महात्मा गाँधी : समसामयिक प्रासंगिकता
ISBN: 978-93-93166-17-3
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कविवर सुमित्रानंदन पंत के काव्य में गांधी-दर्शन

 डॉ. निमिता वालिया
असिस्टेंट प्रोफेसर
हिंदी साहित्य विभाग
श्रीमती नर्बदा देवी बिहानी गवर्नमेंट पी0 जी0 कॉलेज
नोहर, हनुमानगढ़  राजस्थान  भारत

DOI:
Chapter ID: 15938
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सारांश

    हिन्दी साहित्येतिहास की प्रमुख काव्यधारा छायावादके चार आधार स्तम्भों में से एक कवि सुमित्रानंदन पंत, जिनकी माता का देहावसान उनके जन्म के कुछ समय पश्चात् ही हो गया, प्रकृति की गोद में बचपन बीता, इन घटनाओं का प्रभाव पंत पर विशेष रूप से    हुआ। लोकमंगल की कामना रखने वाले संवेदनशील कवि पंत पर अपने युग के सभी साहित्यकारों, समाज-सुधारकों व लोक कल्याणकारी संस्थाओं का व्यापक प्रभाव पड़ा, इसी दौर में देश स्वतन्त्रता प्राप्ति हेतु प्रयासरत था, गांधीजी का प्रभाव चहुँओर व्याप्त था, पंत का सुकोमल कविमन भी गांधीजी के पद्चिंह पर चल पड़ा। गांधीजी के सत्य, अहिंसा, स्वदेश-प्रेम, मानव-मंगल व लोकमंगल की भावना, स्वदेशी-प्रेम, गाँवों के प्रति प्रेम, स्वराज और समाजवाद सम्बन्धी उत्कृष्ट विचारों का प्रभाव आम जनमानस के साथ-साथ पंत पर भी व्यापकता के साथ   पड़ा। गांधी के सुविचार उनके सिद्धांत न केवल पूर्वकाल अपितु अद्यतन भी उतने ही प्रासंगिक हैं। पंत के रचना कर्म पर भी गांधी-दर्शन की अमिट छाप परिलक्षित होती है। 

मुख्य शब्द : प्रागंण, स्फुरण, उन्मुक्त, आक्षितिज, अंतःस्पर्श, सार्वभौमिक, उपस्थापन, बंधन-मुक्ति-दर्शन, व्यक्ति स्वातंत्र्य।

प्रस्तावना

जब छायावाद का उदय हुआ तब राजनीतिक पटल पर प्रथम महायुद्ध जैसी घटना घट चुकी थी। स्वातंत्र्य की चेतना करवट बदलने लगी थी। अतः अब तक के स्थूल प्रयास आतंरिक संघर्ष का अवलंब पाकर सूक्ष्मता की ओर बढ़ने लगे थे। छायावाद भी इस सूक्ष्मता को आत्मसात् करने को उत्सुक रहा। छायावादी काव्य मानव-मुक्ति व स्व की अधीनता का काव्य है। इस सूक्ष्मता, मुक्ति व स्वाधीनता को अधिकाधिक मनोहारी एवं व्यक्तित्व विकास का साधन बनाने में गांधीजी के सत्य-अहिंसा और असहयोग की सूक्ष्म शक्तियों का प्रयोग होने लगा था। यह प्रयत्न कुछ समय तक लड़खड़ाते कदमों से चला, किन्तु अनुकूल वातावरण पाकर इन शक्तियों का विकास हुआ। निराशा और हताशा की सीमाएँ टूटने लगी और जनमानस अपनी आंतरिक यात्रा हेतु निकल पड़ा। 

अध्ययन का उद्देश्य

वसुधैवकुटुबंकम् और विश्वबंधुत्व के भावों से ओतप्रोत भारतीय संस्कृति सनातनकाल से ही शांतिप्रिय रही। वैदिक मंत्रों में भी अंतरिक्ष एवं ग्रह-नक्षत्रों सहित, धरा पर शांति की कामना इष्ट रही। दूसरी ओर संसार के अनेक देशों की नीति विस्तारवादी रही जिसके परिणामस्वरूप वे अन्य देशों पर चढ़ाई करते रहे - परिणाम निकला विध्वंसकारी युद्ध। जो मानव सभ्यता के इतिहास पर कलंक के समान है। अतः लोक कल्याण हेतु शांति एवं अहिंसा की भावना का प्रचार-प्रसार समसामयिक वैश्विक परिदृश्य में अपरिहार्य हो जाता है। ऐसी स्थिति में राजनीति तथा साहित्य-सृजन में जन-कल्याणकारी नीतिगत औदात्य की प्रतिष्ठापना ही हमारा सर्वोच्च ध्येय है, और इस ध्येय का आलंबन बना है पंत का काव्य। 

शोध विधि

इस आलेख हेतु मेरे द्वारा प्राथमिक और अप्राथमिक दोनों स्रोतों से तथ्य पूर्ण जानकारी प्रस्तुत की गई। गांधीजी की आत्मकथा, पंत की आत्मकथा व पंत की गांधी दर्शन से प्रभावित रचनाओं का अध्ययन करने के पश्चात् यह शोध-आलेख प्रस्तुत करने का एक प्रयास किया गया है। 

पंत के व्यक्तित्व-कृतित्व पर गांधी-दर्शन का प्रभाव

पंत की ख्याति प्रकृति के सुकुमार कवि के रूप में जग जाहिर है। इनका बाल्यकाल अल्मोड़ा के पर्वतीय प्रदेश में प्रकृति के खुले प्रांगण में बीता। वे सात वर्ष की वय में ही काव्य-सृजन करने लगे। उस समय अल्मोड़ा अखबार’ ’वेंकटेश्वर समाचारतथा सरस्वती पत्रिकापढ़ते हुए पंत के मन में भी काव्य-सृजन का स्फुरण हुआ और मैथिलीशरण गुप्त, अयोध्यासिंह उपाध्याय हरिऔधकी रचनाओं का इन पर गहरा प्रभाव पड़ा। बाद में बनारस में पढ़ते हुए सरोजनी नायडू व कवींद्र -   रवींद्र एवं अंग्रेजी के रोमांटिक कवियों की रचनाओं का भी इन पर प्रभाव पड़ा। 

कालक्रम पर दृष्टि डाली जाए तो साहित्य में छायावाद का आविर्भाव व गांधीजी का दक्षिणी अफ्रीका से भारतागमन साथ-साथ हुआ। इस समय देश गुलामी की जँजीरों में जकड़ा हुआ था और स्वतंत्रता की खुली उन्मुक्त हवा में साँस लेने को छटपटा रहा था, गांधीजी के स्वदेशागमन के साथ ही सुप्त अवस्था में पड़े स्वाधीनता आन्दोलन को एक नई दिशा मिल गई। उन्होनें सत्याग्रह आन्दोलनका आगाज कर दिया था, स्वाधीनता आन्दोलन में प्राण फूँकने में उनके महान् चरित्र व उनके महान् विचारों का महत्वपूर्ण योगदान रहा, जो स्वतंत्रता आन्दोलन सन् 1919 तक मुख्यतः शिक्षित वर्ग तक सीमित था उसे गांधीजी ने जन-जन तक पहुँचा दिया। उनका झुकाव राजनीति के बजाय अध्यात्म की ओर अधिक था, उनका व्यापक दृष्टिकोण राजनीति के साथ-साथ सामाजिक सांस्कृतिक व आर्थिक समस्याओं तक व्याप्त था। राजनीतिज्ञ न होते हुए भी उन्होंने स्वयं को देश-विदेश की राजनीति से हर क्षण संबंद्ध रखा। गुफावासी संसार-त्यागी संत न होते हुए भी उनका मसीहायी अन्दाज प्रखर बना रहा। उनका सर्वव्यापी आक्षितिज फैला रहा तथा उनके कृतित्व ने मानव जीवन के हर पहलू को साधिकार आत्मसात् किया। व्यक्ति, परिवार, समाज, जाति, संस्कार, सम्पत्ति, भोजन, चिकित्सा, वाणिज्य, कला, विज्ञान, राजनीति-शास्त्र, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, मानवशास्त्र, मनोविज्ञान, प्रेम-सौंदर्य, विवाह, बह्मचर्य, अहिंसा, सत्य, ईश्वर, धर्म, जीवन-मृत्यु इन सभी विषयों पर उन्होंने चिन्तन किया। लोगों ने उन्हें देखा, सुना, पढ़ा, सहमत, असहमत हुए, उनका तीव्र समर्थन किया, घोर विरोध किया, किन्तु प्रेम और श्रद्धा उन्हें जितनी मिली, उतनी विश्व में किसी एक व्यक्ति को कभी नहीं मिली, क्योंकि उनके विरोधी भी उन्हें एक अद्भूत व्यक्ति के रूप में देखते हैं।[1]

गांधीजी के इसी व्यक्तित्व के प्रभाव से, उनके एक आहवान पर भारतीय जन-मानस की दशा-दिशा परिवर्तित हो जाती थी तो फिर इस परिवर्तन के प्रभाव से भला पंत जैसे लोकधर्मी कवि का अप्रभावित रहना कैसे संभव था ? वे लिखते हैं जब मैं पल्लवकी रचनाएँ लिखकर काव्य-बोध तथा कला-शिल्प में परिपक्वता प्राप्त करने का प्रयत्न कर रहा था, उन्हीं दिनों गांधी के नेतृत्व में देश की स्वतंत्रता का आन्दोलन गम्भीर तथा व्यापक रूप धारण कर हमारी पीढ़ी का ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर रहा था। सन् 1921 के आन्दोलन में अपने मँझले भाई के कहने पर मैनें कॉलेज छोड़ दिया था।[2]

लेकिन वे अपनी कोमल प्रकृति के कारण मुखर रूप से सत्याग्रह आन्दोलन में भाग नहीं ले सके पर प्रकृति और मानव-सौंदर्य के प्रति नवीन उन्मेष और मानव मात्र के सार्वभौम मंगल की मनोकामना उनके काव्य में गांधी दर्शन एवं माक्र्सवादी विचाराधारा के साथ मुखर होने लगी। सन् 1942 में भारत-छोड़ो आन्दोलनके संत्रस्त वातावरण में इन्होंने लोकायननामक संस्कृति पीठ की नींव रखी। पंत की प्रतिभा अध्यात्म-चेतना एवं जन चेतना वादी दृष्टि-संपन्न सार्वभौमिक मानवता का मंगलघोष कही जा सकती है। उनके कवि कर्म पर अरविन्द-दर्शन का प्रभाव भी परिलक्षित होता है। पर गहनता से मंथन किया जाए तो उनके काव्य पर गांधी दर्शन की अनुगूँज सर्वत्र सुनाई देती जान पड़ती है। वे कहते हैं तब से जब भी मेरा मन युग-संघर्ष के आँधी-तूफान से आक्रान्त हुआ मैनें गांधीजी का स्मरण किया और जिस रूप में भी मैं ग्रहण कर सका मैनें उनके व्यक्तित्व से स्थापना की है और मेरे काव्य में तब से गांधीवाद का एक स्वर सदैव विद्यमान रहा।[3] 

युगपुरूष गांधीजी, दिखने में दुबले-पतले लेकिन दृढ़ इच्छाशक्ति व कर्मनिष्ठा उन्हें महान् व्यक्तित्व का धनी बनाती थी। उनकी गरिमा सहज ही सबको आकृष्ट कर लेने वाली थी जिसके प्रभाव से जनता खुशी-खुशी उनकी बात मान लेने को तैयार हो जाती। गांधीजी के इसी व्यक्तित्व का प्रभाव कवि पर प्रथम भेंट में ही पड़ गया। वे कहते हैं कि प्रथम भेंट में कुछ ही क्षणों में मुझे गांधी के महान व्यक्तित्व का अतःस्पर्श मिल सका तब मुझे ज्ञात हुआ कि गांधीजी कितने हृदयवान महापुरूष हैं। अपने इस आंतरिक अनुभव की बात को मैनें संक्षेप में इस प्रकार कहा - 

       ’’प्रथम भेंट में मिला हृदय को सूक्ष्म स्वर्ग, दृग विस्मय प्रेरित

       स्फुरित इन्द्रधनु रूचि विनिर्मित हुआ मनोमय वपु उद्भासित।’’[4]

गांधीजी से मिलने के पश्चात् पंत के कवि हृदय में सात्विक चेतना का उदय हुआ। गाँधीजी को भावी संस्कृति का मूलाधार स्वीकार करते हुए वे लिखते हैं -

              ’’तुम माँसहीन, तुम रक्त-हीन,
              हे अस्थिशेष! तुम अस्थिहीन
              तुम शुद्ध-बुद्ध आत्मा केवल,
              हे चिर पुराण, हे चिर नवीन!
              तुम पूर्ण इकाई जीवन की
              जिसमें असार भव-शून्य लीन
              आधार अमर होगी, जिस पर 
              भावी की संस्कृति समासीन!’’ [5]

नवयुग निर्माण हेतु पंत को गांधी पूर्ण पुरूष नजर आए। पंत में बापू के प्रति अटूट श्रद्धा' थी। वे कहते हैं कि मेरे कवि-हृदय को नवयुग मंगल के लिए एक सर्वांगपूर्ण रस सिद्ध चैतन्य की खोज थी जिसकी प्राप्ति के लिए गांधीजी का अंतः स्पर्श शुभ्र सोपान बन सका।[6]

पंत के रचना कर्म पर गांधी के प्रमुख विचारों के प्रभाव पर दृष्टि डाली जाएं तो निम्न सोपान नजर आते हैं-

(क) पंत पर गांधी के सत्य-अहिंसा दर्शन का प्रभाव 

गांधी के व्यक्तित्व को सुदृढ़ करने वाले तीन प्रमुख अस्त्र थे - सत्य, अहिंसा और सत्याग्रह। वे मानव की सभी समस्याओं का हल अहिंसा को स्वीकारते थे, अहिंसा को हिंसा से अधिक बलशाली स्वीकार करते   थे। उनके मतानुसार अहिंसा मनुष्य को एक-दूजे के प्रति प्रेम व आदर की सीख देती है उन्होंने हिंसा को निषेधात्मक न मानकर विधेयात्मक माना व इसमें किसी प्रतिकार या बदले की भावना को नकारा। अहिंसा का सकारात्मक पक्ष-प्रेम उन्हें सदैव मान्य रहा, उनके अनुसार अपने विरोधी को प्रेम द्वारा सरलता से जीता जा सकता हैं। वे कहते है कि मैंने ईश्वर का, अहिंसा का और सत्य का साक्षात्कार किया जब मै इस साक्षात्कार के अपने अधिकार की जांच करता हूँ तो मुझे लोगो के प्रति अपने प्रेम के सिवा और कुछ भी नही मिलता। इस प्रेम का अर्थ है प्रेम अथवा अहिंसा के प्रति मेरी अविचल श्रद्धा।[7]

गांधीजी ने सत्य-सिद्धि का भी एकमात्र उपाय अहिंसा को स्वीकार किया, पहले उन्होंने ईश्वर को ही सत्य कहा मगर अहिंसा के प्रभाव में सत्य को देखकर सत्य को ईश्वर कहा। उनके अनुसार यह सत्य स्थूल-वाचिक-सत्य नही हैं। यह तो वाणी की तरह विचार का भी हैं। यह सत्य केवल हमारा कल्पित सत्य ही नही हैं बल्कि स्वतंत्र चिरस्थायी सत्य है अर्थात् परमेश्वर ही हैं।[8]

 पंत की मान्यता थी कि इसी प्रेम के प्रभाव से मानव जीवन स्वर्ग बन जाएगा, मानवता की नई कोपलें फूटेगी और उस पर सदाचार व स्नेह रूपी फल-फूल लगेंगे।
              ’’सत्य अहिंसा से आलोकित होगा मानव का मन,
              अमर प्रेम का मधुर स्वर्ग बन जावेगा जगजीवन,
              आत्मा की महिमा से मोहित होगी नव मानवता,
              प्रेम शक्ति से चिर निरस्त हो जावेगी पाशवता।’’[9]
       ’बापू के प्रतिकविता की निम्न पंक्तियाँ भी इन्हीं भावों की वाहक हैं:-
              ’’सुख भोग खोजने आते सब,
              आये तुम करने सत्य खोज,
              जग के मिट्टी के पुतले जन,
              तुम आत्मा के मन के मनोज!
              जड़ता, हिंसा, स्पर्धा में भर,
              चेतना, हिंसा, नम्र-ओज,
              पशुता का पंकज बना दिया,
              तुमने मानवता का सरोज!’’[10] 

(ख) गांधीजी की स्वदेशी विचारधारा का पंत पर प्रभाव

गांधीजी स्वदेशी वस्तुओं के प्रचार-प्रसार को महत्व देते थे विदेशी वस्तुयों का उन्होंने बहिष्कार किया उनके मतानुसार मैनें हिंद-स्वराजमें यह माना था कि चरखे के जरिये हिन्दुस्तान की कंगालियत मिट सकती है। और यह तो सबके समझ सकने वाली बात है कि जिस रास्ते भूखमरी मिटेगी उसी रास्ते स्वराज्य मिलेगा।[11]

       कवि पंत चरखागीतमें इस विचार को गति देते प्रतीत होते हैं -
              ’’नयन गात यदि भारत माँ का
              तो खादी समृद्धि की राका,
              हरो देश की दरिद्रता का 
              तम - तम - तम 
              - - - - - - - - - - - 
                     सेवक पालक शोषित जन का,
                     रक्षक में स्वदेश के धन का,
                     कातो हे, कातो तन मन का
                     भ्रम - भ्रम - भ्रम।[12] 

(ग) गांधीजी की स्वच्छ राजनीतिविषयक विचारों का पंत पर प्रभाव

गांधीजी राजनीति व नैतिकता के मध्य सम्बन्ध स्थापित करते हुए साधन व साध्य की पवित्रता पर बल देते हैं। उनके विचार में स्वतन्त्रता प्राप्ति अगर साध्य है तो उसकी प्राप्ति हेतु किए गए कर्म अर्थात साधन भी शुद्ध होने चाहिए। उन्होंने बीज को साधन माना तो वृक्ष को साध्य की उपमा दी, जैसा बीज डालेंगे वैसा वृक्ष पनपेगा। अनुचित मार्ग हमें उचित लक्ष्य तक कदापि नहीं ले जा सकता। जो सत्ता बल प्रयोग या भय के परिणाम स्वरूप प्राप्त की जाती है। उससे मानव मन में प्रेम व सम्मान की भावना उत्पन्न नहीं की जा सकती। गांधीजी ने स्वतंत्रता प्राप्ति हेतु पवित्र एवं स्वच्छ सत्याग्रह के मार्ग को चुना। उनकी इस दृष्टि को पंत वाणी देते हुए कहते हैं:- 

              ’’सहयोग सिखा शासित-जन को
              शासन दुर्वह हरा भार,
              होकर निरस्त, सत्याग्रह से,
              रोका मिथ्या का बल-प्रसार,
              बहु भेद-विग्रहों में खोई,
              ली जीर्ण-जाति क्षय से उबार,
              तुमने प्रकाश को कह प्रकाश,
              ’अंधकार को अंधकार।’’[13]

(घ) पंत के काव्य में गांधीजी की वस्तुनिष्ठता

आज का युग अराजकता का युग है। चहुँओर दृष्टि डाली जाए तो अशांति ने पैर फैला रखे हैं। मनुष्य ने विज्ञान के आविष्कारों से प्रगति तो कर ली किन्तु आत्मिक शांति वह न पा सका। इस भौतिकतावाद में वह स्वयं को भुला बैठा। गांधीजी इस भौतिकतावाद, साम्राज्यवाद की घोर भर्तसना करते थे, युद्ध को हिंसक मानते थे, समकालीन परिवेश में सम्पूर्ण विश्व में एक देश दूसरे देश पर हावी होना चाहता है। गांधीजी इसके कट्टर विरोधी थे, पंत की निम्न पँक्तियाँ गांधीजी के इस विचार को स्पष्ट तौर पर मुखरित कर रही हैं:- 

       ’’मानव ने पायी देश काल पर जय निश्चय,
       मानव के पास नहीं मानव का आज हृदय,
       चर्चित उसका विज्ञान ज्ञान। वह नहीं पचितः
       भौतिक मद से मानव आत्मा हो गयी विजित।’’[14]

(ड़) कल्याणकारी विश्व निर्माण में गांधी की भूमिका पंत के छंदों द्वारा 

वर्तमान में हम गांधीजी के मूल्यों को बिसरा चुके हैं और बहुत कठनाईयाँ भी अनुभव कर रहे हैं। गांधीजी के सिद्धान्त मील के पत्थर हैं, अमूल्य हैं। उनमें सर्वधर्मों व जीवनानुभवों का समावेश किया जा सकता है। यदि गांधीजी के मूल्यों के अनुरूप न केवल भारत अपितु सम्पूर्ण विश्व का पुनःनिर्माण किया जाए तो आज भी अनुशासित भविष्य हेतु गांधीजी का चिन्तन उतना ही प्रेरणादायी दृष्टिगत होगा जितना पूर्व में रहा है। इसका अभिप्राय यह नहीं कि हम उनके सिद्धान्तों की अनुपालना यंत्रवत् होकर करने लगे बल्कि उनके मूल्यों व संवेदनाओं का मूल आत्म तत्व ग्रहण कर गरीब जनों हेतु कुछ उपयोगी कार्य कर पाएँ तो उनके बताएँ मार्ग का अनुगमन उचित प्रकार से कर सकते हैं पंत की निम्न पँक्तियाँ इस कथन को पुष्टि करती हैं:- 

       ’गांधीवाद जगत में आया ले मानवता का नवमान,
       सत्य अहिंसा से मनुजोचित नव संस्कृति करनें निर्माण।
       गांधीवाद हमें जीवन पर देता अन्तर्गत विश्वास
       मानव की निःसीम शक्ति का मिलता उससे चिर आभास।
       - - - - - - - - - - - - - - - - - - - -
       मनुष्य का तत्व सिखाता निश्चय हमको गांधीवाद,
       सामूहिक जीवन विकास की साम्य योजना है अविवाद।’’[15]

       पंत के व्यक्तिगत जीवन व काव्य सृजन पर समयानुसार स्वच्छंदतावाद, मार्क्सवाद व अरविन्द दर्शन का पर्याप्त प्रभाव परिलक्षित होता है उनकी वीणासे ज्योत्सनातक की कविताएँ छायावादी, ’युगांतसे ग्राम्यातक की कविताएँ प्रगतिवादीजिन पर गांधीजी के जीवन मूल्यों की विशेष रंगत छाई रही। पंत गांधीजी को नव-संस्कृति के दूत! और अलौकिक मानव की संज्ञा देते हैं। पंत के हृदय में गांधीजी के प्रति जो अपार आस्था थी निम्न पँक्तियों में दृष्टिगत होती हैं:- 

       ’नव संस्कृति के दूत! देवताओं का करने कार्य।
       आत्मा के उद्धार के लिए आए तुम अनिवार्य।।’’[16]

गांधी-दर्शन को सही अर्थों में बंधन-मुक्ति-दर्शन कहा जा सकता है। इसमें अन्याय का प्रतिरोध, प्रेम, क्षमता, शांति, न्याय, परदुःखकातरता, करूणा, सहनशीलता, संवेदनशीलता और औदार्य जैसे वृहत्तर जीवन-मूल्यों का उपस्थापन हुआ है और ये मूल्य ही हमें सर्वभूतहितैरतः यानि सभी प्राणियों के हित में रत रहते हुए दूसरों के हित में ही अपना हित देखने की प्रेरणा देते हैं और एक सुन्दर समाज-रचना का आधार बनते हैं। और व्यक्ति-स्वातंत्र्य में बाधा डालने वाले बंधनों से मुक्ति दिलाते हैं। इन विचारों को मुखर करती पंत की निम्न पँक्तियाँ:- 

       ’बापू तुम पर है आज लगे जग के लोचन,
       तुम खोल नहीं जाओगे मानव के बंधन ?’’[17]

निष्कर्ष:- एक आदर्श-समाज रचना को सुख एवं शांतिपूर्वक जीने का अधिकार होता है, जिसे जीओ और जीने दोजैसे आदर्श वाक्य में व्यक्त किया गया है। गांधी-दर्शन से प्रभावित पंत के सृजन में भी हम यही पाते हैं कि व्यक्ति को अपनी मर्यादा का अतिक्रमण नहीं करना चाहिए और सभी के प्रति विनम्रता एवं सम्मान-भाव रखना चाहिए। हमें पंत के काव्य का अवगाहन करने पर सार-रूप में यही मिलता है कि पंत का काव्य गांधी-दर्शन का पूरक नहीं, तो अनुपूरक अवश्य है, जहाँ विश्व-मानव के कल्याण की कामना की गई है। उसके आत्म-सम्मान एवं गरिमा को महिमामंडित किया गया है। गांधी-दर्शन ही उनके काव्य में उनके अंतस की सबसे प्रौढ़ अभिव्यक्ति के रूप में प्रतिध्वनित हुआ है। 

सन्दर्भ ग्रंथ सूची

1.     गांधीदर्शन: डॉ. प्रभात कुमार भट्टाचार्य, पृष्ठ - 1
2.     साठ वर्ष एक रेखाँकन - सुमित्रानन्दन पंत, पृष्ठ - 43 
3.     वही, पृष्ठ - 51
4.     वही, पृष्ठ - 51
5.     ‘बापू के प्रतिकविता (युगांत संग्रह से) - सुमित्रानंदन पंत
6.     साठ वर्ष एक रेखांकन-सुमित्रानंदन पंत, पृष्ठ - 52
7.     सत्य के प्रयोग - महात्मा गांधी, पृष्ठ - 358
8.     वही (प्रस्तावना) - पृष्ठ - 7-8
9.     ‘बापूकविता (युगवाणी संग्रह से) - सुमित्रानंदन पंत
10.    ‘बापू के प्रतिकविता (युगांत संग्रह से) - सुमित्रानंदन पंत
11.    सत्य के प्रयोग - महात्मा गांधी, पृष्ठ - 421
12.    ‘चरखा गीत’ (ग्राम्या संग्रह से) - सुमित्रानंदन पंत
13.    ‘बापू के प्रति’ (युगांत संग्रह से)- सुमित्रानंदन पंत
14.    ‘बापू’ (ग्राम्या संग्रह) - सुमित्रानंदन पंत
15.    समाजवाद-गांधीवाद (युगवाणी संग्रह) - सुमित्रानंदन पंत
16     ‘बापू’ (युगवानी संग्रह से) - सुमित्रानंदन पंत
17.    ‘बापू’ (ग्राम्या संग्रह से) - सुमित्रानंदन पंत