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नेपाल में कुलीन तंत्र का आविर्भाव एवं उत्थान |
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The Emergence and Rise of Oligarchy in Nepal | |||||||
Paper Id :
19747 Submission Date :
2024-11-04 Acceptance Date :
2024-11-21 Publication Date :
2024-11-25
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सारांश |
राजमाता राजेन्द्र लक्ष्मी तथा बहादुर शाह के संघर्ष
से लाभान्वित होकर तनहूँ के राजा हरकुमार दत्त सेन ने पाल्पा एवं पर्वत राज्यों का
साहाय्य प्राप्त करके पर्वतीय भाग पर पुनः आधिपत्य जमाया। इससे चौबीसे राज्य का
मनोबल बढ़ा और पर्वत, लम्जुङ्ग एवं तनहूँ प्रभृति राज्यों की संयुक्त सेना
ने सन् 1781 ई0 में
गोरखा पर आक्रमण किया। गोरखा सेना ने अमर सिंह थापा के नायकत्व में चेपे नदी पर
चिसेटी के युद्ध में चौबीसे सेना को पराजित किया। सिहानचौक में भी गोरखा सेना की
विजय हुई। इससे चेपे प्रखण्ड गोरखों के आधीन हुआ। पराजित होने पर चौबीसे राज्य की
सेना ने कास्की पर आधिपत्य स्थापित किया। कास्की के राजा सिद्धिनारायण शाह ने
गोरखा राज्य में शरण ली। इसी अवधि में ज्यामरुक गोरखा सेना के अधीन हुआ और
तार्कुघाट में पर्वत एवं लम्जुङ्ग की सेना में युद्ध हुए। युद्ध में चौबीसे सेना
पराजित हुई और लम्जुङ्ग सेना के नायक भक्ति थापा एवं पर्वत सेना के नायक बलिभज्जन
गोरखों द्वारा बन्दी बना लिये गये। कालान्तर में भक्ति थापा ने गोरखों की अधीनता
स्वीकार की और बलिभज्जन की मृत्यु बन्दीगृह में हुई। इस प्रकार कास्की नेपाल राज्य
में सम्मिलित हुआ। तदुपरान्त गोरखा सेना लम्जुड्ग में प्रविष्ट हुई जिसके कारण
लम्जुङ्ग के राजा वीर मर्दन को पलायन करना पड़ा। उस समय दत्त सेन ने लम्जुङ्ग में
शरण ली थी।
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | Benefiting from the struggle of Rajmata Rajendra Laxmi and Bahadur Shah, King Harkumar Dutt Sen of Tanahun re-established his control over the hilly region with the help of Palpa and Parvat states. This boosted the morale of the Choubise state and the joint army of Parvat, Lamjung and Tanahun etc. states attacked Gorkha in 1781 AD. The Gorkha army under the leadership of Amar Singh Thapa defeated the Choubise army in the battle of Chiseti on the Chepe river. The Gorkha army also won in Sihanchowk. Due to this, the Chepe block came under the control of the Gorkhas. On being defeated, the army of Choubise state established its control over Kaski. King Siddhinarayan Shah of Kaski took refuge in the Gorkha state. During the same period, Jyamruk came under the control of the Gorkha army and wars took place between the armies of Parvat and Lamjung in Tarkughat. In the war, the twenty-fourth army was defeated and the leader of the Lamjung army, Bhakti Thapa and the leader of the mountain army, Balibhajjan, were captured by the Gorkhas. Later, Bhakti Thapa accepted the supremacy of the Gorkhas and Balibhajjan died in prison. Thus, Kaski was included in the Nepal kingdom. Thereafter, the Gorkha army entered Lamjung due to which the king of Lamjung, Veer Mardan, had to flee. At that time, Datta Sen had taken refuge in Lamjung. | ||||||
मुख्य शब्द | वंशावली, राज्याश्रित, कुलीन तंत्र, उपत्यका, चतुर्दिक, अभिजात्य, तटावस्थित, विजयोपरान्त, पितृव्य। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Genealogy, State-Dependent, Noble System, Valley, All Around, Aristocratic, Coastal, Post-Conquest, Paternal. | ||||||
प्रस्तावना | इतिहास के साधनों का अध्ययन करने के लिए देश की भौगोलिक स्थितियों का पर्यवेक्षण करना अत्यन्त समीचीन है। नेपाल के इतिहास से सम्बन्धित पर्वत सम्राट हिमालय का भू-भाग, जो आधुनिक काल में नेपाल अधिराज्य के नाम से अभिषिक्त है। सोलहवी शताब्दी तक विभिन्न गिरखण्ड राज्यों में विभक्त था। एक छोटे से क्षेत्र के लिए नेपाल की भौगोलिक विविधता बहुत उल्लेखनीय है। नेपाल एशिया महाद्वीप का हिस्सा है। नेपाल के उत्तर में चीन का स्वायतशासी प्रदेश तिब्बत है और दक्षिण, पूर्व व पश्चिम में भारत अवस्थित है। नेपाल की संस्कृति एवं जन-जीवन के प्रत्येक क्षेत्र पर हिन्दू तथा बोद्ध धर्म का प्रभाव है। यहां की राजभाषा नेपाली है, जो हिन्दी से मिलती-जुलती है। यहां की जनसंख्या 90 प्रतिशत हिन्दू हैं। बौद्ध धर्म के प्रर्वतक बुद्ध का जन्म लुम्बनी में हुआ था, जो नेपाल में है तथा उनके पिता की राजधानी कपिलवस्तु, भारत में है। आज भी भारत के राजघरानों के वैवाहिक सम्बन्ध नेपाल के राजघरानों से हैं। वर्तमान नेपाली भू-भाग अठारहवीं सदी में गोरखा के शाहवंशीय राजा पृथ्वी नारायण शाह द्वारा संगठित नेपाल राज्य का एक अंश है। |
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अध्ययन का उद्देश्य |
प्रस्तुत शोधपत्र का उद्देश्य नेपाल में कुलीन तंत्र के आविर्भाव एवं उत्थान का अध्ययन करना है। |
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साहित्यावलोकन | नेपाल में कुलीनतन्त्र के संस्थापक गोरखा राज-वंश का इतिहास पन्द्रहवीं शताब्दी में आरम्भ हुआ। राइट कृत हिस्ट्री ऑफ नेपाल एवं राजस्थान में विभिन्न वंशावलियों में प्रारम्भिक राजाओं के नाम भिन्न-भिन्न हैं। भाषा वंशावली के अनुसार चित्तौड़गढ़ के चन्द्रवंशी राजा भट्टारक ऋषीराज राणाजी के कुल में तैंतीसवाँ राजा भूपति राणा जी राव हुए। उनके उदय वम, फत्तेसिंह एवं मन्मथ तीन पुत्र थे। इनमें फत्तेसिंह की रूपवती पुत्री सदल के लिए यवनों ने आक्रमण करके चित्तौड़गढ़ को विध्वंस किया। अलख मधुप लिखित ‘नेपाल देश और निवासी’ ग्रन्थानुसार, राजकुमारी सदल ने पन्द्रह सौ राजपूतानियों के साथ जौहर में अपने प्राणों की आहुति दी। तत्पश्चात् मन्मथ उज्जैन चला गया। वहाँ उसके अब्रह्माणिक तथा भूपाल पुत्रों में वैमनस्य के परिणामस्वरूप भूपाल ने उज्जैन परित्यक्त कर नेपाल स्थित रीडी नामक तीर्थस्थान पर अपना निवास बनाया। वह सन् 1494 ई0 में रीडी से भिरकोट जिले के खिलुम ग्राम में अवस्थित हुआ। वहीं भूपालराव के दो पुत्र उत्पन्न हुए जिनके नाम खान्चाखान तथा मिचाखान थे। कतिपय पुरातात्त्विकों अनुसार खान्चा-मिन्चा गण्डकी अंचल अवस्थित मगरकुल के मूलवासी थे। ज्येष्ठ पुत्र खान्चाखान ने अपना राज्य ढोर में स्थापित क्रिया। समयोपरान्त कुछ समय पश्चात उसने भिरकोट, सतहूँ, गरहूँ राज्य विजय करके ढोर राज्य में सम्मिलित किया। उस काल तक ढोर के कुलीन सामन्त प्रजा का दोहन के लिए राज्यरूपी तन्त्र का निर्माण कर चुके थे। कनिष्ठ पुत्र मिन्चाखान ने नुवाकोट में राज्य किया। इस प्रकार खान वंशीय राजाओं के दो पृथक-पृथक् राजवंश प्रस्थापित हुए। वंशावली के अनुसार मिन्चाखान के अनन्तर जैयन खान, रूपसूर्य खान, विचित्र खान, जग देवखान एवं कुल मण्डन नुवाकोट के राजा हुए। कुल मण्डन को दिल्ली बादशाह ने ‘शाह’ की उपाधि दी। तभी से उसने अपने को शाह राजवंश कहना शुरु किया। कुल मण्डन शाह के सात पुत्र थे। ज्येष्ठ पुत्र अपने पिता के पश्चात् कास्की का राजा हुआ। द्वितीय पुत्र कालू शाह अपने पिता के जीवन काल ही में लम्जुङ्ग दुराडाँडा का राजा बनाने के लिए प्रजा द्वारा ले जाया गया। वहाँ वह विषाक्त बाण से घायल होकर आखेट करते मारा गया। परिणामस्वरूप कुलमण्डन शाह ने अपने ज्येष्ठ पुत्र के अतिरिक्त अन्य किसी पुत्र को राजा चुन लेने की स्वीकृति दी। इस प्रकार उसका कनिष्ठ पुत्र यशोब्रह्म शाह लम्जुड्ग का राजा हुआ। तदनन्तर यशोब्रह्म शाह का ज्येष्ठ पत्र नरहरि शाह लम्जुङ्ग का राजा हुआ और द्वितीय पुत्र द्रव्य शाह ने अपने लिए गोरखा राज्य प्राप्त किया। इस काल में गोरखा में खड्का एवं लिगलिग में मगर जाति के राजा थे।[1] यह शौर्य - युग था। इन राज्यों में राजा चुनने की विचित्र प्रथा थी। विजया-दशमी के समारोह में दौड़कर जो सर्वप्रथम लिगलिग कोट में पहुँच जाता था वही आगामी विजयादशमी तक के लिए राजा मान लिया जाता था। ऐसे ही एक समारोह में द्रव्य शाह की सेना ने निःशस्त्र भीड़ पर सहसा आक्रमण किया। उनका प्रत्यावरोध खड्का राजा के समर्थक गुरुङ्गों ने तो किया किन्तु पराजित होकर उन्हें आगामी वर्षों के लिए भी द्रव्य शाह को लिगलिग का राजा मान लेना पड़ा। तदुपरान्त सरदारों का प्रोत्साहन प्राप्त करके द्रव्य शाह ने रात्रि में गोरखा के निम्न कोट में प्रविष्ट करके खड्का राजा को मौत की घाट उतार दिया। इस प्रकार सन् 1559 ई0 में द्रव्य शाह गोरखा का राजा हुआ। तदुपरान्त द्रव्य शाह के अग्रज नरहरि शाह ने स्वयं राजा बनने के लिए द्रव्य शाह के विरुद्ध षड्यन्त्र किया। दोनों भ्राताओं में युद्ध छिड़ने की सम्भावना देखकर उनकी विधवा माता बसन्तावती ने अपने स्तन का दुग्ध चेपे नदी में प्लावित करके द्वय-राज्य की सीमा निर्धारित की। बाद में द्रव्य शाह ने सिह्रानचौक एवं अजीरगढ़ विजय किया। नरहरि शाह ने स्वर्गीय पिता का श्राद्ध संयुक्त रूप से करने का बहाना रचकर द्रव्य शाह को लम्जुड्ग आमंत्रित किया एवं उसे बध करने का कुचक्र रचा। षड्यन्त्र का पूर्वाभास द्रव्य शाह को अपनी धाय- पुत्री से मिल गया। फलस्वरूप द्रव्य शाह ने पलायन कर अपने प्राण बचाए। सन् 1559 ई0 से सन् 1577 ई0 तक द्रव्य शाह ने गोरखा पर राज्य किया। तत्कालीन गोरखा राज्य की सीमा सिहानचौक, अजीरगढ़, दरौदी एवं गुरुड्गथोक तक थी। वंशावली के अनुसार द्रव्य शाह के पश्चात् पुरन्दर शाह ने पैंतीस वर्ष राज्य किया। इन दिनों दिल्ली तख्त पर जहाँगीर आसीन था और गोरखा का शाह वंश उससे भयभीत रहता था। पुरन्दर शाह के अनन्तर छत्र शाह राजा हुआ। उसने केवल सात माह राज्य किया। वह सन्तानहीन था। उसकी मृत्यु के पश्चात् उसका सहोदर सन् 1605 या 1606 ई0 में राजा हुआ। वंशावली के अनुसार राम शाह ने सत्ताईस वर्ष राज्य किया और वह अपनी नूतन व्यवस्थाओं के लिए प्रसिद्ध हुआ। इस काल तक भूमि का स्वामित्व गोरखा राज्य में राजा में निहित था। भूमि देने का अधिकार राज परिवार, मन्त्री, ब्राह्मण एवं अंगरक्षक आदि किसी को भी नहीं था।[2] कृषि भूमि का सीमा - सम्बन्धी विवाद पंचों द्वारा निर्णीत होता था। ग्राम पंचायतें बाँध, नहर सम्बन्धी विवादों का निर्णय करती थीं । न्यायालयों में यद्यपि शालिग्राम की मूर्ति स्पर्श करके वादी प्रतिवादी अपना-अपना बयान प्रस्तुत करते थे। दण्ड प्रावधान भी अनेक थे तथापि सम्पूर्ण दण्ड- व्यवस्था की प्रकृति बर्बर थी। हत्या - भागी होने पर राजा के संगोत्रियों, ब्राह्मण, संन्यासी एवं भाटों को राज्य निष्कासन तथा प्रधानमन्त्री से लेकर अन्य राजकीय कर्मचारियों एवं इतरेय जातियों को मृत्यु-दण्ड मिलता था। दासों से श्रम - साध्य कार्य लिये जाते और उनका पलायन मार्ग अवरुद्ध करने हेतु रात्रि में उनके दोनों पैरों को काष्ठ छिद्र में जकड़ दिया जाता था। उस काल तक प्रकृति निषिद्ध पौर्वात्य हिंसक जनजातियाँ पाषाणकालीन संस्कृति में निःश्वास ले रही थीं। राम शाह के पूर्व अनाज मापने के प्रमाणित पैमाने नहीं थे। अनाज विनियम के मापन की क्रिया में बाँस के ढोंगे, काष्ठ की डोलनी तथा बेंत की डालियाँ प्रयुक्त होते थे। माना, पाथी, तोला एवं मासा आदि मापन के उपकरण उसी काल से व्यवहृत हुए। नकद धनराशि के दस प्रतिशत तथा अन्य के चतुर्थांश ब्याजस्वरूप प्रति वर्ष लेने के नियम बने। शासन व्यवस्था एवं सामाजिक पर्वों आदि सम्बन्धी नियम-उपनियम भी उसी काल में निर्मित हुए।[3] परिवार एवं सम्पत्ति कुलीनतन्त्र के मुख्य स्तम्भ थे। धनिकों एवं निर्धनों की भिन्न-भिन्न सामाजिक प्रणाली के अन्तर्विरोध भी साथ-ही-साथ अंकुरित होने लगे थे। |
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मुख्य पाठ |
गोरखा राज्याश्रित ब्राह्मणों ने राम शाह में विष्णु भगवान का अंश सिद्ध किया।
राज्य आय का एक निश्चित भाग सत्कार्य में तथा अन्य निश्चित भाग असत्कार्य में व्यय
होने का लेखा-जोखा प्रस्तुत होने लगा। राम शाह ने सल्यान, मकवानपुर एवं पाल्पा
आदि राजाओं से सम्बन्ध स्थापित किए। उसने पाटन के राजा सिद्धि नरसिंह मल्ल से
मैत्री करके नेवार महाजनों को गोरखा में बसाया।[4] इस प्रकार के सम्बन्धों से
राज्यों में सम्पर्क बढ़ा और पर्वतीय प्रजातियों में परस्पर संश्लेषण की प्रथा
प्रचलित हुई। राम शाह के राज्य काल में व्यापार स्यार्तान, अठारसैखोला, सल्यान कोट, बस्याहाटी, खरी, मैधा, चरग निभार चोक, धादिङ्ग एवं फिर्केप
आदि स्थानों पर गोरखा राज्य का आधिपत्य हुआ। केरुड्ग विजय करके गोरखे भोट-राज्य
तिब्बत अवस्थित कुकुरघाट तक पहुँच गये किन्तु पराजित होकर उन्हें कुकुरघाट से
प्रत्यावर्तित होना पड़ा। गोरखों से परास्त होकर लम्जुङ्ग के राजा को मर्स्याङ्ग
नदी पार भागना पड़ा।
वंशावली के अनुसार शाह राजा ने दिल्ली सुल्तान जहाँगीर के पास एक उपहार भेजा। उसकी मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र दलमर्दन शाह सन् 1637 ई0 में गोरखा का राजा हुआ। दल मर्दनशाह का नाम डम्बर शाह भी था। इसने सन् 1637 ई0 से सन् 1642 ई0 तक राज्य किया। दलमर्दन शाह कान्तीपुर के राजा प्रताप मल्ल का समकालीन था। तत्पश्चात् उसके पुत्र कृष्ण शाह ने ग्यारह वर्ष राज्य किया। कृष्ण शाह के बाद उसके पुत्र रुद्र शाह ने सन् 1669 ई0 तक अर्थात् सोलह वर्ष राज्य किया। तदुपरान्त रुद्र शाह के पुत्र पृथ्वीपति शाह ने सैंतालिस वर्ष राज्य किया। पृथ्वीपति शाह के अनेक पुत्र/ज्येष्ठ पुत्र वीरभद्र शाह की मृत्यु पहले हो चुकी थी। इससे उत्तराधिकार के लिए दरबारी भारदारों के विभिन्न दल बन गये। इनके अतिरिक्त तनहूँ के राजा ने भी अपनी पुत्री मल्लिकावती तथा पौत्र शिशु नरभूपाल शाह को गोरखा राज्य का वास्तविक उत्तराधिकारी बनाने का षड्यन्त्र किया एवं उन दोनों को ननिहाल के बहाने अपने यहाँ रख लिया। परिणामस्वरूप शिशु नरभूपाल शाह भाइयों द्वारा तनहूँ से गोरखा लाया गया। इस रहस्य को तीन वर्ष तक गुप्त रखा गया। वंशावली के अनुसार एक सहस्र छह सौ अड़तीस अर्थात् सन् 1716 ई0 में नरभूपाल शाह गोरखा की राजगद्दी पर बैठा। तदुपरान्त लम्जुङ्ग एवं तनहूँ की संयुक्त शक्ति ने गोरखा राज्य पर असफल आक्रमण किया । तदनन्तर सन् 1737 ई0 में नरभूपाल शाह ने भी नुवाकोट पर ऐसा ही आक्रमण किया। काजी जयन्त राना एवं रामकृष्ण थापा पदच्युत हुए और मगर भारदारों के स्थान पर पाँडे सरदारों का प्रादुर्भाव हुआ। नुवाकोट की पराजय से नरभूपाल शाह ने राज्य कार्य से वैराग्य लेकर अपनी ज्येष्ठ रानी चन्द्रप्रभावती को राज-कार्य सौंप दिया। उसने पाँच वर्षों तक राज्य का संचालन किया। नरभूपाल शाह के देहावसान के उपरान्त उसका ज्येष्ठ पुत्र पृथ्वीनारायण शाह बीस वर्ष की अवस्था में गोरखा का राजा हुआ। इस समय काठमाण्डू उपत्यका तीन राज्य समूहों में विभक्त था और उनके पारस्परिक वैमनस्य चरम सीमा पर थे। इस परिस्थिति से पृथ्वीनारायण ने प्रभूत लाभ उठाया। इन दिनों उपत्यका के मल्ल राजे पतनोन्मुख थे। उनके भारदार, सरदार एवं महाजन अधिक प्रभावशाली हो चुके थे। वे अपने अभ्युदय के लिए राजनीतिक परिवर्तन चाहते थे। इसी परिप्रेक्ष्य में पृथ्वीनारायण शाह ने अपनी ससुराल वाराणसी के सैनिकों द्वारा गोरखाली सेना को प्रशिक्षित तथा अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित किया। शाहवंशीय सेना के सभी उच्चाधिकारी अभिजात्य वर्ग के होते थे। उन्हें संगठित रखने में पृथ्वीनाराण शाह को अल्पतम व्यय भार उठाना पड़ता था। उसके सैन्याधिकारी धनोपार्जन हेतु सदैव युद्ध की योजनाएँ बनाया करते थे। उपत्यका की सामान्य प्रजा मल्ल सामन्तों के अत्याचारों से संत्रस्त होकर एक नयी राज्य-व्यवस्था की आकांक्षी थी। इस स्थिति का लाभ उठाकर पृथ्वीनारायण शाह ने काठमाण्डू उपत्यका की चतुर्दिक आर्थिक नाकाबन्दी कर दी। यहाँ तक कि लवण एवं कपास जैसी साधारण वस्तुओं को भी उपत्यका में पहुँचाने वालों को मृत्यु - दण्ड देकर जीवन निर्वाह के अनिवार्य पदार्थों का भी राज्य में प्रवेश बन्द कर दिया। गोरखा राज्य के प्रधान काजी कालू पांडे ने भी लम्जुङ्ग से सैनिक साँठ-गाँठ करके नुवाकोट पर तीन ओर से आक्रमण किया। विजय उपरान्त पृथ्वीनारायण शाह ने बेल्कोट पर आक्रमण किया। उसमें गोरखाली सेना के अधिक सैनिक तथा अधिकारी हताहत हुए। नुवाकोट प्रभाग को अधिकृत करके गोरखा सेना ने सन् 1646 ई0 में नालदुम एवं महादेव पोखरी पर आधिपत्य जमाया। तदुपरान्त दहचोक पर उसे विजय प्राप्त हुई। इससे लम्जुङ्ग एवं काठमाण्डू का सम्बन्ध विच्छेद हुआ और उपत्यका के सभी मार्ग अवरुद्ध हुए। फलस्वरूप सन् 1757 ई0 में गोरखा सेना को लम्जुङ्ग पर्वत तथा तनहूँ की संयुक्त शक्ति से सिंहानचौक में युद्ध करना पड़ा। युद्ध में लम्जुड्ग की पराजय हुई और गोरखाली सेना को भी अपनी शक्ति विभक्त करनी पड़ी। तदनन्तर गोरखाली सेना ने लामेडाँडा पर आधिपत्य जमा कर काठमाण्डू उपत्यका तथा तिब्बत मार्ग अवरुद्ध किया। उसने दोलखा को भी आसानी से अपने अधीन कर लिया। गोरखाली सेना की आक्रमण नीति से चौबीसे राज्य समूह भयभीत थे। बालचन्द्र शर्मा कृत नेपाल की ऐतिहासिक रूपरेखा ग्रन्थानुसार पृथ्वीनारायण शाह ने अनेक जैसी ब्राह्मणों [5] को प्राणदण्ड दिये तथा उन्हें ब्राह्मण जाति से च्युत करके इतरेय जाति स्तर पर कर दिया। तनहूँ के राजा त्रिविक्रम सेन को त्रिशूली तटावस्थित गुरु गौरेश्वर पन्त द्वारा आमन्त्रित कराकर पृथ्वी नारायण शाह ने उसे बन्दी बना लिया एवं तनहूँ राज्य पर भी आधिपत्य जमा लिया। फर्पिङ्ग, बड़ागाऊँ चापागऊँ, टेचो, सुनागाऊँ बल्खु, सतङ्गल एवं खोकना भी बारी-बारी परास्त होकर गोरखा राज्य में विलीन हुए । भाजड्गज में छावनी स्थापित करके गोरखाली सेना ने कीर्तिनगर पर भी आक्रमण किया। बल्खुखोला तट पर कीर्तिपुर की सेना एवं गोरखाली सेना में घमासान युद्ध हुआ। इसमें गोरखा राज्य का प्रधान काजी कालू पांडे मारा गया। पृथ्वीनारायण शाह को नुवाकोट भागना पड़ा तथापि गोरखाली सेना अपनी आक्रामक नीति एवं रण अभियान से विरत नहीं हुई। सन् 1759 ई0 में पलान चौक तथा सन् 1760 ई0 में काभ्रेकोट तथा सन् 1761 ई0 में चौकोट, काहुले एवं कविलासपुर भी उसके अधीन हुए। पृथ्वी नारायण शाह ने सन् 1762 ई0 में अपने त्रि-भ्राताओं, कीर्तिमहोद्दाम, दलपति शाह एवं दलजीत शाह के नायकत्व में अपनी द्वितीय ससुराल मकवानपुर पर विजय प्राप्त किया। हैमिल्टन कृत ‘अकाउण्ट ऑफ नेपाल’ ग्रन्थानुसार गोरखा सेना ने मकवानपुर की प्रजा पर अत्यधिक अत्याचार किया। पृथ्वीनारायण शाह ने अपने साले दिग्बन्धन सेन को भी बन्दी बनाया। तिमाल एवं सिंघलीगढ़ी आधिपत्य करने के अनन्तर पृथ्वी नारायण शाह ने सन् सत्तरह सौ बासठ ईसवी में नुवाकोट में नया दरबार बनवाया। शाह वंशी राजाओं में सर्वप्रथम पृथ्वीनारायण शाह ने रजत मुद्रा प्रचलित की और उसके अग्रभाग पर श्री - श्री पृथ्वीनारायण शाह देव तथा पृष्ठभाग पर श्री-‘श्री गोरखनाथ’ एवं ‘श्री श्री भवानी’, ‘श्री श्री तीन लोकनार्थ’ उत्कीर्ण की। उन्हीं दिनों सन् 1763 ई0 में नवाब मीर कासिम अली की यवन सेना ने गुरगिन खाँ के नायकत्व में मकवानपुर गढ़ी पर दो दिशाओं से आक्रमण किया। प्रत्याक्रमण स्वरूप गोरखा सेना ने पर्वतीय श्रेणियों से प्रत्याघात करके नवाब की सेना को बुरी तरह परास्त कर दिया। युद्ध में नवाब के सत्तरह सौ सैनिक हताहत हुए तथा उनकी पाँच-सात सौ बन्दूकें तथा अनेक तोपें गोरखों को प्राप्त हुईं। कतिपय ऐतिहासिक ग्रन्थों के अनुसार पृथ्वीनारायण शाह ने गोरखे सैनिकों को बन्दूक चलाने की ट्रेनिंग अकबर खाँ आदि यवनों से भी दिलाई। पुरस्कारस्वरूप यवनों को पर्याप्त भूमि प्रदान की गई। गोरखा राज्य में सैनिकों को नियमित रूप से वेतन देने की प्रथा नहीं थी । उन्हें विजित प्रजा का नाना प्रकार से शोषण करने की स्वतन्त्रता थी। दिनेश श्रेष्ठ कृत आलेखानुसार पृथ्वीनारायण शाह की सेना गोरख, नया गोरख, कालीबक्स, शार्दुलगंज वज्रवाणी, सबुज एवं श्रीनाथ नामक सप्त पल्टनों में विभक्त थी। धुलिखोल, चौकोट, पनौती, खडप एवं बनेपा पर आधिपत्य स्थापित करने के पश्चात् गोरखा सेना ने सन् 1764 ई0 में कीर्तिपुर पर पुनः आक्रमण किया। पृथ्वी नारायण शाह जिस थापा, पाँड़े, बस्नेत एवं माझी सेनानियों के सहायता से गोरखा राज्य की स्थापना की, उन्हें वीरता कार्यों के लिए भूमि के टुकड़े वीरतास्वरूप प्रदान किए। कालान्तर में वीरता - भूमि का वर्गीकरण सोलह वर्गों में हुआ जिसका निर्धारण जाति एवं कर्मों के आधार पर था। कीर्तिपुर विजय से पृथ्वीनारायण शाह को काठमाण्डू विजय करना सुगम हुआ तथापि गोरखाली सेना को सिन्धुलीगढ़ी में ब्रिटिश सेना से युद्ध करना पड़ा। ब्रिटिश सेना कप्तान किनलोक के नायकत्व में कान्तिपुर के राजा जयप्रकाश मल्ल की सहायता की थी। ऐसी परिस्थिति में भी उपत्यका के तीनों राज्यों में पारस्परिक वैमनस्य अत्यधिक रहे और पाटन एवं भक्त के राजा हतोत्साहित होकर पलायन की स्थिति में थे। इससे 25 सितम्बर, सन् 1768 ई0 को पृथ्वीनारायण शाह की सेना ने बड़ी युक्ति से कान्तिपुर पर आधिपत्य कर लिया। तदनन्तर सन् 1771 ई0 में गोरखा सेना ने भक्तपुर के राजा रणजीत मल्ल के सप्त भ्राताओं को प्रलोभन देकर भक्तपुर पर आक्रमण किया। वंशावली के अनुसार कान्तिपुर के राजा जयप्रकाश मल्ल एवं पाटन के राजा तेज नरसिंह मल्ल ने पराजित होकर भक्तपुर में शरण ली। तीनों मल्ल राजाओं के भारतीय सैनिकों ने गोरखा सेना का कड़ा प्रतिरोध किया। भारतीय सैनिकों ने इस युद्ध में तोप का प्रयोग किया तथापि विजयश्री गोरखों को प्राप्त हुई। एच. ए. ओल्डफील्ड कृत स्केच फ्रॉम नेपाल ग्रन्थानुसार पृथ्वीनारायण शाह ने नेवार राजवंश के समस्त राजपुरुषों की हत्या करायी। काठमाण्डू उपत्यका पर आधिपत्य स्थापित करने के पश्चात् पृथ्वी नारायण शाह ने शत्रुओं की सम्पत्ति अपहृत करने की नीति अपनायी ताकि वे जीवन-यापन के साधनों को जुटाने में इतने व्यस्त रहें कि उन्हें विद्रोह करने का साहस ही न हो सके। पृथ्वी नारायण शाह के शासनकाल में पर्वतीय अन्चलों की विभिन्न बोलियाँ एवं प्रवृत्तियाँ गोरखाली कुरा तथा गोरखाली संस्कृति के स्वरूप में विकसित हुईं। इससे पर्वतीय प्रजातियों में रक्त सम्मिश्रण की प्रवृत्ति बढ़ी और पर्वतीय प्रखण्डों में सम्पर्क मार्ग बनने आरम्भ हुए। हाटों की स्थिति में भी विकास हुआ और व्यापारिक परिधि विस्तृत हुई। पर्सिवल लैण्डम के ग्रन्थानुसार पृथ्वीनारायण शाह ने ईसाई मिशनरियों को अपने राज्य से निष्कासित किया। ईसाई धर्म-ग्रन्थों के अनुसार तत्कालीन केपुचिन ईसाई पादरियों की संख्या बासठ थी। पृथ्वीनारायण शाह ने प्राचीन हनुमान ढोका दरबार के सन्निकट नौमंजिला दरबार बनवाया। वह वहाँ से भी राज संचालन करने लगा। सन् 1777 ई0 में गोरखा नरेश ने गण्डकी प्रदेश के चौबीसों राज्यों को विजय करने के निमित्त काजी वंशराज पांडे, सरदार कहर सिंह बस्नेत एवं प्रभुमल्ल प्रभृति सेनानायकों के नायकत्व में अपनी सेना कास्की भेजी। गोरखा सेना कास्की सेना को भण्डारी ढिक में परास्त करके नुवाकोट के सैनिकों द्वारा पराजित हुई। सन् 1772 ई0 में उसने गण्डक क्षेत्र पर द्वितीय बार आक्रमण किया। बाध्य होकर तनहूँ के राजा हरकुमार दत्त सेन को अपनी सेना सहित गोरखा सेना का साथ देना पड़ा। रिसङ्ग ढोर, गहुँ पय्यूँ एवं भिरकोट परास्त करके गोरखाली सेना ने नुवाकोट एवं कास्की[6] पर पुनः आक्रमण किया। परिणामस्वरूप पर्वत के राजा कीर्तिबम मल्ल ने चौबीसे राज्य समूह के अनेक राजाओं से सैनिक बल प्राप्त करके गोरखा सेना को पराजित करके कुछ राज्यों को स्वत्रन्त्र कराया। इस युद्ध में गोरखी सेना के अनेक सरदार कुँवर सिंह बस्नेत के साथ मारे गये और काजी पांडे आदि घायलावस्था में बन्दी हुए। इस पराजय से गोरखा सेना को बाध्य होकर ढोर में शत्रुओं के अधीन रहना पड़ा। कोसी प्रखण्ड विजय करते समय राणा वंश का पूर्वज रामकृष्ण कुँवर भी गोरखाली सेना में नियुक्त था। हैमिल्टन कृत ‘अकाउन्ट्स ऑफ नेपाल’ ग्रन्थ के अनुसार सन् 1773 ई0 में चौदण्डी राज्य गोरखों के अधीन हो गया। पृथ्वीनारायण शाह ने चौदण्डी के राजा कर्णसेन के अबोध पुत्र का भी बध करा दिया। इसी प्रकार सन् 1774 ई0 में मोरड्ग भी गोरखों के अधीन हो गया। उसके मन्त्री बुद्धकर्ण राई की मुत्यु बन्दीगृह में हुई। लिम्बुआन का ऐतिहासिक नाम किरात प्रदेश था। इस प्रदेश में किरात जातियों का प्रभुत्व था और वे सिक्किम राज्य से संत्रस्त थे। परिणामस्वरूप गोरखा सेना ने सुगमतापूर्वक लिम्बुआन पर विजय प्राप्त की। विजयोपरान्त पृथ्वीनारायण शाह ने कीपट प्रथा [7] स्थापित करके किरात सरदारों को सुब्बाओं की उपाधि से विभूषित किया। सन् 1774 ई0 के अन्त तक गोरखा सेना तमर नदी तटवर्ती ईलाम प्रखण्ड को अधिकृत करके दार्जिलिंग में प्रविष्ट हुई। सैन्य अभियान में गोरखों को सिक्किम एवं तिब्बत की सेना से घमासान युद्ध करना पड़ा। पृथ्वी नारायण शाह की मृत्यु के समय गोरखा राज्य की सीमा उत्तर में रसुवागढ़ी, दक्षिण में मोरड्ग, पूर्व में दार्जिलिंग तथा पश्चिम में मर्स्याङ्दी नदी एवं चेपे तक थी। योगी नरहरिनाथ शास्त्री सम्पादित ग्रन्थ ‘गोरखा वंशावली’ के अनुसार गोरखा सेना ने हिमालय के मुकुट से गंगा तट तक तथा भोट को भी विजय करके अपना राष्ट्र-ध्वज लहराया। शाह राजवंश का संस्थापक पृथ्वी नारायण शाह कट्टर हिन्दू था। उसकी कट्टरता का प्रमाण ईसाई मिशनरियों को अपने राज्य से निष्कासित कर देना था। पृथ्वी नारायण शाह ने छोटे-छोटे पर्वतीय राज्यों को गोरखा राज्य में विलीन करके वर्तमान नेपाल राष्ट्र की नींव डाली। शाह राजवंश के प्रतिष्ठाता पृथ्वी नारायण शाह की मृत्यु के पश्चात् उसका ज्येष्ठ पुत्र सिंहप्रताप शाह नेपाल का राजा हुआ। क्रिर्कपैट्रिक कृत ‘नेपाल’ ग्रन्थानुसार सिंहप्रताप के विरुद्ध उसके पितृव्य दलजीत शाह एवं भ्राता बम बहादुर शाह ने भीषण षड्यन्त्र किए। इस अपराध में दोनों की सम्पत्ति अपहृत कर दोनों का राज्य निष्कासन कर दिया गया।[8] उदयानन्द आर्याल कृत ‘सिंह प्रताप को वर्णन’ ग्रन्थ के अनुसार सिंह प्रताप शाह ने केवल दो वर्ष नौ माह राज्य किया। इस अवधि में अभिमान सिंह बस्नेत के नायकत्व में उसकी सेना ने तनहूँ पर आक्रमण किया। सन् 1777 ई0 में पाड्गढ़ी एवं चितौन प्रखण्ड नेपाल राज्य में मिला लिए गए। सिंह प्रताप शाह की मृत्यु के अनन्तर उसका पुत्र रण बहादुर शाह बाल्यावस्था में राज्याधिकारी हुआ। परिणामस्वरूप उसको निष्कासित कर पितृव्य बहादुर शाह बेतिया से काठमाण्डू पहुँचकर राज्य का संरक्षक बन बैठा। संत्रस्त होकर राजमाता राजेन्द्र लक्ष्मी ने बहादुर शाह को बन्दी बनाकर राज्य संचालन स्वयं किया। क्रिर्कपैट्रिक कृत ग्रन्थ ‘नेपाल’ के अनुसार बन्दी जीवन से मुक्त होने पर बहादुर शाह ने राजमाता को बन्दी बनाया और चौबीसे राज्य को परास्त करने के लिए एक विशाल सेना तनहूँ भेजी। फलस्वरूप सन् 1779 ई0 में चौबीसे सेना पराजित हुई और तनहूँ का राजा हरकुमार दत्त सेन निचलौल भाग गया। राजमाता राजेन्द्र लक्ष्मी तथा बहादुर शाह के संघर्ष से लाभान्वित होकर तनहूँ के राजा हरकुमार दत्त सेन ने पाल्पा एवं पर्वत राज्यों का साहाय्य प्राप्त करके पर्वतीय भाग पर पुनः आधिपत्य जमाया। इससे चौबीसे राज्य का मनोबल बढ़ा और पर्वत, लम्जुङ्ग एवं तनहूँ प्रभृति राज्यों की संयुक्त सेना ने सन् 1781 ई0 में गोरखा पर आक्रमण किया। गोरखा सेना ने अमर सिंह थापा के नायकत्व में चेपे नदी पर चिसेटी के युद्ध में चौबीसे सेना को पराजित किया। सिहानचौक में भी गोरखा सेना की विजय हुई। इससे चेपे प्रखण्ड गोरखों के आधीन हुआ। पराजित होने पर चौबीसे राज्य की सेना ने कास्की पर आधिपत्य स्थापित किया। कास्की के राजा सिद्धिनारायण शाह ने गोरखा राज्य में शरण ली। इसी अवधि में ज्यामरुक गोरखा सेना के अधीन हुआ और तार्कुघाट में पर्वत एवं लम्जुङ्ग की सेना में युद्ध हुए। युद्ध में चौबीसे सेना पराजित हुई और लम्जुङ्ग सेना के नायक भक्ति थापा एवं पर्वत सेना के नायक बलिभज्जन गोरखों द्वारा बन्दी बना लिये गये। कालान्तर में भक्ति थापा ने गोरखों की अधीनता स्वीकार की और बलिभज्जन की मृत्यु बन्दीगृह में हुई। इस प्रकार कास्की नेपाल राज्य में सम्मिलित हुआ। तदुपरान्त गोरखा सेना लम्जुड्ग में प्रविष्ट हुई जिसके कारण लम्जुङ्ग के राजा वीर मर्दन को पलायन करना पड़ा। उस समय दत्त सेन ने लम्जुङ्ग में शरण ली थी। फलस्वरूप वीर मर्दन शाह एवं हरकुमार दत्त सेन दोनों प्राण-रक्षा हेतु भाग निकले एवं मुस्ताङ्ग, पर्वत, गुल्मी एवं पाल्पा होते हुए रामनगर पहुँचे। इस प्रकार सन् 1782 ई0 में लम्जुङ्ग एवं तनहूँ नेपाल राज्य में अन्तर्भाव हो गये। सन् 1785 ई0 में नुवाकोट नेपाल राज्य का अंग हुआ। इस अवधि में नेपाली सेना का संचालन राजमाता राजेन्द्र लक्ष्मी ने किया। नुवाकोट में पय्यूँ की सेना भी पराजित हुई तथापि लम्जुड्ग की रक्षार्थ नेपाल राज्य की सेना को पय्यूँ एवं नुवाकोट का परित्याग करना पड़ा। इन्हीं दिनों अभियान सिंह बस्नेत के नायकत्व में राजमाता राजेन्द्र लक्ष्मी ने एक सेना पाल्पा भेजी। दर्दा विजय के पश्चात् बीरकोट क्षेत्र में पाल्पाली सेना से उसे युद्ध करना पड़ा। इसी मध्य पर्वत की सुदृढ़ सेना ने लम्जुङ्ग प्रयाण किया। विवश होकर नेपाल राज्य की सेना को पाल्पा से लम्जुङ्ग हटना पड़ा। इस प्रकार पाल्पा, नुवाकोट एवं पय्यूँ की सेनाओं ने संयुक्त रूप से मकैडाँडा में पर्वत अधीनस्थ चौबीसे सेना को परास्त किया। पराजित होने पर चौबीसे सेना लम्जुङ्ग परित्यक्त कर भाग खड़ी हुई। इस युद्ध में कास्की सेना चौबीसे सेना के साथ थी। इससे नेपाल राज्य की सेना ने कास्की को अपने राज्य में समाविष्ट किया। तदुपरान्त सतहूँ, भिरकोट एवं रिसिङ्ग पर भी नेपाल राज्य की सेना का आधिपत्य स्थापित हुआ। नौ वर्षों की अवधि में नेपाल राज्य की पश्चिमी सीमा अत्यधिक विस्तृत हुई। सन् 1786 ई0 में राजमाता राजेन्द्र लक्ष्मी की मृत्यु के तदनन्तर बहादुर शाह नेपाल राज्य का संरक्षक हुआ। नेपाल राज्य की सेना को अपने प्रभाव में रखने ने लिए ब्रिटिश मिलिट्री दल तीन मार्च, सन् 1793 ई0 को कर्नल विलियम क्रिर्कपैट्रिक के नायकत्व में काठमाण्डू पहुँचा। हैमिल्टन कृत ग्रन्थ ‘अकाउन्ट्स ऑफ नेपाल’ के अनुसार राजमाता राजेन्द्र लक्ष्मी से संरक्षक बहादुर शाह का अनैतिक सम्बन्ध था और राजमाता की मृत्यु के पश्चात् बहादुर शाह ने पाल्पा के राजा महादत्त सेन की पुत्री से अपना विवाह करके दोनों राज्यों का प्राचीन सम्बन्ध सुदृढ़ किया। तत्पश्चात् बहादुर शाह ने पाल्पा के सहायता से चौबीसे राज्य विजय करने हेतु दामोदर पांडे के नायकत्व में एक सेना भेजी। इस काल तक सेनापति का पद प्रधानमन्त्री जैसा था किन्तु प्रशासन की अपेक्षा सैन्य संचालन महत्त्वपूर्ण माना जाता था। राजाओं के परम श्रेष्ठ विश्वसनीय व्यक्ति ही सेनापति नियुक्त होते थे। दामोदर पांडे के नायकत्व में नेपाल राज्य की सेना ने नुवाकोट पर आधिपत्य करके एवं अर्धाकोट में पर्वत के सैनिकों से युद्ध करके अर्धा, गुलमी एवं इस्मा अपने प्रभुत्व में किया। बाग्लुड्ग पर आधिपत्य नेपाली सेना ने अमर सिंह थापा के नायकत्व में किया। अन्ततोगत्वा पर्वत की सेना ने बाध्य होकर आत्म-समर्पण किया। तत्पश्चात् प्यूठान एवं दाड्ग बिना रक्त-पात के ही हथियार डालकर नेपाल राज्य में विलीन हो गये। पाल्पा एवं मुसीकोट को पराजित करने के पश्चात् अमर सिंह थापा ने जाजरकोट से युद्ध किया जिसका अन्त एक संधि द्वारा हुआ। चौबीसे राज्य पर विजय प्राप्त करने में पाल्पा राज्य ने नेपाल राज्य की सहायता की थी। हेमिल्टन प्रणीत ‘अकाउण्ट्स ऑफ नेपाल’ ग्रन्थानुसार दामोदर पांडे ने गुलमी, अर्धा एवं खाँची मात्र पाल्पा राज्य को प्रदान करके अवशेष प्रखंडों को नेपाल राज्य में सम्मिलित किया। अमर सिंह थापा के नायकत्व में एक सेना कर्णाली प्रभाग में प्रविष्ट हुई। भेरी नदी पार सुरर्खेत में उसकी मुठभेड़ दैलेख की सेना से हुई। दैलेख की सेना पराजित हुई एवं दैलेख नेपाल राज्य में विलीन हुआ। इस प्रकार नेपाल राज्य की सीमा कर्णाली महानदी तक विस्तीर्ण हो गई। तदुपरान्त कर्णाली पार करके सिंह थापा ने अछाम एवं डोटी को डुम्राकोट एवं तारिम घाटी में परास्त करके सन् 1790 ईसवी तक नेपाल राज्य की पश्चिमी सीमा महाकाली एवं शारदा तक विस्तृत की। तिब्बती ऐतिहासिक ग्रन्थों के अनुसार इस काल तक तिब्बत में नेपाली मुद्रा प्रचलित थी और तिब्बत एक प्रकार से महाचीन के अधीन था। तिब्बत में नेपाली मुद्रा प्रचलन का कारण तिब्बत-नेपाल के मध्य व्यापारिक सम्बन्ध था। सन् 1799 ई0 में नेपाली सेना ने तिब्बत से युद्ध किया। परिणामस्वरूप नेपाली नायकत्व में ल्हासा सेना कुती - मार्ग से टाशी हुम्पों तक एवं चीनी सेना चान्चू तक पहुँची। वार्तास्वरूप दोनों सेनाओं में युद्ध नहीं हुआ। संघर्ष का उत्तरदायित्व तिब्बत पर थोप दिया गया। तिब्बत ने नेपाल को पचास सहस्र रुपये दिये और नेपाल ने खीरु, कुती, लोड्गा, जोड्गा एवं फ्लाक, विजित प्रखण्ड पर से अपना आधिपत्य त्याग दिया। तदुपरान्त नेपाल राज्य ने हरिखवास एवं बलभद्र खवास प्रभृति पचीस व्यक्तियों का एक नेपाली दल विभिन्न उपहारों के साथ चीन सम्राट के पास भेजा। प्रतिफलस्वरूप चीन सम्राट ने नेपाल के राजा के लिए उपाधि और पोशाक एवं बहुमूल्य अन्योपहार प्रदान किया। पर्सीवल लैण्डम कृत ग्रन्थ ‘नेपाल’ के अनुसार तिब्बत-नेपाल सन्धि एक कुचक्र मात्र थी। एक वर्ष के पश्चात् तिब्बत ने अपनी संकल्प-राशि नहीं दी और उल्टे ल्हासा में नेपाली व्यापारियों की लूट-पाट की। इसके अतिरिक्त तिब्बत ने नेपाली वस्तुओं पर कर भी बढ़ाया। उसके बाद सन् 1791 ई0 में नेपाल राज्य के संरक्षक बहादुर शाह ने नेपाली सेना को तिब्बत पर आक्रमण करने के लिए उत्प्रेरित किया। क्रिर्कपैट्रिक कृत ग्रन्थ ‘नेपाल’ के अनुसार नेपाली सेना के प्रविष्ट होते ही तिब्बत में आतंक व्याप्त हुआ और दलाई लामा भागने के लिए उद्यत हुआ। परिणामस्वरूप तिब्बत ने नेपाल से नयी सन्धि की। उसने नेपाल को तीन लाख रुपये प्रतिवर्ष देना स्वीकार किया तथा नेपाली मुद्रा का प्रचलन भी तिब्बत में होने लगा। क्रिर्कपैट्रिक के अनुसार तिब्बत के दलाई लामा ने कलकत्ता स्थित ईस्ट इण्डिया कम्पनी के अधिकारियों के पास एक प्रतिनिधि मण्डल भेजकर नेपाल की निन्दा की। पार्सीवल लैण्डम प्रणीत ग्रन्थ ‘नेपाल’ के अनुसार तिब्बत - नेपाल सन्धि को न तो ल्हासा दरबार की अनुमति प्राप्त थी और न ही वह चीन सम्राट को सूचित करके हुई थी। सन् 1791 ई0 के संघर्ष में नेपाली सेना ने दिगार्चा के विहारों की सम्पत्ति विनष्ट की और नेपाल आए हुए तिब्बती अधिकारी को बन्दी बना लिया। हैमिल्टन कृत ग्रन्थानुसार नेपाली सैनिकों की संख्या सप्त सहस्र थी। तिब्बत के रक्षार्थ चीन की विशाल सेना जनवरी, सन् 1792 ई0 में पहुँची। ब्रिटिश इतिहासकारों के अनुसार चीनी सैनिकों की संख्या सत्तर सहस्र थी किन्तु एक चीनी इतिहासकार के अनुसार तिब्बती एवं चीनी कुल सैनिक दस सहस्र मात्र थे। चीनी सेना फु-काङ्ग-आन के नायकत्व में नुवाकोट पहुँची। धैबुङ्ग रणक्षेत्र में दोनों पक्ष के चार सहस्र सैनिक काल-कलवित हुए। क्रिर्कपैट्रिक कृत ग्रन्थ ‘नेपाल’ के अनुसार चीनी सेना पाँच-माने पर्वतमाला तक पहुँची। नेपाल राज्य ने सम्पूर्ण सरकारी कोष इसके पूर्व ही मकवानपुर भेज दी। चीनी सेना जीतपुर फेदी तक आ पहुंची। नेपाली सैनिकों ने वृक्षों एवं पशुओं के श्रृंगों में प्रज्वलित मशालें बाँध दी। इससे चीनी सैनिकों ने अपने को तीन ओर से आवृत्त समझा और उनमें भगदड़ मच गयी। तत्पश्चात् उभय पक्षों में सन्धि हुई। पर्सिवल लैण्डम एवं हैमिल्टन ने अपने- अपने ग्रन्थों में इस सन्धि का उल्लेख किया है। तिब्बत पर चीन का प्रभुत्व स्थापित हुआ और ईस्ट इण्डिया कम्पनी से नेपाल का भय जाता रहा। क्रिर्कपैट्रिक कृत ग्रन्थ ‘अकाउण्ट्स ऑफ नेपाल’ के अनुसार ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने नेपाल तथा तिब्बत को अपने अनुकूल रखकर लाभप्रद व्यापार किया। इसी सन्दर्भ में ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने नेपाल से सप्त-सूत्री व्यावसायिक सन्धि की। इस सन्धि से नेपाल के प्राचीन कुटीर उद्योग-धन्धे नष्ट हो गये। मार्च सन् 1792 ई0 में संरक्षक बहादुर शाह ने व्यावसायिक सन्धि पर हस्ताक्षर किये। इसका उद्देश्य ईस्ट इण्डिया कम्पनी से सैनिक सहायता प्राप्त करना था। अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में ब्रिटेन के इतिहास में ‘औद्योगिक क्रान्ति’ का जो महत्त्व है, साम्यवादी विचारक पुष्पलाल कृत साम्यवादी साहित्यों के अनुसार वही महत्त्व नेपाल के इतिहास में ईस्ट इण्डिया कम्पनी के साथ हुए व्यावसायिक सन्धि का माना जाता है। |
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निष्कर्ष |
बहादुर शाह ने नेपाल राज्य के संरक्षक के रूप में सम्पूर्ण राज्य-शक्ति अपने हाथों में ले लिया। इससे राजा रण बहादुर शाह ने बहादुर शाह पर स्वयं राजा बनने का आरोप लगाकर उसे बन्दी लिया। हैमिल्टन कृत ग्रन्थ ‘नेपाल’ के अनुसार सन् 1795 ई0 में सेनानायक बम बहादुर शाह की हत्या राजा रण बहादुर शाह द्वारा स्वयं हुई। बालचन्द शर्मा कृत ‘नेपाल की ऐतिहासिक रूपरेखा’ ग्रन्थ के अनुसार राजा रण बहादुर शाह ने अपनी एक पटरानी के कहने पर अपनी ही ज्येष्ठ रानी त्रिपुर सुन्दरी के ज्येष्ठ पुत्र युवराज रणोद्दीप शाह एवं अनेक सगोत्रियों की हत्या कराई। विराज विरचित ग्रन्थ ‘नेपालेश्वर’ के अनुसार भी वास्तविक राज्याधिकारी युवराज रणोद्दीप शाह की हत्या राजा की सम्मति से हुई थी। रण बहादुर शाह की पाँच पत्नियाँ थीं। उनमें तृतीय पत्नी मिथिला की ब्राह्मणी थी। खरदार बाबूराम आचार्य प्रभृति नेपाली इतिहासज्ञों के अनुसार सन् 1800 ई0 में राजा रण बहादुर शाह को पदच्युत करके युवराज गीवार्ण को राजगद्दी पर बैठाया गया। तदुपरान्त रण बहादुर शाह ने अपनी ज्येष्ठ रानी त्रिपुर सुन्दरी के साथ वाराणसी प्रस्थान कर प्रव्रज्या ग्रहण की और अपना नाम स्वामी निर्गुणानन्द घोषित किया। डॉ. रुद्रेन्द्र नाथ शर्मा प्रणीत शोध ग्रन्थ ‘नेपाल में हिन्दी’ के अनुसार राजा रण बहादुर शाह ने निर्गुणानन्द के उपनाम से हिन्दी भाषा में अनेक भजनों की संरचना की और हिन्दी शाह वंशीय राजाओं की प्रिय भाषा थी। |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची |
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