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यात्रा संस्मरणों में राजनीतिक सियासत : युद्ध
और सामान्य जीवन |
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Political Politics : War and Normal Life in Travel Memoirs | |||||||
Paper Id :
19577 Submission Date :
2024-12-18 Acceptance Date :
2024-12-30 Publication Date :
2025-01-05
This is an open-access research paper/article distributed under the terms of the Creative Commons Attribution 4.0 International, which permits unrestricted use, distribution, and reproduction in any medium, provided the original author and source are credited. DOI:10.5281/zenodo.14904777 For verification of this paper, please visit on
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सारांश |
इसमें यात्रा संस्मरणों में वर्णित युद्ध और उनसे प्रभावित सामान्य जीवन का अनुभूतिपरक चित्रण किया गया है| विश्व महाशक्तियों द्वारा विभिन्न काल खंडों में अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए छोटे, पिछड़े तथा गरीब देशों को मुहरा बनाकर उन्हे युद्धरत रखना और फिर उन्हेंअपनी शर्तें मनवाने के लिए बाध्य करना, महाशक्तियों की यह राजनीतिक चालाकी उन देशों की सामान्य जनता को असंख्य संकटों में झोंक देती है| अफगानिस्तान में चल रहे संघर्ष, रूस-यूक्रेन युद्ध, इजराइल-हमास युद्ध इन सबसे अंततः हानि ही होनी है| जब परिणाम स्पष्ट दृस्टिगोचर है तो क्यू न अतीत से सीख लेते हुए युद्ध मुक्त भविष्य की कामना की जाए| |
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | In this, an experiential depiction of the wars and the common life affected by them, described in travel memoirs, has been made. In different periods, the world superpowers, for their selfish ends, used small, backward and poor countries as pawns and kept them engaged in wars and then forced them to accept their terms; this political cunning of the superpowers throws the common people of those countries into innumerable problems. The ongoing conflict in Afghanistan, the Russia-Ukraine war, the Israel-Hamas war, all these will ultimately lead to losses. When the results are clearly visible, then why not learn from the past and wish for a war-free future. | ||||||
मुख्य शब्द | युद्ध, राजनीतिक सियासत, अफगानिस्तान, शरणार्थी, मुजाहिदीन, लिदीत्से | | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | War, Political Politics, Afghanistan, Refugees, Mujahideen, Lidits. | ||||||
प्रस्तावना | युद्ध नाम लेते ही आँखों के सामने मार-काट मचा हुआ
युद्ध क्षेत्र, अंग-भंग किए शरीर,चारों
ओर बुखरे हुए मांस मज्जा के भयानक दृश्य उभर आते है| युद्ध
की यह भयंकरता मनुष्य की पशुता का परिचय देती है| कहने
के लिए उसने सभ्यता का चोला पहन लिया है लेकिन वास्तव में वह पशु से भी बर्बर है| पशु
एक-दो व्यक्तियों को ही हानि पहुंचा सकता है लेकिन जब आदमी अपनी बर्बरता पर उतरते
हैं तो कितने लोग मारे गए गिनने के लिए कोई बचता ही नहीं| अब तो
स्थिति ओर भी दुखदायक हो गई है क्योंकि परमाणु हथियार और रसायनिक हथियार उसने बना
लिए है जो पल भर में सम्पूर्ण सृष्टि को नष्ट कर सकते है| |
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अध्ययन का उद्देश्य | इस शोध पत्र का मुख्य उदेश्य यात्रा संस्मरणों में वर्णित राजनीतिक सियासत और उसके परिणामस्वरूप होने वाले युद्ध की विभीषिका का वर्णन करके, युद्ध से होने वाले सामान्य जन के दुख-दर्द तथा नुकसान की ओर शासक वर्ग का ध्यान आकर्षित करना| ताकि वह भविष्य में कोई भी कदम या निर्णय लेते समय इस बात का ध्यान रखे कि कम से कम लोगों का नुकसान हो और जहाँ तक हो युद्ध को टाला जा सके| |
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साहित्यावलोकन | जब भी युद्ध की बात आती है तो धर्मवीर भारती की रचना 'युद्ध यात्रा' (भारत पाक युद्ध का आंखों
देखा वर्णन), दिनकर जी का 'कुरुक्षेत्र' (युद्ध के दुर्गुणों और मानव जाति के नुकसान का
वर्णन) और कमलेश्वर का उपन्यास 'कितने पाकिस्तान' (जिसमें भारत पाक विभाजन
तथा उसके बाद धर्म और राजनीति की आड़ में होने वाले अत्याचार का यथार्थ चित्रण)
सहज ही याद आ जाते है। यह शोध यात्रा संस्मरण से संबंधित होने के कारण निर्मल
वर्मा की रचना' चिड़ों पर चांदनी' और नसीरा शर्मा की रचना 'अफगानिस्तान बुजकशी का मैदान' विशेष ध्यान देने योग्य
है। इनमें युद्ध, राजनीतिक और सामान्य जन को इनसे होने वाली पीड़ा का
मर्मस्पर्शी चित्रण है। |
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मुख्य पाठ |
युद्ध का इतिहास मानव जीवन के साथ ही आरंभ हो गया था। आदिम समय में युद्ध का स्वरूप छोटी-मोटी कबीलाई लड़ाई तक ही सीमित था जिसमें शिकार के लिए या खाने के लिए कबीलों में आपसी मुठभेड़ शामिल है। इस समय तक मनुष्य धातु से हथियार बनाने से परिचित नहीं था। लड़ाई में लकड़ी या पत्थर के हथियार प्रयोग किए जाते थे। जिससे किसी प्रकार का बड़ा नुकसान नहीं होता था। 1. ‘रेख़्ता शब्दकोश’ के अनुसार युद्ध का अर्थ – ‘लड़ाई, जंग, झगड़ा, संग्राम’(1) आदि है। 2. ‘सामाजिक विज्ञान के शब्दकोश’ के अनुसार– “साधारणतया युद्ध शब्द का प्रयोग ऐसे शस्त्रात्मक संघर्ष के लिए किया जाता है जो कि चेतन इकाइयों जैसे- प्रजातियों, जनजातियों, राज्य अथवा छोटी भौगोलिक इकाइयों, धार्मिक अथवा राजनीतिक दल, आर्थिक वर्गों से निर्मित जनसंख्यात्मक समूहों के अंतर्गत होता है।’’ (जिसका तात्पर्य है कि युद्ध में शस्त्रों का प्रयोग करके आपसी संघर्ष होता है, जो विभिन्न जातियों, समूहों, दलों, वर्गों, कबीलों के मध्य किसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए होता है।) 3. हॉबेल के अनुसार – “युद्ध एक सामाजिक समूह द्वारा दूसरे सामाजिक समूह पर किया गया संगठित आक्रमण है जिसमें आक्रमण समूह आक्रांता समूह के हितों की कीमत पर अपने हितों की वृद्धि जानबूझकर अपनी जान माल की बर्बादी करके करता है।’’ (इसका तात्पर्य है कि युद्ध एक समूह द्वारा दूसरे समूह पर किया गया संगठित प्रहार है जिसमें लाभ कि संभावना तो होती है साथ ही हानि भी उठानी पड़ती है|) 4. डॉ. राम गोपाल शर्मा 'दिनेश'– “युद्ध की अर्थ सीमा भी आक्रमण और उसके विरोध तक विस्तृत न मानकर, केवल विरोध की स्थिति तक मानी जानी चाहिए क्योंकि आक्रमणकारी के पशु-बल का यदि गतिरोध न किया जाए, तो युद्ध की स्थिति उत्पन्न नहीं होती। अतः तात्विक दृष्टि से युद्ध आक्रामक प्रतिरोध की आकांक्षा की अभिव्यक्ति है। इस दृष्टि से इतिहास के पृष्ठ पर हम जिस घटना को युद्ध कहते हैं वह साहित्य की भूमि पर शौर्य, शक्ति, तेज और जीवन के ओज का बोध है।”(2) (इनके अनुसार युद्ध में जब तक आक्रमणकारी का प्रतिरोध दूसरे समूह द्वारा नहीं होता तब तक वह स्थिति युद्ध नहीं कहलाएगी, अतः दूसरे समूह द्वारा रक्षात्मक प्रतिरोध होने पर ही वह आक्रमण युद्ध समझा जाएगा। साहित्य में जहां पर भी युद्ध वर्णन हुआ है वह जीवन की ओजस्विता की भी अभिव्यक्ति है। युद्ध के प्रति इनका सकारात्मक दृष्टिकोण है।) 5. युद्ध की राजनीतिक परिभाषा देखी जाए तो युद्ध दो या दो से अधिक राज्यों या राजनीतिक इकाइयों के बीच सशस्त्र संघर्ष है, जिसका उद्देश्य विरोधी पक्ष को पराजित करना और अपने राजनीतिक,आर्थिक या सामाजिक हितों को सुरक्षित करना है। भारत में युद्ध का इतिहास प्राचीन रहा है जिसमें 'रामायण' का राम-रावण युद्ध, कृष्ण-कंस का युद्ध जो अन्याय और अत्याचार के विरुद्ध शांति स्थापना के लिए लड़े गए। महाभारत युद्ध जो कौरवों और पांडवों के बीच अपने हक के लिए लड़ा गया। फिर आर्यों का आगमन, विभिन्न साम्राज्यों के आपसी युद्ध जिसमेंगुप्त, मौर्य, सातवाहन, चौहान, चालुक्य, चोल आदि हुए। इसी बीच शक, कुषाण, हूण, मंगोल आदि विदेशी जातियों के आक्रमण हुए। दसवीं शताब्दी के बाद विदेशी आक्रांताओं के आक्रमण जिसमें महमूद गजनवी, मोहम्मद बिन कासिम, नादिरशाह आदि शामिल है। फिर सल्तनत काल, मुगल काल और अग्रेजों का समय। यह संपूर्ण कालक्रम अपने में युद्धों का एक वृहद इतिहास लिए हुए है। प्रमुख युद्धों में पानीपत का युद्ध, तराइन का युद्ध, हल्दीघाटी का युद्ध, बक्सर का युद्ध, पलासी का युद्ध, भारत-पाक युद्ध, भारत-चीन युद्ध। यह सभी युद्ध मुख्यत: साम्राज्यवाद से प्रभावित है। जिसमें एक जाति, समूह, साम्राज्य व राष्ट्र द्वारा दूसरे के साम्राज्य व राष्ट्र क्षेत्र पर अधिकार करना तथा अपनी शर्तें मनवाने के लिए बाध्य करना शामिल है। युद्ध कई कारणों से किए जाते है। जिसमें प्रमुख है- जमीन पर अधिकार, धार्मिक संघर्ष, राष्ट्रवाद, आर्थिक, क्षेत्रीय, वैचारिक, राजनीतिक, नागरिक कारण, बदला लेना, अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ाना, प्राकृतिक संसाधनों की प्राप्ति आदि। कारण कोई भी हो लेकिन परिणाम मानवता के लिए नुकसानदायक ही होता है। धर्मवीर भारती ने 'अंधा युग' नाटक में महाभारत युद्ध के माध्यम से युद्ध और उसके बाद की स्थितियों और समस्याओं तथा उत्पन्न बिखराव का अभिभूत करने वाला चित्रण किया है। इस काव्य-नाटक में महाभारत युद्ध के अठारहवें दिन की संध्या से लेकर प्रभास तीर्थ में कृष्ण जी की मृत्यु के क्षण तक का वर्णन हुआ है। आधुनिक समय में जब विश्व में चारों ओर युद्ध और हथियारों की होड़ में देश एक-दूसरे से आगे निकलने और शक्तिशाली बनने के लिए जिस प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा दे रहे है उसके परिणाम किस दिशा में ले जायेंगे उसका प्रत्यक्ष प्रमाण हमें महाभारत युद्ध, प्रथम व द्वितीय विश्व युद्ध, रूस-यूक्रेन युद्ध, अफगानिस्तान में चल रहे आंतरिक संघर्ष, इजराइल-हमास युद्ध, वियतनाम युद्ध आदि से मिल जाते हैं। धर्मवीर भारती ने 'अंधा युग' के 'पहले अंक' में लिखा है - "टुकड़े टुकड़े हो बिखर चुकी मर्यादा उसको दोनों ही पक्षों ने तोड़ा है पाण्डव ने कुछ कम कौरव ने कुछ ज्यादा यह रक्तपात अब कब समाप्त होना है यह अजब युद्ध है नहीं किसी की भी जय दोनों पक्षों को खोना ही खोना है अंधों से शोभित था युग का सिंहासन दोनों ही पक्षों में विवेक ही हारा दोनों ही पक्षों में जीता अंधापन अधिकारों का अंधापन जीत गया जो कुछ सुन्दर था, शुभ था,कोमलतम था वह हार गया।"(3) धर्मवीर भारती जी ने इसके माध्यम से युद्ध में होने वाली राजनीतिक कूटनीतियों की ओर इशारा करके कहना चाहा है कि युद्ध में नियम और मर्यादा दोनों पक्षों द्वारा ही तोड़ी जाती है कोई कम तोड़ता है कोई ज्यादा। जीत चाहे किसी की भी हो लेकिन इन सब के कारण जो रक्तपात और मार-काट मचती है उसमें जो सुन्दर और कोमल भाव है उन पर कुठाराघात होता है, वह टूट कर बिखर जाते है और युद्ध के समय सामान्य जन के अधिकारों को छीन लिया जाता है। युद्ध का करने का फैसला शासन व राजनीतिक नेताओं द्वारा लिया जाता है और उसका हर्जाना गरीब जनता को भरना पड़ता है। नसीरा शर्मा ने अपने यात्रा-संस्मरण 'अफगानिस्तान बुजकशी का मैदान' में काबुल शहर के स्थानीय लोगों के मन में युद्ध के कारण बैठे डर और दहशत का उल्लेख करते हुए लिखा है – "रात को सोते में आंख खुल जाती है। सन्नाटे को भेदती हुई गोली की बौछारें अंधेरे में चीखती हुई शहर में गूंज उठती है। काबुल शहर को चारों ओर से घेरे ढाल जैसी पहाड़ियों के उस पर पिछले नौ वर्षों से घमासान युद्ध छिड़ा हुआ है काबुल घाटी में अगर आबादी के बीच तीन-चार घेरों में सुरक्षा की बेड़ियां पड़ी हैं तो उसके बाहर प्रांतों में तीन-चार घेरों में लगातार होती मुठभेड़ों का छोटा-बड़ा चक्र बना हुआ है।"(4) नसीरा शर्मा जी आगे बताती है कि- "काबुल में सारे दिन 'स्ट्रिंगर' मिसाइल के खौफ से हवाई जहाज अंगारे उगलते आसमान पर सुरक्षा की सौगंध खाते उड़ते रहते हैं। इन छोटे-छोटे नीले गोलों ने कभी खलिहानों, इमारतों व घरों में गिरकर आग भी लगाई है।"(5) अफगानिस्तान में लगातार चलते युद्ध के कारण प्रांतों में पैदावार नहीं हो रही। खेत में फसलें बर्बाद हो गई है। काबुल में आने वाले सारे रास्ते बंद हो गए है तथा जो खाद्य सामग्री प्रांतों से शहर में ट्रकों द्वारा आती है उसे मुजाहिदीन बीच में ही लूट लेते हैं। जिससे रोजमर्रा की चीजें भी उपलब्ध नहीं होती है। नसीरा जी ने लिखा है-"पूरे काबुल में ताजे दूध की एक बूंद भी नज़र नहीं आएगी और न ही मक्खन और पनीर ही। हर बात का एक जवाब है कि प्रांतों में युद्ध छिड़ा है चीजें आएं कैसे?"(6) युद्ध से पहले यह देश खुशहाली से भरपुर था। चारों ओर हरियाली, फूलों और फलों से लदे बागान थे। लोग जहां दूसरों पर भी आंख मूंद कर विश्वास कर लेते थे, आज वह पूरी तरह से बदल चुके है। नसीरा शर्मा जी कहती है कि -"वह अफगानिस्तान जिसके बारे में मैंने सुन रखा था कि फलों से लदा-फंदा अपनी बाहें फैलाए लोगों को खुशआमदीद कहता है, वह मुझे कहीं नहीं मिला। अब बंद दरवाजे थे। ख़ौफ और दहशत थी। अपनों पर शक था। अपने से नफ़रत थी। वह पुराना अफगानिस्तान कहीं खो चुका था। अब जो सामने था, वह मुझे हजार टुकड़ों में बंटा नज़र आ रहा था। उसकी अपनी महक बम के धमाकों, गोलियों की आवाजों में खो चुकी थी। इस दबी चीखों और मद्धिम सिसकियों की गूंज में एक बेहद नर्म मुहब्बत से भरी आवाज़ गूंज रही थी: “लड़ाई से हमें क्या मिला? पनाह की जगह कब्र कपड़े की जगह कफन रोटी की जगह गोली इसलिए हमारा प्रस्ताव है युद्ध विराम का राष्ट्रीय संधि का शांति का”(7) अफगानिस्तान में ज़ुल्म और शोषण का इतिहास पुराना है। जो भी शासक आया उसने अपने विचार जनता पर थोपे तथा उनके विचारों को दबाया। जब भी किसी ने विरोध करने के लिए सर उठाया उसे बेरहमी से मार दिया गया। नासिरा शर्मा जी ने लिखा है – "नादिर खान की मृत्यु स्कूल के एक लड़के अब्दुल खालिक के जरिए हुई थी, जिसके पिता 'सिपहसालार चर्खी' को नादिर खान ने बड़ी बेरहमी से मरवाया था। रिवायत मशहूर है कि शाह मुहम्मद हाशिम ने उस लड़के के बदन के टुकड़े-टुकड़े करवाकर,उसको एक छींके में डालकर,काबुल के बाग-ए-अमूमी के सामने टंगवा दिया था। जिसकी हड्डियां गोश्त गल जाने के बाद बरसों झूल - झूलकर लोगों को उस किस्से की याद दिलाती रही थी। इसके बाद शाह मुहम्मद हाशिम ने स्कूल व कॉलेज के बच्चों और लड़कों पर धुआंधार गोलियां बरसाई थी। उस दिन से आज तक जाने कितने मां-बाप ने अपने बच्चों को स्कूल न भेजने की कसम खा रखी थी। उसने मन में यह खौफ बैठ गया था कि पढ़ाई बगावत को जन्म देती है जिसकी सजा मौत है।"(8) सत्ता का ये जुल्म यहीं खत्म नहीं होता है। अत्याचार की हद तो तब पार हो जाती है जब जिंदा लोगों को बिना किसी अपराध के जमीन में गाड़ कर उन पर बुलडोजर चलवा दिया गया। नसीरा शर्मा जी ने लिखा है कि– "किस्सा मशहूर है कि पुले चर्खी जेलखाने के सामने बड़े से गड्ढे में जाने कितने लोगों पर मिट्टी डलवा कर हफ़ीजउल्लाह अमीन ने बुलडोजर चलवाया था। कहते हैं कि जब लोगों की हड्डियां दबने से टूटती और बदन तड़पता था तो ऊपर मिट्टी इस तरह हिलती थी है जैसे पानी में बड़ी-बड़ी लहरें तड़पता हैं। इसमें कोई शक नहीं है कि यह दौर अफगानिस्तान में समाज सुधार के नाम से एक सियासी और तानाशाही के दौर के नाम से याद किया जाएगा, जिसका सबसे अफसोसनाक पहलू यह है कि यह सब कुछ साम्यवाद के नाम पर हुआ ।"(9) निर्मल वर्मा ने अपने यात्रा-संस्मरण 'चिड़ो पर चांदनी ' में ' लिदीत्से: एक संस्मरण' शीर्षक अंतर्गत लिदीत्से गांव पर हुए फासिस्ट अत्याचार के बारे में बताया है कि यह गांव प्राग से बीस-पच्चीस मील की दूरी पर है। कुछ दिन पहले किसी ने जर्मन अफसर को गोली मारकर हत्या कर दी और फिर हत्यारे को ढूंढने के लिए उस पर दस हजार क्राउन इनाम की घोषणा की गयी। चेकोस्लोवाकिया के प्रत्येक शहर और गांव में यह खबर इश्तिहार के माध्यम से पहुंचाई गई। वातावरण में भय और आतंक का माहौल पैदा हो गया किन्तु बहुत तलाशी के बाद भी हत्या से संबंधित कोई सुराग नहीं मिला। तो संदेह हुआ की हत्यारा लिदीत्से में ही कही छुपा है जो खेतीहर और फैक्टरी मजदूरों का गांव था। गांव के प्रत्येक व्यक्ति,बच्चे से लेकर बुड्ढे तक सभी से पूछताछ की गई डराया गया धमकाया गया किन्तु कोई उत्तर नहीं मिला। सबने इस विषय में अनभिज्ञता जताई । फासिस्ट इस बात को मानने के लिए सहमत नहीं थे और उन्होंने गांव के सोलह वर्ष से ऊपर के सभी व्यक्तियों को खत्म करवा दिया जिससे उनके बीच छुपा हत्यारा भी मारा जाए। निर्मल वर्मा जी ने लिखा है – " 10 जून 1942 उस दिन प्राग से कुछ मिलिटरी ट्रकें लिदीत्से आई थीं । वह छुट्टी का दिन था ऐसा ही शांतिमय दिन, जैसा आज है। ट्रकों की आवाज से वह उनींदा गांव सहसा चौंक उठा। बच्चे खिड़कियों से वह बाहर झांकने लगे। पलक मारते ही सारी बस्ती जर्मन सिपाहियों से घिर गई। कहतें हैं कि उस रात दूर - दूर से जलते हुए लिदीत्से की लपटें दिखाई देती थीं। वह अंतिम दिन था... किन्तु आज जब अपनी बस से बाहर आए, हमें देखने वाला कोई नहीं था। घाटी अब भी है और आकाश है और धूप वैसी ही नरम और नशीली जैसे अठारह वर्ष पहले उस दिन रही होगी । क्या यह सचमुच सच है कि इस क्षण हम अकेले हैं कि हमें देखनेवाला कोई नहीं? लगता है इस सूनी घाटी में, मरे हुए गांव के बीच , अब भी कुछ शेष रह गया है,जो अब भी जीता है,जो इस क्षण भी हमें देख रहा है किंतु जिसे हम नहीं देख पाते। जो देख पाते हैं वह है सिर्फ टूटी दीवारों का मलबा, जली हुई ईंटों का ढेर, सुने खामोश पत्थर।"(10) निर्मल वर्मा जी ने जर्मन हाई कमांड के एक घोषणापत्र की सेक्स पंक्तियां जो लिदीत्से के म्यूजियम में सुरक्षित थी लिखी है- "आने वाली पीढ़ियां कभी नहीं जानेगी कि इस धरती पर किसी ऐसे गांव का अस्तित्व था। जिसने जर्मन राज्य के शत्रु को आश्रय दिया था।"(11) सत्ता का कितना अमानवीय चेहरा हो सकता है यह इन पंक्तियों के द्वारा हमारे सामने उभर कर आया है। एक दोषी के लिए पूरे गांव के व्यक्तियों को खत्म कर देना तथा पूरे गांव को जला देना कभी भी सही नहीं हो सकता है पर सामान्य मजदूर इसका विरोध क्या खाकर करते। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद बर्लिन शहर का विभाजन हो गया और वह पूर्वी बर्लिन और पश्चिमी बर्लिन के रूप में जाना जाने लगा । बीच में दीवार बना दी गई जिसे 'बर्लिन की दीवार 'नाम दिया गया। पूर्वी बर्लिन जर्मन लोकतांत्रिक गणराज्य की राजधानी बना तो पश्चिमी बर्लिन पश्चिमी जर्मनी के हिस्से आया। निर्मल वर्मा ने अपने यात्रा-संस्मरण में बर्लिन शहर की यात्रा के बारे में अनुभव साझा करते हुए लिखा है- "आइसलैंड से वापस आते समय मैं बर्लिन में चार दिन ठहरा था। और उस थोड़े समय में जो कुछ देख समझ पाया , वह इस अभिशप्त नगर की एक असाधारण झांकी देने के लिए काफी था। शीत युद्ध की इतनी नंगी, बेलौस तस्वीर शायद यूरोप के किसी शहर में दिखाई नहीं देता। हजारों ऐसे लोग हैं, जिनके घर पूर्वी बर्लिन में हैं और जो हर रोज काम करने पश्चिमी बर्लिन जाते हैं। अनेक ऐसे परिवार हैं जो इस विभाजित शहर का आईना हैं आधा परिवार पूर्वी भाग में, आधा पश्चिमी भाग में।"(12) फ़ासिज़्म और कम्युनिज्म विचारधारा और महाशक्तियों द्वारा किए जाने वाले फैसले सामान्य जन को कितनी तकलीफों में डाल देते है। विभाजन और अपने मूल स्थान से किसी दूसरे देश,वातावरण और जमीन पर परिवार से बिछड़कर बसने का दुःख सिर्फ वही जान सकते है जिन्होंने वास्तव में उसे भोगा हो। अफगानिस्तान में लगातार चलते युद्ध के कारण कई लाख लोग पाकिस्तान और अन्य देशों में जाकर शरणार्थी के रूप जीवन बिताने लगे । पेशावर में शरणार्थी परिवारों की गरीब स्थिति का उल्लेख करते हुए नासिरा शर्मा जी ने लिखा है - "गर्मी से परेशान रोते बीमार बच्चों को संभालती बड़े-बड़े लहंगे पहने अफगान औरतें पेड़ की छाया में सुबह से शाम तक अपनी बारी आने के इंतजार में अस्पताल के सामने सड़क के किनारे बैठी नजर आती थी। सियासी दफ्तरों के सामने दो-तीन डिब्बी सिगरेट और टॉफी की दुकान खोले अफगान बैठे नज़र आते थे या फिर आम रास्तों पर साइकिल पर फेरी लगाते कपड़ा बेचते या किसी कोने में झुंड की शक्ल में बैठे तरबूज खाते या फिर पालथी मारे किसी छाया के नीचे गंभीर मुद्रा में बैठे नजर आते। उनका चेहरे उदास और चमकती परेशान आँखें उनके दिल का आईना होती थी।"(13) भारत में आकर रहने वाले अफगान शरणार्थी परिवारों से मिलकर नासिरा शर्मा ने उनके दुखों की कहानियों को सुना और बताया - " इस उच्च वर्ग में ऐसे भी अफगानी हैं,जो मध्य एवं निम्न मध्य वर्ग से आए हैं और जिनके पास बताने को बहुत-सी दर्दनाक कहानियां हैं। जैसे मुजाहिद्दीनों द्वारा फेंके रॉकेटों से आए दिन कैसे मौतें होती रहती हैं,मगर कभी-कभी यह दुखद घटनाएं प्रश्नचिह्न बनकर खड़ी हो जाती हैं कि आगे क्या होगा? काबुल में एक घर पर गिरे रॉकेट से परिवार के लगभग सारे सदस्य दादा - दादी, मां - बाप, भाई - बहन, सबके सब मर गए। बस , दो माह का एक बच्चा अपने पालने में जिंदा बचा रह गया। उसकी जिम्मेदारी इस युद्धग्रस्त देश में कौन उठाएगा, जहां लोग रोटी को मोहताज हो रहे हैं?गुजरे जाड़े की कड़कड़ाती दोपहर में मां ने घर के काम से निपटने के कारण अपने छह और आठ वर्ष के बेटे और बेटी को राशन की लाइन में बिठादिया ताकि जब वह काम समाप्त करके लौटे तो उसकी बारी आ चुकी हो और वह मिट्टी का तेल ले सके। जब वह लौटी तो उसको अपने दोनों बच्चे जड़े के कारण वहीं जमीन पर जमे बैठे थे। ठंड ने उन मासूम बच्चों को मौत के मुंह में डाल दिया था।"(14) अफगानिस्तान सरकार ने जब शरणार्थियों को वापस बुलाने के लिए ' राष्ट्रीय-संधि 'का प्रस्ताव रखा। इसके बारे में एक मां के हृदय की प्रतिक्रिया जो युद्ध में अपने हीरे से बेटे खो चुकी है -"राष्ट्रीय-संधि क्या मेरे सात शहीद जवान बेटों को वापस कर सकती है?"(15) यह देखने में महज एक लाइन है लेकिन जिस दर्द भरी टीस से यह शब्द मुंह से निकले होंगे वह हृदय को चीर देने वाली है। युद्ध में जो सैनिक लड़ते हुए वीर गति को प्राप्त होते है, उनमें से कुछ की शादी तो कुछ महीने पहले ही हुई होती है । उनकी नव विवाहिता पत्नियां विधवा हो जाती है तथा उनका दुख वही समझ सकता है जिसने झेला हो।इसी तरह का प्रसंग धर्मवीर भारती ने 'अंधा युग ' में उठाया है जिसमें माता गांधारी ने कहा है- "सत्रह दिन के अंदर मेरे सब पुत्र एक एक कर मारे गए अपने इन हाथों से चूड़ियां उतारी हैं अपने आंचल से सेंदूर की रेखाएं पोंछी हैं।"(16) युद्ध के परिणाम (अफगानिस्तान के विशेष संदर्भ में) - 1. शरणार्थियों की बढ़तीसंख्या। 2. नव विवाहिता विधवाओं की बढ़ती संख्या से एक अपूर्ण समाज का निर्माण। 3. युद्ध में आदमीयों के मरने के बाद उनकी संख्या में कमी के कारण वेश्यावृत्ति की समस्या । 4. बहुपत्नी प्रथा का चलने से महिलाओं की सामाजिक स्थिति में गिरावट । 5. दूसरी देशों में शरणार्थियों को रोजगार न मिलने के कारण तस्करी गिरोह का बढ़ना । 6. बेकारी और गरीबी के कारण युवाओं को नशे की लत लगना। 7. भ्रष्टाचार और अपराधों में बढ़ोतरी ही होना। नासिरा शर्मा ने बताया है कि - "पाकिस्तानी अखबरों के अनुसार कराची में हर दसवां जवान इसकी चपेट में आ गया है। 1979 में सर्वेक्षण के अनुसार पाकिस्तान में 1.9 मिलियन जवान अफीम और 6,50,000 हीरोइन के आदि थे। इसमें से आधे कराची वासी है। 1980 से पहले नशीले पदार्थों के मारे में पाकिस्तान में कोई नहीं जानता था।"(17) युद्ध के इस तरह के कई दर्दनाक सिलसिलों का ब्यौरा देते हुए नासिरा शर्मा ने कहा है कि -"हिरोशिमा (जापान) पर फेंके गए बम को इतिहास भुला नहीं सकता है।दूसरे महायुद्ध में संयुक्त राज्य अमेरिका ने लगभग 250 हथियारबंद हमले संसार के विभिन्न हिस्सों में किए थे। उसमें वियतनाम का तीन दहाई तक चलने वाला युद्ध अपने में उदाहरण है। उस समय 1.2 करोड़ के लगभग वियतनामी बेघरबार हुए थे। निगाबियन के दो सौ पचास जिलों में से छियानवे जिले अमेरिकी बमबारी में बिल्कुल साफ़ हो गए थे। वियतनाम के शरणार्थीयों की स्थिति उस समय शोचनीय हो उठी,जब अमेरिका युद्ध हार गया और इन शरणार्थियों का सियासी महत्व घट गया। आर्थिक स्थिति इतनी खराब हो उठी कि कैलिफोर्निया में रहने वाले शरणार्थियों को यह कहना पड़ा कि सयुक्त राज्य अमेरिका की हार ने को वास्तव में बेघरबार बनाया है।"(18) युद्ध की विभीषिका झेल चुके अफगानिस्तान की कहानी बयां करती नासिरा शर्मा द्वारा उद्धृत ' जलाल नूरानी '(अफगान व्यंग्यकार और बाल साहित्यकार) की ये पंक्तियां हर उस देश की प्रतिनिधि है जो युद्ध से गुजरा है -" फिलहाल हमारा देश इतना दिलचस्प हो रहा है कि उसमें घटनाएं ही घटनाएं हैं आंसू और आहें हैं।मौत और जंग हैं। गद्दारी और धोखा है खौफ और ग़म है। दिलचस्पियां ही दिलचस्पियां हैं तभी कितने लोग इसको सहन नहीं कर पाए हैं और देश छोड़कर भाग गए है ।"(19) अफगानिस्तान को महाशक्तियों ने युद्ध रूपी खेल का मैदान बना कर रख दिया है यहां के नेता और मुजाहिदीन उनकी कठपुतली बन कर रह गए है जिनकी कोई अपनी विचारधारा व नीतियां नहीं हैं। एक तरफ अमेरिका द्वारा मुजाहिदीनों को पाकिस्तान के जरिए हथियार मुहैया करवाना और दूसरी तरफ आतंकवाद का विरोध करना तथा अफगानिस्तान में शांति स्थापना करने की बात करना । अमेरिका और अन्य देशों को इस दोगली नीति को खत्म कर मानवता के धरातल पर काम करना चाहिए। हथियारों की होड़ में जो अरबों रुपए खर्च करके मध्य एशिया में जो तबाही मचाई उसका हर्जाना जनता को पीढ़ियों तक भुगतना पड़ेगा। नासिरा शर्मा ने लिखा है कि – "अफगानिस्तान में इन 10 वर्षों में तबाही और बर्बादी हुई है भविष्य में उसको संभालने के लिए असीमित धन व धैर्य की आवश्यकता है। विश्व के राजनेताओं को अफगानिस्तान में जारी हुई मानवीय विलाप से यह सीख अब ले लेनी चाहिए कि ' पहले तबाह करो फिर आबाद करो ' की नीति पूरे संसार को किसी उचित सारगर्भित निर्णय पर नहीं पहुंचाएगी । भले अमन और शांति के नाम पर खोली चंद दुकानें अधिक धन अर्जित कर लें , मगर मानवीय मूल्यों को केवल एक वर्ग के लाभ से आंका नहीं जा सकता है। अमेरिका को अब अपनी यह दोरुखी नीति छोड़ देनी चाहिए अब एक ऐसी सियासत अपनाए जो इंसानी आबादियों को बांटे और काटे नहीं, बल्कि अधिक करीब लाए ताकि पिछड़े देशों में यह धन खर्च हो सके जहां इंसान भूख और प्यास से मर रहा है और जेलों में दम तोड़ रहा है। महान शक्तियों को चाहिए कि वह अपनी विस्तारवाद की सियासत को संकीर्ण दायरे से निकालकर उसको एक नया अर्थ दें। जहां एक बड़े फलक पर संसार के सारे छोटे बड़े देश अपने पूरे आत्म सम्मान के साथ अपनी स्वाधीनता व स्वतंत्रता को बरकरार रखने हुए एक साथ बराबर से खड़े हों और आर्थिक रूप से एक दूसरे के प्रति कृत्तव्यबद्ध हो सकें।”(20) |
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निष्कर्ष |
जीवन में कुछ घटनाएँ ऐसी होती है जो समय के साथ अतीत के गर्त में दफ्न हो जाती है लेकिन कुछ हादसे ऐसे होते है जिन्हे चाहकर भी भुलाया नहीं जा सकता ,समय के साथ उनकी नई परते ताजे घाव की तरह खुलती जाती है और दर्द देती है| युद्ध भी एक ऐसा ही अनुभव है जिसकी दुखांतक स्मृति अपने क्रूर नंगेपन के साथ कई पीढ़ियों तक अपना आतंक छोड़ जाता है| सभी देशों को मानवता की भलाई, विश्व-शांति,प्रगति और उन्नति के लिए सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक समन्वय की राह चुननी होगी| महाशक्तियों को अपने धन और बल का प्रयोग छोटे देशों को युद्ध में झोंक कर अपने हथियार बेचने के बाजार बनाने व उनके संसाधनों को हड़पने के लिए प्रयोग न करके उनके विकास में करना चाहिए | ताकि आने वाली पीढ़ियों को हिरोशिमा और नागासाकी ना देखना पड़े | |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची |
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