ISSN: 2456–4397 RNI No.  UPBIL/2016/68067 VOL.- IX , ISSUE- IX December  - 2024
Anthology The Research

धर्मशास्त्र: सूत्र, स्मृति एवं नीतिग्रन्थ

Theology: Sutras, Smriti and Niti texts
Paper Id :  19498   Submission Date :  2024-12-14   Acceptance Date :  2024-12-22   Publication Date :  2024-12-24
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DOI:10.5281/zenodo.14556949
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संदीप कच्छावाहा
सहायक आचार्य
संस्कृत विभाग
राजकीय कन्या महाविद्यालय, पीपाड़
जोधपुर, राजस्थान, भारत
सारांश

प्राचीन भारतीय संस्कृति में वैदिक काल से ही कानून अर्थात् विधि अनुसार प्रत्येक सामाजिक कार्य तथा राज-शासन संचालित होता था। उन विधि सम्मत ग्रन्थों को सूत्र, स्मृति तथा नीति ग्रन्थ कहा जाता है। सूत्रों में श्रौतसूत्र, गृह्îसूत्र, धर्मसूत्र तथा शूल्वसूत्र एवं मनुस्मृति, याज्ञवल्क्यस्मृति, अर्थशास्त्र इत्यादि ग्रन्थों की रचना वैदिक विधि के अनुसार की गई थी। जिसमें विधि-अनुसार समाज के सुचारू संचालन का वर्णन किया गया है। धर्मसूत्र आचार शास्त्र के विश्व के प्राचीनतम ग्रन्थ है, जिनमें सांस्कृतिक चेतना के निर्देशक तत्व विद्यमान है। इनमें धर्म के शाश्वत् स्वरूप का वर्णन किया गया है। धर्मसूत्र स्मृतिसूत्रों की आधारशिला है- 'धर्मशास्त्रं तु वै स्मृतिः'। मनुस्मृति में वर्णधर्म की शिक्षा, संस्कार एवं राजधर्म का समुचित वर्णन है। याज्ञवल्क्यस्मृति में चैदह विद्याएं, धर्मोपान, व्यवहाराध्याय तथा प्रायश्चिताध्याय वर्णित है। कौटिल्य अर्थशास्त्र में भारतवर्ष के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक एवं धार्मिक जीवन पर मूल्यवान प्रकाश डाला गया है।

सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद In ancient Indian culture, since the Vedic period, every social work and governance was conducted according to law. Those legal texts are called sutras, smriti and policy texts. Among the sutras, texts like Shrautasutra, Grihîsutra, Dharmasutra and Shulvasutra and Manusmriti, Yajnavalkyasmriti, Arthashastra etc. were composed according to the Vedic method. In which the smooth functioning of the society as per the law has been described. Dharmasutras are the world's oldest texts of ethics, which contain guiding elements of cultural consciousness. In these the eternal nature of religion has been described. The foundation stone of Dharmasutra Smritisutras is – 'Dharmasastram Tu Vai Smritih'. There is a proper description of the education, rituals and Rajdharma of Varnadharma in Manusmriti. Fourteen Vidyas, Dharmaopana, Vyavaradhyaya and Prayashchitaadhyaya are described in Yajnavalkyasmriti. Kautilya Arthashastra throws valuable light on the social, economic, political and religious life of India.
मुख्य शब्द धर्मसूत्र, आचारशास्त्र, स्मृति, वेद, दण्डविधान, चातुर्वण्र्य, राजनीति, दुर्ग, धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Dharmasutra, Ethics, Smriti, Vedas, Penal Code, Chaturvarnya, Politics, Fort, Theology, Economics.
प्रस्तावना

धर्मशास्त्र आचार संहिता तथा विधि से संबंधित ग्रंथ है। मानवीय तर्क का उपयोग करके ईश्वर का अध्ययन के साथ ही किसी जनसमूह के लिए समुचित आचार-व्यवहार की जो व्यवस्था की जाती हैंवह धर्मशास्त्र हैं। इसी न्यायशास्त्रीय धर्मशास्त्र को “हिन्दुओं का कानूनˮ के रूप में मान्यता दी गई थी। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में भी धर्मशास्त्र को “हिंदुविधिसंहिताˮ के रूप में स्वीकार किया जाता है। प्राचीन भारतीय विधिसंहिता अर्थात् धर्मशास्त्र की प्रासंगिक व्याख्या वेदोंसूत्रग्रन्थोंस्मृतियों एवं परवर्ती नीति ग्रन्थों में भी की गई है।

अध्ययन का उद्देश्य
प्रस्तुत शोधपत्र का उद्देश्य प्राचीन भारतीय विधिसंहिता अर्थात् धर्मशास्त्र की प्रासंगिक व्याख्या वेदों, सूत्रग्रन्थों, स्मृतियों एवं परवर्ती नीति ग्रन्थों में भी की गई है, इस तथ्य का अध्ययन करना है।
साहित्यावलोकन

धर्मसूत्रों में वर्णाश्रम धर्म, व्यक्तिगत आचरण, राजा एवं प्रजा के कर्तव्यों आदि का विधान है। यह गृह्îसूत्रों तथा धर्मसूत्रों की श्रृंखला के रूप में भी प्राप्त होते हैं। वेदानुशासन को ही धर्म कहा जाता है। तत्पश्चात् स्मृति

सदाचार एवं आत्मसंतुष्टि को भी धर्म कहा गया है-

वेदः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः।

एतच्चतुर्विधं प्राहुः साक्षाद्धर्मस्य लक्षणम्।।

मनुस्मृति  2/12

धर्म की प्रशंसा में श्रुति भी कही गई है कि- जो मनुष्य धर्म का सेवन करता है, वह इस संसार में धर्मात्मा कहा जाता है तथा प्रशंसा के योग्य होता है एवं मृत्यु उपरांत स्वर्गीय सुखों का भोग करता है-

ज्ञात्वा चानुतिष्ठन्धार्मिकः प्रशस्यतमो भवति लोके प्रेत्य च स्वर्गे लोके समश्नुते

मुख्य पाठ

वैदिक काल में किसी विशेष न्यायिक संस्था का वर्णन तो नहीं है, किंतु न्यायिक कार्यों के लिए ʻसभा तथा समितिʼ इन दो संस्थाओं प्रचलन था। सभा को ʻकित्विषस्पृत्ʼ (अपराधी को दण्ड देने का कार्य) तथा ʻनरिष्ठाʼ (निर्णायक संस्था) कहा जाता था। सभा धर्मनिर्णय का कार्य करती थी। पुरातन काल में विधि के लिए धर्म शब्द का प्रयोग होता था। अतः विधिशास्त्र को धर्मशास्त्र भी कहा जाता है। इसी तरह समिति भी अपने लिए निर्धारित कार्यों के अतिरिक्त न्यायिक कार्यों को भी सम्पन्न करती थीं। अथर्ववेद में समिति की उपयोगिता का वर्णन करते हुए कहा गया है कि जिस राष्ट्र में ब्रह्महत्या, अत्याचार तथा अधार्मिक कार्य होते है, वहां समिति कार्य नहीं कर सकती। वैदिक लोगों के जीवन से संबंधित धार्मिक अथवा वैधानिक कार्यों का निर्णय सभा एवं समिति के सदस्यों द्वारा वाद-विवाद एवं प्रमाणिक तथ्यों के आधार पर सूक्ष्म विवेचनोपरान्त सर्वसम्मति से लिया जाता था। वैदिक मंत्रों में इन्द्र, वरुण एवं अग्नि की न्यायाधीश के रूप में स्तुति की गई है। वैदिक ग्रन्थों में सोम की भी न्यायवेत्ता के रूप में स्तुति की गई है। वैदिक मत्रों के आधार पर सोम को न्यायाधीश कहा जा सकता है। ऋग्वेद तथा अथर्ववेद में दुष्टों को दण्डित करने तथा प्रजा के कल्याण के लिए सोम तथा इंद्र की स्तुति की गई है। जो गुण एक न्यायाधीश के रूप में होने चाहिए वे सभी सोम देवता में विद्यमान थे। सोम देवता को ʻसहस्रचक्षः, नृचक्षः, विचर्षणिः, विखचर्षणिःʼ  भी कहा जाता है। ऋग्वेद के नवम मण्डल में सोम को धर्म अर्थात् विधि को धारण करने वाला बताया गया है। पूषन् देवता को सम्राट् के रूप में चित्रित किया गया है।

प्रारंभिक वैदिक काल में विधि ऋत के रूप में प्रसिद्ध थी। ब्राह्मण ग्रन्थों में ऋत के स्थान पर धर्म शब्द का प्रयोग किया गया है। ऋग्वेद में इंद्र को विधि निर्माता तथा धर्म निर्माता बताया गया है। अथर्ववेद में सविता को विधि निर्माता बताया गया है। अथर्ववेद में वरुण देवता को सर्वप्रथम विधि विधान प्राप्त करने वाला देवता बताया गया है। वेद संहिता के अनुसार मानव कल्याण हेतु ऋषि-मुनि चिंतन-मनन करके नियमों का निर्माण करते थे। उशना, प्रजापति, गौतम, गृत्समद, भारद्वाज आदि मुनियों ने मानव समाज के कल्याण के लिए जो भी नियम बनाए, वे विधि के रूप में परिणत हो गए।

वैदिक काल में विधि के दो स्वरूप थे-लिखित तथा अलिखित। राजाओं द्वारा निर्मित विधि लिखित तथा ऋषियों द्वारा बनाए गए नियम अलिखित विधि के रूप में थे।

वैदिक काल से प्रारंभ हुई धर्म अर्थात् विधि-व्यवस्था आवश्यकतानुसार परिवर्तित एवं परिवर्द्धित होती रही। क्योंकि इस प्राचीन भारतीय विधि व्यवस्था का सर्वांगीण विकसित रूप वैदिक काल के उत्तरार्ध में ही प्राप्त होता।

गौतम धर्म सूत्र के अनुसार राजा का प्रधान कर्तव्य न्याय करना था तथा वही राज्य का प्रधान न्यायाधीश भी होता था। राजा को न्याय विद्या एवं वेदत्रयी में निष्णात होना चाहिए- सामर्ग्यजुर्वेदास्त्रयमस्त्रयी।

न्याय करते समय राजा को सम्पूर्ण प्रजा के प्रति समान भाव रखना चाहिए। जो अपने धर्म से भ्रष्ट हो रहे हैं, उन्हें अनुशासित कर पुनः स्वधर्म के मार्ग पर स्थापित करना चाहिए। गंभीर प्रकरणों में यदि निर्णय करना कठिन प्रतीत होता हो तो वहॉं न्याय विद्या एवं वेदत्रयी में विद्वज्जन के परामर्शानुसार ही निर्णय करना चाहिए। राजा द्वारा न्याय कार्य हेतु किसी विद्वान् ब्राह्मण को भी न्यायाधीश के रूप में नियुक्त किया जाता था। आपस्तम्ब धर्मसूत्र में भी इस तथ्य की पुष्टि होती है। वस्तुतः राजा ही प्रधान निर्णायक होता था, अपितु राजा अपनी अनुपस्थिति में इसके लिए अपना प्रतिनिधि नियुक्त करता था। गौतम धर्मसूत्र में न्यायाधीश के लिए "प्राड्विवाक्" शब्द का प्रयोग किया गया है। न्यायाधीश वेदत्रयी में निष्णात एवं पारंगत होता था।

तत्समय न्याय व्यवस्था के लिए एक न्यायिक संस्था के गठन का भी उल्लेख धर्मसूत्रों में मिलता है, जिसे परिषद् कहा जाता था। बौधायन धर्मसूत्र में ʻदशावरा परिषद्ʼ का उल्लेख मिलता है, जिसमें दस सदस्य होते थे। उनमें से एक वेदांगों का ज्ञाता, एक मीमांसक, एक धर्मशास्त्र में पारंगत, चार वेदों के ज्ञाता एवं तीन अन्य विधिज्ञाता होते थे। पारस्कर गृह्यसूत्र में सभा अथवा परिषद् में प्रवेश करने की विधि बताई गई है-

           "सभामभ्येतिसभाड्.िगरसि नादिर्नामासि त्विषिर्नामासि तस्यै ते नम दूते"

पारस्कर गृह्यसूत्र में वर्णित मंत्रों से स्पष्ट पता चलता है कि राजा के अतिरिक्त न्यायिक कार्य हेतु एक परिषद् अथवा सभा अवश्य थी। वर्तमान न्याय व्यवस्था के सदृश ही तत्समय मुख्य ध्येय निर्दोष व्यक्ति को दण्डित नहीं करना था। दोषी व्यक्ति को ही अपराध की गंभीरता के अनुसार दण्ड दिया जाता था। किंचित् भी संशय होने पर उसे न्यायाधीश अथवा राजा द्वारा दण्डित नहीं किया जाता था। इसी को वर्तमान न्याय व्यवस्था में ʻसंदेह का लाभʼ कहा जाता है। विभिन्न साक्ष्यों एवं गवाहों के संपूर्ण परीक्षणोपरान्त के पश्चात् अपराध सिद्ध होने पर ही अपराध की गंभीरता को दृष्टि में रखते हुए न्यायाधीश अपराधी को दण्डित करता था।

परवर्ती काल में भी मुख्य रूप से वेदशास्त्रों को ही विधि एवं धर्म की व्याख्या का मूलस्रोत माना गया था। गौतम धर्मसूत्र के अनुसार प्राचीन भारतीय सनातन परम्परा में विधि अर्थात धर्म के आधार वेद, धर्मशास्त्र, वेदांग, पुराण, देशधर्म, जाति, धर्म, कुलधर्म एवं व्यवहार को माना गया था। धर्मसूत्रों में दोषी को दण्ड देने की मुख्य रूप से दो विधियॉं थी- प्रथम राज्यदण्ड एवं दूसरा प्रायश्चित। इस प्रकार की दण्ड व्यवस्था का वर्णन मुख्य रूप से बौधायन, गौतम तथा वशिष्ठ धर्मसूत्रों में वर्णित है- ʻदण्डस्तु देशकाल धर्मवयो विद्यस्थानविशेषैर्हिंसाकोशयो कल्प्य।ʼ सनातन भारतीय विधि परम्परा में ऐसे अनेक उदाहरण बताए गए हैं जिनमें एक ही अपराध के लिए व्यक्ति, स्थान, कुल, शक्ति, पद, प्रतिष्ठा एवं वर्ण के आधार पर भिन्न-भिन्न दण्ड दिए गए। धर्म सूत्रों में दोषियों को दिए गए दण्ड प्रणाली का अध्ययन करने पर यह निश्चित हो जाता है कि तत्समय की दण्ड प्रणाली अतिकठोर एवं कष्टदायक थी। दण्ड का दूसरा रूप प्रायश्चित भी शारीरिक दण्ड के समान ही दारूण था। दण्ड प्रणाली अत्यंत क्रूर एवं अमानवीय थी।

वैदिक काल के पश्चात् धर्मशास्त्र ने अत्यन्त विकसित रूप धारण कर लिया था। इस समय सभी तथ्यों को सूक्ष्म परीक्षण के पश्चात् ही न्याय व्यवस्था में शामिल किया जाता था, जो कि एक निष्पक्ष न्याय व्यवस्था के लिए अति आवश्यक होता है। इसी के साथ आरोप एवं आरोपी की परिस्थिति, देश, काल, उद्देश्य तथा गंभीरता पर विशेष ध्यान देना भी विकसित न्याय प्रणाली को इंगित करता है।

वैदिक न्याय प्रणाली के पश्चात् कौटिल्य का अर्थशास्त्र विधि एवं न्याय व्यवस्था का एक प्रामाणिक ग्रंथ स्वीकार किया जाता है। अब भी राजा ही सर्वोच्च न्यायाधीश होता था। कौटिल्य के अनुसार राजा को न तो निष्ठुरतापूर्वक एवं न ही लचीलेपन से दण्ड देना चाहिए, अपितु राजा को उचित दण्ड देने वाला होना चाहिए-

"चतुर्वर्णाश्रमो लोको राज्ञा दण्डेन पालितः

स्वधर्माकर्माभिरतो वर्णते स्वेषु वेश्मसु।।ˮ        

अर्थशास्त्र के अनुसार आन्वीक्षकी, त्रयी और वार्ता- इन सभी विद्याओं की सुख-समृद्धि दण्ड पर ही आश्रित है-

"आन्वीक्षकीत्रयीवार्तानां योगक्षेमसाधनो दण्डः, तस्य नीतिर्दण्डनीतिः।ˮ      

कौटिल्य ने न्यायालय के दो विभाग किए है- धर्मस्थीय एवं कण्टकशोधन। धर्मस्थीय न्यायालय के न्यायाधीश को ʻधर्मस्थʼ कहा जाता था, जिसके समक्ष निम्न प्रकरणों को प्रस्तुत किया जाता था- व्यवहार स्थापना, दासकल्प, वास्तुकम्, स्त्रीधनकल्प, दायविभाग, विवाह-संयुक्त, सीमाविवाद, वाक्पारूष्यम्, दण्डपारूष्यम्, विक्रीतक्रीतानुशय, ऋणदानम्, मृतकाधिकार इत्यादि। इसी प्रकार कंटकशोधन न्यायालय में कारूकरक्षणम्, आशुमृतकपरीक्षा, वाक्यक्रमानुयोग, वैदेहकरक्षणम्, उपनिपातप्रतिकार, अतिचारण्ड, सर्वाधिकरणरक्षणम् इत्यादि प्रकरणों की सुनवाई कर उचित दण्ड विधान का प्रयोग किया जाता था।

इसके अतिरिक्त इस समय भी विधि का मुख्य आधार धर्म ही था। वेद, पुराण एवं स्मृतियों को विधि के स्रोत के रूप में प्रयुक्त किया जाता था। कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में उल्लेखित किया है कि- "दायभाग की व्यवस्था देशधर्म, जाति, धर्म एवं ग्राम की रीति के अनुसार होनी चाहिए।ˮ कौटिल्य ने इस संबंध में वेदों को ही प्रामाणिक माना है। सर्वप्रथम कौटिल्य द्वारा ही न्यायालय को दो भागों में वर्गीकृत किया गया था। भारतीय न्याय व्यवस्था सुदृढ़ एवं परिष्कृत होने के साथ-साथ प्राचीन परम्परा से राजा को ही प्रधान न्यायाधीश माना जाता रहा है। स्मृतियों में भी न्याय करना राजा का प्रमुख कर्तव्य बताया गया है।

स्मृतियों में राजा के दैवीय उत्पत्ति सिद्धांत को स्वीकार करते हुए ईश्वर का अंश माना गया है तथा राजा को रक्षक एवं न्यायकर्त्ता माना गया है। राजा को आन्वीक्षकी, त्रयी, वार्ता एवं दण्डनीति में प्रवीण होना चाहिए। मनुस्मृति के अनुसार विधाता ने इन्द्र, वायु, यम, सूर्य, अग्नि, वरुण, चन्द्रमा और कुबेर के प्रमुख अंशों से युक्त राजा की रचना की है। देवत्वविशिष्ट राजा का विशिष्ट उत्तरदायित्व है- सभी प्राणियों की रक्षा करना, न्यायोचित दण्ड देना, शास्त्रविहित नियमों के अनुसार वर्णाश्रम की रक्षा करना तथा पथभ्रष्ट लोगों को सन्मार्ग दिखाना-

"रक्षन्धर्मेण भूतानि राजा वध्यांश्च घातयन्।

यजतेऽहरहर्यज्ञैः सहस्रशतदक्षिणैः।।ˮ

तथापि मुख्य न्यायाधीश राजा ही होता था, किंतु कार्याधिक्य के कारण वह अपने प्रतिनिधि के रूप में ब्राह्मण, क्षत्रिय अथवा वैश्य वर्ण के किसी विधिवेत्ता को न्यायाधीश नियुक्त करता था। वह राजा की सहमति के बाद निर्णय करता था। राजा द्वारा नियुक्त न्यायाधीश की सहायता के लिए तीन सभ्यों को भी नियुक्त किया जाता था। इसमें भी ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य वर्ण को प्राथमिकता दी जाती थी। याज्ञवल्क्यस्मृति के अनुसार सभ्य वेदसंपन्न, धर्मज्ञ, सत्यवादी तथा सभी में समान भाव रखने वाले होने चाहिए। इस न्याय व्यवस्था में पुरोहित नामक अधिकारी का अस्तित्व भी वैदिक काल से ही था। बाद में वह न्यायपालिका का महत्वपूर्ण अंग बन गया। स्मृति में उल्लेख है की सभा में प्रवेश करते समय राजा के लिए यह अनिवार्य था कि वह ब्राह्मण, मंत्री, प्राड्विवाक् तथा पुरोहित के साथ ही प्रवेश करे। ये सभी राजा की न्याय सभा के महत्वपूर्ण अंग होते थे। इस समय भारतीय विधि एवं धर्म व्यवस्था में स्मृतियों का स्थान महत्वपूर्ण हो गया था। मनु के अनुसार स्मृतियों को वेदों के समान ही प्रामाणिक माना जाता था। वेदों तथा स्मृतियों में कथित धर्म का पालन करते हुए मनुष्य इस जगत् में सुख प्राप्त करता था तथा धर्मनिष्ठ अपने कर्मों का सर्वोत्तम सुख प्राप्त करता था। इसलिए वेद एवं स्मृति द्वारा उक्त धर्म का अनुष्ठान करना चाहिए, क्योंकि वेदों तथा स्मृतियों में कहा गया आचार ही श्रेष्ठ धर्म है।

किसी भी काल में न्यायिक प्रक्रिया का प्रारम्भ व्यवहार पद से ही होता है। मनु ने अपनी मनुस्मृति में 18 व्यवहार पदों का वर्णन किया है- ऋणदान, निक्षेप, अस्वामिविक्रय, सम्भूयसमुत्थान, दत्तस्यान पापकर्म, वेतनादान, सविद्व्यतिक्रम, क्रयविक्रयानुशय, स्वामिपालविवाद, सीमाविवाद, वाक्पारूष्य, दण्डपारूष्य, स्तेय, साहस, स्त्रीसंग्रहण, स्त्रीपुंधर्म, विभाग तथा द्युतसमाहृत्य।

याज्ञवल्क्यस्मृति में इन्हीं 18 व्यवहारों में अभ्युपेत्याशुश्रुषा तथा प्रकीर्णक नामक दो व्यवहारों को सम्मिलित करके इनकी संख्या 20 कर दी गई। इन विषयों को कौटिल्य ने सोलह, नारद ने अठारह तथा बृहस्पति ने उन्नीस स्वीकार किया है।

बृहस्पति ने न्याय के चार स्रोत बताएं हैं- धर्म, व्यवहार, चरित्र तथा नृपाज्ञा। बृहस्पति ने भी यह वर्णन किया है कि न्यायाधीश को वेद-वेदांगों एवं धर्म शास्त्रों के साथ ही लौकिक शास्त्रों में भी पारंगत होना चाहिए। शुक्र नीति में भी धर्मशास्त्रों के अनुसार ही निर्णय करने की बात कही गई है।

उपर्युक्त वर्णन से स्पष्ट है कि स्मृतिकाल में न्यायव्यवस्था ने परिष्कृत, सुव्यवस्थित एवं नियमबद्ध रूप धारण कर लिया था। दण्ड व्यवस्था को भी सुनियोजित एवं सुव्यवस्थित किया गया था। मनुस्मृति में दण्ड को दैवीय स्वरूप के रूप में वर्णित किया गया है कि- राजा की कार्य सिद्धि के लिए ईश्वर ने संपूर्ण जीवों के रक्षक, धर्मस्वरूप पुत्र, ब्रह्म के तेजोमय रूप से दण्ड की रचना की।ˮ मनुस्मृति में दण्ड को चार भागों में विभाजित किया गया है- वाग्दण्ड, धिग्दण्ड, धनदण्ड तथा वधदण्ड। तत्समय देश निर्वासन का दण्ड भी प्रचलित था। उस समय न्याय व्यवस्था में पारदर्शिता, निष्पक्षता एवं वैज्ञानिकता थी।

निष्कर्ष
मानव जीवन को विभिन्न संकटों से बचाने के लिए तथा सामाजिक अधिकारों की रक्षा के लिए ही न्याय प्रणाली का उद्भव हुआ। वैदिक ग्रन्थों में सभा एवं समिति का वर्णन करते हुए इंद्र, वरुण, अग्नि, मित्र, सविता, पूषन् इत्यादि देवताओं को प्रधान न्यायाधीश तथा सम्राट् के रूप में वर्णित किया गया है। वैदिक कालीन विधि के स्रोत स्वयं वैदिक ग्रन्थों को ही माना गया था। वैदिक न्याय व्यवस्था के पश्चात् वेदशास्त्र के साथ ही धर्मशास्त्र, वेदांग, उपनिषद्, उपवेद, पुराण, देश, स्मृति तथा नीति ग्रन्थों को भी मुख्य आधार माना जाने लगा। वर्तमान न्याय व्यवस्था के अनुरूप ही प्राचीन भारतीय न्याय व्यवस्था को निष्कलंक रखने के लिए विभिन्न उपाय किए गए थे। उस समय भी न्याय प्रणाली का ध्येय यही था कि "भले ही सौ अपराधी छूट जाए, परंतु किसी निर्दोष को सजा नहीं मिलनी चाहिए।ˮ अपराध सिद्ध हो जाने पर ही वास्तविक अपराधी को उसके अपराध के अनुसार दण्ड विधान किया जाता था।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
  1. ऋक् सूक्त संग्रह, व्याख्याकार- डॉ. हरिदत्त शास्त्री, डॉ. कृष्ण कुमार
  2. अग्नि सूक्त 1/1, 1/143, 4/2
  3. वरुण सूक्त 1/21, 7/86
  4. इन्द्र सूक्त  1/32, 2/12
  5. सवितृ सूक्त 1/35, 4/54
  6. पूषा सूक्त   6/53
  7. सोम सूक्त-  नवम मण्डल
  8. वैदिक साहित्य एवं संस्कृति - डॉ. कपिलदेव द्विवेदी
  9. मनुस्मृति - 2/1, 2/6, 2/9, 2/12, 8/306, 7/1, 7/4, 7/5, 7/8
  10. अर्थशास्त्र - श्री वाचस्पति गैरोला, चौखम्भा प्रकाशन, वाराणसी
  11. गौतम धर्मसूत्र - हरदत्त भाष्य, पूना
  12. ब्रहस्पतिस्म्रति - रंगास्वामी अयंगर
  13. याज्ञवल्क्यस्मृति - चौखम्भा प्रकाशन, वाराणसी