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भारतीय संस्कार : परिवर्तित आयाम ISBN: 978-93-93166-25-8 For verification of this chapter, please visit on http://www.socialresearchfoundation.com/books.php#8 |
भारतीय संस्कृति में षोडश संस्कार: एक परिचय |
अपेक्षा मीना
एसोसिएट प्रोफेसर
संस्कृत विभाग
बीएनडी गवर्नमेंट कॉलेज
चिमनपुरा, शाहपुरा, जयपुर राजस्थान, भारत
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DOI:10.5281/zenodo.13709544 Chapter ID: 18098 |
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संस्कारों का भारतवर्ष मे एवं मानव जीवन में प्राचीन
काल से अत्यधिक महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। संस्कारों के द्वारा मानवीय चित्त की
शुद्धि होती है, मनुष्यों के चरित्र का निर्माण होता है, सदगुणों
का संचार होता है, दोष व दुर्गणों का नाश होता है। मानव जीवन को जन्म से
लेकर मृत्युपरान्त तक सार्थक बनाने में जो सत्य-शोधन की व्यवस्था बनाई गई, वे ही
संस्कार कहे गये। मानव को जन्म से लेकर मृत्युपरान्त तक 16 संस्कारों में आबद्ध कर
दिया गया। समाज-विज्ञान की दृष्टि से भी संस्कारों का विशेष महत्व है, इनके
माध्यम से ही सामाजिक मानवीय गुणों का विकास सदियों और सहस्राब्दियों से होता रहा
है। ये व्यक्तिगत और सामाजिक विकास के लिए एवं दैहिक व भौतिक जीवन के लिए परम
आवश्यक हैं। संस्कारों का मूल आधार धर्म एवं कर्मकांड ही रहे हैं। जिसके माध्यम से
मनुष्य का जीवन उन्नत; परिष्कृत एवं सुसंस्कृत बनता है। मनुष्य का जीवन
संस्कारों से परिचलित होता है। प्राचीन एवं अवार्चिन समय में अच्छे संस्कारो का
विशेष महत्व रहा है- संस्कार वाला व्यक्ति यश एवं संस्कार विहीन व्यक्ति अपयश
का भागी होता है।
व्यक्ति का जीवन संस्कारों के ही दूसरे रूप में
स्वीकार किया गया। भारतीय संस्कृति में प्रचलित 16 संस्कारों के उद्देश्य अनेक थे। “उपनयन
जैसे संस्कारो का सम्बन्ध था आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक उद्देश्यों से, उनसे
गुण सम्पन्न व्यक्तियों से सम्पर्क स्थापित होता था, वेदाध्ययन का मार्ग खुलता था तथा अनेक
प्रकार की सुविधाएँ प्राप्त होती थी।[1] संस्कारों से ही संस्कृति का निर्माण होता है क्योंकि संस्कार वयक्तिक होते
हुए सामाजिकता में रूपान्तरित हो जाते हैं। कालांतर में ये सभी संस्कार
संबंधित क्षेत्र की संस्कृति में परिवर्तित होकर विराट सामाजिक संस्कृति का रूप ले
लेते है। भारतीय संस्कृति में वर्णाश्रम धर्म को अत्यधिक महत्व दिया गया है क्योंकि वर्णाश्रम धर्म भारतीय संस्कृति के आधार स्तम्भ के रूप में स्थापित किया
गया। वेद के रूप में ईश्वर ने मानव को एक संविधान देकर सुव्यवस्था प्रदान की, जबकि
उपनिषदों ने मानव मन में उभरने वाले अनेक गम्भीर व रहस्मयी प्रश्नों का
समाधान देकर उसकी शंकाओ का समाधान किया। अब जरूरत थी की एक सुव्यवस्थित समाज को
आगे बढ़ाने की जिसके लिए वैदिक ऋषियों ने वर्णाश्रम- धर्म, पुरुषार्थ
चतुष्टयः एवं संस्कारों का विधान किया संस्कारों का क्रमिक विकास- हमारे प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद में संस्कारों का वर्णन नहीं मिलता, अपितु
इसके कुछ सूक्तों में विवाह, गर्भाधान और अंत्येष्टि से
संबंधित कुछ अंशो की झलक मिलती है। 'यजुर्वेद' में श्रौत
यज्ञों का, 'अथर्ववेद' में
विवाह, अंत्येष्टि और गर्भाधान संस्कारों का विस्तार से वर्णन मिलता है। गोपथ और शतपथ ब्राह्मणों में उपनयन गौदान
संस्कारों का तैतरीय उपनिषद् में दीक्षांत संस्कार का परिचय प्राप्त होता है। “इस प्रकार संस्कारों का विशद वर्णन हमें सर्वप्रथम
गृह्यसूत्रों में ही पूरे नियम व पूर्ण पद्धति के साथ उपलब्ध होते है, गृहसूत्रों से पूर्व पारंपरिक प्रथाओ के आधार पर ही संस्कार होते थे।“
इसके उपरान्त स्मृति शास्त्रों में आचार प्रकरणों में संस्कारों का
उल्लेख एवं तत्संबंधी नियम भी हमें प्राप्त होते हैं। संस्कारों की अवधारणा- “संस्करोतीती संस्कार” अर्थात् जो स्वच्छ
करते हैं पवित्र करते हैं, वे संस्कार कहलाते हैं।
संस्कारहीन पुरुष शूद्रवत माना जाता है। “जन्मना जायते
शूद्रः संस्काराद् द्विज उच्यते”। अर्थात जन्म के समय
प्रत्येक बालक शूद्र होता है। संस्कार के द्वारा उसे द्विज पद की प्राप्ति होती है
यहां द्विज शब्द से आशय है जिसने दो बार जन्म लिया है। बालक एक बार जन्म लेकर
संसार में पदार्पण करता है और दूसरी बार संस्कार युक्त होकर समाज के अनुरूप बनता
है। संस्कार का अर्थ है- बाह्य तथा आंतरिक दृष्टि से समान रूप से विकसित करने वाले
वे कृत्य जो समाज को संचालित करने की शक्ति प्रदान करते है। समाजशास्त्री “मैकाइवर संस्कार शब्द को परिभाषित करते हुए कहते है की “संस्कार का अर्थ औपचारिक व प्रतिष्ठित प्रकृति की ऐसी स्थापित कार्यवाही है जिसका उद्देश्य किसी संदर्भ या अवसर की महता को
अंकित करना होता है”।[2] साधारणत:
संस्कार शब्द का प्रयोग शुभ संस्कारो के लिए किया है। संस्कार शब्द का प्रयोग अनेक
अर्थो में किया जाता है। 'मेदनी कोश में इसका तात्पर्य
है, प्रतियत्न, अनुभव, और मानस कर्म। 'संस्कार शब्द की निष्पत्ति सम् उपसर्ग पूर्वक कृ धातु से घञ प्रत्यय करने से होती है। इस शब्द का अर्थ है"- धार्मिक विधि विधान अथवा वह कृत्य जो आत्मिक सौन्दर्य का आन्तरिक तथा बाह्य दृश्य प्रतीक हो”। यही नहीं, इस संस्कार पद से शिक्षा, संस्कृति, प्रशिक्षण, शुद्धि, परिष्करण, आभूषण अर्थ भी गृहीत होते हैं।[3] “वीरमित्रोदय संस्कृत प्रकाश' में संस्कारों के बारे में कहा गया है- 1. शारीरिक एवं आध्यात्मिक प्रकृति के आधायक सविधि अनुष्ठानों
का नाम संस्कार है। 2. मीमांसक, “संस्कारो को शब्द का
आगमय यज्ञांगभूत पुरोडाशादि की विधिवत् शुद्धि मानते
है। अद्वैत वेदान्ती 'जीव पर शारीरिक क्रियाओं में मिथ्या
आरोप को संस्कार कहते हैं। इस प्रकार विभिन्न विचारों से यह माना जा सकता है कि ' सविधि संस्कारों के अनुष्ठान से संस्कृत व्यक्ति में विचक्षण एवं अवर्णनीय
गुणों का प्रादूर्भाव हो जाता है। अंग्रेजी में संस्कार के लिए "सेक्रामेंट
शब्द का प्रयोग किया जाता है, जिसका तात्पर्य धार्मिक
विधान है। अत: "संस्कार व्यक्ति के शारीरिक, सामाजिक बौद्धिक, और धार्मिक परिष्कार से निर्मित वह धार्मिक क्रिया है, जो विशुद्ध, पवित्र
अनुष्ठान में आस्था रखती है। इस प्रकार संस्कार के प्रमुख लक्षण हुए- पवित्रता का
सन्निवेश, मन का परिष्करण, धर्म
और अर्थ का आचरण और क्रियागत विधान।" इन संस्कारो के द्वारा, इनके माध्यम से व्यक्ति का परिष्कार सम्भव है, इसलिए
भारतीय प्राचीन जीवन में समाज के लिए संस्कार अत्यन्त अनिवार्य धार्मिक विधान रहे
हैं। भारतीय शास्त्रों में मानव जीवन के प्रत्येक पहलू को संस्कारों के साथ जोड़कर
देखा गया है। यथा – गर्भाधान, जातकर्म, मुण्डन आदि से प्रारंभ होकर अन्त्येष्टि तक| जैमिनि सूत्र में शबर द्वारा सँस्कार शब्द
का अर्थ दिया है " संस्कार वह है जिसके होने से कोई पदार्थ या व्यक्ति किसी
के लिए योग्य हो जाता है”।[4] तन्त्र
वार्तिक में संस्कार की परिभाषा देते हुए कहा गया है “संस्कार
वे क्रियाएँ हैं जो योग्यता प्रदान करती है।" वीर मित्रोदय ने संस्कारो को परिभाषित करते हुए कहा “यह एक विलक्षण योग्यता है जो शास्त्र विहित क्रियाओं के करने से उत्पन्न
होती है। यह योग्यता दो प्रकार की है - (1) जिसके द्वारा व्यक्ति अन्य
क्रियाओं के योग्य हो जाता है। 2. दोष (यथा जातकर्म संस्कार से वीर्य एवं
गर्भाशय का दोष मोचन होता है) से मुक्त हो जाता है। संस्कारों का वर्गीकरण- जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त मानव जीवन को संस्कारों में बांधा गया था। अब
प्रश्न यह उठता है कि भारतीय शास्त्रों मे संस्कारों की संख्या कितनी है? संस्कारों
की संख्या के विषय में सभी स्मृतिकारों में मत भेद ही रहा है। महर्षि गौतम ने 40 संस्कार बताये | गृहसूत्रों, धर्मसूत्रों
एवं स्मृति ग्रन्थों में इतने संस्कार नहीं मिलते। अंगिरा ने 25 संस्कार, व्यास ने 16 संस्कार बताये है, किन्तु मनु,याज्ञवल्क्य, विष्णुधर्मसूत्र में कोई संख्या नहीं
बतायी गई है। इस प्रकार संस्कारों की अलग-2 संख्या
दृष्टिगोचर होती है, पर सर्वसम्मति या अधिकांश साहित्य में, भारतीय संस्कृति में प्रमुख संस्कारों की संख्या 16 मानी गयी है। प्राय: सभी धर्म शास्त्रकार 16 संस्कार मानते हैं, जिनका वर्गीकरण इस प्रकार
है- 1. गर्भाधान संस्कार, 2. पुंसवन, 3. सीमन्तोन्नयन, 4. जातकर्म, 5. नामकरण, 6 निष्क्रमण, 7. अन्नप्राशन, 8. चूडाकर्म, 9. कर्णभेद, 10. विद्यारम्भ, 11. उपनयन, 12. वेदारम्भ, 13. केशान्त, 14. समावर्तन, 15. विवाह, 16. अन्त्येष्टि | 1 गर्भाधान "माता के गर्भ में शिशु की बीज रूप में प्रतिष्ठा होना ही गर्भाधान
संस्कार कहलाता है। इसे निषेक भी कहते हैं। आचार्यों ने इस संस्कार की परिभाषा
देते हुए कहा है- "गर्भः संधार्यते येन कर्मणा तद्गर्भाधानमित्यनुगतार्थ
कर्मनामधेयम्।”[6] अर्थात जिस कार्य के द्वारा पुरुष स्त्री में वीर्य को स्थापित करता है, उसे
ही गर्भाधान संस्कार कहते हैं। देवताओं का आवाहन करते हुए, यज्ञादि से अन्त:करण को पवित्र करके, मन्त्रोच्चारणपूर्वक
स्त्री-पुरुष परस्पर अनुरक्त होकर इस कार्य को किया करते थे। पति-पत्नी में परस्पर, अनुराग-युक्त स्वीकृति से इस संस्कार को सम्पन्न किया जाता है। व देवताओं
से प्रार्थना की जाती है कि वह गर्भ की रक्षा करे तथा गर्भाधान के दसवें महीनें
में' उत्पन्न होने का सामर्थ्य सन्तति को दें। आचार्य
मनु ने कहा है कि गर्भाधान के अवसर पर पत्नी सब प्रकार से खुश और सन्तुष्ट रहे, क्योंकि अप्रसन्न स्त्री गर्भाधान करने में असमर्थ रहती है अत: इस अवसर पर
पति का कर्तव्य है कि वह पत्नी को वस्त्राभूषण से प्रसन्न रखकर उसका सहयोग प्राप्त
करें। गर्भाधान का समय ऋतुदर्शन के दिन से सोलहवीं रात्रि तक का उपयुक्त समय माना
गया है एवं प्रथम चार दिनों को व अमावस्या, अष्टमी, पौर्णमासी और चतुर्दशी इन चार तिथियों को छोड़कर इस संस्कार को पूर्ण करना
चाहिए । 2 पुंसवन संस्कार पुंसवन संस्कार से अभिप्राय 'उस धार्मिक अनुष्ठान को पूर्ण करने से हैं, जिससे गर्भस्थ शिशु पुरुष सन्तति रूप में जन्म लें। इस संस्कार की परिभाषा
देते हुए कहा गया है- (क) पुमाल्लब्धो
जायते येन तत् पुंसवनम।"[7] आश्वलायन गृह्यसूत्र 1/13/1 इस संस्कार को करने का प्रयोजन यह था कि स्त्री जब-जब भी
गर्भधारण करे वीर पुत्र को ही जन्म दे, इसके लिए स्त्री
को पीपल आदि वृक्षों से बनी हुई औषधियों का सेवन कराया जाता था, यह संस्कार गर्भ के तीसरे महीने में सम्पन्न किया जाता था। पुराणों की भी
मान्यता है कि" तेजस्वी पुत्र की प्राप्ति के लिए यह संस्कार होता था”।[8] इस प्रकार इस संस्कार के माध्यम से गर्भिणी स्त्री को स्नेह युक्त सान्त्वना
देना, उसके गर्भस्थ शिशु की रक्षा करना, तदर्थ मन्त्रोच्चारण पूर्वक औषधि देना, एवं
स्त्री को प्रसन्न रखा जाता था। 3 सीमन्तोननयन “सीमान्तोन्नयन प्रथम गर्भे चतुर्थमासि”[9] । यह संस्कार गर्भ के चौथे मास में किया जाता था। इस संस्कार को निम्न तरीके से
परिभाषित किया गया है “भर्त्राचैव समायोगे सीमन्तोन्नयने तथा”[10] इस संस्कार में" पति द्वारा गर्भिणी पत्नी के केशों (सीमान्त) को
संवार कर ऊपर (उन्नयन) उठाया जाता था। ऐसा विश्वास था कि जब स्त्री गर्भवती होती
है, तब उस पर अनेक विघ्न-बाधाएँ आती है, उसके निवारण के लिए किया जाता है। इस संस्कार को अमङ्गलकारी शक्तियों
(प्रवृत्तियों) को भगाने के लिए ही किया जाता है। इस संस्कार का अन्य प्रयोजन -
माता के लिए ऐश्वर्य तथा गर्भस्थ शिशु के लिए दीर्घायुष्य की कामना करना भी था।
बौद्धायन गृहसूत्र में हमें संकेत मिलते है कि, "गर्भवती
स्त्री को प्रसन्न करना भी इस संस्कार का प्रयोजन है।" 4 जातकर्म संस्कार यह संस्कार शिशु के जन्म लेने के बाद अर्थात जब शिशु जन्म लेता था, तब किया जाता था। शास्त्रों में कहा गया है (1) जाते च दारके जातकर्म”।[11] (2) “जातकर्मादि संस्कार : कण्ठः पुण्यकृताः वरः”।[12] (3)" प्रसवी जातकर्म च”।[13] “सन्तति के जन्म लेने पर नान्दी पाठ एवं श्राद्धादि का
विधान करते हुए पिता, पुत्र के लिए हितकारी जातकर्म
संस्कार का आयोजन करे।[14] अधिकांश
वांग्मय में यही संकेत मिलता है कि " जातकर्म संस्कार प्रसवोपरान्त ही
सम्पन्न किया जाता है।” किन्तु मनु व वीर मित्रोदय ने कहा है
कि बालक के जन्म के पश्चात नाल काटने से पूर्व यह संस्कार करें। इस संस्कार
में मन्त्रोच्चरण के साथ नवजात शिशु को सोने की शलाका से शहद एवं घृत का प्राशन
कराया जाता है। इस संस्कार का उद्देश्य निर्विघ्न प्रसव के अतिरिक्त बालक को
शूरवीर, यशस्वी, वर्चस्वी
बनाने का था।[15] इस प्रकार
जातकर्म में ऐसे कृत्य किये जाते थे, जिनसे माता एवं
नवजात शिशु का सर्वविध कल्याण हो । 5 नामकरण संस्कार- नामकरण की परम्परा वैदिक युग से ही थी "इस संसार में प्रत्येक वस्तु और
व्यक्ति का नाम होता है, नाम ही वह तत्व है, जो
व्यक्ति को सामान्य से विशेष बनाता है, उसकी
पहचान बनाता है, उसका बड़ा महत्व है।[16] आचार्य बृहस्पति ने नाम का महत्व बताते हुए अपना मत प्रकट किया है-"
नाम सकल व्यवहार का कारण है, शुभ कार्यो में 'भाग्योदय का हेतु है, कीर्ति प्राप्त कराने वाला है, अतएव नामकरण आवश्यक है।[17] संतान को नाम
प्रदान करना भी एक संस्कार माना गया है। नवजात के नामकरण के विषय में प्रथम उल्लेख
शतपथ ब्राह्मन में इस तरह मिलता है" तस्मात्पुत्रस्य जातस्य नाम कुर्यात्।"
समस्त ग्रन्थों के अनुसार- यह संस्कार जन्म के दशवें व बारहवें दिन सम्पन्न किया
जाता है। कुछ ग्रन्थों में "यह संस्कार - दूसरे वर्ष के प्रारम्भ में करने का
भी संकेत मिलता है। ऋग्वेद के ऐतरेय ब्राह्मण में गुह्यनाम का भी संकेत मिलता है।
नामकरण संस्कार में "निर्धारित दिन में नवजात शिशु और उसकी माता को स्नान
कराने के बाद, सूतिकागृह को शुद्ध करके, स्वस्तिवाचन पूर्वक मातृपूजा तथा श्राद्धादिकर्म सम्पन्न करके
मंत्रोच्चारणपूर्वक कलश स्थापित किया जाता है। सुन्दर और कर्णप्रिय नाम अच्छे माने जाते रहे हैं। ये नाम प्राय: देवताओं, नक्षत्रों व
प्रकृति के पदार्थो आदि के नामों पर होते थे। 6 निष्क्रमण संस्कार- नवजात शिशु को विधि विधान के साथ प्रथम बार गृह से बाहर लाने की विधि का नाम
निष्क्रमण है, तत्सम्बद्ध संस्कार निष्क्रमण संस्कार है। यह चौथे मास
में होने वाला संस्कार हैं, बालक घर से बाहर निकलकर
सूर्य का दर्शन करता था।"[18] यह संस्कार चौथे मास
में होता था, क्योंकि उस वक्त तक बालक हवा, सूर्य एवं चन्द्रमा की रोशनी को सहन करने योग्य बन जाता है। सूत्र ग्रन्थों
में यह संस्कार माता-पिता द्वारा शिशु को सूर्यदर्शन कराकार ही किया जाता था, किन्तु बाद के साहित्य में अधिकाधिक विधि-विधानों के साथ यह संस्कार किया
जाने लगा। इस प्रकार इस संस्कार में आशीर्वाद पूर्वक शिशु का प्रारम्भिक परिचय
बाह्य जगत से कराया जाता था। सूर्य एवं चन्द्र दोनों दिव्य ज्योति है एवं भगवान्
विष्णु के नेत्रों का प्रतीक है । सूर्य एवं चन्द्र दोनों के दर्शन से शिशु की
नेत्रज्योति बढाना भी इस संस्कार का उद्देश्य है। स्वच्छ वायु में धीरे धीरे ले
जाने की आदत डालना भी इस संस्कार का उद्देश्य है। 7 अन्नप्राशन संस्कार- जब बालक (शिशु) को पहली बार अन्न खिलाया जाता है, व धार्मिक कृत्य किये जाते थे उसी को 'अन्नप्राशन
संस्कार' कहा जाता है। 'सुश्रुत संहिता में शिशु की षष्ठ
मासे, गृहसूत्रों में भी यह संस्कार जन्म के छठें मास
में सम्पन्न का कराने का "विधान मिलता हैं। मनुस्मृति एवं याज्ञवल्क्य
स्मृति के अनुसार- भी छठें मास में ही यह संस्कार किया जाता है, किन्तु लौगाक्षी के अनुसार-शिशु की पाचन शक्ति के बढ़ने, दातों के निकलने के पश्चात ही यह संस्कार करने का विधान है। इस अवसर पर
दूध, दही, मधु और भात खीर
बच्चे के मुख से स्पर्श कराया जाता था। अन्नप्राशन न कराने पर माता और शिशु दोनों
की शक्ति क्षीण हो सकती है। अन्न से शरीर बनता है, इसलिए
अन्न को भी देवता मानकर उसकी स्तुति की गई है। इस प्रकार शिशु को तेजो वर्धक, बलवर्धक और उर्जोत्यादक भोजन देने का उपदेश देना ही इस संस्कार का
उद्देश्य है। 8 चूडाकरण संस्कार- इस संस्कार के अन्तर्गत शिशु के बाल पहली बार काटकर शिखा रखी जाती थी । शिशु के सर्वप्रथम बाल काटने का आयोजन चूडाकर्म संस्कार कहलाता है। इसे आधुनिक शब्दों में 'जडूला उतारना' कहते है। चूडा का तात्पर्य शिखा या चोटी से हैं, इसमें शिखा को छोड़कर सिर के सभी बाल काट दिये जाते थे, इसे मुंडन संस्कार भी कहा जाता था। प्राचीन मान्यतानुसार चूडाकर्म से दीर्घायु एवं कल्याण प्राप्त होता है। आचार्य मनु ने सभी द्विजाति बालकों का यह संस्कार वेद और धर्म सम्मत रूप से पहले और तीसरे वर्ष में करने को कहा - कालांतर में यह संस्कार मंदिरो में किया जाने लगा था । वैदिक साहित्य में भी इस संस्कार के प्रमाण मिलते हैं। एवं चरक व सुश्रुत ने शिशु की पुष्टि, पवित्रता, दीर्घायु व सौंदर्य के दृष्टिकोण से इस संस्कार को परम आवश्यक माना है। - “पौष्टिकं वृष्यमायुष्यं शुचिरूपं विराजमानम् ।[19] केशश्मश्रु नरवादीनां कर्तनं सम्प्रसाधनम्॥" वैज्ञानिक दृष्टि से भी इस संस्कार का अत्यधिक महत्व है- शिखा जिस स्थान पर
रखी जाती है, वह कोमलतम स्थान है, केशों से
उसकी रक्षा होती है। "यह संस्कार धर्म, अर्थ, काम व पुरुषार्थ की सिद्धि करने वाला है”।[20] 9 कर्णभेद संस्कार- इस संस्कार में बालक के कानों को छेदा जाता था। इस संस्कार का सर्वप्रथम संकेत
हमे अथर्ववेद में मिलता है, “लोहितेन स्वधितिना मिथुनं कर्णयोः कृधि।
अकर्तामिश्विना लक्ष्म तदस्तु प्रजया बहु।"[21] (लोहे
की शलाका से दोनों कानों के ऊपर चिन्ह करें। अश्विनी कुमार चिन्ह के स्थान को
इंगित करें। इससे सन्तति का कल्याण होता है)। सुश्रुत संहिता में भी कहा गया
है" कि रोगादि से बचना तथा भूषण अथवा अलङ्करण के निमित्त बालक के कानों का
छेदन करना चाहिए। "सुश्रुत अंडकोष की वृद्धि तथा आंत वृद्धि निरोध के लिए भी
कर्णवेध संस्कार का विधान करता है[22] यह संस्कार
द्वितीया, तृतीया पञ्चमी षष्ठी , सप्तमी, दशमी, द्वादशी, तथा त्रयोदशी इन आठ तिथियों को श्रेष्ठ माना गया है । कर्णवेध की उपयोगिता
के फलस्वरूप ही इसे धार्मिक रूप प्रदान किया गया। ब्राह्मण वर्ण के लिए कर्णभेद
संस्कार अनिवार्य हो गया। आज यह संस्कार बालकों में कम हो गया है व अब यह संस्कार
अलङ्करण का ही कारण रह गया है। 10 विद्यारम्भ संस्कार- बालक अथवा शिशु के शिक्षा ग्रहण करने के योग्य हो जाने पर विधारम्भ संस्कार
किया जाता था। इस संस्कार को 'अक्षरारम्भ ', लेखनारम्भ"
"अक्षरस्वीकरण' आदि नामों से भी जाना जाता है।
सर्वप्रथम स्मृति ग्रन्थों में ही इस संस्कार के संकेत मिलते हैं। नीतिग्रन्थों
एवं काव्य ग्रन्थों में भी इस संस्कार के सन्दर्भ में उल्लेख मिलता है। इन
ग्रन्थों में बताया गया है कि चूडाकर्म करने के बाद बालक को लिपि और संख्या का
ज्ञान कराना चाहिए, जब वह भाषा समझने लगे, तभी उसे शास्त्र पढ़ाना चाहिए, इसके बाद ही
उसका उपनयन संस्कार होना चाहिए। महाकवि भवभूति के
उत्तररामचरित में हमे स्पष्ट उल्लेख मिलता है कि "वाल्मिकी ने लवकुश का
चूडाकर्म होने के पश्चात वेदत्रयी को छोड़कर अन्य तीन विधाएँ- आन्वीक्षिकी दण्डनीति
एवं वार्ता बड़ी सावधानी और परिश्रम से पढ़ाई”।[23] वैद्यारम्भ संस्कार उपनयन संस्कार की पूर्व भूमि था व अत्यन्त महत्वपूर्ण
था। इस संस्कार के अन्तर्गत "बालक स्नानादि से पवित्र होकर गणेश, सरस्वती, गृह देवता, लक्ष्मीनारायण आदि की स्तुति के साथ गुरु के सम्मुख बैठकर अक्षरों को तीन
बार पढ़ता था।" शुभ मुहूर्त में शिक्षक द्वारा पट्टी पर ओम् और स्वास्तिक के
साथ वर्णमाला लिखकर बालक को अक्षरों को प्रारंभ कराया
जाता था । 11 उपनयन- भारतीय संस्कृति में उपनयन संस्कार का अत्यधिक महत्वपूर्ण स्थान है। उपनयन संस्कार का प्रारम्भ वैदिक युग में हो गया था। उपनिषद् साहित्य में भी इसके प्रमाण मिलते हैं। यथा- "नमो हरिकेशायोपवीतिने।"[24] उपनयन संस्कार में उपनयन का अर्थ बताते हुए वामन शिवराम ने बताया। “उप
उपसर्गपूर्वक नी धातु से ल्युट् प्रत्यय लगाकर निष्पन्न होने वाले उपनयन शब्द का
अर्थ निकट ले जाना, भेंट, उपहार
एवं जनेऊ किया है।"[25] आपस्तम्ब गृह्यसूत्र के
अनुसार उपनयन' का अर्थ होता है - जिस कर्म से
कुमार को आचार्य कुल में लाया जाता है, वह उपनयन
नामक संस्कार है। एक अन्य अर्थ के अनुसार- " माता-पिता द्वारा बालक को गुरु
के समीप ले जाना भी 'उपनयन संस्कार कहलाता है। आचार्य
मनु एवं याज्ञवल्क्य 'उपनयन संस्कार से बालक का दूसरा
जन्म मानते हैं। इस संस्कार के पश्चात ही बालक द्विज कहलाता था। क्षुद्र वर्ण को
इससे वंचित रखा गया था। शैक्षणिक एवं सांस्कृतिक दृष्टिकोण से इस संस्कार का
अत्यधिक महत्व था। इस संस्कार के माध्यम से बालक अनियमित और अनुत्तरदायी जीवन
समाप्त कर नियमित, गम्भीर और अनुशासित जीवन में प्रवेश
करता था। आचार्य मनु के अनुसार बालक का गर्भ से आठवें व बारहवें वर्ष में उपवीत
यज्ञोपवित संस्कार किया जाना चाहिए। आधुनिक समय में इसे यज्ञोपवित संस्कार कहा
जाता है। यज्ञोपवित यज्ञ से सम्बद्ध था। इस प्रकार हम कह सकते हैं। कि" उपनयन
संस्कार वह धार्मिक कृत्य है, जिसमें वेदाध्ययन हेतु
पिता द्वारा ले जाया गया, योग्य एवं समर्पित बालक, आचार्य द्वारा विधिवत् गृहण किया जाय। 12 वेदाराम्भ- "गुरु के सान्निध्य में जाकर शिष्य का वेदाध्ययन प्रारंभ करना भी एक
संस्कार माना जाता था। प्राचीनकालीन भारत में उपनयन संस्कार के साथ ही वेदों का
अध्यन अध्यापन प्रारम्भ हो जाता था। वेद का अध्ययन करना प्राचीन शिक्षा का प्रधान
अंग था। इस संस्कार का सर्वप्रथम उल्लेख व्यास स्मृति से मिलता है। भारतीय
संस्कृति में वेद अपौरुषेय तथा परम पवित्र माने गये हैं, इसलिए
वेदारम्भ संस्कार का उदय हुआ । यह संस्कार उपनयन संस्कार के समय ही किया जाता है, अत दोनों का समय एक ही है। उपनयन संस्कार सम्पन्न होते ही ब्रह्मचारी
गुरुकुल आता था और आचार्य उसे वेदों को पढ़ाना आरंभ कर देते थे। एवं
सम्पूर्ण अध्ययन पर्यन्त वह गुरुकुल में ही रहता था। इस संस्कार में ब्रह्मचारी को
आचार्य अनेक उपदेश देकर उपनयन संस्कार के बाद एक वर्ष के भीतर ही गायत्री मन्त्र
की दीक्षा के साथ अध्ययनाध्यापन प्रारंभ कर देते थे। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि
उपनयन संस्कार विद्यालय प्रवेश परीक्षा है और वेदारम्भ संस्कार' अध्यापन सत्रारम्भ है।”[26] 13 केशान्त संस्कार- केशान्त संस्कार का परिचय एवं विधि का वर्णन हमें सर्वप्रथम गृहसूत्रों एवं
स्मृतियों में मिलता है। इस संस्कार में ब्रह्मचारी की श्मश्रुओ का सर्वप्रथम
क्षौर किया जाता था, अर्थात नाई द्वारा क्षौर कर्म करने के पश्चात उसे उपहार
दिया जाता था, तथा इसी अवसर पर आचार्य को गोदान किया जाता
था। इसलिए ही इस संस्कार को गोदान संस्कार एवं केशान्त संस्कार कहा जाता है। यह
संस्कार ब्रह्मचारी के सोलहवें वर्ष में सम्पन्न होता था। इस संस्कार के विषय में
अनेक आचार्यो में विवाद है। आचार्य मनु के अनुसार,- " केशान्तः षोडशे वर्षे ब्राह्मणस्य विधीयते । राजन्यबन्धोर्द्वाविंशे वैश्यस्य द्वयधिके ततः ।।”[27] अर्थात ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य का क्रमश: गर्भ से सोलहवें, बाईसवें तथा चौबीसवें वर्ष के समय यह संस्कार सम्पन्न करना चाहिए। दाढ़ी
मूंछो का आना तारुण्य का लक्षण माना जाता है, अंत: इस
संस्कार के माध्यम से युवा व्यक्ति को ब्रह्मचर्य और सदाचरण का स्मरण दिलाया जाता
था। 14. समावर्तन संस्कार- "सम तथा आ उपसर्गपूर्वक वृत धातु से ल्युट् प्रत्यय लगकर समावर्तन शब्द
बनता है, जिसका अर्थ होता है- वेदाभ्यास के पश्चात युवक का घर
लौटना।”[28] समावर्तन संस्कार गुरुकुल से वापस घर लौटने
का संस्कार था। या यों कह सकते है, यह शिक्षा सम्पन्न
होने के बाद होने वाला संस्कार है। इस संस्कार का दूसरा नाम 'स्नान-संस्कार भी है, क्योंकि समावर्तन-
संस्कार के करने से पूर्व ब्रह्मचारी को शीतल पवित्र जल से स्नान कराने का भी
विधान था। इस संस्कार का एक अन्य नाम दीक्षान्त संस्कार भी था। समावर्तन संस्कार
के संकेत हमें वैदिक साहित्य, गृह्यसूत्र एवं
स्मृतिशास्त्र आदि ग्रन्थों में उपलब्ध होते हैं। ज्ञान प्राप्त करने एवं समाज को
ज्ञान को बांटने पर ही एक ब्रह्मचारी का समावर्तन संस्कार होता है एवं वह गृहस्थ
जीवन में प्रवेश करने का अधिकारी बनता है। सूत्र ग्रन्थों स्मृतिग्रन्थों एवं
पुराण साहित्य आदि में वेदों के अध्ययन-पठन के उपरान्त ही इसको करने का विधान है -
" वेदमधीत्य स्नास्यन्।”[29] सारांशत: यह संस्कार
वेद पढने के पश्चात आचार्य की अनुमति से सम्पन्न होता था। इस प्रकार आचार्य उसे
गृस्थाश्रम में प्रवेश की स्वीकृति दे देते थे। वर्तमान समय में भी यह संस्कार
अपने परिवर्तित रूप में भारतवर्ष के विश्वविद्यालयो मे दीक्षान्त समारोह के रूप
में विद्यमान है। 15. विवाह संस्कार- भारतीय संस्कृति में प्रचलित सोलह संस्कारों में विवाह संस्कार अत्यधिक
महत्वपूर्ण एवं गौरव शाली माना गया है। अन्य समस्त पन्द्रह संस्कार इसी विवाह
संस्कार पर आधारित है एवं टिके हुए हैं। मानव इस संस्कार के द्वारा ही गृहस्थाश्रम
में प्रवेश करता है, इसके अभाव में मनुष्य निस्तेज माना जाता है। धर्म, अर्थ काम (त्रिवर्ग) की प्राप्ति का साधन भी विवाह संस्कार है, जिसके माध्यम से ही व्यक्ति गृहस्थाश्रम में प्रविष्ट होता है। किसी
स्त्री को धर्मानुष्ठान द्वारा पत्नी बनाने वाला व्यक्ति ही यज्ञादि कार्यों को
करने में समर्थ होता है। हमारे प्राचीन ग्रन्थ वेदों गृह्यसूत्रों, स्मृतियों, पुराणों तथा काव्य ग्रंथों में
विवाह, को आवश्यक मानते हुए इस संस्कार को मान्यता
प्रदान की गई। विवाह संस्कार को पुरुषार्थ का मूल माना जाता था। कोश ग्रंथों एवं
वैदिक साहित्य में 'विवाह' को
भार्या प्राप्ति का कारण (साधन) माना गया, व इसे
पाणिग्रहण संस्कार भी कहा गया है। विवाह शब्द की व्युत्पत्ति वि उपसर्ग पूर्वक वहन
धातु से घञ् प्रत्यय लगकर हुई है, जिसका शाब्दिक अर्थ
होता है- 'विशिष्ट प्रकार से वहन करना। “सन्तानोत्पति, वर्णाश्रम, धर्मपालन आदि उद्देश्यों की पूर्ति के लिए अग्नि देवता तथा ब्राह्मण को
साक्षी मानकर वर द्वारा वधू का पाणिग्रहण संस्कार विवाह कहलाता है”।30 सामाजिक एवं धार्मिक कर्तव्यों
का निर्वाह विवाह के माध्यम से ही सम्भव था। विवाह के माध्यम से ही व्यक्ति
अपने सम्पूर्ण कर्तव्यों का निर्वहन करने में समर्थ था। विवाह गृहस्थ जीवन का मूल
था। 16. अन्त्येष्टि संस्कार- भारतीय संस्कृति में अन्तिम संस्कार अन्त्येष्टि है, जिसके
साथ वह अपने ऐहिक जीवन का अन्तिम अध्याय समाप्त करता है, क्योंकि इसके उपरान्त कोई संस्कार नहीं होता है। भारतीय संस्कृति में
मनुष्य के जन्म के पूर्व से लेकर मृत्यु पश्चात संस्कारों का विधान है, जिसमें मृत्यु के पश्चात अन्त्येष्टि संस्कार किया जाता है व पञ्चतत्वों
से निर्मित इस भौतिक शरीर को पुन: उन्हीं को सौंप दिया जाता है। भारतीय संस्कृति
में वेदों, पुराणों, सूत्रग्रंथो
एवं संस्कृत काव्य ग्रंथों में अन्त्येष्टि का उल्लेख मिलता है, व आज भी व्यक्ति की मृत्योपरांत उसका अन्तिम संस्कार अपने-अपने धर्म एवं
सम्प्रदाय अनुसार किया जाता है। सूत्रो सूत्रकारों ने अन्त्येष्टि संस्कार के विषय
में कहा है-" -“जात संस्कारेणेमं लोकमभिजयति मृतसंस्कारेणामुं
लोकमं”।31 अर्थात
(जातकर्म संस्कारादि के माध्यम से व्यकि लौकिक जीवन में अभ्युदय प्राप्त करता है
और अन्त्येष्टि द्वारा परलोक सुधारता है। अन्त्येष्टि क्रियाओं में व्यह्यत ऋचाएँ
ऋग्वेद एवं अथर्ववेद में उपलब्ध होती हैं। कृष्ण यजुर्वेद के तैतिरीयारण्यक
के षष्ठ अध्याय में भी प्राप्त होती है। गृह्यसूत्रों में विधि विधान से
अन्त्येष्टि संस्कार का वर्णन प्राप्त होता है । अन्त्येष्टि संस्कार के सन्दर्भ
में हमारी दार्शनिक मान्यता है कि शरीर नष्ट होता है किन्तु आत्मा नहीं, इसलिए मृत शरीर से आत्मा को मुक्त करने के लिए ही अन्त्येष्टि संस्कार
किया जाता है। इस संस्कार को करने का एक वैज्ञानिक कारण यह भी है कि 'मृत शरीर के अरक्षित पड़ा रहने से परिवार में अपवित्रता एवं संक्रामक रोगों
के फैलने की भी सम्भावना होती है।' इस प्रकार वैदिक काल से आज तक अन्त्येष्टि संस्कार को अनिवार्य माना गया है। इस संस्कार में दाह क्रिया से पूर्व कुछ धार्मिक क्रियायें की जाती थी, बाँस
की अर्थी पर शव के साथ यात्रा में मृतक के सगे-सम्बन्धी होते थे। ज्येष्ठ पुत्र भी
आगे होता था। शमशान में पहुँचने के बाद चिता में 'आग
लगाई जाती थी। शव जलने के उपरान्त लोग जलाशय में स्नान करके घर लौटते थे व कुछ समय
तक मृतक के सम्बन्धी अशौच में रहते थे। शुद्धि के बाद शांति और श्राद्ध क्रिया की
जाती थी।”32 भारतीय संस्कृति में संस्कारों की महत्ता- संस्कारों का प्राचीन काल से भारतीय संस्कृति में अक्षुण्ण महत्त्व रहा है। उपर्युक्त 16 संस्कारों के गहन अध्ययन से हमें विदित होता है कि हमारी पुरातन भारतीय हिन्दु संस्कृति में ये सम्पूर्ण 16 संस्कार व्यक्त्ति के निर्माण में सहायक है। मनुष्य का जीवन संस्कारों से ही परिचालित है। व्यक्ति के असंस्कृत स्वरूप को सुसंस्कृत एवं अनुशासित करने के निमित्त ही संस्कारों का निर्माण हुआ। शुद्धता, आस्तिकता धार्मिकता व पवित्रता संस्कारों की विशेषताएँ रही एवं इनके मूल में धर्म रहा है। प्राचीन एवं आधुनिक दोनों ही समयावधि में देखा गया है कि “अच्छे संस्कारों वाला व्यक्ति जीवन में सर्वत्र यश प्राप्त करता है, एवं संस्कारविहीन अपयश का भागी बनता है।” व्यक्ति का जीवन संस्कारो का ही दूसरा रूप है। संस्कारों का सर्वाधिक महत्व मानवीय चित्त की शुद्धि के लिए है। संस्कारों के माध्यम से मनोविकारों “का निराकरण होकर सृजनात्मक शक्ति को बढ़ावा मिलता है। अत: जीवन की बहुमूल्य विशिष्टता, सम्पदा और चरित्र निर्माण का आधार संस्कार है। “भारतीय संस्कारों का आलोचनात्मक परीक्षण” भारतीय संस्कृति की निर्माण प्रक्रिया का अध्ययन यह स्पष्ट करता है कि
संस्कारों का सृजन प्रक्रिया में महत्वपूर्ण स्थान रहा है। दीर्घावधि तक ये अपना
स्थान बनाए रखने में सक्षम भी सिद्ध हुए। इसी समयावधि के दौरान भारत में उच्च कोटि
के संस्कृत साहित्य की सर्जना हुई। भारतीय संस्कृति विदेशों में दूर-दूर तक
फैली। सम्पूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप में उसका डंका बजने लगा। लेकिन धीरे-धीरे
संस्कारों का क्षरण होने लगा । विदेशी सभ्यताओं के आक्रमणों ने उसे ध्वस्त करने की
पूरी कोशिश की। भारतीय संस्कारों पर विविध प्रश्नचिन्ह लगाए गए। इन सबका परिणाम है
यह हुआ कि संस्कारों में क्षरण हुआ, कम महत्वपूर्ण
संस्कार विलुप्त हो गए, कुछ अपने सीमित रूप रह गए, लेकिन वे निरन्तर चलते रहे और अपना स्थान बनाने में कामयाब रहे। आधुनिक समय में कुछ संस्कारों जैसे- गर्भाधान, उपनयन एवं विवाह नामक संस्कार के
अतिरिक्त अन्य संस्कार अधिकांशत: नहीं किये जा रहे है। कई जगहों पर गर्भाधान
संस्कार भी समाप्त हो चुका है या त्यागा जा चुका है, कुछ
संस्कार सम्पन्न भी किये जाते है यथा-नामकरण एवं अन्नप्राशन , वो भी बिना किसी मंत्रोच्चरण के व बिना विधि विधान के शैने: शैने: भारतीय
संस्कृति में संस्कार का लुप्तप्रायः होते जा रहे हैं। संस्कारों में पक्षपात की भावना ने संस्कारों जैसे महत्वपूर्ण विषय को
आलोचनाओं के कठघरे में ला खडा किया। वर्तमान समय के यक्ष प्रश्नों की चुनोतियों को
स्वीकार करना उनके वश में नहीं है। यथा शूद्र वर्ण के लिए संस्कारों का मन्त्ररहित
विधान बताया गया। शूद्रों के विषय में यदि देखे तो उन्हें संस्कारों से वंचित रख
दिया गया । ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य के लिए समस्त
संस्कार अनिवार्य थे जबकि शुद्र वर्ण 6-7 संस्कार
मात्र ही बिना मंत्रोच्चारण के कर सकते थे। इसी प्रकार स्त्रियों के लिए संस्कार
सम्पादन के विषय में उपेक्षा बरती गई, उन्हें भी विवाह
संस्कार के अतिरिक्त अन्य सभी संस्कारों से वंचित ही रखा गया। इस प्रकार संस्कारों
में शूद्र वर्ण एवं महिलाओं के प्रति उदासीन विभाजन ने उसकी महता एवं प्रासंगिकता
को लुप्त कर दिया । समाज में किसी भी वर्ग विशेष को अथवा स्त्री समुदाय को समाज की
मुख्य धारा में न जोड़ने के कारण भी संस्कारों की उपयोगिता कम हो गई। संस्कारों के
पक्षपात पूर्ण रवैये के कारण ही आज वर्तमान समय में कुछ संस्कारों को छोड़कर
अधिकांशत: लुप्तप्राय हो चुके हैं। षोडश संस्कारों से गर्भाधान, विद्यारम्भ वानप्रस्थ, संन्यासादि संस्कार
लुप्त हो चुके हैं। समावर्तन संस्कार दीक्षान्त समारोह के रूप में परिणत हो चुका
है। आधुनिक सभ्यता व पाश्चात्य प्रभाव के कारण संस्कार निष्प्राण हो रहे है। समय
के प्रभाव से जो संस्कार उस समय उपयोगी थे, उनमें से आज बहुत
कुछ अनुपयोगी हो गये या आज उनकी कोई प्रासंगिकता शेष नहीं रह गई है। वर्तमान समय में संस्कारों का ना तो प्राचीन समय की तरह अनुष्ठान किया जाता है
और नाही संस्कारों को कोई विशेष महत्व दिया जाता है। आज अनेक संस्कार त्याग दिये
गये एवं कुछ संस्कारों को आवश्यकतानुसार संशोधित एवं परिवर्तित करके रीति-रिवाज के
रूप में स्वीकार कर लिया गया। निष्कर्षत: यह कहा जा सकता है की आधुनिक समय में ब्रिटिश शासन के प्रभाव के
कारण जब समाज में पुनर्जागरण एवं धर्मसुधार आन्दोलन प्रारंभ हुए तो राजाराम मोहन
राय,स्वामी दयानंद सरस्वती,रामकृष्ण परमहंस
एवं विवेकानंद जैसे प्रबुद्ध विचारकों एवं आन्दोलनकारियों ने प्राचीन संस्कार
पद्धति में महिलाओ एवं शूद्रो के प्रति की गई उपेक्षा दृष्टि पर प्रश्न चिन्ह
लगाया गया । एक ईश्वर की संतान होने एवं यो कहे की एकोडहं
बहु श्याम के विचार को सृष्टि की सृजना का आधार मानने वाला वैदिक ऋषि उसके किसी
अंश को अपवित्र तुच्छ या तुलनात्मक रूप में अस्वीकार कैसे कर सकता है यही से
संस्कारो में परिवर्तन शुरू हुआ । उनका रूप बदलता चला गया अनुपयोगी संस्कार समाप्त
होते चले गए । समानता पर आधारित एवं विशिष्ट उपयोगिता वाले महत्वपूर्ण संस्कार समय
के थपेडो को खाकर आज भी पूरी दुनिया में अपना अस्तितत्व बनाये रखने में सफल हुए है। सन्दर्भ सूची 1. डॉ. पांडुरंग वामन काणे
धर्मशास्त्र का इतिहास प्रथम भाग, , उतर प्रदेश
हिन्दी संस्थान लखनऊ, वर्ष 2010, पृष्ठ.सं. 177 2. सुरेश आत्रेय भारतीय संस्कृति में संस्कार अक्टूबर 2012, https://www.futuresamachar.com/hi/indian-culture-values-5409 3. डॉ० राजकिशोर सिंह, भारतीय संस्कृति, विनोद पुस्तक मन्दिर आगरा, पृष्ठ सं. 263 4. जैमिनी सूत्र - 31/13 5. डॉ. पांडुरंग वामन काणे, धर्मशास्त्र
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84/3 13. गरुड पुराण, 1/93/11 14. डॉ. किरण टंडन, भारतीय संस्कृति, ईस्टर्न बुक लिंकर्स, वर्ष 1994, पृष्ठ स.46 15. डॉ. किरण टंडन, भारतीय संस्कृति, ईस्टर्न बुक लिंकर्स, वर्ष 1994, पृष्ठ सं. 296 16. डॉ. किरण टैडन, भारतीय संस्कृति
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सं.-52 17. बृहस्पति 1/2/12 18. पारस्कर गृह्य सूत्र, 1/17/5-6 19. महर्षि चरक, चरक संहिता, सूत्र स्थान, 5.93 20. डॉ. किरण टंडन, भारतीय संस्कृति, ईस्टर्न बुक लिंकर्स, वर्ष 1994, पृष्ठ.सं.- 70 21. अथर्ववेद , 6.141.2 22. डॉ. राजकिशोर सिंह, भारतीय
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सं. 82 24. यजुर्वेद - 16.17 25. वामन शिवराम आप्टे, संस्कृत
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हिन्दी कोश, पृ.सं. 1078 29. आपस्ताब गृह्यसूत्र, 1201 30. स्वामी दयानन्द सरस्वती, संस्कार विधि,
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32. डॉ. श्री कृष्ण ओझा, भारतीय
संस्कृति के तत्व, अभिषेक प्रकाशन, पृष्ठ सं.-112 |