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भारतीय
ज्ञान परम्परा की महत्ता |
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Importance of Indian Knowledge Tradition | |||||||
Paper Id :
19565 Submission Date :
2024-12-02 Acceptance Date :
2024-12-21 Publication Date :
2024-12-25
This is an open-access research paper/article distributed under the terms of the Creative Commons Attribution 4.0 International, which permits unrestricted use, distribution, and reproduction in any medium, provided the original author and source are credited. DOI:10.5281/zenodo.14632659 For verification of this paper, please visit on
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सारांश |
लगभग 5000
वर्ष पहले से ही भारत मे लोकमंगल हितैषी ज्ञान परम्परा विद्यमान है। यह विश्व की
प्राचीनतम परंपराओं में से एक है। ऋग्वेद के ज्ञान सूक्त मे उल्लेख है ,"प्रारंभिक दशा में पदार्थों के नाम
रखे गए । यह ज्ञान का प्रथम चरण है । इनका दोषरहित ज्ञान पदार्थों का गुण ,धर्म आदि अनुभूति की गुफा में छिपा रहता है और
अंतःप्रेरणा के द्वारा प्रकट होता है। भारत को सदैव विश्व गुरु का दर्जा दिया गया
है। हमें यदि यह अप्रतिम अलंकरण प्राप्त है तो इसमें कोई संदेह नहीं कि वह हमारी
प्राचीन उन्नत, गौरवशाली
सभ्यता ,संस्कृति तथा
विज्ञान के कारण हैं। हमें हमारे प्राचीन संस्कारों व संस्कृति को पुनर्जीवित करके
यथार्थ जीवन में समाविष्ट करना होगा। देखिए पंच महायज्ञों का कितना सुंदर उदाहरण
इस श्लोक के माध्यम से किया गया है- अध्यापनं ब्रह्म यज्ञ
पितृयज्ञतू तर्पणं। होमो देवो बलिभूतो नृयज्ञो
अतिथिपूजनम्।। |
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | Since about 5000 years ago, the tradition of knowledge for the welfare of the people has been present in India. This is one of the oldest traditions of the world. It is mentioned in the knowledge hymn of Rigveda, "In the initial stage, the objects were named. This is the first stage of knowledge. Their flawless knowledge, the quality, nature etc. of the objects remains hidden in the cave of experience and is revealed through intuition. India has always been given the status of Vishwa Guru. If we have received this matchless decoration, then there is no doubt that it is due to our ancient advanced, glorious civilization, culture and science. We have to revive our ancient rituals and culture and incorporate them in real life. See how beautifully the example of Panch Mahayajnas has been given through this shloka- Adhyapanam Brahma Yajna Pitryajnatu Tarpanam. Homo Devo Balibhuto Nriyagya Atithi Poojan. |
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मुख्य शब्द | भारतीय, ज्ञान, परम्परा। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Indian, Knowledge, Tradition. | ||||||
प्रस्तावना | प्राचीन भारत
में दर्शन, भाषा विज्ञान, अनुष्ठान,
व्याकरण, खगोल विज्ञान, अर्थशास्त्र,
सांख्य विज्ञान, तर्कशास्त्र, जीवन विज्ञान, आयुर्वेद, ज्योतिष
एवं संगीत जैसे विभिन्न मानव कल्याणकारी क्षेत्रों में कीर्तिमान स्थापित कर मानव
जाति की उन्नति में योगदान दिया है। इतिहास अपने आप को बार-बार दोहराता है। इसी
कारण जो परिणाम एक प्रकार की घटना से निकलता है वहीं दूसरी घटना से भी निकलेगा, जो परिणाम अनेक घटनाओं से निकलता है वह अनुभव सिद्ध हो जाता है। सभी
घटनाओं को बार-बार दोहराने के स्थान पर एक विशेष महत्व की घटना को देकर एक सूत्र या
नियम निर्धारित कर देना पर्याप्त है। भारत में श्रुति, स्मृतियों
में ऐसे असंख्य सूत्र हैं। पुराणों में, इतिहास में वही सूत्र
कथा के रूप में बताए जाते हैं। उनमें उदाहरणों का भी अभाव नहीं होता। सर्ग, प्रतिसर्ग, वंश, मन्वंतर और
वंशानुचरितों द्वारा प्राचीन परंपरा को संकलित किया जाता है। यह संपूर्ण सृष्टि का
इतिहास है, जिसमें असंख्य राष्ट्रों का जन्म, यौवन, प्रौढ़ता, बुढ़ापा और
नाश होता रहता है। यह इतिहास इतने विशाल भूभाग का है जिसमें हजारों बार जल की जगह
स्थल और स्थल की जगह जल, बस्ती की जगह जंगल और जंगल की जगह बस्ती, आंशिक सृष्टि और आंशिक प्रलय होते रहते हैं। समुद्र सूखकर महाद्वीप बन गए
और देश के देश विलीन हो गए। इतने लंबे समय में और इतने विशाल देश में कितने प्रकार
के प्राणी, कितने प्रकार की वस्तुएं उत्पन्न भी हुई और नष्ट
भी हो गई। कितने प्रकार की कलाओं का आरंभ और विकास हुआ। परंपरा में वह भी शामिल
है। ज्ञान के इस अथाह समुद्र का लंबे समय तक अनेकों देवासुरों ने मंथन किया और
अनेकों रत्न निकालें जो सभी परंपरा के अंतर्गत आते हैं। भारत शब्द दो
शब्दों भा और रत से मिलकर निर्मित हुआ है। भा का शाब्दिक अर्थ 'प्रकाश' तथा रत का अर्थ 'संलग्न'
है। अतः जो सदैव ज्ञान के प्रकाश से आलोकित या ज्ञान की रोशनी से
चमत्कृत है ,वही भारत है। हमारे प्राचीन संस्कार हमें धरती
को माता मानकर उसका शोषण नहीं अपितु पोषण करने की प्रेरणा प्रदान करते हैं- |
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अध्ययन का उद्देश्य | प्रस्तुत
शोधपत्र का उद्देश्य भारतीय ज्ञान परम्परा की महत्ता का विश्लेषण करना है । |
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साहित्यावलोकन | प्रस्तुत शोधपत्र के लिए विभिन्न पुस्तकों ओर ग्रंथों का अध्ययन किया गया है जिनके उल्लेख शोधपत्र के मुख्य भाग मे किया गया है। |
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मुख्य पाठ |
भारतीय ज्ञान
की सबसे बड़ी परंपरा देश की सर्वांगीण पवित्रता की भावना है। यहां के लोग अपने देश से प्रेम करते हैं। अपनी मातृभूमि को पूजते हैं। यहां अपने देश के एक -एक अंग और एक -एक पदार्थ
की पूजा कर मस्तक झुकाया जाता है उनका मत है कि मनुष्य का जन्म सर्वश्रेष्ठ है
क्योंकि वह कर्म करके मुक्ति प्राप्त करने की सामर्थ्य रखता है। देश का प्रत्येक
अंग तीर्थ की तरह सदा से पवित्र समझा जाता है। यहां की तिथि, दिन, मुहूर्त सभी पवित्र माने जाते हैं। विशेष
अवसरों पर विशेष कार्य सनातन काल से ही होते आए हैं, ज्योतिष
शास्त्र का उच्च कोटि का ज्ञान भी हमारे यहां के ऋषियों ने दीर्घकालीन परिशीलन
द्वारा प्राप्त किया था। अनेक विद्याओं का लोप हो जाने पर भी साहित्य में यत्र-
तत्र उनका वर्णन मिल जाता है, जिससे परंपरा के नष्ट हो जाने
पर भी उसके अस्तित्व का ज्ञान हो जाता है। धनुर्वेद इसका महत्वपूर्ण उदाहरण है, जिसके कई बड़े-बड़े ग्रंथ विशेष खोज करने पर मिल गए हैं। भारतीय
संस्कृति के संरक्षण व संवर्धन के लिए भारतीय ज्ञान परंपरा का ज्ञान होना परम
आवश्यक है। भारत, संस्कृति और संस्कृत यह तीनों मात्र शब्द
नहीं है अपितु प्रत्येक भारतीय के भाव हैं। शिक्षा के क्षेत्र में सभी स्तरों पर
एनईपी में भी संस्कृत को जीवन जीने की मुख्यधारा में शामिल कर अपनाने पर बल दिया
गया है। संस्कृत के अध्ययन से विद्यार्थी न केवल अपने अतीत से गौरवान्वित होकर
वर्तमान में संतुलित व्यवहार की ओर अग्रसर होंगे अपितु भविष्य के प्रति उल्लसित
होंगे। हमारी ज्ञान परंपरा में व्यक्ति के
सर्वांगीण विकास पर ध्यान केंद्रित कर विनम्रता, सच्चाई,
अनुशासन, आत्मनिर्भरता और सम्मान जैसे मानवीय
मूल्यों को महत्व दिया गया है। प्राचीन भारत के विद्वान जैसे -चरक, सुश्रुत, आर्यभट्ट, वराहमिहिर
मैत्रेयी, गार्गी आदि के विचारों को वर्तमान कालीन
पाठ्यक्रम में प्रारंभ से लेकर अंत तक सम्मिलित करने की ओर भी हमारा ध्यान आकृष्ट
किया है। हमें पुनः प्राचीन भारत की शिक्षा पद्धति को जागृत करने की आवश्यकता है।
जो' सा विद्या या विमुक्तये के सिद्धांत पर आधारित थी। वर्तमान
शिक्षा व्यवस्था पूर्णतया व्यवसायिक सिद्धांतों पर आधारित हो चली है। संपूर्ण वैदिक
वाऽमय में रामायण, महाभारत, पुराण, स्मृति ग्रंथ, दर्शन, धर्म
ग्रंथ, काव्य, नाटक, व्याकरण तथा ज्योतिष शास्त्र संस्कृत भाषा में ही उपलब्ध होकर इनकी महिमा
को बढ़ाते हैं, जो भारतीय सभ्यता संस्कृति की रक्षा करने में
पूर्ण तरह सहायक सिद्ध होते हैं। संस्कृत से ही संस्कारवान समाज का निर्माण होता
है। संस्कारों में कायिक, वाचिक, मानसिक पवित्रता के साथ- साथ पर्यावरण भी शुद्ध होता है। संस्कारों का
वैज्ञानिक महत्व भी है। इसकी वैज्ञानिकता को नासा ने 1987 में ही संस्कृत को कंप्यूटर के लिए सर्वोत्तम भाषा के रूप में मान्यता
प्रदान कर दी थी। इसी कारण संस्कृत भाषा को अंतरिक्ष में प्रेषण के लिए सबसे
उत्कृष्ट माना जाता है। वर्तमान समय
में भी अमेरिका, जर्मनी, चीन आदि
अनेक देश संस्कृत के क्षेत्र में नवीन शोध कार्य करके इसकी महत्ता को और भी बढ़ा
रहे हैं। प्राचीन दर्शनों में जिज्ञासा तर्क के साथ प्रकट होती है। यही बुद्ध, जैन दर्शनों
में अभिव्यक्त होती है। इसी परंपरा में पाणिनि ने विश्व का पहला व्याकरण लिखा। पतंजलि
योगसूत्र और भाषा अनुशासन लिखते हैं। कौटिल्य अर्थशास्त्र लिखते हैं। चरक और सुश्रुत संहिताएं आयुर्विज्ञान के
आधारभूत ग्रंथ बनते हैं। ऐसे विद्वान पूर्ववर्ती आचार्यों का उल्लेख कर अपने कार्य
को ज्ञान परंपरा से जोड़ते हैं। संपूर्ण विश्व जब कोरोना जैसी महामारी से त्रस्त
था तब भारत सहित संपूर्ण विश्व में भारतीय संस्कृति के महत्व को जाना और समझा गया
कि हमारे प्राचीन ज्ञान व संस्कार इस प्रकार से बनाए गए हैं कि जिससे इस प्रकार की
समस्या ही उत्पन्न न हो। भारतीय संस्कृति में प्रारंभ से ही हाथ जोड़कर अभिवादन
करने की परंपरा है और इस काल में संपूर्ण विश्व में इसे अपनाया। पिछले वर्षों में
इजरायल के प्रधानमंत्री नेतन्याहू, प्रिंस चार्ल्स, फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुअल मैक्रे की तस्वीर आई थी, जिसमें वह नमस्ते करते हुए दिखाई दे रहे थे। विज्ञान के
विकास में गणित का विशेष महत्व होता है एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका के अनुसार
शून्य का आविष्कार संभवतः भारत में किया गया था। शून्य और शून्य के स्थानगत
मूल्यों की जानकारी वैदिक काल में थी। प्राचीन भारत में गीत, संगीत, चित्रकला और स्थापत्य कला सहित सभी
ज्ञान उपलब्ध थे। ब्रिटिश काल में भारतीय
ज्ञान परंपरा का सुनियोजित तिरस्कार हुआ। फलस्वरूप पश्चिमी सभ्यता और ज्ञान का
प्रभाव बढा। इतिहास का विरूपण हुआ। समाजशास्त्र, राजनीतिशास्त्र
आदि मानविकी विषयों का आरंभ लैटिन उदाहरणों से होने लगा। वेदों को 'चरवाहों के गीत' कहा गया। ब्रिटिश विद्वानों और
उनके समर्थक भारतीयों ने दावा किया कि अंग्रेजी राज से पहले भारत नहीं था।
अंग्रेजों ने उसे राष्ट्र बनाया है किंतु गांधी जी ने उनकी इस बात का खंडन किया था
क्योंकि भारत की ज्ञान परंपरा प्राचीनतम है, सनातन है। इसके पूर्व कोई भी सभ्यता या संस्कृति नहीं थी। चरक द्वारा
लिखित चरक संहिता, सुश्रुत की सुश्रुत संहिता तथा
वाग्भट्ट द्वारा लिखित अष्टांग हृदय को आयुर्वेद त्रयी ग्रंथ कहा जाता है। पिछले
कुछ समय से लोगों ने आयुर्वेद का महत्व पुनः स्वीकार किया है तथा आश्चर्यजनक रूप
से आयुर्वेद द्वारा कई उन लोगों की सफलतापूर्वक चिकित्सा की गई है जिसे अत्याधुनिक
एलोपैथिक चिकित्सा भी ठीक न कर सकी आयुर्वेद की परिभाषा देते हुए कहा गया है-
'सुखंदुखंमायुस्तस्य हिताहितं
मानं च तच्च यदोंक्तमायुर्वेद स उच्यते।' अर्थात् आयु
के हित तथा अहित के लिए, उसके सुख-दुख का वर्णन मान( उचित
मात्रा) सहित जहां हो, उसे आयुर्वेद कहते हैं। इसी
प्रकार स्वास्थ्य की समग्र परिभाषा एक छोटे से श्लोक में समाहित है-
समदोषः समाग्निश्च समधातुमलक्रियाः।
इत्यभिधीयते। । अर्थात् जिस
व्यक्ति में दोष (वात, पित्त, कफ)
सम हो, अग्नि सम हो, सात
धातुएं रक्त, मांस, भेद,
अस्थि, मज्जा, शुक्र सम हो, जिसके मल, मूत्र, स्वेद ठीक से निकल रहे हो, जिसकी आत्मा, इंद्रियां, मन प्रसन्न हो तथा कोई मानसिक तनाव न हो उसे स्वस्थ कहते हैं। हम योग का
प्रायः संकुचित अर्थ ग्रहण करते हैं किंतु योग एक बहुआयामी शब्द है। इसी योग ने हमें वैश्विक स्तर पर पहचान दिलाई है।
21 जून को संपूर्ण विश्व में योग दिवस मनाया जाता है। 'यूज्यते अनेन इति योग्यः' अर्थात् जिसके द्वारा
जोड़ा जाए वही योग है। आचार्य पतंजलि ने इसका शास्त्रीय अर्थ 'योगाश्चित्तवृत्तिनिरोध' बताया तो श्रीकृष्ण ने
कर्म योग, भक्ति योग, ज्ञान योग
के बारे में बताकर संपूर्ण मानव जीवन के उद्देश्य को ही तीन योगो में विभक्त कर
दिया। इस प्रकार योग व्यक्ति को ब्रह्मांड से, आत्मा को
परमात्मा से, व साधक को साध्य से जोड़ने का साधन है। इसके
अतिरिक्त भी योग की अनेक विद्याएं हैं। योगी के लिए शरीरस्थ 9 चक्र, 11 आधारों, 3 लक्ष्यों,
5 आकाशो का ज्ञान अनिवार्य है। 'नवचक्रं कलाधारम त्रिलक्ष्यं व्योमापंचकम्। समयेगतन्न जानाति सा योगी नामधारकः।।' भरत मुनि ने
नाट्य शास्त्र में नाटक को विश्व के लिए इस प्रकार उपयोगी बताया था कि यह नाट्य
संसार में वेदों, विद्याओं और इतिहास की गाथाओं की
परिकल्पना करने वाले लोगों के मनोविनोद का भी कर्ता होगा। भरत मुनि ने नाटक के
अभिनय पक्ष की प्रशंसा की जबकि प्लेटो ने नाटक के अभिनय पक्ष पर ध्यान नहीं दिया। भरत मुनि ने संगीत और नृत्य परंपरा का उल्लेख
किया है। भारत में सभी
ज्ञान अनुशासनों का विस्तार वैदिक काल में हो चुका था। नाट्य शास्त्र में नारद एवं
स्वाति के नाम हैं। स्वाति के विषय में
उल्लेख है 'कमल पत्रों पर वर्षा की बूंदों से
होने वाली धुन को सुनकर उनके मन में वाद्य निर्माण का विचार आया था। ऋग्वेद में नाट्य और संगीत से जुड़े तमाम
यंत्रों और गीत, संगीत की चर्चा है। भारतीय ज्ञान परंपरा में जो सुंदर है, वह सत्य है और जो सत्य है, वही शिव है। भारतीय दृष्टि
में रूप आत्मा का सृजन है। प्राचीन भारतीय कला के साक्ष्य ऋग्वेद में है। संगीत के
सात सुरों की चर्चा सामवेद ज्ञान गान है। यजुर्वेद में भी छंद विधान है। अथर्ववेद
में भरा पूरा संसार है। सौंदर्यशास्त्री के एस रामास्वामी ने इंडियन एसथेटिक्स में
लिखा, 'भारत में सौंदर्यशास्त्र की हजारों वर्षों
पुरानी ज्ञान परंपरा है। 'भागवत पुराण के अनुसार -'जब संसार अंधकार से उबरा तो जल में प्रारंभिक मूल प्रकृति से वनस्पति का
बीज उत्पन्न हुआ जिससे पौधों को जीवन मिला। पौधों से कीटाणु उत्पन्न हुए जो जीव
अनुक्रम में कीड़े, सांप, कछुआ, पक्षी, पशु आदि अवस्थाओं से होते हुए मानव रूप
प्राप्त किया। ऋषि मनु के अनुसार सभी जीव अपनी पुरानी पीढ़ियों के जीवित रहने की क्षमता
को अपनाकर आगे बढ़ते रहे। सोलहवीं सदी के
वैज्ञानिक चार्ल्स डार्विन ने इसे 'डार्विन विकासवाद' प्रणाली का नाम दिया। नई शिक्षा
नीति के अंतर्गत छात्रों के साथ विश्वविद्यालय और उच्च शिक्षण संस्थाओं के
शिक्षकों को ज्ञान परंपरा की जड़ों से जोड़ने की पहल की गई है। समय और
परिस्थितियों के अनुरूप भारतीय ज्ञान परंपरा के प्रवाह में अनेक बाधाएं आई। गीता
में श्री कृष्ण ने अर्जुन को इस प्रकार ज्ञान परंपरा बताई-'यह प्राचीन ज्ञान मैंने विवस्वान को बताया था। विवस्वान ने मनु को, मनु ने इक्ष्वाकु को। परंपरा से यही ज्ञान ऋषि मुनि जानते आए हैं। काल
प्रवाह में यह ज्ञान नष्ट हो गया है। हे
अर्जुन -'वही पुरातन ज्ञान मैं तुमको बता रहा हूं। श्री कृष्ण प्राचीन ज्ञान परंपरा को पुनर्जीवित
करने की बातें कर रहे थे। इस प्रकार हम
देखते हैं कि हमारी ज्ञान परंपरा बहुत समृद्ध और संपन्न है। दूसरे देश हमारी
सभ्यता व संस्कृति का अनुकरण कर समृद्ध हो रहे हैं किंतु हमारी स्थिति उस कस्तूरी
मृग के सदृश हो चली है जिसे स्वयं की सुगंध का ज्ञान नहीं होता। ठीक उसी प्रकार
हमारी स्थिति हो गई है। जैसे-
'कस्तूरी कुंडल बसे
मृग ढूंढे बन माहि।
ऐसे घट- घट राम है
दुनिया देखे नाही।। |
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निष्कर्ष |
अब वह समय आ गया है कि हमें भारतीय
ज्ञान परंपरा की सुगंध को जानना होगा। हमें सुप्तावस्था से जागृत होकर पुनः विश्व
गुरु का पद प्राप्त करना होगा यदि इस लक्ष्य को पूरा करने का विचार मन में ठान
लेते हैं तो उससे पहले अपनी समृद्ध, शक्तिशाली और संपन्न ज्ञान परम्परा को प्रत्येक भारतीय के
मन में जीवित करना होगा। उसे अपनी परंपराओं को हेय दृष्टि से नहीं वरन् गौरवशाली
अतीत की दृष्टि से देखकर उसका संरक्षण और पोषण करना होगा। जिससे हम आने वाली
पीढ़ियों को अपनी सभ्यता और संस्कृति से अवगत करा सकें। तभी हम सच्चे अर्थों में
भारतीय ज्ञान परंपरा के महत्व को बढ़ाएंगे। |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची |
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