हिंदी भाषा व साहित्य में शोध, नवाचार और रोजगार
ISBN: 978-93-93166-13-5
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शोध पत्र तैयार करना उसे प्रकाशित या पेटेंट कराना

 सुष्मिता बनर्जी
शोधकर्त्री
दर्शन और धर्म विभाग
बनारस हिंदू विश्वविद्यालय
वाराणसी  यूपी, भारत 

DOI:
Chapter ID: 16736
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सारांश:-
    ‘शोध में निरन्तर अभ्यास करना सात्विक तप है।‘ शोध वह क्रमबद्ध तथा वैज्ञानिक अध्ययन विधि है जिसके आधार पर सामाजिक घटनाओं के सम्बंध में हम नवीन ज्ञान की प्राप्ति करते हैं अथवा विद्यमान ज्ञान को विस्तृत या परिष्कृत करते हैं एवं विभिन्न घटनाओं के पारस्परिक सम्बन्धों की व उपलब्ध सिद्धान्तों की पुनः परीक्षा करते हैं।
शोध-प्रपत्र लेखन तथा प्रकाशन से शोधकत्ताओं को विभिन्न शोध-कार्यों के सम्बंध में जानने का अवसर प्राप्त होता है। किसी विशिष्ट शोध के क्षेत्र में किस प्रकार के शोध-कार्य किए जा रहे है. उनके संकलन में सहायता मिलती है। अपने शोध-कार्य पर प्रपत्र लिखने का आधार भी मिलता है जिससे शोध-कर्ता अपने लेखन द्वारा समाज को भी लाभान्वित करते है।
 
प्रस्तावना:-
शोध-प्रपत्र लेखन-आधुनिक युग ‘शोध का युग’ माना जाता है।1 एक उत्तम प्रकार का शोध-प्रपत्र लिखना कठिन कार्य है क्योंकि यह कार्य आलोचनात्मक, सर्जनात्मक तथा चिन्तन स्तर का है। ‘शोध-प्रपत्र लेखन में एक विशिष्ट प्रक्रिया का अनुसरण करना होता है जिसमें समुचित क्रम को अपनाया जाता है जिससे शोध-कर्ता की शक्ति एवं समय का अपव्यय नहीं होता है।’2
शोध-प्रपत्रों के लेखकों को साधारणतः दो स्त्रोतों का सहारा लेना होता है-प्राथमिक स्रोत तथा गौण स्रोत।3 इन स्त्रोतों के आधार पर मूल्यांकन किया जाता है। शोध-कर्ताओं को तथ्यों तथा विचारों में अन्तर समझना चाहिए। तथ्य वह होते हैं जिन्हें हम सभी सत्य स्वीकार कर लेते हैं। इन्हें सत्य सिद्ध करने हेतु किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती है। शोध-प्रपत्र में अनेक विचारधाराओं तथा निरीक्षणों को प्रस्तुत किया जाता है। इसमें किसी प्रकार की आशंका होने पर पुष्टि की जा सकती है। अतः एक शोधकर्ता को तथ्यों एवं विचारों का मिश्रण नहीं करना चाहिए। ऐसा करने से प्रपत्र का स्तर गिर जाता है। 
मुख्य शब्द:- 1. शोध-प्रपत्र, 2. शोधकर्ता, 3. सहकर्मी समीक्षा, 4. प्रकाशन, 5. पत्रिका, 6. संशोधित, 7. आलोचक, 8. विकास, 9. दृष्टि, 10. कौशल, 11. स्तर, 12. लेख।
 
साहित्यावलोकन:-
शोध-प्रपत्र का प्रारूप:-
शोध-प्रपत्र लिखने का कोई निश्चित प्रारूप नहीं है। प्रत्येक शोध-कर्ता अपने ढंग से प्रपत्र को लिखता है और प्रपत्र का निजी प्रारूप होता है।4 ‘‘शोध-प्रपत्रों के अवलोकन तथा अनुभवों के आधार पर एक व्यापक रूप-रेखा विकसित की जा सकती है। एक उत्तम प्रकार की रूपरेखा शोध-प्रपत्र के प्रारूप को तैयार करने में सहायक होती है। प्रपत्र लिखने में एक दिशा तथा प्रवाह के लिए उपयोगी होती है। शोध प्रपत्र तैयार करने से पूर्व प्रमुख बिन्दुओं की एक सूची तैयार करनी चाहिए और उन बिन्दुओं का स्तर तथा क्रम निर्धारित भी कर लेना चाहिए।
मुख्य पाठ:-
शोध-प्रपत्र के प्रारूप में तीन प्रमुख बिन्दुओं को सम्मिलित किया जाता है-
(अ) प्रस्तावना
(ब) विषयवस्तु, मुख्य अंग तथा
(स) शोध के प्रमुख निष्कर्ष
कुछ शोध-प्रपत्र को एक उद्धरण से आरम्भ करते हैं जो शोध से परोक्ष रूप में सम्बन्धित होता है।5 ‘इससे पाठकों में उत्सुकता तथा आकर्षण पैदा करते हैं, परन्तु वैज्ञानिक शोध के प्रपत्रों का आरम्भ एक सूक्ष्म समीक्षा से किया जाता है जिसमें शोध का सारांश प्रस्तुत किया जाता है। शोधकर्ता को उन सभी सन्दर्भों को सम्मिलित करना चाहिए जो प्रकरण के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। इससे लेखक की जानकारी तथा उसके अध्ययन का बोध होता है तथा विचारों एवं प्रत्ययों की विश्वसनीयता एवं वैधता बढ़ती है।
प्रस्तावना में शोध की समस्या की स्पष्ट रूप में परिभाषा दी जाती है। शोध का प्रमुख आशय प्रस्तुत किया जाता है और उसके महत्व का संक्षिप्त उल्लेख भी किया जाता है। 
विषय-वस्तु का मुख्य अंग शोध-प्रबन्ध से ही लिया जाता है। प्रपत्र में शोध क्रियाओं का संश्लेषण किया जाता है जिससे पाठक शोध निष्कर्षों की ओर अग्रसर होता है। शोध-प्रपत्र का रूप रचनात्मक तथा आलोचनात्मक होना चाहिए। प्रपत्र के रचनात्मक पक्ष में शोध की प्रमुख क्रियाओं को क्रमशः प्रस्तुत किया जाता है आलोचनात्मक पक्ष में शोध के कार्यों एवं निष्कर्षों का विवेचन आलोचनात्मक ढंग से किया जाता है और शोध के महत्व का भी उल्लेख करते हैं। अन्य ढंग में पहले शोध के निष्कर्षों व योगदान को प्रस्तुत किया जाता है। तत्पश्चात् उनके महत्व का आलोचनात्मक रूप में विवेचन किया जाता है। प्रपत्र के इस अंग का मुख्य लक्ष्य यह होता है कि जो कुछ शोध में किया गया है उसको प्रस्तुत किया जाए। शोधकर्ता को अपने विचारों की सन्तुष्टि सन्दर्भों, प्रदत्तों एवं सांख्यिकी के आधार पर अवश्य करनी चाहिए।’6
शोध-निष्कर्ष-शोधकर्ता को अपने प्रमुख निष्कर्षों को कथनों के रूप में प्रस्तुत करना होता है। निष्कर्षों के पक्ष एवं विपक्ष में तर्क भी देने चाहिए। अन्य शोध के निष्कर्षों की सहायता इसकी सन्तुति भी की जानी चाहिए। यदि निष्कर्षों की उपयोगिता किसी क्षेत्र में हो सकती है तब उसका भी उल्लेख करना चाहिए।
शोध-प्रपत्र के अन्त में सन्दर्भ सूची अवश्य देने चाहिए जिससे शोध-कार्य की वैधता बढ़ती है और शोध-कार्य के अध्ययन एवं जानकारी का भी बोध होता है। शोध प्रपत्र वर्तमान/भूतकाल में लिखा जाता है।7 अन्य पुरुष में वाक्यों की रचना की जाती है या शोधकर्ता का प्रयोग होता है।
शोध-प्रपत्र लेखन तथा प्रकाशन से अधोलिखित लाभ होते हैं-
1. शोधकर्ताओं का नवीन ज्ञान तथा शोध-कार्य के सम्बन्ध में जानकारी होती है।
2. शोधकर्ताओं के योगदान से उसी की ख्याति होती है। 
3. अन्य शोधकर्ता समान कार्य की पुनरावृत्ति से बच जाते हैं। किसी विशिष्ट शोध के क्षेत्र में किस प्रकार के शोध-कार्य किये जा रहे हैं, उनके संकलन में सहायता मिलती है।
4. शोधकर्ताओंको अपने शोध सर्वेक्षण तथा समीक्षा में प्रपत्रों से अधिक सुगमता हो जाती है।8
5. उस क्षेत्र के विशेषज्ञों को सुझाव तथा टिप्पणी करने का अवसर मिलता है।
6. शोधकर्ता को अपने शोध-कार्य पर प्रपत्र लिखने के लिए अनुभव होता है तथा आधार भी मिलता है।
7. शोध-प्रपत्र से शोधकर्ताओं को विभिन्न शोध-कार्यों के सम्बन्ध में जानने में समय, धन तथा शक्ति का अपव्यय नहीं होता है। 
शोध प्रकाशन:-
एक शोध-प्रपत्र को सहकर्मी समीक्षा (पीयर रिव्यू) किए गए पत्रिका में प्रकाशित करना अकादमिक समुदाय में एक उत्तम कार्य माना जाता है। इससे (शोधकर्ता के) शोध-कार्यों का विकास होता है। शोध-प्रपत्र प्रकाशित कराना सरल कार्य नहीं है, परन्तु एक उत्तम और रचनात्मक शोध-कार्य द्वारा इन कठिनाइयों से बचा जा सकता है। अपने सम्बन्धित विषय और लेखन शैली के अनुसार एक उत्तम प्रकार का अकादमिक पत्रिका को ढूँढना भी बहुत महत्वपूर्ण होता है जिससे शोधकर्ता अपने शोध-पत्र को इसमें शामिल कर सके और प्रकाशन हेतु व्यापक मान्यता के अवसरों को बढ़ा सके। शोध प्रकाशन हेतु निम्नलिखित बिन्दुएँ विचारणीय है-
1. अपने शोध-प्रपत्र को जमा कराना:- शोध निर्देशक से अपने शोध-प्रपत्र की समीक्षा करानी चाहिए। जिससे शोधकर्Ÿाा के शोध-प्रपत्र में किसी भी प्रकार के त्रुटियों से बचा सकता है। शोध-प्रपत्र में सदैव आवश्यक और सम्बन्धित विषय से समस्या को उठाना चाहिए। शोध-प्रपत्र सरल एवं स्पष्ट होना चाहिए।
2. शोध-प्रपत्र को आलोचकों की संस्तुति के आधार पर संशोधित करना:- शोध-प्रपत्र को दो या तीन लोगों से समीक्षा कराना चाहिए। शोध-प्रपत्र को स्पष्ट, आकर्षक और समझने में सरल योग्य बनाने के लिए विशेष प्रयास करना चाहिए। इससे शोध प्रपत्र के प्रकाशित होने की संभावना अधिक हो जाती है।
3. पत्रिका के अनुसार अपनी हस्तलिपि को आधार देना:- अपने शोध-प्रपत्र को इस प्रकार प्रारूप देना चाहिए जिससे यह उस प्रकाशन की दिशा-निर्देश का पालन करता हो। इसीलिए अधिकांशतः पत्रिकाएँ लेखक को निर्देश या लेखकी की मार्गदर्शिका नामक एक दस्तावेज देते हैं। यह दिशा-निर्देश शोधकर्ता द्वारा प्रपत्र के प्रस्तुत/जमा करने तथा पुनरावलोकन प्रक्रिया की जानकारी भी देगी। शोधकर्ता को एक बार में केवल एक ही पत्रिका में प्रस्तुत करना चाहिए।
4. पत्रिका से प्रारम्भिक प्रतिक्रिया मिलने पर:- एक सहकर्मी समीक्षा पत्रिका में जमा किए गए बहुत कम लेख को स्वीकृति प्राप्त होती है। यदि स्वीकृति प्राप्त होता है तो शोधकर्ता के लिए आनन्दित होने का समय है। अन्यथा अस्वीकृति मिलने पर पुनः विचार करना और संशेधन करना चाहिए। शोध-प्रपत्र के अस्वीकृति मिलने पर निम्नलिखित बिन्दुओं पर ध्यान देना चाहिए-
1. संशोधन सहित स्वीकार करें-आलोचकों द्वारा दिए गए प्रतिक्रिया के आधार पर केवल सामान्य संशोधन की आवश्यकता है।
2. संशोधित करें और पुनः जमा करें-प्रकाशन हेतु कुछ महत्वपूर्ण परिवर्तन की आवश्यकता है, परन्तु पत्रिका अभी भी शोधकर्ता के कार्य से प्रभावित हैं।
3. अस्वीकार करें और पुनः जमा करें-लेख स्वीकृति करने योग्य नहीं है परन्तु पर्याप्त परिवर्तन के पश्चात् शोध-प्रपत्र को प्रस्तुत करना चाहिए।
4. अस्वीकृति-शोध प्रपत्र इस प्रकाशन के लिए उपयुक्त नहीं है। परन्तु इसका यह तात्पर्य नहीं है कि यह किसी दूसरे पत्रिका में प्रकाशित नहीं हो सकता है। 
5. आलोचकों के टिप्पणी को रचनात्मक आलोचना के रूप में स्वीकार करना:- आलोचकों द्वारा मिलने वाले प्रतिक्रिया को रचनात्मक देना चाहिए। शोधकर्ता को अपने शोध-प्रपत्र पर पुनः कार्य करना चाहिए। शोध प्रपत्र को उत्तम बनाने के लिए एक लेखक के रूप में अपने कौशल का प्रयोग करना चाहिए।
6. प्रकाशित हेतु सही पत्रिका चुनाव:- संभवित प्रकाशन को जानना तथा प्रकाशित हो चुकी शोध-कार्य वर्तमान समस्याओं और क्षेत्र को जानना चाहिए। अपने विषय से सम्बन्धित अकादमिक पत्रिकाओं को पढ़ना चाहिए। ऐसे प्रकाशन का चुनाव करना जो शोधकर्ता के शोेध-प्रपत्र के लिए उपयुक्त हो।
हालांकि, हमेशा सहकर्मी समीक्षा लिए जाने वाले पत्रिका को प्राथमिकता देना चाहिए। जिसमें सम्बन्धित क्षेत्र के शोधकर्ता गुमनाम रूप से प्रस्तुत किए गए कार्यों की समीक्षा करते हैं। यह शोधकर्ता प्रकाशन के लिए बुनियादी मानक है।
7. अपने शोध-प्रपत्र को एक स्पष्ट दृष्टि देना:- शोधकर्ता को अपने शोध-प्रपत्र को मजबूत/दृढ़ करने के लिए प्रारम्भ से ही यह बताने का प्रयास करना चाहिए कि शोध-प्रपत्र क्या पता लगाता है अथवा जाँच करवाता है और सुनिश्चित करना कि बाद के प्रत्येक पैराग्राफ इसी दृष्टि पर चर्चा करता हो।
8. एक उत्तम सार लिखना:- सारांश से आलोचक पर शोधकर्ता के काम का प्रभाव पड़ता है, इसलिए इसे उत्तम रूप देना चाहिए। अनावश्यक चीजों का लेख में कोई स्थान नहीं देना चाहिए। अधिकांशतः पत्रिका लेख को बड़े पैमाने का विषय के विस्तार से परीक्षण के लिए स्थान नहीं देते हैं।
पत्रिका में शोध-प्रपत्र प्रस्तुत करने से पहले अधिक से अधिक लोगों को अपने सार को पढ़ने के लिए देना और उनसे प्रतिक्रिया प्राप्त करना चाहिए।
निष्कर्ष:-
शोध एक सोेद्देश्य प्रक्रिया है। शोध-प्रपत्र लेखन से कौशल एवं क्षमताओं का विकास होता है। शोधकर्ता के कौशल के विकास के साथ ही साथ दूसरे शोधार्थी भी उनसे लाभान्वित होते हैं। शोधकर्ता अपने एक्सेस जर्नल (पत्रिका) में प्रकाशित करके पाठकों की संख्या में क्रमशः वृद्धि कर सकते हैं। हालांकि यह ‘पियर-रिव्यू स्कॉलर पेपर’ की ऑनलाइन कोष मुफ्त में उपलब्ध है।
शोध से प्राप्त ज्ञान परिशुद्ध वैध तथा विश्वसनीय रहता है। प्राप्त जानकारी का अभिलेखन तथा प्रतिवेदन सावधानीपूर्वक किया जाता है जिससे उस क्षेत्र के आगामी अनुसंधानों हेतु वह सहज रूप से भविष्य में उपलब्ध हो सके। शोध के परिणामों का प्रकाशन इस दृष्टि से उत्तम रहता है। 
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची:-
1. डॉ0 आर0ए0 शर्मा-शिक्षा अनुसंधान के मूल तत्व एवं शोध प्रक्रिया, पृ0 536 (विनय खनेजा, मेरठ, 2016)
2. वही, पृ0सं0 536
3. वही, पृ0सं0 536
4. वही, पृ0सं0 536
5. वही, पृ0सं0 536
6. वही, पृ0सं0 536
7. वही, पृ0सं0 537
8. वही, पृ0सं0 537