ISSN: 2456–4397 RNI No.  UPBIL/2016/68067 VOL.- IX , ISSUE- IX December  - 2024
Anthology The Research

शिक्षा, संस्कृति और सभ्यता में भारतीय कला का महत्व

Importance of Indian art in education, culture and civilization
Paper Id :  19522   Submission Date :  2024-12-04   Acceptance Date :  2024-12-21   Publication Date :  2024-12-25
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DOI:10.5281/zenodo.14584879
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रेखा गुप्ता
शोध निर्देशक
शिक्षा विभाग
रवीन्द्रनाथ टैगोर विश्वविद्यालय
रायसेन, मध्य प्रदेश, भारत
यशोदा जोशी
शोधार्थी
शिक्षा शास्त्र
रवीन्द्रनाथ टैगोर विश्वविद्यालय
रायसेन, मध्य प्रदेश, भारत
सारांश

हमारी शिक्षा संस्कृति और सभ्यता के लिए भारतीय कला एक महत्वपूर्ण अवयव है। भारतीय कला संस्कृति और सभ्यता के विकास के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। वर्तमान समय में शिक्षा में संस्कृतियों  को जीवित रखने के लिए कला की श्रेष्ठ भूमिका है। भारतीय कला के द्वारा मानव कल्पना शक्ति, आत्म शक्ति, चिंतन शक्ति, का विकास चरमोत्कर्ष  एवं परमानंद का अनुभव करती है। कहां जा सकता है कि देश की संस्कृति देश या जाति का मन है, और सभ्यता उसका तन है, हमारे देश को स्वस्थ रखने के लिए मन तथा तन को परस्पर एकता के भाव में जोड़ रखने के लिए कला अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है एवं परस्पर एकता के भाव उत्पन्न करने में भी बहुत साथ दे रही है। अतः हमें अपनी कलाओं द्वारा वर्तमान समय में शिक्षा में हमारे सभ्यता संस्कृति को बनाए रखने का प्रयास करना श्रेष्ठ है। हमारे संस्कृति के विकास के सामने संसार का कोई भी अन्य देश आध्यात्मिकता में अधिक श्रेष्ठ नहीं है। विद्यार्थी हमारे देश की कलाओं द्वारा अपनी सभ्यता एवं संस्कृति का अध्ययन करते हैं। यह अध्ययन चित्र शैलियों द्वारा एक कलात्मक और उत्कृष्ट कोटि का होता है।

सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Indian art is an important component of our education, culture and civilization. Indian art is playing an important role in the development of culture and civilization. In present times, art has an important role in keeping the cultures alive in education. Through Indian art, the development of human imagination, self-power, thinking power, reaches its peak and experiences bliss. It can be said that the culture of a country is the mind of a country or a race, and civilization is its body. To keep our country healthy, art is playing an important role in connecting the mind and body in a sense of unity and is also helping a lot in creating a sense of mutual unity. Therefore, it is best for us to try to maintain our civilization and culture in education in present times through our arts. In front of the development of our culture, no other country in the world is more superior in spirituality. Students study their civilization and culture through the arts of our country. This study is of an artistic and excellent level through painting styles.
मुख्य शब्द शिक्षा, संस्कृति, सभ्यता, भारतीय कला।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Education, Culture, Civilization, Indian Art.
प्रस्तावना

संस्कृति एवं कला

किसी भी देश की संस्कृति उसकी अपनी आत्मा होती है, जो उसकी सम्पूर्ण मासिक-निधि को सूचित करती है। यह किसी एक व्यक्ति के सुकृत्यों का परिणाम-मात्र नहीं होती है अपितु अनगिनत ज्ञात एवं अज्ञात व्यक्तियों के निरंतर चिन्तन एवं  दर्शन का परिणाम होती है। किसी भी देश की काया संस्कृति के आत्मिक बल पर ही जीवित रह पाती है।

मन, कर्म और वचन ये मानवीय व्यक्तित्व के तीन गुण हैं। इन्हीं तीनों गुणों के परिणामस्वरूप विभिन्न संरचनाएँ होती हैं । धर्म, दर्शन, साहित्य एवं अध्णत्य आदि, ये मन की सृष्टि हैं। ये सब रचनाएँ मानव-मन की संस्कृति का महत्वपूर्ण अंग है । सामाजिक और धार्मिक आन्दोलन आदि कर्ममयी-संस्कृति के पुष्प होते हैं। तीसरे गुण के अन्तर्गत भौतिक रचनाएं आती हैं। "कला" शब्द इन रचनाओं के लिए एक व्यापक संकेत है। इस प्रकार व्यापक दृष्टि से विचार करके देखा जाए तो धर्म, दर्शन, साहित्य, साधना, राष्ट्र और समाज की व्यवस्था, वैयक्तिक जीवन के नियम और आस्था, कला शिल्प, स्थापत्य, संगीत, नृत्य और सौन्दर्य, रचना के अनेक विधान तथा उपकरण आदि ये सब मानव संस्कृति के अन्तर्गत आ जाते हैं। इनकी समष्टि का नाम ही संस्कृति है। जो मानव की सुरुचिपूर्ण कृति है, वह सब उसकी संस्कृति है । संस्कृति की इस परिभाषा के अन्तर्गत् इस बात को ध्यान में रखना होगा कि जो बीते हुए युग का है, वही श्रेष्ठ है या जो नये युग का है, वही सर्वोपरि है। हर युग का अपना एक वर्तमान होता है, वही कुछ समय बाद भूतकाल बन जाता है। अतः नये पुराने में कोई तात्विक भेद नहीं है, इस सन्दर्भ में महान गुप्तकालीन कवि कालिदास की यह कहावत बड़ी सटीक है।

अध्ययन का उद्देश्य

प्रस्तुत शोधपत्र का उद्देश्य शिक्षा, संस्कृति और सभ्यता में भारतीय कला के महत्व का अध्ययन करना है

साहित्यावलोकन

प्रस्तुत शोधपत्र के लिए विभिन्न पुस्तकों जैसे डॉ शोभना शाह की ‘संगीत शिक्षण’, डॉ चित्रलेखा बोहरा एवं डॉ मोना सिंह की ‘शिक्षा में नाटक एवं कला’, रीता प्रताप की ‘भारतीय चित्रकला एवं मूर्तिकला का इतिहास’ और रीता चौहान की नाटक, कला और शिक्षा आदि का अध्ययन किया गया है 

मुख्य पाठ

(कोई वस्तु पुरानी हो जाने से ही अच्छी नहीं हो जाती, न कोई काव्य नया हो जाने से ही निन्दनीय हो जाता है। सत्पुरुष नए पुराने की परीक्षा करके दोनों में से जो गुणयुक्त होता है, उसको ग्रहण करते हैं। मृद की वृद्धि तो दूसरे के ज्ञान से ही संचालित होती है।) यदि कोई भी कलाकार, सर्जक या कला समीक्षक पुरातन के प्रति मोह व नूतन के प्रति अनास्था रखने वालों के वर्ग में आ गया तो वह न तो स्वतन्त्र सृजन कर सकता है और  न ही स्वतन्त्र एवं निष्पक्ष समीक्षा प्रस्तुत कर सकेगा। इस सन्दर्भ में औचित्य के अनदेखा होने से यह सम्भव है कि वह या तो गुप्तकालीन कला का प्रबल पक्षधर होगा या विरोधी अथवा आधुनिक काल के जामिनी राय या गगनेन्द्र सरीखे कलाकारों के प्रति सम्मोहन या उपेक्षा का रुख रखेगा। लेकिन साहित्य, कला या संस्कृति के किसी पक्ष को समझने के लिए इस प्रकार के ऊहापोह से उबर कर तथा धैर्यपूर्वक समझकर ही यह किनारे तक आ सकता है। अतएव बुद्धिमत्ता इसमें है कि अतीत के गुणों को लेकर नवीन उत्साह से वर्तमान जीवन का निर्माण भविष्य के विकास हेतु किया जावे। इस प्रकार संस्कृति और जीवन का समन्वित तथा सम्पन्न रूप प्राप्त किया जा सकता है। आगामी पृष्ठों में भारतीय कला की चारू चित्र-शैलियों के उन्नयन एवं विकास-क्रम की समीक्षा में इसी भावना को लेकर चलने का प्रयास किया जाएगा, यथा अमभ्रंश (जैन) चित्र शैली मात्र विकृत नहीं बल्कि मध्यकालीन भारतीय चित्र-परिपाटी को एक नया आयाम देने वाली सशक्त शैली के रूप में समझी जानी चाहिए। इसी प्रकार भारत जैसे गरीब देश में कलादीर्घाओं और फैलते कैन्वास के आर्थिक तन्त्र की काली छाया से भयभीत गाँव और नगर के अनेक कलाकार आधुनिकता के इस मुखौटे से घृणा करने लगे हैं। पश्चिम के मुल्कों के इस कैन्वास और कोलाज की ओलम्पिक दौड़ में हम नहीं दौड़ सकते हैं। अतः निश्चय ही भारत के जन-मानस में उभरती ग्रामीण प्रतिभाओं को भारतीय सस्कृति के मूल मन्त्र से पुनः जोड़ा जाना चाहिये । भारत की उपेक्षित लोक कला इस उद्देश्य की प्राप्ति में सराहनीय सहयोग दे सकती है। देश की कला अकादमियों में बैठे हुए व्यक्ति कब यह दिशा-निर्देश दे सकेंगे !

सभ्यता और कला

हमने देखा है कि कला संस्कृति का एक महत्व- पूर्ण अवयव है, जो मानव-मन को परिष्कृत एवं अलंकृत करता है। भारतीय दर्शन, साहित्य तथा धार्मिक मान्यताओं आदि की अभिव्यक्ति कला में विशेषतया चाक्षुष कला में देखी व संस्कृति यदि किसी देश अनुभव की जा या जाति का सकती है। मन है, तो सभ्यता उसका तन है। देश को स्वस्थ रखने के लिये मन तथा तन में परस्पर ऐक्य और एक सूत्रता आवश्यक है। संक्षेप में संस्कृति और सभ्यता के इस परस्पर ऐक्य-सम्बन्ध के कारण उत्कृष्ट संस्कृति के लोग अपनी सभ्यता के द्वारा अपने सात्विक गुणों का परिचय देते हैं। इस प्रकार सभ्यता से हमारा तात्पर्य उन सब व्यवस्थाओं एवं विधि प्रविधियों से है, जो मनुष्य ने अपने जीवन के आत्मिक अनुभवों एवं दिशाओं को नियन्त्रित और विकसित करने के प्रयत्न में निर्मित की हैं। अतः सभ्यता, कुशलता, गतिशीलता, व्यापकता तथा देश अथवा जाति के बन्धनों से मुक्त होकर प्रवाहित होती है। इस प्रकार सभ्यता संस्कृति की वाहक अभिव्यक्ति के रूप में समर्पित होकर संस्कृति की जड़ों को पुष्ट करती है।

इस प्रकार हमारे रहन-सहन के पीछे जो हमारी मानसिक व आत्मिक प्रवृत्ति है, जिसका उद्देश्य हमारे अपने जीवन को परिष्कृत, शुद्ध और पवित्र बनाना है तथा अपने आध्यात्मिक लक्ष्य की प्राप्ति करना है, वही संस्कृति है। इसी रहन-सहन के पीछे भौतिक सुख की उपलब्धि एवं प्रयत्न सभ्यता है। कला के मनन एवं विवेचन से आध्यात्मिक सुख प्राप्त होता है, पर यदि उसे प्रविधि के सुफल द्वारा विकसित किया जाता है तो वह लालित्य और सृजन की एक नूतन प्रेरणा कलाकार को देती है। कागज के अविष्कार के साथ चित्रकला एवं साहित्य का सभी स्तरों पर विकास हुआ । छपाई की उन्नत व्यवस्था एवं प्रतिमानों ने भी इस ओर सहयोग दिया है। इसी कारण से अब भित्तिचित्र एवं पट चित्रों का प्रचलन कम होता जा रहा है और मशीनी चित्रघरों की शोभा बढ़ा रहे हैं। बहुत ही कम ऐसे व्यक्ति जो सभ्यता के साथ विकसित यांत्रिक साधनों का प्रयोग संस्कृति के उचित स्थापन एवं प्रसार में लग रहे हैं। केनवास व रंगों के निर्माण में नई नूतन प्रविधियाँ हमारी कक्षा को नये रूप एवं आयाम प्रदान कर रही है। इस प्रकार कला, संस्कृति का अक्षुण्ण सूत्र होते हुए भी अपने बाह्य योवन के लिये सभ्यता के सबल पर गतिमान रहती है।

कला का उद्देश्य

भारतीय संस्कृति पुरातनता, धर्मपरकता, आध्यात्मिकता, दार्शनिकता, देव-परायणता, एकीकरण और समन्वय, अविच्छिन्नता, र्वजनहिताय एवं सर्वजन सुखाय के भौतिक सूत्रों में घिरी हुई एक मुक्ता-माला के समान है। भारतीय कला भी संस्कृति के इन्हीं आदर्शो का साकार रूप है। भारतीय कला ने किसी भी युग एवं स्थान पर कोई भी शैली एवं प्रविधि का अभ्यूदय एवं विकास किया हो, पर उसने संस्कृति के इन मूल तत्वों को स्वाहा नहीं होने दिया। प्रागैतिहासिक, अजन्ता, अपभ्रंश, मुगल, राजपूत एवं स्वतन्त्रता आन्दोलन के समय की राष्ट्रीय कलाओं में विभिन्न रूप एवं शैलियों का दिग्दर्शन होता है, पर समन्वय, अध्यात्मिकता एवं लोक हित की कहीं भी बलि नहीं दी गई।

कला केवल दुःखों से छुटकारा ही नहीं देती बल्कि शक्ति भी देती है। उच्च्छृंखलता के बदले आत्म संयमपूर्वक दबी भावनाओं के अभिव्यक्तिकरण में सम्बल बनती है। वह उसे बराबर उत्साह और स्फूति देती रहती है। कला परमात्मा का ओजपूर्ण और आनन्ददायक आत्मप्रदर्शन करने का माध्यम है। इसलिये वह वास्तव में पीड़ित आत्मा और समाज के लिये शान्तिदायक और कष्ट निवारक एक आनन्दप्रद औषधि है। इसी से भारत का यह दावा है कि संसार का कोई भी अन्य देश आध्यात्मिक क्षेत्र में उससे अधिक योगदान नहीं कर सका है और पीड़ित जगत के लिए इससे अधिक आवश्यक सन्देश भी दूसरा नहीं है। यही हमारा मूल उद्देश्य होना चाहिये। इस सन्दर्भ में यह ठीक ही कहा गया है कि कलाविहीन सम्पन्न व्यक्ति भी पशु के समान ही होता है।

कला का स्वरूप

"कलांति ददातीति कला" अर्थात् सौन्दर्य की अभिव्यक्ति द्वारा सुख प्रदान करने वाली वस्तु का नाम कला है। अनुभूत सौन्दर्य के जिस पुनर्विधान से हमारी आत्मा का विकास हो, हमारे मन का रंजन हो, हमारी चेतना सजीव हो, वही ललित कला के नाम से अभिहित की जा सकती है (जन रंजन सज्जन प्रिय एहा गोस्वामी तुलसी- दास)। चाक्षुष प्रकार होने से उसमें रूप का निर्माण एक अनिवार्यतः तत्व है। द्वि-आयामी तल के अन्तराल में रूप, रंग और रेखाओं की त्रिवेणी सौन्दर्य प्रधान संयोजन को जन्म देती है तभी कला का निर्माण व उसके स्वरूप की सीमाएँ निश्चित होती हैं। कलाकार त्रिवेणी को अन्तराल की पर्वतीय श्रृंखलाओं से निकालकर किस प्रकार और कैसा मनोहारी स्वच्छ और स्वछन्द स्वरूप प्रदान करता है। यह उसकी भूत के प्रति आस्था और भविष्य के प्रति मौलिक देन पर निर्भर करता है। यदि किसी कलाकार का अरूप के प्रति ही लगाव है तो उसकी सार्थकता देश काल के सन्दर्भ में होनी चाहिये, केवल विदेशी रीतियों के अन्धानुकरण में नहीं। इस सन्दर्भ में भूत और वर्तमान के मध्य तार्किक विस्तार का शमन करने वाले कवि कालिदास ने कहा है कि रूप पापवृत्ति को बढ़ाने वाला नहीं होना चाहिये-न रूपं पापवृत्तये (कुमारसंभव) पाप के संस्पर्श से रूप ढल जाता है, मुरझा जाता है, अतः रूप के साथ सम्यक् अर्थ की प्राप्ति ही कला के सच्चे स्वरूप का निर्माण करने में अप्रतिम सहयोग देती है। सुगन्धहीन सुन्दर फूल तिरस्कार ही पाता है।

कला-विस्तार एवं विद्यार्थी

भारतीय कला उस निःस्सीम सागर की भाँति है, जिसके ओर-छोर तथा गहराई का सहज अनुमान नहीं हो पाता है। मानव ने प्रारम्भ से ही व्यावहारिक सजगता के साथ चित्रों के उदाहरण छोड़े हैं और मध्य प्रदेश की आदिम कन्दराओं में हमें उस बर्बर पर सुसंस्कृत और सुबलंकृत होने की लालसा ले अनुगामी मानव के, अनेक रेखीय-चिन्ह तथा अस्त्र शस्त्रों के सौन्दर्य प्रधान रूप हमें आज आश्चर्य चकित करते हैं। तभी से मानव का कलात्मक विकास एवं सस्कृति अनुराग फीका नहीं पड़ा बल्कि समय व चेतना के साथ वह अनेक महान रूपों का निर्माण कर सका। जिनके दर्शन मात्र से ही आधुनिक मानव संत्रास और भय के वातावरण से मुक्ति प्राप्त करता है, स्वस्तिक चिह्न इसी का प्रबल प्रयात है। आगे दिन चगार, बनास, चम्बल, सरस्वती, सिन्ध, कृष्णा आदि नदियों के ऑवल में छिपी निधि के किन्हीं भी अवशेषों का अकस्मात् दर्शन हो जाता है। इस प्रकार की कहानी की सत्यता उत्तर भारत के प्रमुख कलाकेन्द्र मथुरा के अनगिनत टीलों में से यकायक प्रकट होने वाली मूर्तियों के साक्ष्य से भी सिद्ध होती हैं। प्रागैतिहासिक चित्र-निधियों के पश्चात् कुषाणकाल तक बिवकता का कोई सशक्त उदाहरण नहीं मिलता है। केवल मूतियों में प्रतिबिम्बित कलाकार की कल्पना और उत्कृष्टता के आधार पर ही तत्कालीन चित्रकला का अनुमान लगाया जा सकता है या फिर संस्कृत साहित्य में चित्रकला सम्बन्धी उपलब्ध सन्दर्भ तत्कालीन कलाओ की परिष्कृति का प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। अजन्ता, ऐलोरा, सित्तनवासल, बाघ, जैन, पूर्व-राज स्वानी, मुगल, राजपूत, पहाड़ी, कम्पनी, पुनर्जागरण आदि चित्र शैलियों ने भारत में फैले अनेक केन्द्रों और ठिकानों पर विभिन्न दुर्गो में से एक ऐती सम्बन्धित चित्र- कला के स्वरूप का निर्माण किया है, जो भारतीय संस्कृति के पूर्व अनुरूप है। सहस्रों वर्षों के बीच फैले इस कला- विस्तार ने संस्कृति और सभ्यता के अनेक अवयवों को अपने में संस्कारित किया है और बीते हुए महान युगों के जन-जीवन के प्रतिनिधि के रूप में आज भी जीवित है। अब प्रश्न उठता है कि कला के विद्यार्थी चित्र के ऐतिहासिक, राजनैतिक, समाजशात्रीय दर्शनशास्त्रीय किस पक्ष का अध्ययन करें? क्या वे चित्रों के माध्यम से सांस्कृतिक मूल्यों का ध्ययन करें यह अभी भी बहुत से क्षेत्रों में चर्चा का विषय बना है। वास्तव में किसी भी विद्यार्थी को समय रूप में सभी पक्षों के ध्ययन की आवश्यकता होती है लेकिन विषय विशेष वाले विद्यार्थी को अपने विषय के लक्ष्य का विस्मरण नहीं करना चाहिये, यथा-समाज शास्त्र का विद्यार्थी कला-चित्रों में तत्कालीन युग की रहन-सहन प्रणाली, भवन-विशेष, परम्पराएं व सामाजिक मान्यताएं तथा त्यौहारों के रूपों दि विभिन्न पक्षों का अध्ययन करता है। इतिहासकार एवं पुरातत्ववेत्ता उसके काल निर्धारण प्राचीन युग निशेष में कला-निवेश आदि की समस्याओं का महज अध्ययन करता है। कला- विद्यार्थी एक शैली-विशेष में निर्मित रूप-रंग, संयोजन, विषय की विविधता, निर्माण-प्रविधि आदि समस्याओं के प्रति जागरूक रहता है। उस काल-विशेष में पगड़ी कैसी थी, भवन कैसे ये, किस राजा या कथा का चित्रण हुआ है, इसकी उसको कम चिन्ता रहती है। इस प्रकार से एक कला-विद्यार्थी के लिये किसी भी चित्रशैली में जन्मे रूप और उनके विन्यास-क्रम का अध्ययन विशेष महत्व का होता है। इस प्रकार के अध्ययन की आवश्यकता आज के कला समीक्षक, कला-इतिहासकार, कला-अध्यापक और विद्यार्थी अधिक सजग रूप से समझ रहे हैं और ऐसे अध्ययन की ओर अग्रसर है। इस सन्दर्भ में शैली के अर्थ एवं उसकी उपादेयता को भी समझ लेना उचित है। तत्पश्चात् विभिन्न युगों में पनपी चित्र शैलियों का एक कलात्मक अध्ययन किया जाएगा।

निष्कर्ष

उपरोक्त अध्ययन से स्पष्ट है कि कला संस्कृति का एक महत्वपूर्ण अवयव है, देश की संस्कृति  देश या जाति का मन  है, तो सभ्यता उसका तन है देश को स्वस्थ रखने के लिए मन तथा तन में परस्पर एकता के भाव होना चाहिए सभ्यता हमारे साथ भी गुणों का परिचय देती है‌। इसी प्रकार हम कह सकते हैं कि हमारी उत्कृष्ट संस्कृति हम लोगों की अपनी सभ्यता के द्वारा अपने सात्विक गुणो का परिचय देती है, और हमारे प्राचीनतम सभ्यताओं से तात्पर्य हमारी उस समय की सब व्यवस्थाओं एवं विधियों, प्रविधियां से है जो हमने आध्यात्मिक अनुभवों एवं दिशाओं को नियंत्रित करने और विकसित करने के प्रयत्न से उत्पन्न की है। प्राचीन समय से हमारी भारतीय संस्कृति का उद्देश्य दुखों से छुटकारा ही नहीं बल्कि शक्ति भी देना है। हमारी भारतीय संस्कृति के विकास के सामने संसार का कोई भी अन्य देश आध्यात्मिकता के क्षेत्र में हमारे  देश से अधिक योगदान नहीं कर सकता है। हमारे देश में जो विद्यार्थी  हमारी सभ्यता और संस्कृति से जो अध्ययन करते हैं वो चित्र - शैलियों का एक कलात्मक अध्ययन और अन्य देश की अपेक्षा उत्कृष्ट है।

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