मानसिक तनाव के बोझ से दबी वर्तमान पीढ़ी
ISBN: 978-93-93166-02-9
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मानसिक तनाव के बोझ से दबी वर्तमान पीढ़ी

 डॉ. एस.एन.वर्मा
असिस्टेंट प्रोफेसर
समाजशास्त्र
महामाया राजकीय महाविद्यालय,
 श्रावस्ती, उत्तर प्रदेश, भारत 

DOI:
Chapter ID: 16646
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आधुनिक युग के बदले हुए समूचे परिवेा/वातावरण जीवन शैली,रहन-सहन, आहार बिहार, संस्कृति-सभ्यता आदि के कारण बाल एवं किशोर मनोविज्ञान में भी अनेक बदलाओं को आज लक्षित किया जा रहा है। किशोरवय में बढ़ती हुई नशाखोरी और हिंसा की वृत्ति अपनी संस्कृति के प्रति उदासीनता का भाव चिंता का विषय है। दर असल देश काल परिस्थिति का प्रभाव बालक व मनुष्य पर अवश्य पड़ता है प्राचीन युग की जीवन शैली अध्ययन सामग्री खेल कूद के व मनोरंजन के आधार के साथ नैतिक आध्यात्मिक शिक्षा का जो प्रभाव था वह प्रभाव आज के कम्प्यूटर के युग में बिल्कुल भिन्न है आज के मशीनीकरण के बुद्धिवादी समय ने बाजारवाद की चोट खाये नैतिक रूप से पीड़ित होते समाज के दुष्प्रभाव बाल मनोविज्ञान व किशोरवय पीढ़ी पर पड़ रहा है अनेक शोध से स्पष्ट है कि बच्चों का बचपन गायब हो चुका है उनमे अनजाने बढ़ी हुई उम्र के लक्षण दिखते हैं। दूसरी ओर शिक्षा के नाम पर खोखले होते जाते बस्तों का बोझ जिसमें संस्कारों और नैतिक मूल्यों को रोपने की शक्ति क्षीण होती जा रही है। सामाजिक प्रभाव से विचार और क्रर्म की दूरी एवं खाई बढ़ती जा रही है। प्रकृति अपने गुणों को जैसे छोड़ रही है वैसे ही मनुष्य और समाज मे इसका जीता जागता स्वरूप दिखायी देता है आज मानसिक तनाव से सबका नाता बन चुका है। देश काल समाज में ऐसी परिस्थितियां हैं और ऐसे व्यवस्थागत उपक्र्रम हैं तथा रोजमर्रा की जिन्दगी के अवसर विलुप्त होते जा रहे हैं यही कारण है कि बाल व किशोरवय में मानसिक तनाव में वृद्धि हो रही है। और उनमें असहिष्णता तथा हिंसा के भाव सदैव तीव्र हो रहें हैं। समाज में भेद-भाव लिंग- भेद, स्त्री-भेद रंग-भेद अश्पृष्यता और आर्थिक विषमता आदि से युवा पीढ़ी नित दो चार हो रही है। उसके सामने एक और राम राज का स्वप्न है तो दूसरी और विचित्र कलिकाल की परिस्थितियां है मत्स न्याय का बोल बाला और वाहुबलियों को फलता फूलता देख स्वाभाविक जीवन छंद रूक सा गया है। उसे प्रतीत हो रहा है कि भय-धन-बल, पशुबल, ही सब कुछ है उसे शिक्षा के द्वारा दिये जा रहे मूल्य बेकार लगने लगते हैं जिसका परिणाम चिड़चिड़ापन, विमुखता, उदासीनता, पलायनवाद, अवसाद या हिंसक वृत्ति आदि अनेक रूपों में सामने आ रही है नशाखोरी भी उनमें से एक है। एक प्रकार से दिशाहीन और भटकी हुई पीढ़ी के साथ आज का समाज हर स्तर पर मानसिक तनावों का शिकार हो रहा है। शास्वत मूल्यों के साथ चलने और सत्य को जीने की कठिनाई उसका रास्ता और भी कठिन कर रही है। क्योंकि सम्पूर्ण समाज में ही भटकाव की स्थिति हैं। इससे माता-पिता का मनोविज्ञान भी परस्पर एक दूसरे को प्रभावित कर रहा है और बाल मनोविज्ञान तथा पोषण एवं सतत् जीवन पर भी इसका दुष्प्रभाव प्रड़ता है। मानसिक समस्याओं से मनोवैज्ञनिकता का सम्बन्ध है इसे सही सन्दर्भ में समझने एवं सामने वाले को उचित रूप में जगह देने की आवश्यकता है ताकि दोनों के सन्दर्भ में परस्पर एक दूसरे को पहले भली-भांति समझ सकें। उसके लक्ष्य उद्देश्य व मनोभाव को सही तरीके से समझना आवश्यक है। इससे परस्पर समझ एवं मानसिक समस्याओं का एक हद तक समन संभव है। जियो और जीने दोकी परिस्थितियां इसी प्रकार प्राप्त होंगी। इसके मुताबिक वातावरण का सृजन समाज के लिए जरूरी है। इस मार्ग में आने वाली हर तरह की चुनौतियों का सर्वप्रथम मनोवैज्ञानिक अध्ययन होना आवश्यक है। तथा उसके सांस्कृतिक समाधान एवं सामाजिक समाधान करना आवश्यक है। पाठ्य सामाग्री में आदर्शात्मक पृष्ठिभूमि नैमिक मूल्यों के साथ व्यावहारिक समाज में जमीनी स्तर पर इसके सटीक परिणाम प्राप्त करने हेतु ईमानदारी से हर प्रकार के प्रयत्न करने होंगे। आर्थिक भ्रष्टाचार, अपराधीकरण, असंवेदनशीलता आदि पर प्रकृति चक्र के दृष्टिकोण से भी कार्य करने की जरूरत होगी। इसके वगैर मानसिक तनाव से रहित समाज की परिकल्पना करना भी व्यर्थ है। इसी के साथ भेद-भाव छुआछूत ऊच-नींच किसी भी प्रकार की असमानता का होना घातक है। जो किसी भी समाज को रोगग्रस्त बनाकर छोड़ता है। कई तरह के अन्य दबाव भी मनुष्य समाज पर पड़ते हैं और विभिन्न कारणों से जाने अनजाने स्वयं समाज अपने लिए कई तरह की समस्यायें उत्पन्न कर देता है। कई बार कुछ समस्याओं के समाधान में अन्य समस्याओं को जन्म दे देता है। इस प्रकार सम्पूर्णता में हर पक्ष से पूर्ण अवलोकन किये बिना समाज के लिए लागू करना भी सदैव हितकर नही होता। आधुनिक समय में संस्कृति और नैतिकता के विरुद्ध संवेदनागत और व्यवस्थागत श्रृंखला के निरंतर बिगड़ते रहने से मानव समाज पर तनाव और दबाव बढ़ गयें हैं। अकेलापन अजनवीपन संत्रास कुण्ठा अभावजन्य मलिनता तथा तुलना के कारण समाज के दबाव बढ़े हैं। अनजाने एकांगी तौर तरीकों या प्रदूषित मानसिक सामाजिक रानीतिक अराजकता इसके लिए खास तौर पर जबाव देह होती है। चाहे वह परिवार में हो अथवा समाज में।

पूर्व व्यवस्थागत मानदण्डों के बदलते जाने और आधुनिक युग में पसरते हुए बाजारवाद के दबाव एवं विदेशी माडलों का प्रभाव तथा भौतिक सम्पन्नता की चाह के आज के समय में व्यापक बदलाव के साथ विश्वग्राम की परिकल्पना के बीच विदेशी संस्कृतियों में भारतीय सांस्कृतिक मूल्य चेतना में विक्षेप पैदा किया है। भारतीय समाज अपनी भाषा संस्कृति आदि की विशाल गहन धरोहर को भुलाकर विदेशियों के मुह जोहने लगा है और लेखक अपने देश के भाषा संस्कृति और परिवेश तक को भुला चुके हैं। यह अजीव विडम्बना का विषय है। समाजशास्त्रियों के अतिरिक्त अन्य को भी यह समझने की आवश्यकता है कि विदेशी सभ्यता संस्कृति के बीच उनके मानसिक तनावों की वृहद स्थितियां हैं। वे अपनी स्थिति से भयाक्रांत होकर भारतीय सभ्यता और संस्कृति तथा उसके आचार विचार व्यवहार की ओर टकटकी लगाये हुए हैं। बहुमार्ग के बीच इस प्रकार से चयन तथा उसकी कठिनाइयांे का मनोवैज्ञानिक दबाव विभिन्न तरह के समाजों पर है। इसका स्पष्ट लक्षण विभिन्न देश के समाज संस्थाओं समूहों उनके कार्य करने के तौर तरीकों में स्पष्ट तौर पर दिखायी देता है। जिसकी समय-समय पर समीक्षा देखने सुनने को मिलती है। आधुनिकों मनोवैज्ञानिकों के सिद्धान्तों के अनुसार बाल मनोविज्ञान किशोर मनोविज्ञान स्त्री मनोविज्ञान तथा प्रभावी मनोविज्ञान के बीच मानव मनोविज्ञान की इन कसौटियों पर देखें तो स्वतः यह सब स्थितियां प्रकट होती दिखायी देती हैं। मनोवैज्ञानिक परामर्श दाताओं के सामने सही सलाह देने की चुनौती होती है। आजकल समाचार-पत्रों में मनोवैज्ञानिक स्तम्भों के प्रकाशित होने से उनके साधारण अध्ययन के उपरान्त प्रायः प्रत्येक जन को उसमे अपनी शूरत दिखायी देती है। यह महसूस होता है कि अमूक सारी समस्याओं के लक्षण हमारे अथवा जिनपर दृष्टि जाती है उनकी है। अतः यह चुनौती पूर्ण है। अन्य देशों में मनोवैज्ञानिक समस्यायें इतनी उदग्र हैं कि वहां नगरीय व्यवस्था में जगह-जगह मनोवैज्ञानिक सलाहकारों की क्लीनिक है। समूचा विश्व आज यही कारण है कि पतंजलि के योगदर्शन और भारतीय वांङमय की मीमांशा के तत्वों को जानने समझने हेतु अत्यन्त छटपटा रहा है। उसे लगता है यहां एक ठौर मिल सकती है। दरअसल विदेशी समाजों में अब त्याग संयम आदि की विशेषताओं को पहचानना शुरु किया है।

युवा या किशोरवय किसी भी समाज राष्ट्र का महत्वपूर्ण भाग होता है यदि वह मानसिक तनाव में है तो विकास की परिकल्पना नहीं हो सकती बेराजगारी आत्महत्या बाजारवाद का जाल युवा पीढ़ी को मानसिक बोझ के तले दबा रहा है। सामंती मानसिकता से ग्रसित जन चाहे वे सामान्य जीवन यापन कर रहें हो अथवा महत्वपूर्ण पदों पर हों साधारण किसान मजदूर के लिए एक समस्या हैं। स्पष्ट तौर पर यह देखा जा सकता है कि इसके पीछे संस्कार भ्रष्ट एवं धनलिप्सा प्रधान कारण है। प्रभाव एक ऐसी सामाजिक समस्या के रूप में है जो स्थितियों के सहज होने में सबसे अधिक बाधक है। नकारात्मक अनेक परम्पराओं रीतिरिवाजों प्रथाओं को कुछ न कुछ हटाने या टालने में हम सक्षम हो रहें हैं यह सुखद है। किन्तु उपर्युक्त बातों के आलोक में आमूल चूल परिवर्तन अनिवार्य है तभी सुख समृद्धि आनन्द न्याय आदि की परिकल्पना पूर्ण होकर सामाजिक अवसादों मानसिक तनावों से बचा जा सकेगा। युवा वर्ग के साथ ही स्त्री एवं वृद्ध वर्ग एक ऐसी कड़ी है जो पीढ़ियों के बीच श्रोत एवं सेतु का कार्य करती है। परम्परा और आधुनिकता के मध्य आज की समस्याओं के बीच झूलती हुई युवा पीढ़ी के समक्ष त्रासदियों की श्रृंखला मौजूद है जिसे देखकर इस समय को मानसिक संकट के युग के नाम से पहचाना जा सकता है। आर्थिक विषमता इसमें मुख्य भूमिका इसमे अहम हो सकती है खास करके निर्धनता। द्वंद्वात्मक मनोविज्ञान और मानसिक तनाव को समाप्त करने हेतु इन मूलभूत समस्याओं के परिप्रेक्ष्य में संक्रमणशील दौर की चुनौतियों को लेकर रोजगार देने एवं जरूरी आत्मीयता शिक्षा हेतु सृजनशील वातावरण जीवन हेतु प्राकृतिक वातावरण एवं निरोग रहने हेतु इसे सहायक वातावरण के रूप में लेकर प्राचीन वैदिक परम्परा को समाहित करते हुए अत्याधुनिक चिकित्सा पद्धति का आपसी सम्मेल करते हुए आगे बढ़ने की आवश्यकता है। जरूरी व्यक्ति स्वातंत्रय इसके लिए आवश्यक है ताकि उपयुक्त वातावरण का सृजन हो सके किन्तु यह गौर करने की बात है कि यह तभी ठीक से संभव है जब संपूर्ण वातावरण को स्वस्थ बना लिया जाये।

भारतीय देश समाज के सन्दर्भ में यह न तो अविकसित समाज है और न विकसित बल्कि यह विकासशील देश है जो आर्थिकी के पड़ा पर चढ़ने के भी क्रम में है-

 

दो भिन्न दशायें और मनोदशायें मानसिक अवसादों को रचती हैं तकनीकी संचार क्रांति वैषम्य व अलगाव, दूरी तथा खाईं इसे बढ़ाने में निरंतर योगदान देती हैं। समाजीकरण की प्रक्रिया में अनेक प्रकार की परिवर्तित सोंच सुखमय सुगम्य जीवन में बाधा अवसाद और विदु्रपता तथा प्राप्ति की छटपटाहट और केन्द्र में रहने की चुनौती इस सबके मूल में है। यह केवल मनुष्य और मनुष्य के बीच की चुनौती नहीं है बल्कि समाज से दूसरे समाज के वीच की भी चुनौती है। जिसे अन्य अनेक स्थितियों में भी भोगना देखना और निर्वहन करना होता है।

निःसंदेश विचार और कर्म ही ऐसे मानक तत्व हैं जिनसे वातावरण का सृजन होता है। यह तीनों मिलकर मानसिक तनावों की मनोदशा की विभिन्न स्थितियों की उपज बनते हैं। इसीलिए सभी समाजों में इसके निमित्त विचारकों द्वारा कुछ ऐसे मानदण्ड स्थापित किये जाते हैं जिनसे प्रायः इन समस्याओं का समन होता रहे और समाज स्वस्थ रूप में स्वयं को पा सके। मानसिक स्वास्थ्य में विकृतियों से बचाने हेतु कठिन चुनौतीपूर्ण स्थितियों के होते हुए भी कुछ ऐसे सूत्र तलासे और अवगत कराये जाते हैं कि जिनसे सुगमता हो सके। भारतीय समाज ही नही पश्चिीमी समाजों में भी वर्तमान पीढ़ी के समक्ष चुनौतियों की स्थिति वर्तमान है। मानसिक बोझ को कम करने या टालने के लिए अनेक तरह के यत्न यह समाज करता है रहा है। साहित्य संगीत कला लोक नृत्य लोक गायन तथा दार्शनिक पृष्ठभूमि के अतिरिक्त वाह्य या शारीरिक तौर पर स्वस्थ्य हेतु लोक खेलकूद आदि का प्रचलन है। योग ध्यान आदि द्वारा भारतीय और पश्चिमी समाज को मानसिक रूप से स्वस्थ बनाने और अनुकूल वातावरण उपलब्ध कराने का प्रयास भी अत्यन्त सराहनीय है। आशा के अनुकूल भारतीय और पश्चिमी समाज के मनीषियों समाजशास्त्रियों मनोवैज्ञानिकों और सरकारों को चाहिए कि सभी परस्पर आपसी ताल मेल से गहन मंथन के द्वारा मानसिक समस्याओं/तनावों से निजात पाने हेतु समाज को स्वस्थ वातावरण उपलब्ध कराने हेतु निरंतर सही दिशा में प्रयत्नशील हों।