीं रही। वे आधुनिक शिक्षा प्राप्त कर अपने आपको परिवार से भिन्न समझने लगते है। माता-पिता यह सोचते हैं कि उनकी आशा का केन्द्र उनका पुत्र उनसे दूर होता जा रहा है। यह स्थिति निराशा व तनाव को उत्पन्न करती हैं। नगरीय क्षेत्रों में परिवार के परिवर्तनीय प्रतिमानों से सम्बन्धित समस्याएं हैं जिनका समाधान आवश्यक है। आज आवश्यकता इस बात की है कि अनुसंधान कार्यों द्वारा वास्तविकता का पता लगाया जाए, सही स्थिति के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त की जाए और भारतीय परिवार (ग्रामीण एवं नगरीय) के कल्याण और विकास की दृष्टि से नए तरीकों को ढूँढ निकाला जाए।
सन्दर्भ सूची 1. Maclver and Page, Society. p. 9 2. K. Davis. Human Society. 3. "The family is a group defined by a sex-relationship sufficiently precise and enduring to provide for the proceating and up-bringing of the children."-Maclver & Page, Society, p. 238 4. Murdock, G.P., Social Structure. p. 1. 5. लूसी, मेयर, सामाजिक नृ-विज्ञान की भूमिका, हिन्दी अनुवाद, पृ. 89. |