Research Phenomenon
ISBN: 978-93-93166-26-5
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प्राचीन भारतीय इतिहास में धार्मिक एवं आर्थिक पयर्टन की निरंतरता

 अमित ताम्रकार
असिस्टेंट प्रोफेसर
इतिहास विभाग
स्वामी विवेकानन्द शासकीय पीजी महाविद्यालय
 नरसिंहपुर, मध्य प्रदेश, भारत 

DOI:
Chapter ID: 17869
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संस्कृत साहित्य में पर्यटन अर्थात ज्ञान प्राप्ति के लिए यात्रा करना देशाटन अर्थात आर्थिक लाभ या व्यापार के लिए यात्रा करना तीर्थाटन अर्थात धार्मिक यात्रा करना। भारत में तीर्थ स्थलों का अलग-अलग दिशाओं में स्थापित होने के पीछे एक उद्देश्य मनुष्य को अपने घर से बाहर की दुनिया देखने समझने के अवसर प्रदान करना है। हम पर्यटन को 4 अक्षरों के अर्थ में सीमाबद्ध नहीं कर सकते क्योंकि यह ऐसा शब्द है जिसमें पूरा संसार समाया हुआ है इसमें भौगोलिक, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक धार्मिक और सांस्कृतिक इतिहास छुपा हुआ है साथ ही व्यक्तित्व विकास का मनोविज्ञान भी विद्यमान है।'

सिंधु घाटी सभ्यता के पूर्व मानव प्राकृतिक पर्यटन का आनंद लेता था। वह जंगल नदी पर्वत पठार, झरने इत्यादि का उपभोग करता था। सिंधु घाटी सभ्यता के उपरांत मानव निर्मित कृत्रिम अथवा भौतिकवादी पर्यटन को बढ़ावा मिला जिसमें नगर मंदिर, महल, किला, स्नानागार मूर्ति तालाब, गुफा, स्तूप, चित्र इत्यादि पर्यटन स्थलों का मानव उपभोग करने लगा जो आज भी जारी है।

मानव के पृथ्वी पर जन्म के साथ ही वह भोजन की प्राप्ति के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान पर भ्रमण करता था नवपाषाण काल में उसका जीवन स्थाई हुआ लेकिन अभी भी वह अपनी दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भ्रमण शील था सिंधु घाटी सभ्यता के उद्भव के परिणाम स्वरूप बड़े-बड़े नगरों का विकास हुआ और इस समय व्यापार वाणिज्य सुदृढ़ स्थिति में था। अतः व्यापार के उद्देश्य से एक से दूसरे गावं शहर एवं अन्य देशों की यात्राएं होती थी इस काल के प्रमुख नगर थे मोहनजोदड़ो, हड़प्पा, कालीबंगा, लोथल इत्यादि मोहनजोदड़ो का स्नानागार किसी धार्मिक उद्देश्य को प्रदर्शित करता है अतः यहां अन्य स्थानों से लोग आते थे जिससे धार्मिक पर्यटन को बढ़ावा मिला। लोथल बंदरगाह नगर था यहां से मिश्र, मेसोपोटामिया इत्यादि से व्यापार होता था जिसने आर्थिक पर्यटन को बढ़ावा दिया।

वैदिक संस्कृति के लोग घुमंतू प्रवृत्ति के थे, क्योंकि वैदिक कालीन जीवन अस्थाई था पशुपालन मुख्य व्यवसाय था जबकि कृषि सीमित मात्रा में होती थी अर्थात जीवन निर्वाह के लिए लोग एक स्थान से दूसरे स्थान पर भ्रमण करते थे। 600 बीसी तक आते-आते लोहे का औजार के रूप में उपयोग होने लगा। जिससे कृषि हेतु जमीन की उपलब्धता में वृद्धि हुई और कृषि के क्षेत्र में तकनीकि (फॉल) विकास से कृषि उत्पादकता में वृद्धि हुई। कृषि क्रांति के कारण अधिशेष में वृद्धि से कर का विकास हुआ जिससे अंततः राज्य का उदभव हुआ। जिसे हम 16 महाजनपदों के रूप में देखते हैं इन जनपदों के आपस में राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक संबंधों के कारण पर्यटन को बढ़ावा मिला।

"मगध साम्राज्य के उत्कर्ष के परिणाम स्वरूप चंद्रगुप्त मौर्य के नेतृत्व में संपूर्ण भारत का राजनीतिक एकीकरण हुआ जिससे व्यापार वाणिज्य का विकास हुआ और मौर्य युग में अन्य देशों के साथ व्यापारिक एवं कूटनीतिक संबंध स्थापित हुए। मेगस्थनीज़ डायोनिसियस, डाईमेकस इत्यादि यूनानी विद्वान मौर्य साम्राज्य में दूत के रूप में रहे जो प्राचीन काल में अंतर्राष्ट्रीय पर्यटन को स्पष्ट करता है।"

मौर्योत्तर काल में व्यापार वाणिज्य का तीव्र विकास हुआ अर्थव्यवस्था अत्यंत मजबूत स्थिति में थी। इस समय भारत का पश्चिमी देशों विशेषकर रोम के साथ व्यापार अत्यंत सुदृढ़ स्थिति में था और व्यापार संतुलन भारत के पक्ष में था मध्य एशिया से गुजरने वाला व्यापारिक मार्ग जो चीन को पश्चिम के एशियाई भू-भागों एवं रोम साम्राज्य से जोड़ता था को सिल्क मार्ग अथवा रेशम मार्ग के नाम से जाना जाता था जिसमें भारतीय व्यापारियों की भूमिका चीनी रेशम के व्यापार में मध्यस्थ की थी प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व में रोमन साम्राज्य की एक महान शक्ति के रूप में उभरने से भारतीय व्यापार को काफ़ी प्रोत्साहन मिला क्योंकि भारत में प्राप्त होने वाली विलासिता सामग्री की पूर्वी रोम में बहुत मांग थी इस समय भारत के पश्चिमी देशों चीन दक्षिण पूर्वी एशिया अरब देशों, इथोपिया इत्यादि के साथ व्यापारिक एवं कूटनीतिक संबंध बहुत मजबूत थे जिससे स्पष्ट होता है कि इस समय अंतरराष्ट्रीय पर्यटन उद्योग काफी समृद्ध था।'

इस समय राजनीतिक एकीकरण एवं समृद्ध व्यापार वाणिज्य के कारण कई बड़े शहरों का विकास हुआ जैसे पाटलिपुत्र, काशी कौशल, उज्जैनी इत्यादि। भारत के पश्चिमी तट पर स्थित बंदरगाह भड़ौच था पश्चिमी एशिया का अधिकांश व्यापार इसी बंदरगाह से होता था। पश्चिमी तट पर प्रसिद्ध नगर थे सोपारा एवं कल्याण दक्षिण का बंदरगाह कावेरीपत्तिनम एक नगर के रूप में भी विकसित था। तक्षशिला विभिन्न दिशाओं से आने वाले माल के संग्रह स्थल के रूप में प्रसिद्ध था मौर्योत्तर काल में कश्मीर, कौशल, विदर्भ एवं कलिंग हीरो के लिए, मगध वृक्षों के रेशे से बने वस्त्रों के लिए एवं बंगाल मलमल हेतु प्रसिद्ध था। इस समय उज्जैनी उत्तर दक्षिण एवं पूर्व पश्चिम के मध्य एक व्यापारिक केंद्र के रूप में प्रसिद्ध था । दक्षिण पूर्व एशिया एवं भारत के बीच में व्यापार के बढ़ने की वजह थी रोमन लोगों में मसालों की अधिक मांग जिसकी पूर्ति भारत अपने स्थानीय उत्पादों से कर पाने में अक्षम था। इसलिए भारत को दक्षिण पूर्व एशिया एवं रोम के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभानी पड़ी। इस समय अंतर्राष्ट्रीय व्यापारिक पर्यटन अपने चरम पर था सर्वप्रथम रोमन साम्राज्य के साथ व्यापारिक संबंध दक्षिण के तमिल राज्यों ने स्थापित किए | पतंजलि ने मथुरा में सटका नाम के वस्त्र के पाए जाने का उल्लेख किया है। सूती वस्त्र के अन्य केंद्र उरैयुर एवं अरिकामेडू थे।

गुप्त काल में व्यापार एवं वाणिज्य अपने उत्कर्ष पर था उज्जैन भड़ौच, विदिशा, प्रयाग पाटलिपुत्र, वैशाली, ताम्रलिप्ती, मथुरा अहिच्छत्र कौशांबी आदि महत्वपूर्ण व्यापारिक नगर थे इन सब में उज्जैन सर्वाधिक महत्वपूर्ण व्यापारिक स्थल था इस समय चीनी यात्री फाड्शन ने भारत की यात्रा की पूर्व में भारत का व्यापार चीन से हो रहा था इन दोनों के मध्यस्थ की भूमिका श्रीलंका निभाता था ।पूर्वी तट पर स्थित बंदरगाह ताम्रलिप्ति घंट शाला एवं कद्दूरा से शायद गुप्त शासक दक्षिण पूर्व एशिया से व्यापार करते थे। पश्चिमी तट पर भड़ौच कँबे सोपारा कल्याण आदि बंदरगाहों से भूमध्य सागर एवं पश्चिम एशिया के साथ व्यापार होता था। इस समय चीन से रेशन इथोपिया से हाथीदांत, अरब, ईरान एवं बेक्ट्रीया से घोड़ों आदि का आयात होता था । भारतीय जलयान निर्वाध रूप से अरब सागर, हिंद महासागर एवं चीन सागर में विचरण किया करते थे गुप्त काल के अंतिम दिनों में व्यापार का ह्रास होने लगा क्योंकि रोम साम्राज्य निरंतर हूणों के आक्रमण को झेलते हुए कमजोर हो गया था दूसरा रोमन जनता ने छठी शताब्दी के मध्य चीनियों से रेशम उत्पादन की तकनीकि सीख ली थी इस प्रकार हम देखते है कि इस समय उत्तर से दक्षिण, पूर्व से पश्चिम तक संपूर्ण भारत के साथ ही वैश्विक स्तर पर पर्यटन उद्योग काफी फल फूल रहा था।

छठी सदी ईसा पूर्व में धार्मिक कर्मकांडीय व्यवस्था के प्रतिक्रिया स्वरूप अनेक प्रकार के धार्मिक आंदोलनों का आविर्भाव हुआ जिसमें बौद्ध धर्म एवं जैन धर्म अधिक लोकप्रिय एवं चिरस्थाई रहे। महात्मा बुद्ध ने 29 वर्ष की अवस्था में गृह त्याग किया गृह त्याग की उपरांत सर्वप्रथम ये वैशाली के नजदीक अलार कलाम आश्रम गये। बोधगया में उनके पास दो बजारे आए तपस्यु और मिल्लक इन्हीं बंजारों को बुद्ध ने सर्वप्रथम अपना शिष्य बनाया और उपदेश दिया। इसके बाद बुद्ध सारनाथ आए यहां पर उन्होंने ब्राह्मण सन्यासियों को अपना प्रथम उपदेश दिया। सारनाथ से चलकर काशी पहुंचे। काशी से उरुवेला यहां से राजगृह पहुंचे जहा सम्राट बिम्बिसार ने उनका स्वागत किया तथा वेलुवन दान में दिया। भ्रमण करते हुए बुद्ध कपिलवस्तु पहुंचे। वैशाली में ही लिच्छावियो ने उनके निवास के लिए महावन में प्रसिद्ध कुटाग्रशाला का निर्माण करवाया। वैशाली से बुद्ध समसुमारगिरी गए यहां उन्होंने अपना आठवां वर्षा काल व्यतीत किया। यहां के बाद वे वत्सराज उदयन की राजधानी वैशाली गए जहां पर अपना नवां वर्षा काल बिताया | महात्मा बुद्ध ने अपने उपदेश मगध, कौशल, वैशाली, कौशांबी एवं अनेक राज्यों में दिए बुद्ध ने अपने सर्वाधिक उपदेश कौशल देश की राजधानी श्रावस्ती में दिए। महात्मा बुद्ध अपने जीवन के अंतिम पड़ाव में कुशीनारा पहुंचे जहां 483 ईसा पूर्व में 80 वर्ष की अवस्था में उनकी मृत्यु हुई। जिसे बौद्ध धर्म में महापरिनिर्वाण की संज्ञा दी गई। मृत्यु के बाद बुद्ध के शरीर के अवशेष को 8 भागों में बांट कर उन पर 8 स्तूपों का निर्माण कराया गया यह स्तूप धार्मिक पर्यटन के प्रमुख केंद्र के रूप में उभरे जो आज भी पर्यटन के प्रमुख स्थल है। "

इस समय हीनयान संप्रदाय के लोग श्रीलंका, वर्मा, जावा आदि देशों में फैले हैं। महायान संप्रदाय के लोग तिब्बत, चीन, कोरिया, मंगोलिया एवं जापान में है दक्षिण भारत में बौद्ध धर्म की लोकप्रियता का सूत्र सातवाहन काल तक खोजा जा सकता है। आंध्र प्रदेश में जग्गयपेट, अमरावती और भट्टपोलू के स्तूपों पर लेख मिले हैं बौद्धों के अन्य संप्रदाय नासिक, कन्हेरी में भदायनीय, कारला में महासांघिक सोपारा और जुन्नार में धर्मत्तरीय, अमरावती में चेतकीय अजंता एलोरा बौद्ध धर्म के प्रमुख केंद्र थे कृष्णा नदी के तट पर नागार्जुनकोंडा महायान संप्रदाय का एक महत्वपूर्ण केंद्र था। इस प्रकार यह समस्त धार्मिक नगर धार्मिक पर्यटन की प्रमुख स्थल थे जहां देश के साथ ही संपूर्ण विश्व के पर्यटक आते थे।

छठी सदी ईसा पूर्व में हुए धार्मिक आंदोलनों में बौद्ध धर्म के साथ ही जैन धर्म भी एक प्रमुख संप्रदाय बनकर उभरा। जैन अनुश्रुति के अनुसार ऋषभदेव इक्ष्वाकु भूमि अयोध्या में पैदा हुए थे । उन्हें जैन धर्म के संस्थापक, प्रवर्तक एवं पहले तीर्थंकर के रूप में जाना जाता है इनकी मृत्यु अड्डायय ( कैलाश पर्वत) पर हुई थी। जैन धर्म के 23वें तीर्थंकर पार्शवनाथ काशी नरेश अश्वसेन के पुत्र थे 30 वर्ष की अवस्था में पार्शवनाथ ने घर त्याग कर सम्मेद पर्वत पर कठोर तपस्या कर 84 वें दिन कैवल्य प्राप्ति की । इन्होंने करीब 70 वर्ष तक साकेत राजगृह, हस्तिनापुर, कौशांबी श्रावस्ती में धर्म का प्रचार किया, जिससे ये स्थल पर्यटन के प्रमुख केन्द्र बनकर उभरे।

24 वे तीर्थंकर महावीर स्वामी का जन्म 599 ईसा पूर्व में वैशाली के निकट कुण्डग्राम में हुआ 42 वर्ष की अवस्था में जुनिक ग्राम के समीप ऋजुपालिका नदी के किनारे साल के वृक्ष के नीचे केवल्य ( ज्ञान ) की प्राप्ति हुई। ज्ञान प्राप्ति के उपरांत महावीर स्वामी ने चंपा, वैशाली मिथिला, राजगृह, श्रावस्ती अंग कौशल विदर्भ, मगध आदि स्थानों का भ्रमण कर जैन मत का प्रचार प्रसार किया। दिगंबर मान्यता के अनुसार महावीर का प्रथम उपदेश राजगृह के वितुलाचल पर्वत पर हुआ था। कुण्डग्राम में उन्होंने दयानंद ब्राह्मणी और ब्राह्मण ऋषभदेव को दीक्षा दी। कौशांबी में उन्होंने राजा शतानिक के पुत्र उदयन को दीक्षा दी महावीर स्वामी को तात्कालिक वज्जि, लिच्छवी तथा मगध के राजवंशों से अच्छे संबंध थे । मगध के शासक अजातशत्रु और बिंबिसार उनके संरक्षक थे। उदयन भी एक जैन था चंद्रगुप्त मौर्य भी जैन धर्म का उपासक था । चंद्रगुप्त मौर्य का पौत्र संप्रति ने जैन धर्म के विकास के लिए कार्य किया । कलिंग नरेश खारवेल जैन धर्म का संरक्षक था मगध का राजा बिंबिसार तथा कौशल नरेश प्रसेनजित दोनों के वर्धमान महावीर तथा गौतम बुद्ध के साथ समान मैत्रीपूर्ण संबंध थे गुजरात के चालुक्य शासकों ने जैन धर्म को प्रोत्साहन दिया यह राज्य जैन धर्म और जैन मंदिरों का निर्माण करने वाले धनाढ्य व्यापारियों के लिए प्रसिद्ध था इन शासकों के प्रयास से भी पर्यटन को बढ़ावा मिला।"

पांचवी शताब्दी के बाद दक्षिण भारत के गंग कदंब चालुक्य तथा राष्ट्रकुटों ने जैन धर्म को संरक्षण प्रदान किया। कुषाण काल में मथुरा जैन धर्म का एक प्रमुख केंद्र था 30 वर्ष लगातार जैन धर्म का प्रचार करने के बाद 72 वर्ष की आयु में 468 ईसा पूर्व में राजगृह के समीप स्थित पावा नामक स्थान पर महावीर स्वामी को निर्वाण प्राप्त हुआ। जैन धर्म के समर्थक राजाओं में उदयन, बिंबिसार अजातशत्रु, चंद्रगुप्त मौर्य बिंदुसार एवं खारवेल का जिक्र मिलता है । इस धर्म के प्रधान केंद्र के रूप में मथुरा एवं उज्जैन का उल्लेख मिलता है। पांचवीं सदी में कर्नाटक में बने जैन मठों को बसदिस कहा गया। स्थापत्य कला में जैनियों ने महत्वपूर्ण योगदान के रूप में हाथी गुफा मंदिर (उड़ीसा), दिलवाड़ा मंदिर माउंट आबू (राजस्थान), गोमतेश्वर प्रतिमा (कर्नाटक) तथा खजुराहो मंदिर में पाश्र्वनाथ आदिनाथ का मंदिर उल्लेखनीय है। प्रथम जैन संगीति पाटलिपुत्र में एवं दूसरी वल्लभी में हुई थी जिसमें संपूर्ण देश जैन धर्म के उपासक सम्मिलित हुए होंगे जिसने धार्मिक पर्यटन को बढ़ावा दिया।

जैन एवं बौद्ध धर्म के उदय से ब्राह्मणवादी धर्म का कर्मकांडीय पक्ष कुछ समय के लिए बाधित हुआ। किंतु शुंगकाल में वह पुनरुज्जीवित हो उठा। शुंग सातवाहन एवं आंध्र शासकों ने यज्ञ किए थे। राजस्थान के पास घोसुंडी से प्राप्त एक लेख में अश्वमेघ यज्ञ कराने का उल्लेख मिलता है गुप्त काल में धार्मिक भावना अमूर्त से मूर्त की ओर झुकने लगती है और यज्ञ का स्थान मूर्ति पूजा ले लेती है। विभिन्न राजवंशों के राजा वैदिक यज्ञ करवाते रहे। समुद्रगुप्त ने अश्वमेध यज्ञ किया। वाकाटक वंश के संस्थापक प्रवरसेन ने अश्वमेघ, अग्निस्टोम बृहस्पतिसाव तथा अन्य कई यज्ञ करवाए चालुक्य शासकों ने भी यज्ञ करवाए। इन यज्ञों में सम्पूर्ण देश के लोग सम्मिलित हुए होंगे जिससे धार्मिक पयर्टन और समृद्ध हुआ।

वैष्णव धर्म के प्रवर्तक कृष्ण थे उनका निवास स्थान मथुरा था । इस धर्म में प्रारंभिक अभिलेख के रूप में दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व में यूनानी राजदूत तक्षशिला निवासी हेलिओडोरस ने गरुड़ध्वज स्थापित कराया । गुप्त काल जो वैष्णव धर्म का चरमोत्कर्ष का काल था में वैष्णव धर्म के महत्वपूर्ण अवशेष के रूप में देवगढ़ ( झांसी) में स्थित पंचायतन श्रेणी का दशावतार मंदिर है। राष्ट्रकूट नरेश दंतिदुर्ग द्वारा स्थापित एलोरा में दशावतार का मंदिर काफी प्रसिद्ध है। चंद्रगुप्त द्वितीय के काल में उदयगिरी गुफा के उत्कीर्ण लेख में विष्णु के वराह अवतार का उल्लेख है। विष्णु के वामन अवतार का उल्लेख स्कंद गुप्त के जूनागढ़ के लेख में उत्कीर्ण है। गुप्त काल में वैष्णव धर्म का प्रचार प्रसार भारत से बाहर दक्षिण-पूर्व एशिया हिंद चीन, कंबोडिया, मलाया एवं इंडोनेशिया तक हुआ। जिससे वैश्विक धार्मिक पर्यटन को बढ़ावा मिला।

"सर्वप्रथम मूर्ति पूजा के अंतर्गत गुप्त काल में ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश की पूजा का उल्लेख मिलता है कुमारगुप्त प्रथम के समय में करमदंडा एवं खोह में शिवलिंग की स्थापना हुई। इसी काल में भूमरा एवं नचना कुठार में शिव एवं पार्वती के मंदिरों का निर्माण हुआ। चंदेल युग में खजुराहो में कंदरिया महादेव मंदिर का निर्माण हुआ। एलोरा का प्रसिद्ध कैलाश मंदिर का निर्माण राष्ट्रकूटों ने किया पाशुपत संप्रदाय के संस्थापक लकुलीश का मंदिर मेवाड़ में है। मत्स्येंद्र नाथ ने नाथ संप्रदाय की स्थापना की। इस संप्रदाय का व्यापक प्रचार-प्रसार बाबा गोरखनाथ के समय में हुआ। इन सभी मंदिरों में धार्मिक पर्यटन हेतु देश के साथ ही संपूर्ण विश्व से लोग आज भी आते है।"

इस प्रकार हम देखते हैं कि मानव सभ्यता के विकास के परिणाम स्वरूप उसके जीवन के विभिन्न पहलुओं जैसे सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक क्षेत्र से जुड़े विभिन्न क्रियाकलापों ने पर्यटन को अत्यधिक बढ़ावा दिया सबसे बड़ी बात यह थी कि वैश्विक व्यापार एवं भारतीय धर्मों के वैश्विक प्रसार ने प्राचीन काल में आंतरिक पर्यटन के साथ-साथ वैश्विक पर्यटन भी काफी विकसित अवस्था में था। प्राचीन धार्मिक स्थल आज भी पर्यटकों के सबसे पसंदीदा स्थल है जहां संपूर्ण देश से ही नहीं संपूर्ण विश्व से लोग आते हैं जिससे आज पर्यटन उद्योग काफी समृद्ध है जिसका राष्ट्रीय आय एवं रोजगार में महत्वपूर्ण योगदान है लेकिन कोविड 19 के कारण इस उद्योग का गहरा धक्का लगा है। लेकिन अब पुनः पर्यटन अपने विकास की ओर अग्रसर है।

संदर्भ ग्रंथ सूची

1. व्यास, डॉ. हंसा, पर्यटन में ऐतिहासिक अनुप्रयोग, पृ. 01

2. झा एवं श्रीमाली, प्राचीन भारत का इतिहास, पृ. 80-81

3. झा एवं श्रीमाली, प्राचीन भारत का इतिहास, पृ. 87-90

4. श्रीवास्तव, के.सी. प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, पृ. 72

5. झा एवं श्रीमाली, प्राचीन भारत का इतिहास, पृ. 133

6. झा एवं श्रीमाली, प्राचीन भारत का इतिहास, पृ. 175

7. झा एवं श्रीमाली, प्राचीन भारत का इतिहास, पृ. 185

8. शर्मा, रामशरण, प्राचीन भारत, एन.सी.ई.आर.टी. पृ. 183-185

9. झा एवं श्रीमाली प्राचीन भारत का इतिहास, पृ. 238-239

10. श्रीवास्तव के.सी. प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, पृ. 467

11. झा एवं श्रीमाली, प्राचीन भारत का इतिहास, पृ. 151-152

12. श्रीवास्तव, के.सी., प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, पृ. 840

13. श्रीवास्तव, के.सी. प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, पृ. 842

14. श्रीवास्तव, के.सी., प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, पृ. 818-820