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न्यायमत में लक्षणों का स्वरूप |
Form of Character in Justice |
Paper Id :
16023 Submission Date :
2022-04-15 Acceptance Date :
2022-04-20 Publication Date :
2022-04-25
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मोहिनी
असिस्टेंट प्रोफेसर
संस्कृत
दिल्ली विश्वविद्यालय
,दिल्ली, भारत
सोनू
शोधच्छात्र
संस्कृत विभाग
दिल्ली विश्वविद्यालय
दिल्ली, भारत
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सारांश
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प्रस्तुत शोध-पत्र में नैयायिको के मत में लक्षणा के स्वरूप का प्रतिपादन किया है। नैयायिकों ने अन्वयानुपपत्ति का खण्डन कर तात्पर्यानुपपत्ति को लक्षणा का बीज माना है। व्याकरण दर्शन में जब लक्षणा सम्बन्धित प्रसङ्ग आता है तब नैयायिकों के मत को उपस्थापित कर लिया जाता है।
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद |
The research paper presented has a rendering of symptoms in the opinion of Nayayiko. The nayayakas have refused to refute the meaning of the symptom as the seed of the symptom. In grammar philosophy, when the symptom is related to the concerned, then the opinion of the nayayakas is presented. |
मुख्य शब्द
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शब्द, आलंकारिक व्यंजना, वृत्ति। |
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद |
Words, Figurative Euphemisms, Instincts. |
प्रस्तावना
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महाभाष्यकार आचार्य पतञ्जलि कहते हैं कि " अर्थगत्यर्थः शब्दप्रयोग: अर्थं संप्रत्याययिष्यामीति शब्द: प्रयुज्यते” अर्थात्- अर्थ का बोध कराने के लिए ही शब्द का प्रयोग किया जाता है, शब्दों का यही महत्त्व तथा उपयोगिता है। तन्त्रवार्तिककार कुमारिल भट्ट ने भी शब्दों की इस उपयोगिता को स्वीकार करते हुए कहा है " सर्वो हि शब्दोऽर्थ प्रत्यायनार्थं प्रयुज्यते "॥
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अध्ययन का उद्देश्य
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शब्द जिस प्रक्रिया के द्वारा अर्थ का बोध कराता है, उस प्रक्रिया को वृत्ति कहते हैं। नैयायिकों के मत में वृत्ति की सहायता से किसी पद के पदार्थ का अवबोध किस प्रकार होता है यह समझाने का प्रयास किया गया है |
साहित्यावलोकन
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यह वृत्ति ‘शक्ति’ तथा ‘लक्षणा’ भेदों से दो प्रकार की है। शक्ति को ही अभिधा भी कहते हैं। ‘अभिधा’ तथा ‘शक्ति’ से बोध्यार्थ को ‘अभिधेय’ या ‘शक्य’ तथा ‘लक्षणा’ से बोध्य अर्थ को ‘लक्ष्य’ कहा जाता है। आलंकारिक व्यंजना को भी वृत्ति मानते हैं। व्य×जना से बोध्यार्थ व्यंग्य माना जाता है। |
मुख्य पाठ
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नैयायिक मत में शक्ति का स्वरूप नैयायिक ‘शक्तिश्च पदेन सह पदार्थस्य सम्बन्धः। सा चास्मत्पदादयमर्थो बोद्धव्य इतीश्वरेच्छारूपा’[5] अर्थात् पद के साथ पदार्थ का सम्बन्ध ही ‘शक्ति’ है और वह भी ‘इस पद से यह अर्थ जाना जाये।’ ऐसी ईश्वर की इच्छारूप है। यथा- घट = शक्त, अभिधान = शक्ति, अभिधा कम्बु, ग्रीवादि = शक्य, अभिधेय जहाँ पर अभिधावृत्ति या शक्ति के द्वारा अर्थज्ञान न हो अर्थात् तात्पर्य या अन्वय की उपपत्ति नहीं हो पाती है, वहाँ लक्षणा की आवश्यकता होती है। नैयायिकों के मत में लक्षणा का स्वरूप वैयाकरणविकनाय में लक्षणावृत्ति को स्वीकार नहीं किया गया है, इसलिए व्याकरणदर्शन में जब ‘लक्षणा’ का प्रसंग आता है, तब नैयायिकों के मत को ही उपस्थित किया जाता है, अतः नैयायिकों द्वारा प्रस्तुत लक्षणाविमर्श अत्यन्त प्रामाणिक है। न्यायसिद्धान्तमुक्तावली में- “लक्षणा शक्यसम्बन्धस्तात्पर्यानुपपत्तिः“[6] अर्थात् शक्य या मुख्यार्थ को सम्बन्धी मानकर उसके साथ सम्बन्ध वाला अमुख्यार्थ या लक्ष्य अर्थ है और उसका बोध कराने वाली वृत्ति ‘लक्षणा’ है। यह वृत्ति तात्पर्य की अनुपपत्ति से प्रवृत्त होती हैं इसप्रकार ‘स्व शक्यसम्बन्धो लक्षणा’तथा ‘तात्पर्यानुपपत्ति’ लक्षणा का बीज हुआ। यथा-‘गङ्गायां घोषः’ इस वाक्य में ‘गङ्गा’ पद का शक्यार्थ ‘प्रवाह’ है तथा ‘घोष’ पद का शक्यार्थ आभीर (गृह) है। गङ्गा के प्रवाह में घोष का बना रहना सम्भव नहीं है, इसलिए अन्वय सङ्गत न होने से ‘गङ्गायां घोषः’ वाक्य का शक्ति (अभिधा) से शाब्दबोध नहीं हो सकता है, अतः यहाँ पर तात्पर्य की अनुपपत्ति हो रही है, अतः‘गङ्गा’ पद अपने वाक्यार्थ प्रवाह के समीपवर्ती‘तीर’ अर्थ में लाक्षणिक है। वाक्य में गङ्का पद के अर्थ ‘प्रवाह’ से संयोग सम्बन्ध से सम्बन्धित ‘तीर’ का बोध होता हैं।
अन्वयानुपपत्ति को लक्षणा का बीज मानने पर नैयायिकों द्वारा खण्डन पूर्वपक्ष के आचार्य अर्थात् आलंकारिक जो अन्वयानुपपत्ति को लक्षणा का बीज मानते हैं, उनका खण्डन करते हुए विश्वनाथ पंचानन ने कहा है- यद्यन्वयानुपपत्तिर्लक्षणाबीजं स्यात् तदा यष्टीः प्रवेशयेत्यत्र लक्षणा न स्यात्।’ किन्तु सर्वत्र अन्वयानुपपत्ति ही लक्षणा का कारण नहीं हैए कहीं-कहीं तात्पर्यानुपपत्ति भी लक्षणा का कारण है। यथा-‘यष्टीः प्रवेशय’ इत्यादि में तो लक्षणा नहीं होगी, क्योंकि यष्टियों में प्रवेश के साथ की अन्वय की अनुपपत्तिका अभाव है, क्योंकि यहाँ वक्ता का तात्पर्य भोजन करने वालों के प्रवेश से है। यदि यष्टि ही प्रवेश करेगी तो तात्पर्य सिद्ध नहीं होगा। इसी तात्पर्य की सिद्धि के लिए यष्टीःपद की लक्षणा ‘यष्टिधर’ में करने से तात्पर्य सिद्ध होता है। ‘काकेभ्यो दधि रक्ष्यताम्’ इस वाक्य में भी अन्वयानुपपत्ति के अभाव में शब्दबोध नहीं हो सकता, क्योंकि दधि को नष्ट करने वाले काक(कौआ) से दधि की रक्षा करना इष्ट है, किन्तु वक्ता का तात्पर्य सर्वतः दधि की रक्षा करने में है, केवल काक से दधि की रक्षा करने में नहीं, अतः वक्ता के तात्पर्य के अनुसार दध्युपघातक सभी (विडाल, शृगाल, कुक्कुर, काक आदि)प्राणियों में लक्षणा करने से ही पूरा होगा अतः उक्त वाक्य में ‘काक’ पद की लक्षणा दध्युपघातक सभी प्राणियों में होती है। इतना ही नहीं[7] ‘गङ्गायांघोषः’‘गंगा में कुटी’ में शब्दार्थ के अन्वय न होने की जो क्लिष्टता है वह तो अन्य प्रकार से भी सिद्ध हो सकती है, क्योंकि जब यहाँ पर गंगा के तीर में लक्षणा के स्थान पर ‘घोष’ शब्द की मकर (नाका) आदि में लक्षणा करने से भी अन्वय ठीक हो जाता है अतः गंगा में कुटी नहीं हो सकती अतः उसके निवारणार्थ गंगा शब्द में लक्षणा के द्वारा ‘गंगा के तट पर कुटी’ अर्थ लिया जाता है परन्तु ‘घोष’ शब्द में लक्षणा के द्वारा इसका अर्थ यह भी सही है-‘गंगा में मगरमच्छ है’, अतः तात्पर्यानुपपत्ति को ही लक्षणा का बीज मानना निर्दोष है। लक्षणा केभेद-गौणीलक्षणा तथा शुद्धालक्षणा गौणी लक्षणा- जो लक्षणा शक्यार्थ से उपस्थापित सादृश्य सम्बन्ध द्वारा शक्यार्थ से सम्बद्ध अर्थ को बताने वाली हो, वह गौणी लक्षणा है।[8] जैसे-‘गौर्वाहीकः’ इस उदाहरण में प्रयुक्त, ‘गौः’ पदका शक्यार्थ है ए बैल जैसे. जड़ता तथा बुद्धिमान्द्य आदि अवगुण बैल मे होता है ए वैसे ही वाहीक मे भी होते है द्य अतः प्रस्तुत उदाहरण बैल के अवगुणों का आरोप सादृश्य सम्बन्ध से वाहीक देशवासी मे भी कर लिया जाता है द्य अत: गौणी लक्षणा है। शुद्धा लक्षणा- सादृश्य से भिन्न किसी अन्य सम्बन्ध के द्वारा वाच्यार्थ से सम्बद्ध अर्थ को बताने वाली शुद्ध लक्षणा है। इसमें गौणी के समान आरोप का सम्मिश्रण नहीं होता, इसलिए यह ‘शुद्धा’ हैं उदाहरण ‘आयुर्घृतम्’ इस उदाहरण में कार्य-कारण सम्बन्ध है। अतः ‘घृत’ शब्द अपने शक्यार्थ घृत से सम्बद्ध ‘आयु’ का लक्षणा के द्वारा बोध कराता है। लक्षणा के पुनः दो भेद और हैं-जहत्स्वार्था तथा अजहत्स्वार्था। जहत्स्वार्था लक्षणा-यह लक्षणा का वह भेद है जिसमें स्वार्थ का परित्याग करके इतर अर्थ का अभिधान किया जाता है। इस सम्बन्ध में कैयट कहते हैं-‘जहति पदानि स्वार्थंयस्यां का जहत्स्वार्था।’ [9] अर्थात् जहाँ पद स्वार्थ का परित्याग कर लक्ष्यार्थ का कथन करते हैं, वहां जहत्स्वार्थावृत्ति होती है। यथा-‘गां वाहीकं पाठय।’ इस उदाहरण में शक्यार्थ ‘बैल’ वाहीक को पढ़ाओ की पाठन क्रिया के साथ साङ्गति नहीं हो पा रही है। इसलिए ‘गौः’ शब्द अपने शक्यार्थ ‘बैल’ का परित्याग करके बैल अर्थ में विद्यमान जाड्य, मन्दता आदि सदृश अवगुणों वाले वाहीक प्रदेश में रहने वाले व्यक्ति विशेष का कथन करता है। अजहत्स्वार्था लक्षणा-अर्थात्‘वाच्यार्थ’ या ‘मुख्यार्थ’ जिस लक्षणा का परित्याग न करे, वह अजहत्स्वार्थालक्षणा है।‘समर्थः पदविधिः’ सूत्र के भाष्य मे महर्षि पतंजलि ने जहत्स्वार्था और अजहत्स्वार्था दानों ही वृत्तियों की चर्चा की है। जहां शक्यार्थ के साथ लक्ष्यार्थ का भी बोध होता है, वहाँ यह वृत्ति होती है। यथा- कुन्तान् प्रवेशय, यष्टीः, प्रवेशय, काकेभ्यो दधि रक्ष्यताम् इत्यादि इसके उदहारण हैं।[10] लक्षणा का एक तीसरा प्रकार भी है-जहदजहद लक्षणा अर्थात् जहत्- अजहत् लक्षणा। यथा-ग्रामोंदग्धः, पटोदग्धः, तत्त्वमसि आदि इसके उदाहरण हैं। विद्वानों ने लक्षणावृत्ति के विभिन्न कारण स्वीकार किये हैं- तात्स्थ्यात्तथैव ताद्धम्यत्तित्सामीप्यात्रथैव च। तात्साहचर्यात् तादर्थ्याज्ज्ञेया वै लक्षणा बुधैः।[11] तात्स्थ्यात् –मंचा हसन्ति। ग्रामः पलायितः। ताद्धर्म्यात् - सिंहोमागवकः गौर्वाहीकः। तात्सामीप्यात्- गङ्गायां घोषः तात्साहचर्यात् - यष्टीः प्रवेशय तादर्थ्यात् - इन्द्रार्था स्थूणा इन्द्रः
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निष्कर्ष
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महाभाष्यकार ने ‘पुंयोगादाख्यायाम’ सूत्र के भाष्य में इनकी चर्चा करते हुए कहा है-‘चतुर्भिः प्रकारैरतस्मिन् स इत्येतद् भवति तादर्थ्यात् तादधर्म्यात् तत्सामीप्यात्, तत्साहचर्यादिति।’ [12] |
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
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1. महाभाष्य, 1.1.43
2. मीमांसा सूत्र, 1.3.8
3. तद्धर्मावच्छिन्न ..... हेतुः,
परमलघुम´जूषा, शक्तिनिरूपण।
4. न्यायसिद्धान्तमुक्तावली, शब्दखण्ड
5. न्यायसिद्धान्तमुक्तावली, शब्दखण्ड
6. न्यायसिद्धान्तमुक्तावली, शब्दखण्ड
7. न्यायसिद्धान्तमुक्तावली, शब्दखण्ड
8. स्वनिरूपति सादृश्याधिकरणत्व.... गौणी, वाक्यपदीय (द्रव्यसमुद्देश)
9. कैयट,
10. महाभाष्य, 2.1.1.
11. कैयट, प्रदीप, महाभाष्य, 2.1.1.
12. अष्टाध्यायी सूत्रपाठ 4.1.48 |