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तंजौर का बृहदीश्वर मंदिर |
डॉ. धर्मेंद्र कुमार तिवारी
विषय विशेषज्ञ
प्राचीन भारतीय इतिहास और पुरातत्व विभाग
लखनऊ विश्वविद्यालय
लखनऊ उत्तर प्रदेश, भारत
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DOI:10.5281/zenodo.8351666 Chapter ID: 18091 |
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भारत को मंदिरों का देश कहा जाय तो अत्युक्ति नही होगी क्योंकि देश के विभिन्न
भागों में आज भी अनेक प्रकार के देवी-देवताओं के मंदिर प्राप्त होते हैं। दक्षिण
भारत में आज भी मंदिरों की संख्या बहुतायत में है, इसकी अपेक्षा उत्तर भारत में मंदिर कम
संख्या में पाए जाते हैं। कहा जाता है कि उत्तर भारत में नदियों में निरंतर बाढ़ और
विभिन्न प्रकार के आक्रमणकारियों द्वारा किए गए आक्रमण से मंदिर प्रायः नष्ट हो
गए। भारत में बौद्ध स्तूपों और चैत्यों की परम्परा ही कालान्तर में हिन्दू मंदिर
निर्माण का आधार बने होंगे और सम्भवतः गुप्तकालीन शासकों (319ई0-550ई0) ने इन्हीं से प्रेरणा लेकर हिन्दू मंदिरों के
निर्माण परम्परा का विकास किया होगा। भारत के हिन्दू मंदिर मात्र साधारण भवन का
रूप नहीं थे वरन् ये तत्कालीन जन-जीवन का केन्द्र बिन्दु थे। दक्षिण भारत के
मंदिरों को प्रायः ’देवस्थानम्’ नाम से
सम्बोधित किया जाता है। यहां मंदिर निर्माण में दो विभिन्न शैलियों का प्रचलन
मिलता है- 1. द्रविण शैली 2. चालुक्य शैली दक्षिण भारत के प्रायः पूर्वी भाग ;तमिलनाडु तथा आंध्र प्रदेश के कुछ भागद्ध
में और चालुक्य शैली पश्चिमी भाग (कर्नाटक तथा आंध्र प्रदेश
के कुछ भाग) में प्रचलन में थी। द्रविण और चालुक्य शैली में
निर्मित इन मंदिरों में प्रायः निम्नलिखित अंग मिलते हैं- 1. गर्भगृह - इसमें मुख्य देवता की मूर्ति स्थापित की जाती है। 2. प्रकोष्ठ - गर्भगृह के पहले का कक्ष, इसे
अंतराल भी कहा जाता है। 3. मण्डप - गर्भगृह और प्रकोष्ठ के आगे स्तम्भों से घिरा सभागृह। 4. विमान - गर्भगृह के उपर का उंचा शिखर 5. गोपुरम् - मंदिर प्राचीर की चारों दिशाओं में प्रवेश-द्वारों
के उपर बने बहुमंजिले भवन जिन्हें नाना प्रकार की पौराणिक देव-प्रतिमाओं तथा
लता-वृक्षादि से सजाया जाता था।[1] दक्षिण भारत में लगभग 400 वर्षों (850ई0-1279ई0) तक चोल साम्राज्य की सत्ता रही। इसमें भी राजराज
प्रथम से लेकर कुलोत्तुंग प्रथम तक (985ई0-1170ई0) लगभग 200 वर्ष चोल सत्ता
अपने चरमोत्कर्ष पर रही। चोल सम्राटों में राजराज प्रथम (985ई0-1014ई0) और उसके पुत्र राजेन्द्र प्रथम (1014ई0-1044ई0) ने चोल
साम्राज्य को न सिर्फ भारत में ही वरन् इसके बाहर सिंहल (श्रीलंका) और दक्षिण-पूर्वी एशिया में भी विस्तृत किया, अर्थात
इन क्षेत्रों में भी चोल साम्राज्य के मण्डलम् (प्रान्त) स्थित थे। चोल शासक राजराज प्रथम एक सर्वगुण सम्पन्न शासक था। जितना राजनीतिक उपलब्धियों
के लिए जाना जाता है उससे कहीं अधि कवह अपनी सांस्कृतिक उपलब्धियों के लिए भी
स्मरणीय है। उसकी राजनीतिक सफलताएं तो समय के साथ-साथ कुछ शताब्दियों बाद जन-मानस
में विस्मृत हो गईं लेकिन उसका सबसे महान कृत्य आज भी पूरी शान से खड़ा है और विश्व
के करोड़ों लोगों की आश्चर्यभावना को बढ़ाता हुआ विश्वकला की एक अमूल्य धरोहर बना
हुआ है। वह है अपनी राजधानी तंजाउर में अपने शासन के 24वें वर्ष (1009ई0) में पूरी तरह से निर्मित कर लिया जाने वाला उसका
राजराजेश्वर (वृहदीश्वर) मंदिर जो अपनी
सादगी के बावजूद अपनी विशालता, सौन्दर्य और भव्यता में अपना
कोई सानी नहीं रखता।[2] तंजाउर का यह महान मंदिर जिसे ’वृहदीश्वर’ कहा जाना उपयुक्त ही है, अपने निर्माता राजराज प्रथम के नाम पर ’राजराजेश्वर’
भी कहलाता है। इसकी परिकल्पना विशाल स्तर पर एक सम्पूर्ण परिसर के
रूप में की गई थी और इसका निर्माण इसके संस्थापक द्वारा ही पूरा करवा लिया गया था।
यह तमिल वास्तुशिल्प का महत्वाकांक्षी उद्यम और उपलब्धि है।[3] राजराजेश्वर या वृहदीश्वर मंदिर भारतीय मंदिरों में सबसे बड़ा और सबसे उंचा है।[4]
इस मंदिर का निर्माण एक वृहद् योजना द्वारा सम्पन्न हुआ। इसकी
लम्बाई लगभग 180 फीट तथा इसका पिरामिडाकार शिखर 190 फीट उंचा है। इस मंदिर का प्रांगण एक विशाल आयताकार घेरे के अन्तर्गत आता
है, जो 500 फीट लम्बा एवं 250 फीट चौड़ा है। यह देवालय इस विशाल प्रांगण के केन्द्रीय भाग में अवस्थित
है। इसकी निर्माण योजना को हम चार भागों में विभक्त कर सकते हैं- 1. मुख्य मंदिर (विमान) 2. मुख मंडप 3. नान्दी मंडप 4. महामंडप (वृहत सभा भवन) मंदिर के ये विविध प्रधान भाग एक सीध में स्थित हैं तथा उनका निर्माण एक ही
समय सुनियोजित विधान के आधार पर किया गया था। चारों भागों की लम्बाई मिलकर 180 फिट के
बराबर है।[5] 500 फीट लम्बे और 150 फीट
चौड़े चबूतरे पर बना हुआ यह मंदिर चारों तरफ दीवारों से घिरा हुआ है। दक्षिण भारतीय
मंदिरों के चारों ओर इस प्रकार की चहारदीवारी बनाए जाने का यह प्रथम उदाहरण है,
जो सम्भवतः रक्षा की दृष्टि से कम राजशाही महलों की बनावट की नकल के
रूप में ही अधिक समझा जा सकता है। विमान, अर्द्धमण्डप,
महामण्डप और उसके सामने भी एक नन्दीमण्डप निर्मित है। इन सभी के
सामने पूर्व की ओर एक गोपुर निर्मित है। इस मंदिर का गोपुर भी मंदिर के परकोटे की
तरह ही, एक नए चलन के रूप में स्वीकार किया जाता है। इस
विशाल गोपुर के आगे एक छोटा गोपुर भी ह जिसके नीचे मुख्य मंदिर द्वार है। मंदिर का
मुख्य भाग तो उसका विमान है, जो पश्चिमी दिशा में गर्भगृह की
जमीन से 200 फीट उपर तक उठा हुआ हैउसकी सुन्दरता इस कारण
निखर उठती है कि उसके सभी भागों के निर्माण बड़ी सादगी से हुए हैं और उसमें उबाउ
अलंकरण नहीं किए गए हैं। ए0 एल0 बैशम
के शब्दों में- ’’उस समय तक बनाए गए सभी भारतीय मंदिरों में
आकार दृष्टि से यह सर्वाधिक बड़ा मंदिर है।’’[6] निश्चित ही
इस मंदिर का विमान द्रविड़ शैली का सबसे उंचा विमान है और यह पिरामिड प्रकार का है।
इस मंदिर की रचना ग्रेनाइट के विशाल पत्थर खण्डों से की गई है, जो कि बहुत दूर से यहां मंदिर निर्माण के लिए लाए गए हैं, क्योंकि इस क्षेत्र में इस प्रकार का पत्थर नहीं मिलता।[7] इस मंदिर का गर्भगृह 82 फीट लम्बा एवं 50 फीट उंचा है। इसकी
चोटी पर विद्यमान शिखर 13 कटिबंधों में विभक्त है। यह नीचे
मोटा तथा उपर क्रमानुसार पतला होता गया है। दसके सर्वोच्च स्थान पर द्रविड़ शैली
में गुम्बद (स्तूपिका-शीर्षक) निर्मित
है।[8] डॉ0 विशुद्धानन्द पाठक के
अनुसार- ’’मंदिर का गर्भगृह 45 फीट
वर्गाकार रूप में निर्मित है, जिसके चारों तरफ 7 फीट चौड़ा प्रदक्षिणा मार्ग है। इस मार्ग की दीवारों पर अत्यन्त सुन्दर
भित्तिचित्र बने हुए हैं। भीतर के महान आकार वाले शिवलिंग को पहले ’राजेश्वर’ और अब ’वृहदीश्वर’
लिंग कहा जाता है।’’[9] डॉ0 ए0 एल0 श्रीवास्तव के अनुसार- ’’इस मंदिर के गर्भगृह में अत्यंत विशाल शिवलिंग स्थापित है।’’[10] देवालय की भित्तियों के आलों में शिव प्रतिमाएं तराशी गई हैं। साथ ही अन्य
देवी-देवताओं की आकृतियां भी इनमें यत्र-तत्र प्राप्य हैं। गर्भगृह की भित्तियां
भी चित्रों से सुसज्जित हैं, उदाहरणार्थ एक चित्र में शिव कैलास में निवास करते हुए
प्रदर्शित हैं। वास्तु विन्यास तथा प्रतिमालंकरण की दृष्टि से भगवान शिव का यह
प्रासाद बेजोड़ है।[11] इस मंदिर निर्माण के लगभग 20 वर्ष बाद राजराज के पुत्र राजेन्द्र प्रथम ने स्वनिर्मित नई राजधानी ’गंगैकोण्डचोलपुरम्’ में वृहदीश्वर नाम से ही एक नए
मंदिर का निर्माण करवाया। दोनों के वास्तुशिल्प के आधार पर विद्वानों का मानना है
कि तंजौर का वृहदीश्वर मंदिर पौरुष प्रधान है, वहीं
गंगैकोण्डचोलपुरम का मंदिर कोमलता प्रधान है।[12] उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट होता है कि शिव के अनन्य भक्त और ’शिवपादशेखर’
से विभूषित राजराज ने अपनी शक्ति, ऐश्वर्य एवं
उत्कर्ष के प्रतीक तथा आराध्य देव के प्रति कृतज्ञताज्ञापन स्वरूप में विशाल
देवालय का निर्माण करवाकर जो दृष्टान्त प्रस्तुत करना
चाहता था कि अपने पूर्व सभी मंदिरों की तुलना में वह भव्यतम् और सभी कसौटी पर खरा
उतरे। यह स्वीकार करना पड़ेगा कि वह अपने दृढ़ निश्चय एवं संकल्प में सर्वथा सफल
सिद्ध हुआ। प्रसिद्ध कलाविद् पर्सीब्राउन ने तो सच ही इसे ’’भारतीय
वास्तुकला की कसौटी’’[13] कहा है। संदर्भ ग्रन्थ 1. श्रीवास्तव, ए0 एल0
- भारतीय कला, पृ0 151 2. पाठक, विशुद्धानन्द - दक्षिण भारत का
इतिहास, संस्करण-चतुर्थ 2018, पृ0
387 3. श्रीनिवासन, के0 आर0
- दक्षिण भारत के मंदिर, अनु0-उमेश दीक्षित, संस्करण-आठवां, 2022 4. पाठक, विशुद्धानन्द - उपर्युक्त,
पृ0 461 5. राय, उदय नारायण - भारतीय कला, संस्करण-तृतीय 2019, पृ0 217 6. पाठक, विशुद्धानन्द - उपर्युक्त,
पृ0 461 7. श्रीवास्तव, बलराम - दक्षिण भारत,
संस्करण-प्रथम,1982,पृ0 473-474 8. राय, उदय नारायण - उपर्युक्त, पृ0 217 9. दक्षिण भारत का इतिहास, संस्करण-चतुर्थ
2018, पृ0 461 10. श्रीवास्तव, ए0 एल0
- उपर्युक्त, पृ0 155 11. बजपेयी, के0 डी0
- भारतीय वास्तुकला का इतिहास, पृ0 140 12. श्रीवास्तव, बलराम - उपर्युक्त,
पृ0 474-475
13. इंडियन आर्किटेक्चर, भाग-1, पृ0 103 |