ISSN: 2456–5474 RNI No.  UPBIL/2016/68367 VOL.- IX , ISSUE- XI December  - 2024
Innovation The Research Concept

हिंदी साहित्य और ग़ज़ल लेखन

(दुष्यंत कुमार कृत साये में धूप के विशेष संदर्भ में)

Hindi literature and ghazal writing (with special reference to Saaye Mein Dhoop Dushyant Kumar)
Paper Id :  19512   Submission Date :  2024-12-13   Acceptance Date :  2024-12-23   Publication Date :  2024-12-25
This is an open-access research paper/article distributed under the terms of the Creative Commons Attribution 4.0 International, which permits unrestricted use, distribution, and reproduction in any medium, provided the original author and source are credited.
DOI:10.5281/zenodo.14584668
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कृष्ण कुमार गुप्ता
प्राचार्य
महारानी महिला महाविद्यालय
धौलपुर
राजस्थान,भारत
सारांश

दुष्यंत कुमार का जन्म उत्तर प्रदेश में बिजनौर जनपद की तहसील नजीबाबाद के ग्राम राजपुर नवादा में हुआ था। जिस समय दुष्यंत कुमार ने साहित्य की दुनिया में अपने कदम रखे उस समय भोपाल के दो प्रगतिशील शायरों ताज भोपाली तथा क़ैफ़ भोपाली का ग़ज़लों की दुनिया पर राज था। हिन्दी में भी उस समय अज्ञेय तथा गजानन माधव मुक्तिबोध की कठिन कविताओं का बोलबाला था। उस समय आम आदमी के लिए नागार्जुन तथा धूमिल जैसे कुछ कवि ही बच गए थे। दुष्यंत कुमार की कई प्रसिद्ध ग़ज़लें हैं, लेकिन उनमें से एक प्रमुख ग़ज़ल "कहाँ से आए बदरुद्दुज़ चले", "कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता", "साये में धूप" आदि जिनको हिंदी साहित्य में विशिष्ट स्थान प्राप्त है और जो बहुत पसंद की जाती हैं।

दुष्यंत कुमार प्रसिद्ध ग़ज़ल- "कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता" उनकी अद्भुत शायरी की एक उज्ज्वल मिसाल है। इसके अलावा, उनकी अन्य प्रसिद्ध ग़ज़लें भी हैं जो उनके शायरी कौशल को दर्शाती हैं। दुष्यंतजी की प्रसिद्ध रचना  है "साये में धूप" जिसकी पंक्तियाँ- दुष्यंत कुमार को हिंदी साहित्य में अमर बना देती हैं- पीर पर्वत सी….. हो गई है पीर पर्वतसी पिघलनी चाहिए, इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए। प्रस्तुत शोधपत्र हिंदी के विश्वस्तरीय ख्याति प्राप्त ग़ज़ल लेखक और कवि दुष्यंत कुमार जीवन, व्यक्तित्व और कृतित्व पर आधारित एक गुणात्मक शोध है जिसमें लेखक द्वारा दुष्यंत कुमार के गजल संग्रह 'साये में धूप' की समेकित विवेचना  की गई है।

सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Dushyant Kumar was born in village Rajpur Nawada of Tehsil Najibabad of Bijnor district in Uttar Pradesh. At the time when Dushyant Kumar stepped into the world of literature, two progressive poets of Bhopal, Taj Bhopali and Kaifi Bhopali ruled the world of ghazals. At that time, difficult poems of Ajneya and Gajanan Madhav Muktibodh were prevalent in Hindi. At that time, only a few poets like Nagarjun and Dhumil were left for the common man. Dushyant Kumar has many famous ghazals, but one of the major ghazals among them is "Kahaan se aaye Badrudduz chale", "Kabhi kisi ko mukammal jahan nahin milta", "Saaye mein dhoop" etc. which have a special place in Hindi literature and are very much liked.
Dushyant Kumar's famous ghazal - "Kabhi kisi ko mukammal jahan nahin milta" is a bright example of his amazing poetry. Apart from this, he has other famous ghazals which show his poetic skills. Dushyantji's famous work is "Saaye Mein Dhoop" whose lines- make Dushyant Kumar immortal in Hindi literature- like the mountain of sorrow... it has become like the mountain of sorrow, it should melt, some Ganges should come out of this Himalaya. The present research paper is a qualitative research based on the life, personality and work of the world-renowned Hindi ghazal writer and poet Dushyant Kumar, in which the author has done an integrated analysis of Dushyant Kumar's ghazal collection 'Saaye Mein Dhoop'.
मुख्य शब्द साहित्य, ग़ज़ल, लेखन, 'साये में धूप', बदरुद्दुज़, मुकम्मल, जहाँ, शायरी
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Literature, Ghazal, Writing, 'Sunshine in the Shadow', Badrudduja, Complete, World, Shayari
प्रस्तावना

दुष्यंत कुमार का जन्म बिजनौर जनपद (उत्तर प्रदेश) के ग्राम राजपुर नवादा में 1 सितम्बर, 1933 को हुआ था। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त करने के उपरांत कुछ दिन आकाशवाणी भोपाल में असिस्टेंट प्रोड्यूसर रहे। इलाहाबाद में कमलेश्वर, मार्कण्डेय और दुष्यंत की दोस्ती बहुत लोकप्रिय थी। वास्तविक जीवन में दुष्यंत बहुत, सहज और मनमौजी व्यक्ति थे। कथाकार कमलेश्वर बाद में दुष्यंत के समधी भी हुए। दुष्यंत का पूरा नाम दुष्यंत कुमार त्यागी था। प्रारम्भ में दुष्यंत कुमार परदेशी के नाम से लेखन करते थे।

दुष्यंत कुमार त्यागी (1933–1975) हिंदी ग़ज़ल के सशक्त हस्ताक्षर हैं जिन्होंने हिंदी में ग़ज़ल लेखन कर हिंदी काव्य में एक नई विधा की स्थापना की। उनके बाद कई कवियों ने हिंदी में गज़लें लिखी हैं। दुष्यंत कुमार के कुछ शेर बहुत प्रचलित हैं और सैकड़ों बार उद्धरित किये जाते हैं। उनका ग़ज़ल संग्रहसाये में धूपअत्यंत  लोकप्रिय  है। दुष्यंत कुमार ने न केवल ग़ज़लों का लेखन किया, अपितु उन्होंने कई महत्वपूर्ण कविताएँ भी लिखीं। हिंदी गजल को नई पहचान देने वाले और उसे शिखर तक पहुंचाने वाले कवि दुष्यंत कुमार की का जन्म उत्तर प्रदेश के बिजनौर जनपद में हुआ था। उन्हें हिंदी ग़ज़लों का पुरोधा माना जाता है । उन्होंने आसान शब्दों में आम-जन की पीड़ा को अपनी ग़ज़लों के माध्यम से सामने रखा। एक हिंदी कवि, एक कथाकार और एक ग़ज़लकार दुष्यंत कुमार त्यागीके विषय में निदा फाज़ली ने एकदम सही लिखा था -

"दुष्यंत की नज़र उनके युग की नई पीढ़ी के ग़ुस्से और नाराज़गी से सजी बनी है। यह ग़ुस्सा और नाराज़गी उस अन्याय और राजनीति के कुकर्मो के ख़िलाफ़ नए तेवरों की आवाज़ थी, जो समाज में मध्यवर्गीय झूठेपन की जगह पिछड़े वर्ग की मेहनत और दया की नुमानंदगी करती है।" मात्र 44 वर्ष की अल्पायु में अपनी प्रखर रचनाओं द्वारा व्यापक जनमानस तक अपनी पहचान बनाकर ये इस दुनिया को अलविदा कह गये।

दुष्यंत कुमार एक हिंदी कवि और ग़ज़लकार थे। समकालीन हिन्दी कविता विशेषकर हिन्दी ग़ज़ल के क्षेत्र में जो लोकप्रियता दुष्यंत कुमार को मिली वो दशकों बाद विरले किसी कवि को नसीब होती है। दुष्यंत एक कालजयी कवि हैं और ऐसे कवि समय काल में परिवर्तन हो जाने के बाद भी प्रासंगिक रहते हैं। दुष्यंत का लेखन का स्वर सड़क से संसद तक गूँजता है।

अध्ययन का उद्देश्य
  1.  हिंदी काव्य की उपविधा 'गजल' की प्रवृत्तियों को प्रस्तुत करना।
  2. हिंदी गजल लेखक दुष्यंत कुमार के व्यक्तित्व और कृतित्व का संक्षिप्त प्रस्तुतीकरण करना। 
  3.  दुष्यंत कुमार के गजल संग्रह 'साये में धूप' पर विचार प्रस्तुत करना।
  4. गजल लेखक के रूप में दुष्यंत कुमार के साहित्यिक योगदान पर प्रकाश डालना।
साहित्यावलोकन

‘1933 में उत्तर प्रदेश के बिजनौर में जन्मे दुष्यंत कुमार त्यागी ने आधुनिक भारतीय हिंदी साहित्य में काव्य की विशिष्ट उपविधा 'गजल' को स्थापित कर अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। उन्हें 20वीं सदी के सबसे महत्वपूर्ण हिंदी साहित्य के गायकों में सम्मिलित किया जाता है। कहानियाँ, लघु कथाएँ, ग़ज़लें और नाटक उनके लेखन के विभिन्न क्षेत्र थे जिनमें उन्होंने अपनी साहित्यिक प्रतिभा को दिखाया। उनका यह स्थापित विश्वास था कि कविता तभी सत्य और निहित साबित हो सकती है जब वह वास्तविक सामाजिक परिवेश से निकले जैसा उन्होंने कर दिखाया। उनका किसी अकादमी या विद्वत्तापूर्ण हठधर्मिता में विश्वास नहीं था। उनको एक ऐसे काव्यात्मक रूप या अभिव्यक्ति की तलाश थी जो स्वाभाविक हो, जटिल न हो और समझने में सरल हो। उनके कविता संग्रह जैसे "सूर्य का स्वागत", "आवाज़ों के घेरे" और "जलते हुए वन के वसंत" ने एक नया विश्वास पैदा किया जो कि व्याकुलता और निराशावाद से पूर्णतः स्वतंत्र था। उन्होंने कहा, "ये रूण केवल इस हद तक ही जाल हैं कि मैंने उन्हें लिखा और जिया है। अगर आपको उनमें कोई ऐसी आवाज़ मिले जो जानी-पहचानी लगे, एक अंतरंग भाषा और आपकी वस्तु हो, तो भी मैं सफल हूँ।"1

ग़ज़ल ह्रदय के अन्तःस्थल से उत्पन्न ऐसी अभिव्यक्ति है जो गजल गायक के ह्रदय से निकल सीधे पाठकों और श्रोताओं के ह्रदय में प्रविष्ट होकर उनको गजल के जीवन आधारित गहन विचार में खोने और उस पर बार बार सोचने तथा साथ ही गजल में स्वयं और स्वयं के जीवन की सच्चाइयों को तलाशने हेतु बाध्य कर देती है। गजल गायक अपने जीवन के किसी व्यक्तिगत पहलू को ही प्रायः अपनी गजल का आधार बनाकर उसको स्वर देता है।2

हिंदी साहित्य में गजल विधा एक अत्यंत महत्वपूर्ण एवं लोकप्रिय विधा के रूप में प्रतिष्ठित है जिसको सर्वप्रथम दुष्यंत कुमार ने उसके पूर्व प्रचलित रूमानी श्रृंगारिक रूप से दूर कर सामान्य व्यक्ति के यथार्थ जीवन से जोड़ कर प्रस्तुत किया। गजल को काव्यरूप में प्रतिष्ठित करने वाले प्रगतिशील कवियों में दुष्यंत कुमार का नाम शीर्षस्थ है। उन्होंने गजल के अलावा हिंदी साहित्य की विभिन्न विधाओं में अपना बहुमूल्य योगदान  दिया है। साये में धूप उनका सर्वश्रेष्ठ गजल संग्रह है।3

अपने तीसरे कविता संग्रह 'जलते हुए वन का वसंत' की भूमिका में दुष्यंत कुमार कहते हैं कि 'मेरे पास कविताओं के मुखौटे नहीं हैं, अंतर्राष्ट्रीय मुद्राएँ नहीं हैं, मैं सामाजिक परिस्थिति के संदर्भ में साधारण आदमी की पीड़ा, उत्तेजना, दबाव, अभाव और उनके संबंधों में उलझनों को जीता हूँ और व्यक्त करता हूँ। मेरे लिए मनुष्य मात्र की अवमानना सबसे अधिक कष्टप्रद है।' इसी भावभूमि, विचार और संवेदना के तहत दुष्यन्त का परवर्ती लेखन निरंतर निखरता रहा एवं अधिक समृद्ध होता गया। अपने पहले कविता संग्रह 'सूर्य का स्वागत' से लेकर 'आवाज़ों के घेरे', 'जलते हुए वन का वसंत' और ग़ज़ल संग्रह 'साये में धूप' तक उनकी काव्य-प्रतिभा और प्रखरता लगातार परवान चढ़ती रही। उनका  काव्य-नाटक 'एक कंठ विषपायी' और दो उपन्यास 'छोटे छोटे सवाल' तथा 'आँगन में एक वृक्ष' भी इस दृष्टि से कम महत्त्वपूर्ण नहीं हैं। दुष्यंत कुमार ने अपनी अधिकांश  लोकप्रिय गज़लें अंतिम समय में ही लिखीं। कहते हैं कि बुझते दिए की लौ तेज़ होती है। इन्हीं ग़ज़लों की वजह से दुष्यंत ने साहित्य में एक मुकम्मिल जगह बना ली। उनकी अंतिम समय की लिखीं ग़जलें न केवल बेइंतिहा लोकप्रिय हुई अपितु इन ग़ज़लों को एक जड़ व्यवस्था का तीव्र विरोध भी सहना पड़ा। व्यवस्थावादी लोगों ने कहा कि हिंदी में ग़ज़ल कोई विधा ही नहीं है। यह बहुत हल्की चीज़ है और साहित्य में इसका कोई महत्त्वपूर्ण स्थान भी नहीं। अब इसकी वजह क्या रही यह पता कर पाना बहुत मुश्किल काम नहीं। दरअसल दुष्यंत की ग़ज़लें एक पैनी सामाजिक और राजनैतिक चेतना की बेमिसाल नमूना थीं। वह इतनी संवेदनात्मक थीं कि लोगों पर अपना गहरा प्रभाव छोड़े बिना नहीं रहती थीं। अत: संवेदन-हीन और रूढ़ व्यवस्था के पक्षधरों द्वारा उनका विरोध होना स्वाभाविक ही था। इस से पहले न तो कभी ग़ज़ल को साहित्य की विधा मानने से इन्कार किया गया न ही उसे हल्की चीज़ माना गया। सत्तर के दशक के में दुष्यंत कुमार ने 'ग़ज़ल' को एक नई ज़िन्दगी दी। दिल को छूने वाले सामाजिक यथार्थ को अभिव्यक्त करने में दुष्यंत की भाषा एवं शैली ने जादू-सा कर दिया।'4

यह सही है कि हिंदी के सर्वप्रथम स्थापित ग़ज़लकार दुष्यंत की ग़ज़लों में व्याकरण-संबधी कुछ दोष अवश्य हैं, फिर भी दुष्यंत के महत्व और महानता में कोई कमी नहीं आ सकती। ग़ज़ल के प्रारंभिक दौर में वह न होते, कोई और होता, तब भी इस तरह के दोष का रह जाना संभव था, क्योंकि तब तक न तो हिंदीभाषी ग़ज़ल की संस्कृति से पूरी तरह जुड़ पाए थे, न उन्हें ग़ज़ल की परिपूर्ण जानकारी ही थी। ऐसी स्थिति में दुष्यंत ने जो कार्य कर दिखाया, वह महत्वपूण है। यद्यपि आज भी हिंदी-ग़ज़लकारों को ग़ज़ल की विधागत जानकारी संतोषजनक मात्रा में नहीं है, फिर भी कई ग़ज़लकार ऐसे हैं, जिन्होंने ग़ज़ल को बड़ी हद तक समझा है और वे अच्छी ग़ज़लें कह रहे हैं। लेकिन प्रेरणा का सबसे बड़ा और सबसे पहला स्रोत दुष्यंत की आवाज़ और उनका लहजा ही है। उनके ग़ज़ल-संग्रह साये में धूपके अब तक कितने ही संस्करण छप चुके हैं। आज भी ग़ज़ल-प्रेमियों को दुष्यंत के जितने अशआरकंठस्थ हैं, शायद ही किसी दूसरे ग़ज़लकार के हों। इसका कारण है कि दुष्यंत की आवाज़, उनके लहजे और अंदाज़ में जो नयापन तथा आकर्षण है, उसमें जो प्रभाव और तेवर है, वह किसी और में उतना नहीं है।5

मुख्य पाठ

रचनाएं

इन्होंने 'एक कंठ विषपायी' (काव्य नाटक), 'और मसीहा मर गया' (नाटक), 'सूर्य का स्वागत', 'आवाज़ों के घेरे', 'जलते हुए वन का बसंत', 'छोटे-छोटे सवाल' (उपन्यास), 'आँगन में एक वृक्ष, (उपन्यास), 'दुहरी जिंदगी' (उपन्यास), मन के कोण (लघुकथाएँ), साये में धूप (गजल) और दूसरी गद्य तथा कविता की किताबों का सृजन किया।

प्रमुख कविताएँ

'कहाँ तो तय था', 'कैसे मंजर', 'खंडहर बचे हुए हैं', 'जो शहतीर है', 'ज़िंदगानी का कोई', 'मकसद', 'मुक्तक', 'आज सड़कों पर लिखे हैं', 'मत कहो, आकाश में', 'धूप के पाँव', 'गुच्छे भर', 'अमलतास', 'सूर्य का स्वागत', 'आवाजों के घेरे', 'जलते हुए वन का वसन्त', 'आज सड़कों पर', 'आग जलती रहे', 'एक आशीर्वाद', 'आग जलनी चाहिए', 'मापदण्ड बदलो', 'कहीं पे धूप की चादर', 'बाढ़ की संभावनाएँ', 'इस नदी की धार में', 'हो गई है पीर पर्वत-सी'। दुष्यंत कुमार का वर्ष 1975 में निधन हो गया था और उसी साल उन्होंने यह पत्र अमिताभ को लिखा था। यह दुर्लभ पत्र हाल ही में उनकी पत्नी राजेश्वरी त्यागी ने उन्हीं के नाम से स्थापित संग्रहालय को हाल ही में सौंपा है। दुष्यंत कुमार और अमिताभ के पिता डॉ. हरिवंशराय बच्चन में गहरा प्रेम था।

दुष्यंत कुमार का निधन 30 दिसम्बर सन 1975 में सिर्फ़ 42 वर्ष की अवस्था में हो गया। दुष्यंत ने केवल देश के आम आदमी से ही हाथ नहीं मिलाया उस आदमी की भाषा को भी अपनाया और उसी के द्वारा अपने दौर का दुख-दर्द गाया।

 

दुष्यंत कुमार कृत 'साये में धूप' की ग़ज़लों के प्रमुख उदाहरण-

(1)

भूख है तो सब्र कर रोटी नहीं तो क्या हुआ

आजकल दिल्ली में है ज़ेर--बहस ये मुदद्आ

मौत ने तो धर दबोचा एक चीते की तरह

ज़िंदगी ने जब छुआ तो फ़ासला रखकर छुआ

गिड़गिड़ाने का यहां कोई असर होता नही

पेट भरकर गालियां दो, आह भरकर बददुआ

क्या वज़ह है प्यास ज्यादा तेज़ लगती है यहाँ

लोग कहते हैं कि पहले इस जगह पर था कुँआ

आप दस्ताने पहनकर छू रहे हैं आग को

आप के भी ख़ून का रंग हो गया है साँवला

इस अंगीठी तक गली से कुछ हवा आने तो दो

जब तलक खिलते नहीं ये कोयले देंगे धुँआ

दोस्त, अपने मुल्क कि किस्मत पे रंजीदा न हो

उनके हाथों में है पिंजरा, उनके पिंजरे में सुआ

इस शहर मे वो कोई बारात हो या वारदात

अब किसी भी बात पर खुलती नहीं हैं खिड़कियाँ

(2)

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,

इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए

आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,

शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए

हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में,

हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,

मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,

हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए

(3)

इस नदी की धार से ठंडी हवा आती तो है

नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है

एक चिंगारी कहीं से ढूँढ लाओ दोस्तो

इस दिये में तेल से भीगी हुई बाती तो है

एक खँडहर के हृदय-सी,एक जंगली फूल-सी

आदमी की पीर गूँगी ही सही, गाती तो है

एक चादर साँझ ने सारे नगर पर डाल दी

यह अँधेरे की सड़क उस भोर तक जाती तो है

निर्वसन मैदान में लेटी हुई है जो नदी

पत्थरों से ओट में जा-जा के बतियाती तो है

दुख नहीं कोई कि अब उपलब्धियों के नाम पर

और कुछ हो या न हो, आकाश-सी छाती तो है

(4)

खँडहर बचे हुए हैं, इमारत नहीं रही

अच्छा हुआ कि सर पे कोई छत नहीं रही

कैसी मशालें ले के चले तीरगी में आप

जो रोशनी थी वो भी सलामत नहीं रही

हमने तमाम उम्र अकेले सफ़र किया

हम पर किसी ख़ुदा की इनायत नहीं रही

मेरे चमन में कोई नशेमन नहीं रहा

या यूँ कहो कि बर्क़ की दहशत नहीं रही

हमको पता नहीं था हमें अब पता चला

इस मुल्क में हमारी हक़ूमत नहीं रही

कुछ दोस्तों से वैसे मरासिम नहीं रहे

कुछ दुश्मनों से वैसी अदावत नहीं रही

हिम्मत से सच कहो तो बुरा मानते हैं लोग

रो-रो के बात कहने की आदत नहीं रही

सीने में ज़िन्दगी के अलामात हैं अभी

गो ज़िन्दगी की कोई ज़रूरत नहीं रही

(5)

आज सड़कों पर लिखे हैं सैंकड़ों नारे न देख

घर अँधेरा देख तू आकाश के तारे न देख

एक दरिया है यहाँ पर दूर तक फैला हुआ

आज अपने बाजुओं को देख पतवारें न देख

अब यक़ीनन ठोस है धरती हक़ीक़त की तरह

यह हक़ीक़त देख, लेकिन ख़ौफ़ के मारे न देख

वे सहारे भी नहीं अब जंग लड़नी है तुझे

कट चुके जो हाथ, उन हाथों में तलवारें न देख

दिल को बहला ले इजाज़त है मगर इतना न उड़

रोज़ सपने देख, लेकिन इस क़दर प्यारे न देख

ये धुँधलका है नज़र का,तू महज़ मायूस है

रोज़नों को देख,दीवारों में दीवारें न देख

राख, कितनी राख है चारों तरफ़ बिखरी हुई

राख में चिंगारियाँ ही देख, अँगारे न देख

स्वयं दुष्यंत कुमार के शब्दों में- …अगर ग़ज़ल के माध्यम से ग़ालिब अपनी निजी तकलीफ़ को इतना सार्वजनिक बना सकते हैं तो मेरी दुहरी तकलीफ़ (जो व्यक्तिगत भी है और सामाजिक भी) इस माध्यम के सहारे एक अपेक्षाकृत व्यापक पाठक वर्ग तक क्यों नहीं पहुँच सकती?

सामग्री और क्रियाविधि

वैज्ञानिक पद्धति को सुनिश्चित करता हुआ यह शोध अध्ययन साहित्यिक अनुसन्धान हेतु निर्धारित अनुसन्धान की प्रक्रिया का पालन करता है और साथ ही द्वितीयक तथ्यों के संकलन की सहायता से इसके मुख्य विचार को विकसित किया गया है। शोधपत्र का निष्कर्ष का आधार लेखक द्वारा साहित्य के पुनरावलोकन हेतु चुने गए शोधाध्ययन हैं।

निष्कर्ष

दुष्यंत कुमार हिंदी काव्य ग़ज़ल परंपरा में विशेष स्थान रखते हैं और जनवादी कवि माने जाते हैं। जनवादी कविता की समय-सीमा 1967–80 . के बीच मानी जाती है। जनवादी कविता को प्रगतिवादी कविता के अगले चरण के रूप में देखा जाता है। इसी दौर में देश में नक्सलवाद का उभार हुआ, पश्चिम बंगाल में वामपंथी सरकार बनी, जेपी का समाजवादी आंदोलन हुआ और इसी बीच देश ने आपातकाल भी झेला। अतः यह दौर देश के सामाजिक-राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में संक्रमण का काल था। इस दौर के कवियों ने अपने प्रगतिशील क्रांतिकारी विचारों के साथ संसदीय लोकतंत्र पर निशाना साधा, व्यक्तिगत स्वतंत्रता को महत्त्व दिया और वंचितों के पक्ष में लिखते हुए उन्हें सामाजिक परिवर्तन के लिए मानसिक रूप से तैयार किया। धूमिल, मंगलेश डबराल, रघुवीर सहाय, दुष्यंत कुमार आदि इस दौर के प्रमुख कवि हैं।

'साये में धूप' दुष्यंत कुमार की ग़ज़लों का संग्रह है। इस क़िताब की लोकप्रियता का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि 1975 में प्रकाशित इस ग़ज़ल-संग्रह के मात्र 47 वर्षों में 73 संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। इस क़िताब में दुष्यंत कुमार की 52 ग़ज़लों का संग्रह है। इनकी भाषा हिंदुस्तानी है उर्दू और हिंदी मिश्रित। इन ग़ज़लों में कवि ने न केवल अपनी व्यक्तिगत अनुभूतियों को स्थान दिया है बल्कि सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था पर भी करारा प्रहार किया है। शानदार ग़ज़लों के साथ ही इस किताब में ग़ज़लों के प्रस्तुतीकरण का तरीका भी बेहद आकर्षक है।

सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
  1. अवस्थी, आर्य (2023). अनालाइज़िंग ह्यूमन कांशसनेस एंड इंडियन सेंसिबिलिटी थ्रू द वर्क्स ऑफ़ दुष्यंत कुमार. इंटरनेशनल जर्नल ऑफ़ मल्टीडिसिप्लिनरी रिसर्च इन साइंस, इंजीनियरिंग एंड टेक्नोलॉजी., 6(7):2106-2109.  
  2. दुष्यंत कुमार, साये में धूप: दुष्यंत कुमार की गजलों का संग्रह. राधाकृष्ण प्रकाशन., संस्करण 14 (2023). 
  3. गायकवाड, डॉ. सुचिता जगन्नाथ. दुष्यंत कुमार की गजल में सामाजिक चेतना. आयुषी इंटरनेशनल इंटरडिसिप्लिनरी रिसर्च जर्नल., V (I): 330-333. 
  4. चौहान, शैलेन्द्र (2013). साहित्य की अनवरत बहती लहर. अनहद कृति., 4.
  5. कुमार, अमन एवं कुमार, आलोक (2021). ग़ज़ल सम्राट दुष्यंत कुमार. शोधादर्श.