शैक्षिक उन्नयन में यूजीसी, विश्वविद्यालय या महाविद्यालयों का योगदान
ISBN: 978-93-93166-32-6
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नई शिक्षा नीति 2020 का भविष्य

 मोहन लाल दायमा
सहायक आचार्य
राजनीति विज्ञान विभाग
स्व.श्री गुरुशरण छाबड़ा राजकीय महाविद्यालय
सूरतगढ़  राजस्थान  भारत

DOI:
Chapter ID: 17055
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बीज शब्दः राष्ट्रीय शिक्षा नीति, शिक्षा मंत्रालय, भारतीय उच्च शिक्षा आयोग, शिक्षा अनुदान, विश्वविद्यालय, विद्यालय, शिक्षा संस्कार, जीवन मूल्य।

नई शिक्षा नीति-2020 भारत की शिक्षा नीति का एक ऐसा नवीनतम संस्करण है, जो संपूर्ण शिक्षा प्रणाली को भारतीय ज्ञान पर केंद्रित करती है। जुलाई 2020 में जारी शिक्षा नीति (एनईपी 2020) देश की तीसरी ऐसी शिक्षा नीति है, जो पुरानी शिक्षा नीतियों के गुण-दोषों की समीक्षा कर अपने साथ एक नया दृष्टिकोण ले कर आई है। ये शिक्षा क्षेत्र के लिए 21 वीं सदी की पहली और सबसे व्यापक नीति है। इसलिए यह कहना गलत नहीं होगा कि इसमें जहां एक ओर भरपुर संभावनाएं है, वहीं दूसरी ओर संशय के बादल भी कम नहीं है।

केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने एनईपी 2020 को 21 वीं सदी की जरूरतों के हिसाब से एक दूरदर्शी शिक्षा नीति करार दिया है। उनका कहना था कि इस नीति के जरिए भारत में एक-एक छात्र की क्षमताओं का विकास सुनिश्चित हो सकेगा। साथ ही हम शिक्षा को सबके लिए सुलभ बनाते हुए क्षमताओं का निर्माण करने की दियाा में आगे बढेंगे। उनका विचार था कि नई शिक्षा नीति देश में शिक्षा से जुड़े परिदृश्य में आमूलचूल बदलाव लाएगी। उन्होंने जोर देकर कहा कि एनईपी भारत में शिक्षा को समग्र, सस्ता, सुलभ और न्यायपूर्ण बनाएगी। राष्ट्रीय शिक्षा नीति का विजन भारतीय मूल्यों से विकसित शिक्षा प्रणाली है जो सभी को उच्चतर गुणवत्ता से युक्त शिक्षा उपलब्ध करवाकर भारत को वैश्विक ज्ञान महाशक्ति बनाकर भारत को एक जीवंत और न्यायसंगत ज्ञान समाज में बदलने के लिए प्रत्यक्ष रूप से योगदान करेगी। अहम बात यह है  िकइस नीति में केंद्र व राज्य सरकार के सहयोग से शिक्षा के क्षेत्र पर देश की जीडीपी के 6 प्रतिशत हिस्से के बराबर निवेश का लक्ष्य रखा गया हैं।[1]

आजादी से पूर्व भारत की शिक्षा व्यवस्थाः भारत की शैक्षिक एवं सांस्कृति परम्परा का लंबा एवं गौरवशाली इतिहास रहा है। डॉ. अल्टेकर के अनुसार, वैदिक युग से लेकर अब तक भारतवासियों के लिये शिक्षा का अभिप्राययह रहा है कि शिक्षा प्रकाश का स्रोत है, तथा जीवन के विभिन्न कार्यों में यह हमारा मार्ग आलोकित करती हैं।

प्राचीन भारतीय शिक्षा व्यवस्था का उदय वेदों से माना जाता हैं। वैदिक काल में शिक्षा का मुख्य उदेश्य संस्कारों का विकास, आत्मा की पवित्रता तथा व्यक्तित्व के विकास के साथ-साथ मनुष्य को जीविकोपार्जन के लिए तैयार करना था। शिक्षा का प्रारम्भ उपनयन संस्कार से होता था।[2] बौद्धकालिन शिक्षा व्यवस्था का उदय बौद्ध धर्म के प्रचार व प्रसार के लिये हुआ था। इसका प्रारम्भ प्रव्रज्या संस्कार से होता था।  बौद्धकाल के बाद भारत में मुसलमनों ने इस्लाम धर्म व संस्कृति के प्रचार-प्रसार में शिक्षा का सहारा लिया। मुस्लिम शिक्षा का मुख्य उदेश्य भी  इस्लाम धर्म व मुस्लिम संस्कृति का प्रचार करना था।

 ब्रिटिश कालीन शिक्षा का प्रारम्भ ईसाई धर्म के द्वारा किये गये धर्म प्रचार के प्रयासों के फलस्वरूप हुआ था। सन् 1757 में ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने अपने शासन के स्थायित्व के लिए शिक्षा के प्रसार में रूचि दिखाई। चाल्र्स ग्राण्ट ने सन् 1792 में एक पंचसूत्रीय योजना प्रस्तुत की थी जिसमेें भारत में विद्यालयों की स्थापना, अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा, पाश्चात्य ज्ञान व विज्ञान का प्रसार तथा ईसाई धर्म के प्रचार की आवश्यकता पर पर बल दिया। इसके पश्चात 10 जून, 1834 को लार्ड मैकाले गवर्नर जनरल की काउसिंल का कानूनी सलाकार बन कर भारत आया। मैकाले ने भारत में शिक्षा का उदेश्य अंगे्रजी माध्यम से यूरोपीय साहित्य तथा विज्ञान का प्रचार करना घोषित किया जिससे पाश्चात्य तथा विज्ञान में रंगे भारतीय तैयार हो सके जो अंग्रेजी शासन में सहायक हो। 19 जुलाई, 1854 में सर चाल्र्स वुड ने अपना घोषणा-पत्र प्रस्तुत किया। घोषणापत्र में तत्कालीन शिक्षा व्यवस्था के पुनरीक्षण तथा भावी शैक्षिण पुनर्निर्माण के लिए नया दृष्टिकोण  प्रस्तुत किया। इसमें पहली बार छोटी कक्षाओं में प्रान्तीय भाषाओं को शिक्षा का माध्यम बनाने, अध्यापकों का प्रशिक्षण प्रारम्भ करने तथा विश्वविद्यालयों की स्थापना के प्रावधान की बात कही गई थी।

1880 में लॉर्ड रिपन को भारत का गवर्नर जनरल नियुक्त किया गया। लॉर्ड रिपन ने 3 फरवरी, 1882 को भारतीय शिक्षा आयोग का गठन किया। इसे हण्टर कमीशन के नाम से भी जाना जाता है। आयोग ने सात माह तक भारत के विभिन्न भागों का भ्रमण किया और 770 पृष्ठों का एक दस्तावेज मार्च 1883 में सरकार को प्रेषित किया। इस आयोग के तहत दो विश्वविद्यालयों (पंजाब विश्वविद्यालय,1882 तथा इलाहाबाद विश्वविद्यालय, 1887) की स्थापना की गई।

20 वीं शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों में देश में राजनीतिक अस्थिरता का वातावरण था। निजी प्रबंधन के तहत सरकार की धारणा यह थी कि  शिक्षा के स्तर में गिरावट आ रही है, तथा शिक्षण संस्थान राजनीतिक क्रांतिकारियों को पैदा करने वाले कारखाने मात्र बनकर रह गये है। अतः 1902 में सर टाॅमस रैले की अध्यक्षता में एक आयोग गठित किया गया जिसका उदेश्य विश्वविद्यालयों की स्थिति का आंकलन करना तथा उनकी कार्यक्षमता एवं उनके संविधान के विषय में सुझाव देना था। इसकी सिफारिशों के आधार पर 1904 में भारतीय विश्वविद्यालय अधिनियम पारित किया गया। इस अधिनियम में गुणवता एवं दक्षता के नाम पर विश्वविद्यालयों पर अंगे्रजी सरकार का कड़ा नियंत्रण स्थापित हो गया।[3] वर्ष 1917 में सरकार ने लीड्स विश्वविद्यालय के उप-कुलपति डाॅ. एम.ई. सैडलर की अध्यक्षता में एक आयोग गठित किया जिसका कार्य कलकता विश्वविद्यालय की समस्याओं का अध्ययन कर इसकी रिर्पोट सरकार को देना था। यद्यपि यह आयोग केवल कलकता विश्वविद्यालय से ही संबंद्ध था किंतु इसकी सिफारिशें भारत के अन्य विश्वविद्यालयों के संबंध में भी लागू हो रही थी। आयोग ने सुझाव दिया कि यदि विश्वविद्यालाई शिक्षा में सुधार करना है, तो पहले माध्यमिक शिक्षा के स्तर में सुधार लाना होगा।

आजादी के पश्चात शिक्षा व्यवस्थाः  आजादी के बाद नवंबर 1948 में विश्वविद्यालय शिक्षा में सुधार हेतू राधाकृष्णन आयोग का गठन किया गया था।  आयोग की सिफारिशों के आधार पर 1953 में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग का गठन किया गया तथा 1956 में संसद द्वारा कानून बनाकर इसे स्वायतशासी निकाय का दर्जा दे दिया गया। आयोग का कार्य विश्वविद्यालय शिक्षा की देखरेख करना, विश्वविद्यालयों में शिक्षा एवं शोध संबंधी सुविधाओं के स्तर की जांच करना तथा उनमें समन्वय स्थापित करना था।

आगे चलकर उच्चशिक्षा के क्षेत्र में गुणात्मक सुधारों हेतू जुलाई 1964 में डाॅ. डी.एस. कोठारी की अध्यक्षता में एक उच्चस्तरीय आयोग का गठन किया गया। इसका कार्य शिक्षा के सभी पक्षों तथा चरणों के विषय में साधारण सिद्धांत, नीतियों एवं राष्ट्रीय नमूने की रूपरेखा तैयार कर उनसे सरकार को अवगत करना था। आयोग को अमेरिका, रूस, इंग्लैण्ड एवं यूनेस्कों के शिक्षा-शास्त्रियों एवं वैज्ञानिकों की सेवायें भी उपलब्ध करायी गयी थी।[4] आयोग ने  वर्तमान शिक्षा पद्वति की कठोरता की आलोचना की तथा शिक्षा नीति को इस प्रकार लचीला बनाये जाने की आश्यकता पर बल दिया जो बदलती हुयी परिस्थितियों के अनुकूल हो। आयोग की सिफारिश के आधार पर 1968 में देश की पहली राष्ट्रीय शिक्षा नीति की घोषणा की गयी। जिसने भारत के भविष्य की शिक्षा व्यवस्था की नींव रखी । इसके पश्चात 1986 में भारत सरकार ने नई शिक्षा नीति 1986 का प्रारूप तैयार किया।  देश की दूसरी राष्ट्रीय नीति मई 1986 में राजीव गांधी सरकार के समय लगाू की गईं। यह शिक्षा के आधुनिकीरण पर केंद्रित थी। संस्थानों को आधारभूत संरचना जैसे- कंप्यूटर और पुस्तकालय जैसे संसाधन उपलबध कराना था। इस नीति को 1992 में पीवी नरसिंह राव सरकार ने संशोधित किया । इसके उपंरात 2009 में राष्ट्रीय निशुल्क एवं अनिर्वाय शिक्षा कानून पारित हुआ। जिसका मूल उदेश्य 6 से 14 वर्ष के बच्चों को निशुल्क शिक्षा प्रदान करना था। इसके पश्चात उच्च शिक्षा में यूजीसी ने 2017 में इंस्टीटूट ऑफ ऐमिनेंस डीम्ड टू यूनिवर्सिटी नियमन 2017 भी जारी किया जो निसंदेह उच्च शिक्षा के क्षेत्र में बड़ा बदलाव था। अब 34 वर्षों के पश्चता टीएसआर सुब्रमण्यम समिति की रिर्पोट के बाद कस्तुरीरंगन समिति का गठन किया गया । इस समिति ने अपनी रिर्पोट 31 मई, 2019 में प्रकाशित की, नवीन शिक्षा नीति 2020 काफी हद तक इन्हीं की अनुशंसा पर आधारित है।[5]

हालांकि, नई शिक्षा नीति को लागू हुए दो साल चार माह से अधिक का समय हो गया है। इस कालखंड के दौरान दुनिया ने कोविड-19 जैसी वैश्विक महामारी का सामना किया। भारत में भी स्वाथय संकट के चलते कई चुनौतियां पैदा हुई। इन चुनौतियों के बावजूद एनईपी ने कुछ अहम पड़ाव पार किए है। आने वाले दशकों में इस व्यापाक शिक्षा नीति के सामने बड़ी चुनोतियां क्या-क्या है। प्रस्तुत शोध पत्र में इन्हीं सब बिन्दुओं पर चर्चा किए जाने का प्रयास किया गया है।

राष्ट्रीय शिक्षा नीतिः चुनौतियां और आशंकाए- हालांकि, नई शिक्षा नीति-2020 के माध्यम से शैक्षिक ढांचे को बेहतर बनाने का सरकार का प्रयास अपने आप में एक सराहनीय कार्य है, और इसने कुछ हद तक रफतार पकड़ी है। लेकिन इसको पूरी तरह से अमल में लाने का रास्ता रूकावटों से भरा हुआ।[6] उदाहरण के लिए एक तिहाई बच्चे प्राथमिक शिक्षा पूरी करने से पहले स्कूल छोड़ देते है। यह उल्लेखनीय है कि अधिकांश बच्चे, जो स्कूल जाने में असमर्थ है, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति, धार्मिक अल्पसंख्यकों और दिव्यांग समूहों से संबंधित है। इसके अतिरिक्त एक अहम चुनौती बुनियादी ढांचे की कमी से संबंधित है। आमतौर पर देखा गया है कि स्कूलों और विश्वविद्यालयों में बिजली, पानी, शौचालय, चारदीवारी, पुस्तकालय, कंप्यूटर आदि की कमी है। जिसके परिणाम स्वरूप शिक्षा प्रणाली के मनचाहे परिणाम प्राप्त नहीं हो पाते हैं। हालही में यूजीसी के एक सर्वेक्षण के अनुसार कुल स्वीकृत शिक्षण पदों में से प्रोफेसर के 35 प्रतिशत, एसोसिएट प्रोफेसर के 46 प्रतिशत पद और 26 प्रतिशत सहायक आचार्य के पद भारतीय उच्च शिक्षा संस्थानों में रिक्त है।

शिक्षा नीति में  त्रिभाषा की नीति भी चुनौती पेश कर रही है, जिसमें गैर-हिंदी को तीसरी भाषा बनाने की सिफारिश की गई है। तीन भाषा सूत्र नया नहीं है। और पिछली शिक्षा नीतियों में 1968 और 1986 में इसकी पहले से ही सिफारिशकी गई थीं बच्चों को मातृ भाषा या स्थानीय भाषा में पढ़ाने को लेकर भी कई तरह की अनिश्चितंताएं है। उदाहरण के लिए दिल्ली जैसे केन्द्र शासित प्रदेश में देश के अलग अलग राज्य से आए हुए लोग रहते है। ऐसे में एक ही स्कूल में अलग-अलग मातृ भाषा को जानने वाले बच्चे होंगे। लिहाजा सवाल यह पैदा होता है कि उन बच्चों का माध्यम क्या होगा। द्वितीय, एक बड़ा सवाल यह भी है कि क्या अंग्रेजी माध्यम वाले स्कूल मातृ भाषा वाले कंस्पट को अपनाने के लिए तैयार होंगे। इसी तरह कुछ और भी बिंदू है जिन पर अभी उंहापोह की स्थिति है। वर्तमान समय में व्यापारिकरण, व्यवसायीकरण तथा नीतिकरण ने शिक्षा क्षेत्र को अपनी जकड़ में ले लिया है, ऐसे में शिक्षा जैसे पवित्र कार्य को पुंजीपतियों व धन्ना सेठों के दुश्चक्र से बाहर निकालने की चुनौती भी सरकार के सामने बनी हुई है।[7]

हालांकि, शिक्षा जगत से ताल्लुक रखने वाले विभिन्न किरदारों के बीच नई शिक्षा नीति के उदेश्यों ओर लक्ष्यों के प्रति दिलचस्पी पैदा करने और जागरूकता बढ़ाने में सरकार ने सराहनीय कार्य किया है। 10 दिन चला शिक्षा पर्व इसका सर्वोतम उदाहरण है। इस दौरान राष्ट्रीय स्तर पर कई कार्यक्रमों का आयोजन किया गया। इन आयोजनों में प्रधानमंत्री समेत देश के आला अधिकारियों ने भाग लिया। इतना ही नहीं शिक्षा नीति के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए सरकार ने  मानव संसाधन विकास मंत्रालय (एमएचआरडी) का नाम बदलकर शिक्षा मंत्रालय कर दिया है। यद्यपि भारत जैसे विविधता से भरपूर और लंबे-चैड़े क्षेत्रफल और जनसंख्यावाले देश में राष्ट्रीय शिक्षा नीति के निर्धारित लक्ष्यों को शतप्रतिशत पाना मुश्किल तो जरूर लग रहा है, लेकिन असंभव कतई नहीं है।

निष्कर्षः संक्षेप में कहा जाए तो एनईपी-2020 भारतीय ज्ञान पर केंद्रित शिक्षा नीति है। जिसके जरिए हमारा राष्ट्र एक ऐसा समाज बन सकता है, जहां ज्ञान की अविरल धारा में उपलब्धियों का कोष समृद्ध होता रहेगा। हमारी वर्तमान शिक्षा प्रणाली स्नातकों में अनुसंधान के लिए रूचि या उसके लिए उपयुक्त माहौल तैयार करने में सफल रहेगी। एनईपी-2020 से नए पेटंेट हासिल करने और ज्ञानवर्धक किताबों के प्रकाशनों में हम नए मानक स्थापित कर सकेगें। कहना गलत नहीं होगा कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 नए भारत के उदय के लिए सरकार द्वारा उठाया गया एक क्रांतिकारी कदम है।

संदर्भः

1. नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 का संक्षिप्त विवरण, राज आएएएस, 9 सिंतबर, 2020

2. भारतीय शिक्षा का इतिहास एवं विकास, एचयुतकुमार 6 नवंबर, 2021.

3. भारत में शिक्षा का विकास 22 जुलाई, 2015 ीजजचेरूध्ध्अपअंबमचंदवतंउंण्बवउ

4. भारत में शिक्षा का विकास 22 जुलाई 2015 ीजजचेरूध्ध्अपअंबमचंदवतंउंण्बवउ

5. नई शिक्षा नीतिः संभावनाएं एवं चुनौतियां, नित्यासिंह 5 अगस्त, 2020 ूूूांउहंतचवेज

6. नई शिक्षा नीतिः मनचाहे नतीजे पाने के लिये हमें इन पांच चुनौतियांे से सफलतापूर्वक निपटना होगा, निरंजन सहू 13 दिसंबर, 2021 ओआरएफ.

7. शिक्षा नीति से जुड़ी चुनौतियां, डाॅ. विरेन्द्र भाटियां, दिव्य हिमाचल, 8 सिंतबर 2021