P: ISSN No. 2321-290X RNI No.  UPBIL/2013/55327 VOL.- XII , ISSUE- IV December  - 2024
E: ISSN No. 2349-980X Shrinkhla Ek Shodhparak Vaicharik Patrika

सामाजिक न्याय के क्षेत्र में महात्मा गाँधी का योगदान

Contribution of Mahatma Gandhi in The Field of Social Justice
Paper Id :  19541   Submission Date :  2024-12-07   Acceptance Date :  2024-12-22   Publication Date :  2024-12-25
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DOI:10.5281/zenodo.14632669
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राम प्रताप यादव
पोस्ट डाक्टरल फेलो
इतिहास
इंडियन कौंसिल ऑफ़ हिस्टोरिकल रिसर्च
लखनऊ,नई दिल्ली, भारत
India
सारांश

सामाजिक न्याय का लक्ष्य विषमता को समाप्त करना है और समता की व्यवस्था को स्थापित करना है। स्वतंत्रता और बंधुता की तरह ही समता मानव का नैसर्गिक अधिकार है। भारतीय समाज सदियों से वर्णों, जातियों पर आधारित रहा है जिसके तहत कुछ जातियों को विशेषाधिकार दिया गया था। जाति व्यवस्था को समाप्त करने का एक मात्र रास्ता है सामाजिक न्याय की स्थापना। इस प्रस्थापना के पीछे यह तर्क दिया जाता है कि जाति व्यवस्था का निर्माण सामाजिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक अधिकारों को उपर के तीन वर्णों में केन्द्रित करने से हुआ है और जब ये अधिकार समाज के सभी वर्गों में विकेन्द्रित होंगे तो जाति व्यवस्था टूटेगी। अधिकारों के इस विकेन्द्रीकरण के लिए भारत के कई महापुरुषों ने आन्दोलन किये।

सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद The aim of social justice is to end inequality and establish a system of equality. Like freedom and fraternity, equality is a natural right of man. Indian society has been based on Varnas and castes for centuries under which some castes were given special privileges. The only way to end the caste system is the establishment of social justice. The argument behind this proposition is that the caste system was created by concentrating social, political and cultural rights in the above three Varnas and when these rights will be decentralized in all sections of the society, the caste system will break. Many great men of India agitated for this decentralization of rights. In the presented research paper, the contributions made by Gandhiji in the field of social justice have been highlighted.
मुख्य शब्द नैसर्गिक, सामाजिक न्याय, अछूतोद्वार, अस्पृश्यता, कल्याणार्थ, विकेन्द्रीकरण।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Natural, social justice, untouchability, untouchability, welfare, decentralization.
प्रस्तावना

सामाजिक न्याय एक समाज के भीतर धन, अवसरों और विशेषाधिकारों के वितरण के संदर्भ में न्याय है। सभी समाजों में औपचारिक और अनौपचारिक दोनों तरह की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक संस्थाओं की एक बुनियादी संरचना होती है। ‘‘सामाजिक न्याय’’ समाज की संस्थाओं में अधिकार और कर्तव्य प्रदान करता है, जो लोगों को सहयोग के बुनियादी लाभ और बोझ प्राप्त करने में सक्षम बनाता है।

अध्ययन का उद्देश्य
प्रस्तुत शोध पत्र में गांधी जी के द्वारा सामाजिक न्याय के क्षेत्र में किये गये योगदानों को रेखांकित किया गया है।
साहित्यावलोकन

सम्पूर्ण जीवनी महात्मा गाँधी - मॉक टाईम पब्लिकेशन, 2023

इस पुस्तक में गाँधी जी के जीवनी के साथ-साथ भारतीय स्वतंत्रता पर गाँधी का प्रभाव, नागरिक अधिकारों और सामाजिक न्याय आन्दोलनों पर गाँधी का प्रभाव आदि का विस्तृत विवेचना किया गया है तथा वर्तमान में गाँधी की प्रासंगिकता पर भी चिन्तन किया गया है।[31]

एक था डाक्टर, एक था संत - अरुंधती राय, राजकमल प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली-2021

वर्तमान भारत में असमानता को समझने और उससे निपटने के लिए राजनैतिक विकास और मोहन दास करमचन्द गाँधी के प्रभाव दोनों का ही परीक्षण इस पुस्तक में किया गया है। वर्तमान भारतीय राष्ट्र जो आज ब्रिटिश शासन से स्वतंत्र हैं, विश्व स्तर पर शक्तिशाली हैं, लेकिन जो जाति व्यवस्था में आकण्ठ डूबा हुआ है, इसका भी विश्लेषण किया गया है।[32]

गाँधी और अम्बेडकर - अमलेश राजू, डायमंड पाकेट बुक्स प्रा0 लिमिटेड, ओखला नई दिल्ली - 2022

सामाजिक परिवर्तन के दो मसीहा महात्मा गाँधी और अम्बेडकर हैं। सामाजिक परिवर्तन के आयाम पर गाँधी, अम्बेडकर के दृष्टिकोण और मिशन पर मुख्यतः तथ्य और विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है। इस पुस्तक में विभिन्न विद्वानों के गांधी और अम्बेडकर पर सारगर्भित लेख भी प्रकाशित किये गये हैं।[33]

मुख्य पाठ

महात्मा गांधी ने ऐसे सुधारकों से विशेषकर दो बातों को व्यावहारिक रुप देने के लिए कहा। प्रथम, प्रत्येक हिन्दू एक हरिजन को परिवार का सदस्य मानकर रखे, द्वितीय प्रत्येक धनवान हिन्दू एक हरिजन युवक या युवती को उच्च शिक्षा दिलाये जिससे उनके अन्दर चेतना आ सके।[1] महात्मा गांधी ने स्वयं एक हरिजन परिवार को अपने आश्रम में रखा और उस परिवार की लड़की को उन्होने अपनी बेटी के रुप में अपना लिया।[2]

न्याय व्यक्ति के सत् विवेक का दूसरा नाम है, न्याय की भावना सामाजिक संबंधों एवं व्यक्तिगत स्वार्थों के बीच संतुलन पैदा करती है एवं सामाजिक व्यवस्था को नैतिक आधार प्रदान कर उसे मजबूत बनाती है। न्याय वह शक्ति है जो समाज के विभिन्न वर्गों को आपस में संगठित करके एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था स्थापित करती है, जिसमें व्यक्ति उन सभी अधिकारों एवं सुविधाओं को प्राप्त कर सके जो विकास के लिए आवश्यक है।

सामाजिक न्याय का दर्शन सामाजिक सम्बन्धों की विवेचना करता है तथा सबके साथ मधुर संबंध स्थापित करने पर जोर देता है। सामाजिक न्याय एक न्यायपूर्ण सामाजिक व्यवस्था को सुरक्षित एवं विकसित करके लोगों के कल्याण को बढ़ावा देने की परिकल्पना करता है। यह एक ऐसी धारणा है जो मानव कल्याण से जुड़े कतिपय आदर्शों को विहित करती है क्योंकि इनका क्रियान्वयन समाज के कमजोर वर्गाे के हितों को संरक्षित करता है। इसमें मानव एवं समाज के बीच पाये जाने वाले सभी अन्यायपूर्ण असमानताओं को हटाया जाना शामिल है, जिससे सभी नागरिकों का जीवन उन्नत हो सके, परिणामतः प्रत्येक व्यक्ति अपनी क्षमता एवं येाग्यता के अनुसार राष्ट्र की शक्ति एवं ऐश्वर्य में सहभागिता कर सके। यह न केवल कमजोर वर्गों की भलाई करता है, अपितु सम्पन्न एवं मजबूत वर्ग के लोगों की सुधार व उन्नति करता है।

सामाजिक न्याय एक नवीन शब्द प्रतीत होता है। ‘‘आमतौर पर इसका ज्यादातर प्रयोग 19वीं शताब्दी से किया जा रहा है।’’[3] किन्तु इसका गहराई से अध्ययन करने पर पता चलता है कि सामाजिक न्याय की आवश्यकता अतीत की गलतियों के परिणाम स्वरुप हुई। इसकी जड़ें इतिहास में समाई हुई है, क्योंकि प्राचीन समाज, वर्ण व्यवस्था पर आधारित रहा जिसे तहत कुछ जातियों को विशेषाधिकार दिया गया था। जैसे ब्राह्मण को शिक्षा देने, क्षत्रिय को युद्ध व देश की रक्षा, वैश्य को उत्पादन तथा शुद्र को उक्त तीनों वर्ण के लोगों की सेवा करने का दायित्व सौंपा गया था। शुद्र को पढ़ने लिखने व पूंजी रखने एवं अन्य पाबन्दी लगाकर उसको अपराध की श्रेणी में डाल दिया गया था, जिसके परिणामस्वरुप इनकी हालात दिन प्रतिदिन बदतर होती गयी, जिससे धीरे-धीरे ये समाज के हाशिए पर आ गये। अतः इन शोषित, दलित, दमित वर्गों को समाज के अन्य वर्ग के लोगों के बराबर लाने के लिए सामाजिक न्याय की आवश्यकता महसूस हुई, क्योंकि इसके अलावा अन्य कोई ऐसा हथियार नहीं है जो इन लोगों को समानता दिला सके। ‘‘सामाजिक न्याय शब्द में न्याय की सर्वोच्चता है जो मानव जीवन और सामाजिक व्यवस्था की आधारशिला भी है। यह मानव प्रकृति का वह पक्ष है जिसके आधार पर मनुष्य को नैतिक व सदाचारी प्राणी माना जाता है।[4]

अगस्त, 1932 में ब्रिटिश प्रधानमंत्री मैकडोनाल्ड ने साम्प्रदायिक मामले में जो निर्णय दिया, उसमें हरिजनों के लिए भी अलग से निर्वाचक मण्डल बनाने की बात कही गयी। वास्तव में यह दलित वर्ग को शेष हिन्दू समाज से अलग करने का प्रयास था। यरवदा जेल में रहते हुए गांधी जी ने इस निर्णय का कड़ा विरोध किया। उनका कहना था कि हरिजनों की राजनीतिक समस्यायें, हिन्दुओं की राजनीतिक समस्या से भिन्न नहीं है। उन्हें अलग समुदाय बनाने की आवश्यकता नहीं है। उन्होने मांग की कि दलित वर्ग के प्रतिनिधियों का चुनाव वयस्क मताधिकार के आधार पर आम निर्वाचन मण्डल द्वारा होना चाहिए। अपनी मांग को पूरा किये जाने के लिए 20 सितम्बर 1932 में आमरण अनशन पर बैठ गये। अन्ततः विभिन्न राजनीतिक विचारधारा के नेताओं के मध्य 25 सितम्बर, 1932 को पूना समझौता हआ जिसमें दलित वर्ग के लिए पृथक निर्वाचन मण्डल के स्थान पर सुरक्षित सीट एवं आम निर्वाचन मण्डल का प्राविधान किया गया और उनके लिये प्रान्तीय विधान मण्डलों में सुरक्षित सीटों की संख्या 71 से बढ़ाकर 147 कर दी गयी।[5]

सामाजिक न्याय की सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक क्षेत्रोे में स्थापित करना विभिन्न प्रकार के विद्वानों का उद्देश्य रहा हैं अरस्तु ने आर्थिक असमानता को अनुचित बताकर सामाजिक न्याय को समानता हेतु उचित माना था। चौथी ईशा पूर्व देखने को मिलता है, जब कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी आर्थिक व सामाजिक दायित्वों के बारे में कहा गया है कि ‘‘राजा अनाथों, असहायों, अपंगों इत्यादि को निर्वाह के लिए साधन प्रदान करेगा, स्त्रियों, बच्चों व बीमारों को सुविधा प्रदान करायेगा और आर्थिक व्यवस्था का गठन इस प्रकार करेगा कि नागरिकों को न्याय प्रदान किया जा सके।’’ सामाजिक न्याय सबको एक समान मानता है। जो भेदभाव से परे है। ‘‘समाज में रहने वाले सभी व्यक्ति समान हैं और धर्म, जाति, रंग, वंश आदि के आधार पर उन्हें असमान नही ंमाना जाना चाहिए।’’[6]

अगले एक वर्ष को गांधी जी ने पूर्णतया अछूतोद्वार में लगाया। 7 नवम्बर 1933 को वर्धा से गांधी जी ने अपनी हरिजन यात्रा प्रारम्भ की और आगे 29 जुलाई 1934 के मध्य 9 महीने में उन्होने देश में लगभग 12500 मील की यात्रा की। इस बीच में इन यात्राओं के दौरान उन्होने सभी व्यक्तियों से हरिजनों के कल्याणार्थ हरिजन कोश में धन दान देने की भी अपील की। इन यात्राओं से अस्पृश्यता निवारण को व्यापक समर्थन मिला। यद्यपि इस बीच अनेक स्थान पर गांधी जी को कट्टरपंथियों और सामाजिक प्रतिक्रियावादियों के विरोध का भी सामना करना पड़ा। गांधी जी को कई स्थानों पर काले झण्डे दिखाये गये। अपै्रल और जुलाई, 1934 में बक्सर, जसीडीह और अजमेर में सनातनियों ने हरिजन सभाओं में उत्पात मचाया। प्रतिक्रियावादियों ने गांधी जी के पुतले जलाये और 25 जून को पूना में उनकी कार को लक्ष्य कर बम भी फेंका गया।[7] किन्तु गांधी जी अपने मार्ग से विमुख नहीं हुये।

महात्मा गांधी ने समाज में अस्पृश्य समझे जाने वाले, अन्त्यज लोगों के लिए हरिजन शब्द का प्रयोग किया। जो कालान्तर में बहुत ही लोकप्रिय हुआ। उन्होने स्वयं कहा कि ऐसा मैं अपने मित्रों के कहने पर कर रहा हूं और यह शब्द मुझसे पूर्व नरसी मेहता एवं अन्य संतों ने किया है।[8] गांधी ने स्वयं कहा, ‘‘मैं तो मन, वचन और कर्म से अपने को हरिजन मानता हूं।’’[9]

1932 में हरिजनों के कल्याण के लिए महात्मा गांधी ने ‘‘हरिजन सेवक संघ’’ नामक संस्था की स्थापना की। आज भी यह संस्था अपना कार्य कर रही है। इसमें विशेषकर राजनीतिक आन्दोलन से दूर रहने वाले वे लोग सम्मिलित थे जो मानव कल्याण की दृष्टि से अस्पृश्यता के विरोधी थे। घनश्याम दास बिड़ला को इस संघ का अध्यक्ष एवं अमृत लाल ठक्कर (ठक्कर बापा) को प्रधानमंत्री बनाया गया। महात्मा गांधी ने साबरमती आश्रम हरिजन सेवक संघ को दे दिया और सितम्बर, 1933 में वर्धा चले गये।[10]

हरिजन सेवक संघ के कर्तव्यों में, हरिजन सेवक में हरिजनों से कुटुम्ब समान सच्चे स्नेह, शरीर एवं मन पर चोट सहन करने का धैर्य व साहस, अपने शरीर की रक्षा मात्र भोजन पर निर्वाह कर सकने का सामर्थ्य होना चाहिए।[11]

गांधी जी ने अस्पृश्यता विरोधी आन्दोलन का प्रचार करने के लिए फरवरी 1933 से ‘‘हरिजन’’ नामक अंग्रेजी साप्ताहिक पत्र निकालना प्रारम्भ किया जिसमें वे हरिजनों की मानवता विरोधी एवं लज्जाजनक स्थिति का वर्णन तथा कट्टरपंथी हिन्दुओं के तर्कोें का खण्डन करते थे।[12] शीघ्र ही ‘‘हरिजन सेवक’’ नामक हिन्दी साप्ताहिक पत्र एवं हरिजन बन्धु नामक गुजराती साप्ताहिक पत्र का भी प्रकाशन प्रारम्भ हो गया।[13]

हरिजन सेवक संघ की एक इकाई ‘‘हरिजन उद्योगशाला’’ की स्थापना दिल्ली में की गयी। जहां पर हरिजन नवयुवकों को स्वावलम्बी बनाने के लिए निःशुल्क व्यावहारिक प्रशिक्षण दिया जाता था।[14]

गांधी जी का विचार था कि हरिजनों को प्राथमिक शिक्षा अनियवार्य रुप से दिया जाये।[15] सरकार हरिजनों के पानी के लिये कुंए खुदवाये।16 उन्होने इस आन्दोलन का मुख्य उद्देश्य बताते हुए कहा कि प्रत्येक उच्च वर्ण को जो सामाजिक नागरिक एवं धार्मिक अधिकार मिले हैं, वे सभी हरिजनों को भी मिलने चाहिए।[17] गांधी जी के ही प्रयासों से कांग्रेस के करांची अधिवेशन में हरिजनों के समान अधिकार सम्बन्धी समविदा सम्मिलित हुआ। नलिनी पंडित के अनुसार इस घोषणा से सामाजिक न्याय का आग्रह किया गया।[18]

अस्पृश्यता निवारण के मार्ग में एक बहुत बड़ी बाधा मन्दिरों में हरिजनों के प्रवेश पर रोक थी। अम्बेडकर और समाजवादी नेता मन्दिर प्रवेश को वह प्राथमिकता नहीं देते थे जो गांधी जी देते थे। उनका कहना था कि हरिजनों की अन्य अयोग्यताओं को कम करने के बिना ही उनके मन्दिर प्रवेश के अधिकार से बढ़कर इनकी मनोदशा में परिवर्तन लाने वाली कोई अन्य बात नहीं हो सकती।[19] वास्तव में उनके मन्दिर प्रवेश करने से नहीं वरन उनके मन्दिर प्रवेश पर लगी रोक से धर्म का अपमान होता है।[20] मन्दिर में सभी वर्णों के लोग आपस में प्रेम, सेवा एवं सभ्यता की उपलब्धियों का आदान-प्रदान करते हैं, अछूत स्वभावतः इन सबसे वंचित रह जाते हैं।[21]

गांधी जी मानते थे मन्दिरों में शूद्रो के प्रवेश से रोक हट जाये और अस्पृश्य माने जाने वाले लोग मन्दिरों में जाने लगे तो उसके साथ ही इस भ्रम का अन्त हो जायेगा कि इस कुप्रथा को धार्मिक मान्यता प्राप्त है और इससे जुड़ा कलंक मिट जायेगा।[22] मन्दिर प्रवेश एक ऐसा आध्यात्मिक कार्य है जो अस्पृश्यों के लिए आजादी का संदेश होगा। उन्हें विश्वास हो जायेगा कि भगवान के सामने वह बहिष्कृत नही है। ........... मन्दिर उनके लिए खुल जाये तब भी वे उनमें जायें या न जायें, सवर्ण हिन्दुओं का तो परम कर्तव्य है ही कि उनके लिए मन्दिर प्रवेश पर लगी राक को हटवाकर ही दम लें।[23]

मन्दिर प्रवेश की दिशा में काम होने लगा। इलाहाबाद, बनारस, कलकत्ता और देशी रियासतों के कई नगरों में अछूतों के लिए कई मन्दिर खोल दिये गये।[24] गांधी जी ने स्वयं निर्णय किया कि वे उन मन्दिरों में नहीं जायेंगे जिनमें अस्पृश्याकं के प्रवेश पर रोक लगी रहेगी।[25]

1937 में जिन प्रान्तों में कांग्रेस विजयी हुई वहां अस्पृश्योे के लिए मन्दिर प्रवेश सम्बन्धी कानून बने। ये कानून ही भारतीय संविधान में अस्पृश्यता निवारण के प्राविधानों की पृष्ठभूमि बने।[26]

महात्मा गांधी ने हरिजन कार्यकर्ताओं को भी स्वयं में सुधार लाने के लिए प्रेरित किया और कहा कि उन्हें स्वयं हरिजनों में स्वच्छता का प्रचार करने, हरिजनों के गन्दे माने जाने वाले कार्यों की सुधरी हुई पद्धति अपनाने, मांस त्याग न कर सके तो कम से कम मर्दार-मांस तथा गो-मांस का त्याग करने, अपने बच्चों को पाठशाला भेजने एवं माता-पिता को रात्रिकालीन पाठशालाओं में भेजने एवं हरिजनों में परस्पर छूआछूत को मिटाने का कार्य करना चाहिए।[27]

महात्मा गांधी ने कार्यकर्ताओं के समक्ष हरिजन बस्तियों को स्वच्छ रखने का व्यावहारिक कार्यक्रम रखा जो भंगी-मुक्ति आन्दोलन कहलाया। गांधी जी स्वयं दिल्ली में भंगी बस्ती में रहने का आग्रह करते थे। फलस्वरुप उनसे मिलने वालों को उन बस्तियों में जाना पड़ता था।[28]

हरिजनों के कल्याणार्थ जीवन की बाजी लगा देने के उपरान्त भी गांधी जी ने किसी भी पद पर जातिगत अथवा वर्गगत विशेषताओं की दुहाई देकर नियुक्ति होने की इच्छा की निन्दा की। उच्चतम पद पाने के लिए अपने को योग्य बनाने की गांधी जी उचित मानते थे और उसे प्रेरित किये जाने के पक्ष में थे।[29]

सामाजिक न्याय की संकल्पना सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक समानता की अवधारणाओं पर आधारित है। जिसमें बंधुत्व का समावेश होता है। कल्याणकारी एवं लोकतांत्रिक व्यवस्था को सुचारु रुप से चलाने के लिए सामाजिक न्याय की अत्यन्त आवश्यकता है। समाज के सभी लोगों की मूलभूत आवश्यकताओं रोटी, कपड़ा और मकान की पूर्ति हो, सबको विकास के समान अवसर मिले, व्यक्ति द्वारा व्यक्ति का शोषण रोका जाये, आर्थिक सत्ता का विकेन्द्रीयकरण को और समानता पर आधारित समाज में गरीबों, उपेक्षितों, शोषितों के लिए सामाजिक आर्थिक न्याय न केवल सुनिश्चित हो, अपितु उनका उत्थान तथा विकास सुनियोजित तरीके से हो, यह सामाजिक न्याय का मुख्य ध्येय रहा है।[30]

निष्कर्ष

अन्त में हम कह सकते है कि महात्मा गांधी ने सामाजिक न्याय के क्षेत्र में जो अनेकोनेक कार्य किया, उनमें अस्पृश्यता निवारण प्रमुख कार्यक्रम था। स्वतंत्रता के पश्चात संविधान निर्माताओं ने अस्पृश्यता-निवारण के लिए जो कानून बनाया, उसमें सभी दलित आन्दोलन का योगदान है तथापि महात्मा गांधी के अस्पृश्यता-निवारण आन्दोलन का सर्वाधिक योगदान है। गांधी जी ने उस वर्ग से सम्बन्धित न होते हुए भी उस वर्ग की पीड़ा को महसूस किया और शान्तिपूर्ण ढ़ंग से हरिजनों की वास्तविक भूख-आत्मसम्मान के साथ जीने, समान नागरिकता, मनुष्यवत् व्यवहार, भय से मुक्ति, समान शिक्षा, समान अवसर को संतुष्ट करने का क्रान्तिकारी कार्य कर दिखाया। यही कारण है कि महात्मा गांधी का यह आन्दोलन दूसरों की तुलना में अधिक सौम्य, प्रभावशाली एवं देशव्यापी रहा। सामाजिक न्याय जाति-व्यवस्था के ढ़ांचे को तोड़ सकता है। यह ढ़ाचा अब टूट भी रहा है। जरुरत है लोगों के मन को बदलने की। मन को बदलने का काम 19वीं सदी में दयानन्द और 20वीं सदी में गांधी जी ने किया।

सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
  1. महादेव भाई की डायरी, भाग 2, 5 नवम्बर 1932
  2. नवजीवन (हिन्दी, गुजराती), 2 जनवरी 1921, यह लड़की दूधा भाई की सुपुत्री लक्ष्मी थी। रामनाथ सुमन, पूर्व उद्धृत, पृ0 593
  3. डेविड मिलर, दी ब्लैक बेल इन साइक्लोपीडिया आफ फलिरिकल थार, न्यूयार्क, 1987 पृष्ठ 26
  4. उपरोक्त, पृष्ठ 60-61
  5. कृपलानी, पूर्व उद्धृत, पृ0 151-152, 157, सुमित सरकार, आधुनिक भारत (नई दिल्ली, 1991), पृ0 371-372, विपिन चन्द्र, भारत का स्वतंत्रता संघर्ष (दिल्ली 1990) पृ0 26-264
  6. ‘‘इन साइक्लोपीडिया आफ सोशल साइंस’’ भाग-15 पृष्ठ 131-133
  7. कृपलानी, पूर्व उद्धृत, पृ0 157-152, 158, सुमित सरकार, पूर्व उद्घृत, पृ0 372, विपिन चन्द्र, पूर्व उद्धृत, पृ0 265
  8. यंग इण्डिया, 6 अगस्त, 1931, ‘‘हरिजन’’ शब्द की प्राचीनता के सम्बन्ध के लिए द्रष्टव्य आर0डी0 पराड़कर (सम्पादक) मोरोपन्त ग्रन्थावली, हरिजन, हरिजन सेवक, 10 मार्च 1933
  9. हरिजन बन्धु, हरिजन सेवक, 24 मार्च 1946
  10. कृपलानी, पूर्व उद्धृत, पृ0 152, 157, 444
  11. हरिजन सेवक, 10 अगस्त 1934
  12. हरिजन, हरिजन सेवक, 17 मार्च 1933
  13. कृपलानी, पूर्व उद्ध्त, पृ0 153
  14. रामनाथ सुमन, पूर्व उद्धृत, पृ0 7
  15. दिल्ली हरिजन उद्योगशाला के दीक्षान्त समारोह पर दिये गये भाषण (27 जुलाई, 1930) का अंश, हरिजन: हरिजन सेवक, 5 अगस्त, 1939, हरिजन सेवक, 01 मार्च 1942
  16. हरिजन: हरिजन सेवक, 25 मई, 1934
  17. हरिजन, 15 सितम्बर 1946
  18. हरिजन सेवक, 3 अगस्त 1927
  19. नलिनी पंडित, पूर्व उद्धृत, पृ0 209
  20. कृपलानी, पूर्व उद्धृत, पृ0 154
  21. यंग इण्डिया, 14 जनवरी 1926
  22. वही, 29 दिसम्बर 1920
  23. कृपलानी, पूर्व उद्धृत, पृ0 415-416
  24. कृपलानी, पूर्व उद्धृत, पृ0 416
  25. वही, पृ0 152, 1936 में त्रावनकोर रियासत के राजा द्वारा इस सम्बन्ध में एक आदेश जारी हुआ। हिन्दू धर्म, नवजीवन प्रकाशन, पृ0 298 उद्घृत, नलिनी पंडित, पूर्व उद्घृत, पृ0 215
  26. कृपलानी पूर्व उद्धृत, पृ0 416
  27. नलिनी पंडित, पूर्व उद्धृत, पृ0 215
  28. महादेव भाई की डायरी, दूसरा भाग (नवजीवन संस्करण), 14 नवम्बर 1932
  29. हरिजन सेवक, 31 मार्च 1946, कृपलानी, पूर्व उद्धृत, पृ0 153-417
  30. हरिजन, 14 अपै्रल, 1946
  31. सम्पूर्ण जीवनी महात्मा गाँधी - मॉक टाईम पब्लिकेशन2023
  32. एक था डाक्टर, एक था संत - अरुंधती राय, राजकमल प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली-2021
  33. गाँधी और अम्बेडकर - अमलेश राजू, डायमंड पाकेट बुक्स प्रा0 लिमिटेड, ओखला नई दिल्ली - 2022