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महात्मा गाँधी : समसामयिक प्रासंगिकता ISBN: 978-93-93166-17-3 For verification of this chapter, please visit on http://www.socialresearchfoundation.com/books.php#8 |
वर्तमान में गांधीजी के रचनात्मक कार्यक्रमों की प्रासंगिकता |
पूजा शर्मा
असिस्टेंट प्रोफेसर
इतिहास विभाग
गवर्नमेंट एन. के. कॉलेज, कोटा
बिलासपुर छत्तीसगढ़, भारत
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DOI: Chapter ID: 15943 |
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वर्तमान अस्थिरता के युग में जहाँ पर एक ओर संपूर्ण विश्व
भौतिकतावाद के जाल में फंसता जा रहा है; लालच की परिणति युद्ध की सीमा तक पहुँच चुकी है; असत्य, अवसरवाद, धोखा, चालाकी और स्वार्थपरता जैसे संकीर्ण विचारों ने कल्याणकारी आदर्शों का स्थान
ले लिया है; ऐसे में गांधी जी
के विचारों की प्रासंगिता पहले से कहीं अधिक हो चुकी है। गांधीवादी विचाराधारा
महात्मा गांधी द्वारा अपनाई और विकसित की गई उन धार्मिक, सामाजिक विचारों का समूह है जो उन्होंने राष्ट्रीय आंदोलन
के दौरान साम्राज्यवाद के विरोध में अपने रचनात्मक कार्यक्रमों को व्यवहारिक रूप
दिया था। आज के दौर में मानवीय मूल्यों को पुनः प्रतिष्ठित करने के लिए इन
रचनात्मक कार्यक्रमों की नए स्वरूप में प्रासंगिता पहले से कहीं अधिक है। गांधीजी ने सेवाग्राम से बारडोली ट्रेन यात्रा के दौरान एक
छोटी पुस्तिका लिखी जिसमें उन्होंने स्वाधीनता आंदोलन से जुड़े सभी लोगों से कुछ
बुनियादी बिन्दुओं पर ध्यान देने के लिए कहा। इसमें 13 बिन्दु थे, जिसमें बाद में
उन्होंने 5 और बिन्दु जोड़ दिए। इस
तरह 18 बिन्दुओं का रचनात्मक
कार्यक्रम तैयार हुआ, जो उनके लिए
भारतीय समाज के सामाजिक आर्थिक पुनर्गठन का खाका बन गया।[1] गांधीजी का मानना था कि रचनात्मक कार्यक्रमों के जरिए
धीरे-धीरे हम स्वराज्य का पुननिर्माण कर लेंगे। यह उनके राष्ट्रीय पुननिर्माण के
लिए एक समग्र कार्यक्रम था; वस्तुतः यह आजादी
प्राप्त करने के साथ-साथ आजादी को बनाए रखने की योजना थी; इसलिए इसकी प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है और भविष्य में भी
बनी रहेगी। ‘‘गांधीजी का मानना था कि रचनात्मक कार्यक्रम यदि अहिंसक रूप
से अहिंसा के ज्ञान के साथ नहीं किया जाए तो उसका स्व्राज्य दिलाने का जो मुख्य
प्रतिफल है, वह भारत को नहीं
मिल सकता।’’[2] गांधीजी के ये
रचनात्मक कार्यक्रम सक्रियता के परिचायक थे। अंहिसा के द्वारा स्वराज्य पाना और
अपने ही संसाधनों का उपयोग कर राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया को पूर्ण करना इनका
उद्देश्य था। राष्ट्रीय आंदोलन में आम जनता की भागीदारी इन्हीं कार्यक्रमों से
सुनिश्चित हुई। ये रचनात्मक कार्यक्रम आम लोगों में आंतरिक चेतना उत्पन्न करने;
उन्हें उनके अधिकारों और कर्तव्यों का बोध
कराने के लिए ही तैयार किए गए थे। इसमें गांधीजी जी को अपार सफलता भी मिली। गांधीजी के रचनात्मक कार्यक्रमों को जिन 18 श्रेणियों में बांटा गया था; वे इस प्रकार हैः- 1. खादी चरखा 2. कुटीर उद्योग (स्वावलंबन) 3. ग्रामीण विकास 4. महिला अधिकार 5. कृषक 6. श्रमिक 7. आदिवासी 8. विद्यार्थी 9. स्वास्थ्य व स्वच्छता 10. आर्थिक समानता 11. भाषाई एकता 12. प्रान्तीय भाषाओं का विकास 13. बुनियादी शिक्षा 14. प्रौढ़ शिक्षा 15. अस्पृश्यता निवारण 16. साम्प्रदायिक एकता 17. नशाबंदी 18. सेवा, वृद्ध, कुष्ठ रोगी खादी खादी वृत्ति का अर्थ है जीवन के लिए जरूरी चीजों की
उत्पत्ति और उनके बंटवारे का विकेन्द्रीकरण। मेरे विचार में खादी हिन्दुत्व की
समस्त जनता की एकता, आर्थिक
स्वतंत्रता और समानता का प्रतीक है।[3] गांधीजी का मानना था कि
चरखा एक ऐसी सामान्य वस्तु है कि वह प्रत्येक गांव में बन सकती है, उसका हरेक हिस्सा जिस गांव में लुहार और बढ़ाई
है, उसमें बन सकता है,
जब भारत में तीन करोड़ चरखे चलने लगेंगे,
स्वराज्यवादियों को तभी शांति मिलेगी। किन्तु
यदि इतने चरखे एक ही स्थान पर तैयार करने पड़े तो काम रूक जाएगा।[4] गांधीजी ने खादी को भारत की आत्मनिर्भरता और
स्वावलंबन का मुख्य आधार माना था। खादी के उपयोग से जहाँ एक ओर भारतीयों को रोजगार
मिलता, वहीं विदेशी कपड़ों पर
खर्च किए जाने वाले धन की बचत होती। खादी श्रम, सादगी, अहिंसा और
राष्ट्रवाद का मूल था। खादी का उत्पादन दुनिया में अब तक सबसे बड़ा ग्रामीण
उत्पादकता कार्यक्रम है; जिसमें हजारों
परिवार बिचौलियों या जटिल विपणन तंत्र के झंझट में फंसे बिना अपने उत्पाद को सीधे
उपभोक्ता तक पहुँचाते हैं। यह ग्रामीण समुदाय को उनके मेहनत का उचित भुगतान करता
है; वहीं उपभोक्ताओं को उनके
पैसे का सही मूल्य अदा करता है। एक राष्ट्र के लिए निःसंदेह यह स्वराज्य की अमूल्य
संपत्ति है। मानव इतिहास में विगसित सबसे अधिक टिकाऊ सामाजिक, आर्थिक मॉडलों में शामिल सभी खादी और
ग्रामोद्योग तेजी से आधुनिक भारत और आधुनिक दुनिया के लिए अपनी उच्च प्रासंगिकता
साबित कर रहे हैं।[5] 2016 की स्थिति में
यदि दृष्टिपात किया जाए तो प्रत्यक्ष रूप से 50 लाख लोग इससे लाभान्वित है। साथ ही अप्रत्यक्ष रूप से इससे
संबंधित अन्य उद्योगों को मिलाकर कुल 3,91,344 उद्योग संचालित है। जीवाश्म ईंधन के बिना कार्य करने के
कारण यह ग्लोबल वार्मिंग को कम करने वाले एक साधन के रूप में भविष्य में अपनी
प्रासंगिकता दृढ़तापूर्वक सुनिश्चित करता है। कुटीर उद्योग गांधीजी का मानना था कि उपनिवेशवाद एवं साम्राज्यवाद जैसी
बुराइयों की जड़ भी यही केन्द्रीयकृत अर्थव्यवस्था है। गांधीजी ने केन्द्रीकृत भारी
उद्योगों के स्थान पर लघु एवं कुटीर उद्योगों की स्थापना को आवश्यक बताया; वे हाथ से काम करने के पक्षधर थे। इसमें उनकी
स्वदेशी आंदोलन एवं विद्रोह की नीति की परिकल्पना तो निहित थी ही साथ ही साथ इसमें
आत्मनिर्भर एवं स्वावलंबी ग्रामों के निर्माण की कल्पना भी समावेशित थी।[6] वस्तुतः गांधीजी कुटीर उद्योगों को अहिंसक समान के लिए
आवश्यक मानते थे। भारतीय ग्रामीण संरचना के लिए यह आवश्यक था। ये न केवल ग्रामीण
आत्मनिर्भरता के लिए बल्कि लोकतांत्रिक और आर्थक समानता के लिए आवश्यक था।
औपनिवेशिकता ने सर्वप्रथम कुटीर उद्योगों को नष्ट करके ही ग्रामीण समाज व्यवस्था
को पतन के कगार पर ला खड़ा किया था। विश्व परिवर्तन के दौर से गुजर रहा है तथा माइक्रो और
मैक्रो अर्थशास्त्र की कई समस्याओं के समाधान हेतु वैश्विक दृष्टिकोण की आवश्यकता
है। भारत में एम.एस.एम.ई. (माइक्रो, स्मॉल, एक मीडियम इंटरप्राइज)
क्षेत्र का बड़ा भाग है, जहाँ सक्रिय
योजनाओं की सहायता से योग्यता और प्रौद्योगिकी द्वारा हमारे राष्ट्र की आर्थिक और
सामाजिक बनावट को बेहतर बनाया जा सकता है।[7] कुटीर उद्योग भारत की
सांस्कृतिक रचनात्मकता की अभिव्यक्ति है। इनमें सौंदर्य, उत्सव और कलात्मकता के साथ-साथ आजीविका के साधन के रूप में
महत्ता है। वर्तमान में कुटीर उद्योगों पर बाजार और प्रयोग करने वालों का असर बढ़ते
जा रहा है, इसलिए इस क्षेत्र में
योजनाबद्ध तरीके से हस्तक्षेप की आवश्यकता है। बाजार का बदलता स्वरूप, उपभोक्ताओं की मांग और बढ़ती प्रतिस्पर्धा के
कारण इस क्षेत्र में भी कई संभावनाएँ हैं। ग्रामीण स्वच्छता गांधीजी ने महसूस किया कि देश के गांव लगभग नरक के समान
हैं। उन्होंने 1915 में भारत वापसी
के बाद शुरूवाती उन वर्षों में लगभग सभी सार्वज्निक सभाओं में ग्रामीण स्वच्छता के
मुद्दे को शामिल किया। एक भाषण में ग्राम स्तरीय कार्यकर्ताओं से कहा कि वे गाँवों
में स्वराज्य, स्वच्छता और
ग्रामीण उद्योग के प्रतीक झाड़ू, कुनैन और चरखा
लेकर जाएँ। उन्होंने लिखा कि जनसेवक को स्वच्छता और साफ-सफाई के बारे में
ग्रामवासियों को शिक्षित करना चाहिए। उसे गाँववासियों के बीच खराब स्वास्थ्य और
बिमारियों की रोकथाम के लिए कदम उठाना चाहिए।[8] गांधीजी का मानना था कि जिस जगह शरीर की सफाई, घर सफाई और ग्राम सफाई हो तथा युक्ताहार और
आयोग्य व्यापक हो वहाँ कम से कम बीमारी होती है और अगर चित्त शुद्ध हो तो कहा
जाता सकता है कि बिमारी असंभव हो जाती है। रामनाम के बिना चित्त शुद्ध नहीं होता
है, अगर देहात वाले यह समझ
जाये तो वैद्य, हकिम या डाक्टर
की जरूरत ही न रह जाये।[9] गांधीजी गंदगी को
जनस्वास्थ्य, स्वच्छता,
अर्थव्यवस्था, प्रकृति और पर्यावरण के साथ जोड़ते हैं। इसमें एक नई
संस्कृति निर्मित करने का नेक विचार भी अनुस्यूत है। इस संस्कृति में शारीरिक श्रम
और मानसिक श्रम के बीच अलगाव नहीं होगा। नई कार्य संस्कृति को जन्म देने में सफल
यह विचार हमारी लापरवाही और सार्वजनिक स्वच्छता को लेकर गैर जिम्मेदार सामूहिक समझ
का प्रतिरोध विमर्श रचते हैं। हमारी सोच का हिस्सा बन गया है कि गंदगी साफ करने
वाले कमतर होते हैं, जबकि गंदगी
फैलाने वाले श्रेष्ठ। गांधीजी के स्वच्छता संबंधी विचार इसका मजबूत प्रत्याख्यान
रचते हैं।[10] गांधीजी के भारतीय राजनीति में प्रवेश के साथ महिलाओं की
स्थिति में भी परिवर्तन हुआ। बड़ी संख्या में आंदोलनों में उनकी भागीदारी ने उनमें
जागरूकता व चेतना उत्पन्न की। गांधीजी की महिला विषयक विचाराधारा कहीं-कहीं परंपरा
से हटकर प्रतीत होती है। गांधीजी सम्पत्ति में महिला अधिकार के समर्थक थे; उन्होंने महिला शिक्षा का भी समर्थन किया लेकिन
पुरूषों से पृथक घर परिवार व संतान के पालन-पोषण की शिक्षा पर बल दिया। उन्होंने
वेश्यावृत्ति, सती, दहेज और अल्पायु में विवाह का विरोध किया।
रोजगार के विषय में उनका मानना था कि महिलाओं को रोजगार घर की जिम्मेदारी उठाना
है। गांधीजी महिलाओं की पुरूषों पर निर्भरता के भी विरोधी थे। महिलाओं के विषय में गांधीजी के विचार और वर्तमान में उनके
महत्व या प्रासंगिकता पर ध्यान दें तो आज की नारी गांधीजी के विचारों को कतई
समर्थन नहीं करेगी। उन्होंने कुछ कार्यों को स्त्रियोचित कहकर उदारवाद के
निजी/सार्वजनिक मतभेद पर बल देकर महिलाओं को हाशिए पर रखा है। इस तरह गांधीजी कभी
प्रगतिशील और कभी दकियानूसी सांस्कृतिक समझ-बूझ के कारण लोगों के बीच काफी
लोकप्रिय साबित हुए।[11] फिर भी नारी के
मूलभूत विकास जैसे नारी शिक्षा, संपोषण, सम्मान, के रूप् में प्रत्यक्षतः उन्होंने नारी विकास पर एक समझ
बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। वहीं अप्रत्यक्ष रूप से रचनात्मक कार्यक्रमों
के माध्यम से शराबबंदी, अस्पृश्यता
निवारण, कुरीतियों का विरोध कर
उन्होंने महिलाओं के सर्वांगीण विकास का मार्ग प्रशस्त कर दिया। कृषक गांधीजी का मानना था कि यदि भारतीय समाज को शांतिपूर्ण
मार्ग पर सच्ची प्रगति करनी है तो धनिक वर्ग को स्वीकार करना होगा कि किसानों के
पास भी वही आत्मा है जो उनके पास है दौलत के कारण वे गरीब में श्रेष्ठ नहीं है जो
परिश्रम करता है जमीन उसकी होनी चाहिए, संपूर्ण भूमि पर कृषकों का अधिकार है। जमीन से दूर रहने वाले जमींदार न तो
जमीन पर अधिकार का दावा कर सकते हैं और न ही उसे बलपूर्वक छिन सकते हैं।[12] कृषक संघर्ष और राष्ट्रीय स्वाधीनता संघर्ष के अंतः-संबंधों
की व्याख्या करते हुए गांधीजी ने कहा था, बारदोली संघर्ष चाहे कुछ भी हो, यह स्वराज्य प्राप्ति के लिए संघर्ष नहीं है, लेकिन इस तरह का हर संघर्ष हर कोशिश हमें स्वराज्य के करीब पहुँचा रही है; ये संघर्ष सीधे
स्वराज्य के संघर्ष से कहीं ज्यादा सहायक सिद्ध हो सकते है।[13] शोषित वर्ग अपनी रोजगार
परक और आर्थिक समस्याओं में इतना निमग्न रहता है कि देश और स्वतंत्रता की बातें सोचने
का अवकाश उसे नहीं मिलता। यह जानते हुए भी कि उसकी ये समस्याएं भी विदेशी शासन की
देन है। वह अपनी समस्याओं का त्वरित समाधान चाहता है और उसी के साथ जुड़ता है जो
उसके अपने मुद्दे की लड़ाई लड़े। गांधीजी में इतनी व्यावहारिक समझ थी। अतः किसानों,
वंचित वर्गों के संघर्ष को उन्होंने अपना
संघर्ष माना और स्वतंत्रता संग्राम की मुख्य धारा में उसे समाहित कर लिया। श्रमिक गांधीजी ने 1918 में ‘अहमदाबाद सेक्सटाइल लेबर
एसोसिएशन’ (टी.एल.ए.) की स्थापना की।
उनके ट्रस्टीशिप के सिद्धांत को मजदूर विरोधी एवं वर्ग सहयोग पर आधारित मानकर
खारिज कर दिया जाता है लेकिन 1918 में एक विवाद के
दौरान टी.एल.ए. ने मजदूरी में 27.5 प्रतिशत की
बढ़ोत्तरी कराई, जो अधिकतम थी।
गांधीजी का मानना था कि वास्तविक मालिक मजदूर है। उन्होंने अहमदाबाद के सूती मिल
मजदूरों से कहा था, मिलों के वे असली
मालिक हैं; यदि ट्रस्ट उनके हितों के
लिए कार्य नहीं करता, मजदूरों को आपके
अधिकारों के लिए सत्याग्रह करना चाहिए।[14] मजदूरों की यूनियन तथा उनके हड़ताल आदि संघर्षों का अपना
इतिहास रहा है। भारत हो या विश्व के अन्य देश इनकी मांगों की गंभीरता से शायद ही
कभी लिया गया हो। ये हमें सदैव शोषित और पीड़ित ही रहे। गांधीजी ने इन्हें
सत्याग्रह के रूप में संघर्ष का एक नया माध्यम दिया। साथ ही महात्मागांधी जैसे
राष्ट्रीय स्तर के नेता के इनके साथ जुड़ने से इनके आंदोलन देखने के नजरिये में
परिवर्तन हुआ, जिसका प्रमाण
इनके कई आंदोलनों की सफलता थी। गांधीजी का मानना था कि निश्छल, अबोध और भोले-भाले आदिवासी सदियों से शोषित होते रहे हैं।
वनवासी होने के कारण वनोपज पर उनके स्वाभाविक अधिकार को चुनौती देकर लोगों ने
उन्हें विस्थापित किया। अपनी मूल संपत्ति से पिछड़कर ये आदिवासी बाहरी संपत्ति में घुलमिल
नहीं पाए, इसलिए एक सांस्कृतिक
समस्या उत्पन्न हुई। आज भी प्रकृति और संस्कृति दोनों की रक्षा के लिए आदिवासियों
के प्रथाओं और परंपराओं की रक्षा करना आवश्यक है। आदिवासियों की सेवा भी रचनात्मक कार्यक्रमों का एक हिस्सा
है। हमारा देश इतना विशाल है; इस संदर्भ में
गांधीजी का मानना था कि एक राष्ट्र होने के हमारे दावे को पूर्ण करना हमारे लिए
कितना कठिन है, जब तक हममें से
प्रत्येक व्यक्ति हर दूसरे व्यक्ति के साथ एक होने की सच्ची भावना अपने भीतर न
पाएँ।[15] समानता और एकता के द्वारा ही विदेशी शक्ति के विरूद्ध एक
बड़ा संघर्ष खड़ा किया जा सकता है। इस बात को ध्येय मानकर महात्मा गांधी ने समाज के
सभी वंचित वर्गों को मुख्य धारा में लाने का प्रयास किया। आदिवासी समूहों के
पिछड़ेपन, अशिक्षा, शोषण आदि को दूर करके उन्होंने न सिर्फ
स्वतंत्रता आंदोलन में उन्हें सहभागी बनाया अपितु नये भारत के निर्माण में उनकी
भूमिका को सुनिश्चित किया। गांधीजी का मानना था कि विद्यार्थी देश का भविष्य है;
उन्हें देश की सामाजिक एवं आर्थिक विकास के लिए
दृढ़ प्रतीज्ञ किए जाने की आवश्यकता है। विद्यार्थियों को विश्वास होना चाहिए कि
यदि वे अपनी मर्यादा के अनुरूप व्यवहार करेंगे तो उन्हें सदैव समर्थन मिलेगा। गांधीजी ने लिखा है कि विद्यार्थियों के शरीर और मन को
शिक्षित करने की अपेक्षा आत्मा को शिक्षित करने में मुझे बड़ा परिश्रम करना पड़ा।
मैंने यथाशक्ति इस बात की व्यवस्था की कि विद्यार्थियों को धर्मग्रंथों का ज्ञान
मिल सके किन्तु उसे बुद्धि की शिक्षा का अंग मानता हूँ। आत्मा की शिक्षा एक
बिल्कुल भिन्न विभाग है। आत्मा को विकास का तात्पर्य है; चरित्र निर्माण करना ईश्वर का ज्ञान प्राप्त करना।[16] वर्तमान में दलबंदी की राजनीति में विद्यार्थी अपना अमूल्य
समय नष्ट करते हैं। गांधीजी ने विद्यार्थियों को खोजी और ज्ञान का शोध करने वाले
मात्र। यदि उनके बहुमूल्य समय और प्रतिभा को सही दिशा प्राप्त हो तो वे भारत के
उज्जवल भविष्य को आकार रूप् दे सकते हैं; इसी विचार के साथ उन्होंने युवाओं के समक्ष स्वामी विवेकानंद जैसे आदर्शों का
प्रतिमान रखा। गांधीजी ने लिखा है पश्चिम से हमें एक चीज जरूर सीख सकते
हैं और है शहरों की सफाई का शास्त्र। पश्चिम के लोगों ने सामुदायिक आरोगय और सफाई
का एक शास्त्र ही तैयार कर लिया है। जिससे हमें बहुत कुछ सीखना है। बेशक सफाई की
पश्चिम की पद्धतियों को हम आवश्यकतानुसार बदल सकते हैं। भगवान के प्रेम के बाद
महत्व की दृष्टि से दूसरा स्थान स्वच्छता के प्रेम का ही है। जिस तरह हमारा मन
मलीन हो तो हम भगवान का प्रेम संपादित नहीं कर सकते; उसी प्रकार हमारा शरीर मलीन हो तो हम उसका आशीर्वाद नहीं पा
सकते। शहर अस्वच्छ हो तो शरीर का स्वच्छ रहना संभव नहीं है।[17] भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में गांधीजी स्वच्छता के मुद्दे पर
ध्यान केन्द्रीत करने वाले संभवतः पहले प्रमुख नेता थे। उन्होंने आधुनिक ढंग के
शौचालयों और पश्चिम की सफाई व्यवस्था को अनाने की पुरजोर वकालत की। केवल समर्थन
नहीं बल्कि स्वयं अभियान किया, यहां तक कि सफाई
कर्मियों के लिए उद्धार का भी कार्य किया। वर्तमान में स्वच्छता जिस प्रमुखता के
साथ सभी सरकारों की प्राथमिकता बनी हुई है, इसके अपने निहितार्थ है परंतु इस दूरदर्शिता का प्रमाण
महात्मा गांधी ने तभी दे दिया था। वास्तव में यह सफाई के कार्य को एक वर्ग विशेष
तक सीमित न रखकर सभी के महत्व का बनाने की लड़ाई थी जो विचारधारा के स्तर पर
क्रांतिकारी परिवर्तन लाने की क्षमता रखती थी। ‘‘सच्चा अर्थशास्त्र सामाजिक न्याय की हिमायत करता है;
प्रयत्न करता है और सभ्यजनोचित सुंदर जीवन के
लिए’’ (हरिजन 9 अक्टुबर 1937)। इस प्रकार गांधीजी की आर्थिक दृष्टि नैतिकता की बुनियाद
पर टिकी हुई थी, जिसमें शोषण की
गुंजाइश नहीं, गांधीजी का
आर्थिक दर्शन सर्वोदय पर आधारित था; जिसका अर्थ होता है ‘सबका उदय,
सबका विकास’।[18] गांधीजी श्रम पर
आधारित आर्थिक विकास का समर्थन करते थे; जिसमें ग्रामीण, कृषक और श्रमिकों
का भला हो। तत्कालीन वैश्विक परिस्थितियों और पूंजीपति-सर्वहारा वर्ग के अनवरत
संघर्ष ने गांधीजी को आर्थिक समानता की अवधारणा पर विचार करने के लिए विवश कर
दिया। उनकी दृष्टि में भावी स्वतंत्र भारत में किसी भी प्रकार का वर्ग संघर्ष
अनपेक्षित था। अतः आर्थिक समानता को स्वतंत्रता आंदोलन की नींव बनाने के कारण ही
भारत में मिश्रित अर्थव्यवस्था को अपनाया गया। भाषाई एकता देश की एकता को बढ़ाने और उसे दृढ़ करने के लिए विभिन्न
भाषाएँ बोलने वाले लोगों के बीच, और शासकों तथा
शासितों के बीच भी मेल-मिलाप बढ़ाने के लिए गांधीजी ने लोगों के इस्तेमाल के लिए एक
सामान भारतीय भाषा की जरूरत महसूस की। जनता के दृष्टिकोण और अपने निजी अनुभव के
आधार पर वह इस नतीजे पर पहुँचे कि सर्वसामान्य की भाषा एकमात्र हिन्दुस्तानी ही हो
सकती है। वह हिन्दुस्तानी को उसी प्रकार अखिल भारतीय भाषा का स्थान देना चाहते थे;
जिस प्रकार अंग्रेजों को अंतर्राष्ट्रीय कामकाज
के लिए रहने देने के पक्ष में थे।[19] भाषा आधारित एकता और क्षेत्रीयतावाद की समस्याओं को देखते हुए भारत के
सुरक्षितज भविष्य हेतु सर्वमान्य भाषा का होना नितांत आवश्यक था। वर्तमान में हमारी पीढ़ी पूर्ण रूप से अंग्रेजों के जकड़ मे
है। आज के लोग इंग्लिश बोलते हैं, जो न पूर्ण रूप
में हिन्दी है और न ही इंग्लिश। इसमें हिन्दी का और युवा वर्ग दोनों का मानसिक और
भाषिक अनुवांशिक परिवर्तन हो रहा है। गांधीजी का मानना था कि करोड़ों लोगों को
अंग्रेजी शिक्षा देना उन्हें गुलामी में डालने जैसा है। गांधीजी की यह भविष्यवाणी
कितनी सही है, यह हम अनुभव कर
सकते हैं। अंग्रेजी भाषी और अंग्रेजी शिक्षा विहीन वर्ग के बीच ही खाई की गहराई
उन्हें अपने निजी अनुभवों से भली-भॉति ज्ञात थी। वह भावी-पीढ़ी को इस भेदभाव के
संसार में संघर्षरत नहीं देखना चाहते थे। प्रान्तीय भाषाएँ गांधीजी हमेशा यही मानते थे कि हमें प्रान्तीय भाषाओं को
किसी भी प्रकार से क्षति नहीं पहुँचानी है; उन्हें कमजोर या खत्म नहीं करना चाहिए। हाँ, सभी लोग अंतर-प्रान्तीय संपर्क के एक सामान्य
माध्यम के रूप में हिन्दी सीखें।[20] गांधीजी मातृभाषा में शिक्षा को बहुत महत्व देते थे; उनका मानना था कि अपनी भाषा में शिक्षा देने पर बच्चों की
कल्पनाशीलता का विकास होता है और वे बेहतर ढंग के चीजों को समझ पाते हैं; दूसरी भाषा में शिक्षा हासिल करने पर दिमाग में
अनावश्यक बोझ पड़ता है।[21] भाषा ज्ञान के
अभाव में प्रतिभाएँ जन्म लेते ही दम तोड़ देती है। यहाँ तक कि सर्वगुणसंपन्न होते
हुए भी कुछ विद्यार्थियों का आत्मविश्वास किसी खास भाषा ज्ञान के अभाव में धराशायी
हो जाता है। हम सब जानते हैं कि क्षेत्रीय भाषा भाषी लोग प्रतिभावान होते हुए भी
भाषायी अनभिज्ञता के कारण बड़े अवसरों की ओर पहला कदम नहीं उठा पाते। सभी तक समान
अवसरों की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए गांधीजी ने क्षेत्रीय भाषाओं को महत्व
प्रदान किया। गांधीजी का विचार था कि ब्रिटिश शिक्षा में भारतीयों को
उनकी मिट्टी से दूर कर दिया है। इसके सुधार के लिए उन्होंने बुनियादी शिक्षा का
समर्थन किया, जिसमें शिक्षा को
उत्पादकता से जोड़ा गया; कृषि, पशुपालन और कुटीर उद्योग जैसी गतिविधियाँ
विद्यार्थियों को सिखाकर उनमें स्वावलंबन, आत्मनिर्भरता और आत्मगौरव उत्पन्न करना उनका उद्देश्य था। इसे उन्होंने ‘नई तालिम’ का नाम दिया। गांधीजी एक ऐसे शिक्षा की वकालत करते थे;
जो बच्चों में सर्वांगीण और एकीकृत विकास कर
सके।[22] बुनियादी शिक्षा का उद्देश्य दस्तकारी के माध्यम से बालकों
का शारीरिक, बौद्धिक और नैतिक
विकास करना है। गांधीजी इसके दो उद्देश्य सिद्ध करना चाहते थे। बालकों को शिक्षा
के माध्यम से कोई धंधा सिखाना ताकि वे उत्तरजीवन में आजीविका ले सकें और दूसरा
बालक में आत्मनिर्भरता और श्रमशक्ति की महत्ता को स्थापित करना जो यह निर्माण का
आवश्यक तथ्य है।(23) भारत की विशाल जनसंख्या और संसाधनों के सीमित हाथों में
होने के कारण बेराजगारी एक विकराल रूप् में सामने आती रही है। इस समस्या के स्थायी
समाधान के लिए गांधी जी ने रोजगार में भारत को आत्मनिर्भर बनाने की आकांक्षा की।
वे अर्थव्यवस्था की मांग को भली-भाँति समझते थे। क्रयशक्ति की महत्ता को देखते हुए
उन्होंने बुनियादी शिक्षा को प्राथमिकता के साथ अपनाने की बात की। प्रौढ़ शिक्षा भी गांधीजी की जनशिक्षा का ही एक अंग है। उनका
विचार था कि निरक्षता सबसे बड़ा कलंक है; जिसे शीघ्र दूर किया जाना आवश्यक है। उन्होंने कहा था-‘‘मेरे विचार में दुखी होने और शर्म करने का जो कारण है;
वह निरक्षता उतना नहीं है, जितना कि अज्ञानता’’। गांधीजी का यह भी कहना था कि प्रौढ़ शिक्षा उनके लिए
अभिभावकों की शिक्षा थी; जिससे वह
अधिकाधिक अपने बच्चों के निर्माण में पर्याप्त उत्तरदायित्व निभा सकें।[24] प्रौढ़ शिक्षा न सिर्फ स्वयं के विकास के लिये अपितु देश को
प्रगतिशील एवं जागरूक नागरिक प्रदान करने के लिए भी आवश्यक है। अशिक्षा और अपने
अधिकारों के प्रति अनभिज्ञता ने ही हमें परतंत्रता की ओर धकेला था, यह बात गांधीजी भलीभाँति समझते थे। अस्पृश्यता उसे कहा जाता है, जब किसी खास प्रकार के घर में जन्म लिए कुछ खास लोगों के
द्वारा छू लिए जाने से कोई अपवित्र हो जाए। गांधीजी के लिए अस्पृश्यता निवारण का
मतलब था ‘‘सारे संसार के प्रति
प्रेम और सारे जगत की सेवा’’ इस प्रकार यह
अहिंसा में ही जाकर समा जाता है। अस्पृश्यता निवारण का अर्थ है मनुष्य-मनुष्य के
बीच के और विभिन्न प्राणियों के वर्गों के बीच के अंतर का अंत करना। मुख्य रूप से
अस्पृश्यता को भारत में धर्म की स्वीकृति मिली हुई है; जिसने कई करोड़ लोगों को गुलामी की सीमा पर पहुँचा दिया है।[25] कुरीतियां भारत की एकता और स्वर्णिम भविष्य के समक्ष सबसे
बड़ी बाधा है। ये आज भी उतना ही सच है जितना स्वतंत्रता संघर्ष की परिस्थितियों यह
गांधीयुग के आंदोलनों की सबसे ड़ी विशेषता यह थी कि इसने दोनों ओर कार्य किया।
विदेशी शक्ति के विरूद्ध अनवरत संघर्ष जारी रखते हुए देश की भीतरी विषमताओं को कम
करने का प्रयास किया। कदाचित यही कारण था कि वे स्वतंत्रता आंदोलन को जन आंदोलन
में परिवर्तित कर पाए। गांधीजी ने 1944 में एक पत्र में लिखा था ‘‘हिन्दु-मुस्लिम
एकता मेरे जीवन का ध्येय है; लेकिन हमें
विदेशी ताकत को खदेड़े बगैर प्राप्त करना संभव नहीं है’’। गांधीजी हिन्दु मुस्लिम एकता की नींव पर खड़े सेक्युलर
भारत के पक्षधर थे। उनका हिन्दुत्व सहिष्णु, समावेशी, उदार और दूसरों
की आस्थाओं का सम्मान करने वाला था। वास्तव में इस महाद्वीप या समूची दुनिया के
इतिहास में किसी और नेता ने गांधीजी की तरह अंतरधार्मिक सौहार्द्र को आर्थिक,
राजनीतिक संघर्ष का केन्द्रीय एजेंडा नहीं
बनाया।[26] गांधीजी जीवन भर हिन्दु-मुस्लिम एकता के पक्षधर रहे और उसी के कारण उनकी हत्या भी हुई। आज देश में
कुछ लोग उन पर देश विभाजन का आरोप लगाते हैं; जबकि वे पहले राजनेता थे; जिन्होंने हिन्दु-मुस्लिम एकता व सद्भाव का मार्ग प्रशस्त
किया।[27] सांप्रदायिकता देश की अखण्डता को भंग करने की क्षमता रखती
है। इस तथ्य से गांधीजी भली-भाँति परिचित थे और उनका समस्त जीवन दोनों पक्षों को
संतुलित करने में ही लगा रहा। परन्तु अंग्रेजों की फूट डालने की कुटिलता ने इस
समस्या को इतना बढ़ा दिया कि गांधी जी विभाजन नहीं रोक सके परन्तु उनके प्रतिकारों
के कारण ही भारत आज भी भारत के विविधता में एकता बनी हुई है। नशाबंदी एक बार गांधीजी ने कहा था-’’यदि उन्हें एक दिन के लिए तानाशाह बना दिया जाए तो सबसे
पहले वे बिना कोई मुआवजा दिए शराब की सभी दुकानें बंद कर देंगे’’।[28] उन्होंने यंग इंडिया में लिखा, मैं भारत का गरीब
होना पसंद करूँगा लेकिन यह बर्दाश्त नहीं कर सकता कि हमारे हजारों लोग शराबी हो,
अगर भारत में शराबबंदी जारी करने के लिए लोगों
को शिक्षा देना बंद करना पड़े तो कोई परवाह नहीं, मैं यह कीमत चुकाकर भी शराबखोरी को बंद करूँगा।[29] गांधीजी ने चंपारण
सत्याग्रह के दौरान कहा था कि शराब आत्म और शरीर का नाश करती है। युवा पीढ़ी के लिए
यह अत्यधिक हानिकारक है। वर्तमान में गांधीजी का नशाबंदी का सिद्धांत अत्यंत
प्रभावी है, क्योंकि यह आज
देश की गंभीर और विचारणीय समस्या है। गांधीजी जी का यह कार्य एक साथ कई उद्देश्यों
का साधन करता था। यह युवा पीढ़ी के लिए उज्जवल भविष्य का मार्ग, महिलाओं के लिए सुरक्षा, अर्थव्यवस्था के लिए रोजगारपरक और स्वतंत्रता आंदोलन में
भागीदारी बढ़ाने का कार्य करता था। महामारी के दौरान बापू लोगों को निडर होने की सलाह देते और
इसे लेकर अफवाह फैलाने वालों से सख्ती से निपटते थे। सेवा की प्रवृत्ति उनकी सहज
प्रवृत्ति थी। कुष्ठ रोगियों की वह स्वयं सेवा करते थे। आज बापू होते तो जरूर
कोरोना पीड़ितों की देखभाल करते, उनका मनोबल बढ़ाते,
उन्हें मायूस न होने देते, स्वच्छता, शारीरिक दूरी, हाथ-धोने, मास्क लगाने जैसे
सभी वैज्ञानिक निर्देशों का पूरे अनुशासन के साथ खुद भी पालन करते।[30] मैं एक ऐसे भारत का
निर्माण करने की कोशिश करूंॅगा, जिसमें गरीब से
गरीब लोग भी यह महसूस करेंगे कि यह उनका देश है, जिसके निर्माण में उनकी आवाज का महत्व है, जिसमें ऊॅचे और नीचे वर्ग का भेद नहीं होगा और
विविध सम्प्रदायों में मेलजोल होगा।[31] सेवा भावना के कारण गांधीजी नेता से संत की भूमिका में आ
गए। लोगों को मानव सेवा का महत्व पता चला। न सिर्फ गांधीजी अपितु समाज के लोग भी
प्रेम और मानवता के माध्यम से आपस में जुड़ते चले गए। आज भी इस भावना की नितांत
आवश्यकता है; जो जाति, धर्म, वर्ग भेद से परे मानव से मानव का परिचय करा दे। गांधीजी के इन रचनात्मक कार्यक्रमों के अतिरिक्त कई और भी
मुद्दे थे, जिन पर गांधीजी ने अपने
विचार को स्वराज्य, राष्ट्रवाद,
समाजवाद, साम्यवाद, उद्योगवाद,
शारीरिक श्रम, सर्वोदय, संरक्षकता,
समान वितरण, ग्राम स्वराज्य, पंचायती राज, स्वेदशी गौरक्षा,
आहार विहार, ग्रामसेवक, अनुशासन के नियम,
धार्मिक सहिष्णुता, अल्पसंख्यक वर्गों के अधिकार, समाचार पत्र, शांतिभंग जैसे विषयों पर भी गांधीजी के सर्वकालिक विचार है। उनके अधिकारों,
विचारों को व्यावहारिक रूप में अपनाया जा सकता
है। आज के युग में उनकी प्रासंगिकता भी कम नहीं है। 5 अक्टूबर 1945 को पं. नेहरू को दुनिया के भावी संकट के प्रति चेतावनी देते हुए गांधीजी ने
कहा था-‘‘यदि भारत को सच्ची आजादी
और उसके द्वारा पूरी दुनिया को आजादी पानी है, तो आज नहीं तो कल यह बात माननी ही पड़ेगी कि हमें देहातों और
झोपड़ियों में रहना होगा, महलों में नहीं।
कई अरब आदमी शहरों में और महलों में एक-दूसरे के साथ सुख और शांति से कभी नहीं रह
सकते है, तब तक उनके पास कोई चारा
नहीं बचेगा, सिवाय इसके कि वह
हिंसा और असत्य दोनों का सहारा ले। 1947 में उन्होंने कहा पश्चिम आज सच्चे ज्ञान के लिए तरस रहा है। परमाणु बमों की
दिन दुनी रात चौगुनी बढ़ती संख्या से दुनिया का नाश हो जाएगा। प्रलय की भविष्यवाणी
मानों सच होने जा रही है। अब यह आपके ऊपर है कि आप दुनिया की नीचता और पापों की
तरफ उसका ध्यान खीचें और उसे बचाएँ।[32] इस प्रकार गांधीजी के रचनात्मक कार्यक्रमों की प्रासंगगिता
आज आजादी के 75 वर्षों में भी
बनी हुई है। गांधीजी के रचनात्मक कार्यक्रमों का विश्लेषण कर हम यह पाते है। कि
इनमें से अधिकांश बिन्दु आज भी कारगर है। इन्हें प्रयुक्त करने का तरीका भले ही
बदल गया हो, लेकिन एक
शांतिपूर्ण और स्वस्थ्य समाज के विकास के लिए इनकी महत्ता को नकारा नहीं जा सकता।
वैश्विक संकट के इस दौर में इन बिन्दुओं को हमने और अधिक प्रासंगिक पाया है।
वर्तमान में इसकी प्रासंगिकता बनी हुई है और भविष्य में भी बनी रहेगी। सन्दर्भ ग्रन्थ सूची 1. ए. अन्नामर्ले ‘राष्ट्र के पुननिर्माण की राह’ योजना, अक्टूबर 2019, प्रकाशन विभाग, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार,
नई दिल्ली, पृ. 53. |