ISSN: 2456–4397 RNI No.  UPBIL/2016/68067 VOL.- IX , ISSUE- IX December  - 2024
Anthology The Research

लैंगिक असामनता स्त्री विमर्श, साहित्य के आईने में

Gender Inequality, Feminist Discourse In The Mirror Of Literature
Paper Id :  18941   Submission Date :  2024-12-11   Acceptance Date :  2024-12-23   Publication Date :  2024-12-25
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DOI:10.5281/zenodo.14752616
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स्वर्ण लता कदम
प्रोफेसर
हिन्दी विभाग
शहीद मंगल पाण्डे राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय
माधवपुरम, मेरठ, उत्तर प्रदेश, भारत
सारांश

भारत में लिंग आधारित असमानता सदियों से एक सामाजिक मुद्दा रहा है। जन्म से लेकर मृत्यु तक शिक्षा से लेकर रोजगार तक हर जगह लैंगिक भेदभाव साफ-साफ नजर आता है। इस भेदभाव को कायम रखने में सामाजिक और राजनीतिक पहलू बहुत बड़ी भूमिका निभाते हैं। वर्ल्ड इकोनामिक फोरम द्वारा 2020 के वैश्विक लैंगिक अंतराल सूचकांक की बात करें तो भारत 153 देशों की सूची में 112 वें स्थान पर आता है। इस सूचकांक के माध्यम से यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि हमारे देश में लैंगिक असमानता की जड़े कितनी मजबूत और गहरी है। हमारे आदिग्रन्थ ऋग्वेद के तीसरे अध्याय अनुवाक 73 में ऋषि वामदेव देवता इन्द्र से प्रार्थना कर रहे हैं-

"हम मेधावी स्रोता, गाय, भूमि और सुंदर संतान पैदा करने वाली नारी की कामना करते हैं।" उक्त पंक्ति में स्त्री का स्थान एवं स्त्री का उद्देश्य दोनों स्पष्ट है।

सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Gender-based inequality has been a social issue in India for centuries. From birth to death, from education to employment, gender discrimination is clearly visible everywhere. Social and political aspects play a big role in maintaining this discrimination. Talking about the Global Gender Gap Index of 2020 by the World Economic Forum, India ranks 112th in the list of 153 countries. Through this index, it can be estimated how strong and deep the roots of gender inequality are in our country. In the third chapter of our ancient text Rigveda, Anuvak 73, sage Vaamdev is praying to the god Indra - "We wish for a woman who produces intelligent source, cow, land and beautiful children." In the said line, both the place of woman and the purpose of woman are clear.
मुख्य शब्द स्त्री विमर्श, लैंगिकता, असमानता, सामाजिकता, भेदभाव साहित्य, पश्चिमी सभ्यता, स्त्रीत्व, धर्म, मान्यताएँ, संघर्ष, अस्तित्व, आत्मबोध, मानसिकता, उत्तर आधुनिकतावाद, इतिहास, पितृसत्तात्मक व्यवस्था।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Female Debate, Gender, Inequality, Sociality, Discrimination Literature, Western Civilization, Femininity, Religion, Beliefs, Struggle, Existence, Self-Awareness, Mentality, Postmodernism, History, Patriarchy.
प्रस्तावना

सच तो यह है कि धर्म चाहे कोई भी हो वह स्त्री को गुलाम और महामूर्ख बना डालने के लिये ही आया है। प्रत्येक धर्म का नियन्ता, सर्वस्व या कहिए कि गवर्नर पुरुष ही है। पुरुष ईश्वर की बनाई हुई सृष्टि में स्त्री का 'स्वयं में स्वतंत्र कोई अस्तित्व ही नहीं है। अतः पृथ्वी पर वह सर्वत्र दास रूप में ही विद्यमान है। वस्तुतः पश्चिमी सभ्यता भारतीय समाज में संघर्ष करने का विवश रहा है, जहाँ स्त्री अतुलनीय योद्धाओं से भी भरी राजसभा में चीर हरण का अपमान सहती है, संतति की चाह में पर पुरुष के पास धकिया दी जाती है, युद्ध में हारने पर शत्रु को भेंट कर दी जाती है, नगरवधू और देवदासी बना दी जाती है। विधवा हो जाने पर अपशकुनी एवं रजस्वला हो जाने पर अस्पृश्य करार कर घर से बाहर कर दी जाती है। ऐसा विद्रूप अत्तीत पुरुषों के लिए ही स्वर्णिम हो सकता है हम स्त्रियों के लिए तो कदापि नहीं। इतिहास गवाह है कि परिवार हो या राजनीति अति महत्वाकांक्षी पुरुष स्त्री के उत्सर्गो को हाशिये पर करता चला आया है, क्योंकि जो भी श्रेष्ठ है उसका मुकुट तो किसी न किसी मर्द के माथे पर ही बंधना चाहिए। यही वजह है कि आजादी के 76 वर्ष बाद भी स्त्री जाति इतनी पिछड़ी हुई है कि आज मात्र 33 प्रतिशत आराक्षण 'को भी दो बूंद जिंदगी' की मान संतुष्ट है। आधी आबादी का आधा हिस्सा क्यों नहीं?

अध्ययन का उद्देश्य
प्रस्तुत शोधपत्र का उद्देश्य लैंगिक असमानता को साहित्यिक परिप्रेक्ष्य से अध्ययन किया गया है
साहित्यावलोकन
प्रस्तुत शोधपत्र के लिए विभिन्न पुस्तकों का अध्ययन किया गया है जिनका विवरण शोधपत्र के मुख्य भाग में किया गया है 
मुख्य पाठ

वर्तमान समय में 'स्त्री विमर्श एक महत्वपूर्ण विषय बनकर उभरा है इसका महत्वपूर्ण होना आज समय की मांग भी है। आज जब हम लिंग भेद की बात करते हैं, स्त्री शिक्षा, उसके अधिकार, उसकी पहचान, उसका अस्मिता की बात करते हैं। आधी आबादी के संघर्ष, उसकी समस्याओं तथा साथ ही उसके समाधान की बात करते हैं तो स्पष्टतः हम स्त्री विमर्श की बात करते हैं। स्त्री विमर्श में उसके व अस्मिता के लिए संघर्ष किया गया है। अस्तित्व अर्थात् समाज में उसकी स्थिति तथा अस्मिता अर्थात् उसका भीतरी स्वरूप बाहरी तथा भीतरी दोनों स्तरों पर नारी चेतना के लिए संघर्ष को स्त्री विमर्श कह सकते हैं।

भारतीय तथा पाश्चात्य दोनों ही विचारको ने स्त्री विमर्श को उच्च, मध्य तथा निम्न वर्गों में बांटा है। उत्तर आधुनिकतावाद में स्त्री विमर्श को काफी गति मिली। इस काल में साहित्य में नारियों को अपने अधिकारों के प्रति आवाज अधिक प्रखर हुई है। साहित्य के माध्यम से विभिन्न रचनाओं के नारी पात्र उसे अबला बनाने वाली सामाजिक मानसिकता तथा उस पर किए जाने वाले अत्याचार के विरूद्ध संघर्ष करते दिखायी देते हैं। इस क्षेत्र में हिन्दी कथा, उपन्यास साहित्य में इक्कसवीं सदी में लेखकों एवं लेखिकाओं को उल्लेखनीय सफलता मिली है। वर्तमान में विभिन्न रचनाकार इस दिशा में प्रयासरत हैं जैसे कृष्णा सोबती गीतांजली श्री, मृणाल पांडेय, कमला प्रसाद, अरुंधति राय, रमणिका, मैत्रेयी पुष्पा, दीप्ति खंडेलवाल, गोविन्द मिश्र, भगवान दास मोरवाल, कमला प्रसाद, प्रभा खेतान, मन्नू भंडारी, उषा प्रियवंदा, चित्रा मुदगल, नासिरा शर्मा, मालती जोशी आदि ने अपनी विभिन्न रचनाओं के माध्यम से नारी की विभिन्न समस्याओं को समाज के सामने रखा तथा उसकी अस्मिता व अस्तित्व के प्रश्नों को साहसपूर्ण ढंग से उठाया तथा समाज के सामने विभिन्न आदर्श उपस्थिति किया। स्त्री विमर्श के इन रचनाकारों ने श्रमिक वर्ग की स्त्रियों को इस स्त्री विमर्श का अभिन्न अंग माना है।

हिन्दी साहित्य में कई पीढी की स्त्रियों कई तरह का लेखन कार्य कर रही हैं। इनमें कहानी, संस्मरण, रेखाचित्र, जीवनी, आत्मकथा, राजनीतिक, सामाजिक, आलेख आदि सभी विधाओं में लिख रही है। स्त्रियों के जिस लेखन को कूडे का ढेर समझा जाता था आज उस लेखन को रेखांकित किया जा रहा है। महिलाओं ने साहित्य की कमान संभाली हुई है, अपने अनुभव, अनुभूति से विचार और नजरिये को विभिन्न विधाओं व शैलियों में वह स्वयं को लेखकीय रूप में प्रस्तुत कर रही है। साहित्य में वह अपने दुःख, दर्द, हर्ष, उल्लास, आशा, आकांक्षा को प्रकट कर रही है। उनकी नजर आज के समय और समाज पर भी है और उसे वे बखूबी अपनी रचनाओं में उकेर रही हैं। सियोन द बोउवार कहती हैं कि "औरतों" का आत्मबोध केवल उसकी लैंगिकता से परिभाषित नहीं किया जा सकता है। औरत पैदा नहीं होती बल्कि बनाई जाती है।"1 आज की स्त्री अस्मिता और अस्तित्व की खोज के लिए परेशान भी हैं और उसे समय के अनुरूप ढालना चाहती है। पुरुष भी स्त्री की इस सोच का स्वागत तो कर रहे हैं किंतु सभी नहीं। इनका संघर्ष अभी जारी है इन पुरुषों के खिलाफ पहली महिला इतिहासकार सुमन राजे का इस सम्बन्ध में कथन है कि "अभी तक मुक्ति संघर्षो में स्त्री का मुक्ति संघर्ष सबसे अधिक अहिंसक रक्तहीन और सत्या ग्रही है।"2

भारतीय पितृसत्तात्मक व्यवस्था के लिए सिर्फ पुरुष ही दोषी या इसमें महिलाओं का भी दोष है, यह स्थिति विचारणीय है। महानता के बोझ लिए हुए भारतीय नारियां कहने के लिए तो हमेशा सम्मानीय रही है पर वस्तु स्थिति, यह है कि उनकी पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक हैसियत को हमेशा सीमित किया जाता रहा है। यहां पर 'प्रेमचंद' के गोदान में मेहता का भाषण दृष्टव्य है "पुरुषों में यदि स्त्रियों के गुण आ जाये, तो वह देवता बन जाता है और स्त्री में यदि पुरुष के गुण आ जाये तो वह कुलटा बन जाती है।"3

प्रेमचन्द की इस सोच पर आज की महिलायें सवालिया निशान लगा रही है। का सामाजिक अनुकूलन की ऐसी व्यवस्था में उनका दम घुटने लगता है "इन बन्द कमरों में मेरी साँस घुटी जाती है। खिड़कियाँ खोलता हूँ तो, जहरीली हवा आती है।"4

आधुनिक युग की उपन्यासकार व कथाकार उषा प्रियंवदा का हिन्दी साहित्य में विशेष स्थान है। उषा जी ने अपने उपन्यासों व कहानियों में भारतीय तथा पाश्चात्त्य परिवेश में नारी जीवन को उसक समग्र रूप में उजागर किया है। विभिन्न सामाजिक संबंधों जैसे नर-नारी, पति-पत्नि, भाई बहिन, माँ-बेटी, पिता-पुत्री, आदि के विघटन तथा नारी पात्रों के अन्तर्मन की टीस, छटपटाहट, अन्तर्द्वद तथा उसके संघर्ष को अपनी रचनाओं में स्थान दिया है। मान और हठ, कहानी के माध्यम से उषा प्रियवंदा नारी को समान बराबर का अधिकार व सम्मान नहीं दे पाता है। दिव्या जो कहानी की मुख्य पात्र है रूपवती व गुणवती है, की अपने पति मुकुल से लड़ाई हो जाती है तो मुकुल यही उम्मीद करता है कि दिव्या को ही उसके सामने झुकना चाहिए क्योंकि दिव्या एक स्त्री है तथा वह एक पुरुष निम्नलिखित उदाहरण इसी मानसिकता से प्रेरित है- "सोचता था कि पतिव्रता स्त्री की भांति वह आकर पैरों पड़ेगी, क्षमा मांगेगी, मगर वह नहीं आई। औरत की चाहें, अरमान कुछ महत्व नहीं रखते। यह दुनिया पुरुषों की है। फिर आखिर रूप रंग में रखा ही क्या है।"

"अगर उसे अपने रूप पर मान है तो मैं भी अपने हठ का पक्का हूँ।। झुकेगी तो दिव्या 'वह नारी है पत्नी है, मैं पति हूँ।5 लेखिका नये मूल्यों तथा संदर्भों को अपनी नाटिकाओं के माध्यम से समाज के सामने लाना चाहती है। परन्तु स्पष्ट तौर पर प्राचीन मूल्यों की अवलेहना नहीं कर पाती है। चाहे 'आश्रिता' कहानी की मधु, 'मान और हठ' की दिव्या 'नष्ट नीड़' की रीना, 'बिखरे तिनके' की मणि, 'तूफान के बाद' की अलका, 'नई कोंपल' का विनती, 'अकेली राह की' जया हो ये सब समाज द्वारा निर्मित नारी, मर्यादा, और दायरों की कैद में ही छटपटाती दिखाई देती है। उसका स्वर इन कैदों को तोड़कर समाज में विद्रोह का प्रखर स्वर नहीं पाता है।

मैत्रेयी पुष्पा के साहित्य में "स्त्री विमर्श का जो स्वरूप मिलता है उसके तीन महत्वपूर्ण बिन्दु मिलते हैं शोषण के बहुविधरूप, मुक्ति के स्वप्न और बदलती परिस्थितियों के अनुसार मुक्ति के स्वप्न / आज यद्यपि समाज बहुत आगे गया है। मनुष्य चन्द्रतल की यात्रा कर रहा है। प्रगतिशीता के विविध सोपान दिन प्रतिदिन तय कर रहा है, तथापि आधी दुनिया की स्थिति यही है। "नारी जीवन पालतू कुतिया की तरह है। नारी का जीवन उस परवश पक्षी की तरह है जो पुरुष के पिंजरे में बंद है।... ..... रोटी के लिए स्वावलम्बी है समाज ने उसे अपनी बेड़ियों में जकड़ रखा है।"6

लेखिका ने यहाँ पेशे से शिक्षक तथा रिश्ते में मामा लगने वाले व्यक्ति से बलात्कार का दृश्य वर्णित कर यह सिद्ध करने की कोशिश की है कि स्त्री कहीं भी सुरक्षित नहीं है। मैत्रेयी पुष्पा लिखती है "छोड़ो। छोड़ों मामा... छोड़ दो। किसी तरह आवाज कौंधी! स्वर को कठोर हथेलियों से मजबूती से पूरी तरह भींच डाला कच्ची देह पर परिपक्व मजबूत शरीर कस गया।"7

"अल्मा कबूतरी" लेखिका का सर्वाधिक विवादित एवं महत्वपूर्ण उपन्यास है। जो कबूतरा जनजाति की कथा है इस उपन्यास में स्त्री देह शेषण का मुख्य प्रसंग तब मिलता है जब शराब के भट्टों पर छापा मारने आयी पुलिस पर जुल्म ढाती है। पुलिस के जवान जामुनी नामक कबूतरी स्त्री का इस तरह से सामूहिक बलात्कार करते हैं कि उसके पेट में पल रही बच्चा बाहर निकल आता है, फलस्वरूप दोनों दम तोड देते हैं "जामुनी काली मिट्टी के दल दल में चितपड़ी थी। आखों में शीशे पत्थर की तरह ठहरे हुए। हाथ पर कीचड़ लिपटी हुयी। नंगी जांघों पर खूनी धब्बे/धब्बों पर मिट्टी का लौंदा।"8

उसकी चेतना अब यह महसूस करनी लगी है कि "हमारी बहुत सी पुरानी अवस्थाओं ने ही हमारे नवल विकास के पथ को कंटककीर्ण बनाया है।"9 यही कारण है कि आज की स्त्री वर्जनाओ में और बंधनों से मुक्त होने की छटपटाहट लिये होती है जो उनके इर्दगिर्द तान दी गई है। 'इदन्नम' के माध्यम से लेखिका ने पितृसत्तात्मक समाज द्वारा निर्धारित उन हर नैतिकताओं और मर्यादाओं पर सवाल खड़ा किया है। जो स्त्री हितों के खिलाफ जाती है।

स्त्री विमर्श पर केवल महिला लेखिकाओं ने ही नहीं वरन पुरुष लेखको ने भी बहुत बेबाकी से लिखा है जिसमें भगवानदास मोरवाल आधुनिक समय के प्रतिष्ठित लेखक है। इनके लेखन में पर्याप्त विविधता है राही मासूम राज एवं शानी जैसे उपन्यासकार हो चुके हैं जिन्होंनेजो मुस्लिम समाज को दृष्टि में रखकर उपन्यास लिखे। गोरवाल ने मुस्लिम धर्म की विसंगतियों, स्त्री शोषण, साम्प्रदायिकता आदि विभिन्न सार्थक विषयों को बड़ी सूक्षमता व निर्वयैक्तिकता के साथ प्रस्तुत किया है। वर्ष 2016 में प्रििकशत 'हलाला' उपन्यास खासा चर्चित रहा। इस उपन्यास के माध्यम से इन्होंने मुस्लिम समाज की महिलाओं के धर्म के आधार पर हो रहे शोषण को बड़े मार्मिक ढंग से उजागर किया है। बदलते वक्त के साथ यूँ तो बहुत कुछ बदला है, पहले की अपेक्षा समाज में स्त्रियों के अधिकारों में इजाफा तो अवश्य हुआ। किंतु कुछ जीर्णशीर्ण रूढियाँ ऐसी है, जो हमारे समाज में आज भी जड़े जमाकर बैठी है और हमारे समाज को अंदर ही अंदर दीमक की तरह खोखला कर रही है ऐसी ही एक प्रथा है "हलाला"। वर्तमान समय में इस कलंकित प्रथा को समाप्त करने हेतु हर संभव प्रयास किया जा रहा है, किंतु कुछ स्वार्थी तत्व नहीं चाहते कि यह समाप्त हो क्योंकि इस प्रथा कि आड़ में कुछ धर्म के ठेकेदार महिलाओं को बेआरू करने का घिनौना खेल रहे हैं। लेखक ने इसी समसामायिक ज्वलन्त मुद्दे पर लिखकर समाज व ध्यान इस ओर आकर्षित करने का प्रयास किया है। अपने 'हलाला' उपन्यास की केन्द्रीय पात्र नजराना के माध्यम से उपन्यासकार ने स्त्री मनादेशा का मनोविश्लेषणात्मक चित्र प्रस्तुत किया है, नजराना का ससुर उस पर खराब नियत डाता है विरोध करने पर उसी को चरित्रहीन कहता है जिस कारण नियाज उसका पति कोधवश नजराना को तलाक दे देता है। इस प्रकार जो अपराध उसने किया ही नहीं, उसे उसकी सजा भुगतनी पड़ती है। उसकी सास अपनी बहु को कहती है "अब तो मैं या छिनाल ए जब भी न राखू चाहे ये आग में तपकर आई होए।" हलाला के बाद अपने शौहर के पास वापस जाएगी। इस पर नजराना उत्तर देती है "याको मतलब तो ई हुआ दादा के महीना बीस दिन पीछे मैं वाही घर में चली जाउँ, जहाँ यूँ आसरा छिन्नगो है बुरा न माने तो एक बात पूछें दादा, हम कोई लत्ता कपड़ा हैं के जब जी करे पहर ले ओ और जब जी करे उन्ने उत्तार के फेंक दे ओ।10

लेखक ने अपने इस उपन्यास के माध्यम से मुस्लिम धर्म के यथार्थ को पाठको के समक्ष प्रस्तुत किया है कि इस प्रकार स्त्री को माँग की वस्तु बना दिया है। बाहय तौर पर 'हलाला' पुरुष को सजा देने वाली व्यवस्था है, किंतु अपमान की ज्वाला में स्त्री को ही जलाना पड़ता है।

स्त्री अस्मिता की पृष्ठभूमि पर लिखा गया ऐसा ही एक महत्वपूर्ण उपन्यास गोविन्द मिश्र द्वारा लिखित 'धूल पौधों पर' अपने इस उपन्यास में लेखक ने आधुनिक समाज में स्त्री स्वातन्त्रा की हिमायत्त करने वाले समाज में अभी भी किस प्रकार से स्त्रियों को अपने सम्मान और अधिकारों के लिए व्यवस्था से लड़ना पड़ रहा है। उपन्यास की नायिका अपने साहस एवं दृढ़ इच्छा शक्ति से न केवल इन परतों को खोलती है, अपितु लोक मर्यादा एवं लाज के बोझ में दबी हुई नारी जाति में नया साहस विश्वास एवं दृढ़ इच्छा शक्ति भी जागृत करती है। अतः उपन्यास में नायिका की माँ एवं सास के रूप में लेखक ने स्त्रियों का शोषण स्त्रियों के द्वारा की उक्ति को चरितार्थ, किया है, इस प्रकार स्त्री शोषण के लिए जितने जिम्मेदार पुरुष है उतनी जवाबदेही स्त्रियों की भी हैं मिश्र जी स्त्री अस्मिता के प्रश्न और उसके वजूद की तरफ इशारा करते हुए मानते हैं कि स्त्री का स्वयं का भी अस्तित्व है इस सन्दर्भ में वह उपन्यास की नायिका से कहलवाते हैं कुछ भी नहीं, अपनी इच्छा अनिच्छा रखने "उसका संपूर्ण अधिकार है मेरा अधिकार का भी अधिकार नहीं, सिर्फ इसलिए कि मैं नारी हूँ......... शादी हम दोनों की हुई है तो उसका यह सब अधिकार है, मेरा अधिकार क्या है? मेरा जीवन किसलिए क्या मैं जीवित भी हूँ? मैं जीना नहीं चाहती........11

आधुनिक स्त्रियाँ प्रेम से पूर्व अपनी निजी अस्मिता और अस्तित्व को महत्व दे रही है इस पारंपरिक समाज में पुरुषवादी मानसिकता को आधुनिक स्त्री की बदली सोच ने चुनौती देना शुरु कर दिया है। स्त्री पुरुष के बीच प्रेम सम्बन्धों में पुरुष प्रेम पाना चाहता है, लेकिन स्त्री उस प्रेम में पूर्ण समर्पण से पहले अपने पति से अपने अस्तित्व और अधिकार को पाना चाहती है-

"वह भोग्या नहीं है खाने की कोई चीज नहीं कि पति जब चाहे भक्क से अपने मुँह में डाल ले यह शरीर उसका अपना है। उसके जन्म के साथ यही वह चीज है जो उसे मिली, इतनी बड़ी दुनिया में एक इसी को अपना कह सकती है, इसी के भीतर तो सब है, मन, आत्मा जो भी उसके जीवन का मन्दिर है, इसे कीचड़ से गन्दा नहीं होने देगी। इसे नोचने-खसोटने की इजाजत वह किसी को नहीं देगी। पति को भी नहीं।12

नारी की स्थिति में जो भी परिवर्तन हुए, वह समय और आर्थिक परिस्थितियों के कारण हुए हैं, समय और दबाव ने उसकी स्थिति को बदला है, समय बदला तो समाज का ढाँचा भी बदल रहा है। परिवार का स्वरूप, जरूरते एवं आकांक्षाए भी बदल रही हैं।

निष्कर्ष

अतः हम कह सकते हैं कि वर्तमान समय में जितनी भी यातनाएँ हमें आज की स्त्री में दिखाई देती है उसे अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए कितनी परेशानियों का सामना करना पड़ता है किस प्रकार पग-पग पर अत्याचार और उसका शोषण किया जाता है। आज नारी पुरुष सत्तात्मक व्यवस्था को चुनौती देती है। वह समाज और परिवार के साथ साथ लोगों की मानसिकता को बदलने और सही-गलत का बोध करना चाहती है जिससे आने वाली युवा पीढ़ी को ऐसी रूढ़िवादी मानसिकता से छुटकारा मिल सके और वह अपने विकास पथ पर अग्रसर हो सके। वास्तव में इतने लंबे समय तक अधीनस्था को स्वीकार करते करते उसने वास्तव में अधीनस्थता को इस हद तक आत्मसात कर लिया है कि सत्ता की दमनकारी गतिविधियों को भी वह स्वीकारने लगी है। प्रभाखेतान की उपनिवेश में 'स्त्री' तथा 'मुक्ति कामना की दस वार्ताए स्यिों की विभिन्न स्थितियों को दर्शाती है। ये वार्ताए दफ्तर में काम करने वाली स्त्री, कारखाने में काम करने वाली स्त्री, पुरुष से प्रेम के द्वंद में उलझी हुई स्त्री मानवीय गरिमा की खोज में जुटी हुई स्त्री, बौद्धिक बनती हुई स्त्री, रचना में लिप्त स्त्री, क्रान्ति के ज्ञान से संघर्ष करती स्त्री, ज्ञान मीमांसा की नियति बनाती हुई स्त्री क्रान्ति ज्ञान से संघर्ष करती स्त्री, ज्ञान मीमांसा की नियति बनाती हुई स्त्री तथा भाष व विमर्श के संजाल में फंसी हुई स्त्री के सम्बन्ध में निम्नांकित पक्तियाँ दृष्टव्य है:-

"विधि हूँ न नारि हृदय गति जानी, सकल कपट अघ अवगुन खानी

वृद्ध, रोग, बल, जड़, हीना, अध्रा बधिर क्रोधी अति दीना

ऐसहु पति कर दिए अपमाना, नारी पाव जमपुर दुःख नाना।"

स्त्री की राह अब तक के विभिन्न संघर्षों के साथ उम्मीदों से भरा है। इसका आकाश जगमग है पर उसमें अभी काले बादल खत्म नहीं हुए हैं। बाजारवाद आज स्त्री को सुपरवूमन के रूप में मीडिया के माध्यम से समाज में परोस रहा है। वह स्त्री को 'ब्यूटी विद ब्रेन' की छवि में ढाल रहा है, जो आदर्श भी रहे, यथार्थ भी और सत्चरित भी। इस बाजारवाद में हम कहाँ बिके जा रहे है कि हमारी, जिन्दगी ही हमसें मिसिंग होती जा रही है और इसका इल्म तक हमें नहीं है। 'पिंक' फिल्म में महिला सशक्तिकरण की जिन बातों को भावबोध के साथ उकेरा गया है वह निहायत ही अन्तर्मन को छूनेवाला है इसकी भव्य अनुभूति का प्रयास रहा है।

"तू खद की खोज में निकल, तू किस लिए हताश है।

तू चल तेरे वजूद की, समय को भी तलाश है।"

स्त्री चेतना आज के समय में समाज के समक्ष साहित्य, मीडिया इत्यादि विभिन्न माध्यमों से नारी के साथ सम्पूर्ण समाज को भी झकझोर और जागृत कर रहा है। स्त्री अस्मिता इसी जागरण का जीता जागता प्रमाण है।

सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
  1. सीमोन द बोउवार द सेकेण्ड सेक्स ।
  2. डॉ सुमनराजे, हिन्दी साहित्य का इतिहास पृ० सं० 302
  3. मुंशी प्रेमचन्द, गोदान, पृ०सं० 135
  4. खेमसिंह डहेरिया, उपनिवेश से आधुनिकता तक स्त्री कथा, पृ० 17
  5. उषा प्रियवंदा, 'मान और हठ' पृ० सं० 43-45
  6. 'चूनर की पीड़ा' यादवेन्द्र शर्मा पृ०सं० 288
  7. 'इदन्नम, मैत्रेयी पुष्पा, राजकमल पेपर बैक्स, प्रथम संस्करण 1999 पृ० सं० 93
  8. 'अल्मा कबूतरी', मैत्रेयी पुष्पा, राजकमल पेपर बैक्स, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण, पृ० 44-45
  9. इदन्नम पृ० सं० 217 मैत्रेयी पुष्पा
  10. भगवानदास मोरवाल, 'हलाला' वाणी प्रकाशन, 469521 ए दरियागंज, नई दिल्ली पृ० सं० 175
  11. 'धूल पौधों पर', गोविन्द मिश्र वाणी प्रकाशन, दरियागंज नई दिल्ली, पृ० सं० 24