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वर्तमान भारत में प्राथमिक शिक्षा की स्थिति एवं
समस्याएं व चुनौतियां : एक अध्ययन |
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The Status, Problems and Challenges of Primary Education in Present India: A Study | |||||||
Paper Id :
19815 Submission Date :
2025-02-21 Acceptance Date :
2025-03-04 Publication Date :
2025-03-06
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सारांश |
किसी भी समाज व राष्ट्र के आदर्श उसकी शिक्षा व्यवस्था से प्रतिध्वनित होती
हैं। शिक्षा व्यवथा के अंतर्गत प्राथमिक शिक्षा ही बच्चों के व्यक्तित्व के
निर्माण की आधारशिला होती है। इस दौरान जिन मूल्यों को वे आत्मसात करते हैं उसका
प्रभाव उनके व्यक्तित्व पर जीवनपर्यंत बना रहता है। भारतीय ज्ञान परंपरा में
प्राथमिक शिक्षा का
बीजारोपण प्राचीन काल में ही मिलता है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के अंतर्गत भारत की गौरवशाली परंपरा तथा वर्त्तमान
वैश्विक ज्ञान आधारित शिक्षा की मांग को ध्यान में रखकर शिक्षा के क्षेत्र में
संरचनात्मक परिवर्तन शुरू किया गया है। वर्तमान भारत में प्राथमिक शिक्षा का
क्षैतिज व उर्ध्वाधर विस्तार हुआ है। परन्तु
अपेक्षित गुणात्मक विकास अभी भी शेष है। ग्रामीण व शहरी क्षेत्रों में
शिक्षा की असमान पहुँच व असमान गुणवता प्राथमिक शिक्षा की एक बड़ी चुनौती है।
प्रस्तुत आलेख में वर्त्तमान भारत में प्राथमिक
शिक्षा की स्थिति एवं समस्याएं व चुनौतियों की चर्चा की गयी है।
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | The ideals of any society and nation are reflected in its education system. Under the education system, primary education is the foundation stone for the development of children's personality. During this period, the values they imbibe remain lifelong on their personality. In the Indian knowledge tradition, the seeds of primary education are found in ancient times itself. Under the National Education Policy 2020, structural changes have been initiated in the field of education keeping in mind the glorious tradition of India and the demand for current global knowledge-based education. In present India, primary education has expanded horizontally and vertically. But the expected qualitative development is still pending. Unequal access and unequal quality of education in rural and urban areas is a major challenge of primary education. In this article, the status and problems and challenges of primary education in present India have been discussed. | ||||||
मुख्य शब्द | भारतीय ज्ञान परंपरा, प्राथमिक शिक्षा, व्यक्तित्व का निर्माण, राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020, गुणात्मक विकास, संरचनात्मक परिवर्तन, ग्रामीण शिक्षा, शहरी शिक्षा, असमान गुणवता, चुनौतियां। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Indian Knowledge Tradition, Primary Education, Personality Development, National Education Policy 2020, Qualitative Development, Structural Change, Rural Education, Urban Education, Unequal Quality, Challenges. | ||||||
प्रस्तावना | सृष्टि की सर्वोतम रचना मानव है और उसे सर्वोत्तम स्वरुप प्रदान करने में महत्वपूर्ण भूमिका सदैव शिक्षा की रही है। एच. जी. वेल्स के अनुसार व्यक्ति के अन्धकारपूर्ण जीवन को रौशन करने का कार्य शिक्षा ही करती है। शारीरिक, मानसिक तथा आत्मिक श्रेष्ठता का भाव शिक्षा द्वारा ही आता है। इसी सन्दर्भ में बुद्ध ने व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास के साधन के रूप में शिक्षा को देखा जिसका अभिप्राय सिर्फ पुस्तकीय ज्ञान न होकर शारीरिक, बौद्धिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक उन्नति करना है। भारत में शिक्षा की गौरवशाली परंपरा रही है। प्रसिद्ध भाषा विज्ञानी एफ० डब्ल्यू० थॉमस ने प्राचीन भारतीय शिक्षा व्यवस्था की प्रशंसा करते हुए वर्णित किया है कि भारत में शिक्षा विदेशी पौधा नहीं है। विश्व का कोई भी ऐसा देश नहीं है, जहां ज्ञान के प्रति प्रेम का इतना प्राचीन समय में अविर्भाव हुआ हो, या जिसने इतना चिरस्थायी और शक्तिशाली प्रभाव डाला हो।(1) डॉक्टर ए. एस. अल्तेकर के अनुसार शुरू में परिवार ही बालकों के लिए शिक्षा का मुख्य केंद्र था। बाद में प्राचीन भारत में वैदिककाल एवं वेदोत्तरकाल में प्राथमिक एवं उच्च शिक्षा की समुचित व्यवस्था बिकसित हुई। मध्यकालीन भारत में मुस्लिम शिक्षा प्रणाली के अंतर्गत प्राथमिक शिक्षा मकतबों, खानकाहों तथा दरगाहों में दी जाती थी। स्वतंत्रता से पूर्व ब्रिटिश और्पनिवेशिक शासन काल में आधुनिक भारतीय शिक्षा की पृष्ठभूमि उनकी जरूरतों को ध्यान में रखकर निर्मित की गई। 1813 के चार्टर अधिनियम द्वारा शिक्षा पर प्रति वर्ष एक लाख रुपये की धन राशि व्यय करने का आदेश ब्रिटिश ईष्ट इंडिया कंपनी को दी गई।(2) बाद में मैकाले विवरण तथा विभिन्न शिक्षा आयोगों की सिफारिशों के आधार पर अंग्रेजी भाषा व यूरोपीय साहित्य को बढ़ावा देते हुए वर्तमान भारतीय शिक्षा व्यवस्था के आदर्श व उद्देश्य परिवर्तित कर दिए गए। स्वतंत्र भारत में प्राथमिक शिक्षा का व्यापक प्रसार व प्रचार हो रहा है। शिक्षा के सार्वभौमिकरण के लक्ष्य की प्राप्ति हेतु शिक्षा के अधिकार अधिनियम, 2009 को लागु कर 6 -14 वर्ष आयु वर्ग के बालकों व बालिकाओं के लिए निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा को मौलिक अधिकार का दर्जा प्रदान की गयी है। किन्तु अभी भी शिक्षा के सार्वभौमिकरण के लक्ष्य की प्राप्ति शेष है। विद्यालय से बाहर रहने वाले बच्चों के देशों की सूची में भारत का स्थान शीर्ष पर है। कभी विश्व गुरु कहलाने वाला वर्तमान भारत की बड़ी समस्या अपर्याप्त शिक्षा के बुनियादी ढांचा, प्रशिक्षित शिक्षकों की कमी तथा शिक्षा की असमान पहुँच व असमान गुणवता को लेकर है। |
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अध्ययन का उद्देश्य | प्रस्तुत शोध आलेख के निम्नवत उद्देश्य हैं –
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साहित्यावलोकन | प्रस्तुत शोध आलेख को लेकर विभिन्न इतिहासकारों, शिक्षाविदों तथा समाजशास्त्रियों की रचनाओं का अध्ययन किया गया है। इस परिप्रेक्ष्य में शिक्षा आयोगों की सिफारिशों, राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 तथा समाचार पत्रों में प्राथमिक शिक्षा से सम्बंधित रिपोर्टों आदि का गहन अध्ययन किया गया है। जिन स्त्रोतों से तथ्यों का संकलन किया गया है उनमे शिक्षा मंत्रालय , भारत सरकार की प्रबंधन सूचना प्रणाली युडीआईएसई+ द्वारा प्राथमिक शिक्षा को लेकर जारी रिपोर्ट 2024 से बच्चों के स्कुल में नामांकन सम्बन्धी आंकड़ों का अध्ययन किया गया है। साथ ही स्कूलों में बालिकाओं की उपस्थिति को लेकर एएसईआर (ASER) के रिपोर्ट 2024 का भी अध्यन किया गया है। पी० डी० पाठक एवं प्रो० डी० एस० श्रीवास्तव की रचना "भारतीय शिक्षा और उसकी समस्याएं'' है। इसमे स्वतंत्रता पूर्व तथा स्वतंत्र भारत में प्राथमिक शिक्षा के विकास व इसकी समस्याओं पर चर्चा के दौरान प्राथमिक शिक्षा शिक्षा के विकास व इसकी समस्याओं पर भी विस्तार से चर्चा की है। जेम्स मिल ने "हिस्ट्री ऑफ़ ब्रिटिश इंडिया'' के खंड – प्रथम में ब्रिटिश शासन काल के दौरान भारत के प्राथमिक शिक्षण संस्थाओं की स्थिति तथा उसके विकास पर प्रकाश डाला है। इसी प्रकार बड़ोदा राजा के गजेटियर में स्वतंत्र पूर्व पहली बार प्राथमिक शिक्षा को निःशुल्क व अनिवार्य करने जैसे तथ्यों का उल्लेख मिलता है। ए. एन. बसु ने "एजुकेशन इन मॉडर्न इंडिया'' में ब्रिटिश कालीन भारत की शैक्षिक व्यवस्था के विभिन्न पहलुओं का मूल्यांकन किया है। पी० डी० पाठक० एवं गुरुशरण दास त्यागी ने अपने ग्रन्थ भारतीय शिक्षा के इतिहास में प्राचीन भारत, मध्यकालीन भारत, ब्रिटिश कालीन भारत तथा स्वतंत्रोत्तर भारत में प्राथमिक शिक्षा के विकास एवं समस्याओं पर रौशनी डाली है। |
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सामग्री और क्रियाविधि | शोध विधि : प्रस्तुत शोध आलेख के अध्ययन हेतु द्वितीयक स्त्रोतों से प्राप्त विभिन्न तथ्यों को संकलित कर उसका विश्लेषण किया गया है। अतः विश्लेषणात्मक शोध विधि को अपनाते हुए इससे सम्बंधित विवेचनात्मक शोध विधि का प्रयोग क्या गया है । परिसीमन : प्रस्तुत शोध आलेख का परिसीमन करते हुए दो काल खण्डों में बाँट कर आधुनिक भारत में प्राथमिक शिक्षा की स्थिति को दर्शाया गया है -
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विश्लेषण | वर्तमान भारत में प्राथमिक शिक्षा एक बालक व बालिका के जीवन में औपचारिक शिक्षा के रूप में शिक्षा का प्रथम सोपान प्राथमिक शिक्षा होता है। यहीं से चरित्र निर्माण, व्यक्तित्व का विकास, एक दूसरे के साथ सहयोग की भावना, स्वस्थ जीवन की आदतें तथा राष्ट्रीय प्रतिकों व लोकतांत्रिक संस्थाओं के प्रति आदर का भाव आदि गुणों के विकास का कार्य आरंभ होता है। (क) स्वतंत्रता पूर्व भारत में प्राथमिक शिक्षा भारत में कंपनी शासन की स्थापना के दौरान 19वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में हिन्दू एवं मुस्लिम बच्चों को पाठशालाओं तथा मकतबों (क्रमशः) में शिक्षा दी जाती थी। इतिहासकार मिल के अनुसार 1882 में मद्रास के प्रत्येक गाँव में एक प्राइमरी स्कुल था।(3) इसी प्रकार ए० एन० वसु ने एडम की प्रथम रिपोर्ट के आधार पर लिखा है की बंगाल में 1835 के आस-पास एक लाख प्राथमिक स्कुल थे।(4) स्वतंत्रता से पूर्व ब्रिटिश भारत में शासन के दौरान प्राथमिक शिक्षा के विकास पर विशेष बल नही दिया गया। कुछ आयोगों के सिफारिशों पर प्राथमिक स्कूलों की स्थापना तो की गई किन्तु यह जनशिक्षा में नहीं ढल सकी। ऐसा ब्रिटिश शासन के अंतर्गत अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा की उपेक्षा के कारण हो सका। तत्कालीन बड़ोदा महाराज सयाजी राव गायकवाड ने 1893 में अपने रियासत के कुछ ग्रामों में अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा की योजना लागू की। इसकी सफलता से उत्साहित होकर महाराज ने एक अधिनियम पारित कर अपने सम्पूर्ण रियासत में प्राथमिक शिक्षा को निःशुल्क और अनिवार्य कर दिया।(5) इस प्रकार भारत में निःशुल्क और अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा की शुरुवात बड़ोदा महाराज के प्रयत्नों से ही हुआ। राष्ट्रीय आन्दोलन के दबाव में ब्रिटिश शासन द्वारा वर्ष 1920 तक सात प्रान्तों- मध्यदेश, बम्बई, संयुक्त प्रांत, पंजाब, बंगाल, बिहार एवं मद्रास में अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा अधिनियम पारित किया। बाद में द्वितीय विश्व युद्ध जनित परिस्थितियों और 1939 में कांग्रेस मंत्रिमंडल के त्यागपत्र के कारण प्राथमिक शिक्षा का अपेक्षित विकास नही हो सका। (ख) स्वतंत्र भारत में प्राथमिक शिक्षा स्वतंत्र भारत में शिक्षा का विकास विविध चरणों में देश की जरूरतों तथा नागरिकों को शिक्षित करने एवं बहुमुखी प्रगति सम्बन्धी कई उद्देश्यों को लेकर हुआ है। शुरू में शिक्षा राज्य सूची का विषय था किन्तु 42वें संविधान संधोधन अधिनियम 1976 द्वारा शिक्षा को समवर्ती सूची का विषय बना दिया गया। अब केंद्र तथा राज्य दोनों सरकारें शिक्षा सम्बन्धी विषयों पर कानून बना सकती हैं। संविधान के अनुच्छेद 45 में प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य व निःशुल्क करने का राज्य के नीति निदेशक सिद्धांत घोषित किया गया। इसी के तहत स्वतंत्र भारत में प्राथमिक शिक्षा को वेसिक शिक्षा के रूप में विकसीत करने का प्रयास किया गया। इसी के अंतर्गत प्राथमिक शिक्षा पर होनेवाले कुल व्यय का 34 फीसदी केन्द्र सरकार द्वारा वार्षिक सहायता अनुदान राशि के रूप में राज्य सरकारों को दी गई। शेष व्यय का 3/4 भाग से अधिक की पूर्ति राज्य सरकारों द्वारा तथा 1/3 स्थानीय संस्थाओं व शेष राशि की पूर्ति अन्य स्त्रोतों से की गई।(6) प्राथमिक
शिक्षा के उद्देश्य : बच्चों के भावी जीवन की पृष्ठभूमि
प्राथमिक शिक्षा द्वारा ही निर्मित होती है।
अतः प्राथमिक शिक्षा का उद्देश्य एक ऐसी शिक्षा पद्धति से होता है जो बच्चो
को उनके भावी जीवन के प्रति समर्थवान बना सके।
साथ ही उन्हें शारीरिक व मानसिक प्रशिक्षण देकर एक कुशल नागरिक बना सके।
राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद् ; एन.
सी. ई. आर. टी. ) ने अपने दस्तावेज “द करिकुलम फॉर द
टेन ईयर स्कुल“ में प्राथमिक शिक्षा के निम्नलिखित उद्देश्य(7)
निर्धारित किये यथा-
पंचवर्षीय योजनान्तर्गत प्राथमिक शिक्षा : विभिन्न पंचवर्षीय योजनान्तर्गत(8) प्राथमिक शिक्षा के विकास सम्बंधित कई कदम उठाये गए। प्रथम पंचवर्षीय योजना (1951- 56) के अंतर्गत शिक्षा पर कुल 153 करोड़ रुपये व्यय हुए। इसमे से 85 करोड़ रुपये प्राथमिक शिक्षा के विकास एवं संवर्धन पर व्यय किये गए। 1957 में अखिल भारतीय प्राथमिक शिक्षा परिषद् (ऑल इंडिया कौंसिल ऑफ एलीमेंट्री एजुकेशन) का गठन किया गया। इससे प्राथमिक शिक्षा के विकास में थोड़ी गति आई । योजनावकास (1966- 69) के दौरान कोठारी आयोग के रिपोर्ट पर राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1968 की घोषणा की गई। इसमे 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चों हेतु अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था की गई। पांचवीं पंचवर्षीय योजना (1974-78) के दौरान विद्यालय के छात्रो एवं छात्राओं के लिए निशुल्क मध्यान्ह भोजन की योजना शुरू की गई। साथ ही कमजोर वर्ग के बच्चों हेतु निःशुल्क पाठ्यपुस्तकें एवं लेखन सामग्री वितरित की गई। अनवरत योजना (1978- 80) के दौरान गैर-औपचारिक शिक्षा की शुरुवात की गई। इस योजना के अंतर्गत कामकाजी लड़कों व लड़कियों तथा वैसी वस्तियाँ जहाँ विद्यालय न हो वहां के निवासियों के लिए शिक्षा की सर्वसुलभ व्यवस्था की गई। बाद में गैर-औपचारिक शिक्षा का विस्तार कर इसमे स्वैच्छिक एजेंसियों की भागीदारी भी सुनिश्चित की गई। सातवीं पंचवर्षीय योजना (1985- 90) के ऑपरेशन ब्लैक बोर्ड की योजना शुरू की गई। इसका उद्देश्य प्रत्येक प्राथमिक स्कूलों में न्यूनतम आवश्यकता की सुविधाएं उपलब्ध कराना था। इस योजना के अंतर्गत निम्न जरूरतों को शामिल किया गया :-
आठवीं पंचवर्षीय योजना (1992-97) के दौरान शैक्षणिक रूप से पिछड़े जिलों में जिला प्राथमिक शिक्षा कार्यक्रम शुरू किये गए। नवीं पंचवर्षीय योजना (1997-2002) के दौरान 2001-02 में सर्वशिक्षा अभियान शुरू की गई। इसके अंतर्गत 6-14 वर्ष तक के सभी बच्चों को वर्ष 2010 तक उपयोगी एवं जरुरी शिक्षा को उपलब्ध कराने का लक्ष्य रखा गया। दसवीं पंचवर्षीय योजना (2002- 2007) के दौरान ही संविधान में अनुच्छेद 21 (ए) को जोड़कर शिक्षा के अधिकार को मौलिक अधिकारों की सूची में डाला गया। 86 वें संविधान संसोधन द्वारा प्राथमिक शिक्षा के अधिकार को मौलिक अधिकार व मौलिक कर्तव्य बनाया गया। इसमें 6-14 वर्ष के बालकों को अनिवार्य व निःशुल्क प्राथमिक शिक्षा का अधिकार उनका मौलिक अधिकार बना। बाद की ग्यारहवीं (2007-12) व बारहवीं पंचवर्षीय योजना (2012-2017) के अंतर्गत साक्षरता दर में वृद्धि, शिक्षा की सर्वसुलभता तथा ज्ञान आधारित शिक्षा पर जोर देने का प्रयास किया गया। वर्ष 2017 के पश्चात नीति आयोग द्वारा राज्य सरकारों के साथ मिलकर विभिन्न योजनाओं के अंतर्गत प्राथमिक शिक्षा के विकास सम्बन्धी कार्य किये जा रहे हैं। संरचनात्मक परिवर्तन : राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में 10+2 स्कूली वाली शैक्षिक संरचना में परिवर्तन कर 3 से 18 वर्ष के आयु वर्ग के सभी बच्चों के लिए 5+3+3+4 मॉडल की शिक्षा प्रणाली को लागु करने की बात की गयी है।(9) इसमे शुरू के 5 वर्ष में से 3 वर्ष आंगनवाडी में प्राप्त होने वाली पूर्व प्राथमिक शिक्षा की है तथा शेष 2 वर्ष में कक्षा 1 एवं कक्षा 2 की शिक्षा प्राथमिक विद्यालयों में प्राप्त होगी। इसके बाद 3 वर्ष की प्री-प्रेटरी अवस्था जिसमे कशा 3 से 5 तक की शिक्षा है। इस शिक्षा के अंतर्गत बच्चों को बोलने, लिखने, शारीरिक शिक्षा, विज्ञानं, गणित एवं कला आदि विषयों से परिचित कराया जाएगा। अगले 3 वर्ष उच्च प्राथमिक शिक्षा की है जिसमे कक्षा 6 से 8 तक की शिक्षा प्रदान की जाएगी। इस दौरान बच्चों को सभी विषयों की मूल अवधारणाओं से परिचित कराया जाएगा। अगले 4 वर्ष माध्यमिक शिक्षा के चरण है जिसमे कक्षा 9 से 12वीं तक की शिक्षा की व्यवस्था है। साथ ही कौशल विकास (वोकेशनल) कोर्स भी शुरू किया जाना है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के लागू होने से प्राथमिक शिक्षा का प्रसार एवं शिक्षक भर्ती प्रक्रिया में तेजी आई है। इस सन्दर्भ में डिजिटल शिक्षा ने भी दूरस्थ क्षेत्रों के बच्चों के लिए अधिक अवसर उपलब्ध कराया है। हाल ही में प्रस्तुत आर्थिक समीक्षा, 2024-25 में इस बात पर बल दिया गया है कि विद्यालयों में सौ फीसदी सकल नामांकन अनुपात प्राप्त करना राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 का लक्ष्य है। समीक्षा में स्कूलों में तकनीकी सुविधा जैसे बुनियादी उपलब्धता में सकारात्मक वृद्धि पर भी प्रकाश डाला गया है। यूडीआईएसई रिपोर्ट 2023-24 के अनुसार कंप्यूटर की सुविधा वाले स्कूलों की संख्या जहां 2019-20 में 38.5 फीसदी थी वहीं वर्ष 2023-24 में बढ़कर 57.2 फीसदी हो गई है । इसी प्रकार संख्यात्मक दृष्टि से इंटरनेट की सुविधा वाले स्कूलों की संख्या 2019-20 में 22.3 फीसदी से बढ़कर वर्ष 2023-24 में 53.9 फीसदी हो गयी है। हालांकि अभी भी देश के लगभग आधे विद्यालय इन तकनीकी सुविधाओं से बंचित हैं। समीक्षा में राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के उद्धेश्यों की प्राप्ति हेतु क्रियान्वित भारत सरकार के विभिन्न योजनाओं व कार्यक्रमों की भी चर्चा की गयी, जैसे -समग्र शिक्षा अभियान (निष्ठा, विद्या प्रवेश, जिला शिक्षा एवं प्रशिक्षण संस्थान (डाइट), कस्तूरबा गाँधी बालिका विद्यालय (के जी बी वी), स्टार्स, पीएम श्री, दीक्षा, उल्लास तथा पीएम पोषण आदि - आदि।(10) असर 2024 के रिपोर्ट के आधार पर कहा जा सकता है कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति २०२० के अंतर्गत पूर्व - प्राथमिक शिक्षा एवं प्राथमिक शिक्षा पर अधिक ध्यान देने के कारण केंद्र एवं राज्य सरकारों द्वारा बुनियादी कौशल को मजबूत करने हेतु प्रभावी कदम उठाये जा रहे हैं । इसमे निपुण भारत मिशन कार्यक्रम शुरू करने से भी बुनियादी क्षमता को मजबूत करने में मदद मिली है।(11) इस प्रकार स्वतंत्र भारत में प्राथमिक शिक्षा के विकास हेतु कई योजनाओं एवं कार्यक्रमों को संचालित किया गया है। इन सभी प्रयासों के बावजूद प्राथमिक शिक्षा का प्रसार तथा शैक्षिक नियोजन व प्रबंधन में एक विस्तृत संरचनात्मक परिवर्तन की जरूरत है। नई आर्थिक नीति लागू होने के पश्चात शिक्षा के क्षेत्रों में निजी औद्यागिक घरानों द्वारा बड़े पैमाने पर निवेश किया जा रहा हैं। इससे सरकारी तथा निजी शिक्षण संस्थाओं के बीच स्कुलों की आधारभुत संरचनाओं तथा शिक्षा की गुणवता में अंतर बढ़ते जा रहे हैं। बड़े बड़े स्कुलों में अपने बच्चों को पढ़ाना भारतीय समाज में एक स्टेटस सिंबॉल बनता जा रहा है। इसका दुष्परिणाम गरीब एवं बंचित वर्ग के बच्चों को भुगतना पड़ रहा है। अनेक ऐसी समस्याएं है जो प्राथमिक शिक्षा के समक्ष अवरोधक के रूप में उपस्थित है । समस्याएं व चुनौतियां शिक्षा का दोषपुर्ण प्रशासनिक क्रियान्वयन - भारत में शिक्षा समवर्ती सूची का विषय है। अतः शिक्षा की किसी भी स्तर की व्यवस्था करने में केंद्र व राज्य सरकारों का संयुक्त दायित्व है। देश के लगभग सभी राज्यों में प्राथमिक शिक्षा का उतरदायित्व नगरपालिकाओं, जिलापरिषदों तथा स्थानीय संस्थाओं पर है। ये संस्थाएँ पुर्व प्राथमिक विद्यालयों, पुर्व माध्यमिक विद्यालयों के संचालन का कार्य करती हे। इनमें गैर- सरकारी, निजी विद्यालयों को मान्यता देना व सामान्य नियंत्रण का कार्य वेसिक शिक्षा परिषद, मण्डलीय उप शिक्षा निदेशक एवं मण्डलीय बालिका विद्यालय निरीक्षिका द्वारा अपने-अपने क्षेत्राधिकार में किया जाता है। प्राथमिक शिक्षा के प्रशासन में सबसे बड़ी समस्या स्थानीय संस्थाओं की मनमानी की है। वे अपनी इच्छानुसार प्रशासन का संचालन करती है। प्राथमिक शिक्षा की राजनीतिकीकरण से भी ईंकार नहीं किया जा सकता। स्थानीय संस्थाओं के सदस्य अपनी लोकप्रियता बढ़ाने के लिए अपने नियोजन क्षेत्रों में नये प्राथमिक विद्यालयों की स्थापना तो कर रहे हैं किंतु उस अनुपात में निरीक्षकों की संख्या में वृद्धि नहीं हो पा रही है। ऐसी स्थिति में विद्यालयों का नियमानुसार निरीक्षण नहीं होने के फलस्वरूप प्रशासन में अनियमितता बढ़ने लगती है। सरकारी स्कूलों में भ्रष्टाचार की सूचना अक्सर विभिन्न माध्यमों से मिलती है। प्राइवेट स्कूलों में भी भ्रष्टाचार की समस्या देखी जा सकती है। हमारी स्थानीय संस्थाएँ भी अपनी अयोग्यता, अकर्मण्यता तथा भ्रष्टाचार के लिए कुख्यात हो गई है। व्यावहारिक स्तर पर कई ऐसे शिक्षक या शिक्षिका है जो अलग किसी व्यवसाय का कार्य में लगे हैं तथा स्कूल प्रशासन से सांठ-गांठ कर अपना वेतन वसूल रहे हैं, यह भी एक बड़ी समस्या है। इस तरह प्राथमिक शिक्षा को राज्य सरकारों के प्रशासनिक ढ़ाँचे के अंतर्गत लाना, उन पर नियंत्रण रखना तथा साधनविहीन संस्थाओं की दशा सुधारना प्राथमिक शिक्षा की बड़ी समस्या है। प्राथमिक शिक्षा के पाठ्यक्रम का दोषपूर्ण होना - प्राथमिक शिक्षा के पाठ्यक्रम अरूचिकर, कठोर व संकीर्ण है। इसे पुर्णतया साहित्यिक वनाकर पुस्तकीय ज्ञान पर अधिक बल दिया गया है। यह पुस्तकीय ज्ञान अर्थ को बिना समझे सीखने पर अधिक जोर देता है। इसमें छात्रों को अपनी रचनात्मकता एवं कुशलता को विकसीत कर कार्य सीखने का अवसर नहीं प्राप्त होता है। प्राथमिक शिक्षा के पाठ्यक्रम बच्चों की आवश्यकताओं तथा स्थानीय वातावरण से असंबंधित है। इससे ग्रामीण क्षेत्र के बालकों की आवश्यकताएँ पुरी नहीं होती। अतः यह एकपक्षीय व अनुपयोगी हो गया है। दोषपुर्ण शिक्षण विधि- आज भी अधिकांश सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में परंपरागत तरीके से पढ़ाया जाता है। विषयवस्तु को समझने पर कम उसे रटने पर अधिक बल दिया जाता है। सभी बालकों को एक ही तरीके से पढ़ाते हैं न कि उनके वैयक्तिक भिन्नता पर ध्यान दिया जाता है। जो छात्र पाठ को रट नहीं पाता है उसे शारीरिक व मानसिक दंड दिया जाता है। इससे शिक्षा के प्रति छात्रों में अरूचि पैदा होने लगती है तथा बीच में ही विद्यालय जाना छोड़ देते हैं। उससे शिक्षण- अधिगम प्रक्रिया प्रभावी नहीं हो पाती है। नामांकन में गिरावट की समस्या - यु डीआई एस इ प्लस (शिक्षा के लिए संयुक्त जिला सूचना प्रणाली) रिपोर्ट 2023-24 के अनुसार शैक्षिक वर्ष 2023 -24 में 8 करोड़ छात्रों का नामांकन हुआ, वहीँ 2022 -23 में नामांकित छात्रों की संख्या 25.18 करोड़ थी । इसीतरह वर्ष 2018 - 19 की तुलना में 22 करोड़ के लगभग छात्रों की संख्या में कमी हुई है। यह नामांकन दर में 6 फीसदी से अधिक गिरावट को प्रदर्षित करता है। इसमे लिंग के आधार पर तथा राज्यवार गिरावट सम्बन्धी आंकड़े भी प्रस्तुत किये गए हैं जैसे, 2018-19 में 53 करोड़ लड़कों की तुलना में 2023-24 में 12.87 करोड़ लड़कों का नामांकन हुआ। यह 4.87 फीसदी गिरावट को दर्शाता है। वहीँ 2018-19 में 49 करोड़ लड़कियों की तुलना में 2023-24 में 11.93 करोड़ लड़कियों का नामांकन हुआ, जो 4.48 की गिरावट को सूचित करता है। इस दौरान 65 लाख छात्रों की गिरावट बिहार में आई जबकि उत्तर प्रदेश में 26 लाख छात्रों की गिरावट हुई है। महाराष्ट्र में यह गिरावट 55 लाख छात्रों के रूप में है।(12) प्राकृतिक कठिनाइयाँ - भौगोलिक दृष्टि से भारत एक विविधता वाला देश है जहाँ पहाड़ों, नदियों, वनों, मैदानों तथा पठारी क्षेत्रों की बहुलता है। कश्मीर, हिमाचल, पुर्वोतर भारत आदि के दुर्गम क्षेत्रों में जनसंख्या बिखरी हुई है। अतः प्रत्येक गाँव में स्कूल खोलना एक कठिन कार्य है। पर्वतीय क्षेत्रों व वनों से आच्छादित क्षेत्रों में यातायात के साधनों का भी अभाव है। दुर-दराज के क्षेत्रों में स्थापित विद्यालयों में बच्चों के माता पिता या अभिभावक उन्हें स्कूल भेजने से हिचकिचाते हैं। इस तरह भौगोलिक व प्राकृतिक कारण भी प्राथमिक शिक्षा के मार्ग में बाधक है। सामाजिक कुरीतियाँ- भारतीय समाज अनेक परंपराओं वाला देश है इसमें कुछ परंपराएँ कुरीतियों के रूप में विद्यमान है जैसे- बालविवाह, पर्दाप्रथा, छुआ-छुत, अंधविश्वास, जादू-टोना, जाति प्रथा बालिकाओं के शिक्षा के प्रति उदासीनता, सह-शिक्षा को अच्छा नहीं मानना, धार्मिक रूढ़िवादिता आदि-आदि। ये परंपराएँ ग्रामीण क्षेत्रों व शहरी मलिन वस्तियों मे जिनके अभिभावक अशिक्षित हैं, वहाँ बच्चों के शिक्षा के संदर्भ में अभिशाप बन जाती है। विशेषकर बालिकाओं की शिक्षा के प्रति अशिक्षित माता-पिता का दृष्टिकोण संकुचित हो जाता है। इसमें अभिभावकों की गरीबी, निरक्षरता, सह शिक्षा के प्रति संकुचित दुष्टिकोण, बाल विवाह, पर्दा प्रथा आदि ने प्राथमिक शिक्षा में बालिकाअें की शिक्षा की समस्या जटिल बना दिया है। हाल ही में जारी असर (ASER) रिपोर्ट 2024 के अनुसार वैसे तो सभी बच्चे विद्यालय जाते हैं किन्तु 6-14 आयु वर्ग में 1.6 फीसदी बच्चे विद्यालय नहीं जाते हैं जो शिक्षा के अधिकार अधिनियम 2009 के लागू होने के बाद का सबसे कम उपस्थिति है। इस रिपोर्ट में यह भी दर्शाया गया है कि 15-16 आयु वर्ग की लड़कियों में अभी भी 8.1 फीसदी लड़कियां विद्यालय नहीं जाती हैं। दूसरी तरफ इसी आयु वर्ग में 7.7 फीसदी लडके विद्यालय नहीं जाते हैं। देश की जनसंख्या के दृष्टिकोण से देखा जाय तो विद्यालय नहीं जाने वाले लडके - लड़कियों की यह संख्या अधिक है।(13) ग्रामीण क्षेत्रों व शहरी क्षेत्रों में रहने वाले बहुत से अभिभावक हैं जिन्हें औपचारिक शिक्षा प्राप्त नहीं हो सकी है। वे मजदूरी करके जीवन यापन करते हैं। अतः वे शिक्षा के महत्व को समझ नहीं पाते हैं। यद्यपि प्राथमिक से लेकर माध्यमिक शिक्षा निःशुल्क है, फिर भी वे बच्चों को शिक्षा केन्द्रों में भेजने में उत्साह कम दिखाते हैं। यह स्थिति विशेषकर अनुसुचित जाति तथा जनजाति समाज में अधिक देखी जाती है। ग्रामीण क्षेत्रों में यदि किसी बालिका का कम उम्र मं ही विवाह कर दी गई तो फिर वह घर की चहार-दीवारी से बाहर नहीं निकल पाती है। धन का अभाव व आर्थिक कठिनाइयाँ - विकसीत देशों की तुलना में भारत सरकार द्वारा शिक्षा पर विशेषकर प्राथमिक शिक्षा पर बहुत ही कम, धन का आवंटन किया जाता है। दूसरी तरफ देश में लोगों की प्रतिव्यक्ति आय भी कम है। शहरी एवं ग्रामीण क्षेत्रों में निर्धन परिवार मजदूरी करके जीवन यापन करते हैं। ऐसी स्थिति में उनके बच्चे कम ही उम्र से मजदूरी का कार्य करने लगते है। इस तरह निर्धन परिवारों को जीविकोपार्जन हेतु अपने बच्चों से कार्य या मजदूरी करवानी पड़ती है। कृषिकार्य में फसलों की बुआई, या कटाई के समय अधिकांश बच्चे स्कूल न जाकर खेती का कार्य करते हैं या किसी दूसरे के यहाँ मजदूरी का कार्य करते हैं। अतः इन बच्चों को शिक्षा से जोड़ना भी एक बड़ी चुनौती है। भाषाओं के बहुलता की समस्या - भारत एक बहुभाषी देश है। भाषाओं की बहूलता ने भी प्राथमिक शिक्षा के विस्तार में अवरोध उत्पन्न किया है। 1973 के एक आँकड़े के अनुसार भारत में 826 भारतीय तथा गैर-भारतीय भाषाएँ एवं 1652 स्थानीय भाषाएँ (मातृभाषाएँ) बोली जाती है।(14) भाषाई दृष्टि से इतनी विभिन्नता वाले इस देश में बालक व बालिकाओं की किस भाषा में शिक्षा दी जाय, यह एक बड़ी समस्या है। भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में 22 भाषाओं को राजकीय भाषा का दर्जा प्राप्त है।(15) इसके अतिरिक्त कई ऐसी अनुसूचित जातियाँ व जनजातियाँ है जिनकी अपनी कोई साहित्य व मातृभाषाएँ नहीं है। इन पिछड़ी-जातियों में शिक्षा का प्रसार करना एक कठिन चुनौती है। मूल्यांकन की समस्या - प्राथमिक शिक्षा के स्तर पर सभी बच्चों के मूल्यांकन का एक पैमाना नहीं हो सकता है और न ही मूल्यांकन का कार्य किसी लिखित परीक्षा के द्वारा ही किया जा सकता है। इसके लिए आधूनिक वैज्ञानिक तरीकों को अपनाने की जरूरत है। सुझाव
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निष्कर्ष |
मानव जीवन में शिक्षा की महत्वपूर्ण भूमिका है। प्राथमिक शिक्षा ही शिक्षा की
वह पहली प्रक्रिया है जहाँ से एक बालक व बालिका विवेकशील प्राणी बनने की ओर अग्रसर
होते हैं। प्राथमिक शिक्षा ही वह माध्यम है जो उसे अन्य प्राणियों से अलग करती है।
वस्तुतः मानव पूंजी के निर्माण में शिक्षा व कौशल के विकास की महती भूमिका होती
है। इस दृष्टिकोण से प्राथमिक शिक्षा ही बच्चों के व्यक्तित्व निर्माण का प्रथम
सोपान होता है। अतः इसे सर्वसुलभ, उपयोगी तथा उत्साहजनित होना ही चाहिए। |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची |
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