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सांस्कृतिक पर्यावरण के संरक्षण एवं प्रदूषण का
समाजशास्त्रीय अध्ययन |
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Sociological Study of Conservation and Pollution of Cultural Environment | |||||||
Paper Id :
19810 Submission Date :
2025-02-04 Acceptance Date :
2025-02-22 Publication Date :
2025-02-25
This is an open-access research paper/article distributed under the terms of the Creative Commons Attribution 4.0 International, which permits unrestricted use, distribution, and reproduction in any medium, provided the original author and source are credited. DOI:10.5281/zenodo.14979184 For verification of this paper, please visit on
http://www.socialresearchfoundation.com/shinkhlala.php#8
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सारांश |
सांस्कृतिक पर्यावरण किसी भी समाज की पहचान, परंपराओं,
मूल्यों और जीवन शैली का एक महत्वपूर्ण हिस्सा होता है, जो समय के साथ विकसित होता है और समाज को विशिष्टता प्रदान करता है।
आधुनिकता, वैश्वीकरण और नगरीकरण के बढ़ते प्रभावों ने
पारंपरिक सांस्कृतिक संरचनाओं को चुनौती दी है, जिससे
सांस्कृतिक प्रदूषण की समस्या उत्पन्न हो रही है। उपभोक्तावाद, डिजिटलीकरण, पश्चिमीकरण और औद्योगीकरण जैसी
प्रक्रियाएँ पारंपरिक मूल्यों और सांस्कृतिक धरोहरों के क्षरण का कारण बन रही हैं,
जिससे लोक कलाएँ, क्षेत्रीय भाषाएँ, पारंपरिक रीति-रिवाज, लोकगीत, पारिवारिक
व सामाजिक ताने-बाने और सामुदायिक जीवनशैली धीरे-धीरे कमजोर हो रहे हैं। वैश्विक
संचार और मीडिया के प्रभाव ने आधुनिक जीवनशैली को इस प्रकार प्रभावित किया है कि
नई पीढ़ी अपनी सांस्कृतिक जड़ों से दूर होती जा रही है और बाहरी सांस्कृतिक
प्रभावों को अधिक प्राथमिकता देने लगी है जिसके परिणामस्वरूप पारंपरिक सांस्कृतिक
मूल्यों का ह्रास हो रहा है, और सांस्कृतिक विविधता भी खतरे
में पड़ गई है। सांस्कृतिक पर्यावरण के संरक्षण हेतु और इसको प्रदूषण से दूर रखने हेतु यह परम आवश्यक है कि सामाजिक
जागरूकता, शिक्षा प्रणाली में सांस्कृतिक मूल्यों का समावेश,
स्थानीय कलाओं और भाषाओं को संरक्षित करने के प्रयास, तथा सरकारी और गैर-सरकारी संस्थाओं द्वारा नीतिगत हस्तक्षेप जैसे उपाय किए
जाएँ। सांस्कृतिक प्रदूषण की गंभीरता को समझते हुए इसके समाधान के लिए प्रभावी
रणनीतियाँ अपनाने की आवश्यकता है, ताकि सांस्कृतिक समृद्धि
और सामाजिक संतुलन बना रहे। समाज को अपनी सांस्कृतिक धरोहर के प्रति जागरूक होकर
स्थानीय परंपराओं और रीति-रिवाजों को सहेजने का प्रयास करना चाहिए, ताकि आधुनिकता और परंपरा के बीच संतुलन कायम रखा जा सके। प्रस्तुत शोध के
अंतर्गत सांस्कृतिक पर्यावरण संरक्षण की आवश्यकता और सांस्कृतिक पर्यावरण प्रदूषण
के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डाला गया है। |
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | Cultural environment is an important part of the identity, traditions, values and lifestyle of any society, which evolves over time and gives a society its uniqueness. The increasing effects of modernity, globalization and urbanization have challenged the traditional cultural structures, thereby creating the problem of cultural pollution. Processes such as consumerism, digitalization, westernization and industrialization are causing the erosion of traditional values and cultural heritage, due to which folk arts, regional languages, traditional customs, folk songs, family and social fabric and community lifestyle are gradually weakening. The influence of global communication and media has affected the modern lifestyle in such a way that the new generation is moving away from its cultural roots and giving more priority to external cultural influences, resulting in the decline of traditional cultural values, and cultural diversity is also under threat. To protect the cultural environment and keep it away from pollution, it is imperative that measures like social awareness, inclusion of cultural values in the education system, efforts to preserve local arts and languages, and policy interventions by government and non-government organizations be taken. Understanding the seriousness of cultural pollution, there is a need to adopt effective strategies to solve it, so that cultural prosperity and social balance is maintained. Society should be aware of its cultural heritage and try to preserve local traditions and customs, so that a balance can be maintained between modernity and tradition. The presented research highlights the need for cultural environment conservation and various aspects of cultural environment pollution. | ||||||
मुख्य शब्द | सांस्कृतिक, पर्यावरण, संरक्षण, प्रदूषण, आधुनिकता, परंपरा, संतुलन | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Cultural, Environment, Conservation, Pollution, Modernity, Tradition, Balance | ||||||
प्रस्तावना | सांस्कृतिक पर्यावरण किसी भी समाज की पहचान और उसकी समृद्ध
धरोहर का प्रतीक होता है। यह विभिन्न परंपराओं, रीति-रिवाजों, मान्यताओं, लोककलाओं, स्थापत्य
कला और सांस्कृतिक मूल्यों से मिलकर बनता है। यह पर्यावरण मात्र भौतिक संरचनाओं तक
सीमित नहीं है, बल्कि इसके अंतर्गत भाषा, संगीत, नृत्य, खान-पान,
पहनावा और सामाजिक ताने-बाने जैसे अनेक पहलू आते हैं। समाजशास्त्रीय
दृष्टिकोण से सांस्कृतिक पर्यावरण मानव जीवन की संरचना को प्रभावित करता है और
सामुदायिक चेतना को परिभाषित करता है। जब समाज अपनी सांस्कृतिक जड़ों से जुड़ा
रहता है, तो उसकी पहचान स्थिर और सुदृढ़ बनी रहती है,
लेकिन जब बाहरी प्रभावों या आधुनिकता की अंधी दौड़ के कारण इस
पर्यावरण में परिवर्तन या क्षरण होता है, तो समाज अपनी
मौलिकता खोने लगता है। |
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अध्ययन का उद्देश्य |
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साहित्यावलोकन | नैतिकता के बिना जीवन निरर्थक एवं निरर्थक है। जीवन के हर क्षेत्र में इसकी अहम भूमिका है, चाहे वह व्यवसाय हो, शिक्षा हो, पेशा हो या राजनीति। राम, राजा हरिश्चंद्र और कर्ण अन्य गुणों के अलावा अपनी नैतिकता के लिए भी जाने जाते थे। अगर हम आधुनिक दुनिया की बात करें तो सरदार पटेल, लाल बहादुर शास्त्री, बापू और यहां तक कि अटल बिहारी बाजपेयी भी अपनी नैतिकता के लिए जाने जाते थे। इन सभी ने बड़ी कठिनाइयों में भी कभी अपनी नैतिकता की अनदेखी नहीं की और एक स्वस्थ राजनीतिक और सामाजिक-सांस्कृतिक वातावरण बनाया (झा, राधेश्याम; सिंह, योगेन्द्र एवं भाटी, एस. 2014)। 21वीं सदी के दूसरे दशक में हम सभी खुद को बहुत आधुनिक और उन्नत महसूस कर सकते हैं, क्योंकि हमने अत्यंत आराम और विलासिता की जीवनशैली प्राप्त करने के लिए सभी बाधाओं और रुकावटों को पार कर लिया है। यह इसलिए संभव हुआ है क्योंकि हमने न केवल अपने प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग किया है, बल्कि उनका अत्यधिक दोहन भी किया है, जो पिछली दो शताब्दियों में प्रौद्योगिकी में प्रगति की मदद से प्रकृति द्वारा उन्हें पुनर्जीवित करने की क्षमता से कहीं अधिक है। दुनिया भर के संगठनों ने यह महसूस करना शुरू कर दिया है कि मानव जाति का यह व्यवहार अनिश्चित काल तक नहीं चल सकता क्योंकि ऐसा करने से हमारा सामाजिक-सांस्कृतिक पर्यावरण नकारात्मक रूप से प्रभावित हो रहा है और प्रदूषण की ओर बढ़ रहा है (देव, मल्लिका 2017)। समाज में संस्कृति लंबे समय में विकसित होती है जब लोग प्रकृति के तत्वों और उनके द्वारा बनाए गए सामाजिक मानदंडों के साथ बातचीत करते हैं। संस्कृति में मूर्त और अमूर्त दोनों तत्व शामिल होते हैं। आस्था में विविधता के परिणामस्वरूप मंदिर, मस्जिद, चर्च, गुरुद्वारे, आराधनालय, आश्रम, खानकाह और स्तूप का निर्माण हुआ है जो समाज में विभिन्न प्रकार के मूर्त तत्वों को जोड़ते हैं। समायोजन और संशोधन की विधियाँ और तकनीकें स्थानीय, क्षेत्रीय और राष्ट्र स्तर पर विविधता लाती हैं। सभी भावनाओं और संवेदनाओं को भाषा के माध्यम से व्यक्त नहीं किया जा सकता है। इसलिए, उन्होंने अभिव्यक्ति के अन्य रूप विकसित किए हैं जैसे संगीत, नृत्य, चित्रकला, कविता, आस्था, त्यौहार, विभिन्न अवसरों पर रंग भरने वाले उत्सव। ये सभी संस्कृति के अमूर्त, (गैर-भौतिक) तत्वों का प्रतिनिधित्व करते हैं। सांस्कृतिक विविधता सामाजिक जीवन में जोश भरती है और इसका जश्न मनाने की जरूरत है (कुरैशी, एम.एच. 2022)। भारत, पर्यावरण को होने वाले नुकसान को कम करने की कोशिश करने से पहले विकास को बढ़ावा देने के लिए देश के सभी प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग करने के पश्चिमी पैटर्न को दोहराने के बजाय, अपनी सांस्कृतिक और पारंपरिक प्रथाओं पर लौटकर सतत विकास की ओर उन्मुख हो सकता है। हमारे वर्तमान उपभोग और आधुनिक जीवन शैली को बदलना और अस्तित्व के पारंपरिक तरीकों की ओर वापस लौटना सांस्कृतिक पर्यावरण संरक्षण में सहायक हो सकते हैं जिसके परिणामस्वरूप भारत के सांस्कृतिक पर्यावरण को प्रदूषण से बचाया जा सकता है (पाठक, अभिषेक एवं भट्ट, प्रभाकर 2022)। भारत, सबसे गतिशील प्राचीन सभ्यताओं में से एक है, जिसमें ऐतिहासिक कलाकृतियों की भरमार है, इसकी 37 उल्लेखनीय स्थापत्य संरचनाओं को यूनेस्को की विश्व धरोहर स्थल के रूप में मान्यता प्राप्त है। विभिन्न भौगोलिक स्थानों और मानवजनित कारकों के आधार पर, खुराक-प्रतिक्रिया आँकड़े संकेत देते हैं कि ऐतिहासिक चूना पत्थर और बलुआ पत्थर की इमारतों के लिए संक्षारण का खतरा अधिकांश स्थलों पर सर्वकालिक उच्च स्थिति में है (आरिफ, मोहम्मद; सचदेवा, सलोनी एवं मंगला, शेरी 2023)। अधिकांश वन क्षेत्रों को पारंपरिक समाजों द्वारा उनके सामाजिक सांस्कृतिक और धार्मिक प्रथाओं के साथ संरक्षित किया गया था। "पर्यावरण और विकास" पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन में इस बात पर जोर दिया गया था कि स्वदेशी ज्ञान का योगदान पृथ्वी की जैविक विविधता के संरक्षण के लिए फायदेमंद और तत्काल आवश्यकता है। यह संसाधन संरक्षण में सरकार और लोगों दोनों की सक्रिय भागीदारी की अपील करता है और यह केवल राजनीतिक इच्छाशक्ति, शिक्षा, मूल लोगों के सशक्तिकरण और मानसिकता में बदलाव के माध्यम से ही संभव हो सकता है (जलील, सजना एवं कुरियाकोसे, अनु मायलाकट्टू 2024)। |
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परिकल्पना | 1. सांस्कृतिक पर्यावरण से समाज में सामूहिक चेतना विकसित होती है। 2. सांस्कृतिक पर्यावरण प्रदूषण से पारंपरिक विरासत पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। 3. समाज में जागरूकता और नीतिगत हस्तक्षेप सांस्कृतिक पर्यावरण के संरक्षण को सुनिश्चित करता है। 4. वर्तमान में भारतीय सांस्कृतिक पर्यावरण चरम सीमा पर प्रदूषण की चपेट में है। 5. सांस्कृतिक पर्यावरण संरक्षण एवं इसकी प्रदूषण से मुक्ति सामूहिक चेतना और व्यक्तिगत नैतिक जिम्मेदारी में निहित है। |
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सामग्री और क्रियाविधि |
शोध की गुणात्मक पद्धति पर आधारित प्रस्तुत शोध अध्ययन शोध की वैज्ञानिक प्रकृति को सुनिश्चित करते हुए और निर्धारित शोध प्रक्रिया एवं वैज्ञानिक पद्धति के चरणों की पूर्णतः पालना करते हुए सांस्कृतिक पर्यावरण संरक्षण और प्रदूषण के विभिन्न पहलुओं की समाजशास्त्रीय समीक्षा प्रस्तुत करता है। शोधपत्र लेखन हेतु, लेखिका ने अपने व्यक्तिगत अवलोकन के अलावा इंटरनेट की विभिन्न साइटों पर उपलब्ध सामग्री जिसमें प्रमुख रूप से प्रकाशित शोधपत्र सम्मिलित हैं, का प्रयोग किया है जिनकी अंतर्वस्तु के आधार पर शोधपत्र का निष्कर्ष निकाला गया है।
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विश्लेषण | सांस्कृतिक पर्यावरण: संरक्षण और प्रदूषण से बचाव सांस्कृतिक पर्यावरण की परिभाषा सांस्कृतिक पर्यावरण उन सामाजिक मान्यताओं, परंपराओं, रीति-रिवाजों, भाषा, कला, और जीवनशैली का समुच्चय है, जो किसी समुदाय या समाज को विशिष्ट पहचान देते हैं। यह भौतिक और अमूर्त दोनों रूपों में प्रकट होता है, जिसमें स्थापत्य, साहित्य, संगीत, धार्मिक प्रथाएँ, तथा सामाजिक संरचनाएँ शामिल होती हैं। सांस्कृतिक पर्यावरण न केवल मानव व्यवहार और विचारधारा को प्रभावित करता है, बल्कि ऐतिहासिक घटनाओं, तकनीकी प्रगति और वैश्विक प्रभावों के साथ निरंतर विकसित भी होता रहता है। सांस्कृतिक पर्यावरण के विभिन्न घटक सांस्कृतिक पर्यावरण के विभिन्न घटक समाज की पहचान और उसकी जीवनशैली को प्रभावित करते हैं। इनमें भाषा, धर्म, रीति-रिवाज, परंपराएँ, कला, संगीत, साहित्य, शिक्षा प्रणाली, खान-पान और पहनावा शामिल हैं। उदाहरण के लिए, भारत में विभिन्न राज्यों की भाषाएँ और बोलियाँ सांस्कृतिक विविधता को दर्शाती हैं, जैसे कि बंगाल में बंगाली, पंजाब में पंजाबी और महाराष्ट्र में मराठी बोली जाती है। इसी प्रकार, त्यौहार भी सांस्कृतिक पर्यावरण का प्रमुख घटक हैं—दिवाली, ईद, क्रिसमस और पोंगल जैसे उत्सव धार्मिक और सामाजिक मूल्यों को प्रकट करते हैं। इसके अलावा, वास्तुकला भी सांस्कृतिक परिवेश का अभिन्न हिस्सा है, जैसे कि राजस्थान की हवेलियाँ, दक्षिण भारत के मंदिर और मुगलकालीन इमारतें भारतीय संस्कृति की समृद्धि को दर्शाती हैं। इन सभी घटकों के समावेश से एक समाज का सांस्कृतिक पर्यावरण बनता है, जो समय के साथ विकसित और परिवर्तित होता रहता है। आधुनिकता का सांस्कृतिक पर्यावरण पर प्रभाव आधुनिकता का सांस्कृतिक पर्यावरण पर गहरा प्रभाव पड़ा है, जिससे परंपरागत मूल्यों, रीति-रिवाजों और जीवनशैली में व्यापक परिवर्तन देखने को मिलता है। तकनीकी प्रगति और वैश्वीकरण के कारण विभिन्न संस्कृतियाँ आपस में घुल-मिल रही हैं, जिससे पारंपरिक कला, संगीत, भाषा और पहनावे में आधुनिक तत्व सम्मिलित हो गए हैं। उदाहरण के लिए, भारतीय पारंपरिक परिधान साड़ी और धोती की जगह शहरी क्षेत्रों में जींस और टी-शर्ट जैसी पश्चिमी वेशभूषा का चलन बढ़ रहा है। इसी तरह, डिजिटल मनोरंजन के बढ़ते प्रभाव ने लोककथाओं और पारंपरिक नाट्यशैलियों को पीछे छोड़ते हुए वेब सीरीज और सोशल मीडिया को अधिक लोकप्रिय बना दिया है। सांस्कृतिक प्रदूषण और उसके दुष्प्रभाव सांस्कृतिक प्रदूषण तब होता है जब बाहरी प्रभावों के कारण किसी समाज की पारंपरिक मान्यताएँ, रीति-रिवाज और मूल्य धीरे-धीरे बदलने लगते हैं, जिससे उसकी मौलिकता पर खतरा उत्पन्न हो जाता है। यह अक्सर वैश्वीकरण, मीडिया, डिजिटल प्लेटफॉर्म और विदेशी संस्कृतियों की बढ़ती लोकप्रियता के कारण होता है। उदाहरण के लिए, भारतीय त्योहारों में अब पारंपरिक रीति-रिवाजों की जगह आधुनिक पार्टियों और पश्चिमी शैली के आयोजनों का प्रचलन बढ़ रहा है, जिससे हमारी सांस्कृतिक जड़ें कमजोर हो रही हैं। इसके दुष्प्रभावों में पारिवारिक संबंधों में दूरी, समाज में नैतिक मूल्यों की गिरावट और स्थानीय कला एवं परंपराओं का लुप्त होना शामिल है। जैसे, पहले लोग लोकगीत और पारंपरिक संगीत को प्राथमिकता देते थे, लेकिन अब पॉप और रैप संगीत के प्रभाव में आकर युवा पीढ़ी अपनी सांस्कृतिक धरोहर से दूर होती जा रही है, जिससे सांस्कृतिक विविधता को नुकसान पहुँच रहा है। सांस्कृतिक पर्यावरण के संरक्षण के उपाय
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निष्कर्ष |
सांस्कृतिक पर्यावरण संरक्षण की समाज और प्रकृति के बीच संतुलन स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका है। यह संरक्षण समाज की भौतिक धरोहरों, सामाजिक मूल्यों, परंपराओं और सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों को सुरक्षित रखने का कार्य करता है। आधुनिक समाज में औद्योगीकरण, वैश्वीकरण और तकनीकी प्रगति के कारण सांस्कृतिक प्रदूषण की समस्या बढ़ रही है, जिससे पारंपरिक जीवनशैली, लोक कलाएँ और भाषाएँ लुप्त होने के कगार पर हैं। अतः सांस्कृतिक पर्यावरण को संरक्षित करने के लिए समाज को अपनी जड़ों से जुड़े रहने की आवश्यकता है। मीडिया,
उपभोक्तावाद और पश्चिमी संस्कृति का अंधानुकरण स्थानीय परंपराओं पर
गहरा प्रभाव डाल रहा है। इसके परिणामस्वरूप सांस्कृतिक मूल्यों का ह्रास हो रहा है
और सामाजिक ताने-बाने में परिवर्तन आ रहा है। सांस्कृतिक प्रदूषण का प्रभाव केवल
रीति-रिवाजों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह लोगों की मानसिकता,
आचरण और विचारधारा को भी प्रभावित करता है। सामाजिक संरचनाओं में
बदलाव आने से पारंपरिक और आधुनिक मूल्यों के बीच टकराव उत्पन्न हो रहा है, जिससे सांस्कृतिक असंतुलन बढ़ रहा है। इस असंतुलन को रोकने के लिए समाज
में सांस्कृतिक जागरूकता को प्रोत्साहित करना आवश्यक है।
सांस्कृतिक पर्यावरण के संरक्षण और प्रदूषण को रोकने के लिए
नीतिगत उपायों,
सामाजिक सहभागिता और शिक्षा प्रणाली में सुधार की आवश्यकता है।
पारंपरिक कला, भाषा, रीति-रिवाजों और
सांस्कृतिक धरोहरों को संरक्षित करने हेतु समुदायों को जागरूक करने के साथ-साथ
सरकार और संस्थानों को भी ठोस प्रयास करने होंगे। इसके अलावा, आधुनिकता और परंपरा के बीच संतुलन बनाए रखते हुए सांस्कृतिक विरासत को
अगली पीढ़ी तक पहुँचाना जरूरी है। जब समाज अपने सांस्कृतिक मूल्यों की रक्षा करेगा
और आधुनिकता को सकारात्मक रूप से अपनाएगा, तभी एक संतुलित
एवं समृद्ध सांस्कृतिक पर्यावरण की स्थापना संभव होगी। |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची |
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