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आधुनिक हिंदी साहित्य में
गजानन माधव मुक्तिबोध का स्थान: समेकित विवेचना |
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Place of Gajanan Madhav Muktibodh in modern Hindi literature: Integrated analysis | |||||||
Paper Id :
19510 Submission Date :
2024-11-14 Acceptance Date :
2024-11-21 Publication Date :
2024-11-25
This is an open-access research paper/article distributed under the terms of the Creative Commons Attribution 4.0 International, which permits unrestricted use, distribution, and reproduction in any medium, provided the original author and source are credited. DOI:10.5281/zenodo.14556933 For verification of this paper, please visit on
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सारांश |
तार सप्तक के पहले कवि 'मुक्तिबोध जी' जिनका पूरा नाम गजानन
माधव मुक्तिबोध है, हिन्दी
साहित्य के ऐसे कवि हैं जिन्होंने छायावाद से काव्य रचनाएँ आरम्भ की। मुक्तिबोध
भाषा विचार के लिए किसी रूढ़ियों का सहारा नहीं लिया। मुक्तिबोध की समर्थ भाषा उनके
काव्य को प्राणवान बनाने में समर्थ है। आगे चलकर उन्होंने प्रगतिवाद, प्रयोगवाद और नई कविता की युगधाराओं से जुड़ते हुए काव्य संसार में नया
प्रयोग शुरू किया, जो बहुत जल्द प्रचलन में कई कवियों
की रचनाओं में दिखने लगा। इससे चरितार्थ होता है कि वे प्रगतिवादी, प्रयोगवादी और विद्रोही कवि रहे हैं। नारायण मौर्य ने
उनकी रचनाओं के विषय में कहा है कि मुक्तिबोध की काव्य भाषा की बहुत बड़ी शक्ति है। मुहावरों का प्रयोग -
मुक्तिबोध ने अपने काव्य में केवल इनका प्रयोग ही नहीं किया अपितु नये मुहावरों की
रचना भी की है, जो उनकी रचनाओं को बहुत प्रभावी बनाता
है। मुक्तिबोध गहन सामाजिक अनुभूतियों के जनवादी कवि रहे हैं जो सामाजिक चिन्ताओं
और संवेदनाओं से जुड़कर चलने वाले कवि हैं। उनके साहित्य के
अधिकांश भाग में सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक विसंगतियों और विद्रूपताओं पर
प्रहार किया गया है। अंतर्मुखी और मार्क्सवादी विचारधारा से जुड़ने के कारण
मुक्तिबोध ने फैंटेसी का प्रयोग अपने काव्य में अनेक कारणों से किया है। जीवन के
यथार्थ पर मिथ्या और पाखण्ड की अनेक पर्तें जमी हैं और फैंटेसी के द्वारा वे लोगों
तक अपनी बात सहज रूप से पहुँचा पाये।
प्रस्तुत शोध पत्र मुक्तिबोध को एक
आधुनिक हिंदी कवि के रूप में स्थापित करता है और साथ ही उनकी सृजनशीलता का विवेचन
प्रस्तुत किया है। |
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | The first poet of Taar Saptak, 'Muktibodh ji', whose full name is Gajanan Madhav Muktibodh, is such a poet of Hindi literature who started his poetry writings with Chhayavaad. Muktibodh did not take the help of any conventions for language thinking. Muktibodh's powerful language is capable of making his poetry alive. Later, he started a new experiment in the world of poetry by joining the trends of progressivism, experimentism and new poetry, which very soon started appearing in the works of many poets in vogue. This proves that he has been a progressive, experimental and rebellious poet. Narayan Maurya has said about his works that the biggest strength of Muktibodh's poetic language is the use of idioms. Muktibodh has not only used them in his poetry but has also created new idioms, which makes his works very effective. Muktibodh has been a democratic poet of deep social feelings, who is a poet who moves forward by connecting with social concerns and sensitivities. In most of his literature, social, political and economic inconsistencies and distortions have been attacked. Being introvert and associated with Marxist ideology, Muktibodh has used fantasy in his poetry for many reasons. Many layers of falsehood and hypocrisy are deposited on the reality of life and through fantasy he was able to convey his message to the people easily. The present research paper establishes Muktibodh as a modern Hindi poet and also presents an analysis of his creativity. |
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मुख्य शब्द | आधुनिक, हिंदी साहित्य, मुक्तिबोध, कविता, समेकित, संरक्षण, क्रांतिकारी और युग। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Modern, Hindi Literature, Muktibodh, Poetry, Consolidated, Conservation, Revolutionary, Era. | ||||||
प्रस्तावना | गजानन माधव
मुक्तिबोध: व्यक्तिगत
परिचय 13 नवम्बर 1917 को श्योपुर, ग्वालियर, मध्यप्रदेश में जन्मे, आधुनिक हिंदी कविता एवं
समीक्षा के सर्वाधिक चर्चित व्यक्तित्व गजानन माधव मुक्तिबोध पुलिस अधिकारी श्री
माधव राव जी एवं हिंदी वातावरण में पलीं समृद्ध परिवार की धार्मिक, स्वभिमानी एवं भावुक महिला श्रीमती पार्वती मुक्तिबोध के पुत्र थे जिनकी
साहित्य साधना अपनी माता जी के संरक्षण में बचपन में ही प्रारंभ हो गई थी।
प्रेमचंद व हरिनारायण आप्टे प्रारंभ
से ही उनके पसंदीदा हिंदी उपन्यासकार थे जिनकी उपन्यासों ने उनको साहित्य के साथ
विशेष रूप से जोड़ा और
उनके अंदर साहित्य सृजन की तीव्र इच्छा उत्पन्न की जो काव्य और समीक्षा के क्षेत्र
में जीवनपर्यंत बनी रही। 22 वर्ष की आयु में
उनका विवाह 1939 में शांता जी के साथ हुआ। नागपुर
विश्वविद्यालय से 1953, अर्थात बहुत बाद में
उन्होंने एम. ए. (हिंदी) की उपाधि प्राप्त की। साहित्य साधना के दौरान लंबी बीमारी के परिणाम
स्वरुप 11 सितम्बर 1964 को नई दिल्ली में उनका निधन हुआ। उनकी मृत्यु हिंदी साहित्य की बहुत बड़ी
क्षति थी। |
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अध्ययन का उद्देश्य |
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साहित्यावलोकन | विजय कांत दुबे (2024) ने अपने लेख 'शून्य, दि वॉइड बाय गजानन माधव मुक्तिबोध' के
अंतर्गत मुक्तिबोध की प्रशंसा करते हुए लिखा है कि 'गजानन माधव मुक्तिबोध के बारे में बात करने का आशय है कि हिंदी काव्य आंदोलनों, साहित्य के ज्ञात-अज्ञात दिग्गजों और उसके बाद की
काव्य विधाओं की एक के बाद एक चर्चा करना है। उनके बारे में बात करना अज्ञेय, शमशेर बहादुर सिंह आदि पर चर्चा के समान है। शून्य कविता के रूप में वह
स्वयं में सब कुछ नहीं है, बल्कि दूसरों को लेने की
कड़ी में से एक है। उनका लेखन प्रयोगवादी, परोक्ष, मार्क्सवादी, प्रगतिशील और अस्तित्ववादी है। वे
समय से आगे के कवि हैं, लेकिन समय से पहले ही प्रकाश
उसे बुझा देता है। उनकी असामयिक मृत्यु तब हुई जब वह जीवन के उत्कर्ष पर थे।
उन्होंने अपने पीछे साहित्यिक मूल्यों की ऐसी विरासत छोड़ी है जिसका मूल्यांकन उनकी
आशानुरूप उनके जीवनकाल में कभी नहीं हुआ। साहित्य जगत में जिस सम्मान के वह हक़दार
थे, उनके जीवनकाल में वह उनको नहीं मिल पाया। उन्हें
पढ़ना यह महसूस कराता है कि प्रतिभा की धार पुरस्कारों और पुरस्कारों के दायरे से
परे है। प्रतिभा अक्सर बिना मूल्यांकन के ही रह जाती है। ब्रह्मराक्षस, चाँद का मुँह टेढ़ा है, भूरी-भूरी खाक धूल, अँधेरे में, आदि उनकी सर्वश्रेष्ठ रचनाएँ हैं'। ज्योति चंद्रा (2021) ने अपने लघु शोध प्रबंध 'गजानन माधव 'मुक्तिबोध' का इतिहासबोध' के अंतर्गत इस तथ्य का उल्लेख किया है कि ‘मुक्तिबोध 'साहित्य, इतिहास, समाजशास्त्र एवं मनोविज्ञान आदि विषयों
की दृष्टि उनकी रचनाओं में स्पष्ट दिखाई देती है। वह साहित्य और जीवन को एक दूसरे
के पूरक मानते हैं। साहित्य उनके लिए दृष्टिकोण भी है, विचार
भी है और विवेक भी। प्रगतिशील समाज के लिए ज्ञान और संवेदना का होना आवश्यक है
क्योंकि ज्ञान व्यक्ति को तार्किक और प्रगतिशील बनाता है, वहीं संवेदना व्यक्ति को समावेशी दृष्टि प्रदान करती है जिसमें जीवन के
अंतर्भूत तत्व का तर्क संगत विवेचन शामिल होता है।
मुक्तिबोध की रचनाओं में इन पक्षों का स्पष्ट उल्लेख है। कहानी, उपन्यास, डायरी, आलोचना, कविता आदि में उनके रचनात्मक
व्यक्तित्व का व्यापक फलक दृष्टिगोचर है’। मंजू (2019) ने अपने शोध अध्ययन 'गजानन माधव मुक्तिबोध
का काव्य शिल्प- फैंटेसी के रूप में' के अंतर्गत गजानन माधव मुक्तिबोध के जीवन परिचय को प्रस्तुत करते हुए लिखा
है कि ‘गजानन माधव मुक्तिबोध का जन्म श्योपुर, जिला मुरैना में 14 नवम्बर 1917 ई को हुआ था। इनका लेखन कार्य छात्र जीवन
से ही आरम्भ हो गया था। 1938 में इन्दौर में अपनी
बुआ के यहां रहते हुए उन्होंने शान्ता बाई नामक पड़ोस की एक युवती से प्रेम विवाह
किया। मुक्तिबोध द्वारा हिंदी साहित्य और हिंदी कविता के क्षेत्र में दिए गए
योगदान पर टिप्पणी करते हुए लेखिका द्वारा लिखा गया है कि मुक्तिबोध हिन्दी कविता को सर्वथा नवीन दिशा की ओर ले जाने वाले साम्यवादी
विचारधारा को अपना कर चलने वाले, तेजस्वी विचारक तथा
औपचारिकताओं से सदा दूर रहने वाले और साथ ही अभावों से जूझने वाले प्रयोगवादी कवि
थे। मुक्तिबोध की रचनाओं में काव्य-ग्रंथ ‘चांद का मुंह टेढ़ा है’ प्रसिद्ध है। इनके अन्य
ग्रंथों में एक साहित्यिक की डायरी कामायनी एक पुनर्विचार नई कविता का आत्मसंघर्ष ‘भारत इतिहास और संस्कृति’ नामक ग्रंथ प्रमुख
हैं। मुक्तिबोध के समस्त काव्य मूल्यों के मूल में यह अन्तः संघर्ष किसी न किसी
रूप से अवस्थित है। यह कभी समज्ञपत नही होता बल्कि व्यक्तित्व का सामाजिक
अन्तविर्रोध तथा विसंगतियों से बराबर संघर्ष जारी रहता है। मुक्तिबोध के अनुसार, कवि को तीन क्षेत्रों में संघर्ष करना पड़ता है- तत्व के लिए, अभिव्यक्ति को सक्षम बनाने के लिए एवं दृष्टि विकास के लिए। यही कारण है कि
इनकी बहुत सी कविताओं में नवीन परिस्थितियों से पैदा हुई मन स्थितियों का
प्रभावशाली ढंग से चित्रण हुआ है’। दीपक (2017) ने अपने शोध पत्र 'आज के युग में 'अँधेरे में' की प्रासंगिकता' के अंतर्गत अभिव्यक्ति दी है
कि ‘मुक्तिबोध की कविताओं में जिन प्रमुख तत्वों की खोज
और सुनिश्चयन आलोचक और विचारक सामान्यतः करते हैं, वे हैं- अस्मिता की खोज, रहस्यवाद, अस्तित्ववाद, क्रांति, तत्कालीन सामाजिक परिदृश्य आदि
क्योंकि मुक्तिबोध का सम्पूर्ण साहित्य उक्त तत्वों के इर्द-गिर्द
ही घूमता रहता है’। डॉ. पूनम अग्रवाल (2016) ने अपने शोधपत्र जिसका शीर्षक है- 'मुक्तिबोध: एक अवलोकन', के अंतर्गत स्पष्ट किया है कि ‘गजानन माधव मुक्तिबोध 'पत्रकार, विशिष्ट विचारक, कथाकार, कवि और समीक्षक के रूप में समादृत रहे। वह प्रथम- तारसप्तक के साम्यवादी विचारधारा के प्रयोगशील कवि थे जिनकी मान्यताऐं
किसी विशिष्ट घोषणा पत्र से बंधी न होकर अनुभव आधारित थीं। मुक्तिबोध के काव्य में
बौद्धिक रोमानियत है। उनका साहित्य एक ऐसे अथाह
सागर की भांति है जिसके अर्थपूर्ण मोती पाने के लिए बार-बार
सतह तक गोता लगाना होगा। उन्होंने अपनी मौलिक कल्पना विधायनी शक्ति से साहित्य में
नई प्रस्थापनाऐं कायम कीं। उनमें प्रेमचंद जी जैसी सहजता और निश्छलता एवं निराला
की भांति वह संघर्षशील विद्रोही एवं नूतनान्वेषी व्यक्तित्व के धारक थे। उनका
वैचारिक अंतर्द्वंद उनके मानवतावादी दृष्टिकोण का ही प्रतीक है। उनके इस भयंकर
द्वंद के परिणामस्वरूप उनके काव्य में दुर्बोधता व दुरूहता समावेशित है। मृत्यु के
वर्षों बाद आज भी मुक्तिबोध हिंदी के सर्वाधिक चर्चित कवि हैं’।
संपादक (राजकमल प्रकाशन समूह) ने गजानन माधव मुक्तिबोध: 14
Books के अंतर्गत गजानन माधव
मुक्तिबोध की 14 पुस्तकों, यथा- मिटटी की सुगंध, नए साहित्य का सौंदर्यशास्त्र, भारत इतिहास और
संस्कृति, जब प्रश्नचिन्ह बौखला उठे, शेष-अशेष, कामायनी: एक पुनर्विचार, मुक्तिबोध समग्र (वॉल्यूम 1-8), नयी कविता का आत्मसंघर्ष, प्रतिनिधि कहानियां, मुक्तिबोध: विमर्श और पुनः पाठ, भूरी-भूरी ख़ाक धूल, छत्तीसगढ़ में मुक्तिबोध, प्रतिनिधि कवितायेँ, विचार का आइना: कला साहित्य संस्कृति के आधार पर गजानन माधव मुक्तिबोध के व्यक्तित्व और कृतित्व पर व्यापक प्रकाश डालते
हुए सम्पादकीय में लिखा है कि ‘आपका जन्म 13 नवम्बर, 1917 को श्योपुर, ग्वालियर, मध्य प्रदेश में हुआ। आपने नागपुर
विश्वविद्यालय से हिन्दी से एम.ए. तक की पढ़ाई की। आजीविका के लिए 20 वर्ष
की उम्र से बड़नगर मिडिल स्कूल में मास्टरी आरम्भ करके दौलतगंज (उज्जैन), शुजालपुर, इन्दौर, कलकत्ता, बम्बई, बंगलौर, बनारस, जबलपुर, नागपुर
में थोड़े-थोड़े अरसे रहे। अन्तत: 1958 में दिग्विजय महाविद्यालय, राजनांद गाँव में आप लेखन में ही नहीं, जीवन में भी प्रगतिशील सोच के
पक्षधर रहे, और यही कारण है कि माता-पिता
की असहमति के बावजूद प्रेम विवाह किया। अध्ययन-अध्यापन के
साथ पत्रकारिता में भी आपकी गहरी रुचि रही। ‘वसुधा’,
‘नया ख़ून’ जैसी पत्रिकाओं में सम्पादन-सहयोग। आप अज्ञेय द्वारा सम्पादित ‘तार सप्तक’ के पहले कवि के रूप में भी जाने जाते हैं। प्रगतिशील कविता और नई कविता के
बीच आपकी क़लम की भूमिका अहम और अविस्मरणीय रही जिसका महत्त्व अपने ‘विज़न’ में आज भी एक बड़ी लीक। आपकी प्रकाशित
कृतियाँ हैं—‘चाँद का मुँह टेढ़ा है’, ‘भूरी-भूरी ख़ाक-धूल’, ‘प्रतिनिधि कविताएँ’ (कविता); ‘काठ
का सपना’, ‘विपात्र’, ‘सतह से उठता
आदमी’ (कहानी); ‘कामायनी : एक पुनर्विचार’, ‘नई कविता का आत्म-संघर्ष’, ‘नए साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र’ (जिसका नया संस्करण अब कुछ परिवर्तित रूप में ‘आख़िर
रचना क्यों?’ नाम से प्रकाशित), ‘समीक्षा
की समस्याएँ’, ‘एक साहित्यिक की डायरी’ (आलोचना); ‘भारत : इतिहास
और संस्कृति’ (विमर्श); ‘मेरे युवजन
मेरे परिजन’ (पत्र-साहित्य); ‘शेष-अशेष’ (असंकलित रचनाएँ)। आपकी प्रकाशित-अप्रकाशित सभी रचनाएँ मुक्तिबोध
समग्र में शामिल जो आठ खंडों में प्रकाशित। आपका निधन 11 सितम्बर, 1964 को नई दिल्ली में हुआ’। |
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सामग्री और क्रियाविधि | गजानन माधव मुक्तिबोध के व्यक्तित्व, कृतित्व, क्रियाशीलता एवं बहुआयामी प्रतिभा से प्रेरित प्रस्तुत शोध अध्ययन गुणात्मक शोध है जिसके अंतर्गत लेखक द्वारा प्रमुख रूप से द्वितीयक तथ्य संकलन के आधार पर अपने विचारों को मौलिकता प्रदान करते हुए अपने विचारों को इस प्रकार क्रमबद्ध रूप से विकसित किया है कि प्रस्तुत अध्ययन की गुणात्मक एवं वैज्ञानिक प्रकृति सुनिश्चित हो सके। उद्देश्य में सफल होने हेतु लेखक द्वारा कुछ चुनिंदा एवं अध्ययन-विषय से संबंधित प्रकाशित शोधपत्रों एवं सम्पादकीय का सहारा लिया है जिसने उसको न केवल शोध विषय की पृष्ठभूमि से परिचित करवाया, अपितु गजानन माधव मुक्तिबोध के व्यक्तित्व एवं कृतित्व को समझने में भी मदद की। |
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विश्लेषण | गजानन माधव
मुक्तिबोध: एक सक्रिय और
क्रियाशील व्यक्तित्व गजानन माधव मुक्तिबोध बचपन से ही
सक्रिय और क्रियाशील थे। उनके द्वारा 20 वर्ष की उम्र में बड़नगर मिडिल स्कूल में अध्यापन करना तथा इसके बाद दौलतगंज (उज्जैन), शुजालपुर, इंदौर, कलकत्ता, बम्बई, बंगलौर, वाराणसी, जबलपुर, नागपुर आदि स्थानों पर अध्यापन के क्षेत्र में कार्यरत रहना उनकी सक्रियता
एवं क्रियाशीलता का प्रमाण है। मुक्तिबोध की सबसे बड़ी इच्छा थी प्राध्यापक बनना
जिसकी पूर्ति दिग्विजय महाविद्यालय राजनांदगांव में प्राध्यापक बनने पर हुई। यहाँ उनको साहित्य सृजन का समुचित वातावरण
प्राप्त हुआ एवं उन्होंने अपने जीवन की सर्वश्रेष्ठ रचनाओं का उपहार हिंदी जगत को
दिया। अध्ययन-अध्यापन, लेखन व पत्रकारिता के साथ -साथ आकाशवाणी व
राजनीति की व्यस्तता के बीच सतत संघर्ष व जुझारू व्यक्तित्व का परिचय देते हुए
मुक्तिबोध ने आधुनिक हिंदी कविता व समीक्षा के क्षेत्र में क्रांतिकारी युग का
सूत्रपात किया। गजानन माधव
मुक्तिबोध कृतित्व: संक्षिप्त
जानकारी गजानन माधव मुक्तिबोध के लिए यूं तो
सम्पूर्ण हिंदी साहित्य कार्यक्षेत्र हेतु खुला था और उन्होंने हिंदी साहित्य की विभिन्न विधाओं पर उल्लेखनीय
कार्य किया, परंतु उन्होंने अपने लिए प्रमुख रूप से
काव्य और समीक्षा को चुना। काव्य और समीक्षा के क्षेत्र में उन्होंने हिंदी
साहित्य को उल्लेखनीय योगदान दिया। चाँद का मुंह टेढ़ा है, भूरी-भूरी खाक धूल (कविता
संग्रह), सतह से उठता आदमी, काठ
का सपना, विपात्र (कथा साहित्य), कामायनी एक पुनर्विचार, भारत: इतिहास और संस्कृति, समीक्षा की समस्याएँ, नये साहित्य का सौन्दर्य शास्त्र, आखिर रचना
क्यों, नयी कविता का आत्मसंघर्ष तथा एक साहित्यिक की
डायरी के अतिरिक्त छह खंडो में प्रकाशित मुक्तिबोध रचनावली, मुक्तिबोध की लेखनी के तेज व प्रखर विचारधारा के जीवंत साक्ष्य है। मुक्तिबोध की कविताओं की विशेषता
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निष्कर्ष |
अपनी रचना में हर
कवि अपनी और समाज की बात करता है, चाहे वह तुलसीदास का 'स्वान्त:सुखाय' हो या कबीर का 'कबीर बिगरा राम दुहाई, तुम जिनि बिगरौ मेरे भाई' या निराला का-'मैने मैं शैली अपनाई, देखा एक दुखी निज भाई' हो या मुक्तिबोध का 'मैं' और 'वह' का संवाद हो। आधुनिक काल के सभी कवियों पर दृष्टिपात किया जाय तो निराला
और मुक्तिबोध का व्यक्तित्व और कृतित्व जितना एक-दूसरे से
मिलता जुलता है, उतना दूसरे कवियों का एक-दूसरे से नहीं। इसीलिए जब निराला
की बात की जाती है, उनकी परंपरा में सबसे पहले मुक्तिबोध का नाम लिया जाता है। निराला ने 'राम की शक्ति-पूजा' में
और मुक्तिबोध ने 'अंधेरे में' में इन्हीं स्थितियों का चित्रण किया है। निराला की तरह मुक्तिबोध में भी
क्लासिक, रोमांटिक तथा आधुनिक विधान एक-दूसरे से घुले-मिले है। निराला का कुल मिजाज जहाँ
क्लासिक की ओर झुकता है और फिर आधुनिक की ओर, वहां
मुक्तिबोध में आधुनिकता, वैचारिकता रोमांटिक आवेग से
जुड़ी है। गजानन माधव
मुक्तिबोध (1917-1964) ने अपना साहित्यिक सृजन मुख्यतः आधुनिक हिंदी कविता आंदोलन 'प्रगतिवाद' और 'प्रयोगवाद' के दौरान किया। प्रगतिवाद (1936-1943) आंदोलन
मार्क्सवादी विचारधारा का ही साहित्यिक संस्करण है और प्रयोगवाद (1943-1955) आंदोलन में कवि विचारधारा के सत्य को अंतिम मानने को तैयार नहीं थे और
अपने स्तर पर अपने सत्य की तलाश करने के इच्छुक थे। मुक्तिबोध इन दोनों आंदोलनों
में शामिल थे और इन दोनों में शामिल होने के कारण ही मार्क्सवादी विचारधारा से
प्रभावित होने के बावजूद मुक्तिबोध 'जड़ मार्क्सवादी' नहीं थे। हिंदी साहित्य में
गजानन माधव मुक्तिबोध (1917-1964) ने कहानी, उपन्यास, कविता
और आलोचना जैसी विधाओं में अपना अतुलनीय योगदान दिया है। मुक्तिबोध घोषित
मार्क्सवादी थे और इन्होंने अपनी कविताओं में पूँजीवाद के विरुद्ध औचित्यपूर्ण
संघर्ष को प्रस्तुत किया है। अपनी विचारधारा के अनुसार वे सघन यथार्थ को अपनी
कविता में उतारने का प्रयत्न करते हैं। इनके काव्य में बिम्बों की अत्यधिक
उपस्थिति के कारण इन्हें 'बिम्बों का नगर' भी कहा जाता है। इनके बिम्ब प्रतीकात्मकता, कठोरता
और रहस्यात्मकता से युक्त हैं। सामान्यतः
मार्क्सवादी कवियों ने प्रतीकों से परहेज किया है, लेकिन मुक्तिबोध की कविताएँ प्रतीकात्मकता से युक्त हैं।
इनके द्वारा प्रतीकों के प्रयोग का प्रमुख कारण कविता को चमत्कार से युक्त करना
नहीं है, बल्कि यथार्थ को सघनता के साथ प्रस्तुत करना
है। लय इनकी कविताओं में सर्वत्र विद्यमान है। इनकी कविताओं में लय न सिर्फ बाहरी
आवरण के रूप में बल्कि आंतरिक अनुशासन के तौर पर भी है। मुक्तिबोध की रचना
हर क्षण बेचैनी और ऐंठन में से निकलती है। मुक्तिबोध का मिजाज अगर किसी से मिलता
है तो सिर्फ कबीर से- वैसी ही बेचैनी और कभी-कभी वैसी ही कोमलता, और वैसा ही फक्कड़पन। मुक्तिबोध हर गली, हर सड़क, हर एक चेहरा में झाँक-झाँक देखते हैं कि कही वह 'परम अभिव्यक्ति अनिवार' मिल जाय। मुक्तिबोध उसे
समाज की हर टकराहट के बाद 'आत्म सम्भवा' कहते हैं और रचना की स्वायत्तता को उसी रूप में मानते हैं जैसे- प्रेमचन्द, निराला, रामचन्द्र
शुक्ल या अज्ञेय। लेखन सामाजिक-राजनीतिक सन्दर्भों के
उठने का केन्द्र है। इसे मुक्तिबोध बार-बार रेखांकित करते
हैं। इसीलिए उनकी बेचैनी लेखन कर्म और उसके लिए उपजती है। मुक्तिबोध ने मुख्यतः
कहानी, उपन्यास, कविता, आलोचना जैसी प्रमुख विधाओं में साहित्य सृजन किया। मुक्तिबोध की कविताएँ 'भूरी भूरी खाक धूलि'; 'चांद का मुँह टेढ़ा है' और 'तारसप्तक' जैसे
संकलनों में शामिलकर प्रकाशित की गईं।
अपनी दो कविताओं 'अंधेरे में' और 'ब्रह्मराक्षस' की
प्रसिद्धि के कारण ही मुक्तिबोध आधुनिक हिंदी साहित्य में ऊँचे स्तर पर प्रतिष्ठित
हुए हैं। इसके अलावा इनकी कामायनी की समीक्षा 'कामायनी: एक पुनर्विचार' को भी हिंदी साहित्य में
महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। समग्रतः स्पष्ट है कि जहाँ एक ओर मुक्तिबोध के कविताओं
की संवेदनागत विशेषताओं में आत्मसंघर्ष के साथ ही पूँजीवादी व्यवस्था के विरुद्ध
औचित्यपूर्ण संघर्ष विद्यमान है, तो वहीं दूसरी ओर
शिल्पगत विशेषताओं में उनकी अद्वितीय फैंटेसी शिल्प के साथ ही बिम्ब योजना, प्रतीक योजना और लयात्मकता इनके काव्य को रमणीय बनाती है। |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची |
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