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ISBN: 978-93-93166-28-9
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मालवा लघु चित्रण शैली में आधारित रामायण एवं महाभारत के चित्रों का कलात्मक अध्ययन

 डॉ. कंचन कुमारी
प्रशिक्षक
ड्राइंग एवं पेंटिंग विभाग
दयालबाग शैक्षिक संस्थान, दयालबाग,
 आगरा, यू.पी., भारत 

DOI:
Chapter ID: 18194
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सारांश

चित्रकला का इतिहास उतना ही पुराना है जितना कि मानव सभ्यता के विकास का इतिहास। मानव ने जिस समय प्रकृति की गोद में अपनी आखें खोली, उस समय से ही उसने अपनी मूक भावनाओं को अपनी तूलिका द्वारा रेखाओं के माध्यम से गुफाओं और चट्टानों की भित्तियों पर अंकित कर अभिव्यक्त किया। मालवा चित्रों में आरम्भ से लेकर अन्त तक तत्कालीन समाज की मनोदशाओं का सरल, स्वाभाविक चित्रण हुआ है। मालवा कला का सौन्दर्य भारतीय चित्रकला की उन आरम्भिक प्रवृत्तियों में है जो भक्ति कला के समान सहज एवं ओजपूर्ण रही है।

मुख्यशब्द-  चित्रण शैली, आध्यात्मिकता, दिग्दर्शन, अन्योन्याश्रित, रचनाधर्मी

कला, मानवीय अन्तर्मन की अभिव्यक्ति का श्रेष्ठ माध्यम है। मनुष्य के साथ ही साथ कला सृजन का इतिहास भी आरम्भ होता है। मानव ने अपनी भावनाओं की कई माध्यमों से अभिव्यक्ति की है। प्रारम्भ में जब असहाय मानव उन्मुक्त प्रकृति की गोद में संघर्षमय जीवन व्यतीत कर रहे थे, तब से लेकर अब तक उसने अपने भावों को चित्रों के माध्यम से व्यक्त किया है।

भारतीय कला पुरातनता, धार्मिकता, दार्शनिकता, एकीकरण और समन्वय के साथ-साथ सर्व जनहिताय एवं सर्व जन सुखायके आदर्शों का साकार रूप है। प्रागैतिहासिक अजन्ता, अपभ्रंश, मुगल, राजपूत एवं स्वतन्त्रता आन्दोलन के समय की विभिन्न कला शैलियों का दिग्दर्शन होता है जिसमें समन्वय, आध्यात्मिकता एवं लोकहित की भावना स्पष्ट परिलक्षित होती है।

भारतीय लघु चित्रकला के सन्दर्भ में हम देखे तो 9वीं शताब्दी के पश्चात् भित्ति चित्रों के स्थान छोटे-छोटे लघु चित्रों (ताड़पत्र, भोजपत्र, पटचित्र, कपड़ा, कागज) आदि को बनाया जाने लगा था, भारत में कागज का प्रचलन हमें 13 वीं शताब्दी से मिलता है, इसके पश्चात् अग्रिम शताब्दियों में यह माध्यम लघु चित्रण के लिए उपर्युक्त माध्यम बन गया। इसके पश्चात् लघु चित्रण का कार्य लोकप्रिय हो गया व विकसित होता गया। भित्ति चित्रण अवनति की ओर चला गया। 14वीं शताब्दी में कागज के प्रचलन से कागज की सचित्र पोथियाँ तैयार की जाने लगी, चूंकि भित्ति चित्रण जो दिवारों, छतों पर होता था अब भित्ति के स्थान पर कागज पर चित्रण कार्य करना प्रारम्भ हो गया जो अधिक सरल, व दिखने में सुन्दर, सुगम व सुगठित था। लघु चित्र युगों की गााथायें, प्रेम की कसक, सुख-दुखः की अनुभूतियाँ, छोटे-छोटे प्रयासों के निहितार्थ आकांक्षाओं के पारलौकिक आयाम अपने छोटे से पटल पर मूक रंग-रेखाओं में पिरोये भारत के महान रचनाधर्मी व्यक्तित्व और सौन्दर्याबोध की सदियों लम्बी विलक्षण यात्रा की मूर्तिमान साक्षी है।

पूर्वांचल, पश्चिमांचल, दक्षिणांचल, एवं उत्तरांचल के बीच भारत के हृदय स्थल में विद्यमान मालवा प्रदेश कवियों का व्यवहार क्षेत्र रहा है। मध्यप्रदेश में लघु चित्र शैली का प्रारम्भ मालवा से हुआ और माण्डु में ही चित्रित कल्पसूत्र 1437 0 इस शैली के प्राचीनतम ज्ञात उदाहरण है।मध्यभारत में मालवा लघु चित्रकारी की कला का विशेष महत्वपूर्ण स्थान है।

चित्र सं0 - 1, माण्डु कल्पसूत्र महावीर, समय-1435

कल्पसूत्र की कुछ सचित्र पाण्डुलिपियों के किनारे पर दिखाई देने वाली फारसी शैली और शिकार के दृश्यों से स्पष्ट है, पंद्रहवी शताब्दी के दौरान चित्रकला की फारसी शैली ने चित्रकला की पश्चिमी भारतीय शैली को प्रभावित करना प्रारम्भ कर दिया था।

मालवा लघुचित्रों का विकास- गुर्जन प्रतिहार शासक महीपाल के बाद 10 वीं शताब्दी में उत्तरी भारत में प्रतिहार और दक्षिण भारत में राष्ट्रकूट शक्ति कमजोर पड़ने के कारण, कमजोरी का लाभ उठाकर शासकों के विभिन्न सामन्त विद्रोह घोषित कर दुर्बल एवं अन्तिम प्रतिहार शासकों के शासनकाल में ही स्वतन्त्र हो गए। मालवा में परमार वंश का शासन पूर्णरूप से स्थापित हुआ इसी शासन में मालवा लघु चित्रों का विकास प्रारम्भ हुआ।प्रारम्भ में मालवा चित्रकला शैली कमजोर रूप में सामने आती है। बाद में 1680-900 में यह अपने चरम विकास पर पहंुच कर 17300 में पुनः उसी स्थिति में पहुँच जाती है जहां से प्रारम्भ हुई थी।अतः शाहजहाँ के स्थापत्य कला विकास के कारण ही मालवा की क्षेत्रीय शैली पुनः विकसित हो सकी।

भारतीय लघु चित्र शैली के अधिकांश चित्रों के विषय काव्यों तथा साहित्य (ग्रन्थों) पर आधारित है। इसी भाँति मालवा लघुचित्र शैली के चित्रों के विषय भी साहित्य जैसे- कल्पसूत्र, रामायण, महाभारत, देवी महात्म्य, बुस्तान आफ सादी (बोस्तां-ए-सादी)े पर आधारित है। काव्यों पर आधारित चित्र क्रमशः प्रेमकथाओं तथा नायिका भेद पर बने है। जिनमें नायक एवं नायिकाओं के विभिन्न संयोग एवं वियोग की अवस्था को चित्रों में दर्शाया गया है। 1634-35, 1640 एवं 1660-700 के रामायण चित्र राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली वाले रामायण चित्र सुघड़ रूप लिए, 1634-35 के चित्र रसिकप्रिया 16340 चित्रों के समान है, जिनमें पर्याप्त अपरिपक्वता है। भागवत् पुराण के चित्र क्रमशः 1645-50, 1660-70, 1690, 1700-17250 से प्राप्त होते कुछ चित्र 16400 वाले पर्याप्त पेशेवर दिखायी देते है। कुछ चित्र 18 वीं शताब्दी के भी है। इन चित्रों में गुजरात व राजस्थान का पर्याप्त प्रभाव है। जिसमें आकृतियां ठिगनी बनी हुई हैं, 1660, एवं 1660-700 वाले चित्र रामायण के 1660 एवं 1660-70 वाले चित्रों के समान विशेषता लिये हुये है।

रामायण-पवित्र इक्ष्वाकु-वंश में आर्य-नरपति दशरथ के पुत्रेष्टि यज्ञ फलस्वरूप से श्री रामचन्द्र तथा उनके कार्यव्युह स्वरूप तीन भाईयों ने जन्म लिया। वशिष्ठ जी ने समय-समय पर उन बालकों के जात कर्म, नामकरण आदि सभी संस्कार कराये।राजा के पुत्र चारों वेदों के विद्यमान और सुरवीर थे। सभी ज्ञानवान और समस्त सतगुणों से सम्पन्न थे। उनमें भी सत्य पराक्रमी श्री रामचन्द्र जी सबसे अधिक तेजस्वी और सब लोगों के विशेष प्रिय थे। मिथिला पहुंच कर श्री राम ने समस्त राजाओं के सामने शिव जी के भारी धनुष को तोड़ डाला। स्वयंवर शर्त के अनुसार सीता का विवाह राम के साथ होना निश्चित हुआ। जनक के निमन्त्रण पर राजा दशरथ तथा उनके सम्बन्धी राम विवाह के लिए मिथिला आये। इस प्रकार जनक जी ने सीता एवं राम के विवाह के साथ ही साथ अपनी छोटी पुत्री उर्मिला का लक्ष्मण तथा अपने लघु भ्राता की पुत्रियों श्रुतकीर्ति तथा मान्डिवी से भरत तथा शत्रुधन का विवाह कर दिया। विवाह उपरान्त जब चारों भाई तथा सम्बन्धियों सहित वापस लौटने लगे तो रास्ते में परशुराम मिले। रामचन्द्र जी अपनी प्रतिभा पराक्रम से उन्हें जीतकर समस्त जन अयोध्या आये। अयोध्या आनन्द में डूब गयी। थोड़े दिनों पश्चात् राजा दशरथ ने सतगुण सम्पन्न श्री राम को प्रजा के हित के लिए युवराज पद पर अभीषित करना चाहा। लेकिन कैकई के दो वरदान माँगने के कारण राम को चौदह वर्ष का वनवास तथा भरत को राज गद्दी निश्चित हुई। पिता को सत्य वचन तथा बन्धन में बंाधकर श्री राम वचन को पूरा करने के लिए लक्ष्मण तथा पतिपथ की अनुगामिनी सीता के साथ वन को गये।

चित्र संख्या-2, सूपर्णखा की नाक काटते हुये लक्ष्मण, 16900

अगस्त्य मुनि ने श्रीराम को इन्द्र का दिया हुआ धनुष तथा दो तुणीर जिनमें कभी भी वाण नहीं घटते थे, प्रदान किया। दण्डकारण्य वासी प्राणियों के निवेदन पर श्रीराम ने राक्षसों के वध की प्रतिज्ञा की और पंचवटी में रहने लगे। वनवास के तेरहवें वर्ष में जनस्थान में निवास करने वाली सूपर्णखा नाम की राक्षसी के अवैध प्रस्ताव पर लक्ष्मण ने उसकी नाक कान काटकर, कूरूप कर दिया। बदले की आग में रावण ने मायावी स्वर्ग हिरण (मारिचि) के द्वारा दोनों राजकुमारों को आश्रम से दूर हटाकर जनकनन्दिनी सीता का अपहरण कर लिया तथा जाते समय मार्ग में विघ्न डालने के कारण उसने जटायु नाम के गिद्ध को भी मार डाला। विदेह नन्दिनी को खोजते हुये राम एवं लक्ष्मण रावण द्वारा आहत किये हुए जटायु से मिले। जटायु मुख से सीताहरण का सामाचार सुनकर श्रीरामजी शोकसे पीड़ित होकर विलाप करने लगे, शोकावस्था में हो उन्होनें जटायु गिद्ध का अग्निसंस्कार किया। मालवा शैली के 1634

चित्र संख्या-3, स्वर्ण मृग (मारीचि) का शिकार करते हुए श्रीराम

संग्रहालय- राष्ट्रीय संग्रहालय, समय-1650 ई.

वाले चित्रों में हमें बाल सुलभअपरिपक्व रेखायें दिखाई देती है। वस्त्रों की रेखाओं में कोणीय प्रभाव, आकृतियों की रेखायें काश्ठ जैसे कटाव लिये हुये है। वृक्षों को आलंकारिक बनाया है। अपभ्रंश की पूर्ण जटिलता दिखाई देती है, परन्तु भावों का सूक्ष्म प्रदर्शन हुआ है।

चित्रकार ने चित्र में एक टक श्रीराम को देखता हुआ वह स्वर्ण मय हिरण चौकणी भर रहा है। जिससे शीर्षक की पुष्टि होती है। दूसरी ओर पीछे से तीर से रेखा खींचकर भ्रान्त मार्ग की ओर जाते हुए लक्ष्मण चिन्ता में कुछ लीन दिखाये हुए है। अतः अवश्य ही वह जानकी के लिए चिन्तित है। इसी चिन्तित दशा को चित्रकार ने लक्ष्मण जी के माथे पर पड़े हुए सरल माध्यम से, चलने की रीति से, हाथों की मुद्रा और आँख के प्रभा द्वारा दर्शाया है। चित्र के एक ओर कुटिया पर खड़ी हुई सीता जी एक हाथ आगे किये हुए क्रोध की मुद्रा में है। अतः राम ने मारीचि को बाण से भेदा तो सीता जी ने लक्ष्मण को अपने वाग्वाण से वेध दिया। चित्र में राम और सीता की मुख मुद्रा समान क्रोधित है। किनारे पर बहती हुई नदी की ठन्डक और पूर्णतया युगल सीता राम के क्रोध की उष्णता, चित्र के वीर रस में शान्त रस का मिश्रण कर रही है। स्वणर््ा मृग से निकलता हुआ रक्त चित्रकार ने बहुत ही कौशल से चित्रित किया है जो इस चित्र का लक्ष्य है। सम्पूर्ण चित्र एक जीता जागता दृश्य लग रहा है। टालस्टाय ने ठीक ही कहा है कि चित्र वही पूर्ण है जिसमें चित्रकार ने जो भाव उद्यीप्त हुए हो वहीं भाव दर्शक में उद्यीप्त हो जाए।यह प्रसंग रामायण का दूसरा दुःखपूर्ण प्रसंग है, जिसके बाद राम लक्ष्मण अकेले रह जाते है।

चित्र की सीमा रेखा, लगभग एक सूत सिन्दूरी लाल रंग से तथा हांसियें में बैंजनी और धानी हरे रंग से अलंकृत चित्रित किया गया है। लाल रंग से फूलो का अंकन हुआ है, जिनकी रेखाऐं बारीख है। क्षितिज में हल्का नीला रंग तथा धानी हरे रंग की सूक्ष्म रेखाओं का अंकन किया गया है। पृष्ठभूमि में हल्के गुलाबी रंग का प्रयोग हुआ है जिससें लाल वस्त्र पहने सीता जी की आकृति उभर रही है। ऐसा उभार लाना मालवा चित्रकारों की प्रमुख विशेषता रही है। समस्त वृक्ष अलंकारिक ढंग से गहरे धानी रंग से चित्रित किये गये है। वृक्षों के तने हल्के बैजनीं रंग के है। हिरण को पीले रंग से अलंकारिक छाया प्रकाश के माध्यम से चित्रित किया गया है। सुनहरे रंग से स्वर्ण मृग पर मालवा चित्रकार ने छोटी-छोटी बिन्दिया चित्रित की है। जिससे स्वणर््ा मृग का भास हो। काले रंग की लयात्मक रेखाओं से चित्रकार ने स्वर्ण मृग को उभारा है। मृग माधुर्य पूर्ण अंकित किया गया है। चित्र में कुटिया सफेद रंग की बनी हुई है, जिसके चारों ओर लक्ष्मण रेखा खींची हुई है। कुटिया के आसपास फूल पत्तियों की बेलों का अलंकरण कुटियां के सौन्दर्य में वृद्धि कर रहा है। कुटिया के अन्दर शैया बिछी हुई है, शैया पर तोशक तथा अलंकृत पलंगपोश बिछा हुआ है। पास में पानदान, पलंग के नीचे सुराही और दो पात्र रखे है, वह सोने के रंग से बनाये गये है। कुटिया की सीढ़ी पर सीता जी खड़ी है जो लाल रंग की ओढ़नी तथा गहरे लाल बैजनीं रंग का घाघरा पहने हुए है। कुटिया के नीचे आलेखन की एक पट्टी चित्रित है। इसी प्रकार सम्पूर्ण कुटिया पर आलेखन एवं छज्जे एवं आले भी चित्रित है। कुटिया में गहरे पीले रंग का प्रयोग जो प्रकाश का चित्रण है, कुटिया के नीचे अर्धचन्द्रकार आढ़ी तिरछी रेखाओं से हरें रंग की नदी चित्रित की गई है। पृष्ठभूमि में लाल रंग किया गया है। नीले रंग से क्षितिज अंकन विरोधी रंग योजना के लावण्य को दर्शा रहा है। आयुधों तथा आभूषणों में सोने के रंग का प्रयोग किया गया है। चित्र में रामचन्द्र जी पीली धोती पहने है तथा लक्ष्मण जी हरे रंग की। महीन पीले रंग की रेखाओं से उबड़-खाबड़ भूमि का चित्रण जंगल जैसा प्रतीत होता है। भूमि में छोटे-छोटे पौधों का भी अंकन चित्रकार ने किया है।

सम्पूर्ण चित्र में रेखायें लयात्मक है। परन्तु मानवाकृतियों में रेखायें कुछ सक्त है जो शैली को पहचानने के लिए मापक का काम कर रही है। सम्पूर्ण चित्र रंग रेखाओं तथा आकृति के संयोजन में मालवा चित्रकार की अपूर्व चित्रण शक्ति का परिचय दे रहा है।

महाभारत या भागवत् पुराण (दशम स्कन्ध)-जगत की पीड़ा हर लेने वाले साक्षात् प्रधान पुरूसेश्वर आदिदेव शेषनाग की शैया पर शयन करते है। उन्होनें देवताओं की प्रार्थना सुनकर भूलोक की रक्षा के लिये भारतवर्ष में अवतार लेने का निश्चय किया।

यादवों की पुरी मथुरा में राजा उग्रसेन थे। उनके बड़े भाई देवक की कन्या देवकी से वसुदेव जी का विवाह हुआ। विवाह के उपरान्त वर-बधू की विदाई के समय उग्रसेन-नन्दन कंस स्वयं वसुदेव देवकी का रथ चलाने लगा। उसी समय (देवताओं की पूर्ण योजना के अनुसार)आकाशवाणी हुई- ‘‘अरे निर्बोध, तू जिसका रथ चला रला है, उसी का आठवां गर्भ तेरा विनाश करेगा।’’ यह सुनते ही कालनेमि-तनय महान दैत्य कंस हाथ में तलवार लेकर बहिन देवकी का वध करने को तैयार हो गया। उसी समय वसुदेव जी ने कंस को समझाकर कहा कि ‘‘वसुदेव जी की बात पर विश्वास करके कंस ने देवकी, वसुदेव दोनों को कारागार में बन्द करवा दिया और वह निश्चिन्त हो गया।

तदन्तर देवकी के आठवें गर्भ से अर्द्धरात्रि के समय परिपूर्णतम भगवान श्रीकृष्ण अवतीर्ण हुए। उसी समय नन्दरानी यशोदा के गर्भ से कन्या के रूप में योगमाया प्रगटी। योगमाया के प्रभाव से सारा जगत सो गया। जेल के ताले खुल गये । तब भगवान श्रीकृष्ण की आज्ञा से वसुदेव जी श्रीकृष्ण चन्द्र को सूप में रख कर, गोकुल में नन्द यशोदा के घर पहुँचानें के लिए चल दिये। मार्ग में यमुना नदी में शेषनाग ने अपने फन से श्रीहरि की बरसात से रक्षा की तथा यमुना नदी ने वसुदेव जी को मार्ग दिया। गोकुल पहुंचकर वसुदेव ने नन्द शयनागार में जाकर यशोदा के पास श्रीकृष्ण को सुला दिया व कन्या को लेकर अपने स्थान पर लौट आये। देवयोग से कन्या के उत्पन्न होने और बदलने का आभास यशोदा को नही हुआ। इसके बाद कारागार में बालक की रूदन ध्वनि सुनाई पड़ी। शत्रु के भय से डरा हुआ कंस तुरन्त आ पहुंचा और उसने तत्काल उत्पन्न हुई कन्या को उठा लिया एवं उसे एक शिला पर पटक दिया। ठीक उसी समय कंस के हाथ से छुटकर कन्या बड़ी जोर से उछली और ऊपर आकाश में जाकर योगमाया के रूप में परिणत हो गयी।योगमाया ने कंस से कहा- अरे दुष्ट तेरा पूर्व का शत्रु कही उत्पन्न हो चुका है। देवी के इन वचनों से कंस बड़े आश्चर्य में पड़ गया। वह देवकी के समस्त बच्चों की हत्या के लिए पश्चाताप करने लगा, देवकी तथा वसुदेव को बन्धन मुक्त कर दिया। सभा भवन में पूतनादि दैत्यों को बुलाकर उसने आज्ञा दी की दस दिन के अन्दर पैदा जितने भी बालक हो सब को मार डालो। कंस की आज्ञा पाकर दैत्य गण बालको को मारने लगे। इधर नन्द ने भी पुत्र जन्म सुनकर महान उत्सव मनाने की योजना की और धूमधाम से जन्मोत्सव मनाया। कुछ दिनों बाद नन्द कंस का वार्षिक कर चुकाने के लिए मथुरा आये, वहाँ उनकी भेंट वसुदेव से हुई। उसी दिन परम सुन्दरी के रूप से सम्पन्न होकर पूतना नाम की राक्षसी अपने स्तन में कालकूट विष लगाकर नन्द भवन में आयी और अवसर पाकर स्तनपान कराने लगी। भगवान ने दूध की जगह प्राण पी लिये। जिससे वायु देह में आया हुआ सकटासुर छकड़े के नीचे दब कर मर गया।थोड़ें दिन बाद कन्हैया घुटने चलने लगे तथा मिट्टी खाने लगे। माता ने मिट्टी देखने के लिए मुह खोला तो प्रभु ने उन्हें विश्व रूप का दर्शन कराया।

श्रीकृष्ण ने अपने पिता वसुदेव जी को ब्रह्म-ज्ञान दिया तथा देवकी के मरे हुये छः पुत्रों को ला दिया। तदुपरान्त वह पुत्र स्वर्ग को चले गये। अतः इस सम्पूर्ण कथा के अनुसार विषयों पर हमें मालवी बोली में चित्र प्राप्त हुये हैं जो क्रमशः 1634, 1650, 1690, एवं 1700-17250 शती के है।

चित्र सं0-4, पूतना वध, भागवत् पुराण, संग्रहालय-राष्ट्रीय संग्रहालय, समय-1700-17250

पूतना पृथ्वी पर गिरी पड़ी है। उसके गिरने से उसकी पीठ के नीचे आये हुये बड़े-बड़े वृक्ष गिरकर चकनाचूर हो गये। जिसको चिकार ने पूतना के अनुपात में पौधों जैसा बनाया हैं। अतः इस राक्षसी की देह इतनी विशाल है, कि बड़े-बड़े वृक्ष भी पौधों के समान उसकी पीठ के नीचे दब गये हैं। चित्र में गोपों को पूतना का देह कुठारों से काटते हुये तथा एक ओर कटा हुआ एक हाथ एवं एक पैर भी जलता हुआ चित्रित किया गया है, चिता के पास दो गोप भी खड़े हुये है। चित्र के दूसरे भाग में नन्द बैलगाड़ी में गोपों के साथ मथुरा से कंस का कर चुकाकर तथा पुत्र जन्म का समाचार देकर गोकुल लौट आये है। पास में ही नन्द को गोप पूतना के वध का वृतान्त सुना रहे है। दोनों गोपों की हस्त मुद्रा से कुछ सुनाने का भाव दर्शित हो रहा है और नन्द की हस्तमुद्रा से आश्चर्य व भय का भाव दर्शित हो रहा है। चित्र के तीसरे भाग में उदार शिरोमणि नन्दबाबा ने मृत्यु के मुख से बचे हुये अपने लाला को गोद में उठा लिया है। उनके पास रोहिणी तथा यशोदा खड़ी हुई चित्रित की गई है।

अतः स्पष्ट है कि 17000 तक मालवा लघुचित्र शैली भाव चित्रण में अपने पूर्ण निखार की प्राप्ति हो चुकी थी। सपाट पृष्ठभूमि में मानव, पशु-पक्षी, राक्षस तथा जड़ आकृतियां, कथा से सम्बन्धित क्रियायें, हाव-भाव तथा हस्त मुद्रायें त्यों के त्यों चित्रित कर दिये है। वस्त्र सज्जा का चित्रण, रेखायें सशक्त तथा गतिमय है। वृक्ष-पौधों के समान बनाये गये है। मध्यकालीन जैसे शैली के समान सम्पूर्ण चित्र के कई भाग बनाकर पूरी कथा ‘‘पूतना दाह संस्कार’’ को चित्रित किया गया है।

भारत कला भवन बनारस से प्राप्त चित्र मालवा शैली का चीर हरण स्थानीय लोककला अपभ्रंश की जकड़न लिये हुये हैं। चित्र में कथा को आलेखन के समान अलंकारिक ढंग से चित्रित किया है। चित्र के बीचों-बीच एक विशाल वृक्ष अंकित है।

चित्र संख्या-5, गोपी वस्त्र हरण लीला, भागवत् पुराण संग्रहालय- भारत कला भवन, समय-16900,

जो ब्रह्म की विशालता का प्रतीक है। वृक्ष के दोनों ओर समान रूप वाले छोटे-छोटे वृक्ष अंकित है। वृक्षों के तने मोटे है। नीचे अग्रभूमि में तीन-तीन स्त्री आकृतियां विशाल वृक्ष के दोनों ओर खड़ी है। तथा दोनों ओर की स्त्रियां मुड़कर देख रही है। आँखें नुकीली चौर पंचाशिखा शैली में चित्रित है। रेखायें लयात्मक न होकर सीधी आड़ी तिरछी है। श्रीकृष्ण वृक्ष पर वंशी-वादन में मग्न है। वृक्ष के चारों ओर लाल रंग तथा पीले रंग के वस्त्र टंगे हुये है। नीचे पृश्ठभूमि में गहरे नीले रंग की पट्टी चित्रित है। हल्के नीले रंग से उनमें दो रेखाओं द्वारा नदी का चित्रण हुआ है। नदी में कमल खिले हुये है। चित्र में लोककला का पूर्ण प्रभाव तथा अलंकारिता होने पर भी भाव प्रधान एवं वर्तमान है।

16900 में रेखायें सूक्ष्म है, परन्तु उनकी आकृतियों में जटिलता पर्याप्त है, सभी उपकरणों में रेखाओं को अलंकरण की तरह खींचा गया है। परन्तु वस्त्रों की रेखायें पर्याप्त सपाट एवं कोणिय प्रभाव से युक्त है। हाशियों की रेखाएं न अधिक सूक्ष्म हैं न अधिक स्थूल है। 17000 से 1725 शती के चित्रों में रेखाऐं अत्यन्त सुन्दर एवं लयात्मक है, परन्तु आकृतियां बोनी होने से चित्रों में मालवा प्रभाव बना हुआ है जो इस शैली की विशिष्टता को बनाये रखता हैं। रेखायें झुकी हुई जो कृष्ण के प्रति आकर्षण एवं समर्पण को प्रदर्शित कर रही है। इसके बाद के चित्रों में हमें रेखाओं में जटिलता तथा अत्यधिक लोकतन्त्र के चित्र दिखाई देते है, जो मराठा मालवा प्रभाव है। उज्जैन के प्राच्य सिघ्न्यिा संस्थान में इसी प्रकार के मराठा चित्र भरे पड़े है।

चित्रों में भाव-

भारतीय चित्रकला में भाव का स्थान बहुत महत्वपूर्ण हे। किसी वस्तु को देखकर मन में किसी प्रकार की हलचल अथवा विकृति उत्पन्न होती है जिसके कारण हम उस वस्तु के प्रति आकृष्ट या विकृष्ट होते है। चित्रकार इसी भाव-भंगिमा को विभिन्न उपायों द्वारा अंकित करता है। कला का चाक्षुश रूप संवेदना प्रदान करता है किन्तु वह भावों की अभिव्यक्ति का साधन है, स्वयं साध्य नहीं। यदि रूप चित्र का शरीर है तो भाव कलाकृति का प्राण है। मनोभावों की तीव्रता मूर्त रूप में कला में अवतरित होती है। कलाकृति में सभी तत्वों के विश्लेषण से देखा जा सकता है कि उनके क्या मनोवैज्ञानिक प्रभाव होते है। रचना समग्र प्रभाव आँख के तन्तुओं में संवेदना जगाता है और सीधे मन पर उस भाव की छाप लगा देता है।भावों के माध्यम से ही रसानुभूति होती है।

चित्र सं0-6, बारहमासा, समय-16750, बोस्टन म्यूजियम

मालवा के चित्रों मे शारीरिक चेष्टाओं तथा अंग-भंगिमाओं का एक मात्र उद्देश्य भावों का प्रर्दशन रहा है।  चित्रों में अचल सजीव प्रकृति तथा पशु-पक्षी भी भावात्मक एकता तथा सामंजस्य प्रदान करते है और पुष्पित वृक्ष यौवन-भाव के प्रतीक रूप में चित्रित किये गये है। पशु-पक्षी, नाचते मोर, बन्दर आदि को आनन्द- मोर की भावनाओं को व्यक्त करते है। मानवीय चेष्टा तथा भंगिमाओं से भावों की अभिव्यक्ति सामान्यतः सभी तक संप्रेशित होती है। मालवा चित्रों में अथाह प्रेम में डुबी हुई रससिक्त आँखे, चटख रंगों तथा गतिशील मुद्रायें आदि भावाभिव्यक्ति के अप्रतिम उदाहरण है। अतः यहां चित्रकार ने सदैव भावों को चित्रतल पर चित्रित करने के लिये रूप को महत्व प्रदान किया है।

कलाकार भावों को सुधरे हुये धनीभूत तथा आदर्श रूप में प्रस्तुत करता है। जिससे वे प्रभावशाली बन सकें तथा कला रसिकों को प्रेरित कर सकें। कलाकार की कल्पना शक्ति जितनी प्रबल होगी वह उतने ही प्रभावशाली रूपों का निर्माण करने में समर्थ होगा। भारतीय कला मर्मज्ञों ने इसे समाधि तथा मानस-प्रत्यक्ष भी कहा है। कल्पना शक्ति के बल पर तो चित्रकार साधारण को भी असाधारण बना देता है जो मालवा चित्रों में देख सकते है।

चित्र सं0-7, मालकोस राग, समय-1640-60, बेवसाइट

कालक्रमानुसार चित्रों में परिवर्तन-

कला के आधुनिक दर्शन में यह स्वीकार किया जाता है कि कला का मानव जीवन में महत्वपूर्ण शारीरिक तथा सामाजिक उद्येश्य है। हमारी जो अनुभूतियाँ अस्पष्ट और क्रमहीन होती है कला उन्हें रूप देती है। कला का यही सबसे बड़ा शारीरिक और सांस्कृतिक कार्य है। इसके बाद सुन्तरता की बारी आती है। परम्परागत शास्त्रीय कला मानववादी रूप में आज भी जीवित है और आगें भी रहेगी।

प्रत्येक कला में समय-समय पर परिवर्तन होता रहता है। मालवा कलाकृतियों में अनूठा रंग संयोजन व आकृतियों का सौन्दर्य दर्शक को अपनी ओर खींचता है। मालवा में पुरूषाकृतियां, नारी हो या बालआकृतियाँ बनी हो अथवा पशु-पक्षी (गाय, घोड़े, हाथी, बंदर, मयूर) आदि का संयोजन सदा आंखों को भाने वाला रहा है। लोकरूपों-शैली के प्रति लगाव के कारण उनके चित्रों में लाल, पीले, नीले, भूरे रंग अपने चटक रूप में सामने आये है। महाकाव्यों और धर्म पर आधारित आकृति चित्र संयोजन बनाये जिसमें प्रकृति का चित्रण बहुत ही सुन्दर व अलंकारिक रूप में उभर कर आया।

चित्र सं0-8, गुजरी रागिनी, समय-1635, राष्ट्रीय संग्रहालय

मालवा की पारम्परिक चित्रण शैली जिसमें मालवा के नृत्य-नाटक सांझी, वेश-भूषा, वर्णों का मानवीय गुणों पर आकृतियां, लघु चित्रण का समावेश तथा सरलीकरण, चटक वर्ण विधान मुख्यातः लाल, पीला, हरा, नीला, श्वेत एवं श्याम वर्ण तथा कही-कही नारंगी, बैगनी रंग में, ज्यामितीय एवं अलंकारिक अलंकरण तथा सभी आकृतियों की रचना मेवाड़, दक्खन आदि शैली का प्रभाव, अजन्ता शैली में समान अंग व मुद्राओं के रूप में हमें समानताऐं देखने को मिलती है। मालवा के अन्तर्गत लघुचित्र हो या भित्ति चित्र हमें यहाँ कई चित्र शैलियों का प्रभाव देखने को मिलता है।

लघुचित्र चित्रकला जगत की अनमोल धरोहर है। मालवा चित्रों में मानवमन के समस्त भाव परिलक्षित होते है। चाहे वह रति, हृास, शोक, उत्साह, क्रोध, घृणा, भय, अद्भुत, शान्त हो। चित्रकार ने चित्रों में रूपविन्यास, रेखाकर्म, वर्णविन्यास, वर्तनाकर्म, आलंकरणों इत्यादि के माध्यम से सादृश्य, प्रमाण, लावण्ययोजना, वस्त्र-आभूषण, प्रतीक अलंकरण, गति, लय, क्रिया आदि की सहायता और सहयोग, सामन्जस्य, सन्तुलन, प्रवाह, प्रमाण आदि सिद्धान्तों के अनुसार मूलभाव की नाना प्रकार की मुद्राओं को महत्तव प्रदान कर सृजन किया।स्थापत्य चित्रण में मालवा कलाकारों की कमाल की पकड़ है। चित्रों में अन्तराल का सर्वत्र सर्वांगीण सन्तुलन है। मालवा चित्रकारों ने परम्परागत विधि से सृजनात्मक आयामों में चित्रण कर मालवा शैली को एक गौरवमयी स्थान प्रदान किया है।

सन्दर्भ ग्रन्थ सूची-

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9. https://www.britannica.com/art/malwa-miniature-painting

10. https://www.newworldencyclopedia.org/entry/malwa/madhyapradesh

11. https://www.britannica.com/art/malwa-painting

12. https://indianminiature.org/malwa.html