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उड़ीसा के नृत्यरत मूर्तियों का वास्तुकला तथा समाज पर प्रभाव |
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Influence of Dancing Statues of Orissa on Architecture and Society | |||||||
Paper Id :
19627 Submission Date :
2025-01-16 Acceptance Date :
2025-01-24 Publication Date :
2025-01-25
This is an open-access research paper/article distributed under the terms of the Creative Commons Attribution 4.0 International, which permits unrestricted use, distribution, and reproduction in any medium, provided the original author and source are credited. DOI:10.5281/zenodo.14752562 For verification of this paper, please visit on
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सारांश |
मानव जीवन की उत्पत्ति के साथ ही मानव ने आत्म अभिव्यक्ति तथा आत्म तुष्टि के लिए अनेक प्रकार के कला साधना का प्रयोग किया है। कला जिसकी उत्पत्ति ही कल् धातु से हुई है जिसका अर्थ है - ग्रहण करना या प्रेरणा देना । मानव के विकास के साथ-साथ मनोरंजन के लिए दिन प्रतिदिन नवीन साधनों की उत्पत्ति हुयी। प्राचीन साक्ष्यों के आधार पर हम कह सकते है कि मनुष्य अपनी अभिव्यक्ति या आवश्यकता के लिए नृत्य संगीत चित्र तथा मूर्ति की रचना करते थे जिसका ध्येय आनन्द ही होता था। “कं (सुखम्) लाति इति कलम् ,के आनन्द लाति इति कला।”[1] नृत्य और वास्तुकला अभिव्यक्ति के ही एक सशक्त माध्यम है। नृत्य और वास्तु के बीच एक परस्पर गतिशील सम्बन्ध है। नृत्य में समाहित रूप भाव और सौन्दर्य कलाकारों की रचनात्मकता में महत्वपूर्ण कारक बने। इन नृत्यरत मूर्तियों के कारण ही वास्तुकला में द्वितीय वातावरण का प्रभाव परिलक्षित होता है। जिससे लोगों में संवेदनशील विचार उत्पन्न होता है ।इस विषय को लिखने का उद्देश्य उड़ीसा वास्तुकला और नृत्य कला में परस्पर सम्बन्ध की जाँच करना है। यह एक महत्वपूर्ण अध्ययन है क्योंकि यह नृत्य के विकास के साथ-साथ वास्तुकला में नृत्य के प्रभाव पर भी प्रकाश डाल सकता है। प्राप्त ग्रन्थों के माध्यम से हम कह सकते है कि प्राचीन काल में नृत्य धार्मिक अनुष्ठानों का एक महत्वपूर्ण अंग था, जिसका साक्ष्य गुफाओं (उदयगिरि व खण्डागिरि) और मन्दिरों(जगन्नाथ मन्दिर व कोणार्क सूर्य मन्दिर) में परिलक्षित होता है । मन्दिरों मे नृत्य के माध्यम से ईश्वर की उपासना का चलन आदि काल से चला आ रहा है। जिससे नृत्य पूजन की षोडषोपचार विधि (सोलह विधि) का एक विशेष अंग बन गया। एक ओर जहाँ इन मूर्तियों का सम्बन्ध धर्म से रहा है वही दूसरी ओर ये नृत्य से भी परस्पर जुड़ी रही है। ये मूर्तियों लोक कला तथा लोकरंजन से प्रभावित देवदासी,गोटीपुआ, रामायण, महाभारत आदि से सम्बंधित मूर्तियां है। |
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | With the origin of human life, man has used many types of art for self expression and self satisfaction. Art has originated from the metal 'Kal' which means to receive or inspire. With the development of man, new means of entertainment have emerged day by day. On the basis of ancient evidence, we can say that man used to create dance, music, painting and sculpture for his expression or requirement, whose aim was only pleasure. "Kam (Sukham) Laati Iti Kalam, Ke Anand Laati Iti Kala."1 Dance and architecture are a powerful medium of expression. There is a mutual dynamic relationship between dance and architecture. The form, emotion and beauty contained in dance became important factors in the creativity of artists. Due to these dancing statues, the effect of the second environment is reflected in the architecture. Due to which sensitive thoughts arise in people. The purpose of writing this subject is to investigate the mutual relationship between Odisha architecture and dance art. This is an important study because it can throw light on the development of dance as well as the influence of dance in architecture. Through the available texts, we can say that in ancient times, dance was an important part of religious rituals, evidence of which is reflected in caves (Udayagiri and Khandagairi) and temples (Jagannath Temple and Konark Sun Temple). The practice of worshipping God through dance in temples has been going on since ancient times. Due to which dance became a special part of the Shodashopachar method (sixteen methods) of worship. On one hand, while these idols have been related to religion, on the other hand, they have also been interconnected with dance. These idols are related to Devdasi, Gotipua, Ramayana, Mahabharata etc. influenced by folk art and folk entertainment. | ||||||
मुख्य शब्द | नृत्यरत, मूर्तियाँ, मुद्रा, मूर्तिकला, भाव, भंगिमा, मंदिर, कला, नृत्य। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Dancing, Statues, Posture, Sculpture, Expression, Gesture, Temple, Art, Dance. | ||||||
प्रस्तावना | प्रागैतिहासिक काल के भित्ति चित्र हो या भरहुत, सांची, अजंता, एलोरा सभी स्थानों पर कलात्मक नृत्य मुद्रायें दिखाई देती है। उस समय नृत्यकला को प्रदर्शन कला के रूप में देखा जाता था। जहाँ मनुष्य का शरीर ही उसके लिए अभिव्यक्ति का साधन बनता था। नृत्य मनुष्य के भाव-अभिव्यक्ति का स्पष्ट स्वरूप है। नृत्य देश-विदेश के प्रत्येक स्थान पर प्रत्यक्ष दिखाई पड़ता है परंतु भारतीय नृत्य विश्व के प्रत्येक नृत्य से पृथक है क्योंकि भारतीय नृत्य ईश्वर को समर्पित किया जाता है। नृत्य में नर्तक के भाव अभिव्यक्ति का आधार लय, ताल व स्वर होता है, उसी प्रकार दृश्य कलाकार की अभिव्यक्ति का माध्यम रंग, रूप और धरातल होता है। भारत एक ऐसा देश है जहां भिन्न-भिन्न संस्कृतियों का मिश्रण है। सनातन संस्कृति का नाम जब भी लिया जाता है तो उड़ीसा का नाम ना हो ऐसा नहीं हो सकता। उड़ीसा लोककला, चित्रकला तथा वास्तुकला की अपनी विशेषता के लिए जाना जाता है। भारत में उत्तर हो या दक्षिण सभी मंदिरों में नृत्यरत मुद्राओं का अंकन किया गया है। भारत में शायद ही कोई ऐसा मंदिर हो जहां अन्य मूर्ति तथा चित्र विषयों के साथ-साथ नृत्य विषयों से संबंधित मूर्ति या चित्र ना हो। इन मूर्तियों ने धार्मिक तथा सामाजिक जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। समय के साथ-साथ मंदिरों के आकार व स्वरूप बदले परंतु प्रत्येक मंदिर में नृत्य मूर्तियाँ बनने की परंपरा आज भी वही है। |
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अध्ययन का उद्देश्य |
प्रस्तुत शोधपत्र का उद्देश्य उड़ीसा के नृत्यरत मूर्तियों का वास्तुकला तथा उनका समाज पर प्रभाव का अध्ययन किया गया है । |
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साहित्यावलोकन | प्रस्तुत शोधपत्र
के लिए विभिन्न पुस्तकों का अध्ययन किया गया है जिनमें से रीता प्रताप (2016) की भारतीय
चित्रकला एवं मूर्तिकला का इतिहास, पृथ्वीकुमार
अग्रवाल (2014) की प्राचीन भारतीय कला एवम् वास्तु, सुप्रभा
मिश्रा (2014) की भारतीय नृत्य, ई. डोनाल्डसन थॉमस (1986) हिंदू
टेंपल आर्ट ऑफ ओडिसा (द्वितीय भाग) एवं मीनाक्षी कासलीवाल ‘भारती’ (2021) की पुस्तक 'भारतीय मूर्तिकला एवं स्थापत्यकला' आदि
का अध्ययन किया गया है। |
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मुख्य पाठ |
उदयगिरि व खण्डगिरि उड़ीसा में सबसे प्राचीन शास्त्रीय नृत्य शैली के साक्ष्य प्राप्त हुए है। उड़ीसा में भुवनेश्वर के निकट स्थित उदयगिरि व खण्डगिरि गुफा में ओडिसी नृत्य का सर्वप्रथम साक्ष्य मिलता है, जो प्राचीन काल में कला की महत्वता को दिखाता है। यहाँ की रानी गुफा में जैन राजा खारवेल के दरबार नृत्य को दिखाया गया है, जिसमें कई पुरुषों तथा स्त्रियों को संगीतकार तथा नर्तकियों के रूप में अंकित किया गया है। इन सभी में नर्तकी की मूर्ति सर्वश्रेष्ठ है इसकी मुद्रा समकालीन नृत्य की मुद्रा के समान है, जो वर्तमान समय में ओडिसी नृत्य के आधार स्वरूप स्थापित है। उदयगिरि की गुफाओं में प्रचुर मात्रा में संगीत तथा नृत्य के दृश्य अंकित है। भुवनेश्वर का राजा रानी मंदिर इस मंदिर में सौंदर्य से परिपूर्ण तथा मनोभावन मूर्तियाँ अलंकृत मुद्रा में अंकित है। राजा रानी मंदिर में नटराज को विशेष नृत्य भंगिमा में प्रदर्शित किया गया है। उड़ीसा के मंदिरों में नटराज के नृत्यरत मुद्राओं की अधिकता है। नटराज जिसमें नट का अर्थ- नर्तक तथा राज का अर्थ राजा होता है अर्थात नर्तकों का राजा। नटराज जिन्हें सृष्टि के प्रलय तथा सृष्टा के रूप में जानते हैं, इन्हें नृत्य कला का सृष्टा भी मानते हैं। नटराज की यह प्रतिमा सृजन, संरक्षण और विनाश के सांसारिक रूप को दिखता है। यह नृत्यरत मूर्तियों का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। केऊँझर का शिव मंदिर केऊँझर का शिव मंदिर चैथी शताब्दी में बना था। यहाँ से नटराज की मूर्ति प्राप्त हुई है, जिसे भारत की सबसे प्राचीन नृत्यरत शिव की प्रतिमा मानते हैं। इसमें भगवान शिव की आठ भुजाएं हैं। इस मूर्ति में दॉया हाथ जो ऊपर है उसमें डमरू है जो सृष्टि की उत्पत्ति को प्रदर्शित करता है, ऊपर के बाएं हाथ में अग्नि पात्र है जो प्रलय का प्रतीक है, हाथ जो नीचे है वह आत्मीयता को प्रदर्शित करता है, दॉया हाथ पताका मुद्रा में है जो वरदान तथा निर्भयता का प्रतीक है, एक पैर जो हवा में है वह मुक्ति को दर्शाता है तथा एक पैर जिसके नीचे राक्षस है वह दुष्टों के नाश को अंकित करता है। ये मुद्राएं नृत्यकला में विशेष महत्व रखती हैं। इन मुद्राओं में विशेष रूप से वीर रस का भाव दृष्टिगत होता है, जिससे मूर्ति में अद्वितीय सौंदर्य का भाव दिखाई पड़ता है। पुरी का जगन्नाथ मंदिर जगन्नाथ मंदिर जो शास्त्रीय काल के उदाहरण में से एक है। यह मंदिर चार भागों में विभाजित है, भोगमंडप, नटमंडप, जगमोहन और गर्भगृह। गर्भगृह जहाँ मुख्य भगवान की मूर्ति स्थापित होती है। मंदिर में नटमंडप की स्थापना नृत्य तथा संगीत के लिए ही किया गया था। यहाँ के भोगमंडप की दीवार पर नटराज को बैल पर नृत्य करते दिखाया गया है। इस दृश्य में भगवान शिव को संध्या तांडव करते दिखाया गया है, इसमें भगवान शिव को शांतिपूर्ण तथा आरामदायक नृत्य मुद्रा में अंकित किया गया है तथा उनके चारों ओर अन्य देवी.देवताओं को दर्शक के रूप में दिखाया गया है। भोग मंडप के एक अन्य दृश्य में राज दरबार अंकित है जिसमें राजा के समक्ष नर्तकी नृत्य कर रही है। इसके अतिरिक्त जगन्नाथ मंदिर में भगवान कृष्ण और गोपियों की अनेकों नृत्य मुद्राओं को अंकित किया गया है। जो भगवान कृष्ण के नृत्य रास का अनुभव करती है। इन मूर्तियों में भगवान की दिव्यता के साथ-साथ श्रृंगार रस भी स्पष्ट रूप से दृष्टव्य है। यही पर भगवान कृष्ण को कालिया नाग पर नृत्य करते दिखाया गया है जिसमें वह कालिया नाग के अहंकार को नष्ट कर उसके सहस्त्र फनों पर नृत्य कर रहे है। जिसे देखकर वीर रस का अनुभव होता है। जगन्नाथ मंदिर में उकेरी गई असंख्य नृत्य की मूर्तियाँ नृत्य कला के सौंदर्य को प्रदर्शित करती है। विष्णु जी के सभी अवतारों में भगवान कृष्ण का अवतार विशेष उल्लेखनीय है। भगवान कृष्ण की अनेक लीलाएं इस मंदिर में दर्शायी गई है जिसमें से कुछ नृत्य से भी जुड़ी है। इसमें रासलीला अत्यंत प्रसिद्ध है जो नृत्य के जगत में महत्वपूर्ण है। ये मूर्तियाँ आज भी हमें आध्यात्म की ओर ले जाती है। मारकंडेश्वर, शिशिरेश्वर, खंडेश्वर तथा पातालेश्वर आदि मंदिरों में भी नृत्य भंगिमाओं से निहित मूर्तियाँ देखने को मिलती है। कोणार्क का सूर्य मंदिर इस मंदिर के तोरण के ऊपरी किनारे में नर्तक तथा संगीतकारों के दृश्य अंकित है। यहाँ के नट मंडप के स्तंभों पर अधिकतर नृत्यरत आकृतियाँ नारियों की है। इन मूर्तियों में उल्लासमय आनंद दिखाई देता है। इन मूर्तियों को बड़ी कुशलता से उकेरा गया है, जिससे इनमें गति व भव्यता दृष्टिगत होती है। यहां के स्तंभों दीवारों तथा छतों पर नृत्यरत आकृतियाँ इस बात का साक्ष्य है कि सूर्य मंदिर में नृत्य करने की परंपरा थी। इस मंदिर के निकट समुद्र तट होने के कारण तूफान आदि से ये मूर्तियाँ बहुत प्रभावित हुई हैं परंतु इसके बाद भी इसमें निहित सौंदर्य अद्वितीय है। नृत्य तथा मूर्ति में मध्यस्थता उड़ीसा स्थित मंदिरों में शायद ही कोई मंदिर हो जहाँ से नृत्यरत मूर्तियाँ न प्राप्त हुई हो। चित्रकला तथा मूर्तिकला के उत्कृष्ट समन्वय से स्थापत्य कला अद्वितीय दिखाई देती है। मंदिरों के सौंदर्य को बढ़ाने में मूर्तिकला तथा चित्रकला का विशेष योगदान रहा है। नृत्य पूर्ण रूप से गतिशील होता है। एक मूर्तिकार नृत्य के किसी एक आकर्षक भाव व मुद्रा का प्रयोग कर उसमें निहित भाव को दर्शक के सामने लाता है। मूर्तिकार केवल प्रत्यक्ष रूपों की रचना नहीं करता, बल्कि वह सूक्ष्म विचारों का भी अंकन करता है। उड़ीसा के मंदिरों की मूर्तियों को देखकर लगता है कि जैसे उनमें प्राण हो और वे बोलती हो।। नृत्यरत मूर्तियों में निहित लय मंदिर के सौंदर्य को बढ़ा देती है। मंदिरों में परिलक्षित इन मूर्तियों में नर्तक के वे सभी भाव हैं जो दर्शक को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। नाट्यशास्त्र में बताए गए चाल और करणो का प्रभाव इन नृत्यरत मूर्तियों में दिखाई पड़ता है। मंदिरों में परिलक्षित यह नृत्य आज भी प्रचलित है। भारतीय शास्त्रीय काल में मूर्तिकला का महत्व बहुत अधिक था, मंदिरों की आंतरिक तथा बाह्य सज्जा मूर्तियों के द्वारा ही की जाती थी। असंख्य विषयों से संबंधित ये मूर्तियाँ मंदिर के परिसर में दिव्य वातावरण का अनुभव प्रदान करती है। मूर्तिकारों ने नृत्य कला को बहुत ही सम्मान दिया उन्होंने नृत्य की भाव-भंगाओं का अनुभव किया तथा उन भावों को अपनी मूर्तियों के द्वारा रूप प्रदान किया। इन मूर्तियों में दर्शायी गई भाव-भंगिमा को देखकर लगता है जैसे की मूर्तिकार स्वयं नृत्य तथा अभिनय के विशेषज्ञ रहे होंगे। वैसे तो बहुत से विषयों में मूर्तियाँ बनी परंतु नृत्यरत मूर्तियों में विशेष आकर्षण होता है ये मूर्तियाँ स्थिर होते हुए गतिशील दृष्टिगत होती है। गतिशील दृष्टिगत होती है। विश्रान्तिर्यस्यसम्भोगोगे सा कला न कला मता। लीयते परमानन्दे ययात्मा सा परा कला।।2 अर्थात् “जिस कला में भोग या आनंद हो वह कभी भी कला नहीं हो सकती है कला का अर्थ तो परमात्मा में लीन हो जाना है” भारतीय कला का एकमात्र उद्देश्य ईश्वर को पाना है। एक कला को तभी श्रेष्ठ माना जाता है जब वह सत्यम् शिवम् सुंदरम् की संज्ञा से परिपूर्ण हो। कोई भी कलाकार जब तक अपनी कला में सत्य और शिव अर्थात भगवान का अनुभव नहीं करता है उसकी कला में सौंदर्य दृष्टिगत नहीं होता है। सभी कलाओं में अलग-अलग विषय निहित होते हैं परंतु इन सभी का एकमात्र उद्देश्य आनंद रस की निष्पत्ति है। एक कलाकार अपने भाव को कला के माध्यम से व्यक्त करता है जिसके फलस्वरूप दर्शक उस भाव को ग्रहण करता है। नृत्य एक नर्तक को उस स्थान पर ले जाता है जहाँ आत्मा की परमात्मा से भेंट होती है जिसके फलस्वरुप उसे शांति की अनुभूति होती है। |
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निष्कर्ष |
नृत्य का मूर्तिकला के साथ परस्पर संबंध रहा है। उड़ीसा के सम्पूर्ण मंदिर अलंकरणों व मूर्तियों से सुसज्जित है। उड़ीसा की मूर्तियों में सांस्कृतिक परंपरा और आध्यात्मिकता दृष्टिगत होती है। मानव के अभ्युदय के साथ ही नृत्यकला का भी उदय हुआ। मूर्तिकला अत्यंत श्रमसाध्य है, नृत्य मुद्राओं का मूर्ति कला में विशेष योगदान रहा है। नृत्य में निहित आकर्षण के फलस्वरुप नृत्यरत मूर्तियों का अधिक मात्रा में निर्माण हुआ। नाट्य शास्त्र में बताए गए भाव और रसों का प्रयोग इन मंदिरों की नृत्यरत मूर्तियों में स्पष्ट रूप से हुआ है। वर्तमान समय में नृत्य का अर्थ केवल मनोरंजन ही रह गया है, परंतु मंदिरों में परिलक्षित यह नृत्यरत मूर्तियाँ हमारी संस्कृति वैभव के साथ-साथ शास्त्रीय नृत्य की भी सारथी है। जो हमें हमारी संस्कृति के करीब ले जाती हैं। किसी भी कला के भाव को समझने में प्रत्येक व्यक्ति की अपनी-अपनी क्षमता होती है। उन भावों को समझने के लिए व्यक्ति को उस कला की परख होनी चाहिए, क्योंकि भारतीय कला आत्मपरक होती है। कला साधना के कारण ही कलाकार की कला अमर कहलाती है। किसी भी देश की मूर्तियाँ उस देश की कला, संस्कृति तथा सभ्यता की परिचायक होती है। इसी कारण इस अद्भुत कला को देश-विदेश से लाखों पर्यटक देखने आते हैं। मूर्तिकार के कारण ही वर्षों पुरानी सभ्यता को हम जीवंत देख सकते हैं। |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची |
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