भारतीय संस्कार : परिवर्तित आयाम
ISBN: 978-93-93166-25-8
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शिक्षा में संस्कार: विद्यारम्भ से समावर्तन विषय प्रवेश

 डॉ. प्रिया तिवारी
असिस्टेन्ट प्रोफेसर
समाजशास्त्र
दी0द0उ0रा0स्ना0 महाविद्यालय,
 सैदाबाद, प्रयागराज, उ.प्र., भारत 

DOI:10.5281/zenodo.11261685
Chapter ID: 16623
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शिक्षा में संस्कार या संस्कार में शिक्षा एक दूसरे का पर्याय है। शिक्षा भातृ भावना एवं समता का विकास, उच्च विचार, परोपकार एवं कर्त्तव्य-परायण, सार्वभौमिकता का विकास करती है और ठीक उसी तरह संस्कार और भावनाओं के माध्यम से भी सद्भाव, सहयोग, संवेदनशीलता, नैतिकता का विकास होता है। संस्कार हमें उदार बनाता है और दूसरों से प्यार करने की प्रेरणा देता है। विभिन्न ग्रंथों में संस्कारों की संस्था के सम्बन्ध में अंतर है परन्तु प्रमुख संस्कारों में गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोलयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अनप्राशन, चूड़ाकर्म विधारम्भ, कर्णवंध, यज्ञोपवती, वेदारम्भ, केशान्त, समावर्तन, विवाह तथा अन्त्येष्टि ही माना है।[1] इन संस्कारों में विद्यारम्भ, वेदारम्भ और समावर्तन मुख्य रूप से शिक्षा से सम्बन्धित है।

मुख्य विषय: संस्कार शुद्धिकरण का पर्याय हे। संस्कार से तात्पर्य उन क्रियाओं से है जो पवित्र वस्तुओं की उपस्थिति में किये जाते हैं। संस्कार से मनुष्यों में ऐसे गुणों का अविर्भाव होता है जिससे मनुष्य समाज का योग्य सदस्य बनता है।[2] यह सारे संस्कार शरीर मन और मस्तिष्क को पवित्र करने हेतु किये जाते हैं। महर्षि चरक के अनुसार संस्कारोहिगुणान्तराधानमुच्यते बताया गया है अर्थात् मनुष्य के दोषों को निकालकर उसमें सद्गुण बढ़ाने की क्रिया का नाम संस्कार है।[3] विभिन्न ग्रंथों में अलग-अलग संस्कारों के नाम दिये गये हैं जो गर्भाधान से अंत्येष्टि तक किये जाते हैं।

संस्कारों में सही तरह से जीवन जीने की तैयारी और अभ्यास सम्मिलित रहता है और उसी तरह शिक्षा भी हमारे जीवन में हर चरण में सामाजिकता, सहनशीलता और सामंजस्यता विकसित करती है। उपनिषद में सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म वाक्य में शिक्षा का उद्देश्य छिपा हुआ है।[4]

विद्यारम्भ या अक्षर-स्वीकरण

वैदिक साहित्य में इसका वर्णन नहीं मिलता है लेकिन आगे स्मृति चन्द्रिका, संस्कार प्रकाश में इस संस्कार का उल्लेख मिलता है।[5] अक्षर स्वीकरण  नाम इसको सूत्र काल में दिया गया और इस अवसर पर एक समारोह आयोजित किया जाता था! यह संस्कार उपनयन से पूर्व और चूड़ाकर्म के पश्चात् 5 वर्ष की आयु में किया जाता था।

अक्षर ज्ञान सूत्र काल में महत्वपूर्ण माना गया इस समय तक वैदिक संस्कृति साधारण बोलचाल की भाषा से पृथक रूप प्राप्त कर चुकी थी। यह शिक्षा प्रारम्भ करने का प्रथम संस्कार हुआ।[6]

बच्चे के जन्म लेते ही माता पिता उनके पालन-पोषण की व्यवस्था करते हैं। मां-बाप का यह दायित्व होता है कि बच्चों के शारीरिक विकास के साथ-साथ बच्चों का मानसिक विकास भी करें। इस संस्कार के द्वारा बच्चों में ऐसी भावना का विकास किया जाता है कि वह केवल साक्षर न रहे बल्कि शिक्षित होकर समाज निर्माण में अपना योगदान दे। विद्यारम्भ संस्कार बच्चा जब शिक्षा ग्रहण करने योग्य हो जाये तब किया जाता है और आमतौर पर यह 5 वर्ष की अवस्था में किया जाता है।[7] इसमें मंगल मूर्ति गणेश एवं ज्ञान की देवी मां सरस्वती की पूजा की जाती है। इसमें बच्चे के हाथ में लेखनी पकड़ाई जाती है।[8]

वेदारम्भ संस्कार

इस संस्कार को मुख्यतः पुरोहित प्रणाली के विकास के साथ जोड़कर देखा जाता है। उत्तर वैदिक काल जो 1400 BC से 600 BC का काल माना जाता है। यह काल ऋगवैदिक काल के बाद और बौद्धकाल के पहले आया।

ऋगवैदिक काल की तरह इस समय भी शिक्षा का उद्देश्य वही था बस अध्ययन प्रक्रिया में अंतर आ गया। इसमें विद्या या विमुक्तये अर्थात् भौतिक बन्धनों से पृथक होकर आत्मा, परमात्मा के सानिध्य को प्राप्त करने का सिद्धान्त विद्यमान था आर्यो की शिक्षा का उद्देश्य छात्रों में उलट गुणों की स्थापना करना था।

उत्तर वैदिक काल में शिखा के साथ यज्ञों की शुरूआत हुयी। यज्ञों को करने के लिये पुरोहित की आवश्यकता महसूस की गयी। ऋगवेद के ज्ञाता होता, यजुर्वेद के ज्ञाता अध्वर्यु, सामवेद के ज्ञात उद्गाता एवं अथर्ववेद के ज्ञाता को तीनों वेदों से परिचित होने के कारण ब्रह्म रूप पुरोहितके पद पर प्रतिष्ठित किया गया।[9]

भारतीय शिक्षा का वास्तविक प्रारम्भ उपनयन के बाद होता था और तीन वर्णों ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य के लिये उपनयन अनिवार्य था। यह संस्कार, संस्कारों के क्रम में 10वां संस्कार था। उप यानि पास और नयन का अर्थ है गुरू। उपनयन संस्कार के साथ ही वेदारम्भ संस्कार प्रारम्भ हो जाता था। उपनयन संस्कार में तीन धागे पहनाये जाते है जो देवऋण, पितृऋण और ऋषिऋण का प्रतीक था। विवाहित लोग छः धागो वाला जनेऊ पहनते थे, अन्य तीन धागे उनकी अर्द्धांगिनी का माना जाता था। जनेऊ धारण करते समय यह मंत्र उच्चारित किया जाता था।

‘‘ऊँ यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्त्रात’’[10]

वर्तमान में जनेऊ संस्कार का पुनरूद्धार महिलाओं के लिये शिक्षा के अधिकार का प्रतीक बन गया है। वैदिक काल में उपनयन संस्कार अनिवार्य नहीं था। सूत्र काल में यह द्विजों के लिये आवश्यक हो गया। माता-पिता द्वारा बच्चे का जैविक जन्म होता था। जब उपनयन संस्कार में गुरू बच्चे के कान में गुरूमंत्र देते थे तभी उसका दुबारा जन्म सही अर्थों में माना जाता था। अगर उपनयन संस्कार नहीं तो द्विज नहीं। उपनयन द्वारा बच्चे का आध्यात्मिक जन्म माना जाता था। अन्य धर्मों में कलमा, बायटिस्म आदि उपनयन संस्कार के ही अलग-अलग रूप है।

उपनयनमानो ब्रह्मचारिण्ं कृष्णुते गर्भमन्तः[11]

इस सूत्र के द्वारा बताया गया है कि उपनीत बालक को आचार्य के पणिपल्लव की कोमल छाया प्राप्त होती है। इसके बाद वेदारम्भ संस्कार की वास्तविक शुरूआत होती है।

वेदारम्भ संस्कार में छात्र को ब्रह्मचर्य के कठोर अनुशासन में रहना रहता था साथ ही कछ विशिष्ट अभ्यासों की व्यवहारिक साधना करनी पड़ती थी इस संस्कार के बाद छात्र वेद का अध्ययन करते थे। इस पद्धति में मानव जीवन का एक लक्ष्य तो बनाया ही गया था साथ ही उस लक्ष्य प्राप्ति के लिये यथार्थ ज्ञान प्राप्त करने की रूप रेखा भी प्रस्तुत की गयी मुण्डक उपनिषद में कहा गया है कि ब्रह्म साक्षात्कार सत्य ज्ञान के उपरान्त ही होता है। उपनिषद में कहा गया है कि मानव जीवन का मूल उद्देश्य ब्रह्म साक्षात्कार है और यह तभी संभव है जब समस्त शंकाओं का निराकरण होगा। वैदिक काल में कठिन साधना तथा उपनिषदों के काल में आत्म चिंतन इस शिक्षण पद्धति का अनिवार्य तत्व है।[12]

वेदों के अध्ययन एवं विशिष्ट ज्ञान देने के लिये आचार्य रहते थे जो दीक्षित छात्रों के साथ गुरूकल में रहते थे। गुरू छात्रों को ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते तथा संयमित जीवन जीने की प्रतिज्ञा करवाते थे।

अध्ययन प्रणाली में श्रवण, मनन निदिध्यासन तीनों मनोवैज्ञानिक प्रणाली अपनायी जाती थी।[13] श्रवण में ध्यान से शिक्षक की बातें, मनन के द्वारा बौद्धिक विश्लेषण तथा निदिध्यासन द्वारा अर्थ की अनुभूति करायी जाती थी।

उनकी दैनिक शिक्षा में व्यवहारिक, मानसिक तथा नैतिक तीनों ही प्रकार की शिक्षा सम्मिलित थी। गुरू की महत्ता छात्र के मार्गदर्शन के कारण ही थी। छात्र के लिये आवश्यक था कि वह स्वाध्यायपूर्वक गुरू के उपदेशों को सुने और तात्विक तथ्यों के प्रत्ययीकरण के लिये अपने अनुभव तथा आत्मचिंतन से प्राप्त तथ्यों का हृदयांगम करे।

उपनिषद काल में विषयों की विविधता के कारण विद्यालयों की संख्या बढ़ गयी थी और ज्ञानार्जन की अवधि सामान्यतः 12 वर्ष थी।[14]

इस अध्ययन काल में छात्र को कठोर अनुशासन व्रत में रहना पड़ता था साथ ही कुछ विशिष्ट अभ्यासों की व्यवहारिक साधना करती पड़ती थी। प्रत्येक गुरू हमेशा यह प्रयत्न करता था कि उसका छात्र सदैव ब्रह्मचारी जीवन जीये। इस समय गुरू और छात्र का सम्बन्ध अत्यन्त मधुर तथा मित्रवत था।   इसमें गुरू, छात्र से अग्नि के सामने प्रतिज्ञा करवाता था। छात्र से यह आशा की जाती थी कि वह गुरू की परिचर्या के साथ ही साथ अपने गुरू की यज्ञशाला की अग्नि सदैव प्रज्जवलित रखेगा। छात्रों के कर्त्तव्य के साथ ही गुरू के उत्तरदायित्व को भी बताया गया है। शिष्य के रहन-सहन, पालन-पोषण की जिम्मेदारी गुरू लेगा। अपने शरण में आये हुए प्रशान्त चित्तात्मा तथा क्षमदमादि गुणों से विभूषित शिष्य को अविनाशी ब्रह्म का तात्विक ज्ञान करा देना, गुरू अपना परम कर्त्तव्य समझता था।

यथायः प्रवहता भरित यथामासा अर्हवरम
एव मां ब्रह्मचारिणी धातरायन्तु सर्वतः स्वाहा[15]
अर्थात् जिस प्रकार बहता हुआ जल प्रवाह समुद्र तथा महीने तथा दिनों का अंत करने वाले संवत्सर रूप काल में समाविष्ट होते हैं उसी प्रकार ब्रह्मचारी लोग मेरे पास आए। अतः इसमें छात्र पूर्ण दीक्षित हो जाता है।

समावर्तन -

समावर्तन उपदेश को दीक्षांत भाषण कहा जाता है। आत्मिक ज्ञान से आभामय होकर ज्ञान की ज्योति लेकर ब्रह्मचारी स्नातक होकर जब घर लौटते थे उस समय ब्रह्मचारी के निमित्त आचार्य वर्षों के संचित प्रेम से अभिषिप्त हृदयग्राही समावर्तन का उपदेश देते थे।16 यह उपदेश जीवन यात्रा को सुखद, सरल तथा सामाजिक मर्यादा को अक्षुण्ण रखने का सारगर्भित संदेश होता था। इस तरह शिक्षा और संस्कार एक दूसरे के पूरक हैं। आधुनिक समय में विद्यारम्भ, वेदारम्भ और समावर्तन संस्कार परिवर्तित रूप में विद्यमान है। विद्यारम्भ तो थोड़े बहुत परिवर्तन के साथ पाया जा रहा है लेकिन वेदारम्भ संस्कार में तो बहुत परिवर्तन आ गया है। अब छात्र गुरूकुल में विद्याध्ययन करने नही जाते जो संस्थाएं अब गुरूकुल पद्धति चलाती है बहुत कम संख्या में रह गयी है। समावर्तन संस्कार दीक्षान्त समारोहके नाम से विश्व्विद्यालयों में आयोजित किया जाता है। देश, काल, परिस्थिति के अनुसार संस्कार भी परिवर्तित होते जा रहे हैं। संस्कृतिकरण, पश्चिमीकरण और आधुनिकीकरण का प्रभाव पूरी तरह से संस्कारों पर पड़ा है।

सारांश

यह अध्ययन मुख्यतः संस्कार में शिक्षा की महत्त और शिक्षा से संस्कारित होना दोनों विषयों को समाहित करता है। जहां प्राचीन काल में शिक्षा पद्धति अलग थी, संस्कार की प्रक्रिया भी बड़ी गूढ़ और लम्बी थी। अब संस्कार की प्रक्रिया लोग अपने समय की कमी और आवश्यकतानुसार बदल लिये है। यह सारे संस्कार अब हो रहे हैं लेकिन बड़े सरल रूप में वैदिक काल में संस्कारों की संख्या सीमित थी और शिक्षण पद्धति और विषय दोनों ही उन्नत थे। छात्र एवं छात्राएं दोनों ही शिक्षा ग्रहण करते थे। उत्तर वैदिक काल, सूत्र काल, महाकाव्य काल में इन संस्कारों में ऐसा परिवर्तन आया या कहें कि लाया गया कि समाज में स्तरीकरण की शुरूआत हो गयी। इस स्तरीकरण के फलस्वरूप विभिन्नताओं ने जन्म लिया। उपनयन संस्कार केवल तीन वर्णों का एवं छात्रों का ही होता था। इस तरह शूद्र वर्ण एवं कन्याएं उपनयन से वंचित रह जाती थी। वेदारम्भ संस्कार चूंकि उपनयन के बाद होता था अतः कन्याएं एवं शूद्र वर्ण वेदों के अध्ययन भी नहीं कर पाते थे।

अब वर्तमान समय में सारे बंधन अब शिथिल हो गये हैं शिक्षा अब सबके लिये उपलब्ध है और संस्कार भी अब समय की धारा में परिवर्तित होते-होते सरल रूप में मंगलकारी और कल्याणकारी रूप में अपनी महत्ता बनाये हुए हैं।

संदर्भ ग्रंथ

1. नंद लाल दशारे, पृष्ठ-4, सोलह संस्कार

2. संस्कार प्रकाश, गीता प्रेस गोरखपुर

3. पं0 रतनचन्द भारिल्ल, पृष्ठ-13, संस्कार

4. यू0आर0 अनन्तमूर्ति, पृ0-08, संस्कार

5. डॉ0 गोविन्द झा एवं डॉ0 धीरेन्द्र झा, पृ0-17, संस्कार पारिजात

6. स्वामी विद्यानंद सरस्ती, पृ0-27, संस्कार भास्कर

7. डॉ0 सुनीता शर्मा, पृ0-16, संस्कार उपन्यास का सार

8. महर्षि दयानन्द सरस्वती, पृ0-10, संस्कार विधि

9. द्विजेन्द्र नारायण झा एवं कृष्ण मोहल श्रीमाली, पृ0-04, हिन्दी माध्यम कार्यान्वय निदेशालय, दिल्ली विश्वविद्यालय

10. विष्णु धर्मरक्षित, पृ0-10, संस्कार पद्धति

11. पं0 भीमसेन शर्मा, पृ0-28, संस्कार चन्द्रिका

12. के0सी0 श्रीवास्तव, पृ0-18, प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति

13. रामशरण शर्मा, पृ0-09, भारत का प्राचीन इतिहास

14. वही

15. डॉ0 इन्दु वीरेन्द्रा, पृ0-21, भारतीय संस्कार

16. उपिंदर सिंह, पृ0-37, प्राचीन एवं पूर्व मध्य कालीन भारत का इतिहास