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Human Rights and Their Protection ISBN: 978-93-93166-21-0 For verification of this chapter, please visit on http://www.socialresearchfoundation.com/books.php#8 |
महिला मानवाधिकार संरक्षण एवं पुलिस |
सविता शर्मा
असिस्टेंट प्रोफेसर
राजनीति विज्ञान विभाग
बाबा नारायणदास राजकीय कला महाविद्यालय, चिमनपुरा,
शाहपुरा,राजस्थान, भारत
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DOI:10.5281/zenodo.8364405 Chapter ID: 18103 |
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मानवाधिकारों की अवधारणा लोकतंत्रीय एवं उदारवादी विचारधाराओं से निकटता से
संबंधित है।[1] सृष्टि के उषाकाल से ही मनुष्य अपने जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं स्वतंत्रता एवं जीवन की सुरक्षा के
प्रति चेतनशील रहा है।[2] अपनी विकास यात्रा के प्रारम्भ में मानव को अपने लिए कतिपय अधिकारों
की आवष्यकता महसूस हुई। जो बाद में विकसित होकर मानवाधिकारों की संकल्पना के रूप
में पूरी दुनिया के सामने आए। लोकतांत्रिक शासन वर्तमान समय की श्रेष्ठ शासन
व्यवस्था के रूप में अपने आपको स्थापित कर चुका है। इसलिए लोकतंत्र में
मानवाधिकारों की सुरक्षा का दायित्व पुलिस को दिया गया है। लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में पुलिस की भूमिका- पुलिस राष्ट्र में कानून एवं व्यवस्था तथा शांति बनाए रखने वाली प्रमुख
कार्यकारी संस्था है। वह समाज में स्थिरता और सुरक्षा को सुनिश्चित करती है। कोई
भी कानूनी प्रावधान हो, अन्ततः उसकी अनुपालना पुलिस को ही सुनिश्चित करानी होती है।
किसी भी राष्ट्र में और विषेषतः लोकतंत्रीय शासन में पुलिस की भूमिका अत्याधिक
महत्वपूर्ण होती है। लोग जब निराष और हताष हो जाते हैं तभी पुलिस के पास पहुँचते
हैं। जनता पुलिस से यह आषा करती है कि वह अपनी सुख-सुविधाओं की परवाह किए बिना
चौबीस घंटे सेवा के लिए तत्पर रहे। जनता यह भी आषा करती है कि पुलिस में दया,
मानवता, षिष्टाचार एवं सेवाभावना के गुण भरे
हों। लोकतंत्र में पुलिस की विधि के प्रति प्रतिबद्धता अत्यंत महत्वपूर्ण एवं
अपरिहार्य होती है।[3] वस्तुतः पुलिस जैसी महत्वपूर्ण संस्था
का अस्तित्व समाज में नया नही है बल्कि जब से मानव ने समाज में रहना शुरू किया
अर्थात अति प्राचीन काल से ही पुलिस का आविर्भाव हो गया। पुलिस संगठन को समाज के
नियमों के तहत नागरिकों के क्रियाकलापों को विनियमित करना होता है। इसके लिए पुलिस
को कठोर कार्रवाई भी बहुधा करनी पड़ती है। पुलिस की सार्थकता इस बात में निहित है
कि वह जनता का सहयोग, सद्भाव एवं विश्वास प्राप्त करे। मानव
की गरिमा एवं उसकी अस्मिता का सम्मान करना सीखे। मानवाधिकारों की समझ एवं उनके
सिद्धान्तों का पालन करके ही पुलिस आम नागरिक का विश्वास प्राप्त कर सकती है और
उसके हृदय में अपना एक विशिष्ट स्थान बना सकती है। मानवाधिकार संरक्षण एवं पुलिस कर्त्तव्य: अन्योन्याश्रितता- एक लोकतांत्रिक समाज में पुलिस को मानव मात्र के अधिकारों की रक्षा करनी होती
है तथा उनका सम्मान भी करना होता है। पूर्व राष्ट्रपति श्री वेंकटरमण की यह
मान्यता थी कि मानवाधिकारों की रक्षा केवल कानून या किसी खास तरीके से संभव नहीं
है। यह पूरे समाज का दायित्व होता है। इस बड़ी सच्चाई को स्वीकार किया जाना चाहिए
कि जिस समाज में मानवाधिकारों की रक्षा नहीं होती वहां सभी नुकसान में रहते हैं।[4] पुलिस के
कार्य तथा मानवाधिकारों के बीच बहुतही घनिष्ठ संबंध होता है। पुलिस के द्वारा
मानवाधिकारों की सुरक्षा के संबंध में सकारात्मक अथवा नकारात्मक दृष्टिकोण अपनाया
जा सकता है। पुलिस वास्तव में वर्दीधारी होने के कारण राज्य की सरकार का
प्रतिनिधित्व करती है और प्रधान रूप से अपराधों को रोकना, उनका
पता लगाना तथा समाज में कानून को कार्यान्वित करना उसका कर्त्तव्य होता है। राज्य
सरकार पुलिस के द्वारा ही समाज में मानवाधिकारों की सुरक्षा प्राप्त करना चाहती है
तथा समाज में सभी लोगों को समान रूप से सुरक्षा दिलवाना
चाहती है। यदि पुलिस को किसी समाज में कानून और व्यवस्था कायम रखने में सफलता नहीं
मिलती है तो इसके फलस्वरूप मानवाधिकारों की सुरक्षा लोगों को प्राप्त नहीं होती।
अतः पुलिस द्वारा अपने कर्त्तव्य का पालन करते समय यह ध्यान में रखना जरूरी है कि
किसी भी प्रकार से नागरिकों के मानवाधिकारों का हनन न हो तथा किसी भी सूरत में
मानवाधिकरों का अतिक्रमण न किया जाए। क्योंकि एक लोकतांत्रिक एवं सुसभ्य समाज में
पुलिस द्वारा मानवाधिकारों का उल्लंघन सभ्य समाज के माथे पर कलंक के समान है।
भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता में मानवाधिकारों के बारे में विस्तृत वर्णन किया गया
है। भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता में मानवाधिकार- भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता में दिए गए मानवाधिकार निम्नलिखित हैं[5]:- 1. गैर कानूनी या मनमाने ढंग से हिरासत में लेने के खिलाफ
संरक्षण संविधान के अनुच्छेद 22 और दंड प्रक्रिया संहिता
(सी.आर.पी.सी.) की धारा-41, 55 और 15 2. गैर कानूनी या मनमाने ढंग से तलाषी के विरूद्ध संरक्षण (दंड
प्रक्रिया संहिता की धारा-93, 94, 97, 100(4) से (8) और 165)। 3. मनमाने या गैर कानूनी ढंग से हिरासत में रखने के खिलाफ
संरक्षण (संविधान के अनुच्छेद 22 और दंड प्रक्रिया संहिता की
धारा-56, 57, 58 और 76)। 4. गिरफ्तार होने के बाद कारण जानने का अधिकार (संविधान के
अनुच्छेद 22(1) और दंड प्रक्रियासंहिता की धारा-50,
55, 75)। 5. अपनी पंसद के वकील से सलाह मशविरा करने का अधिकार (संविधान
के अनुच्छेद 22(1) और दंड प्रक्रिया की धारा-303) 6. अपने गिरफ्तार होने के 24 घंटे के
अन्दर न्यायाधीश के सामने पेश होने का अधिकार (संविधान के अनुच्छेद 22(1) और दंड प्रक्रिया की धारा-57, 76)। 7. गिरफ्तार होने पर जमानत पर छूटने का अधिकार (दंड प्रक्रिया
की धारा-436, 437, 439, 50(2) और 167)। 8. स्वयं के खिलाफ गवाही देने के लिए मजबूर न करने का अधिकार
(संविधान के अनुच्छेद 20(3))। 9. जांच पड़ताल के दौरान तंग करना, यातना
और दुर्व्यहार के खिलाफ अधिकार (भारतीय दंड संहिता की धारा-330 और 331)। 10. दोष सिद्ध होने पर अपील करने का अधिकार (दंड़ प्रक्रिया
संहिता की धारा-351, 374, 379 और 380 तथा
संविधान के अनुच्छेद 132(1), 134(1) और 136(1))। 11. अपराधी व्यक्ति की अपील पैडिंग होने के कारण जमानत पर छूटने
का अधिकार (दंड संहिता की धारा-363)। महिलाओं के मानवाधिकारों का संरक्षण एवं पुलिस समाज में अव्यवस्था को समाप्त करने, मानव व्यवहार को नियन्त्रित करने एवं मानव
- मानव में समानता स्थापित करने के लिए कल्याणकारी राज्य (Welfare State) की अवधारणा अस्तित्व में आई। इसका मुख्य उद्देश्य मानव मात्र के
व्यक्तित्व के विकास के लिए सामाजिक न्याय प्रदान करने के साथ-साथ व्यक्ति के
मानवाधिकरों की सुरक्षा करना था। मानवाधिकार और सामाजिक न्याय मानव के विकास के
लिए अपरिहार्य हैं और इस कार्य में पुलिस की भूमिका अहम है क्योंकि वही एक ऐसा
संस्थान है जो समाज में राज्य शक्ति का मूर्त रूप है।[6] वह
मानव समाज के संरक्षण की सूत्रधार है।[7] पुलिस समाज की
कार्यपालक भुजा होती है। अतएव पुलिस अधिकारियों का यह दायित्व है कि समाज की मुख्य
धारा से कटे हुए वर्गों के लोगों को मानवाधिकारों की प्राप्ति सुनिश्चित कराने में
अहम भूमिका निभाएं। ये वर्ग सदियों से सामाजिक भेदभाव के शिकार रहे हैं जिससे जहां
एक ओर इनके विकास की गति अवरूद्ध हुई है वहीं दूसरी ओर राजनीतिक तथा प्रशासनिक
क्षेत्रों में इनकी सहभागिता अपेक्षाकृत कम रही है। इसलिए राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी
ने समूचे राष्ट्रीय ओदोलन के दौरान इन वर्गों की स्थिति को सुधारने का प्रयास
किया। वे इस तथ्य से भलीभांति परिचित थे कि जब तक समाज के इस महत्वपूर्ण भाग की
उपेक्षा होगी तब तक समाज एवं राष्ट्र का विकास सम्भव नहीं होगा। यहां यह ध्यातव्य
है कि भारत ही नही बल्कि विश्व के अधिसंख्य राष्ट्रों में महिलाओं के मानवाधिकारों
का हनन होता आया है। इसका कारण यह है कि प्रारम्भ से ही अधिकांश समाज पुरूष प्रधान
रहे हैं। इसलिए महिलाओं की स्थिति दयनीय रही है। महिलाओं के प्रति पुरूषों का
उपेक्षा भाव ही उसे आज इस स्थिति में ले आया है कि सरकार को उसकी स्थिति को सबल
एवं सुदृढ़ बनाने के लिए महिला सशक्तिकरण वर्ष मनाना पड़ रहा है। समाज में महिलाओं को सशक्त एवं सबल तभी बनाया जा सकता है जब उनके मानवाधिकारों
का संरक्षण किया जाए, उन्हें स्वतंत्रता प्रदान की जाए। स्वतंत्रता का अर्थ होता है
सारे बंधनों से मुक्ति। महिलाओं की स्थिति को समाज में सुदृढ़ करने के लिए सरकार
द्वारा अनेक कानूनों का निर्माण किया गया है लेकिन यहां यह स्पष्ट है कि इन
कानूनों को व्यावहारिकता का वह स्तर प्राप्त नहीं हो पाया है जो वास्तव में होना
चाहिए था। एक लोकतांत्रिक समाज में यह दायित्व पुलिस का है कि वह समाज की
मुख्यधारा से कटे हुए वर्गों के अधिकारों की रक्षा करें। अतः महिला मानवाधिकारों
के संरक्षण में पुलिस की भूमिका अहम है। महिलाओं को मुख्यधारा में लाने के लिए
भारत सरकार ने महासभा द्वारा भेदभाव समाप्त करने की संधि पर हस्ताक्षर किए हैं तथा
जून, 1993 में उसने इस संधि में तीन नई शर्तें जोड़कर संशोधन
किया है। इनमें से एक संशोधन संधि के अनुच्छेद 16(1) के
अन्तर्गत घोषणात्मक बयान में विवाह और पारिवारिक संबंधों से जुड़े तमाम मामलों में
भेदभाव रोकने से संबंधित है, दूसरे का संबंध अनुच्छेद 16(2)
के अन्तर्गत विवाहों के अनिवार्य पंजीकरण से है।[8] अनुच्छेद 29(1) में व्याख्या से संबंधित विवादों को
अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय में मध्यस्थता के जरिए सुलझााने की व्यवस्था है।[9] सरकार द्वारा महिला एवं बाल विकास विभाग की स्थापना सन 1985 में
मानव संसाधन विकास मंत्रालय के अन्तर्गत की गई। यह मंत्रालय जैसा कि इसके नाम से
ही विदित है महिलाओं और बच्चों के सर्वांगीण विकास हेतु योजनाओं का निर्माण एवं
उनका क्रियान्वयन करता है। इसके अतिरिक्त महिला एवं बाल विकास विभाग कानूनों का
निर्माण एवं उनका संशोधन भी करता है। महिलाओं के विभिन्न संवैधानिक अधिकारों की
रक्षा के लिए सरकार ने खास तौर पर महिलाओं को ध्यान में रखकर एवं उनसे संबंधित
अनेक कानून बनाए हैं। इस तरह के कानूनों में समान मजदूरी कानून, हिन्दू विवाह अधिनियम (1966 में संशोधित), देह व्यापार (निवारण) अधिनियम (1956 में निर्मित एवं
1986 में संशोधित); दहेज निवारण
अधिनियम 1986 का महिलाओं के अभद्र चित्रण को रोकने संबंधी
कानून 1987 का सती प्रथा (निवारण) अधिनियम आदि।[10] समस्त कानूनों का एकमात्र उद्देश्य यह है कि सरकार विभिन्न कानूनों के जरिए
महिलाओं के मानवाधिकारों का संरक्षण करना चाहती है एवं सभी प्रकार के शोषण एवं
भेदभाव से मुक्त समाज की स्थापना चाहती है। एक ऐसा समाज जो सामाजिक न्याय पर
आधारित हो, जिसमें मानव-मानव में समानता अपने उच्च स्तर पर पहुंच सके तथा
सर्वे भवुतु सुखिनः की धारणा कण-कण में समाविष्ट हो सके। महिलाओं पर बढ़ते अत्याचार एवं महिला पुलिस- मानवाधिकार ऐसे अधिकार है जिनके हकदार सभी मनुष्य हैं। भारत में स्वतंत्रता
प्राप्ति से पूर्व बालिका वध की कुप्रथा समाज में अत्यंत सीमित रूप में थी, वहीं
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात और विगत दशकों में यह एक नए ’कन्या
भ्रूण हत्या’ के रूप में सामने आ रही है जिसने समाज के
निम्नतम वर्ग से लेकर उच्च वर्ग तक को अपने षिकंजे में जकड़ लिया है। यह हमारे समाज
से निरंतर हृास होते जा रहे मानवीय मूल्यों का परिचायक है कि हम कन्या को उसके
जन्म का मूलभूत अधिकार भी प्रदान नहीं कर सकते। ग्रामीण क्षेत्रों में तो महिलाएं
अभी शहरी क्षेत्रो के अपेक्षा जागरूक नहीं हुई हैं। लेकिन शहरी क्षेत्रों में जहां
महिलाओं में शिक्षा एवं जागरूकता बढ़ी है, वहां महिलाओं को एक
नवीन प्रकार का संघर्ष करना पड़ रहा है। स्कूलों एवं कॉलेजों में पढ़ने वाली
छात्राओं तथा कामकाजी महिलाओं को जिस प्रकार के असुरक्षित वातावरण में कार्य करना
पड़ रहा है एवं शारीरिक तथा मानसिक यंत्रणाओं का शिकार होना पड़ता है, उनकी सूचनाएं पुलिस को बहुत कम मिलती हैं। अतः ऐसे मामलों में महिलाओं के
मानवाधिकारों की रक्षा में पुलिस संगठन अधिक श्रेष्ठ भूमिका निभा सकता है। पुलिस
अपने कर्त्तव्य का सतर्कता से पालन कर जनता में छवि को उज्जवल बना सकती है। वह
रात्रि में कार्य करने वाली महिलाओं को सुरक्षा प्रदान करके तथा यातायात की सुविधा
देकर जनास्था का सम्बल बन सकती है। पुलिस समाज का एक अभिन्न अंग है और इसलिए वह
समाज में प्रभावी भूमिका का निर्वहन कर सकती है एवं समाज में नैतिकता तथा शालीनता
की भावना का संचार कर सुरक्षित वातावरण का निर्माण कर सकती है। भारतीय समाज में पारिवारिक हिंसा भी बढ़ी है जो महिलाओं के मानवाधिकारों के
हनन की श्रेणी में आता है। समाज के निम्न वर्ग में जहां गरीबी के कारण पारिवारिक
हिंसा एक आम बात है, वही समाज के मध्यम एवं उच्च वर्ग में
दहेज जैसी कुप्रथा के कारण उन्हें इस सीमा तक शारीरिक एवं मानसिक यंत्रणाओं का
शिकार होना पड़ता है कि उनकी हत्या तक कर दी जाती है। अतः वर्तमान समय में महिलाओं
पर हो रहे अत्याचार एवं शोषण से उन्हें मुक्ति दिलाने के लिए और अधिक से अधिक
न्याय दिलाने के उद्देश्य से शासन द्वारा महिला पुलिस थानों की स्थापना की गई। देश
का पहला महिला पुलिस थाना केरल राज्य में खोला गया है।[11] सन् 1961 में भारत सरकार द्वारा दहेज निरोधक अधिनियम बना दिया गया।[12] दहेज प्रथा समाज की प्रतिष्ठा के साथ जुड़कर एक ऐसा नासूर बन गई है,
जिसने महिलाओं के अधिकारों का हनन बहुत तीव्र गति से किया है। अतः
ऐसी स्थिति में महिलाओं के मानवाधिकारों के संरक्षण में महिला पुलिस अधिक प्रभावी
भूमिका निभा सकती है। एक तो पीड़ित महिला आसानी से बिना किसी भय के अपने प्रति होने
वाले अपराध की रिपोर्ट दर्ज करा सकती है और द्वितीय महिला पुलिस द्वारा महिलाओं के
प्रति किए गए अपराधों के अन्वेषण में आसानी रहती है। महिला पुलिस दिल्ली, मुम्बई, कोलकाता, चेन्नई एवं
जयपुर जैसे महानगरों में सफलतापूर्वक कार्य कर रही है। अतः यह तथ्य स्पष्ट है कि
महिलाओं के मानवाधिकारों के संरक्षण में महिला पुलिस सार्थक भूमिका का निर्वहन कर
सकती है। बाल वेश्यावृत्ति: मानवाधिकार हनन एवं पुलिस संरक्षण अस्पृश्यता की भांति बाल वेश्यावृत्ति भी भारतीय समाज पर लगा हुआ
कलंक का धब्बा है। पिछले कुछ वर्षों में भारत सहित पूरी दुनिया में इस कुत्सित
व्यापार से जुड़े बच्चों की संख्या करोड़ों में है, जिनमें
ज्यादातर पांच से सोलह वर्ष तक की उम्र के बच्चे शामिल हैं। दिल्ली का जी.बी. रोड़,
कलकत्ता का सोनागाछी एवं मुम्बई का कमाठीपुरा और अहमदाबाद का महबूब
की महंदी आदि ऐसी जगहें हैं, जहां बाल वेश्यावृत्ति का
व्यापार बड़े पैमाने पर फल-फूल रहा है।[13] इस समस्या के भयानक
होने का कारण यह है कि बच्चे असहाय होते हैं तथा उनमें इतनी क्षमता नहीं होती कि
वे प्रतिरोध कर सकें एवं अपने अधिकारों के हनन को रोक सकें। अतः ऐसी परिस्थिति में
यह दायित्व पुलिस का होता है कि वह इन अबोध बच्चों के अधिकारों की रक्षा करे
क्योंकि एक लोकतांत्रिक समाज में पुलिस का यह दायित्व बनता है कि वह सामाजिक
व्यवस्था को बनाए रखने वाले, समाज के निर्माण एवं विकास में
योगदान देने वाले तथा उसको विनाश की ओर ले जाने से रोकने वाले कानूनों के
क्रियान्विति को सुनिश्चित करे। अतः पुलिस को जहां भी यह सब दिखाई दे उसका यह
कर्त्तव्य बनता है कि राष्ट्र के प्रहरी के रूप में अपनी भूमिका का निर्वाह करते
हुए उसका निवारण करे तथा अपराधी को कड़ी से कड़ी सजा दिलाए। निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि एक ऐसा राष्ट्र जिसका इतिहास पाँच हजार वर्ष
पुराना है; वहाँ की शासन व्यवस्था में महिलाओं के मानवाधिकारों के
संरक्षण में एक जागरूक राष्ट्र प्रहरी के रूप में अपनी भूमिका का निर्वहन करना
चाहिए ताकि मानवाधिकार का उल्लंघन करनें वालों को कड़ी से कड़ी सजा मिल सके और जनता
को स्वस्थ, सुन्दर एवं सद्भावना से परिपूर्ण समाज मिल सके। सन्दर्भ सूची 1. टी. सी. बोस, ह्यूमन राइट्स इन इण्डिया
एण्ड आर्टिकल 2(7) ऑफ दि यू.एन. चार्टर, ह्यूमन राइट्स इन इण्डिया: इषूज एंड पर्सपेक्टिव्ज, डॉ.
एस. मेहरताज (संपादक), ए.पी.एच. पब्लिषिंग कारपोरेषन,
नईदिल्ली, सन् 2000, पृ.
273 2. छत्तर सिंह चौहान ‘मानव अधिकारों की
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, विधायिनी, मध्यप्रदेष
विधायिनी सचिवालय, भोपाल, वर्ष- 15,
अंक- 3, जुलाई-सितम्बर 1997, पृ. 1 3. एस. सी. मिश्रा, पुलिस परफॉरमेन्सः सम
पेरामीटर्स ऑफ अप्रेजल, दी इण्डियन जर्नल ऑफ पब्लिक
एडमिनिस्ट्रेषन, दी इण्डियन इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक
एडमिनिस्ट्रेषन, नईदिल्ली, वॉल्यूम
ग्ग्टप्प्, न. 2, अप्रेल-जून 1981,
पृ. 451-452 4. आर. वैंकटरमणन, राजस्थान पत्रिका,
11 दिसम्बर, 1995 5. डॉ. कृष्ण मोहन माथुर, स्वातंन्न्योत्तर
भारत में मानवाधिकार, ज्ञान पब्लिषिंग हाउस, नई दिल्ली, सन् 2000, पृ. 73-76 6. प्रो. एस. के. चतुर्वेदी, पुलिस एवं जन
संबंध, पुलिस विज्ञान, पुलिस अनुसंधान
एवं विकास ब्यूरो, गृह मंत्रालय, नई
दिल्ली, वर्ष 13, अंक 54, जनवरी-मार्च 1996, पृ. - 9 7. राजकुमार ‘सेवक‘, राष्ट्र
प्रहरी के रूप में पुलिस की भूमिका, पुलिस विज्ञान, पुलिस अनुसंधान एवं विकास ब्यूरो, गृह मंत्रालय,
नई दिल्ली, वर्ष 18, अंक
75, अप्रेल-जून 2001, पृ. 57-59 8. सुमित्रा महाजन, महिलाओं को अधिकार
सम्पन्न बनाने में राज्य की भूमिका, रोजगार समाचार, नई दिल्ली, 4-10 मार्च, 2000, पृ.
1 9. उपरोक्त, पृ. 1 10. डॉ. जे. भाग्यलक्ष्मी, मानवधिकार
संरक्षण द्वारा अधिकार सम्पन्नता, योजना, अगस्त 2001, पृ. 40 11. डॉ. प्रतिमा श्रीवास्तव, महिला पुलिस,
पुलिस विज्ञान, वर्ष 17, अंक 72, जुलाई-सितम्बर 2000, पृ.
8 12. कुसुम, कितने प्रभावी हैं कानून?
योजना, अगस्त 2001, पृ. 27 13. डॉ. हरविन्दर कौर, दर्द की कसौटी पर महिला संबंधी मानवाधिकार, महिला उत्पीड़न: समस्या और समाधान, डॉ. अजीत रायजादा (संपादक), मध्यप्रदेष हिन्दी ग्रंथ अकादमी, वर्ष 2000, पृ. 84 |