P: ISSN No. 2321-290X RNI No.  UPBIL/2013/55327 VOL.- XII , ISSUE- VIII April  - 2025
E: ISSN No. 2349-980X Shrinkhla Ek Shodhparak Vaicharik Patrika
थार मरुस्थलीय जैव-विविधता के संरक्षण में गुरु जांभोजी के चिंतन का योगदान
Paper Id :  20117   Submission Date :  2025-04-06   Acceptance Date :  2025-04-21   Publication Date :  2025-04-25
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DOI:10.5281/zenodo.15392878
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मूलाराम
कार्यवाहक प्राचार्य एवं असिस्टेंट प्रोफेसर
भूगोल विभाग
राजकीय महाविद्यालय, सांचौर
जालोर,राजस्थान, भारत
सारांश

जैव-विविधता के साथ-साथ मानव जनसंख्या एवं पशुपालन की दृष्टि से थार मरुस्थल विश्व का अनूठा गर्म मरुस्थल है। इस अध्ययन में मुख्यतः थार मरुस्थल की जैव-विविधता के संरक्षण में बिश्नोई पंथ के संस्थापक गुरु जांभोजी के दार्शनिक चिंतन की भूमिका का विश्लेषण किया गया है। गुरु जांभोजी ने सबदवाणी, उपदेशों एवं नियमों द्वारा आमजन को पारिस्थितिकी के अनुसार जीवन यापन करने, पेड़-पौधों की रक्षा करने, वृक्षारोपण करने, जीव-जंतुओं की हत्या नहीं करने, उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों का अनुकूलतम उपयोग करने का संदेश देकर थार मरुस्थल में जैव-विविधता के संरक्षण में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। आज से लगभग 550 साल पहले मानव समुदाय में पर्यावरण संरक्षण, जैव-विविधता संरक्षण एवं पारिस्थितिकीय संतुलन की चेतना को जागृत करना दूरदृष्टि सोच का परिचायक है। यह अध्ययन मुख्यतः द्वितीयक आंकड़ों एवं साहित्यिक स्रोतों पर आधारित है। वर्तमान में वैश्विक स्तर पर मरुस्थलीय जैव-विविधता के क्षरणको रोकने एवं उसका संरक्षण करने हेतु गुरु जांभोजी का दार्शनिक चिंतन सार्वभौमिक रूप से उपयोगी एवं सार्थक हैं।

सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद The Thar Desert is a unique hot desert in the world in terms of biodiversity as well as human population and animal husbandry. This study mainly analyses the role of the philosophical thinking of Guru Jambhuji, the founder of the Bishnoi sect, in the conservation of the biodiversity of the Thar Desert. Guru Jambhuji has made a significant contribution in the conservation of biodiversity in the Thar Desert by giving the message to the common people through Shabdwani, teachings and rules to live according to the ecology, protect trees and plants, plant trees, not kill animals, and make optimal use of the available natural resources. Awakening the consciousness of environmental protection, biodiversity conservation and ecological balance in the human community about 550 years ago is a sign of farsighted thinking. This study is mainly based on secondary data and literary sources. At present, the philosophical thinking of Guru Jambhuji is universally useful and meaningful to prevent and conserve the degradation of desert biodiversity at the global level.
मुख्य शब्द थार मरुस्थल, जैव-विविधता, बिश्नोई पंथ, संरक्षण, सबदवाणी।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Thar Desert, Biodiversity, Bishnoi sect, Conservation, Shabdvani.
प्रस्तावना

पृथ्वी के कुल स्थलीय भाग के लगभग1/5 भू-भाग के साथ प्रत्येक महाद्वीप में मरुस्थल का विस्तार पाया जाता है। मरुस्थलीय प्रदेश विश्व के गर्म एवं ठंडे दोनों भागों में पाए जाते हैं। मरुस्थल सामान्यतः ऐसे शुष्क क्षेत्र होते हैं जहां वर्षा 25 सेंटीमीटर से कम तथा वाष्पीकरण की मात्रा वर्षण की तुलना में दोगुना होती हैं। विश्व के मरुस्थलीय प्रदेश जानवरों की शरणस्थली, समृद्ध जैव विविधता एवं कठोर पर्यावरणीय परिस्थितियों को सहन करने वाले पेड़-पौधों से युक्त होते हैं जहां विश्व की 1/6 भाग जनसंख्या निवास करती हैं। थार मरुस्थल विश्व का 10वां सबसे बड़ा मरुस्थल है जो उत्तर-पश्चिमी भारत के लगभग 300000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला है जिसका 61 प्रतिशत भाग राजस्थान, 9 प्रतिशत भाग पंजाब-हरियाणा एवं 20 प्रतिशत भाग गुजरात में फैला है (खान, 1996)। थार मरुस्थल पश्चिम में सिंधु के मैदान (पाकिस्तान), दक्षिण में कच्छ के रन, उत्तर पश्चिम में सतलज नदी के मैदान, पूर्व में अरावली पहाड़ियों के मध्य समुद्र तल से 100 मीटर की ऊंचाई में फैला हुआ है। यह मानव अधिवास एवं पशुपालन की दृष्टि से विश्व के आबाद मरुस्थलों में शामिल हैं। इसी कारण प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव अधिक होने के साथ-साथ सूखे का प्रभाव भी यहां की अर्थव्यवस्था पर अधिक परिलक्षित होता है। राजस्थान के 12 पश्चिमी जिलों यथा - गंगानगर, हनुमानगढ़, चूरु, जैसलमेर, बीकानेर, जोधपुर, बाड़मेर, जालौर, पाली, नागौर, सीकर एवं झुंझुनू थार मरुस्थल में शामिल है जहां राज्य की 40ः मानव आबादी निवास करती है। शुष्क एवं गर्म जलवायु, न्यून वर्षा, कटीली झाड़ियां एवं वनस्पति, रेतीले टीले, पथरीली भूमि युक्त धरातल, बिखरे मानव अधिवास इत्यादि थार मरुस्थल की प्रमुख विशेषताएं हैं।

अध्ययन का उद्देश्य

इस अध्ययन के मुख्य उद्देश्य निम्नानुसार है-

  1. मुख्यतः पश्चिमी राजस्थान के थार मरुस्थलीय प्रदेश की जैव-विविधता एवं उसके संरक्षण को समझना।
  2. थार मरुस्थलीय प्रदेश में जैव-विविधता के संरक्षण में गुरु जांभोजी के दार्शनिक चिंतन के योगदान का मूल्यांकन करना।
साहित्यावलोकन

प्रस्तुत शोधपत्र के लिए विभिन्न पुस्तकों और शोधपत्रों जैसे मूलाराम (2021): गुरू जांभोजी: जीवन दर्शन एवं लोक कल्याणकारी शिक्षाएँ, बहुआयामी राजस्थान, मूलाराम (2021): गलोबल वार्मिंग के न्यूनीकरण में गुरू जाम्भोजी के चिंतन की भूमिका: एक विवेचनात्मक अध्ययन, आचार्य, कृष्णानंद (2018): जम्भ सागर, हंसा मीना (2017) : Climate Change: Biodiversity Conservation with Reference to Thar Desert तथा सुर्य शंकर पारीक (2013): जाम्भोजी की वाणी आदि का अध्ययन किया गया है

सामग्री और क्रियाविधि
यह अध्ययन मुख्यतः द्वितीयक आंकड़ों एवं साहित्यिक स्रोतों पर आधारित है। इसमें थार मरुस्थल की जैव-विविधता के संरक्षण में बिश्नोई पंथ के संस्थापक गुरु जांभोजी के दार्शनिक चिंतन के योगदान एव समकालीन प्रासंगिकता का विश्लेषणात्मक अध्ययन किया गया है।
विश्लेषण
जैव-विविधता:
किसी प्राकृतिक प्रदेश में पेड़-पौधों एवं जीव-जंतुओं की प्रजातियों में पाई जाने वाली विविधता को जैव-विविधता कहा जाता है। जैव-विविधता के अंतर्गत जीवों की प्रजातियों में, प्रजातियों के बीच तथा उनके पारितंत्रो की विविधता को भी शामिल किया जाता है। इसी आधार पर जैव-विविधता को प्रजातीय विविधता, अनुवांशिक विविधता एवं पारितंत्र विविधता में विभक्त किया जाता है। इस जैव-विविधता का अपना आर्थिक, पर्यावरणीय, चिकित्सकीय, सामाजिक, धार्मिक एवं आध्यात्मिक महत्व है तथा इसके अभाव में पृथ्वी पर मानव जीवन का सतत् विकास संभव नहीं है।
जैव-विविधता संरक्षण:
जैव विविधता संरक्षण से अभिप्राय पृथ्वी पर उपलब्ध जैविक संसाधनों के प्रबंधन एवं अनुकूलतम उपयोग से हैं जिससे इसका वर्तमान एवं भावी पीढ़ी के लिए व्यापक उपयोग के साथ-साथ इसकी गुणवत्ता को बनाया रखा जा सके। मानव सभ्यता के विकास की प्रक्रिया में जैव-विविधता एक महत्वपूर्ण आयाम है जो भोजन, कपड़ा, ईंधन, औषधि इत्यादि की आपूर्ति करने के साथ-साथ पर्यावरण संरक्षण में महत्ती भूमिका अदा करती है। जैव-विविधता, पोषकतत्वों को गतिमान रखने, पारितंत्र को स्थिरता प्रदान कर पारिस्थितिकीय संतुलन को बनाए रखती है तथा प्राकृतिक आपदाओं से जैव समुदाय को सुरक्षा प्रदान करती है। अतः पृथ्वी पर पारिस्थितिकीय संतुलन को बनाए रखने तथा जैव समुदाय को नष्ट होना से बचाने के लिए जैव-विविधताका संरक्षण अत्यावश्यक है। सामान्यतः जैव-विविधता के संरक्षण की दो प्रमुख विधियां है: प्रथम, जब किसी जैव प्रजाति का संरक्षण प्राकृतिक आवास के अंतर्गत किया जाता है तो उसे यथा स्थल संरक्षण (In-Situ) कहा जाता है। इसमें राष्ट्रीय उद्यान, वन्यजीव अभयारण्य, जैवमंडल, आरक्षित क्षेत्र, आरक्षित वन, संरक्षित वन, आखेट निषिद्ध क्षेत्र इत्यादि शामिल है। द्वितीय, जब किसी जैव प्रजाति का संरक्षण उनके प्राकृतिक आवास से बाहर यथा - चिड़ियाघर, वनस्पति उद्यान, जीनबैंक, बीजबैंक, सफारी पार्क इत्यादि में किया जाता है तो उसे बहीः स्थल संरक्षण (Ex-situ) कहते हैं। अतः वर्तमान समय में पृथ्वी की जैविक संपदा की रक्षा करने एवं पारिस्थितिकीय संतुलन को बनाए रखने हेतु जैव-विविधता के संरक्षण की महत्ती आवश्यकता है।
थार मरुस्थल में जैव-विविधता एवं उसका संरक्षण:
सामान्यतः मरुस्थल शब्द से केवल रेत एवं रेतीले टीलों के विस्तार का आभास होता है लेकिन थार मरुस्थल में रेतीले टीलों के साथ-साथ पथरीला भाग एवं मानव आवास युक्त मैदानी भाग भी पाए जाते हैं। विश्व के अन्य मरुस्थलों की तुलना में थार मरुस्थल जैव-विविधता की दृष्टि से समृद्ध हैं। यहां मानव जीवन, पशुजगत एवं वनस्पति की विविधता अधिक है। यह मरुस्थल कई जैव प्रजातियों का आश्रय स्थल है जिन्होंने स्वयं को कठोर पर्यावरणीय परिस्थितियों में जीवित रहने के लिए स्वयं को अनुकूलित किया है। थार मरुस्थल में वनस्पति की 682 प्रजातियां पाई जाती है इसमें शुष्क वनस्पतियां, झाड़ियां एवं घास प्रमुख हैं। यहां जीवों की 755 अकशेरुकीय एवं 440 कशेरुक प्रजातियां पाई जाती है जिसमें 140 पक्षी और 41 स्तनधारी प्रजातियां शामिल हैं। यहां भारतीय बस्टर्ड, काला हिरण, भारतीय जंगली गधा एवं भारतीय चिंकारा जैसी दुर्लभ प्रजातियां पाई जाती हैं। विपरीत पर्यावरणीय परिस्थितियों में पाई जाने वाली जैव प्रजातियां यहां निवास करने वाले मानव समुदाय और पशुधन की जरूरतों को पूरा करने में उपयोगी होने के कारण इसका सतत् उपयोग करने हेतु इनके संरक्षण एवं प्रबंधन की आवश्यकता है। इस हेतु सरकारी प्रयासों के साथ-साथ जन सहभागिता आवश्यक है क्योंकि थार मरुस्थल की जैव-विविधता जलवायु परिवर्तन के साथ-साथ मानवीय गतिविधियों के कारण भी प्रभावित होती हैं। राज्य सरकार ने मरुस्थलीय प्रदेश की जैव-विविधता के संरक्षण हेतु डेजर्ट नेशनल पार्क, अभयारण्य एवं आखेट निषिद्ध क्षेत्र घोषित करने के साथ-साथ यहां पाई जाने वाली वनस्पतियों एवं जीवों के संरक्षण हेतु कई कानूनी प्रावधान भी किए हैं। इसके अलावा यहां लोक देवी-देवताओं के उपदेशों, उनके जीवन मूल्यों एवं अनुकरणीय कार्यों के आधार पर भी मरुस्थलीय जैव-विविधता के संरक्षण की भावना जनमानस एवं लोक-संस्कृति में देखी जा सकती हैं।
गुरु जांभोजी के दार्शनिक चिंतन में जैव-विविधता एवं उसका संरक्षण:
राजस्थान के थार मरुस्थलीय प्रदेश में 15 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध एवं 16वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में अपने उपदेशों, नियमों एवं जीवन शैली के माध्यम से मानव समाज के सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, नैतिक एवं सांस्कृतिक उत्थान के साथ-साथ पर्यावरणीय एवं जैव-विविधत के संरक्षण की चेतना को जागृत करने में बिश्नोई पंथ के संस्थापक गुरु जांभोजी का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। आज से लगभग 550 वर्ष पहले जन समुदाय में पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी संरक्षण का संदेश देना तथा पृथ्वी पर भविष्य में उत्पन्न होने वाले परिस्थितिकीय असंतुलन एवं पर्यावरणीय समस्याओं के प्रति मानव समाज को आगाह करना कोई सामान्य घटना नहीं थी। गुरु जांभोजी ने मरुस्थलीय पारिस्थितिकी के अनुरूप जीवनशैली अपनाने एवं उपलब्ध संसाधनों का संरक्षण करने हेतु वृक्षों को नहीं काटने, वृक्षारोपण करने, पशु संवर्धन, वन्य एवं पालतू जीवों के प्रति दया भाव रखने एवं उनकी हत्या नहीं करने, परंपरागत जल स्रोतों यथा-नाडी एवं तालाबों का संरक्षण करने, प्रकृति के सानिध्य में रहते हुए प्राकृतिक संसाधनों का अनुकूलतम उपयोग करने तथा सादा जीवन और उच्च विचारों को अपनाने हेतु थार मरुस्थल में निवासरत जन समुदाय को प्रेरित किया। उनके उपदेशों, नियमों एवं जीवन शैली में जैव-विविधता के संरक्षण की भावना स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती हैं।
जैव विविधता से सामान्य तात्पर्य पृथ्वी तल पर पाए जाने वाले जैव समुदाय एवं उनकी प्रजातियों में पाई जाने वाली विविधता से हैं। गुरु जांभोजी ने अपनी सबदवाणी में इसी जैव-विविधता को स्वीकार करते हुए कहा है कि “नान्ही मोटी जीया जूणी, एति सांस फूरंते सारु” (सबद - 03)। उन्होंने अपने उपदेशों में पृथ्वी तल पर 84 लाख जीव योनियों तथा 18 भार वनस्पतियों का उल्लेख किया है। “लख चौरासी जीया-जूणी न होती, न होती बणी अठारा भारु” (सबद - 04)। इसी जैव-विविधता को संरक्षित करने हेतु गुरु जांभोजी ने अपनी सबदवाणी में जीवों के प्रति क्रूरता करने वालों को कड़ी फटकार लगाते हुए जीवो को संरक्षित करने तथा जीव मात्र के प्रति दया भाव करने का उपदेश दिया है।
“सूल चुभीजे करक दुहैला, तो है है जियो जीव न घाई” (सबद - 08)
“जींवा ऊपर जोर करीजै, अंत काल होयसी भारू” (सबद - 09)
‘भाई नाऊ बलद पियारो, ताके गले अर्थ क्यूं सारों” (सबद - 09)
“थे तक जाणों तक पीड़ न जांघों, विन परचौ वाद निवाद गुजारो” (सबद - 11)
“चर फिर आवै सहज दुहावै, जिसका खीर हलाली,
जिसके गले करद क्यूं सारौ, थे पढ़ सुत रहिया खाली” (सबद - 11)
“रहो थे मुर्खा मुग्ध गंवारा, करो मजूरी पेट भराई,
है है जायो जीव न घाई” (सबद - 85)
गुरु जांभोजी ने अपनी सबदवाणी में निरपराध जैव प्रजातियों की निज स्वार्थ पूर्ति हेतु हत्या करने वालों का कड़ा विरोध करते हुए ऐसी पापाचारियों को भगवान एवं प्रकृति के समक्ष दोषी माना है।
“जटा बधारो जीव सिंघारो, आयसा इहि पाखंड तो जोग न होई” (सबद - 43)
“आप खुदायबंद लिखौ मांगै, रे वीन्हे गुन्है जीव क्यों मारो” (सबद - 11)
सबदवाणी के अलावा गुरु जांभोजी ने पृथ्वी पर विचरण करने वाली जीव प्रजातियों की रक्षा हेतु 29 नियमों की संहिता में जीव मात्र के प्रति दया भाव रखना, थाट अमर रखना, बैल बंधिया न करना एवं मांस भक्षण का नहीं करने जैसे अहिंसात्मक नियमों को शामिल किया है ताकि पृथ्वी पर जैव-विविधता का संरक्षण कर पारिस्थितिकी संतुलन में मानवीय हस्तक्षेप को कम किया जा सके।
जैव-विविधता में वनस्पतियों की महत्वपूर्ण भूमिका है तथा पारिस्थितिकी संतुलन एवं पर्यावरण संरक्षण हेतु पेड़-पौधों की प्रजातियों का संरक्षण भी अत्यावश्यक है। अतः गुरु जांभोजी ने अपनी 29 नियमों की संहिता में वृक्षों को नहीं काटने संबंधी नियम को शामिल किया है। जलवायु परिवर्तन एवं मरुस्थलीकरण जैसी पर्यावरणीय समस्याओं के प्रभाव को सीमित करने के साथ-साथ मरुस्थलीय जैव-विविधता का संरक्षण करने हेतु वृक्षों की रक्षा करना अत्यावश्यक है। जांभाणी चिंतन धारा में “सिर सांटे रुंख रहे तो भी सस्तो जान” नामक उक्ति का अत्यंत महत्व है। इसी कारण वृक्षों विशेषतः खेजड़ी वृक्ष के रक्षार्थ प्राणों की बलि देने संबंधी रामासडी बलिदान (1604 ई.), तिलवासनी बलिदान, पोलावास बलिदान (1643 ई.) एवं खेजड़ली बलिदान (1730 ई.) की घटनाएं विश्व प्रसिद्ध होने के साथ-साथ जैव-विविधता के संरक्षण में गुरु जांभोजी एवं उनके अनुयायियों के अमूल्य योगदान का प्रतीक है।
गुरु जांभोजी ने अपनी सबदवाणी में भी हरे वृक्षों को नहीं काटने एवं वृक्ष प्रजातियों का संरक्षण करने का उपदेश मानव समाज को दिया है। “सोम अमावस आदितवारी, कांय काटी बनरायो” (सबद - 07)। उन्होंने प्राकृतिक वनस्पति का संरक्षण करने हेतु वनस्पति को अपना निवास माना है। “मोरे धरती ध्यान वनस्पति वासों, ओजूमंडल छायो” (सबद - 29)। गुरु जांभोजी ने मरुस्थलीय पारिस्थितिकी के लिए खेजड़ी एवं कंकेड़ी को महत्वपूर्ण माना है। इन्होंने रोटू (नागौर), लोदीपुर (उत्तर प्रदेश), मीरपुर, मोहम्मदपुर और खरड़ में खेजड़ी के वृक्ष लगाए जो आज भी मौजूद हैं। इस प्रकार गुरु जांभोजी ने अपने दार्शनिक चिंतन में जीवों एवं वनस्पतियों की रक्षा करने तथा वृक्षारोपण की भावना को महत्व दिया है ताकि जैव-विविधता का संरक्षण कर मरुस्थलीय पारिस्थितिकी तंत्र को सुरक्षित रखा जा सके। उन्होंने मरुस्थलीय पारिस्थितिकी में उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों का अनुकूलतम उपयोग करते हुए जैविक विविधता के सतत् विकास पर बल दिया है। “खरड ओढीजै, तूंबा जींमीजै, सुरहै दुहीजै, खैत की सींव म लीजै, पीजै ऊंडा नीरु’’  (सबद - 111)।
निष्कर्ष

जैव-विविधता की दृष्टि से थार मरुस्थल समृद्ध हैं तथा यहां के मानवीय विकास एवं पारिस्थितिकी संतुलन में इसका महत्वपूर्ण योगदान है। इस जैव-विविधता के संरक्षण में बिश्नोई पंथ के संस्थापक गुरु जांभोजी के दर्शन का महत्वपूर्ण योगदान है। उन्होंने थार मरुस्थल की जैव-विविधता के संरक्षण हेतु आदर्श जीवन शैली अपनाने, वृक्षारोपण करने, वृक्षों की कटाई पर रोक, जीव-जंतुओं की हत्या नहीं करने, उपलब्ध संसाधनों का अनुकूलतम उपयोग करने पर बल दिया है। वर्तमान समय में वन्य जीवों का शिकार, पर्यावरण प्रदूषण, अतिचारण, वन विनाश, जैव संसाधनों का अति दोहन एवं विदेशी मूल की वनस्पतियों के आक्रमण के कारण थार मरुस्थल में जैव-विविधता के संरक्षण को रोकने हेतु गुरु जांभोजी के उपदेशों, नियमों एवं जीवन शैली का अनुसरण करना महत्ती आवश्यकता है ताकि इस मरुस्थलीय प्रदेश की जैव-विविधता का संरक्षण कर सतत् मानवीय विकास की संकल्पना को सुदृढ़ किया जा सके।

“सतगुरु मिलियो सतपंथ बतायो, भ्रांत चुकाई, मरणे बहु उपकार करे” (सबद - 23)

सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
  1. मूलाराम (2021): गलोबल वार्मिंग के न्यूनीकरण में गुरू जाम्भोजी के चिंतन की भूमिका: एक विवेचनात्मक अध्ययन, Research Journey, International Research  Journal, Special Issue-266 (F), pp. 163-168
  2. मूलाराम (2021): पर्यावरण संरक्षण में गुरू जांभोजी के चिंतन की महत्ता, Pathfinder, The International Multidisciplinary Research Journal, Vol. 1, Number 2, July-December, pp. 94-102
  3. मूलाराम (2021): गुरू जांभोजी: जीवन दर्शन एवं लोक कल्याणकारी शिक्षाएँ, बहुआयामी राजस्थान, सम्पादित बुक, इण्डियन पब्लिशिंग हाउस, जयपुर, पृ. 166-176. 
  4. आचार्य, कृष्णानंद (2018): जम्भ सागर, जांभाणी साहित्य अकादमी, बीकानेर, पृ. 1-216.
  5. Meena, Hansa (2017) : Climate Change: Biodiversity Conservation with Reference to Thar Desert, Proceeding of the International Conference on Climate Change, Vol. 1, pp. 1-6
  6. पारीक, सुर्य शंकर (2013): जाम्भोजी की वाणी, विकास प्रकाशन, बीकानेर, पृ. 1-312.
  7. Sharma, Gaurav (2013) : A review on the Studies on Faunal diversity, status, Threats and Conversation of Thar Desert on Great Indian Desert Ecosystem, Biological Forum- An International Journal, Vol. 5(2), pp.81-90.
  8. Khan, T.I., Dular, Anil K. and Solomon, Deepika M. (2003) : Biodiversity Conservation in the Thar Desert; with Emphasis on Endemic and Medicinal Plants, The Environmentalist, 23, pp. 137-144