भगवान गौतम बुद्ध एवं भारतीय समाज (बौद्ध धर्म के उदय से 12वी शताब्दी तक)
ISBN: 978-93-93166-10-4
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बौद्ध धर्म की शिक्षा और सिद्धान्त

 डॉ. शैलेन्द्र कुमार सिंह
एसोसिएट प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्ष
समाजशास्त्र विभाग
बैसवारा पी0जी0 कॉलेज
लालगंज, रायबरेली  उत्तर प्रदेश, भारत  

DOI:
Chapter ID: 17747
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    गौतम बुद्ध बौद्ध धर्म के संस्थापक थे। इनका जन्म 563 ई0पू0, में कपिलवस्तु के निकट लुम्बिनी ग्राम में हुआ था। गौतम बुद्ध के पिता का नाम शुद्धोधन था जो कपिलवस्तु के राजा थे। सिद्धार्थ के जन्म के सातवें दिन उनकी माता महामाया का निधन हो गया। उनकी मौसी प्रजापति ने उनका पालन पोषण किया।

    राजा शुद्धोधन ने अपने पुत्र का भविष्य जानने के लिये राज्य के आठ ब्राह्मणों को निमन्त्रित किया। इन ब्राह्मणों में से सात ने बुद्ध के शरीर को देखकर बताया कि यदि इस बालक ने संसारी रहना निश्चित किया तो सम्राट बनेगा और यदि यह संसार छोड़कर ज्ञान-प्राप्ति के मार्ग पर चला तो बुद्धबनेगा। पर आठवें, ब्राह्मण कोण्डन्य ने स्पष्टतः कहा ‘‘हे राजन तुम्हारा पुत्र आगे चलकर चार विशेष चिन्ह देखेगा और उन्हें देखकर संसार त्याग कर बोधि प्राप्ति के लिये निकल पड़ेगा। उसे बोधि मिलेगी और वह बुद्ध हो जायेगा।’’

    16 वर्ष की उम्र में गौतम बुद्ध का विवाह शाक्य कुल की कन्या यशोधरा से हुआ। यशोधरा से उन्हें एक पुत्र की प्राप्ति हुई। पुत्र के पैदा होने पर सिद्धार्थ प्रसन्न नहीं हुये वरन उसे मोह-बन्धन मानकर राहुकहा तथा उसका नाम राहुल रखा। 29 वर्ष की आयु में (534 ई0पू0) गौतम बुद्ध ने गृह त्याग किया। 

ज्ञान की खोज में सर्वप्रथम वैशाली में अलारकलाम नामक सांख्य दर्शन के तपस्वी के आश्रम में गये और उपनिषद की शिक्षा ग्रहण की परन्तु वे संतुष्ट नहीं हुये। अतः यहां से वे राजग्रह में रूद्रकरामपुत्तनामक दूसरे आचार्य के पास गये।

    इसके बाद सिद्धार्थ गया गये वहां उन्होंने छः वर्षों तक कठोर तपस्या की। पीपल के वृक्ष के नीचे वैशाख पूर्णिमा की रात को 35 वर्ष की आयु में सिद्धार्थ को ज्ञान प्राप्त हुआ और अब वे बुद्ध तथागत कहलाए।

    ज्ञान प्राप्ति के बाद सबसे पहले बुद्ध गया सेे काशी के सारनाथ आये यहाँ उन्होंने पाँच पूर्व ब्राह्मण साथियों को उपदेश दिया। यह प्रथम उपदेश धर्म चक्र प्रवर्तन कहलाता है। सारनाथ से बुद्ध वाराणसी गये और यहां पर यश नामक धनवान श्रेष्ठि को अपना शिष्य बनाया। वाराणसी में ही 60 भिक्षुओं ने मिलकर संघ का निर्माण किया। वाराणसी से बुद्ध उरूवेला गये तत्पश्चात्  राजग्रह गये जहां शासक बिम्बिसार उनका शिष्य बना।

बौद्ध धर्म के सिद्धान्त- महात्मा बुद्ध एक व्यवहारिक धर्म सुधारक थे। बुद्ध ने अपने धर्म में सामाजिक, आर्थिक, बौद्धिक, राजनीतिक, स्वतन्त्रता एवं समानता की शिक्षा दी। इसे मानवीय धर्म भी कहा कहा जाता है। बौद्ध धर्म मूल रूप से अनीश्वरवादी अनात्मवादी है अर्थात् इसमें ईश्वर और आत्मा की सत्ता को स्वीकार नहीं किया गया है। बौद्ध धर्म का मूलाधार चार आर्य सत्य हैं।

चार आर्य सत्य- बौद्ध धर्म के सारे सिद्धान्त तथा बाद में विकसित विभिन्न दार्शनिक मतवादों के आधार चार आर्य सत्य ही हैं। ये निम्नलिखित हैं-

1. पहला आर्य सत्य दुःख है। जन्म दुःख है, जरा दुःख है, व्याधि दुःख है, मृत्यु दुःख है, प्रिय का बिछुड़ना दुःख है, इच्छित वस्तु का न मिलना दुःख है।

2. दुःख समुदाय का दूसरा आर्यसत्य तृष्णा है, जो पुनुर्भवादि दुःख का मूल कारण है। यह तृष्णा राग के साथ उत्पन्न हुई है। सांसारिक उपभोगों की तृष्णा, स्वर्गलोक में जाने की तृष्णा और आत्महत्या करके संसार से लुप्त हो जाने की तृष्णा, इन तीन तृष्णाओं से मनुष्य अनेक तरह का पापाचरण करता है और दुःख भोगता है।

3. तीसरा आर्यसत्य दुःख निरोध है। यह प्रतिसर्गमुक्त और अनालय है। तृष्णा का विरोध करने से निर्वाण की प्राप्ति होती है, देहदंड या कामोपभोग से मोक्षलाभ प्राप्त नहीं    होता।

4. चौथा आर्यसत्य दुःख निरोधगामिनी प्रतिपदा है अर्थात् दुःख निदान के उपाय हैं। इसी आर्य सत्य को आष्टांगिक मार्ग भी कहते हैं। यह आठ मार्ग- (i) सम्यक दृष्टि (ii) सम्यक संकल्प (iii) सम्यक वचन (iv) सम्यक कर्मांत (v) सम्यक आजीव (vi) सम्यक व्यायाम (vii) सम्यक स्मृति (viii) सम्यक समाधि हैं।

दुःख का निरोध इसी मार्ग पर चलने से होता है।

आष्टांगिक मार्ग-

1. सम्यक् दृष्टि- दुःख का ज्ञान, दुःखोदय का ज्ञान, दुःख निरोध का ज्ञान

और दुःख निरोध की ओर ले जाने वाले मार्ग का ज्ञान इस आर्यसत्य-चतुश्य के सम्यक ज्ञान को सम्यक दृष्टि कहते हैं।

2. सम्यक् संकल्प-राग, हिंसा, प्रति हिंसा रहित संकल्प को ही सम्यक संकल्प कहते हैं।

3. सम्यक् वचन- झूठ, चुगली, कटु वचन और बकवास से रहित सच्ची मीठी बातों का बोलना।

4. सम्यक् कर्मांत- प्राणी हिंसा, चोरी, व्याभिचार रहित कार्य ही ठीक कार्य हैं।

5. सम्यक् जीविका-जीविका के मिथ्या साधनों को छोड़कर अच्छी-सच्ची  जीविका से जीवन व्यतीत करना ही सम्यक जीविका है। बुद्ध ने हथियार का व्यापार, प्राणि का व्यापार, मांस का व्यापार, मद्य का व्यापार, विष का व्यापार को झूठी जीविका कहा। इनसे बचने को कहा।

6. सम्यक् व्यायाम-अकुशलधर्म अर्थात् पाप उत्पन्न न होने देने के लिये निश्चय करना, परिश्रम करना, उद्योग करना, चित्त को पकड़ना और रोकना तथा कुशल धर्म अर्थात् सत्कर्म की उत्पत्ति, स्थिति विपुलता और परिपूर्णता के लिये उद्योग करना ही सम्यक् व्यायाम    है। 

7. सम्यक् स्मृति- काया, वेदना, चित्त और मन के धर्मों की ठीक स्थितियों- उनके मलिन, क्षण विध्वंसी आदि होने का सदा स्मरण रखना।

8. सम्यक् समाधि‘‘चित्त की एकाग्रता को समाधि कहते हैं। इस सम्यक् समाधि की प्रथम, द्वितीय, तृतीय और ध्यानरूपी चार सीढ़ियां हैं पहले ध्यान में वितर्क, विचार, प्रीति (प्रमोद) सुख और एकाग्रता होते हैं।

दूसरे ध्यान में वितर्क और विचार का लोप हो जाता है। प्रीति, सुख और एकाग्रता ये तीन मनोवृत्तियां ही रहती हैं।

तीसरे ध्यान में प्रीति का लोप हो जाता है, केवल सुख और एकाग्रता ही रहती है।

चौथे ध्यान में सुख भी लुप्त हो जाता है, उपेक्षा और एकाग्रता ही रहती है।

इन आष्टांगिक मार्गों को अपनाने से व्यक्ति निर्वाण की ओर अग्रसर होता है।


प्रतीत्य समुत्पाद

    प्रतीत्य समुत्पाद बुद्ध के उपदेशों का सार है तथा बुद्ध की शिक्षाओं का आधार स्तम्भ है। प्रतीत्य का अर्थ आश्रित रहना तथा समुत्पाद का अर्थ उत्पत्ति है अर्थात् प्रत्येक घटना किसी दूसरी घटना पर आश्रित रहती है। प्रतीत्य समुत्पाद को कार्य कारण सिद्धान्त भी कहते हैं। इसके अनुसार कोई भी घटना/कार्य स्वतन्त्र नहीं होता बल्कि प्रत्येक घटना का कोई न कोई कारण अवश्य होता है। बुद्ध अपने प्रतीत्यसमुत्पाद सिद्धान्त के अन्तर्गत दुःख के कारणों की खोज करते हैं और 12 कार्य-कारणों की एक श्रृंखला प्रस्तुत करते हैं जिसे द्वादश निदानकहते हैं। इसे संसार चक्र या भवचक्र भी कहते हैं।

1. जरा-मरण-जरा-मरण का सामान्य अर्थ वृद्धावस्था है इसका व्यापक अर्थ दुःख से है।  जरामरण का कारण जाति है।

2. जाति- जाति का अर्थ जन्म लेना है।

जरा-मरण के समस्त दुःखों का कारण जन्म लेना है।

3. भव- भव का अर्थ जन्म ग्रहण करने की इच्छा है।

जन्म लेना का कारण, जन्म ग्रहण करने की इच्छा है। 

4. उपादान- उपादान का अर्थ जगत की वस्तुओं के प्रति मोह है।

भव का कारण उपादान है।

5. तृष्णा- तृष्णा का अर्थ विषयों के प्रति आसक्ति है।

उपादान का कारण तृष्णा है।

6. वेदना- वेदना का अर्थ इन्द्रियानुभव है।

तृष्णा का कारण वेदना है।

7. स्पर्श- स्पर्श का अर्थ इन्द्रियों का विषयों के संयोग की अवस्था है।

वेदना का कारण स्पर्श है।

8. षडायतन- षडायतन का अर्थ 6 इन्द्रियों (पंच ज्ञानेन्द्रियां + मन) से है।

स्पर्श का कारण षडायतन है।

9. नामरूप- नाम रूप का अर्थ मन युक्त गर्भस्थ शरीर है।

षडायतन का कारण नामरूप है।

10. विज्ञान- विज्ञान का अर्थ चेतना है।

नामरूप का कारण विज्ञान है।

11. संस्कार- संस्कार का अर्थ पूर्व जन्म के कर्म है।

विज्ञान का कारण संस्कार है।

12. अविद्या- अविद्या का अर्थ ज्ञान का अभाव है।

संस्कार का कारण अविद्या है।

    अतः जन्म मरण का अन्तिम कारण अविद्या है। समस्त दुःखों का कारण अविद्या है। बुद्ध के अनुसार अविद्या का नाष बोधिया बुद्धत्वद्वारा ही सम्भव है। अविद्या का नाश होते ही मुक्ति या निर्वाण की प्राप्ति होती है।

नैरात्मवाद एवं क्षणभंगवाद का सिद्धान्त-

बौद्ध दर्शन में नैरात्मवाद एवं क्षणभंगवाद का दर्शन महत्वपूर्ण है। बौद्ध धर्म में आत्मा को स्वीकार नहीं किया गया है। इसके अनुसार व्यक्ति की आत्मा उसकी मृत्यु के साथ समाप्त हो जाती है।

पुनर्जन्म का सिद्धान्त-

    महात्मा बुद्ध ने बौद्ध धर्म को कर्म प्रधान बनाने के लिये कर्म एवं पुनर्जन्म के सिद्धान्त की व्याख्या की थी। उनके अनुसार व्यक्ति को उसके कर्म के अनुसार फल मिलेगा।

    बुद्ध का मानना था कि जिस प्रकार समुद्र की लहरें आगे बढ़ती हैं उसी प्रकार पुनर्जन्म होता है। अर्थात् पहली लहर अपनी ऊर्जा दूसरी लहर को देती है और स्वयं समाप्त हो जाती है, उसी प्रकार दूसरी लहर अपनी ऊर्जा तीसरी को देती है और इसी प्रकार लहरें बनती चलती हैं। अतः पहला जीवन अपना कर्मफल दूसरे जीवन को देकर नये जीवन की शुरूआत करता है। इस प्रकार पुनर्जन्म कर्मफल से होता है न कि आत्मा से।

अनीश्वरवाद

बौद्ध धर्म मूलतः अनीश्वरवादी है। सृष्टि का कारण ईश्वर को नहीं मानता है।


कर्म का सिद्धान्त

    बौद्ध धर्म में कर्म को महत्व दिया गया है जो मनुष्य सम्यक् कर्म करेगा वह निर्माण का अधिकारी होगा।

प्रयोजनवाद

    बुद्ध नितान्त प्रयोजनवादी थे। उन्होंने अपने को सांसारिक विषयों तक सीमित रखा।

निर्वाण

    बौद्ध धर्म में निर्वाण का अर्थ तृष्णा का समाप्त हो जाना है। तृष्णा और वासना से ही दुःख होता है। दुःखों से पूरी तरह छुटकारे का नाम है-निर्वाण। बुद्ध ने निर्वाण को परम सुख पद, अमृत पद, परमशांति की अवस्था कहा है। निर्वाण इसी जन्म में प्राप्त हो सकता है किन्तु महापरिनिर्वाण मृत्यु के बाद ही सम्भव है।

बुद्ध के दस शील

    बौद्ध धर्म नैतिक आधार पर आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग दिखाता है। दस शील बौद्ध धर्म के आचरण के दस नियम हैं।

1.   हिंसा - किसी भी जीव की हत्या करना हिंसा है। इससे बचना चाहिये।

2.   सत्य - झूठ कभी नहीं बोलना चाहिये। हमेशा सत्य के मार्ग पर चलना चाहिये।

3. अस्तेय - चोरी न करे। दूसरों की सम्पत्ति की चाह न करें।

4. अपरिग्रह - जितनी आवश्यकता है उतनी ही सम्पत्ति रखें। आवश्यकता से अधिक सम्पत्ति इकट्ठा न करें।

5. ब्रह्मचर्य - व्याभिचार से बचें।

6. अविलासिता - विलासिता से दूर रहें। गाने-बजाने में भाग न लें।

7. मादक द्रव्यों से दूरी- मादक द्रव्यों का सेवन नहीं करना चाहिये।

8. असमय भोजन का त्याग- असमय भोजन से बचें, निश्चित समय पर ही भोजन करें।

9. सुखप्रद बिस्तर पर ना सोना- आरामदायक बिस्तर पर नहीं सोना चाहिये।

10. कंचन कामिनी का त्याग - कंचन कामिनी अर्थात् सोना तथा स्त्री संग का त्याग करना चाहिये।

    उपर्युक्त नैतिक शिक्षाओं के अतिरिक्त बुद्ध ने सभी व्यक्तियों को माता-पिता की आज्ञा पालन करने, गुरूजनों के प्रति श्रद्धा रखने, दान देने, प्रेम और उदारतापूर्ण व्यवहार करने का भी उपदेश दिया।

पंच स्कन्ध- मनुष्य का शरीर पांच स्कन्धों से बना हुआ है ये निम्नः-

1. रूप

2. संज्ञा

3. वेदना

4. विज्ञान

5. संस्कार

    बुद्ध ने महापरिनिर्वाण के समय भिक्षुओं को उपदेश देते हुए चार स्मृति प्रस्थान (चार, आर्य सत्य) चार सम्यक प्रधान, चार ऋद्धि पाद, पांच इन्द्रियां, पांच बल तथा आठ आष्टांगिक मार्ग की चर्चा की है।

चार सम्यक प्रधान

1. दोषपूर्ण संस्कारों को उत्पन्न न होने देना।

2. दोषपूर्ण संस्कारों को उत्पन्न होने पर उनका विनाश करना।

3. अच्छे संस्कारों को उन्नत करना।

4. अच्छे संस्कार उत्पन्न होने पर उनकी वृद्धि एवं रक्षा करना।

चार ऋद्धि पाद- द्वन्द, वीर्य, चित्त एवं विमर्ष।

पांच इन्द्रियां एवं बल- श्रद्धा, वीर्य, स्मृति, समाधि और प्रभा।

बौद्ध धर्म की मान्यताएं

1. यह संसार दुःखमय है।

2. यह संसार क्षणिक है।

3. यह संसार आत्माविहीन है।

4. कर्म और पुनर्जन्म का अस्तित्व है।

बौद्ध दर्शन के अनुसार यह सृष्टि विभिन्न चक्र में विभाजित है-

1. बुद्ध चक्र

2. शून्य चक्र

इसी बुद्ध चक्र के दिये गये निम्न उपदेश हैं-

1. कुकुच्चन्द

2. कनकमुनि

3. कश्यप

4. शाक्य मुनि (महात्मा बुद्ध)

5. मैत्रेय-यह आने वाला भावी बुद्ध है जो सफेद घोड़े पर सवार होगा।

6. बौद्ध धर्म के त्रिरत्न- बुद्ध, धम्म और संघ

बौद्ध संघ

    बौद्ध धर्म के त्रिरत्नों बुद्ध, धम्म एवं संघ में संघ का स्थान महत्वपूर्ण था। सारनाथ में धर्म का उपदेश देने के बाद अपने पांच ब्राह्मणों शिष्यों के साथ बुद्ध ने संघ की स्थापना की। बाद में यश नामक धनी व्यापारी एवं अन्य वैश्यों को भी संघ का सदस्य बनाया।

बुद्ध ने किसी को अपना उत्तराधिकारी मनोनीत नहीं किया। उन्होंने कहा कि धर्म एवं संघ के निर्धारित नियम ही उनके उत्तराधिकारी हैं।

संघ का गठन एवं कार्य प्रणाली

    बौद्ध संघ का संगठन गणतांत्रिक प्रणाली पर आधारित था। प्रस्ताव पाठ को अनुसावन कहते थे। प्रस्ताव पर आपत्ति होने पर फैसला वाद-विवाद के पश्चात मतदान द्वारा दिया जाता था। मतदान गुप्त तथा प्रत्यक्ष दोनों तरीके से हो सकता था। मतदान के बाद बहुमत का निर्णय ही सर्वमान्य माना जाता था। सभा की कार्यवाही के लिये न्यूनतम उपस्थिति संख्या 20 की जरूरत होती थी।

संघ में प्रवेश की प्रक्रिया

    संघ में प्रवेश को उपसम्पदाकहा जाता था। प्रवेश के समय व्यक्ति पहले सिर मुँड़ा लेता था, फिर घुटने टेककर और हाथ जोड़कर तीन बार कहता, ‘बुद्धं शरणं गच्छामि’ (मैं बुद्ध की शरण में जाता हूं), धम्मं शरणं गच्छामि (मैं धर्म की शरण जाता हूं), संघ शरणं गच्छामि (संघ की शरण जाता हूं)। संघ की सदस्यता लेने वाले को पहले श्रमणका दर्जा मिलता था और 10 वर्षों के पश्चात यदि उसकी योग्यता स्वीकृत हो जाती थी तो फिर उसे भिक्षु का दर्जा मिलता था।

प्रारम्भ में संघ का द्वार सभी जाति एवं वर्गों के लिये खुला था परन्तु बाद में बुद्ध ने अल्पवयस्क, चोर, हत्यारों, ऋणी व्यक्तियों, राजा के सेवक, दास तथा योगी व्यक्ति का संघ में प्रवेश वर्जित कर दिया। स्त्रियों का पुरूष भिक्षुओं से अलग अपना एक पृथक संघ होता था, किन्तु स्त्री संघ को पुरूष भिक्षुओं के संघ के अधीन रखा जाता था। संघ का संस्थापक ही संघ का नियम बना सकता था, उसका कोई सदस्य नहीं। सदस्यों को उन नियमों का पालन करना पड़ता था।

बौद्ध धर्म में दो प्रकार के अनुयायी थे-

1. उपासक-जो गृहस्थ जीवन व्यतीत करता था।

2. भिक्षु-जो सन्यासी जीवन व्यतीत करता और गेरूआ वस्त्र धारण करता था।

    भिक्षु लोग वर्षाकाल को छोड़कर अन्य समय धर्म का उपदेश देते हुए भ्रमण करते रहते थे। भिक्षुओं को 3 महीने तक वर्षा के दिनों में एक ही जगह रहना पड़ता था जिसे वस्ससकहा जाता था।

बौद्ध संगीतियाँ

    प्रथम बौद्ध संगीति-प्रथम बौद्ध संगीति बुद्ध की मृत्यु के तत्काल बाद लगभग 483 ईसा पूर्व में राजग्रह की सप्तपर्णि गुफा में हुई। इस समय मगध का शासक अजातशत्रु था। इस संगीति की अध्यक्षता महाकस्स्प ने की तथा इसमें बुद्ध के प्रमुख शिष्य आनन्द और उपालि भी उपस्थित थे। इस संगीति में बुद्ध की शिक्षाओं का संकलन हुआ तथा उन्हें सुत्त एवं विनय नाम के दो पिटकों में विभाजित किया गया। 

    द्वितीय बौद्ध संगीति-द्वितीय बौद्ध संगीति का आयोजन बुद्ध की मृत्यु के लगभग 100 वर्ष पश्चात 383 ईसा पूर्व में वैशाली में हुआ। इस समय मगध का शासक कालाशोक था। इस संगीति की अध्यक्षता साबकमीर ने की थी। पूर्वी और पश्चिमी भिक्षुओं के बीच उत्पन्न मतभेद को सुलझाने हेतु इस सभा का आयोजन किया गया।

    तृतीय बौद्ध संगीति- तृतीय बौद्ध संगीति का आयोजन 250 ईसा पूर्व में पाटलीपुत्र में हुआ। इस समय मगध का शासक अशोक था। इस संगीति की अध्यक्षता मोग्गलिपुत्त तिस्स ने की। इसमें अभिधम्मपिटक की रचना हुयी। इसमें धम्म के सिद्धान्त की दार्शनिक व्याख्या मिलती है।

चतुर्थ बौद्ध संगीति-चतुर्थ बौद्ध संगीति प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व कश्मीर के कुण्डलवन में हुई। इस समय शासक कनिष्ठ था। इस संगीति की अध्यक्षता वसुमित्र ने की और उपाध्यक्ष अश्वघोष था। इस संगीति में विभाषाशास्त्रनामक टीका की रचना हुई। इस संगीति में बौद्ध धर्म हीनयान और महायान दो प्रमुख सम्प्रदायों में विभाजित हो गया।

    बौद्ध धर्म ने ही सर्वप्रथम भारतीयों को एक सरल, आडम्बर रहित मानवतावादी धर्म प्रदान किया जिसका अनुसरण बिना भेदभाव के सभी लोग कर सकते थे। बुद्ध धर्म ने भारत सहित विश्व को शान्ति, अहिंसा, बंधुत्व, सह अस्तित्व का पाठ पढ़ाया। बुद्ध के विचारों को वर्तमान परिप्रेक्ष्य में देखें तो यह मानव जीवन की अनेक समस्याओं को हल कर सकता है।

    बुद्ध को जिस साधना से बोधि की प्राप्ति हुई। उसे विपश्यना कहते हैं। विपश्यना यानि आत्मनिरीक्षण के लिये अपने भीतर की ओर देखना जो अपने अन्तर में झाँक सकने का साहस कर सकता है वह बुद्धत्व को प्राप्त कर सकता है। वे किसी भी विचार को स्वयं विवेक की कसौटी पर कसने की बात कहते थे।

बुद्ध ने अपने धम्म में समानता पर बल दिया। उन्होंने महिलाओं को दीक्षा का अधिकार देकर भिक्षुणी बनने का अधिकार  दिया। गौतम बुद्ध ने स्त्रियों की शिक्षा और राजनीतिक जागरूकता पर भी बल दिया। भिक्षुणी संघ में स्त्रियों को लगातार शिक्षा संस्कृति और त्याग साधना सिखाई जाती थी जिसमें उनके व्यक्तित्व का बहुमुखी विकास हुआ।

    बुद्ध ने कहा कि ऊँचे आदर्शों का महत्व है, ऊँचे वर्ण में जन्म ग्रहण करने का नहीं। जन्म से न तो कोई ब्राह्मण होता है और न कोई शूद्र। इंसान का मूल्य उसकी जाति या वर्ण से नहीं, उसके कर्मों से आंका जाता है। उन्होंने समतामूलक समाज की स्थापना करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। वे सर्वधर्म समभाव के पक्षधर थे। उन्होंने कभी अपनी शिक्षाओं की प्रशंसा को न तो जरूरत से ज्यादा महत्व दिया और न ही उसकी आलोचना करने वालों की निन्दा की।

उनका कहना था कि चोरी, हिंसा, नफरत, निर्दयता जैसे अपराधों और अनैतिक कार्यों का कारण गरीबी है। गरीबी को दूर करके इन अपराधों को रोका जा सकता है।

    उन्होंने प्रजातान्त्रिक मूल्यों को बहुत महत्व दिया। राजकीय शासन व्यवस्था कानून और नियमों के अनुसार होनी चाहिये। उनमें परिवर्तन जनप्रतिनिधि सभा में विचार विमर्श के उपरान्त होना चाहिये। राजा को मुकदमों का फैसला राग, द्वेष आदि विचारों के वशीभूत होकर नहीं बल्कि धर्म से, न्याय से करना चाहिये।

    बुद्ध का उपदेश ‘‘बैर से बैर कभी शान्त नहीं होता, अबैर से ही बैर शान्त होता है यही संसार का सनातन नियम है।’’ बुद्ध का यह उपदेश विश्व में शान्ति बनाये रखने में सहायक है। उन्होंने युद्ध का हर सम्भव विरोध किया। युद्ध किसी समस्या का हल नहीं क्योंकि युद्ध में हमेशा जन-धन की अपार क्षति होती है। बुद्ध के अनुसार हर राष्ट्र की विदेश नीति पंचशील और परस्पर शान्तिपूर्ण सह अस्तित्व पर आधारित होनी चाहिये।

    आज जब दुनिया में अशांति बढ़ रही है। यूक्रेन-रूस युद्ध दुनिया को प्रभावित कर रहा है। भौतिकवाद, भ्रष्टाचार, आतंकवाद, नक्सलवाद बढ़ रहा है। ऐसे में बुद्ध की शिक्षा एवं सिद्धान्त के द्वारा ही विश्व को शान्ति के मार्ग पर लाया जा सकता है।

सन्दर्भ ग्रन्थ सूची

1. डॉ0 अंगने लाल, बौद्ध संस्कृति के विविध आयाम, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्था, लखनऊ 2008

2. आनन्द श्रीकृष्ण, गौतम बुद्ध और उनके उपदेश राजकमल प्रकाशन प्रा0लि0, नई दिल्ली 2006

3. धर्मानन्द कोसाम्बी, भगवान बुद्ध जीवन और दर्शन, लोकभारती प्रकाशन, प्रयागराज, 2020

4. डॉ. गोविन्द चन्द्र पाण्डेय, बौद्ध धर्म के विकास का इतिहास, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ 2018

5. डॉ0 परमानन्द सिंह, बौद्ध साहित्य में भारतीय समाज, मोतीलाल बनारसी दास, दिल्ली 2016

6. राहुल सांकृत्यायन, बौद्ध दर्शन, किताब महल 2022

7. डॉ0 सद्धातिस्स, बुद्ध जीवन और दर्शन, सस्ता साहित्य मण्डल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2020

8. वियोगी हरि, बुद्धवाणी, सस्ता साहित्य मण्डल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2020

9. https://indianwikipedia.com/baudh-dharm-siddhant

10. https://sanjeevnitoday.com/editorial/gautam-buddha-gave-the-message-of-app-deepo-bhava-to-the/cid1980812.htm