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साहित्य की सामाजिक अनुभूतियां ISBN: 978-93-93166-54-8 For verification of this chapter, please visit on http://www.socialresearchfoundation.com/books.php#8 |
साहित्य की सामाजिक अनुभूतियां |
डॉ मनोज कुमार सिंह
असिस्टेंट प्रोफेसर
हिंदी विभाग
महर्षि यूनिवर्सिटी ऑफ़ इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी
लखनऊ उत्तर प्रदेश, भारत
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DOI:10.5281/zenodo.13374257 Chapter ID: 19065 |
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साहित्य का अपनी भाषा से गहरा सामाजिक सम्बन्ध है इस भाषिक समाज को एक बनाये रखने वाले सूत्र का एक सिरा उस समाज के निचले हिस्से तक जाता है तथा दूसरा सिरा सबसे ऊपर के स्तर तक जाता है। कालिदास से लेकर जयदेव तक विद्यापति ,कबीर, सूर ,तुलसी ,मीरा , जायसी , प्रेमचंद , रवीन्द्रनाथ ठाकुर , निराला आदि सभी कवियों ने साहित्य को समाज से जोड़ा है। इसी प्रकार प्रेमचंद के साहित्य में भी साहित्य और समाज के संबंधो कीओर दृष्टि डाली गयी है। साहित्यकार द्रष्टा भी है और सृष्टा भी है। उसकी आँखे समाज को देखने के लिए पूरी तरह खुली हुई हैं। साहित्य समाज से प्रेरणा और जीवन ग्रहण करता है। समाज में मनुष्य के एकाकीपन से उत्पन्न उदासीनता को साहित्य मनोरम क्षणों में बदल देने क्षमता रखता है। साहित्यकार अपनी कल्पना की विलक्षण शक्ति से भविष्य का निर्माण करता है इसके साथ ही वह समाज का मार्गदर्शनभी करता है। सामाजिक चेतना से जुड़े सहित्य के प्रमुख सरोकार व्यक्ति और उसका परिवेश , समाज और राजनीति , साहित्य और संस्कृति , सामाजिक चेतना की विविध आयाम और समसामयिक मुद्दे हो सकते हैं। व्यक्ति समाज की इकाई है। अतः व्यक्ति और उसके परिवेश तथा युग की घटनाओं का साहित्य में चित्रित होना स्वाभाविक है।प्रेमचंद का साहित्य व्यक्ति और उसके परिवेश के चित्रण का एक उत्कृष्ट उदाहरण कहा जा सकता है। साहित्यकार के माध्यम से साहित्य और समाज को जोड़ने वाला प्रत्येक कारक सामाजिक सरोकार का आधार है। साहित्यकार एक व्यक्ति के तौर पर स्वयं भी प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करता है और समाज को भी इसके लिए प्रेरित करता है। साहित्य ने परदा प्रथा , सती प्रथा , बाल विवाह , जनसंख्या वृद्धि और कन्याभ्रूण हत्या जैसी सामाजिक समस्याओं पर नियंत्रण पाने में काफी महत्त्पूर्ण भूमिका निभाई है। साहित्य उसी मानव की अनुभूतियों , भावनाओं और कलाओं का साकार रूप है और मानव एक सामाजिक प्राणी है। सामाजिक समस्याओं , विचारों तथा भावनाओं का जहाँ वह स्रष्टा होता है , वहीं वह उनसे स्वयं भी प्रभावित होता है।साहित्य का अर्थ है - जो हित सहित हो। भाषा के माध्यम से ही साहित्य हितकारी रूप में प्रकट होता है। भाषा मनुष्य की सामाजिकता को विशेष रूप से पुष्ट करती है। उसी के द्वारा मानव - समाज में एक-दूसरे के सुख -दुःख में भाग लेने का सहकारिता का भाव उत्पन्न होता है। साहित्य मानव समाज के संबंधों को और भी अधिक मजबूती प्रदान करता है। हमारे सामाजिक जीवन की उन्नत सुव्यवस्था और परिपूर्णता के लिये शांति और सहयोग की आवश्यकता है। केवल मधुर वाणी के माध्यम से आप दूसरों से मनचाहा कार्य करा सकते हैं। साहित्य समाज में प्रचलित गलत , भ्रांतिपूर्ण तथा अन्याय - अत्याचार का समर्थन करने वाली रूढ़ियों , मान्यताओं आदि का विरोध तो करती ही है साथ ही उनके विरुद्ध आवाज़ उठाने का कार्य करती है। समाज और साहित्य का सम्बन्ध अनादि काल से है। एक तरफ जहाँ वाल्मीकि ने अपनी रामायण में सामाजिक व्यवस्था का चित्रण किया, वहीं तुलसी दास ने भी अपने समय की सामाजिक परिस्थितियों से प्रभावित होकर रामराज्य को मानव समाज के सम्मुख आदर्श रूप में प्रस्तुत किया। साहित्य समाज का प्रतिबिम्ब है। साहित्य और समाज एक - दूसरे को प्रभावित करते रहते हैं। दोनों में आदान - प्रदान तथा क्रिया - प्रतिक्रिया भाव चलता रहता है। किसी भी जाति , संप्रदाय या धर्म की जो मान्यताएं और विचार होतें हैं उन्हीं के अनुसार उसके साहित्य का निर्माण होता है। साहित्य हमारे अमूर्त और अस्पष्ट भावों को मूर्त रूप देने में समर्थवान बनाता है। साहित्य का प्रभाव व्यापक है ,साहित्य में मानव का जीवन ही नहीं , जीवन की कामनाएं भी निहित होतीं हैं। हमारे कवियों , लेखकों ने जो कुछ लिखा है , वे साहित्य कहलाता है। साहित्य में हर प्रकार की रचनाएँ सम्मिलित हैं साहित्य हमारे सामने ऐसा दर्पण बनकर विद्यमान हो जाता है , जिसमें हम अपने समाज के प्राचीन और नवीन स्वरुप को देख सकते हैं। इसलिए ही कहा गया है साहित्य समाज का दर्पण है। हमारे देश का इतिहास इसी साहित्य में सिमटा पड़ा है। साहित्यकार के माध्यम से कुरीतियों को हटाने एवं क्रांति लाने का प्रयास किया जाता है। भारतीय साहित्य बहुत विशाल है उसे अनेक कालों में विभक्त किया गया है। इस तरह हम रचनाओं को उस काल की विशेषताओं के आधार पर व्यवस्थित कर विभक्त कर देते हैं। उनका अध्ययन करने पर हमें पता चलता है कि उस समय समाज में किस तरह की परिस्थितियाँ विद्यमान थी। समाज अपनी सम्पूर्ण परम्पराओं , संस्थाओं एवं संगठनों को सहजे हुए भी सामाजिक जीवन की एक परिवर्तन और प्रगतिशील व्यवस्था है। यह व्यवस्था ऐसी है जिसमें मनुष्य जन्म लेता है और अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए इस व्यवस्था और आवश्कयकताओं को संजों कर रखता है। क्योकि समाज में अनेक प्रकार की क्रियाओं और प्रतिक्रियाओं का अस्तित्व होता है। साहित्य इन्हीं क्रियाओं , प्रतिक्रियाओं को सहेजता है, इसलिए साहित्य समाज के बिना अधूरा है। समाज और साहित्य एक दूसरे के इतने पूरक हैं कि आदिकाल से आज तक वे एक दूसरे पर आश्रित हैं और एक दूसरे के लिए प्रेरणा का स्रोत बने हुए हैं। पुराने दौर से ही मनुष्य साहित्य प्रेमी रहा है। समाज की प्रत्येक छोटी - बड़ी धड़कन , स्थिति परिस्थिति , भावना एवं विचारधारा को साहित्य ने समाहित किया है। साहित्य समाज की आत्मा है। साहित्य के द्वारा ही सभ्य समाज की स्थापना की जा सकती है। वह मनुष्य को जीने की राह दिखाता है। साहित्य समाज के लिए एक नई दिशा और मार्ग का निर्माण करता है। साहित्य और समाज सुई और धागे के सामान है जो एक दूसरे के बिना निरर्थक हैं। पाश्चात्य लेखकों के अनुसार समाज वह साधन है जिसे मनुष्य ने स्वयं अपनी अनियंत्रित प्रकृतियों के परिणामों के विरुद्ध अपनी रक्षा के लिए बनाया है। समाज सामाजिकता को सुविधा और संरक्षण प्रदान करता है इसलिए वह उसके लिए अनिवार्य होता है। साहित्य समाज को एक नई दिशा , दृष्टि और अर्थवत्ता प्रदान करता है। साहित्य के द्वारा ही साहित्यकार समाज में व्याप्त विकृत व्यवस्था के विरोध में आवाज़ उठाता है। साहित्य समाज के दर्पण से अधिक जीवंत होता है क्योंकि साहित्य ही मनुष्य को भूतकाल से लेकर वर्तमान तक जोड़ता है और भविष्य के समाज के निर्माण के लिए मनुष्य को नई दिशा और आयाम प्रदान करता है। साहित्य में प्रचलित प्रत्येक अवधारणा का अपने समाज और परिवेश के साथ गहरा सम्बन्ध होता है। हिंदी साहित्य के बारे में बात की जाए तो आदिकाल से लेकर भक्तिकाल , रीतिकाल , छायावादी युग , प्रगतिवादी युग एवं प्रयोगवादी युग कुछ विशेष अर्थों में सामाजिक कहें जाते हैं। रीतिकालीन साहित्य का जुड़ाव आम जनता के सुख - दुःख से नहीं था इसलिए वह साहित्य उत्तम साहित्य नहीं कहला पाया। इसके विपरीत जब हम आधुनिक काल के साहित्य की बात करते हैं तो हम पाते है कि इस काल के साहित्य में साहित्यकारों ने अपने समय के मानव जीवन की आशाओं - निराशाओं , सुखों - दुःखों आदि का सजीव चित्रण किया। यही समाज को छोड़कर वह अलग नहीं रह सकता है। साहित्य और समाज के संबंधो की चर्चा आजकल जोरों पर है वास्तव में मानव जीवन के स्नेह पूर्ण रागात्मक विकास जो समाज में जन्म से लेकर फलते -फूलते है का नाम साहित्य है। इसलिए साहित्य और समाज के पारस्परिक संबंधों की उपेक्षा नहीं की जा सकती। साहित्य वह है जो इस समिष्ट से साहित्यकार की चेतना के बाद उत्तपन्न होता है। समाज और साहित्य का स्वतंत्र सिद्धांत १९ वीं शताब्दी के अंतिम चरण में उभरकर सामने आया। भारत में आरम्भ से ही काव्य के स्वतंत्र अस्तित्व की स्वीकृति मिलती है। भरत ने नाट्य कला कला को चारों वेदों से पृथक पंचम वेद की संज्ञा दी है। उसी तरह कुंतक , मम्मट , आनंदवर्धन आदि को भी उदाहरण स्वरुप लिया जा सकता है, किन्तु अधिकांश विद्वानों ने साहित्य और जीवन के सम्बन्धो को स्वीकार कर उसकी स्वतंत्र सत्ता का धिक्कार किया और समाजवादी आलोचकों ने इसे विसंगतिपूर्ण माना है। उनकी स्पष्ट धारणा है की साहित्य की उपज समाज की देन होती है। साहित्य का मूलाधार मानव जीवन है। वह मनुष्य की आंतरिक वेदनाओं की अभिवक्ति भी करता है। समाज में जब व्यक्ति अपने सामाजिक , सांस्कृतिक एवं राजनैतिक वातावरण से प्रभावित होकर अपने विचारों को प्रकट करता है तो इस प्रकार की विचारधारा को साहित्यिक विचारधारा कहा जाता है। इसलिए आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने कहा है कि” साहित्य समाज का दर्पण होता है”। कहा जाता है कि समाज के लिए साहित्य एवं साहित्य समाज का होना अति आवश्यक है। वास्तव में समाज में जो चल रहा होता है उसका प्रतिबिम्बन साहित्य में होता रहता है। साहित्य और समाज के सम्बन्धो के बारे में विभिन्न साहित्यकारों द्वारा यह धारणा बहुत पहले ही प्रचलित हो चुकी है कि किसी भी जाति के साहित्य का इतिहास उस जाति के सामाजिक एवं राजनितिक वातावरण को ही प्रतिबिंबित करता है या साहित्य की प्रवृत्तियाँ सम्बंधित समाज की सूचक होती हैं।फिर भी इस धारणा को एक व्यवस्थित - सिद्धांत के रूप में देने का श्रेय तेन को है जिन्होंने अंग्रेजी साहित्य के इतिहास में प्रतिपादित किया है कि - साहित्य की विभिन्न प्रवृत्तियों के मूल में तीन प्रकार के तत्व सक्रिय रहते हैं जाति, वातावरणतथाक्षण विशेष। निष्कर्षतः साहित्य का अपनी भाषा से गहरा सामाजिक सम्बन्ध होने के साथ सामजिक चेतना से जुड़ा हुआ है। साहित्यकार के माध्यम से समाज को जोड़ने वाला प्रत्येक करक सामाजिक सरोकार का आधार है। साहित्य मानव की अनुभूतियों ,भावनाओं और कलाओं का साकार रूप हने के साथ- साथ समाज का प्रतिबिम्ब है। समाज और साहित्य एक दूसरे के पूरक हैं। साहित्य समाज की आत्मा होने के साथ साथ साहित्य के द्वारा सभ्य समाज की स्थापना की जा सकती है। इसके साथ -साथ साहित्य समाज को एक नई दिशा, नई दृष्टि और अर्थवत्ता प्रदान करता है।अतः साहित्य समाज का दर्पण है। संदर्भ ग्रन्थ सूची 1 - सुभाष कुमार ,साहित्य और समाज का सम्बन्ध , आर एच आई एम् आर जे, अंक - 7 , जून २०२० 2 - आनंद प्रकाश ,साहित्य के सामाजिक सरोकार , आई जे सी आर टी, अंक -1 ,फरवरी 2013 . 3 - सैयद दाऊद रिज़वी ,साहित्य और समाज का अन्तर्सम्बन्ध, सेतु , 2022 . 4 - अर्जुन चव्हाण ,आधुनिक हिंदी कालजयी साहित्य, राधाकृष्ण प्रकाशन , नई दिल्ली , 2009 . 5 - राहुल सांकृत्यायन ,मानव - समाज, किताब महल , इलाहाबाद , 1942 6 - रवींद्रनाथ मुखर्जी ,सामाजिक विचारधारा, मसूरी , सरस्वती सदन , 1964 7 - रामबिहारी सिंह तोमर ,समाजशास्त्र की रूपरेखा, आगरा , श्री राम मेहरा एंड कंपनी , 1970 . 8 - सम्पूर्णानन्द ,समाजवाद, काशीविद्यापीठ बनारस संवत 2004 . 9 - आचार्य रामचंद्र शुक्ल, हिंदी साहित्य का इतिहास . 10 - आर पी वर्मा ,साहित्य और समाज . 11 - महावीर प्रसाद द्विवेदी ,साहित्य की महत्ता . |