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बीकानेर रियासत के उत्थान में रायसिंह की भूमिका |
डॉ. ट्विंकल शर्मा
सहायक आचार्य
इतिहास विभाग
राजकीय लोहिया महाविद्यालय, चूरू
राजस्थान, भारत
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DOI: Chapter ID: 19107 |
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रायसिंह आधुनिक राजस्थान के बीकानेर रियासत का शासक था। ऐतिहासिक पृष्ठों में इस मरू प्रदेश को जांगल देश कहा गया है। मारवाड़ के राठौड़ राव बीका के द्वारा इस क्षेत्र को विजय करने के उपरान्त इसको बीकानेर कहा गया। इस राज्य की सीमाएं उत्तर में फिरोजपुर और दक्षिण में जोधपुर राज्य के साथ मिलती है। 15वीं शताब्दी में यहां के मूल निवासियों को हराकर, राव बीका ने राठौड़ राज्य की स्थापना की थी। बीका के इसी वंश में रायसिंह का नाम अग्र गण्य है। यह कल्याणमल का पुत्र था, जो अपने पिता की मृत्यु उपरान्त जनवरी 1574 में सिहांसनारूढ़ हुआ था। वह एक वीर, पराक्रमी एवं मेधावी शासक था। बीकानेर का शासक बनने के पूर्व वह दिल्ली सम्राट अकबर की सेवा में नियुक्त था। सभी पुरातात्विक एवं साहित्यिक साक्ष्यों से इस तथ्य की पुष्टि होती है, इनमें लिखा है- अपने नागौर प्रवास के दौरान अकबर इस युवराज पर मंत्रमुग्ध हो गया था तथा उसकी प्रतिमा से प्रभावित होकर अकबर ने उसको अपना सेवक मनोनीत किया था। उसमें पुनः लिखा है- ‘‘रायसिंह ने सम्राह को गुजरात अभियान में सहयोग प्रदान किया। इस युद्ध में उसने जिस शौर्य का प्रदर्शन किया, उससे प्रभावित होकर अकबर ने सन् 1574 में उसको मारवाड़ का मुगल शासनाधिकारी बनाया’’। अर्थात् गुजरात के मार्ग को निष्कंटक बनाने का उत्तरदायित्व उसको सौंपा ताकि महाराणा प्रताप उस मार्ग को अवरूद्ध नहीं कर सके। जोधपुर राज्य में शासनाधिकारी रूप में रायसिंह अकबरनामा और दयालदास की ख्यात के अनुसार रायसिंह के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर अकबर ने उसे जोधपुर राज्य (मरीवाड़) का शासनाधिकारी नियुक्त किया था। इस नियुक्ति से सम्भवतः अन्य कारण निम्न थे:- 1. गुजरात की अव्यवस्थापर अंकुश 2. महाराणा प्रताप की बढ़ती हुई महित्वकांक्षा 3. सिरोही के देवड़ा शासकों के विद्रोह 4. मालवा में मिर्जा बन्धुओं की बगावत। रायसिंह की जोधपुर राज्य में नियुक्ति उसकी मेध्नीति की पराष्ठका का प्रमाण है। यद्यपि फारसी तवारीखों में रायसिंह को मारवाड़ का शासक नियुक्त करने का उल्लेख मिलता है तथापि उनमें निश्चित तिथि का अभाव है। दयालदास की ख्यात के अनुसार वह तीन वर्षों तक इस पद पर रहा था। इस तथ्य की पुष्टि सन् 1588 के एक दान-पत्र से भी होती है। मिर्जाओं का विद्रोह और रायसिंह यद्यपि पूर्व अभियान में गुजरात पर मुगलों का अधिकार स्थापित हो गया था और उसकी स्मृतियां अभी धूमिल ही नहीं हुई थी कि मालवा और गुजरात पर अधिकार करने के लिए मिर्जा बन्धुओं ने बगावत का झण्डा खड़ा कर दिया। इस बगावत का नेतृत्व इब्राहिम हुसैन मिर्जा, मुहम्मद हुसैन मिर्जा तथा शाह मिर्जा कर रहे थे। अकबर ने इनके दमन हेतु शाही सेनाओं को रायसिंह के नेतृत्व में गुजरात जाने का अदेश दिया। मुगलों की शक्ति से आतंकित होकर हुसैन मिर्जा राजस्थान की ओर आया तथा जालौर होते जुए नागौर पहुंचा। अकबरनामा के अनुसार सन् 1573 के हुसैन मिर्जा के विद्रोह (गुजरात) को भी दबाने का कार्य रायसिंह को सौंपा गया। अन्ततः उसने हुसैन मिर्जा को हराया, उसे बन्दी बनाया तथा रायसिंह के परामर्श से ही उसे मौत के घाट उतार दिया गया। इस शौर्य प्रदर्शन के बदले रायसिंह को सिरसा, हांसी और मारोठ के परगने पुरस्कार में मिले, जिनकी वार्षिक आमदनी एक लाख बीस हजार रुपये थी। चन्द्रसेन की विद्रोह - रायसिंह की भूमिका जोधपुर राज्य की सत्ता से पदच्युत चन्द्रसेन दक्षिण भारत में अपनी शक्ति को केन्द्रित एवं संगठित कर रहा था। अतः भविष्य में उसके आक्रमण के खतरों को समाप्त करने के लिए मुगलों ने चन्द्रसेन के विरूद्ध अभियान किया था। इस सैनिक अभियान का नेतृत्व भी रायसिंह को सौंपा गया था। जोधपुर राज्य की ख्यात के अनुसार रायसिंह ने सन् 1574 में कार्य आरम्भ किया। सर्वप्रथम उसने चन्द्रसेन सर्मथकों को हराया। सोजल में सेनाओं को पुनर्गठित करता हुआ सेनापति कल्ला मारा गया। इसके उपरान्त सन् 1575 में शाहबाजरवां के सहयोग से सिवाना दुर्ग पर अधिकार स्थापित किया। सिरोही शक्ति का दमन अकबर और रायसिंह का समकालीन सिरोही का शासक देवड़ा वंशीय सुरताण था। यह जालौर के ताजखां और मेवाड़ के महाराणा प्रताप के साथ मिलकर उपद्रव कर रहा था। अतः सुल्तान ने सिरोही पर आक्रमण के लिए रायसिंह को भेजा। सिरोही और शाही सेनाओं में नाडोल के निकट युद्ध हुआ, जिसमें विजयश्री रायसिंह के हाथ लगी। पराजित सिरोही शासक सुश्ताण को बन्दी बनाकर दिल्ली सेना भेजा गया। अकबर ने सिरोही की शक्ति को कम करने के लिए उसे दो भागों में बांट दिया। एक भाग पर सुरताण और दूसरे पर जगमाल का अधिकार स्थापित किया। और 1583 में जगमाल को हराकर दूसरे भाग पर पुनः अधिकार कर लिया। इस प्रकार 1583 तक अकबर व सुरताण देवड़ा में किसी न किसी प्रकार युद्ध चलता रहा। कतिपय साक्ष्यों के अनुसार सुरताण और रायसिंह में युद्ध नहीं हुआ बल्कि रायसिंह ने केवल सिरोही का घेराव ही किया था। परिस्थितियों से बाध्य सुरताण ने सन्धि कर अकबर के दरबार में उपस्थित होना स्वीकार कर लिया था। अन्य विद्रोह एवं रायसिंह रायसिंह ने अकबरकालीन निम्न विद्रोहों के दमन में भी सहयोग किया थाः- काबुल विद्रोह:- काबुल में इस समय जो विद्रोह हो रहे थे, उनके दमन का दायित्व मानसिंह को सौंपा गया था। चूंकि मानसिंह अपने दायित्व को निभाने में असफल रहा। अतः उसकी सहायता के लिए रायसिंह को काबुल भेजा। लाहौर:- अकबरनामा के अनुसार 1586 में रायसिंह को राजा भगवानदास कछवाह के सहायोग हेतु लाहौर भेजा था। कन्धार:- अकबरनामा और तबकात-ए-अकबरी के अनुसार कन्धार का विद्रोह दबाने में रायसिंह ने खान-ए-खानम को मदद की थी। अन्य विद्रोह:- इतना ही नहीं उसने अटक, बंगाल, ब्लूचिस्तान, सिन्ध व दक्षिण में दनियान के विरूद्ध अभियान में सहायोग किया था। रायसिंह - सेवाओं का पुरस्कार -बदायूंनी के अनुसार रायसिंह की सेवाओं से प्रसन्न होकर अकबर ने उसे शाही सेना में 4000 का मन्सबदार नियुक्त किया। उपरान्त दक्षिण में उसकी नियुक्ति हुई। इसी अवसर पर उसे जूनागढ़, शम्साबाद और नुरपुर की जागीर भी प्राप्त हुई। जहांगीर का उत्कर्ष और रायसिंह उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि अकबर, रायसिंह की सेवाओं पर मुग्ध था और वह भी अकबर का अच्छा कृपापात्र था। जहांगीर के समय भी यही स्थिति बनी थी। अकबर की मृत्युपरान्त राज्याधिकार प्रश्न पर गृहयुद्ध आरम्भ हुआ था। यह जहांगीर के शासक बनने पर समाप्त हुआ। इस गृहयुद्ध में रायसिंह ने सलीम (जहांगीर) का समर्थन किया था। जहांगीरनाम के अनुसार, जब अकबर मृत्यु शैय्या पर था तो सलीाम ने रायसिंह का समर्थन प्राप्त करने के उद्देश्य से उसे आगरा आमंत्रित किया। पश्चात् अकबर की मृत्यु के बाद सलीम जहांगीर के नाम से सुल्तान बना। जहांगीर ने रायसिंह की इस कृतज्ञता को दृष्टिगत रखते हुए उसे 5000 का बनसबदार बनाया। सम्बन्धों में कटुता इकबालनामा, तुजुक-ए-जहांगीरी और दयालदास की ख्यात के अनुसार जहांगीर के अन्तिम वर्षों में रायसिंह-जहांगीर सम्बन्धों में कटुता उत्पन्न हो गई थी। सम्भवतः इसका कारण राज्य के आन्तरिक षडयन्त्र और अराजकता थी। इस घटनाक्रम में उसका स्थानान्तरण दक्षिण भारत में कर दिया गया। सन् 1612 में बुरहानपुर में ही उसकी मृत्यु हुई थी। मूल्यांकन रायसिंह के जीवन का इतिहास उसकी मुगल सेवाओं में निहित है। उसने जीवनपर्यन्त मूगल राज्य की रक्षा की। राजस्थान के मारवाड़, सिरोही और जालौर के विद्राहों का दमन किया। ब्लोचिस्तान एवं दक्षिण भारत के विद्रोह भी इसी ने दबाये थे। इससे स्पष्ट है कि रायसिंह के क्रियाकलापों से बीकानेर राज्य के मान-सम्मान और गौरव में वृद्धि हुई थी तथा उसे शम्साबाद, नागौर, सौरठ, जूनागढ़ आदि के क्षेत्र पुरस्कार में मिले थे। इतिहासकार पाऊलेट के अनुसार ’’वह 41 सूबों का जागीरदार था।’’ विद्वानों का आश्रयदाता रायसिंह वीर, पराक्रमी और नीति निपुर्ण होने के साथ ही मेधावी था। वह स्वयं कवि था और सरस्वती उसमें निवास करती थी। उसका साहित्य से अनुराग था। उसने अपने समय अनेक विद्वानों और साहित्यकारों को प्रश्रय दिया। उसके राज्य में अनेक ग्रन्थ और टीकाएं लिखी गई। साहित्य प्रेमी रायसिंह ने स्वयं ‘‘रायसिंह महोत्सव’’ और ‘‘ज्योतिष रत्नमाला’’ की रचना की थी। ये रचनाएं उसकी संस्कृत भाषा के प्रति प्रेम की द्योतक है। रायसिंह महोत्सव में रायसिंह तक की वंशावली है। अन्य रचनाओं में अज्ञात कवि की ’’राजा रायसिंह री बेल’’ उल्लेखनीय है। इसमें रायसिंह की प्रशंसा के 43 गीत हैं। डॉ. गो. ही. ओझा के मतानुसार जैन साधु झान मिलन ने महेश्वर रचित शब्दभेद पर टीका, इसी समय लिखी थी। स्थापत्य प्रेमी साहित्य के साथ-साथ वह स्थापत्यकला का पोषक था। बीकानेर का सुदृढ़ दुर्ग, उसकी कलाप्रियता का श्रेष्ठ उदाहरण है। इस दुर्ग का निर्माण रायसिंह के आदेश पर, उसके मंत्री कर्मचन्द ने करवाया था। इस दुर्ग के राजभवन, बगीचे और अन्य स्थल मध्यकालीन शिल्प शैली पर आधारित है। अनेक स्थलों पर मुगल और भारतीय शैली का समिश्रण भी देखने को मिलता है। दुर्ग के अतिरिक्त उसने जैन मन्दिरों का निर्माण और अनेकों का जीर्णोद्धार भी करवाया था। इसकी पुष्टि ओझा द्वारा लिखित ‘‘बीकानेर राज्य के इतिहास’’ से होती है। धार्मिक सहिष्णुता उपर्युक्त ऐतिहासिक साक्ष्यों के अतिरिक्त बीकानेर दुर्ग के भवनों पर रायसिंह की प्रशस्ती अंकित हैं। यह उसके अनेकानेक कार्यों का बौध कराती है। बीकानेर प्रशस्ती के अनुसार वह एक धर्मपरायण शासक था। वह उच्च कौटी का दानप्रिय शासक था। मुंशी देवी प्रसाद उसके अनेक दान कार्यों का उल्लेख करता है। देवी प्रसाद की ख्यात के अनुसार ’’वह उत्सवों, विवाहों आदि पर ब्राह्मणों, चारणों, भाटों आदि को दान देता था।’’ हिन्दू धर्म का पोषक होते हुए भी वह सहिष्णु था। उसने अपने समय अनेक जैन मन्दिरों का जीर्णोद्धार कराया तथा अनेक जैन मूर्तियांे को सिरोही एवं गोडवाना से लाकर बीकानेर में स्थापित कराया। दयालदास ख्यात और राजरसनामृत के अनुसार - ’’वह विजित शत्रुओं के साथ भी सम्मान का व्यवहार करता था, जो उसकी असीम उदारता का द्यौतक थी।’’ |