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एक देश एक चुनाव : भारतीय लोकतंत्र के संदर्भ में समालोचनात्मक अध्ययन |
One Nation One Election: A Critical Study in the Context of Indian Democracy |
Paper Id :
16124 Submission Date :
2022-06-07 Acceptance Date :
2022-06-14 Publication Date :
2022-06-25
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एन राजेंद्र सिंह
सहायक आचार्य
राजनीति शास्त्र विभाग
बाबू शोभाराम राजकीय कला महाविद्यालय
अलवर ,राजस्थान, भारत
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सारांश
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पिछले कुछ समय से एक देश एक चुनाव की अवधारणा पर चर्चा ज़ोरशोर से हो रही है। एक देश एक चुनाव के पक्ष विपक्ष में विद्वत्जनो द्वारा विभिन्न मंचों पर अपने तर्क और दलीलें प्रस्तुत की जा रहीं हैं। भारतीय जनता पार्टी समेत कई दल इस विचार से सहमत हैं लेकिन कांग्रेस समेत बहुत से दल इस विचारधारा से अपनी असहमति भी रखते हैं। हाल ही में राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने संसद के संयुक्त अधिवेशन को संबोधित कर 'एक देश एक चुनाव' की व्यवस्था को लागू करने का आह्वान किया। वे देश का विकास तेजी से करने और लोगों को इससे लाभान्वित करने के लिए ऐसा जरूरी मानते हैं। एक देश एक चुनाव की मूल योजना यह है कि लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं में एक साथ चुनाव करा लिए जाएं। इस विषय पर चुनाव आयोग, नीति आयोग, विधि आयोग, संविधान समीक्षा आयोग जैसे कई मंचों पर खूब विचार विमर्श भी हो चुका है। लोगों के बीच भी इस पर बहस जारी है। इसके पक्ष में लोगों ने बहुत कुछ कहा है तो और इसके खिलाफ भी। जहां विद्वानों का एक वर्ग एक देश एक चुनाव की अवधारणा का समर्थन करते हुए अपने तर्क प्रस्तुत करता है वहीं दूसरा वर्ग व्यावहारिक धरातल पर इस अवधारणा को लागू करने की कठिनाइयों और चुनौतियों को भी हमारे समक्ष प्रस्तुत करता है। एक देश एक चुनाव की अवधारणा के मूल में मुख्य मुद्दा चुनावों के दौरान होने वाला अनावश्यक खर्च और विकास कार्यों पर पड़ने वाला नकारात्मक प्रभाव है। भारत एक लोकतंत्र है और लोकतंत्र में चुनाव अपरिहार्य प्रक्रिया है । निर्वाचन लोकतांत्रिक व्यवस्था को व्यवाहरिक रूप प्रदान करते हैं। इस शोध पत्र में भारत की बहुदलीय और बहु स्तरीय लोकतांत्रिक संघात्मक शासन व्यवस्था में एक साथ संसद और विधानसभाओं के चुनाव करवाए जाने की योजना कितनी व्यवहारिक है, इसकी जांच पड़ताल करने का प्रयास किया गया है।
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद |
The concept of One Nation One Election is being discussed vigorously for some time now. In favor of One Nation One Election, scholars are presenting their arguments in various forums. Many parties, including the Bharatiya Janata Party, agree with this view, but many parties including the Congress also disagree with this ideology. Recently, President Ram Nath Kovind addressed the joint session of Parliament and called for the implementation of the system of 'One Nation One Election'. They consider this necessary for the country to develop rapidly and for the people to benefit from it. The basic plan of One Nation One Election is to hold simultaneous elections to the Lok Sabha and state assemblies. There has been a lot of discussion on this subject in many forums like Election Commission, NITI Aayog, Law Commission, Constitution Review Commission. The debate on this continues among the people as well. People have said a lot in its favor and also against it. While a section of scholars present their arguments in support of the concept of one country one election, another section also presents the difficulties and challenges of applying this concept on practical ground. The core issue at the core of the concept of One Nation One Election is unnecessary expenditure during elections and negative impact on development works. India is a democratic counting and elections are an inevitable process in a democracy. Elections give practical shape to the democratic system. In this research paper, an attempt has been made to investigate the practicality of the scheme of holding simultaneous elections to Parliament and Legislative Assemblies in India's multi-party and multi-level democratic federal government system. |
मुख्य शब्द
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एक देश एक चुनाव, लोकतंत्र, संविधान, विकास कार्य, आचार संहिता, चुनाव खर्च, संघीय व्यवस्था, बहुदलीय लोकतांत्रिक व्यवस्था। |
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद |
Nation, Election, Democracy, Constitution, Development, Work, Code, Conduct, Expenses, Federal, Multiparty, System. |
प्रस्तावना
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पिछले कुछ दशकों से भारत में ऐसी परंपरा चल पड़ी है कि लगभग हर 6 महीने में किसी ना किसी चुनाव का सामना देश को करना पड़ता है । अभी एक चुनाव से उबर कर विकास योजनाओं पर चर्चा शुरू होती है कि किसी ना किसी चुनाव या उपचुनाव की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। देश में होने वाले चुनावों का अगर हम गहराई से आंकलन करते हैं तो हम पाते हैं कि देश में हर साल किसी न किसी राज्य के विधानसभा का चुनाव होता है। इसके कारण प्रशासनिक नीतियों के साथ–साथ देश के खजाने पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। 17वीं लोकसभा का चुनाव अभी हाल में ही संपन्न हुआ है जिसमें अनुमानत: 60 हज़ार करोड़ रूपये खर्च हुए तथा देश में लगभग 3 महीने तक चुनावी माहौल बना रहा। ऐसी ही स्थिति लगभग वर्ष भर देश के अलग–अलग राज्यों में बनी रहती है। ऐसा माना जाने लगा है कि ‘एक देश एक चुनाव’ का विचार इन परिस्थितियों से देश को निजात दिला सकता है।
लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव साथ साथ कराये जाने के मुद्दे पर लंबे समय से बहस जारी है। देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी इस विचार का समर्थन किया है और कहा है कि "एक बार जब यह तय कर लिया जाये कि हमें कुछ करना है, तभी हम आगे बढ़ सकते हैं।" इस मुद्दे पर निर्वाचन आयोग, विधि आयोग, संविधान समीक्षा और नीति आयोग ने भी विचार प्रस्तुत कर इस अपनाए जाने पर अपनी हामी दी है। विधि आयोग ने देश में एक साथ चुनाव कराये जाने के विषय पर विभिन्न राष्ट्रीय एवं क्षेत्रीयराजनीतिक दलों और प्रशासनिक अधिकारियों के विचार जानने के लिये तीन दिवसीय विचारगोष्ठी का आयोजन किया था। इस कॉन्फ्रेंस में कुछ राजनीतिक दलों ने इस विचार से सहमति जताई, जबकि ज्यादातर राजनीतिक दलों ने इसका विरोध किया। उनका कहना है कि यह विचार लोकतांत्रिक प्रक्रिया के खिलाफ है। हालाँकि वर्ष 1967 तक एक साथ चुनाव भारत में प्रतिमान थे। लोकसभा और सभी राज्य विधानसभाओं के पहले आम चुनाव वर्ष 1951-52 में एक साथ हुए थे। इसके बाद वर्ष 1957, वर्ष 1962 और वर्ष 1967 में हुए तीन आम चुनावों में भी यह प्रथा जारी रही। लेकिन वर्ष 1968 और वर्ष 1969 में कुछ विधान सभाओं के समय से पहले भंग होने के कारण यह चक्र बाधित हो गया। वर्ष 1970 में लोकसभा को समय से पहले ही भंग कर दिया गया था और वर्ष 1971 में पुनः नए चुनाव हुए थे। इस प्रकार पहली, दूसरी और तीसरी लोकसभा ने पूरे 5 वर्ष के कार्यकाल पूर्ण किये थे। लोकसभा और विभिन्न राज्य विधानसभाओं दोनों के समय से पहले विघटन और कार्यकाल के विस्तार के परिणामस्वरूप लोकसभा तथा राज्यों की विधानसभाओं के अलग-अलग चुनाव हुए और एक साथ चुनाव की प्रक्रिया बाधित हो गई।।
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अध्ययन का उद्देश्य
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प्रस्तुत शोध पत्र के का मुख्य उद्देश्य "एक देश एक चुनाव" के विचार की व्यवहारिकता का आलोचनात्मक विश्लेषण करना है। इस शोध पत्र में बताया गया है कि "एक देश एक चुनाव" का विचार कुछ मायनों में फायदेमंद होते हुए भी भारतीय लोकतांत्रिक और संघ व्यवस्था के लिए कितना चुनौतीपूर्ण है। चुनाव सुधारों की दृष्टि से देखा जाए तो अन्य कई उपाय हैं जिनके माध्यम से चुनावी खर्च को कम किया जा सकता है। शोध पत्र के निम्नलिखित उद्देश्य हैं -
1. एक देश एक चुनाव प्रचार की व्यवहारिकता की समीक्षा करना।।
2. एक देश एक चुनाव के मार्ग की चुनौतियों का अध्ययन करना।
3. एक देश एक चुनाव के स्थान पर वर्तमान चुनाव प्रक्रिया में आवश्यक सुधारों के साथ-साथ भ्रष्टाचार पर नियंत्रण के उपायों की चर्चा करना ताकि चुनाव प्रक्रिया को पारदर्शी और निष्पक्ष रूप प्रदान किया जा सके और लोकतांत्रिक और संघीय व्यवस्था को व्यावहारिक रूप प्रदान किया जा सके। |
साहित्यावलोकन
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अरुण कुमार कौशिक और युगांक गोयल ने The Journal of Social, Political, and Economic Studies; Washington 2019 में प्रकाशित अपने आलेख The Desirability of One Nation One Election in India: Simultaneous Elections में एक देश एक चुनाव के विचार के विभिन्न आयामों की चर्चा की है।
परिन्दु भगत और डॉ. पूर्वी पोखरयाल ने अपने शोध पत्र CONCEPTUAL REFORMS ONE NATION – ONE ELECTION ने एक देश एक चुनाव की अवधारणा की आवश्यकता, इसके फायदे और नुकसान एवं इसकी चुनौतियों का आलोचनात्मक विश्लेषण प्रस्तुत किया है।
परंजॉय गुहा ठाकुरता ने अपने आलेख 'भ्रष्टाचार के मूल में है चुनाव का काला धन' में चुनाव में प्रयोग किया जाने वाले काले धन और भ्रष्टाचार के बीच गठजोड़ की चर्चा की है। |
मुख्य पाठ
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परिचर्चा वर्ष 1983 में चुनाव आयोग ने ‘एक देश एक चुनाव’ की अवधारणा पर पुनर्विचार करने की अवश्यकता प्रस्तावित की थी। 1995 में भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने इस मुद्दे को उठाया था। उनका विचार था कि लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं के आम चुनावों को एक साथ कराया जाए जैसा कि 1967 के पहले होता रहा है। इस प्रकार की व्यवस्था भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था को बेहतर बनाने में सहायक सिद्ध होगी। विधि आयोग की रिपोर्ट में भी इसका उल्लेख किया जाता रहा है। वर्ष 1999 में विधि आयोग ने अपनी 170वीं रिपोर्ट में लोकसभा और विधानसभाओं के आम चुनावों को एक साथ कराने का समर्थन किया था। इसके बाद दिसंबर 2015 में विधि आयोग ने ‘एक देश, एक चुनाव’ विषय को लेकर रिपोर्ट पेश की थी। इसमें बताया गया था कि अगर देश में एक साथ ही लोकसभा और विधानसभा के चुनाव कराए जाते हैं, तो इससे करोड़ों रुपए बचाए जा सकते हैं जो देश के विकास को गति प्रदान में काम आ सकते हैं। इसके पुनर्विचार ने तब गति पकड़ी जब भाजपा ने इसे अपने 2014 के घोषणापत्र में पेश किया था। 2015 में भारत के तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त एचएस ब्रह्मा ने भी अपना मत प्रकट करते हुए कहा था कि लोक सभा और विधान सभा चुनाव को एक साथ कराया जाना चाहिए क्योंकि इससे भारत सरकार के खर्च में कमी होगी। उनका कहना था कि राज्य विधानसभाओं के चुनाव में खर्च 4500 करोड़ बैठता है इसे नियंत्रित करने के लिए लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराना बेहतर होगा। एक देश एक चुनाव के पक्षकारों के अनुसार यह कोई अनूठा या नया प्रयोग नहीं है। संविधान निर्माण के पश्चात हमारे देश में 1967 तक लोकसभा के साथ विधानसभाओं के चुनाव एक साथ होते रहे हैं। 1951-52, 1957, 1962, 1967 में लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं के आम चुनाव साथ-साथ करवाए गए थे। लेकिन यह क्रम उस समय टूट गया जब कुछ राज्यों की विधानसभाएँ अलग अलग कारणों से समय से पहले भंग कर दी गई और 1971 में लोकसभा चुनाव भी समय से पहले हो गए थे। स्पष्ट है जब इस प्रकार चुनाव पहले भी करवाए जा चुके हैं तो अब करवाने में क्या समस्या हो सकती है? 'एक देश एक चुनाव’ की आवश्यकता पिछले पांच दशक से भारत में ऐसी परंपरा चल पड़ी है कि लगभग हर छह माह में किसी न किसी चुनाव का सामना देश को करना पड़ता है। नीति आयोग की रिपोर्ट के अनुसार देश में प्रत्येक वर्ष कम-से-कम एक चुनाव होता है। नीति आयोग ने तर्क दिया कि इन चुनावों के चलते देश को विभिन्न प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष नुकसान होते हैं। सरकार और राजनीतिक दलों की प्राथमिकता विकास की बजाय निर्वाचन और उसमे सफलता प्राप्त करने की उत्कंठा में निहित हो जाती है। उदाहरण के लिए मध्य प्रदेश में नवंबर 2013 में विधानसभा चुनाव हुए फिर लोकसभा चुनाव की बारी आ गई। इसके तुरंत बाद नगरीय निकाय चुनाव संपन्न हुए और फिर 2 माह बाद पंचायत चुनाव हुआ। फिर कृषि मंडियों और सहकारी समितियों के चुनाव भी हुए। डेढ़ साल तक चले इस दौर में 8 माह आदर्श आचार संहिता लागू रही और सरकारी काम-काज कमोबेश ठप रहा। प्राय सभी राज्यों में इस प्रकार की स्थिति बनी रहती है। इस प्रकार दो बातें निकल कर सामने आती है एक तो बार बार चुनाव होने से देश की आर्थिक सेहत पर असर पड़ता है वहीं चुनाव के दौरान आचार संहिता लागू होने से विकास के कार्य भी बाधित होते हैं। एक देश एक चुनाव के विचार के समर्थन में विद्वानों द्वारा अपने तर्क प्रस्तुत किए जाते हैं जैसे- 1. विकास कार्यों को निरंतरता प्रदान करना- भारत में हर वर्ष कम से कम चार पांच राज्यों में चुनाव होते हैं। एक चुनाव के दौरान एक से डेढ़ महीने के लिए आचार संहिता लग जाती है। इससे विकास कार्य प्रभावित होते हैं। आचार संहिता के दौरान न केवल विकास कार्य रुक जाते हैं अपितु इसकी वजह से सरकार न तो ज़रूरी नीतिगत फैसले भी ले नहीं पाती है और न ही नई परियोजनाओं पर कार्य कर पाती है। पहले से स्वीकृत परियोजनाओं को लागू करने में भी समस्या आती है। चुनाव प्रक्रिया के दौरान विकास कार्यों का अवरुद्ध होना और चलते हुए विकास कार्यों का रुक जाना देश के लिए बहुत दुर्भाग्यपूर्ण होता है। लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने से विकास कार्यो को निरंतरता प्रदान की जा सकती है। 2. लगातार बढ़ते चुनाव खर्च को कम करना- 2014 में 16वीं लोकसभा के चुनाव में केंद्र सरकार द्वारा 3426 करोड़ रुपए खर्च किए गए। यह आंकड़ा 2009 के आम चुनाव के खर्च से 131% ज्यादा था। इन चुनावों में राजनीतिक दलों द्वारा भी 26500 करोड़ रुपए का खर्चा किया गया था। चुनाव आयोग के अनुसार राज्य विधान सभाओं का खर्च 4500 करोड़ रुपए बैठता है। 2019 में 17वीं लोक सभा चुनाव को भारत के चुनावी इतिहास में अब तक का सबसे महंगा चुनाव बताया गया है जिसमें लोकसभा प्रत्याशियों और निर्वाचन आयोग दोनों की ओर से कुल मिलाकर करीब 70 हजार करोड़ रुपये खर्च होने का अनुमान है। 3. काले धन और भ्रष्टाचार पर नियंत्रण- परंजॉय गुहा ठाकुरता कहते हैं ' चुनावों में इस्तेमाल होने वाला काला धन देश में व्याप्त भ्रष्टाचार का मूल कारण है। चुनावों के दौरान राजनीतिक दलों और प्रत्याशियों द्वारा काले धन का खुलकर इस्तेमाल किया जाता है। राजनीतिक दल काला धन लेकर चुनाव लड़ते हैं और जब वे चुनकर संसद या विधानसभा में पहुँचते हैं, उनके द्वारा चुनावों में आर्थिक सहायता देने वाले उद्योग घरानों को अनुचित फ़ायदा पहुँचाया जाता है। यही वह भ्रष्ट गठबंधन (राजनेताओं और उद्यमियों) है जो भारत के भ्रष्टाचार के मूल में है। एक देश एक चुनाव के माध्यम से न केवल काले धन पर रोक लगेगी अपितु भ्रष्टाचार पर रोक लगाने में मदद मिलेगी। 4. जन प्रतिनिधियों की कार्य क्षमता का उचित उपयोग- चुनाव के दौरान केंद्र या राज्य सरकारों के मंत्री चुनाव कार्यों में व्यस्त हो जाते हैं जिससे सरकारी कार्य एवं विकास योजनाएं बाधित होती हैं। यदि लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ हो जाएंगे तो बाकी समय में मंत्री अपने कार्य क्षमता का उपयोग विकास योजनाओं में कर पाएंगे जिससे निश्चित ही आम नागरिकों को लाभ होगा। 5. सामजिक समरसता को स्थिरता प्रदान करना- कुछ विश्लेषक यह मानते हैं कि लगातार चुनाव होते रहने से राजनेताओं और पार्टियों को अपने राजनीतिक लाभ के लिए सामाजिक समरसता भंग करने का मौका मिल जाता है, जिसकी वजह से अनावश्यक तनाव की परिस्थितियां बन जाती हैं। चुनावों के दौरान देखा गया है कि वोट बैंक के लिए नेता धर्म, जाति और संप्रदाय के आधार पर चुनाव प्रचार करते हैं। आम लोगों की धार्मिक भावनाओं से खिलावड़ करके सांप्रदायिक माहौल की संभावना पैदा कर दिया जाता है। अपना वोट बैंक बनाए रखने के लिए राजनीतिक पार्टियों द्वारा धार्मिक और जातिगत ध्रुवीकरण का इस्तेमाल किया जाता है जिससे न केवल सामाजिक समरसता समाप्त होती है अपितु लोगों के बीच दूरियां बढ़ जाती है। 6. चुनाव और सरकारी मशीनरी- निर्वाचन प्रक्रिया के संचालन और सम्पादन के लिए भारी मात्रा में सकारी कर्मचारियों, प्रशासनिक तंत्र, पुलिस एवं सुरक्षा बालों की सेवाएँ निर्वाचन विभाग द्वारा ली जाती हैं। इन कर्मचारियों में शिक्षकों और पुलिस प्रशासन की संख्या सर्वाधिक होती है। एक देश एक चुनाव को अपनाए जाने से सरकारी सरकारी मशीनरी को को बार-बार चुनावी ड्यूटी पर लगाने की आवश्यकता नहीं रहेगी जिससे उनका समय तो बचेगा और वे अपने कर्त्तव्यों का बेहतर तरीके से निर्वहन कर पाने में सक्षम होंगे। पालन भी सही तरीके से कर पायेंगे। हमारे यहाँ चुनाव कराने के लिये शिक्षकों और सरकारी नौकरी करने वाले कर्मचारियों की सेवाएं ली जाती हैं, जिससे उनका कार्य प्रभावित होता है। 7. आम जन-जीवन पर प्रभाव- बार-बार होने वाले चुनावों से आम जन-जीवन भी प्रभावित होता है। चुनावी रैलियों के दौरान कानून व्यवस्था के कारण यातायात अक्सर बाधित होता रहता है। सम्पूर्ण प्रशासन सुरक्षा और व्यवस्था में तैनात कर दिया जाता है जिसके कारण आम जनता को अपने कार्यों के लिए परेशानी का सामना करना पड़ता है। इस स्थिति में यह माना जा सकता है कि एक देश एक चुनाव के विचार को अपनाये जाने से आम जनजीवन प्रतिकूल रूप से प्रभावित नहीं होगा। 8. चुनाव प्रक्रिया का शिक्षा पर प्रभाव- यह एक बहुत ही संवेदन शील मुद्दा है। आमतौर पर चुनाव के दौरान प्रशासन के द्वारा किसी स्कूल या महाविद्यालय की बिल्डिंग को चुनाव प्रक्रिया के संचालन के लिए अधिगृहीत कर लियाजाता है और चुनाव प्रक्रिया प्रारंभ होने से पूर्व वहाँ चुनाव सामग्री पहुंचा दी जाती है। चुनाव की संपूर्ण प्रक्रिया का प्रबंधन और मतगणना कार्य संबंधित भवन में ही संपादित किया जाता है। लगभग एक डेढ़ महीने वह भवन कड़ी सुरक्षा व्यवस्था में रहता है। लोकसभा के आम चुनाव या उपचुनाव, विधानसभा के चुनाव या उपचुनाव, पंचायती राज और स्थानीय संस्थाओं के चुनाव और उपचुनाव नियमित अंतराल पर होते रहते हैं इन चुनावों में किसी ना किसी स्कूल या महाविद्यालय के भवन का चुनाव प्रक्रिया के संपादन हेतु इस्तेमाल किया जाता है जिसकी वजह से शिक्षण कार्य लगभग ठप हो जाता है इसका भारी खामियाजा विद्यार्थियों को उठाना पड़ता है। इसके अतिरिक्त चुनाव प्रक्रिया के संपादन के लिए भारी मात्रा में स्कूल या महाविद्यालय के शिक्षकों को ड्यूटी पर तैनात किया जाता है जिसकी वजह से भी शिक्षण कार्य बाधित होता है। संक्षेप में अगर हमारा देश 'एक देश, एक चुनाव' की ओर बढ़ता है तो कहीं-न-कहीं इससे राजनीतिक दलों के खर्च पर नियंत्रण तथा चुनाव में कालाधन के प्रयोग जैसी समस्याओं पर भी लगाम लगेगी। सामान्य हित के विकास के काम और सरकारी स्कूलों के पढ़ाई तथा प्रशासनिक काम पर असर भी कम पड़ेगा। एक देश एक चुनाव : चुनौतियां एक देश एक चुनाव के माध्यम से देश को बार बार होने चुनावों के चक्र से मुक्ति मिल सकती है। धन व समय की बचत के साथ साथ विकास कार्य भी निर्बाध जारी रह सकते हैं। लेकिन एक देश एक चुनाव के विचार को लागू किए जाने के मार्ग में गंभीर संवैधानिक और व्यवहारिक चुनौतियां भी है। एक देश एक चुनाव का विचार संसदीय परंपराओं, संवैधानिक प्रावधानों और व्यावहारिकता पर सवाल खड़ा करता है। इस विचार को अमलीजामा पहनाने का प्रयास न केवल हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था अपितु संघीय ढांचे को भी नकारात्मक रूप से प्रभावित करेगा। एक देश एक चुनाव का विचार सुनने में जितना अच्छा लगता है उतना ही चुनौतियों से भरा हुआ है जो इस प्रकार हैं- 1. सबसे बड़ी चुनौती सभी राजनीतिक दलों के मध्य आम सहमति बनाना है, क्योंकि इस योजना पर राजनीतिक दलों के बीच भारी मतभेद हैं। सीपीआई पार्टी के नेता डी राजा के अनुसार भारत की कड़ी राजनीतिक व्यवस्था को देखते हुए इस प्रस्ताव को व्यवहारिक रूप में लागू करना संभव नहीं है। इसके साथ ही राज्यों में भी स्थितियां अलग हैं जो विविधता पर आधारित हैं। इन पर केंद्र सरकार एकरूपता नहीं थोप सकती और इसकी इजाजत संविधान भी नहीं देता। 2. दूसरी बड़ी चुनौती यह है कि राज्य सरकार (मिली जुली सरकार की स्थिति में) सत्ता में आने के एक साल बाद ही यदि सरकार गिर जाए तो आने वाले वर्षों तक क्या उस राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू किया जाएगा। इसके अलावा इस स्थिति में यदि केंद्र में दूसरी पार्टी की सरकार हो तो इस दौरान केंद्र सरकार की विचारधारा राज्य में भी हावी होगी। इसका मतलब यह हुआ कि मतदाताओं की बहुसंख्यक आबादी ने जिस सरकार को चुना उससे वह अगले 4 वर्ष तक महरूम रहेगी। यह हमारे लोकतांत्रिक मूल्यों के विपरीत है। 3. एक राष्ट्र एक चुनाव के आलोचकों का कहना है कि संविधान ने देश में संसदीय शासन प्रणाली की स्थापना की है, जिसके तहत हर पांच साल में लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव होते हैं, और कई बार उपचुनाव व मध्यावधि चुनावों की स्थिति भी पैदा हो जाती है, लेकिन हमारा संविधान एक साथ चुनाव कराने के मुद्दे पर चुप है। संविधान में कई ऐसे प्रावधान हैं जो इस विचार के बिल्कुल विपरीत प्रतीत होते हैं। उदाहरण के लिए, अनुच्छेद 2 जिसके तहत संसद द्वारा एक नए राज्य को भारतीय संघ में शामिल किया जा सकता है, और अनुच्छेद 3 के तहत, संसद एक नया राज्य भी बना सकती है, जहां अलग-अलग चुनाव कराने होंगे। इसी प्रकार, संविधान के अनुच्छेद 85(2)(b) के प्रावधानों के अनुसार, लोकसभा को राष्ट्रपति द्वारा भंग किया जा सकता है और अनुच्छेद 174(2)(b) के अनुसार राज्यपाल द्वारा विधान सभा को पांच साल से पहले भंग किया जा सकता है। राष्ट्रीय आपातकाल (अनुच्छेद 352) और राष्ट्रपति शासन (अनुच्छेद 356) के दौरान परिस्थितियां बदल जाती हैं और चुनाव आवश्यक हो जाते हैं। इन परिस्थितियों को देखते हुए कहा जा सकता है कि एक देश एक चुनाव का विचार बहुत तार्किक और व्यावहारिक नहीं है। 4. एक राष्ट्र एक चुनाव का विचार देश के संघीय ढांचे और संसदीय लोकतंत्र के अनुरूप नहीं है। यदि लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ होते हैं, तो उनका कार्यकाल कुछ विधानसभाओं की इच्छा के विरुद्ध बढ़ाया या घटाया जाएगा, जो राज्यों की स्वायत्तता को प्रभावित कर सकता है। भारत में संघीय और संसदीय लोकतंत्र को अपनाया गया है और एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में चुनाव प्रक्रिया एक आवश्यकता होती जिसका कोई विकल्प नहीं हो सकता। 5. लोकसभा के चुनाव राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों और विधानसभा के चुनाव स्थानीय या क्षेत्रीय महत्त्व के मुद्दे के आधार पर लड़े जाते हैं। एक देश एक चुनाव के विचार को लागू किए जाने की स्थिति में राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों के सामने स्थानीय या क्षेत्रीय मुद्दे गौण व महत्वहीन हो जाने की भी संभावना है। इससे सहकारी संघात्मक व्यवस्था का कार्यकरण प्रभावित होगा। 6. लोकतंत्र को जनता का शासन कहा जाता है। देश में संसदीय प्रणाली होने के कारण अलग-अलग समय पर चुनाव होते रहते हैं जो जनप्रतिनिधियों को जनता के प्रति लगातार जवाबदेह बनाए रखते हैं। कोई भी पार्टी या नेता एक चुनाव जीतने के बाद निरंकुश नहीं हो सकता क्योंकि उसे एक निर्धारित समय या उसके पूर्व भी किसी न किसी निर्वाचन का सामना करना पड़ सकता है। आलोचकों का मत है कि अगर दोनों चुनाव (लोक सभा और विधान सभा) एक साथ कराये जाते हैं, तो जनप्रतिनिधियों में निरंकुशता और उत्तरदायित्वहीनता बढ़ जाने की आशंका पैदा हो जाएगी। 7. एक राष्ट्र एक चुनाव के खिलाफ एक तर्क यह है कि भारत जनसंख्या के मामले में दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा देश है। इस बड़ी जनसंख्या के अनुरूप देश में बुनियादी ढांचे और संसाधनों की कमी के कारण 'एक देश एक चुनाव' का विचार व्यवहारिक नहीं है। 8. इससे क्षेत्रीय राजनीतिक दलों को भी भारी नुकसान उठाना पड़ेगा। न केवल उनकी पहचान के लिए गंभीर संकट पैदा हो सकता है और अपितु उनके क्षेत्रीय संसाधन भी सीमित हो सकते हैं। एक साथ चुनावों में, मतदाता मुख्य रूप से उस राजनीतिक पार्टी को वोट देना चाहेंगे जो केंद्र में प्रभावी होती है, इससे क्षेत्रीय दलों को नुकसान होगा। 9. हमारे देश की संरचना संघीय है। हर राज्य की अपनी अलग स्थिति और समस्याएं होती हैं। ऐसे में अगर चुनाव साथ-साथ हो जाएं तो राजनीतिक विमर्श से राज्यों के स्थानीय मुद्दे गायब हो जाएंगे, राजनीतिक विमर्श केवल राष्ट्रीय मुद्दों के इर्द-गिर्द घूमता रहेगा, जो किसी न किसी तरह से हमारे संघीय ढांचे को नुकसान पहुंचाएगा। 11. लोकतंत्र में उपचुनाव, मध्यावधि चुनाव और विपक्ष के अविश्वास प्रस्ताव आदि स्थितियाँ एक देश एक चुनाव के मार्ग में बहुत बड़ी बाधा उत्पन्न करती हैं और इनका कोई दूसरा वैकल्पिक समाधान वर्तमान परिस्थितियों में मौजूद नहीं है। इनको रोककर लोकतांत्रिक प्रक्रिया को अवरुद्ध नहीं किया जा सकता।
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निष्कर्ष
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एक लोकतांत्रिक व्यवस्था के अंतर्गत होने वाले चुनाव (आम चुनाव, मध्यावधि चुनाव या उपचुनाव) लोकतांत्रिक व्यवस्था को व्यवहारिक और साकार रूप प्रदान करते हैं। भारत में शासन की न केवल संघात्मक अपितु बहु स्तरीय शासन प्रणाली को अपनाया गया है। यहां पर लोकसभा एवं विधानसभाओं के अलावा नियमित रूप से स्थानीय संस्थाओं के चुनाव भी होते रहते हैं। एक देश एक चुनाव के विचार की चर्चा की जड़ में मुख्य मुद्दा चुनाव प्रक्रिया के दौरान होने वाला चुनावी खर्च और विकास कार्यों में पैदा होने वाली बाधा को माना जा रहा है। लेकिन यदि गहराई से इस विषय पर मंथन किया जाए तो चुनावी खर्च और विकास कार्यों में पैदा होने वाली बाधा का समाधान एक देश एक चुनाव के विचार को अपनाने में निहित नहीं है। एक देश एक चुनाव का विचार न केवल लोकतांत्रिक व्यवस्था अपितु भारतीय संघीय व्यवस्था के कार्यकरण के लिए व्यावहारिक नहीं है। लोकतंत्र के लिए चुनाव अनिवार्य हैं और चुनाव प्रक्रिया का संपादन बिना धन खर्च किए संभव नहीं है। चुनाव के दौरान होने वाला खर्च एक सीमा तक अनिवार्य होता है लेकिन समस्या तब पैदा होती है जब भ्रष्ट और अनैतिक साधन अपनाकर अनावश्यक धन खर्च किया जाता है। चुनाव के दौरान होने वाला खर्च को रोकने के लिए कड़े दंडात्मक कानूनी प्रावधान और उनका निष्पक्ष और पारदर्शी तरीके से क्रियान्वयन अनिवार्य है। इसके अतिरिक्त संपूर्ण राजनीतिक प्रक्रिया जो प्रायः नैतिकता से रहित हो गई है उसमें नैतिक मूल्यों की स्थापना अनिवार्य है। देखा जाए तो समस्या की जड़ देश की राजनीतिक और प्रशासनिक व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार और अनैतिकता है। एक देश एक चुनाव के विचार को अपनाने के बाद भी यदि राजनीति और प्रशासन में भ्रष्टाचार और अनैतिकता व्याप्त है तो इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि इस विचार को अपनाने के बाद जिन लाभों की अपेक्षा की जा रही है वह वास्तव में प्राप्त हो जाएँ। राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी की वजह से बहुत से चुनाव सुधारों को आज तक लागू नहीं किया जा सका है जिसकी वजह से ने केवल चुनाव प्रक्रिया के दौरान अनावश्यक धन खर्च होता है अपितु तो भ्रष्ट और आपराधिक प्रवृत्ति के लोगों को राजनीति में आने का मार्ग प्रशस्त होता है। भारत में संविधान द्वारा संघीय व्यवस्था को अपनाया गया है जहां पर केंद्र के अलावा विभिन्न राज्यों में विभिन्न राजनीतिक दलों की सरकारें होती हैं। अलग-अलग समय पर होने वाले लोकसभा और विधानसभा चुनाव के द्वारा लोगों को राजनीतिक दलों द्वारा किए जाने वाले लोकलुभावन वादों की असलियत को जांचने का समय मिलता है। एक साथ चुनाव को अपनाने के कारण स्थानीय मुद्दे राष्ट्रीय मुद्दों के सामने कौन पड़ जाएंगे और लोकतंत्र का वास्तविक भावना को साकार करना मुश्किल हो जाएगा। |
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
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1.दृष्टि आईएएस One Nation One Election - 05.06.2021
URL-https://www.drishtiias.com/daily-updates/daily-news-editorials/one-nation-one-election-2
2.एस वाई कुरैशी ; A time for electoral reform-
URL-https://indianexpress.com/article/opinion/columns/evm-manipulationvote-counting-election-commissionup-electionsmayawati-4593042/
3.जितेंद्र साहू, ONE NATION, ONE ELECTION IN INDIA
URL-https://oaji.net/articles/2017/1174-1512211491.pdf
4.आशुतोष; ओपिनियन; One Nation, One Election Will Kill the Spirit of India's Constitution URL-https://www.news18.com/news/opinion/opinion-one-nation-one-election-will-kill-the-spirit-of-indias-constitution-1649491.html
5.One India One Election : Pros and Cons, August 9, 2016 URL-https://www.careerride.com/view/one-india-one-election-pros-and-cons-29332.aspx
6.One nation-One election a path-breaking electoral reform 02.02.2018
URL-https://www.thehansindia.com/posts/index/Opinion/2018-02-02/One-nation-One-election-a-path-breaking-electoral-reform/356029
7.एस वाई कुरैशी; An Undocumented Wonder : The Making of the Great Indian Election.
8.दीपक रस्तोगी; जानें-समझें,एक देश, एक चुनाव पर चर्चा: कैसे मुमकिन है और क्या बदल जाएगा, आलेख, जनसत्ता, 01.12.2020
9.R Keerthana; The Hindu Explains: One nation, one election आलेख, द हिन्दू 19.06.2019
10.क्रोनिकल, जून 2015. |