|
शिक्षा में प्रौद्योगिकी का योगदान ISBN: 978-93-93166-33-3 For verification of this chapter, please visit on http://www.socialresearchfoundation.com/books.php#8 |
शैक्षिक अर्थशास्त्र के सन्दर्भ में पंडित दीनदयाल उपाध्याय के विचार : एक समीक्षात्मक अध्ययन |
समीर कुमार जायसवाल
शोधार्थी
प्राचीन भारतीय इतिहास एवं संस्कृति विभाग
आई.ओ.पी.
वृंदावन, मथुरा उत्तर प्रदेश, भारत
|
DOI: Chapter ID: 17300 |
This is an open-access book section/chapter distributed under the terms of the Creative Commons Attribution 4.0 International, which permits unrestricted use, distribution, and reproduction in any medium, provided the original author and source are credited. |
संक्षेपण शिक्षा एक सोद्देश्य प्रक्रिया है। इसका मानव-जीवन के
साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है। स्वयं जीवन की सार्थकता शिक्षा पर निर्भर करती है और
शिक्षा की सार्थकता उसके उन उद्देश्यों पर जो समाज, देश और
काल की परिस्थितियों को निर्धारित करते हैं। अशिक्षित व्यक्ति आधुनिक, उन्नत, संश्लिष्ट एवं जटिल समाज के लिए
भारस्वरूप होता है क्योंकि, शिक्षा के अभाव में व्यक्ति न तो बदलते सामाजिक परिवेश
के साथ समायोजित हो सकेगा और न ही उससे समाज की प्रगति में पूर्ण एवं वान्छित
सहयोग की अपेक्षा ही की जा सकती है। ऐसी स्थिति में आवश्यक है कि प्रत्येक व्यक्ति
शिक्षित हो। जहाँ तक शैक्षिक
अर्थशास्त्र के सन्दर्भ में पं. दीनदयाल
उपाध्याय के विचारों की बात है तो यह सर्वविदित है कि वे एक राष्ट्रवादी चिंतक थे, जिन्होंने न केवल अपनी पीढ़ी को आने वाले भारत की तर्कसंगत
सांस्कृतिक स्वस्थ विरासत की लोकांक्षी कहानियाँ सुनायीं अपितु, उन्हें मूर्त रूप
देने का संघर्षपूर्ण और न्यायसम्मत वैचारिक दृष्टि भी प्रदान की। वस्तुतः उन्होंने
सांस्कृतिक नींव पर ही शिक्षा के ठोस भवन निर्मित करने का संकल्प लिया था और अपने
इसी संकल्प के आधार पर ही उन्होंने शिक्षा में आर्थिक नियोजन की महत्ता को रेखांकित किया। कुंजी शब्द- शिक्षा, अर्थ, निवेश, तकनीकि, प्रौद्योगिकी, प्रतिफल। प्रस्तावना- पं. दीनदयाल शिक्षाविद् होने के साथ-साथ एक अर्थ-चिंतक
भी थे। यही कारण है कि एक ओर जहाँ उन्होंने यह अनुभव किया कि शिक्षा जीवन के लिए
है और जीने के लिए जीवकोपार्जन करना आवश्यक है, वहीं
दूसरी ओर अर्थ-चिंतक के रूप में यह माना कि सम्पत्ति के उत्पादन में श्रम का जो
महत्व है वह शिक्षा के कारण है क्योंकि, अशिक्षित व्यक्ति की अपेक्षा शिक्षित
व्यक्ति अधिक कार्यकुशल होता है। इसी शैक्षिक अर्थशास्त्र पर उन्होंने व्यक्ति, समाज और राष्ट्र का चिंतन कर भारतीय संस्कृति को समृद्ध बनाने का प्रयास
किया। यदि आर्थिक दृष्टि से विचार किया जाए तो यह ज्ञात
होता है कि शिक्षा पर किया जाने वाला सम्पूर्ण व्यय एक प्रकार का दीर्घकालिक पूँजी
निवेश है। आलोच्य है कि पूँजी निवेश का लक्ष्य ही यही होता है कि पूँजी को ऐसे
कार्यों में लगाना जिससे भविष्य में कुछ आय हो। वर्तमान में बालक की शिक्षा पर
होने वाले व्यय का भी यही उद्देश्य होता है कि वह शिक्षित होकर धन के उत्पादन में
वृद्धि करेगा। यह सत्य है कि ऐसा निवेश अधिकांशतः दीर्घकालिक होता है। यद्यपि कुछ
बालक प्राथमिक शिक्षा ग्रहण करने के उपरान्त ही किसी उद्यम, व्यवसाय किंवा कृषि कार्य मे लग जाते हैं तथापि वे
अशिक्षित व्यक्ति की अपेक्षा अधिक कुशलता से अपना कार्य करके आय में वृद्धि करते
हैं। इसी प्रकार कुछ बालक माध्यमिक शिक्षा ग्रहण करने के उपरान्त उद्यम करना
प्रारम्भ कर देते हैं। ऐसे बालक भी प्राथमिक शिक्षा प्राप्त व्यक्ति से अधिक
कुशलतापूर्वक कार्य करके अपनी आय में वृद्धि करते हैं। यह प्रक्रम आगे भी दिखाई
देता है जब उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाला बालक माध्यमिक शिक्षा प्राप्त व्यक्ति
की अपेक्षा अपना कार्य कुशलतापूर्वक करके अपनी आय में वृद्धि करता है। अस्तु, शिक्षा द्वारा न केवल कार्य कुशलता में वृद्धि होती है अपितु, आय में भी वृद्धि
होती है। एतदर्थ, शिक्षा पर किया जाने वाला व्यय पूँजी
निवेश की भांति भावी आय का माध्यम होता है। ज्ञातव्य है कि शिक्षा द्वारा जो लाभांश प्राप्त होता
है वह गुणात्मक एवं गणनात्मक होता है। शिक्षा के किसी विशेष पक्ष पर जो व्यय किया
जाता है उस पर भी विशिष्ट लाभ की प्राप्ति होती है। अतएव शिक्षा एक उत्तम निवेश
है। निवेश के इस प्रत्यय को निम्न उदाहरण द्वारा भली-भांति समझा जा सकता हैः- एक सज्जन के मित्र ने उनसे पूछा की उन्होंने अपने पुत्र
को विदेश में पढ़ाने के लिए कितनी पूँजी की व्यवस्था की है? सज्जन ने उत्तर दिया “अभी दो
लाख रूपये की व्यवस्था हुई है।” मित्र ने कहा कि “मेरी दृष्टि से विदेश पढ़ने भेजना अनुचित है क्योंकि शिक्षा पूर्ण करने के
उपरान्त पाँच अंकों में वेतन कहीं नहीं मिलेगा और यदि मिलेगा तो घर से दूर पुत्र
को रहना पड़ेगा। अच्छा होगा कि दो लाख रूपये बैंक में जमा कर दिए जाए तब प्रतिमाह
ब्याज भी मिलेगा और मूलधन भी सुरक्षित रहेगा।” सज्जन
ने कहा “यह आपकी समझ से परे है।” वास्तव में उनके मित्र शिक्षा निवेश को भौतिक प्रदा तक ही समझ सके जबकि, शिक्षा निवेश का लाभ भौतिक और आध्यात्मिक दोनों ही प्रकार का होता है। मित्र की
समझ में गुणात्मक भावी प्रदा का अनुमान लगाना दुष्कर था, वहीं सज्जन ने इसी भावी
गुणात्मक प्रदा को महत्व दिया था। स्पष्ट है कि शिक्षा पर जो व्यय किया जाता है उससे
भौतिक सम्पत्ति का सृजन नहीं होता अपितु, निहित गुण (ज्ञान, कौशल एवं मूल्य) का विकास होता है। इसे ही शिक्षा का
परिणाम एवं उत्पादन कहा जाता है जो व्यवहृत तथा आचरण के रूप में तो दृश्य है
परन्तु, भौतिक स्वरूप में अदृश्य होता है। पं. दीनदयाल भी आर्थिक निवेश के रूप में शिक्षा को
स्वीकार करते हैं। उनके अनुसार शिक्षा एक प्रकार का विनियोजन है और इस नियोजन में
समाज की महत्वपूर्ण भूमिका है। अपने मत के समर्थन में वह कहते हैं कि ‘‘शिक्षा का सम्बन्ध जितना व्यक्ति से है उससे अधिक समाज
से है। हम ऐसे मनुष्य की कल्पना कर सकते हैं, जिसे किसी
भी प्रकार की शिक्षा न मिली हो, और जो अपनी सहज प्रवृत्तियों के सहारे ही जीवन
यापन करता हो परन्तु, शिक्षा के अभाव में समाज सम्भव
नहीं। यदि ‘शिक्षा’ न हो तो ‘समाज’ का जन्म ही न हो। अतः शिक्षा के प्रश्न
को मूलतः सामाजिक दृष्टिकोण से ही देखना होगा। शास्त्रों के अनुसार यह ऋषि-ऋण है
जिसे चुकाना हर एक का दायित्व है। व्यक्ति शिक्षित होने पर समाज के लिए ही कार्य करता है।
एतदर्थ समाज को शिक्षा व्यवस्था का बोझ वहन करना चाहिए। इस व्यय से भावी आर्थिक
विकास में बड़ा योगदान मिलता है। राष्ट्रीय विकास की विभिन्न क्रियाओं को करने हेतु
शिक्षा विभिन्न कौशलों और शिल्पों में प्रशिक्षित जनशक्ति उत्पन्न करती है।
संस्थाओं में प्रभावोत्पादक कार्य करने के लिए उन्हें उचित ज्ञान और अभिव्यक्ति
देती है। यह शान्ति, साझेदारी, सहयोग और सहकारिता के सामाजिक वातावरण की सृष्टि करती है, जिससे कार्य सुगमता से चलता है। यदि शिक्षा यह सब न करे तो उत्पादन के
कारखाने ठप्प हो जाएं। तकनीकि और व्यावसायिक शिक्षा का मानव साधनों को उन्नत बनाने
में सीधा प्रभाव पड़ता है। सामान्य शिक्षा नये विचार देकर उनकी आकांक्षाओं को
उत्प्रेरित करती है और परिवर्तनों में समायोजन करने की शक्ति देती है। इस प्रकार
इन दोनों की सहायता से उत्पादन में वृद्धि होती है। यह शिक्षा का निवेशात्मक
तत्व है। शिक्षा के इस निवेशात्मक तत्व को जानने के लिए
समय-समय पर अनेक खोज एवं शोध हुए हैं। इन सांख्यिकीय खोजों के कुछ निष्कर्ष इस
प्रकार है:- 1. किसी उद्योग-धन्धे में किया गया निवेश और श्रमिकों से एक निश्चित लाभ की
अपेक्षा की जाती है। अधिकांशतः देखा जाता है कि इस अपेक्षित लाभ से कहीं अधिक लाभ
होता है। इस अधिक लाभ का क्या कारण हो सकता है। सर्वप्रथम लोगों ने इसका कारण
तकनीकि परिवर्तन समझा था परन्तु, अर्थशास्त्रियों का
विचार है कि अवशेष लाभ का प्रमुख कारण शिक्षा है, जो
श्रमिकों को दी जाती है और जिससे उनकी आर्थिक उत्पादन शक्ति में अभिवृद्धि होती
है। इस अवशेष घटक ने कुछ देशों में आधी तक आर्थिक वृद्धि की है। 2. निर्धन राष्ट्रों की अपेक्षा अमीर राष्ट्रों में अधिक अच्छी शिक्षा
प्राप्त लोगों की संख्या ज्यादा होती है। यदि एक ही राष्ट्र को उसके ऐतिहासिक
परिप्रेक्ष्य में देखा जाय तो ज्ञात होता है कि जब वह निर्धन था तब उसमें अशिक्षित
अधिक थे किन्तु, जब वह सम्पन्न हुआ तो शिक्षितों की संख्या में वृद्धि हो गयी। 3. विभिन्न स्तरों तक
शिक्षित व्यक्तियों के जीवनवृति के उपार्जन की तुलना करने से पता चलता है कि
शिक्षा व्यय के लिए प्रतिफल की दर 10 से 30 प्रतिशत होती है। जहाँ शिक्षा निःशुल्क
दी जाती है, वहाँ व्यक्ति के प्रतिफल की दर
और भी अधिक हो जाती है। इसी परिप्रेक्ष्य में दीनदयाल लिखते हैं कि ‘‘बच्चे को शिक्षा देना समाज के अपने हित में है। जन्म से मानव पशुवत पैदा
होता है। शिक्षा और संस्कार से वह समाज का अटूट अंग बनता है। जो कार्य समाज के
अपने हित में हो, उस मद में शुल्क लिया जाए तो उल्टी बात है।
कल्पना करें कि कल को शिक्षा शुल्क बहिष्कार करके अथवा उसे देने में असमर्थ होने
के कारण पढ़ना बन्द कर दें। क्या समाज इस स्थिति को सहन करेगा? वृक्ष लगाने और सींचने के लिए हम वृक्ष से धन नहीं लेते। हम तो अपनी ओर से
धन लगाते हैं और अवगत रहते हैं कि वृक्ष के फलने पर हमें फल ही मिलेंगे। शिक्षा भी
एक ऐसा ही निवेश है। व्यक्ति समाज के लिए तभी कार्य करेगा जब वह शिक्षित हो परन्तु, जो व्यवस्था बचपन से हमें व्यक्तिनिष्ठ बनाती हो उनमें समाज की अवहेलना करने वाले
निकलें तो अचरज नहीं करना चाहिए। भारत में 1947 से पूर्व देशी राज्यों में कहीं भी
शिक्षा शुल्क नहीं लिया जाता था। उच्चतम श्रेणी तक शिक्षा निःशुल्क थी। गुरूकुलों
में तो भोजन व निवास की व्यवस्था भी आश्रम में होती थी। मात्र भिक्षा माँगने के
लिए ब्रह्मचारी समाज में आता था। कोई भी गृहस्थ ब्रह्मचारी को खाली नहीं लौटाता था
अर्थात्, समाज द्वारा शिक्षा की व्यवस्था की जाती थी।” 4. विकास की अभिवृद्धि होने पर अर्थव्यवस्था के ढाँचे में जो परिवर्तन कर
दिये जाते हैं उनसे अधिक निपुण जनशक्ति की आवश्यकता बढ़ जाती है और कम निपुण
जनशक्ति की माँग कम पड़ जाती है। उक्त विवरण से स्पष्ट है कि अमीर अथवा निर्धन कोई भी
देश जो लगातार अपना आर्थिक विकास करना चाहता है, उसे अपनी
शिक्षा प्रणाली पर पर्याप्त ध्यान देना चाहिए। शिक्षा के निवेश पर बल देने से मानव
में भावी उत्पादन योग्यताएं बढ़ती हैं, जो देश के मानवीय
उत्पादन साधनों को उन्नत बनाती हैं। त्वरित आर्थिक उन्नति का मूल तत्व तकनीकि
विकास है, और आधुनिक तकनीकि प्रविधियों का लाभ उठाने के लिए यह आवश्यक है कि अधिकतर
श्रमिक न केवल अपनी विशिष्टता में अच्छी तरह प्रशिक्षित हों, वरन् उत्तम सामान्य शिक्षा और व्यावहारिक विज्ञानों का भी ज्ञान रखें। शिक्षा में किया जाने वाला निवेश किसी भी राष्ट्र की राष्ट्रीय आय बढ़ाने में निम्नलिखित प्रकार से प्रभाव डालता है:- 1. यदि किसी भी देश में सर्वसाधन सुलभ हैं किन्तु, निपुण जनशक्ति का आभाव है तो शिक्षा क्षेत्र में निवेश करने पर प्रतिव्यक्ति आय में अभिवृद्धि होगी। 2. आधुनिक प्रौद्योगिक समाज में जनशक्ति की आवश्यकताएं खर्चीली और
परिवर्तनशील हैं। अतः शिक्षा को सभी प्रकार के मानवीय कौशल और शिल्पों की पूर्ति
एवं पोषण करना चाहिए। 3. आधुनिक समाज के परिवर्तन, अर्थात् विकास का आधार उस समाज की शिक्षा प्रणाली
है। अतः वह शोध की व्यवस्था करके उसके परिणामों से आर्थिक उन्नति की स्वतः गारण्टी
देता है। 4. कुशल शिक्षा प्रक्रिया से एक स्वस्थ और कुशल सामाजिक संरचना होती है। इस
समाज में नये विचारों का चिन्तन-मनन, विचार-विमर्श तथा
नयी प्रवृत्तियों और अभिवृत्तियों को लोग स्वीकार करने के लिए तत्पर रहते हैं। निवेश से शिक्षा में जो सुधार होता है वह गुणात्मक
होता है। इसलिए इसका संख्यात्मक नाप-तौल नहीं हो सकता। यह कठिनाई मात्र शिक्षा के
प्रतिफलों के साथ है; यह कहना अनुचित है। यह कठिनाई तो किसी बाँध के प्रतिफलों के
साथ भी हो सकती है, जो फसलों की सिंचाई करता है और
व्यापक शक्ति देता है। सड़क के प्रतिफलों के साथ भी हो सकती है, जिससे यातायात करके समाज लाभान्वित होता है। यहाँ यह ध्यान देना आवश्यक है कि जब शिक्षा से
प्रतिफल मिलने आरम्भ होते हैं तो निवेश की पूर्ति इतनी जल्द अवधि में हो जाती है
जितनी अवधि में अन्य क्षेत्र में किये गए निवेश से होती है। शिक्षा के प्रतिफल
व्यष्टि और समष्टि को जीवन पर्यन्त मिलते रहते हैं किन्तु, शिक्षित व्यक्ति समाज
के लिए ही कार्य करेगा, यह आवश्यक नहीं है। प्रायः लोग
शिक्षा प्राप्त कर समाज से विमुख हो जाते हैं। इसलिए उसकी उपेक्षा करते हैं। अस्तु, इस कमी के कारण शिक्षा केवल पुस्तकीय, अव्यावहारिक एवं
जीवन से दूर करने वाली बन गयी है। इसके अतिरिक्त, तकनीकि एवं वैज्ञानिक शिक्षा लेकर
उससे कुछ आर्थिक लाभ कमाने में असमर्थता और बेकारी भी रहती है। इस ओर शिक्षा
नियोजकों एवं आर्थिक नियोजकों को एक साथ मिलकर कार्य करना चाहिए तथा प्रशासकों को
अपनी पुरानी नीति बदलनी चाहिए और शिक्षा को राष्ट्र के आर्थिक विकास में एक निवेश
समझना चाहिए। सन्दर्भ ग्रन्थ सूची- (1) शर्मा, डॉ. आर.ए., शिक्षा अर्थशास्त्र, आर.एल. बुक डिपो, मेरठ; 2010 (2) सिंह, अमरजीत, मैं दीनदयाल उपाध्याय बोल रहा हूँ, प्रभात
पेपरबैक्स, नई दिल्ली; 2017 (3) उपाध्याय, दीनदयाल, राष्ट्र चिंतन, लोकहित प्रकाशन, लखनऊ; 2014 (4) गुप्ता, प्रो.
एम.एल., समाजशास्त्र, साहित्य
भवन पब्लिकेशन्स, आगरा; 2002 (5) शर्मा, डॉ. महेश
चन्द्र, दीनदयाल उपाध्याय: सम्पूर्ण वाङ्मय, खण्ड-5, प्रभात पेपरबैक्स, नई दिल्ली; 2016 (6) शर्मा, डॉ. महेश चन्द्र, दीनदयाल उपाध्याय: कर्तृत्व एवं विचार, प्रभात पेपरबैक्स, नई दिल्ली; 2018 |