|
भगवान गौतम बुद्ध एवं भारतीय समाज (बौद्ध धर्म के उदय से 12वी शताब्दी तक) ISBN: 978-93-93166-10-4 For verification of this chapter, please visit on http://www.socialresearchfoundation.com/books.php#8 |
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में भगवान बुद्ध की शिक्षाओं का सामाजिक वैशिष्ट्य |
डॉ रूचि श्रीवास्तव
असिस्टेंट प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्ष
प्राचीन इतिहास, पुरातत्व एवं संस्कृति विभाग
महिला महाविद्यालय, बस्ती
उत्तर प्रदेश, भारत
|
DOI: Chapter ID: 17687 |
This is an open-access book section/chapter distributed under the terms of the Creative Commons Attribution 4.0 International, which permits unrestricted use, distribution, and reproduction in any medium, provided the original author and source are credited. |
आज व्यक्ति और समाज दोनों ही विविध भौतिक साधन सम्पन्न हैं, फिर भी मन अशान्त है। कारण स्पष्ट है कि दिन प्रतिदिन परस्पर पनपते अविश्वास की भावना, जातीय वैमनस्य, साम्प्रदायिक हिंसा, धार्मिक असहिष्णुता, अपराधीकरण, महिलाओं का अपमान एवं शोषण, मानवाधिकार हनन, भ्रूणहत्या, कानून का सरेआम उल्लंघन, राजनैतिक अपराधीकरण, निरंतर बढ़ती जनसंख्या का घनत्व, पर्यावरण प्रदूषण, भ्रष्टाचार एवं आतंकवाद इत्यादि समस्याओं से मानव जगत् आक्रान्त है, पीड़ित है और भयभीत भी। ऐसी ही विषम् परिस्थितियाँ आज से अनेकों वर्ष पूर्व भगवान् बुद्ध के समय में भी थीं। नाना प्रकार के दुःखों से संतप्त, विविध व्याधियों से पीड़ित एवं अशान्त मानव को सुखी बनाना एवं उसका कल्याण करना ही बौद्ध धर्म का प्रमुख लक्ष्य है। बुद्ध नें भिक्षुओं को सम्बोधित करते हुए स्पष्ट निर्देश दिया है कि “भिक्षुओं! लोगों के हित-सुख के लिए लोक पर दया करने के लिए, देव-मनुष्यों के कल्याण के लिए विचरण करो[1]।“ इस प्रकार भगवान् बुद्ध की समस्त देशना मानव समाज एवं राष्ट्र के कल्याण एवं विश्वबन्धुत्व की भावना से ओत-प्रोत है[1]। उज्जवल और पवित्र चरित्र के धारक बुद्ध का आत्म संयम प्रेरकदायी है। जनमानस को सदाचार के प्रति समर्पित बनाने में बुद्ध का हृदय प्राणीमात्र को सुखी करने के लिए करुणा से भरा था अतः उन्होंने अपना समस्त जीवन संसार के दुःख को दूर करने उपाय को खोजने में लगा दिया। भगवान् बुद्ध ने जो बोधि प्राप्त की उसका वितरण उन्होंने बिना भेद भाव के समस्त मानव जाति के लिए किया। इसीलिए बुद्ध की शिक्षाएँ समाज के हर वर्ग के उत्थान से जुड़ी हैं। उनका धर्म हर व्यक्ति के लिए था । उनका अपना शिष्य उपालि जाति का एक नाई था। अतः बुद्ध की शिक्षाएँ सिद्धान्त और व्यवहार में अंतर नहीं करती हैं[3]। सदाचार, अहिंसा, करुणा, मैत्री, सेवा आदि बुद्ध की शिक्षाओं के सुमधुर फल हैं। प्राणिहिंसा से सदैव दूर रहने का मार्ग प्रशस्त कर, प्राणियों में मैत्रीभावना का संचार करने की प्रेरणा, सुख और कल्याण को प्राथमिकता देने का उपदेश देकर बुद्ध ने विश्व का परम् कल्याण किया। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में बुद्ध की निम्न शिक्षाएँ समाज के उत्थान हेतु नितांत उपयोगी हैं:- शील एवं सात्विक गुणों का विकास शिक्षा का अन्यतम उद्देश्य जीवन में शील एवं सात्विक गुणों का विकास करना रहा है। व्यक्ति में शील, संयम, शुचिता, सत्यवादिता, कर्तव्य-परायणता, निष्ठा, प्रेम, त्याग, परोपकार आदि की भावना का संचार करना और उसे पल्लवित-पुष्पित करना बुद्ध की शिक्षाओं का परम उद्देश्य था। "शीलं सर्वत्र वै भूषणम्" के भाव को बौद्ध वाङ्मय में अनेक स्थानों पर अनेक ढंग से दुहराया गया है4। पाटलिग्राम (पाटलिपुत्र ) के उपासकों को सम्बोधित करते हुए शील के पाँच महालाभ बताये है[5]:- 1. पाप-विषय में लिप्त न हो, सदाचारी बने रहे और अप्रमादी रहकर कर्तव्य का पालन करने से अपार भोग वस्तुओं की अनायास प्राप्ति होती है। 2. शीलवान पुरुष का सुयश सर्वत्र फैलता है। 3. शीलवान पुरुष निर्भय रहता है। 4. मरते समय शीलवान अपना ज्ञान नहीं खोता, चैतन्य रहता है। 5. मरने के बाद सुंदर गति प्राप्त होती है, स्वर्ग में जन्म ग्रहण करता है। बौद्ध धर्म में सदाचार को शील कहा जाता है। उपदेशों के अनुसार आचरण करने वाला साधक ही 'श्रमण' कहलाने का अधिकारी होता था अन्यथा नहीं। पंचशील सदाचार के पाँच सार्वभौम नियम हैं। वे इस प्रकार हैं[6]- 1. प्राणातिपात (जीव-हिंसा से) विरति 2. मुसावाद (असत्य भाषण से) विरति 3. अदिन्नादान (चोरी से) विरति 4. पराञ्च (परस्त्रीगमन से) विरति 5. सुरामेयपानन्च (मद्यपान से विरति) जो व्यक्ति इनका पालन करता है, उसका आचरण पवित्र माना जाता है। कल्याणकारी- धर्म गौतम बुद्ध महाकारुणिक एवं महाप्रज्ञ थे। संसार में व्याप्त दुःख निमगन एवं प्राणिमात्र का कल्याण ही उनका उद्देश्य था। उन्होंने स्पष्ट कहा है कि जन्म लेना, जरा, मरण, शोक करना, पीड़ित होना, रोना, विलाप करना, इष्ट वियोग एवं अनिष्ट संयोग ये सभी दुःख प्रद हैं, दुःख रूप हैं[7]। जन्म से मृत्युपर्यन्त प्राणी को दुःख ही दुःख भोगते हुए देखकर उन्होंने इसके कारण पर भी प्रकाश डाला और इसके जो हेतु; तृष्णा,[8] भव,[9] अविद्या आदि हैं, उससे छूटने का मार्ग भी प्रशस्त किया[10]। बुद्ध ने जिस धर्म का साक्षात्कार किया, उसे आदि में कल्याणकारी, मध्य में कल्याणकारी और अन्त में भी कल्याणकारी कहा गया है[11]। ‘धम्म पद’ में कहा गया है कि बुद्धिमान लोग धर्म अर्थात् भगवान् बुद्ध के वचनों को सुनकर उसी प्रकार शुद्ध निर्मल हो जाते हैं जिस प्रकार गम्भीर जलाशय में जल निर्मल हो जाता है[12], जो अच्छी तरह उपदिष्ट धर्म में धर्मानुचरण करते हैं, वे ही दुस्तर मृत्यु के सत्य को पार कर सकते हैं[13]। मानव मात्र के प्रति प्रेम ‘सुत्तनिपात’ में प्राणिमात्र के प्रति प्रेम करने का उपदेश दिया गया है। वहाँ कहा गया है कि शान्तपद (निर्वाण) की प्राप्ति के इच्छुक मनुष्य को चाहिए कि वह योग्य तथा अत्यन्त सरल बने। उसकी बात मृदु, सुंदर और विनम्रता से युक्त हो, वह संतोषी हो, अल्पकृत्य व अल्पवृत्तिवान् हो, इंद्रियसंयमी व अप्रगल्भी हो[14]। उपासक/साधक की यह भावना रहे की सभी प्राणी सुखी हों, सभी का कल्याण हो और सभी सुखपूर्वक रहें। जंगम या स्थावर, दीर्घ या महान्, अणु या स्थूल, दुष्ट या अदुष्ट, दूरस्थ या निकटस्थ जितने भी प्राणी हैं, सभी सुखपूर्वक रहें[15]। जिस प्रकार माता स्वयं की चिन्ता न कर अपने इकलौते पुत्र का संरक्षण करती है उसी प्रकार का असीम प्रेम व्यक्ति प्राणिमात्र के प्रति करें[16]। बुद्ध ने निष्पक्ष रूप से यह स्वीकार किया है, 'प्रत्येक जाति ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य शूद्र, चाण्डाल, पुक्कस आदि सभी लाभ, यश-अपयश प्राप्त करते हैं तथा धर्माचरण कर महापरिनिर्वाण को प्राप्त हो सकते है।" बुद्ध का यही निर्देश है कि प्रत्येक मानव को समाज में समानता का अधिकार है, मानव-मानव में किसी भी क्षेत्र में कोई अंतर नहीं[17]। अहिंसा और करुणा प्राणियों का वध क्यों नहीं करना चाहिए? इसका युक्ति युक्त विवेचन करते हुए भगवान् ने कहा कि सभी को अपना जीवन प्रिय है, अतएव अपने समान ही औरों को समझकर न मारो और दूसरों को भी किसी को मारने की प्रेरणा मत दो "अत्तानं उपमं कत्वा न हनेय्य नप घातये"[18], बुद्ध कहते हैं कि जैसा मैं हूँ, वैसे ही ये प्राणी भी हैं, जैसे ये प्राणी हैं वैसा ही मैं भी हूँ, अतः ऐसा जानकर ही किसी की भी हिंसा नहीं करनी चाहिए[19]। ‘संयुक्त निकाय’ में बतलाया गया है कि जो शरीर वाणी और मन से भी हिंसा नहीं करता, दूसरों को चोट नहीं पहुँचाता, पीड़ित नहीं करता वही अहिंसक है[20]। कारुण्य अहिंसा का प्रधान केन्द्र है। उसके बिना अहिंसा जीवित नहीं रह सकती। समस्त प्राणियों पर अनुग्रह करना इसकी मूल भावना है। हेयोपदेय ज्ञान से शून्य दीन पुरूषों पर, विविध सांसारिक दुःखों से पीड़ित पुरुषों पर, स्वयं जीवन याचक जीव जन्तुओं पर, अपराधियों पर, अनाथ बाल, वृद्ध, सेवकों आदि पर, दुःख पीड़ित प्राणियों पर उनके उद्धार की भावना ही कारूण्य भावना है। यही अहिंसामय धर्म है[21]। कर्म परिपाक बुद्ध नें सभी को समान स्वीकार करते हुए किसी भी प्रकार के सामाजिक वर्ग विभेद और जाति की उच्चता या निम्नता को नहीं माना। ‘निमिजातक’ की गाथाओं[22] में उल्लेख है "मनुष्य के कर्मों को परखना चाहिए, जाति आदि की चिन्ता न करें। श्रेष्ठ धर्म का आचरण करने पर करने पर सभी वर्ण दुःखनिरोध को प्राप्त होते हैं, और अधर्म का आचरण करने पर सभी वर्ण नर्क में जाते हैं।" कहा गया है पुण्यकर्म करने वाले का पुण्य (भद्र) जब तक पकता नहीं, पुण्यात्मा दुःख भोगता हैं, किन्तु जब पुण्य पककर फल प्रकट करने लगता है तो फिर सुखों का अंत नहीं रह जाता[23]। अतः मनुष्य को सत्कर्म करते हुए धैर्य से काम लेना चाहिए। मनुष्य को निष्काम कर्म योगी की भाँति भूत व भविष्य की चिंता किए बिना, राग द्वेष का परित्याग कर शील और सदाचार से युक्त कर्म करते हुए जीवन यापन करना चाहिए। मानव के लिए नैतिक मानवीय गुणों से युक्त धर्माचरण उन्नति का मार्ग है। ‘अयोधर जातक’[24] की गाथा में उल्लेख है कि धर्म धर्माचारी की रक्षा करता हैं। भली प्रकार किए हुआ धर्म का यही फल है कि धर्माचारी कभी दुर्गति को प्राप्त नहीं होता। सदाचार एवं शिष्टाचार मानवीय नैतिक आदर्शों से युक्त दूसरों की मंगल कामना का इच्छुक मानव सफल जीवन यापन करता है। महामंगल जातक[25] की गाथा में कहा गया है कि जो श्रद्धावान, प्रसन्नचित्त एवं संतुष्ट मन से अन्न, माला, गंध तथा लेप का दान करता हैं वह स्वर्ग सम्बन्धी मंगलकार्य करता है। मनुष्य को परिवार समाज में पारस्परिक प्रेम और सद्भावना से जीवन यापन करना चाहिए। रुक्खधम्म जातक की गाथा में निर्देशित किया गया है कि सभी संबधियों के आपस में एकता से शत्रु कष्ट नहीं पहुँचा सकते हैं। सामाजिक शिष्टाचार की शिक्षा देते हुए बुद्ध कहते हैं कि गृहस्थ का कर्त्तव्य है- समागत अतिथि का प्रसन्न मन से उठकर स्वागत करना, अभिवादन करना, बैठने के लिए आसन देना, किसी रखी हुई वस्तु को नहीं छिपाना, बहुत रहने पर थोड़ी न देना, जो भी दें आदरपूर्वक देना। जिस गृहस्थ कुल में ये बातें न हो वहाँ नहीं जाना चाहिए[26]। चार कर्म क्लेशों के नाश से इस लोक तथा परलोक की विजय होती है- (1) प्राणी न मारना (2) चोरी न करना (3) व्यभिचार न करना। (4) झूठ न बोलना। इस प्रकार भगवान् बुद्ध ने व्यावहारिक सदाचारी मार्ग अपनाने का उपदेश दिया[27]। नैतिकता बौद्ध धर्म एक उच्चस्तरीय नीतिशास्त्र की शिक्षा प्रदान करता है। उत्तम अष्टम मार्ग जिसके आधार पर व्यक्ति निर्वाण प्राप्त करता है, केवल आस्था अथवा ज्ञान का ही नहीं, अपितु व्यवहार का विषय है। गाथाओं[28] में उल्लिखित हैं कि 'जो मिले उसी से संतुष्ट रहना चाहिए, अतिलोभ महा पाप है, वह इस लोक में तो महान् कष्टदायक है ही, परलोक में भी पीछा नहीं छोड़ता है।' क्रोध मानव को मदान्ध कर देता है। कहा गया है,[29] 'क्रोध-भाजक पर भी क्रोध न करें।' ऐसा सत्पुरूष, जिसे क्रोध नहीं आता हैं और जो कुछ होने पर भी क्रोध प्रकट नहीं करता ऐसे आदमी को लोक में 'श्रमण' कहते हैं। क्रोध का परित्याग कर मधुर, शांतिपूर्ण व्यवहार जीवन का आदर्श होना चाहिए। वाणी पर संयम अत्यावश्यक है। भगवान बुद्ध कहते हैं- झूठ नहीं बोलना चाहिए, जो कठोर, निस्सार एवं व्यर्थ बातें करता है, वह सब पाप है। सभी प्रकार के पापों को न करना अच्छे कर्मों का उपार्जन करना, चित्त को एकाग्र करना यही बौद्ध धर्म है[30]। बुद्ध की शिक्षाओं की वर्तमान में प्रासंगिकता वैश्विक क्षैतिज पर मानव आज ज्ञान की अनेकानेक शाखाओं के अध्ययन के परिणाम स्वरूप प्रत्येक क्षेत्रों में व्याप्त कुरीतियों का कारा काटने में सफल अवश्य हुआ है, तथापि पारस्परिक कटुता एवं वैमनस्य के कारण तनाव आज भी अनुभव किया जा रहा है। यह तनाव समाज में वर्ग, जाति, धर्म, लिङ्ग, धन, प्रतिष्ठा आदि सम्प्रत्ययों के आधार पर एक मनुष्य का दूसरे मनुष्य के प्रति किए जाने के उसके मानवाधिकारों के हनन से उदभुत है। बौद्ध धर्म मानव को उसके कर्तव्यों के प्रति सचेत करता हुआ, उसे स्वावलंबी होने का उपदेश देता है। जब शुद्ध हृदय एवं दया भाव एक ही व्यक्ति में निहित हो जाते हैं तो वह व्यक्ति व्यक्तित्व की विराटता के कारण श्रद्धा का पात्र बनकर आराध्य बन जाता है, अर्थात् परम तत्व में अन्तनिर्हित हो जाने के कारण ईश्वरीय पद पर प्रतिष्ठित हो जाता है, क्योंकि ईश्वर कोई कल्पनातीत सत्ता न होकर मानवता के उच्च शिखर पर सहअस्तित्व के परिवेश में सृजित मानवाधिकारों से युक्तता के कारण मानव का चरम विकास ही है। बौद्ध धर्म की विचारधारा में यह आदर्श नैतिकवाद के आधार पर उन सिद्धान्तों को लेकर उठा था जो समग्र मानवता हेतु कल्याणकारी थे[31]। विश्व में परमाणु हथियारों के आविष्कार एवं संग्रह करने की होड़ मची हुई है। जिससे उत्पन्न आतंकवाद और विश्वयुद्ध का भय सभी की चिंता का विषय बना हुआ है। ऐसे भयाक्रान्त जगत के लिए तथागत द्वारा उपदिष्ट अंहिसा का सिद्धान्त बहुत ही महत्वपूर्ण है। विश्व में शांति तभी हो सकती है जब हम उनकी शिक्षाओं को जीवन में उतारें। इस प्रकार महात्मा बुद्ध के उपदेश एवं शिक्षाओं के सूक्ष्म अनुशीलन से मानव के सदाचारी, पवित्र एवं सहअस्तित्व की भावना से जीवन यापन करने के निर्देश का पता चलता है। भगवान् बुद्ध द्वारा प्रज्ञप्त पंचशील, आर्याष्टादिक मार्ग एवं समत्व की मनोज भावना में ही विश्व कल्याण समाहित है। संदर्भ 1. महावग्ग, पृ0. 23 “भिक्खवे चरिकं, बहुजनहिताय बहुजन सुखाय लोकानुकम्पाय देवमनुस्सानं ।" 2. जिनेन्द्र जैन, जैनविद्या एवं बौद्ध अध्ययन के आयाम, राधा पब्लिकेशंस नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 2004, पृ. 94 3. तत्रैव पृ0 92 4. जातक कथा , 5, 362.66, उद्धृत, नत्थूलाल गुप्त, जैन-बौद्ध शिक्षण-पद्धति, विश्वभारती प्रकाशन प्रथम, संस्करण 1985, नागपुर, पृ0 89 5. पं० राहुल सांकृत्यायन द्वारा सम्पादित , विनयपिटक पृ0 239 6. धम्मपद , 246-247 7. बुद्ध चरित, 15-47 विभङग् पृ० 99, दीघनिकाय भाग-2 पृ० 304- 5(रोमन) 8. अभिधर्म कोष ,भाष्य 3.27 पृ0-135 9. संयुक्त निकाय , 3.96 10 . दीघनिकाय, भाग-2, पृ0-80 11. मज्झिमनिकाय, 1.3.7, हत्थिपेदोप समसुत्त 12. धम्मपद, 82, अथापि रहदो गम्भीरो विप्पसीदन्ति अनाविलो । एवं धम्मनि सुवान विषप्पसीदन्ति पण्डिता ।। 13. तत्रैव, 86, 14. जिनेन्द्र जैन, पूर्वो0, पृ०. 95 15. मेत्तसुत्त 4-5 16. तत्रैव, 7 माता यथा नियं पुत्तआयुसा एक पुत्र मनुरक्खे ।एवं पि सव्वभूतेसु मानसं भावये अपरियाणं ।। 17. कैलाश चन्द्र जैन, प्राचीन भारत का सामाजिक, सांस्कृतिक और भौगोलिक अध्ययन, श्री पब्लिशिंग हाउस नई दिल्ली, प्रथम संस्करण, 1986 पुनः संस्करण 1996, पृ0 229 18. धम्मपद गाथा, 129-130 19. सुत्तनिपात, नालक सुत्त, 27 , यथा अहं तथा एते यथा एते तथा अहं । अत्तानं उपनं कता हनेय्य न घातये ।। 20. संयुक्तनिकाय , भाग-1, पृ0 – 164 21. जिनेन्द्र जैन, पूर्वो०, पृ० 100 22. जातक ,षष्ठ ,गा० 427-28, पृ० 100 23. खदिरंगार जातक , उद्धृत, नत्थूलाल गुप्त, पूर्वोद्धृत , पृ० 96 24- जातक, चतुर्थ, गाथा 342, पृ0 496 25- जातक, प्रथम, गा० 73, पृ० 329 26. सत्तक, अगुंतर निकाय 27- जिनेन्द्र जैन, पूर्वो0 , पृ0-099 28. जातक , प्रथम गा0, - 132, पृ0 476, तृतीय गा० 99, पृ0 207 29- जातक ,षष्ठ ,257, जातक, तृतीय, गा० 27-32, पृ0 440 30. जिनेन्द्र जैन, पूर्वो0, पृ० 366 31. अजय कुमार पाण्डेय (संपादक), बौद्ध संस्कृति के विविध आयाम, प्रतिभा प्रकाशन, नई दिल्ली ,प्रथम संस्करण 2006, पृ0 100 |