|
|||||||
भारतीय ग्राफिक कला में सोमनाथ होर | |||||||
Somnath Hore in Indian Graphic Art | |||||||
Paper Id :
16031 Submission Date :
2022-06-07 Acceptance Date :
2022-06-20 Publication Date :
2022-06-25
This is an open-access research paper/article distributed under the terms of the Creative Commons Attribution 4.0 International, which permits unrestricted use, distribution, and reproduction in any medium, provided the original author and source are credited. For verification of this paper, please visit on
http://www.socialresearchfoundation.com/innovation.php#8
|
|||||||
| |||||||
सारांश |
20वीं शताब्दी के पूर्वाद्ध में भारतीय कला के क्षेत्र में ग्राफिक कला का प्रचार प्रसार बढ़ने लगा। भारत में ग्राफिक कला के क्षेत्र में कुछ कलाकारों ने अपनी लग्न और कौशलता से अच्छे कार्य करने की शुरूआत कर ली थी। वैसे तो ग्राफिक कला को तकनीकी क्षेत्र में महारत हाँसिल करने वाला क्षेत्र माना गया है, परन्तु फिर भी बहुत से कलाकारों ने कड़ी मेहनत करके सफलता प्राप्त की है। भारतीय कलाकारों में से हम सोमनाथ होर की सर्वश्रेष्ठ और सफल जीवन यात्रा पर प्रकाश डाले तो उन्होने अपना सम्पूर्ण जीवन कला के प्रति समर्पित कर दिया और भारतीय कला इतिहास में अपनी पहचान कायम की है। भारतीय समकालीन कला के क्षेत्र में सोमनाथ होर एक प्रसिद्ध रचनात्मक व्यक्तित्व वाले व्यक्ति थे, जिन्होने मूल रूप से चित्रकार के रूप में प्रशिक्षण प्राप्त कर अभिव्यक्ति के नवीन माध्यमों में अपनी संवेदनशीलता साबित की है। हालांकि सोमनाथ होर ने जीवन के बीस वर्षो से भी अधिक समय तक ग्राफिक कला (छापाकला) के लिए स्वंय को समर्पित कर दिया था और कला को अपने जीवन का मार्ग बनाया। ग्राफिक कला के अलावा उन्होने अन्य माध्यमों जैसे चित्रकला और मूर्तिकला के कार्य में भी सफलता हाँसिंल की है साथ ही पेंटिंग, ड्राइंग और प्रिटंमेकिंग तथा मूर्तिकला में जीवन भर भागीदार बनकर कला के सबसे अभिव्यंजक उद्देश्यों की खोज में लम्बी आयु की यात्रा की है।
सोमनाथ होर द्वारा सन 1943 में बंगाल के भयानक अकाल के अलावा असहाय पीडितों पर की गई क्रूरता का प्रत्यक्ष अनुभव 1945 में हिरोशिमा की बमबारी में देखा गया था। ग्राफिक कला ने आज के समय में नवीन आयाम प्राप्त कर लिए है और स्वतंत्र शक्तिशाली कला माध्यमों के रूप में जानी जाती है। जिसका मुख्य कारण ग्राफिक कलाकारों के अथक प्रयासों का ही परिणाम है। सोमनाथ होर नें सन 1943 में कम्युनिस्ट पार्टी की पत्रिका जनायुद्ध (पीपुल्स वार) के लिए बंगाल के अकाल का दृश्य दस्तावेजीकरण और रिपोर्टिंग का कार्य किया था। एक कलाकार के रूप में उनकी उम्र का आगमन सन 1946 में किसानो की अशांति के साथ हुआ था। इस आन्दोलन को तिभागा आन्दोलन के नाम से जाना जाता है। सोमनाथ द्वारा किये गये सम्पूर्ण कार्य का निचोड उनकी ‘वुन्डस श्रृंखला‘में देखने को प्राप्त होता है। उनके द्वारा बनाई गई श्रृंखला का नाम ‘‘वुन्डस‘‘(घाव) सन 1973 में दिल्ली में आयोजित हुई एक प्रदर्शनी में पड़ा था। इस श्रृंखला में सोमनाथ के विचारों की वास्तविकता का पूर्णरूप से विरूपण दिखाई देता है। इस प्रकार भारतीय ग्राफिक कला में सोमनाथ होर का अनुपम योगदान माना जाता है।
|
||||||
---|---|---|---|---|---|---|---|
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | In the first half of the 20th century, the promotion of graphic art started increasing in the field of Indian art. In the field of graphic arts in India, some artists started doing good work with their passion and skill. Although graphic art is considered a technical field to master, but still many artists have achieved success by working hard. Among Indian artists, if we throw light on the best and successful life journey of Somnath Hore, he devoted his entire life to art and has established his identity in Indian art history. Somnath Hore was a well-known creative figure in the field of Indian contemporary art, who has proven his sensitivity to new mediums of expression by training originally as a painter. However, Somnath Hor devoted himself to the graphic arts for more than twenty years of his life and made art his way of life. Apart from the graphic arts, he has also succeeded in other mediums such as painting and sculpture, as well as traveling a long life in the pursuit of the most expressive purposes of art, becoming a lifelong participant in painting, drawing and printmaking and sculpture. Apart from the terrible famine of Bengal in 1943, Somnath Hor had a direct experience of the brutality inflicted on the helpless victims in the bombing of Hiroshima in 1945. Graphic arts have acquired new dimensions in today's time and are known as independent powerful art mediums. The main reason for which is the result of the tireless efforts of the graphic artists. Somnath Hore did the work of documenting and reporting the Bengal famine scene in 1943 for the Communist Party's magazine Janyuddha (People's War). His age as an artist came in 1946 with the unrest of the farmers. This movement is known as Tibhaga movement. The whole work done by Somnath is squeezed in his 'Wunds series'. The series created by him was named "Wunds" (wounds) in an exhibition held in Delhi in 1973. This series shows a complete distortion of the reality of Somnath's thoughts. Thus Somnath Hore's unique contribution to Indian graphic art is considered. |
||||||
मुख्य शब्द | एक्वाटिंट, ड्राइपॉइंट, अम्लांकन, इन्ग्रेविंग, मुद्रण, इन्टेग्लियों, लिथोग्राफी, उत्कीर्णन, सिल्कस्क्रिन, प्रिंटमेकिंग, छापाकला और आरेखण आदि। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Aquatint, Drypoint, Etching, Engraving, Printing, Intaglio, Lithography, Engraving, Silkscreen, Printmaking, Printing And Drawing Etc. | ||||||
प्रस्तावना |
ग्राफिक कला का विकास सन 1450 ई. में जोहन्सबर्ग गुटेनबर्ग द्वारा प्रारम्भ किया गया था। इसका विकास एक यांत्रिक उपकरण के आविष्कार द्वारा माना जाता है। प्रिंटिंग प्रेस ने प्राचीन ग्रंथो और ग्राफिक कलाओं को बहुत बडे़ पैमाने पर उत्पादन की सुविधा प्रदान की औद्योगिक क्रान्ति के दौरान पोस्टर, ग्राफिक कला का एक लोकप्रिय माध्यम बन गया था, जिसका उपयोग नवीनतम समाचार पत्रों के साथ-साथ नये-नये उत्पादों और सेवाओं का विज्ञापन करने के लिए प्रयोग में लाया गया था। फिल्म सिनेमा और टेलीविजन के आविष्कार और लोकप्रियता ने आन्दोलन के अतिरिक्त पहलू के माध्यम से ग्राफिक कला को पूरी तरह बदल दिया। 20वीं शताब्दी में जब कम्प्यूटर का आविष्कार हुआ था, तब से कलाकार बहुत तेज और आसान तरीके से छवियों का आदान-प्रदान करने एवं फेर-बदल करने में सक्षम थे। त्वरित गणनाओं के साथ ही कम्प्यूटर आसानी से छवियों को फिर से रंगने, पैमाने पर घुमाने और बिगडे कार्य वापस ठीक करने में सक्षम थे।
भारतीय ग्राफिक कलाकारों कि बात करे तो पेंटिंग और मूर्तिकला की तुलना में इस विद्या के बहुत कम ही कलाकार हुए है। जिन्होने इस विद्या को सृजन का माध्यम बनाया है और सहजता के साथ गम्भीरता से इस माध्यम को अपनी कल्पना और भावाभिव्यक्ति के लिए अपने जीवन में आगे बढ़ते रहने का मार्ग बनाया है। समाज धीरे-धीरे आगे बढ़ता गया और विकास कि सीढ़ियाँ चढ़ता गया। कलाकार हर दिशा में अपनी रूचि के अनुसार अपनी अभिव्यक्ति के माध्यम तलाशने लगे है। सफल होने के लिए सोमनाथ होर को अपनी जीवन यात्रा में बहुत परिश्रम करना पड़ा है। सोमनाथ होर ने अपने जीवन की यात्रा प्रारम्भ होने के कुछ समय बाद ही अपने पिता को खो दिया और अपने चाचा की मदद से स्कूल शिक्षा प्राप्त की। अपनी युवावस्था में कम्यूनिष्ठ पार्टी से सम्बद्ध बना लिए और उनकी समाजवादी विचारधारा ने उनके कलात्मक करियर के शुरूआती चरणों का प्रारम्भ किया। भारतीय कम्यूनिष्ठ पार्टी के सक्रिय संरक्षण के माध्यम से ही होर ने कलकत्ता के कॉलेज में प्रवेश प्राप्त किया था।[1] सोमनाथ होर ने कलकत्ता के गर्वमेंट कॉलेज से लिथोग्राफी एंव इन्टेग्लियों सीखा था। सन 1950 के दशक में सोमनाथ भारत के प्रमुख प्रिटंमेकर माने जाते है। उन्होने प्रिंटमेकिंग की अनेकों तकनीकों का आविष्कार किया है, जिसमें उनकी प्रसिद्ध विद्या लुकदी प्रिंटिंग भी शामिल है। उनके चित्र और लड़कियों की तिभागा श्रृखंला चीनी समाजवादी यर्थाथवाद और जर्मन अभिव्यंजनावाद के प्रभाव को दर्शाती है। आपने चित्रकला और प्रिंटमेंकिग के अलावा मूर्तिकला में भी अच्छा कार्य किया है।[2]
सोमनाथ होर ने कला निर्माण की एक विशिष्ट औपचारिक पश्चिमी शैली को चुना है, जो इसकी मजबूत रेखीय गुणवत्ता द्वारा प्रतिष्ठित होने के साथ-साथ मानवतावादी चिंताओं के द्वारा निर्देशित थी। सन 1943 के समय बंगाल के अकाल और 1946 के तिभागा किसान विद्रोह ने उन्हें चिन्हित किया और यह घटना उनके कार्य में बार-बार प्रकट होती रही है। प्रतिष्ठित सिर और क्षीण शरीर में आसुत मिटाये गए को पुनः प्राप्त करने के लिए उनके कार्य ने उनको दुबारा फिर से सार्वजनिक स्मृति में अंकित किया है। जिसमें पीड़ित मानव का रूप सोमनाथ होर की मूर्ति में व्यापक रूप से परिलक्षित हुआ है। उनके बॉल्ड मिनीमल स्ट्रोक्स की अपील खुरदरी सतहो, स्लिट्स और होल से बढ़ जाती है। सोमनाथ होर के शुरूआती रेखाचित्र जनयुद्ध और पीपुल्स वॉर, कम्यूनिष्ट पार्टी के प्रकाशनों में प्रकाशित हुए थे। सोमनाथ होर बंगाल के सर्वश्रेष्ट कलाकारों में से एक थे, जिनको अपने सामाजिक इतिहास को बदलने वाली आपदाओं ने प्रभावित किया था। सोमनाथ होर ने अपने कलात्मक कार्यों में मजदूर वर्ग और मेहनती किसानों के अस्तित्व के मुद्दो से जुझते हुए उनको अग्रभूमि में रखकर कार्य किया है।[3]
सोमनाथ होर की कला यात्रा में प्रमुखतः उनके पेपर पल्प प्रिंटो की घाव श्रृंखला है, जिसमें उन्होने अपने द्वारा किये गये अभ्यासों की मानवतावाद का त्याग किए बिना अमूर्तता का अनूठा ब्रांड हाँसिल किया। उन्होने अकाल और युद्ध की पीड़ाओं को याद करते हुए उनके विपरीत कांस्य मूर्तियों का भी निर्माण किया और आधुनिक भारतीय कला के प्रतिष्ठित कलाकार और प्रतीक बन गए। उनकी सबसे बड़ी मूर्तियों में से एक ‘मदर एण्ड चाइल्ड‘ है जिसमें वियतनाम के लोगों की पीड़ा को श्रद्धांजलि दी गई है। यह मूर्ति, कला भवन के समाप्त होने के बाद चोरी हो गई थी। होर ने विश्वभारती विश्वविद्यालय के कला संकाय के कला-भवन में अध्यापन कार्य करवाया और शांतिनिकेतन में ग्राफिक विभाग का नेतृत्व भी किया था।
भारतीय ग्राफिक कला का परिचय- ’’छापाकला’’ को अंग्रेजी में ’’ग्राफिक-आर्ट (Graphic Art) यूनानी ग्रीक भाषा में ’’ग्राफिकॉस (Graphikos) तथा लैटिन भाषा में ’’ग्राफिकुस (Graphicus)’’ भी कहते है।[4] दृश्य कला की अनेक विधाओं में से चित्रकला की भांति ग्राफिक कला भी एक महत्वपूर्ण विद्या है। जिसमें छापा कलाकार निरन्तर नए-नए प्रयोग करके कला में नवीन सृजन के अवसर प्रदान कर रहे है। ’’ग्राफी’’ शब्द के साथ अनेक प्रकार के शब्द जुड़े हुए है जैसे-लिथोग्राफी, सेरीग्राफी, जाइलोग्राफी आदि। ’’ग्राफी’’ शब्द के पीछे अवलोकल या पुनरावृत्ति की भावना जुड़ी होती है। वर्तमान समय में ग्राफिक शब्द छापा कला का पर्याय बन चुका है। सर्वप्रथम चीनी वासियों ने पत्थरों के डिजाइनों और शिलाओं से छापांकन किया था जिसकी जानकारी के स्त्रोत प्राप्त होते है। प्रथम राजकीय छापा इंग्लैण्ड में 1435 ई. में छापा गया था। बाद में चीनी व्यवसायिक पटर्यकों के माध्यम से जापान पहुँचा था। जापान में लकड़ी द्वारा छापा 764 ई. में छापा गया था। प्रागैतिहासिक कला में भी इसके नमूने गुफाओं में दीवारो पर पाएं गए है। इन्ग्रेविंग प्रकिया हजारों वर्षों पहले ’’सुमेरिया’’ में अपनाई गयी थी।[5]
भारत में छापा कला की शुरूआत तो प्रागैतिहासिक काल से ही हो गई थी, परन्तु हम समकालीन भारतीय कला की बात कर रहे है तो इसकी शुरूआत तो 1905 में बंगाल में पुनर्जागरण काल से मानी जा सकती है। इस आन्दोलन में मुख्य भूमिका अवनीद्रनाथ टैगोर ने निभाई थी। गगेन्द्रनाथ टेगौर, नन्दलाल बोस, रवीन्द्रनाथ टैगोर आदि ने इस आन्दोलन को आगे बढ़ाया और ग्राफिक कला में कार्य कर अपनी पहचान बनाई थी।
प्रारम्भिक काल में मानव ने सर्वप्रथम ध्वनि संकेतों द्वारा अपने विचारों का आदान प्रदान किया था। लिपि का विकास कुछ इस तरह से हुआ-चित्रात्मक लिपि, संकेतात्मक लिपि, भावात्मक लिपी, ध्वन्यात्मक लिपी। भारत में लिपि के प्रारंम्भिक प्रमाण सिन्धु लिपि के पश्चात भारत में 400 ई. पू. से 350 ई. पू. में ब्राह्मी के प्रमाण सम्राट अशोक के शिलालेखों में मिलते है। ब्राह्मी लिपी विश्व की सबसे प्राचीनतम लिपि मानी जाती है। ब्राह्मी लिपि से देवनागरी लिपि का विकास हुआ। भारत में प्रारम्भिक पुस्तकों का मुद्रण ’’लेटरप्रेस’’ द्वारा गुटेनबर्ग के चल टाइपों के अभिर्भाव के लगभग 100 वर्षों के पश्चात गतिशील (चल) टाइपों से किया गया था। भारत में मशीनी (यांत्रिक) मुद्रण का प्रारम्भ 1556 ई. में हुआ था जब पुर्तगालियों द्वारा प्रथम मुद्रण मशीन गोवा के सेन्टपाल कॉलेज में लगाई गई थी। सन् 1967 में भारतीय देवनागरी लिपी का मुद्रण यूरोप में प्रारम्भ हुआ अर्थात देवनागरी के टाइपों का निर्माण यूरोप मे ही हुआ था। भारत में दूसरी मुद्रण मशीन सन 1674 में गुजरात और 1712 में मद्रास में लगाई गई थी।
ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने प्रशासनिक कार्यों के लिए प्रथम छापाखाना बंगाल में स्थापित किया था। भारत में प्रथम समाचार पत्र सन 1780 में एक अंग्रेज ’’जेम्स अगस्त हिक्की ने कलकत्ता से भारत में ’’हिक्कीज बंगाल गजट’’ का प्रकाशन प्रारम्भ किया था। हिन्दी भाषा का प्रथम समाचार पत्र ’’उदत्त मात्र्तण्ड’’ का प्रकाशन 1826 में कोलकाता से किया गया था। 1820 ई. में कलकत्ता में भारत की प्रथम लिथोग्राफी प्रेस की स्थापना की गई। कलकत्ता में लिथोग्राफी द्वारा मुद्रण 1822 ई. में प्रारम्भ किया गया था। प्रारम्भ में इस प्रेस से नक्शे मुद्रित किये गये थे। बिहार में 1826 में लिथोग्राफी प्रेस की स्थापना हुई थी। कला व मुद्रण दस्तकारी प्रशिक्षण के लिए भारत में अनेक कला विद्यालय खोले गये है। स्कूल ऑफ आर्ट एण्ड इण्डस्ट्री, मद्रास-1850, स्कूल ऑफ इण्डस्ट्रीयल आर्ट, कलकत्ता-1854, सर. जे. जे. स्कूल ऑफ आर्ट, मुम्बई-1857, राजस्थान स्कूल ऑफ आर्ट, जयपुर-1857, कला विद्यालय, लाहौर-1875, और शांतिनिकेतन, कलकत्ता-1901 आदि है।
विदेशी प्रिंटों से प्रभावित प्रसिद्ध भारतीय चित्रकार राजा रवि वर्मा ने 1894 में मुम्बई में अपने चित्रों में प्रिंट बनाने के लिए ’’राजा रवि वर्मा फाइन आर्ट लिथोग्राफी प्रेस’’ की स्थापना की थी। सन् 1903 में समाचार पत्र ’’द स्टेट मैन’’ में प्रथम बार विज्ञापन डिजाइन में अर्धतान Half-Tone चित्र मुद्रित किये गये थे। सन 1905 में भारत में प्रथम विज्ञापन एजेन्सी ’’दत्ताराम एडवर्टाइजिंग’’ की स्थापना बी दत्ताराम द्वारा मुम्बई में की गई थी। ग्राफिक कला के प्रारंभिक कलाकारों में सोमनाथ होर, कवंल कृष्ण, कृष्णा रेड्डी, जगमोहन चोपड़ा, सनतकार, अनुपम सूद आदि रहे है।
|
||||||
अध्ययन का उद्देश्य | प्रस्तुत शोध लेख का उद्देश्य सोमनाथ होर के जीवन वृत्त, कृतित्व एवं शिक्षा दर्शन का अध्ययन करना और कलाकार के माध्यम से समाज में हुई बुराइयों और अच्छाइयों को कागज और कैनवास पर दर्शाता है। यह समाज को जागरूक करने की अपनी अभिव्यक्ति होती है। प्रस्तुत शोधलेख से भारतीय समकालीन कला में महत्त्वपूर्ण स्थान रखने वाले सोमनाथ होर के जीवन और कला शैली में इंगित विचारों के साथ-साथ उनके आधुनिक कला सम्बन्धी विचारों से अवगत हो सकेगें। इस महान कलाकार ने निष्ठा भाव से कला जगत में कार्य किया और बहुत ही ईमानदारी के साथ अपनी अलग ही कलात्मक तकनीक अपनाई है। उन्होनें कलात्मक अभिव्यक्ति की सीमाओं का कभी भी उलंघन नही किया है और एक कलाकार के रूप में पूरी तरह से सयंम बरता है। ऐसे कलाकार के विचारों से आने वाले कलाकार प्रभावित होगें जो उनके लिए प्रेरणादायक साबित होंगे। इस लेख का उद्देश्य सोमनाथ होर की कार्य शैली से परिचय करवाकर विस्तार से अध्ययन करना है ताकि उनकी कला को आसानी से सीखा, समझा और अध्ययन किया जा सके।
|
||||||
साहित्यावलोकन |
ग्राफिक कला और सोमनाथ होर से संबन्धित आयामों पर कला की अनेको पुस्तको, पत्र-पत्रिकाओं, ग्रन्थो आदि के साथ इंटरनेट की अनेक वेबसाइट्स पर उल्लेखनीय कार्य हुआ है। अनेक ऐसे विद्यालय, विश्वविद्यालय है जंहा पर ग्राफिक कला पढ़ाई और सिखाई जाती है। जिनमें प्रमुख रूप से विश्वभारती शांतीनिकेतन कोलकाता, एम.एस. विश्वविद्यालय बड़ौदा, मद्रास विश्वविद्यालय, जे.जे. स्कूल ऑफ आर्ट मुम्बई, राजस्थान स्कूल ऑफ आर्ट जयपुर आदि है। काली विश्वास द्वारा सम्पादित पत्रिका ’कन्टेम्पररी-18’ और डॉ. सुनिल कुमार (2000) की पुस्तक ’’छापाकला का इतिहास आदि से आधुनिक काल तक’’ प्रस्तुत अध्ययन की प्रमुख आधार सामग्री का निर्माण करते है। डॉ. नरेन्द्र सिंह यादव ( 9वां संस्करण 2021) की पुस्तक ’ग्राफिक डिजाइन’, ग्राफिक कला और कलाकारों को समझने के लिए महत्त्वपूर्ण पुस्तकों में से एक है। |
||||||
मुख्य पाठ |
सोमनाथ होर की शिक्षा-दीक्षा सोमनाथ होर का जन्म 13 अप्रैल 1921 में अविभाजित बंगाल के बारामा, चटगाँव में हुआ था जो की वर्तमान में बांग्लादेश में स्थित है। बचपन में 13 वर्ष कि छोटी उम्र में ही उन्होने अपने पिताजी रेबीता मोहन होर को खो दिया था। जिससे उनकी बाल्यावस्था अन्य बच्चो कि तरह साधारण नहीं थी। उनकी स्कूली शिक्षा मालवा के जिला स्कूल में हुई थी। यहाँ उन्होने माध्यमिक शिक्षा में जिले के अन्तर्गत प्रथम स्थान प्राप्त किया, जिस कारण वहाँ की सरकार ने उनको छात्रवृत्तिप्रदान की। चटगाँव महाविद्यालय से इन्टर कॉलेज उ़त्तीर्ण करने के बाद सिटी कॉलेज में बी.एस.सी. में प्रवेश लिया। यह वह समय था जिस समय नये-नये आदर्श पनप रहे थे। बंगाल में अकाल के कारण अनेक युवा वामपंथी विचारधारा की ओर मुड़ने लगे थे।[6] उसी समय सोमनाथ होर ने अपनी माता के कहने पर कम्यूनिस्ट पार्टी को जॉइन कर लिया। होर ने प्रसिद्ध कलाकार चित्रप्रसाद से प्रभावित होकर चटगाँव के दृश्यों को रिपोर्टिंग करने लगे। द्वितीय विश्वयुद्ध की परिणती से आहत होकर सोमनाथ होर ने सन 1943 के अकाल से पीड़ीत लोगों के लिए अपने स्तर पर सहायता प्रारम्भ की। उन्होनें पीड़ितों की मदद के लिए पोस्टर बनाए, इस प्रकार उन्होंने अपने आपको कला से जोड़ लिया और कला के प्रति निरन्तर उत्सुक होते चले गए। सोमनाथ होर ने अभिव्यक्ति के लिए ग्राफिक कला को काफी अन्वेषण के बाद ग्रहण किया था। उन्होंने सीमेन्ट और प्लास्टर ब्लॉक तथा कागज की लुगदी के साथ नये-नये परीक्षण किए हैं। इसके लिए सबसे पहले समतल सतह की एक इंच मोटी पट्टियाँ रखते हैं। अनेक प्रकार के उपकरणों द्वारा जिस प्रकार से खेत में हल चलाते है ठीक उसी प्रकार उस पर चित्रांकन किया जाता है। इस प्रकार बनी समतल सतह से सीमेन्ट का साँचा ही प्लेट का कार्य करता हैं। इस प्लेट पर कच्चे पेपर की लुगदी की सतह बिछा दी जाती है। अन्त में अनेक प्रकार के हस्त कौशल द्वारा छापाचित्र बनाये जाते हैं।[7] सोमनाथ होर के दृश्य चित्रों में सबसे पहले 1944 में ‘‘जनयुद्ध पार्टी अंग‘‘
में प्रकाशित रेखाचित्र हैं। ‘‘जनयुद्ध‘‘ में प्रकाशित ये रेखाचित्र मुख्य रूप से अकाल के असहाय
पीड़ितों और मरने वाले किसानों के साथ बीमार और दुर्बल निराश्रितों के दृश्य चित्र हैं।
ये सभी चित्र उन्होने रेखांकन के माध्यम से ही चित्रित किए हैं। होर द्वारा प्रतिनिधित्वकारी
रूप रेखाओं का पालन कर ‘‘देविचरण शेख गोमनी का एक
बोर्ड‘‘ और ‘‘रमेश सील का एक अन्य बोर्ड‘‘
जैसे चित्रों को छोड़कर टोनल उपकरणों को शायद ही कभी अपनाया होगा। इन झिझकने
वाले रेखाचित्रों में भी कुछ ऐसे तत्व छिपे थे जो पूर्ण पुरातन रूप में थे, जो सोमनाथ होर के कार्य के लिए मूल रूप बन गए थे। आपके
द्वारा बर्नाइ र्गइ मानव और जानवरों की आकृतियाँ लगभग पूर्ण रूप से कंकाल रूप में होती थी। उनके द्वारा
बनाई गई कलाकृतियों में शरीर की पसलियाँ परमसुख रूप से बाहर निकली हुयी होती हैं। सन 1943 में सोमनाथ ने कम्यूनिस्ट पार्टी की पत्रिका जनयुद्ध के लिए बंगाल के अकाल का दृश्य दस्तावेजीकरण किया था। एक कलाकार के रूप में उनकी कला का आगमन 1946 में बंगाल में किसान अशांति के साथ हुआ था। जिसे तिभागा आन्दोलन के रूप में जाना गया था। उस समय सोमनाथ राजनैतिक प्रचारक और प्रींटमेंकर चित्तप्रसाद भट्टाचार्य के अनुयायी बन गए थे। अपनी कला संभावनाओं को पहचानते हुए होर ने कलकत्ता कॉलेज में दाखिला लिया लेकिन कुछ समय अध्ययन करने के पश्चात ही सोमनाथ दोबारा से राजनीति के अंगारों में उलझ गये।[8] सोमनाथ होर की प्रारम्भिक शिक्षा मालवा जिला के स्कूल में हुई जहाँ माध्यमिक शिक्षा में जिले में प्रथम स्थान प्राप्त करने के कारण उनको सरकार द्वारा छात्रवृति प्राप्त हुई थी। इसके बाद उन्होंने चिटगाँव महाविद्यालय से इन्टर और सिटी कॉलेज से बी.एस.सी की पर्ढ़ाइ पूर्ण की। जब सा ेमनाथ कम्यूनिस्ट पार्टी के सदस्य थे तभी अपनी पार्टी से उत्साहित होकर 1945 में उन्होंने कलकत्ता के गवर्मेंट स्कूल ऑफ आर्ट में प्रवेश लिया। उनकी दृश्य कला के क्षेत्र में पूर्ण औपचारिक शैक्षिक प्रयास अकाल के समय के आस-पास केन्द्रित थे, वह अकाल का ऐसा समय था जब जैनुल आबेदीन ने इसके सन्दर्भ में सर्वा धिक कार्य किया था जिस कारण उस समय के सभी कलाकार उनसे प्रभावित थे। अतः सोमनाथ का भी उनसे प्रभावित होना स्वभाविक था। सन 1946 में कुछ समय के लिए समकालीन चीनी प्रिंटो का एक लकड़ी और कट्स का एल्बम सांस्कृतिक कार्यकर्ताओं तक पहुँचां। उस समय सोमनाथ होर अपने कला महाविद्यालय के द्वितीय वर्ष में अध्ययन कार्य कर रहे थे। वो उस समय के अकेले ऐसे कलाकार थे, जिनका प्रिंट के प्रति उत्साह केवल अकादमिक कला से अधिक था। उसी के अगले वर्ष सोमनाथ होर ने प्रिंट मेकिंग को सीखने का गंभीरता से मन बना लिया और अपने कार्य में पूर्ण लगन के साथ जुट गये। उन्होंने सर्व प्रथम वुड-कट की नक्काशी का कार्य सेफुउद्दीन अहमद से सीखा, जो बांग्लादेश के जाने-माने ग्राफिक कलाकारों में से एक थे। सोमनाथ ने अपना वुडकट का प्रथम कार्य सन 1947 में पूर्ण किया। जिसका शीर्षक था-‘‘सांप्रदायिक सदभावन‘‘ जो कि महात्मा गांधी द्वारा संबोधित एक बैठक का दृश्य था। यह एक समूह रचना थी, जिसमें बहुत अधिक संख्या में लोगों को रेखाओं के रूप में चित्रित किया गया था। काले रंग के लोगों के खिलाफ सफेद रंग की रेखाए न केवल आँकड़ो की रूपरेखा को चित्रित करती है, बल्कि वे अंधेरे वाले आंकड़ो के उच्च प्रकाश वाले हिस्सो का भी प्रतिनिधित्व करती हैं। सोमनाथ बहुत से रेखाचित्रों और छवियों के साथ वापस बंगाल लौट आए, जिनमें से कुछ कलाकृतियों का उपयोंग उन्होंने वुडकट नक्काशी और लिनोकट के लिए अपनी स्रोत सामग्री के रूप में प्रयोग किया। सन 1949 में सोमनाथ होर का अकादमिक केरियर बाधित होगया था, क्योंकि कम्यूनिस्ट पार्टी पर प्रतिबंध लगने के कारण उन्होंने कुछ समय के लिए भूमिगत होना पड़ गया था। सन 1950 में जब प्रतिबन्ध हटा लिया गया तो सोमनाथ ने अपनी औपचारिक शिक्षा पूर्ण करने के लिए कला विद्यालय में वापस प्रवेश नही लिया। उन्होने पेंटिंग, ड्राइंग और प्रिंटमेकिंग के लिए विश्वास पूर्वक खुद को समर्पि त कर दिया और कला को ही अपने जीवन के लिए उम्मीद बना लिया। उस समय सोमनाथ ने अपनी कुछ पुरानी कलाकृतियों को पुनः समय-समय प्रस्तुत किया। होर ने 1951-1954 तक मोनोक्रोमेटिक प्रिंट और शिल्प कला पर कौशलता और मजबूत पकड़ केसाथ कार्य किया था, जिसमें किसान महिलाओं और बच्चों के साथ ही किसान नायकों और प्रतिरोधी सेनानियों के चित्र उकेरे। लोगों के साथ की कुछ रचनाए थी जिनको इनडोर की बैठको में नजदीक से देखा जा सकता था। उन्होने सामूहिक सभाओं एवं जुलूस के दृश्य चित्रों को बहुत ही सुन्दर रचना के साथ बनाया हैं। पोटेंट और क्लोज-अप दृश्य मूल रूप से चित्रांकन और मनोदशा अकादमिक अभ्यास, मुख्य रूप से आलंकारिक इशारों के चयनात्मक अतिश्योक्ति के माध्यम से प्रभावित थे। यद्यपि सोमनाथ ने काइरोस्कोरों प्रयोजन के लिए छाया और प्रकाश का उपयोग किया था, वे पहले से ही वस्तुचित्रण को वास्तविकता के साथ प्रस्तुत करने के लिए इनका उपयोग करने की कोशिश कर रहे थे। उन्होंने पहले ही वुडकट और उत्कीर्णन में महारत हाँसिल कर ली थी जो छाया प्रकाश के उपरोक्त दोनो गुणों को अपने कार्य में लाने कि कोशिश कर रहे थे। उन्होने लकड़ी के काटे गए टुकड़ों से काले और गोरे लोगों के जुलुस के मार्च की ताल और मंडलियों में हाथों और सिर को लहराते हुए लयबद्ध पैटर्न में प्रिंट बनाए हैं। दृश्य वस्तुकरण की भाषा की शुरूआत ने सोमनाथ होर का ध्यान आकृर्षित करना प्रारम्भ कर दिया था। उस समय वो एक प्रख्यात कलाकार बिनोद बिहारी मुखर्जी से मिले, जिन्होने उनको किसी भी रचना में चित्रात्मक स्थान की महत्त्वपूर्ण भूमिका को पहचानने की आवश्यकता और सचित्र स्थान को प्राकृतिक स्थान का प्रतिनिधित्व न करने की आवश्यकता के प्रति जागृत किया था। इस सलाह के बाद उनके कार्य में मौलिक परिवर्तन होने लगे और आगे किये गए कार्यो में अच्छे परिणाम निकलकर सामने आए। सोमनाथ होर ने सन 1951 तक
अपने स्वयं के मुहावरों के आधार पर अनुसंधान और प्रयोग के चरणो में प्रवेश किया था, साथ ही अलग-अलग माध्यमों में पूर्ण लगन के साथ अपने कार्य
को प्रस्तुत किया है। वे 1947 तक तो वुडकट की नक्काशी और वुडकट प्रिंट बनाने में
ही लगे रहे। सन 1952 में उन्होने अपने कार्य से हटकर पोस्टरों के अलावा अपना पहला
सचित्र लिनोकट बनाया। इस लिनोकट का निर्माण स्वयं के द्वारा बनाई गई 1944 की ‘‘मदर एण्ड चाईल्ड‘‘ ड्राइंग के आधार पर किया गया था। इसके बाद उन्होने वुडकट में एक बहुरंगी छापा
तैयार किया तथा पहली बार ब्लैक एण्ड पॉइंट कलर में वुडकट नक्काशी की। सन 1954 में अकादमिक
चित्रकार अतुल बोस, जो उस समय कोलकाता के निजी रूप से प्रबंधित कला
विद्यालय, इण्डियन कॉलेज ऑफ आर्ट एण्ड ड्राफ्टमैनशिप के
प्रिंसिपल थे, जिन्होने सोमनाथ से स्कूल में शिक्षण कार्य के
लिए अनुरोध किया। इस घटना से सोम के जीवन में नवीन मोड आया और उसी समय उनका जीवन
कलात्मक गतिविधियों में समर्पित हो गया। इसके बाद एक वर्ष के भीतर ही उनमें
परिवर्तन साफ दिखाई देने लगा था। उन्होने सन 1955 से 1957 के बीच कई
वुड-इन्ग्रेविंग और वुडकट के कार्य किए और उनके साथ-साथ कुछ मोनोक्रोमेटिक
नक्काशियाँ भी बनाई जो उनके निष्पादन और प्रभाव के तरीको में उनके द्वारा पूर्व
में की गई नक्काशी कार्य से पूरी तरह अलग थी। सोमनाथ द्वारा बनाई गई छवियों को
1943 में केनाइन के अनुभव द्वारा प्राप्त किया, जिसे स्मृति में संग्रहित किया गया था। पीड़ित मानवता उनके चित्रण का प्रमुख
विषय बन गया, लेकिन यह एक अमूर्त व्यक्ति की एक अमूर्त पीड़ा
से अमूर्त घटना नही थी जो उनके साथ घटी थी। उनके कार्यो में मानव आकृतियाँ अब बेहद
रेखीय प्रभाव लिए हुए थी। उनके प्रत्येक कार्य में एक विशाल मलेरिया और प्लिहा
जैसी बीमारी से ग्रसित कंकाल, धड़, वक्ष के लिए एक पसली-पिंजरा, एक विशाल खोपड़ी का समर्थन, एक छोटे से
चेहरे के साथ यह पूरा ढांचा दो छड़ी के समान पैरो पर आराम कर रहा होता है। उनके
द्वारा बनाई गई कलाकृतियों में अधिकतर कृतियाँ सीधी रेखीय प्रवृति की मजबूत
निश्चित रेखाओं द्वारा चित्रित की गई थी जिनमें शायद ही उन्होने कभी
काइरोस्क्यूरोस्टिक (छाया-प्रकाश) वा वॉल्यूम देने का प्रयास किया था। त्वचा के
ठीक नीचे हड्डी की संरचना का सुझाव देने के लिए रेखीय प्रयास, आँकड़ों का एक ठोस अस्तित्व देने और मानव शरीर रचना पर
कुपोषण के प्रभाव को व्यक्त करने के लिए दो गुना प्रयास किए थे। सोमनाथ द्वारा सन 1954-1956
के बीच प्रारंभिक किए गए सभी इंटैग्लियो प्रिंट मोनोक्रोमेटिक, प्रकृति में खोजपूर्ण थे। सोमनाथ न तो अपने समकालीन
प्रिंटों में देखे गए माध्यम पर महारत हासिल करने में चूके और न ही उन्होने कुछ
वैचारिक इकाई देने के लिए अभूतपूर्व छवि को बदलने का कोई प्रयास किया। सोमनाथ उस
समय किसी की मदद के बिना खुद ही इंटैग्लियो प्रिंटिंग सीख रहे थे। इंटैग्लियो
प्रिंटिंग के शिल्प में महारत हासिल करने के उनके अथक प्रयासों के परिणाम 1957 तक
आने लगे। यह प्रयास या समग्र दृष्टिकोण अस्थायी रूप से बदल गया था। कला और
कला-जीवन संबंधो के प्रति सोमनाथ का दृष्टिकोण शुष्क-बिंदु की नरम मखमली रेखाओं का
आकर्षण और कठोर-जमीन से ढकी धातु की चादर के ऊपर सुई की आकर्षक गति (सोमनाथ ने अभी
तक एक उत्कीर्णन की गड़गड़ाहट का उपयोग नहीं किया था) सोमनाथ को मजबूत और निश्चित
सीधे रेखिक प्रभावों से दूर ले जा रहे थे। रेखाएँ आकर्षक रूप से घुमावदार होती जा
रही थी। आकृतियों और रूपांकनों को परिभाषित करने के अपने कार्य से मुक्त होती जा
रही थीं। यद्यपि एक सभ्य और
संवेदनशील व्यवहार के व्यक्तित्व को राजनीति का कठोर व लड़खड़ाता जीवन कम ही रास आता
है, अतः वो चित्रकला की तरफ वापस आ गये। अपने अध्ययन काल में
उन्होने ग्राफिक कला के पाठ शेफूद्दीन अहमद और हिरेन दास से सीखी, यद्यपि वो उनकी कार्य शैली से बिल्कुल प्रभावित नहीं थे।[9]
सन 1954 में सोमनाथ ने चित्रकार रेबा दास से विवाह किया और उसके बाद उन्होने एक
साथ सन 1956, 57, 58 में कला प्रदर्शनियों का आयोजन किया और उसी समय 1957 में ही उन्होने
कलकत्ता कॉलेज से ललित कला में डिप्लोमा भी प्राप्त किया था।[10] कलाकार की चेतना एक ओर तो पहले से मौजूद शैलियों और एक माध्यम की आंतरिक गुणवत्ता है और दूसरी ओर वस्तुकरण की उपलब्ध तकनीकी के साथ एक द्वंदात्मक संबंध है। इस द्वंदात्मकता के संचालन में कभी-कभी एक दूसरे पर हावी हो जाता है। कुछ नया तभी सामने आता है जब दोनों पक्ष एक दूसरे के प्रभाव में समान रूप से बदलते हैं। हालांकि सन 1957-58 के सोमनाथ के कार्यो में सामान्य संचालन से ऐसा लगता है कि उन्हें नक़्क़ाशी और शुष्क-बिंदु मीडिया के आंतरिक गुणों और इन मीडिया में मैट्रिक्स बनाने की मौजूदा तकनीक को पश्चिमी शैली से दूर ले जाया जा रहा था या वास्तव में मीडिया और प्रोद्यौगिकी को जाग्रत किया जा रहा था। उनके व्यक्तित्व का निर्माण किसी भी बाहरी शक्ति द्वारा हावी होने के लिए पर्याप्त रूप से किया गया था फिर चाहे वह सौंदर्यवादी तकनीकी हो या वैचारिक। यह सन 1958 में किए गए एक्वाटिंट के साथ एक काले और सफेद नक़्क़ाशी के बच्चों में पर्याप्त रूप से परिलक्षित होता था। उनकी बहुत ही परिभाषित ज्यामितीयता में वास्तविक, हालांकि टाइपोलॉजिकल प्राणियों के रूप में प्रकट हुए। अंगों के रूपात्मक संघ में भारहीन पत्तियों के साथ कटे हुए फलों के पत्ते उनका अस्तित्व अनिश्चित प्रतीत होता है। वक्ष की प्रत्येक पसली और प्रत्येक गाल की हड्डी को उकेरने वाले हावभाव की रेखाएं गहरे घाव के रूप में दिखाई देती हैं। जिसमें उन्होने एक्वाटिन्ट का सहारा लिया था। वह किसी भी कायरोस्क्यूरोस्टिक (छाया-प्रकाश) उद्देश्यों की पूर्ति नहीं करती थी। जलीय क्षेत्रों में अधीर हावभाव प्रवृत्ति के साथ अनियमित जीव द्रव्यमान के रूप में दिखाई दिया जिसे उन्होंने सांख्यिकीय रूप से खींची गई आकृतियों को किसी प्रकार की आंतरिक बेचैनी से संपन्न किया है। वे अब अकाल की संतान नहीं थे बल्कि मानवता के सबसे कमजोर वर्ग के प्रतिनिधि थे। सोमनाथ ने अंततः 1957 में गवर्नमेंट कॉलेज ऑफ आर्ट एंड क्राफ्ट से एक बाहरी उम्मीदवार के रूप में ललित कला में डिप्लोमा प्राप्त किया। सोमनाथ किसी भी रूप में
छापा चित्रण की पश्चिमी शैली से प्रभावित नहीं थे। दूसरे कलाकारों के विपरीत वह
अत्यधिक ध्यान नई तकनीक की अपेक्षा कलाकृतियों के आकारो में देते थे। स्वयं होर के
अनुसार ‘‘मेरा सर्वप्रथम रेखाचित्र द्वितीय विश्वयुद्ध के
बमों से प्रभावित एक शिकारी का था जिसमें एक 12 या 13 वर्ष की लड़की की आँते बाहर
निकल पड़ी है और उसके शरीर के अंग इधर-उधर बिखरे पड़े हैं।‘‘[11] कला जगत में स्थान बना चुके होर ने 1958 में दिल्ली की
तरफ प्रस्थान किया, तब उनकी कला और जीवन में एक नए चरण की शुरुआत
हुई। यहां उन्होने दिल्ली पॉलिटेक्निकल (अब ललित कला महाविद्यालय) के ललित कला
विभाग में ग्राफिक इंचार्ज का पद संभाला।[12] महाविद्यालय में कंवल कृष्ण और
कृष्णा रेड्डी के बनाए छापा चित्र से अत्यधिक प्रभावित हुए तब भी उन्होने इन दोनों
महान छापा कलाकारो की शैली और तकनीकों का अनुसरण करने का प्रयास नहीं किया बल्कि
इसके विपरीत नवीन माध्यमों में प्रयोग करने लगे। जिसका परिणाम लुगदी छापा प्रिंट
थे जिसकी प्रदर्शनी उन्होने सन 1973 में दिल्ली में लगाई थी। [13] होर के प्रारंभिक परीक्षण
मुख्य रूप से काष्ठ उत्कीर्ण ही थे लेकिन बाद में धीरे-धीरे उसने लिथोग्राफी और
अम्लांकन दोनों माध्यमों में भी अनुसंधान किया। उनके प्रयासों से महाविद्यालय का
ग्राफिक विभाग धीरे-धीरे विकसित होने लगा। निःसंदेह दिल्ली के छापा चित्रकारों की
नई पौध एक अत्यंत उत्साह बढ़ाने वाले और स्वयं दर्द लेने वाले व्यक्ति के निर्देशन
में परीक्षण और तकनीकी ज्ञान प्राप्त कर रही थी। यह काल उनकी कृतियों और स्वयं
अपनी पहचान बनाने के साथ उत्थान का था। विषयक आकृति संयोजन से विकास करते हुए वह
उत्कृष्ट अमूर्त मूल्यों पर आधारित छापाचित्रों की तरफ बढ़ चले। यद्यपि उनका कार्य
प्रतिकात्मक और काल्पनिक शैली में जारी रहा परंतु उन्होंने इस माध्यम के प्रति
अपनी निष्ठा स्थापित कर ली। सोमनाथ को सन 1960 में चित्रकला के लिए राष्ट्रीय
पुरस्कार मिला वहीं ग्राफिक चित्रों को सन 1962-63 में राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त
हुआ। छापा चित्रण के लिए अधिक समय न मिल पाने के कारण होर सन 1967 में दिल्ली ललित
कला महाविद्यालय से त्यागपत्र दे दिया क्योंकि वे अपनी कार्य प्रगति से संतुष्ट
नहीं थे या शायद वे एक नई ताजगी या बदलाव चाहते थे अतः कुछ समय पश्चात वे
शांतिनिकेतन चले गए।[14] जीवन यात्रा सोमनाथ होर ने अपनी शिक्षा
पूर्ण करने के उपरान्त नवंबर 1958 में कलकत्ता छोड़ दिया। दिल्ली पॉलिटेक्निक (अब
दिल्ली कला महाविद्यालय) के कला विभाग में शामिल होने के उपरान्त ग्राफिक कला में
व्याख्याता के रूप में दो से तीन वर्षों की छोटी अवधि के भीतर उन्होंने न केवल एक
पूर्ण विभाग का निर्माण किया, बल्कि दिल्ली में
अपने छात्रों और सहयोगियों के बीच प्रिंट-मेकिंग के लिए उत्साह पैदा करने में भी
मदद की। उसी समय दिल्ली के अन्तर्गत दिसंबर 1958 में कृष्णा रेड्डी की बहुरंगी
नक़्क़ाशी की एक प्रदर्शनी थी, जो रंगीन
अनुप्रयोग की विभेदक चिपचिपाहट विधि द्वारा एकल मैट्रिक्स को मुद्रित करती थी।
सोमनाथ इन छापों से बहुत प्रभावित हुए, लेकिन जब उन्होने यह तरीका सीखना चाहा तो रेड्डी ने उनकी बहुत कम मदद की। 1959
में सोमनाथ ने अलग-अलग स्तरों पर नक़्क़ाशीदार एकल प्लेटों से अपना पहला बहुरंगी
नक़्क़ाशी प्रिंट बनाया, जिनमें प्रत्येक के ऊपर अलग-अलग चिपचिपाहट की
रंगीन स्याही लगाई गई थी, ताकि एक दबाने वाले ऑपरेशन का सहारा लेकर एक
बहुरंगा प्रिंट लिया जा सके। सन 1960 में उन्होंने नई दिल्ली में अपनी बहुरंगी
नक़्क़ाशी की एकल प्रदर्शनी का आयोजन किया। उसी वर्ष उनकी कला की राष्ट्रीय
प्रदर्शनी में एक पेंटिंग के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार मिला। सोमनाथ उस समय तक अपना
समय पेंटिंग और प्रिंट-मेकिंग के बीच समान रूप से विभाजित कर रहे थे। कलकत्ता में सोमनाथ के
सहयोगी दोस्तों ने सन 1960 में ‘‘सोसाइटी ऑफ
कंटेम्पररी आर्टिस्ट्स‘‘ के रूप में एक एसोसिएशन की स्थापना की और वे संगठन
के सदस्य बन गए। सोमनाथ अपने मित्रों के लिए प्रेरणास्रोत थे। यह काफी हद तक उनकी
प्रिंट-मेकिंग गतिविधियाँ थी जिसने सोसाइटी को 1963 में कलकत्ता में एक
प्रिंट-मेकिंग वर्कशॉप स्थापित करने के लिए प्रेरित किया। इस सोसाइटी ने 1961 और
1962 में अपने स्टूडियो में सोमनाथ के प्रिंटों की दो छोटी प्रदर्शनियाँ आयोजित
की। यह संस्था रचनात्मक प्रिंटमेकिंग के लिए भारत में कला शिक्षण संस्थानों के
बाहर कार्यशालाओं को स्थापित करने वाली एक संस्था थी। ‘बर्थ ऑफ़ ए व्हाइट रोज‘ नामक रंग की नक़्क़ाशी ने उन्हें 1962 में अपना दूसरा राष्ट्रीय
पुरस्कार दिलाया। 1963 में आयोजित कला की अगली राष्ट्रीय प्रदर्शनी में ‘‘द ड्रीम‘‘ नामक कलाकृति पर
उन्हें फिर से एक और राष्ट्रीय पुरस्कार मिला। इसके बाद सोमनाथ ने किसी भी
राष्ट्रीय प्रदर्शनी में प्रतिस्पर्धा के लिए अपने कार्यों को भेजना बंद कर दिया।
उनकी कलाकृति ‘द बर्थ ऑफ़ ए व्हाइट रोज़‘ और ‘द ड्रीम‘ जटिल रचनाएँ थी, जो रूपांकनों के निर्माण में लालित्य के साथ
संपन्न तकनीकी चमत्कार थी। सन 1967-71 की अवधि में किए
गए सोमनाथ के कार्य आशावाद और निराशा को दर्शाते हैं, जिसने उन संक्रमणकालीन वर्षों में लोगों को प्रभावित और
पीड़ित किया। 1943 के बंगाल के अकाल में उनकी उत्पत्ति हुई। लेकिन हर गुजरते साल के
साथ सोमनाथ एक तरफ स्थिति के विवरण से दूर हो गए तथा दूसरी ओर तत्काल अनुभव आंतरिक
चिंतन की एक प्रक्रिया के माध्यम से तेज हो गया, जिसने एक चिंगारी को जन्म दिया। इस बीच सोमनाथ ने कई अन्य घटनाओं जैसे 1946’47 के सांप्रदायिक दंगो, 1947 के विभाजन और परिणामस्वरूप लाखों लोगों के उखड़ने और पलायन के अनुभव से गुजरे
जिनमें से अधिकतर में उन्होंने विनाश, पीड़ा और असहाय मनुष्यों को देखा। सत्ता के खेल के घायल शिकार, घाव के निशान में सोमनाथ को मानवता के असहाय दलित के खिलाफ
सभी अन्याय और हिंसा का प्रतीक मिला। इससे अधिक आश्वस्त करने वाला कुछ नहीं हो
सकता था। भावों को प्रतिबिम्बित करने में सोमनाथ ने कभी भी उस स्थिति का वर्णन
करना आवश्यक नहीं समझा, जिसके कारण यह मनोदशा हुई और न ही किसी
साहित्यिक कथा की आवश्यकता पड़ी। सोमनाथ केवल दृश्य छवियों के निर्माण में रुचि
रखते थे जो मूल मनोदशाओं को दूर कर दें। सोमनाथ ने कलकत्ता लौटने पर
लिथोग्राफी को अपनाया लेकिन कभी भी अपना प्रमुख माध्यम बनाने की कोशिश नहीं की थी।
सोमनाथ लंबे समय से बड़े पैमाने पर रेखाएं खींच रहे थे और जनता को रेखिक इशारों का
समर्थन कर रहे थे। इस माध्यम ने उन्हें जनता और रेखाओं के संलयन के लिए एक अवसर
प्रदान किया। हालाँकि वर्तमान लेखक यह मानना चाहता है कि यह केवल लाइनों और जनसमूह
के संलयन की तकनीकी व्यवहार्यता को देखने की इच्छा नहीं थी जिसने सोमनाथ को वह
करने के लिए प्रेरित किया जो उन्होंने किया था। उस समय सोमनाथ का प्रयास बहुआयामी
था और वह सरल एकीकृत ओर सार्थक संरचनाओं की फ्लैट और द्वि-आयामी छवियों में
प्रतिनिधित्वात्मक, रूपक, विचारोत्तेजक और प्रतीकात्मकता को एकीकृत करने का प्रयास कर रहा था। इस प्रकार
उन्होंने वस्तुकरण का एक तरीका विकसित किया, जहां कलाकृति में बनाया गया रूप सामग्री का रूप था और सामग्री वह रूप थी
जिसमें वह दिखाई देती थी। सन 1967 से 1971 के बीच किए गए अधिकांश प्रिंट
डुओक्रोमैटिक (दो रंगो द्वारा बनाया गया छापा) थे। संभवतः अपने जीवन में पहली बार
उन्होंने लाल और काले रंगो के विपरीत अन्य रंगों का इस्तेमाल किया था। नामहीन और
पहचान रहीत प्राणी को उनकी कलाकृतियों में कमजोर पत्तियों के समान, टुकडों में कटे हुए फल, खंजर के घाव, ऐसा लग रहा था कि सोमनाथ की शापित मानवता अब
अपने विनाश की प्रतीक्षा नहीं कर रही थी। उनके द्वारा किये गये प्रयासो से घायल
ऊपर उठ रहे थे और आगे बढ़ रहे थे। उनके मूड का एक अच्छा उदाहरण बांग्लादेश पर उनका
1971 का टुकड़ा था। हालाँकि 1967-71 के उनके सभी लिथोग्राफ आशा और आशावाद के इस मूड
को नहीं दर्शाते थे। उन्होंने कई काले और लाल लिथोग्राफ भी बनाए जिसमें मूड उदास
और अवसाद से भरा हुआ था। जहाँ झुकने वाली, बैठने वाली और सुस्ती से खड़ी हुई आकृतियों को कपटपूर्ण इशारों की जन-रेखाएं
कटे-फटे आकार के बनावट वाले अलंकरणों के साथ बनाई गई है। उनमें से एक प्रिंट तो
अन्य प्रिंटों में पाए जाने वाले खून से भी अधिक लाल बनाया गया है। 1669 में सोमनाथ होर को
उनके मित्र श्री दिनकर कौशिक ने शांतिनिकेतन के लिए आमंत्रित किया वे दिल्ली के
रहने वाले थे। वे ग्राफिक कला के प्रोफेसर थे परन्तु ग्राफिक कला के प्रोफेसर के
रूप में पद सम्भालने से पहले ‘‘विश्वभारती
विश्वविद्यालय‘‘ के दृश्यकला महाविद्यालय का भार संम्भाल चुके
थे। कला भवन के पुनर्गठन में उनका महत्वपूर्ण और अमूल्य योगदान रहा है। सोमनाथ होर
ने उनका आमंत्रण स्वीकार किया और शांतिनिकेतन चले गये। आधे दशक से भी कम समय में
उन्होने शांतिनिकेतन के प्रिंटमेकिंग विभाग को भारत में सर्वश्रेष्ठ बना दिया। सत्तर के दशक के मध्य में
हुये भारत-पाक युध्द के कारण सम्पूर्ण भारतवासियों को दमन और पीड़ा का सामना करना
पड़ा था। इस दौरान सोमनाथ की कलाकृतियों में एक बार फिर से ‘घावो‘ ने क्रूरता और
दुःख के साथ जन्म लिया। सन 1970 के दशक से उन्होने घाव श्रृंखला पर बहुत सी
कलाकृतियाँ बनाई। सोमनाथ ने मुख्य रूप से स्थितीजन्य आख्यानों और सामाजिक कुप्रथा
के अनदेखे कारणों कों इंगित करने और वास्तविकता के एक पहलु को प्रतीकात्मक रूप से
ऊपर उठाने के लिए कार्य किया था। उन्होने लुगदी मुद्रणों के साथ-साथ धातु की
चादरों पर बरीन के साथ नक्काशी करके इंटैग्लियों द्वारा प्रिंट लिए है जो
पारम्परिक अर्थ में मुख्यतः अलंकारिक चित्र है। ये सभी समतल और रैखिक रचनाऐं है
जिनकी ना तो पृष्ठभूमि बनाई गई है ना ही अग्रभूमि। वह ज्यामितीय प्रवृति की बोल्ड
और निश्चित रेखाओं में उकेरी गई आकृतियाँ है। हालांकि सम्मोच रेखाएं ज्यामितीय
होने के बाद भी उन्होने कलाकृतियों में कंकाल और संरचनाओं की आंतरिक नग्नता को
प्रस्तुत करने पर अधिक जोर दिया है। जीवन का चक्र, भोजन करना, प्रेम करना या कोई भी पीड़ा, चाहे वह कोई भी शारीरिक कार्य हो उन्होने इन सभी प्राणीयों
को किसी ना किसी कार्य में व्यस्त ही चित्रित किया है।
सोमनाथ की विकासात्मक दिशा
ऐसे ही आगे बडती गई। पचास वर्ष की उम्र पार करने के पश्चात उन्होने कांस्य की
मूर्तियां भी बनाना प्रारम्भ किया जो कि उनके लिए एक कठिन माध्यम था। क्योंकि
उन्होने प्लास्टर ऑफ पेरिस या मिट्टी के माध्यम के बजाय कांस्य को चुना था।
कोलकाता में समकालीन कलाकारों की सोसायटी द्वारा प्रदर्शित उनकी कलाकृतियों को
देखने के पश्चात सभी मूर्तिकारों को यह विश्वास हो गया था कि वे इन कलाकृतियों के
द्वारा केवल किसी एक मोड की तलाश नही कर रहे थे बल्की अपने आन्तरिक चिन्तन का
मूर्तिकला की सौन्दर्यपूर्ण अभिव्यक्ति द्वारा विस्तार भी कर रहे थे। साधारण
शारीरिक घाव को एक बडी प्रतीकात्मक भूमिका देने और शारीरिक घाव की छवि को एक
गुणवत्ता के साथ समाप्त करने की अपनी खोज की प्रक्रिया में कार्य करते हुए वे
कांस्य मूर्तियों के इस दौर में पहुँच चुके थे। जो उनके लिए छवि से भी अधिक
वास्तविक रूप बन चुका था। इन मूर्तियों में बनाये गए घाव लुकदी-प्रिंट के विपरीत
घायलों की छवियों में देखे जाने के समान ही है। मनुष्य, गधे, बकरियों आदि की छवियों में वे केवल एकाकी और
असहाय घावो के शिकारी के रूप में देखे जा सकते है। जानवरों के कष्ठों को और मानव
हृदय को छूने के लिए सोमनाथ को मानवरूपी उपकरणों का सहारा नही लेना पड़ा था, क्योंकि एक घायल जानवर और भगवान के सबसे प्यारे को होने
वाली शारिरीक पीड़ा लगभग एक समान होती है। इस सम्बन्ध में सोमनाथ के विचार एकदम सही
थे। नवीन प्रयोग सोमनाथ होर ने
सीमेन्ट और प्लास्टर ब्लॉक
तथा कागज की लुगदी के साथ नवीन प्रयोग किये थे। इस प्रयोग के लिए उन्होने
सर्वप्रथम समतल सतह की एक ईंच मोटी मिट्टी की पट्टीयाँ रखते है। उनमें अलग-अलग
प्रकार के उपकरणों से उस पटिया की समतल सतह पर जिस प्रकार खेत में हल चलाते है ठीक
उसी प्रकार उस पट्टियाँ पर चित्रांकन उकेरा जाता है। इस प्रकार बनी समतल सतह पर
सिमेंट के घोल द्वारा उसका साँचा बनाया जाता है। सूखने के पश्चात यह सिमेंट का
साँचा ही प्लेट का कार्य करता है। इस प्लेट पर कच्चे पेपर की लुगदी की तह बिछाई
जाती है। अन्त में अनेक प्रकार के हस्त कौशल द्वारा छाया चित्र बनाये जाते है।[15] सोमनाथ होर का जन्म 13
अप्रैल 1921 में अविभाजित बंगाल के बारामा, चटगाँव मे हुआ था जो की वर्तमान में बांग्लादेश में स्थित है। बचपन में 13
वर्ष कि छोटी उम्र में ही उन्होने अपने पिताजी रेबीता मोहन होर को खो दिया था।
जिससे उनकी बाल्यावस्था अन्य बच्चों कि तरह साधारण नहीं थी। उनकी स्कूली शिक्षा
मालवा के जिला स्कूल में हुई थी। यहाँ उन्होने माध्यमिक शिक्षा में जिले के
अन्तर्गत प्रथम स्थान प्राप्त किया, जिस कारण वहाँ की सरकार ने उनको छात्रवृत्ति प्रदान की। चटगाँव महाविद्यालय से
इन्टर कॉलेज उ़त्तीर्ण करने के बाद सिटी कॉलेज में बी.एस.सी. में प्रवेश लिया। यह
वह समय था जिस समय नये-नये आदर्श पनप रहे थे। बंगाल में अकाल के कारण अनेक युवा
वामपंथी विचारधारा की ओर मुड़ने लगे थे।[6] उसी समय सोमनाथ होर ने अपनी माता के कहने
पर कम्यूनिस्ट पार्टी को जॉइन कर लिया। होर ने प्रसिद्ध कलाकार चिप्रसाद से
प्रभावित होकर चटगाँव के दृश्यों को रिपोर्टिंग करने लगे। द्वितीय विश्वयुद्ध की
परिणती से आहत होकर सोमनाथ होर ने सन 1943 के अकाल से पीड़ीत लोगों के लिए अपने
स्तर पर सहायता प्रारम्भ की। उन्होने पीड़ितों की मदद के लिए पोस्टर बनाए, इस प्रकार उन्होने अपने आपको कला से जोड़ लिया और कला के
प्रति निरन्तर उत्सुक होते चले गए। सोमनाथ होर ने अभिव्यक्ति
के लिए ग्राफिक कला को काफी अन्वेषण के बाद ग्रहण किया था। उन्होने सीमेन्ट और
प्लास्टर ब्लाक तथा कागज की लुगदी के साथ नये-नये परीक्षण किए है। इसके लिए सबसे
पहले समतल सतह की एक इंच मोटी पट्टियां रखते है। अनेक प्रकार के उपकरणों द्वारा
जिस प्रकार से खेत में हल चलाते है ठीक उसी प्रकार उस पर चित्रांकन किया जाता है।
इस प्रकार बनी समतल सतह से सीमेन्ट का सांचा ही प्लेट का कार्य करता है। इस प्लेट
पर कच्चे पेपर की लुगदी की सतह बिछा दी जाती है। अन्त में अनेक प्रकार के हस्त
कौशल द्वारा छापाचित्र बनाये जाते है।[7] सोमनाथ होर के दृश्य
चित्रों में सबसे पहले 1944 में ‘‘जनयुद्ध पार्टी
अंग‘‘ में प्रकाशित रेखाचित्र है। ‘‘जनयुद्ध‘‘ में प्रकाशित ये
रेखाचित्र मुख्य रूप से अकाल के असहाय पीड़ितों और मरने वाले किसानों के साथ बीमार
और दुर्बल निराश्रितों के दृश्य चित्र है। ये सभी चित्र उन्होने रेखांकन के माध्यम
से ही चित्रित किए है। होर द्वारा प्रतिनिधित्वकारी रूप रेखाओं का पालन कर ‘‘देविचरण शेख गोमनी का एक बोर्ड‘‘ और ‘‘रमेश सील का एक अन्य बोर्ड‘‘ जैसे चित्रों को छोड़कर टोनल उपकरणों को शायद ही कभी अपनाया
होगा। इन झिझकने वाले रेखाचित्रों में भी कुछ ऐसे तत्व छिपे थे जो पूर्ण पुरातन
रूप में थे, जो सोमनाथ होर के कार्य के लिए मूल रूप बन गए
थे। आपके द्वारा बनाई गई मानव और जानवरों की आकृतियों लगभग पूर्ण रूप से कंकाल रूप
में होती थी। उनके द्वारा बनाई गई कलाकृतियों में शरीर की पसलियाँ प्रमुख रूप से
बाहर निकली हुयी होती है। सन 1943 में सोमनाथ ने
कम्यूनिस्ट पार्टी की पत्रिका जनयुद्ध के लिए बंगाल के अकाल का दृश्य दस्तावेजीकरण
किया था। एक कलाकार के रूप में उनकी कला का आगमन 1946 में बंगाल में किसान अशांति
के साथ हुआ था। जिसे तिभागा आन्दोलन के रूप में जाना गया था। उस समय सोमनाथ राजनैतिक
प्रचारक और प्रिंटमेंकर चित्तप्रसाद भट्टाचार्य के अनुयायी बन गए थे। अपनी कला
संभावनाओं को पहचानते हुए होर ने कलकत्ता काॅलेज में दाखिला लिया लेकिन कुछ समय
अध्ययन करने के पश्चात ही सोमनाथ दोबारा से राजनीति के अंगारों में उलझ गये।[8] सोमनाथ होर की प्रारम्भिक
शिक्षा मालवा जिला के स्कूल में हुई जहाँ माध्यमिक शिक्षा में जिले में प्रथम
स्थान प्राप्त करने के कारण उनको सरकार द्वारा छात्रवृति प्राप्त हुई थी। इसके बाद
उन्होने चिटगाँव महाविद्यालय से इन्टर और सिटी काॅलेज से बी.एस.सी की पढ़ाई पूर्ण
की। जब सोमनाथ कम्यूनिस्ट पार्टी के सदस्य थे तभी अपनी पार्टी से उत्साहित होकर
1945 में उन्होने कलकत्ता के गवर्मेंट स्कूल ऑफ आर्ट में प्रवेश लिया। उनकी दृश्य
कला के क्षेत्र में पूर्व औपचारिक शैक्षिक प्रयास अकाल के समय के आस-पास केन्द्रित
थे, वह अकाल का ऐसा समय था जब जैनुल आबेदीन ने इसके सन्दर्भ में
सर्वाधिक कार्य किया था जिस कारण उस समय के सभी कलाकार उनसे प्रभावित थे। अतः
सोमनाथ का भी उनसे प्रभावित होना स्वभाविक था। सन 1946 में कुछ समय के लिए समकालीन
चीनी प्रिंटो का एक लकड़ी और कट्स का एल्बम सांस्कृतिक कार्यकर्ताओं तक पहुँचां। उस
समय सोमनाथ होर अपने कला महाविद्यालय के द्वितीय वर्ष में अध्ययन कार्य कर रहे थे।
वो उस समय के अकेले ऐसे कलाकार थे, जिनका प्रिंट के प्रति उत्साह केवल अकादमिक कला से अधिक था। उसी के अगले वर्ष
सोमनाथ होर ने प्रिंट मेंकिंग को सीखने का गंभीरता से मन बना लिया और अपने कार्य
में पूर्ण लगन के साथ जुट गये। उन्होने सर्वप्रथम वुड-कट की नक्काशी का कार्य
सेफुउद्दीन अहमद से सीखा, जो बांग्लादेश के जाने-माने ग्राफिक कलाकारों
में से एक थे। सोमनाथ ने अपना वुडकट का प्रथम कार्य सन 1947 में पूर्ण किया। जिसका
शीर्षक था- ‘‘साम्प्रदायिक सदभावना‘‘ जो कि महात्मा गांधी द्वारा संबोधित एक बैठक का दृश्य था।
यह एक समूह रचना थी, जिसमें बहुत अधिक संख्या में लोगों को रेखाओं के
रूप में चित्रित किया गया था। काले रंग के लोगो के खिलाफ सफेद रंग की रेखाऐं न
केवल आँकड़ो की रूपरेखा को चित्रित करती है बल्कि वे अंधेरे वाले आंकडो के उच्च
प्रकाश वाले हिस्सो का भी प्रतिनिधित्व करती है। सोमनाथ बहुत से रेखाचित्रों
और छवियों के साथ वापस बंगाल लौट आए, जिनमें से कुछ कलाकृतियों का उपयोग उन्होने वुडकट नक्काशी और लिनोकट के लिए
अपनी स्रोत सामग्री के रूप में प्रयोग किया। सन 1949 में सोमनाथ होर का अकादमिक
केरियर बाधित हो गया था, क्योंकि कम्यूनिस्ट पार्टी पर प्रतिबंध लगने के
कारण उन्हे कुछ समय के लिए भूमिगत होना पड़ गया था। सन 1950 में जब प्रतिबन्ध हटा
लिया गया तो सोमनाथ ने अपनी औपचारिक शिक्षा पूर्ण करने के लिए कला विद्यालय में
वापस प्रवेश नही लिया। उन्होने पेंटिंग, ड्राइंग और प्रिंटमेकिंग के लिए विश्वास पूर्वक खुद को समर्पित कर दिया और कला
को ही अपने जीवन के लिए उम्मीद बना लिया। उस समय सोमनाथ ने अपनी कुछ पुरानी
कलाकृतियों को पुनः समय-समय प्रस्तुत किया। होर ने 1951-1954 तक मोनोक्रोमेटिक
प्रिंट और शिल्प कला पर कौशलता और मजबूत पकड़ के साथ कार्य किया था, जिसमें किसान महिलाओं और बच्चों के साथ ही किसान नायको और
प्रतिरोधी सेनानियों के चित्र उकेरे। लोगों के साथ की कुछ रचनाऐं थी जिनको इनडोर
की बैठको में नजदीक से देखा जा सकता था। उन्होने सामूहिक सभाओं एवं जुलूस के दृश्य
चित्रों को बहुत ही सुन्दर रचना के साथ बनाया है। पोट्रेट और क्लोज-अप दृश्य मूल
रूप से चित्रांकन और मनोदशा अकादमिक अभ्यास, मुख्य रूप से आलंकारिक इशारों के चयनात्मक अतिश्योक्ति के माध्यम से प्रभावित
थे। यद्दपि सोमनाथ ने काइरोस्कोरो प्रयोजन के लिए छाया और प्रकाश का उपयोग किया था, वे पहले से ही वस्तुचित्रण को वास्तविकता के साथ प्रस्तुत
करने के लिए इनका उपयोग करने की कोशिश कर रहे थे। उन्होंने पहले ही वुडकट और
उत्कीर्णन में महारत हासिल कर ली थी जो छाया प्रकाश के उपरोक्त दोनो गुणों को अपने
कार्य में लाने कि कोशिश कर रहे थे। उन्होने लकड़ी के काटे गए टुकड़ों से काले और
गोरे लोगों के जुलूस के मार्च की ताल और मंडलियों में हाथों और सिर को लहराते हुए
लयबद्ध पैटर्न में प्रिंट बनाए है। दृश्य वस्तुकरण की भाषा की
शुरूआत ने सोमनाथ होर का ध्यान आकर्षित करना प्रारम्भ कर दिया था। उस समय वो एक
प्रख्यात कलाकार बिनोद बिहारी मुखर्जी से मिले, जिन्होने उनकों किसी भी रचना में चित्रात्मक स्थान की महत्त्वपूर्ण भूमिका को
पहचानने की आवश्यकता और सचित्र स्थान को प्राकृतिक स्थान का प्रतिनिधित्व न करने की
आवश्यकता के प्रति जागृत किया था। इस सलाह के बाद उनके कार्य में मौलिक परिवर्तन
होने लगे और आगे किये गए कार्यो में अच्छे परिणाम निकलकर सामने आए। प्रमुख कलाकृतियां सोमनाथ के प्रारम्भिक उत्कीर्ण और काष्ठ
चित्र कलाकार की मानवता के प्रति सहानुभूति और कलात्मक जड़े उदघाटित करते है। ‘‘नाइट मीटिंग‘‘ सोमनाथ की प्रमुख कलाकृतियों में से एक है यह
काष्ठ उत्कीर्ण की कलाकृति उनके काम के स्वभाव को प्रकट करती है और साथ ही कलाकार
की अपने विषय के प्रति भावना को व्यक्त करती है। इस चित्र में स्वभाविक रूप से
चित्रित आकृतियों की भीड़ एक लैम्प के चारों तरफ सटकर इक्कटा होकर खड़ी है। लैम्प की
रोशनी प्रत्येक चेहरे पर कहीं-कहीं पड़ रही है और दृश्य को प्रकट कर रही है। जिसमें
शाल ओढ़े एक बूढ़ा व्यक्ति भीड से बात कर रहा है। इस संयोजन का भाव हिंसा या क्रोध
नही है बल्की एक शान्त वातावरण है। इससे पता चलता है कि कलाकार को गरीबो के प्रति
गहरी संवेदना है। इसी प्रकार प्रतिदिन की दिनचर्या के दृश्यों जिनमें ‘चाय की दुकान‘, गली का दृश्य‘,या माँ और बच्चा‘ में वह अपनी भावना व्यक्त करते है। दिल्ली
में होर ने असंख्य अम्लांकनो के अतिरिक्त अनेक साफ्टग्राउंड अम्लांकन भी किये है
और उन्होने इस प्रकिया में प्रयुक्त सामग्री को स्वतः ही तैयार भी किया है। होर ने
पुरानी छापा मशीनों को सावधानीपूर्वक पुनः स्थापित किया है तथा स्याही व रंगो का
मिश्रण बनाकर परीक्षण किये। तकनीकी प्रभाव में रूची रखते हुए भी होर का कार्य उस
पर पनपा नहीं। उनकी कृतियों में तकनीक की अपेक्षा भाव अधिक है। उनके शुरू के
अम्लांकनो में मूर्त आकारों की विकृती कुछ कम है। लेकिन बाद के छापों में वह अधिक
अमूर्त है और उनमें प्रयुक्त रंग भी धुंधले है। विभिन्न बनावटों, ठोककर बनाये गए चिन्हो एवं अम्लाकंन का भी
उन्होने अच्छा प्रयोग किया है। कलाकार की लयात्मक शैली भी लगातार बनी रही है। रंगो
में होर ने चमक रहित रंगो का प्रयोग किया है। उदाहरण के लिए ‘जादूगर‘, ‘स्वप्न‘,
‘एक सफेद गुलाब
का जन्म‘ इत्यादि। उनकी अन्य कृतियों में ‘इन द पोंड‘ और ‘चाईल्ड‘ जो होर ने सन 1967 में बनाई थी, में उन्होने फिके रंगो का प्रयोग किया है। इन
सभी कलाकृतियों में रेखाकंन और आकृति व सतह की बनावट का प्रयोग बड़ी कोमलता से किया
गया है।[16] सोमनाथ होर के
अनुसार ‘‘यह अत्यन्त वास्तविक और अवास्तविक दोनों है न
तो एक प्रेस और न ही प्लास्टर का साँचा इस प्रकार की विषय वस्तु उत्पन्न कर सकता
है जैसे कि पेपर लुगदी छापा करते है।‘‘ साक्ष्य के लिए इन प्रति उत्पादनों में गहरे
छेद, चटक और कटाव अत्यन्त सार्थक है जो निर्दोष
व्यक्तियों के घातक घावों को बिना किसी त्रुटि के प्रतिकात्मक रूप में व्यक्त करते
है। होर के अनूसार सफेद पेपर की लुगदी का ठोस आधार कोई समस्या उत्पन्न नहीं करता
है, बल्कि वह उसे एक नियंत्रित संयोजन के लिए
असीमित सम्भावनाएँ प्रस्तुत करता है।[17] सफेद समतल उभार व गहराई की ‘‘घाव‘‘ श्रृंखला के
पश्चात होर ने पेपर लुगदी पर कोलाज छापों का प्रयोग भी किया है जो इन नये माध्यम
में एक ओर दिशा जोड़ते है। कला क्षेत्र में योगदान सोमनाथ होर ने
अपने जीवन काल में कला के क्षेत्र में अनेक कार्य किये और उपलब्धियाँ हांसिल की
है। कला के क्षेत्र में योगदान देने के कारण आज भी उनको सम्मानपूर्वक याद किया
जाता है। उन्होने ग्राफिक कला के क्षेत्र में योगदान देकर इतिहास रच दिया। सोमनाथ
ने सन 1954 से 1958 तक इंडियन कॉलेज ऑफ आर्ट एंड ड्राफ्ट्समैनशिप, कोलकाता, में व्याख्याता
पद पर कार्य किया था। उसके बाद आपने सन 1966 में ललित कला संकाय, महाराजा
सयाजीराव विश्वविद्यालय, बड़ौदा के ग्राफिक कला विभाग में अतिथि
प्रोफेसर के रूप में कार्य किया था। सन 1958-1967 तक दिल्ली पॉलिटेक्निक ऑफ आर्ट, नई दिल्ली में
ग्राफिक कला संकाय के प्रमुख वरिष्ठ व्याख्याता के रूप में कार्य किया। सन 1958-1967 ललित कला संकाय, महाराजा सयाजीराव विश्वविद्यालय, बड़ौदा, के विजिटिंग
प्रोफेसर रहे। सन 1958-1969 के बीच कला भवन, शांतिनिकेतन
कोलकाता मे भी विजिटिंग प्रोफेसर के पद पर कार्य किया तथा यहीं पर सन 1969 ग्राफिक कला
विभाग के प्रमुख के रूप में भी कार्य किया। सन 1979 में समकालीन कलाकारों की सोसायटी, कोलकाता के
सदस्य रहे। सन 1979 एक प्रख्यात कलाकार के रूप में सामान्य परिषद, ललित कला अकादमी, नई दिल्ली के
निर्वाचित सदस्य के रूप में कार्य किया। सन 1984 में कला भवन, शांतिनिकेतन के प्रोफेसर एमेरिटस बने। सन 2006 में पश्चिम
बंगाल के शांतिनिकेतन में आपका निधन हो गया। पुरस्कार सोमनाथ होर ने
अपने जीवन काल में अनेको पुरस्कार और उपलब्धियाँ हांसिल की है। कला के क्षेत्र में
उनके इस योगदान ने उनको बहुत सम्मान दिलाया है। ग्राफिक कला के अलावा आपने
मूर्तिकला, चित्रकला आदि क्षेत्र में योगदान देकर भारतीय
कला इतिहास के पन्नो में सम्मानपूर्वक नाम दर्ज करवाया है। आपके द्वारा प्राप्त
किये गए प्रमुख पुरस्कारो में ‘‘राष्ट्रीय पुरस्कार‘‘ जो ललित कला
अकादमी, नई दिल्ली द्वारा आपको सन 1960, 1962, 1963 में प्रदान किया गया था। इसके बाद आपको सन 1977 में एल.एन. गुप्ता स्मृति पुरस्कार से
सम्मानित किया गया। सन 2007 में भारत सरकार द्वारा मरणोपरांत ‘‘पद्म भूषण‘‘ पुरस्कार से
सम्मानित किया गया, जो एक कलाकार के लिए बहुत सम्मान की बात है। प्रदर्शनीयां कलाकार सोमनाथ
द्वारा कला क्षेत्र में कार्य करने के साथ अनेक प्रदर्शनीयों का आयोजन किया। उनके
द्वारा प्रदर्शित प्रथम प्रदर्शनी सन 1973 में कुनिका-केमोल्ड गैलरी, नई दिल्ली में
आयोजित की गई। इसके बाद उन्होने अनेक प्रदर्शनीयों का आयोजन किया, जिनमें सन 1986 में ‘‘विजन्स‘‘ बिरला एकेडमी ऑफ
आर्ट एंड कल्चर, कोलकाता में, सन 1988 सिस्टास आर्ट गैलरी, बैंगलोर, में कला यात्रा
द्वारा आयोजित मूर्तियों और रेखाचित्र की प्रदर्शनी, सन 1991 में समकालीन कला की राष्ट्रीय प्रदर्शनी, नेशनल गैलरी ऑफ
मॉडर्न आर्ट, नई दिल्ली में, सन 1992 ‘‘घाव‘‘ नाम से सोमनाथ होरे की कांस्य मूर्तियाँ, चित्र और प्रिंट, सुख सागर, कोलकाता में
आयोजित प्रदर्शनी में प्रदर्शित किये गए। सन 1995 में अंतर्राष्ट्रीय आधुनिक कला केंद्र
(सीआईएमए) गैलरी, कोलकाता में, सन 1996 में चेस्टर और डेविड हर्टविट्ज़ संग्रह यूएसए, में समकालीन
भारतीय पेंटिंग, सन 1999 में एंगुइश एब्जॉब्र्ड, द विंडो, मुंबई मे
प्रदर्शित की। सन 1993 घाव, अंतर्राष्ट्रीय आधुनिक कला केंद्र (सीआईएमए)
गैलरी, कोलकाता और नेशनल गैलरी ऑफ मॉडर्न आर्ट (एनजीएमए), नई दिल्ली आदि। सन 2003 में वल्र्ड
ट्रेड सेंटर मुंबई और दिल्ली आर्ट गैलरी, नई दिल्ली द्वारा उनके लिए एक घोषणापत्र
आयोजित किया गया। सन 2004 में मैनिफेस्टो, दिल्ली आर्ट
गैलरी द्वारा जहांगीर आर्ट गैलरी, मुंबई और दिल्ली आर्ट गैलरी, नई दिल्ली में
आयोजित किया गया। सन 2007 में ‘‘सोमनाथ होर का जीवन और कला‘‘ नामक प्रोजेक्ट-88 को मुंबई में
तैयार किया गया। सन 2008 में ‘‘भारतीय स्वतंत्रता के साठ वर्ष‘‘ नाम से
अंतर्राष्ट्रीय आधुनिक कला केंद्र, कोलकाता में प्रदर्शनी का आयोजन किया गया। 2008 में ‘‘मॉडर्न रॉयल
कल्चरल सेंटर‘‘ अम्मान, में जॉर्डन ललित कला अकादमी, नई दिल्ली
द्वारा भारतीय दूतावास में अम्मान जॉर्डन के सहयोग से एक प्रदर्शनी का आयोजन किया
गया। इनके अलावा सन 2009 में ‘‘घाव‘‘ ऐकॉन गैलरी लंदन, 2009 में मॉडर्न
कंटीन्यूअस गैलरी कोलकाता में, 2010 में बॉम्बे आर्ट गैलरी मुंबई में, सन 2011 में ‘‘सोमनाथ होरे के
प्रिंट, ड्रॉइंग और पोस्टर‘‘ द सीगल आर्ट्स
एंड मीडिया रिसोर्स सेंटर, कोलकाता में तथा सन 2012 में ‘क्रॉसिंगः टाइम
अनफोल्डेड‘ नाम से ‘किरण नादर म्यूज़ियम ऑफ़ आर्ट‘ गैलेरी, नई दिल्ली आदि
स्थानो पर प्रदर्शनियों का आयोजन किया है। सन 2011 में सोमनाथ होर ने ‘बॉडीज डैथ मैटर‘ के नाम से आर्ट
हेरिटेज गैलेरी नई दिल्ली में अपनी कलाकृतियों को प्रदर्शीत किया। इस प्रकार
सोमनाथ होर ने अनेको प्रदर्शनीयों का आयोजन करके भारतीय ग्राफिक कला के क्षेत्र
में गहरी छाप छौड़ी है और कला प्रेमियों को अपनी कला से अवगत करवाया है। सार्वजनिक संग्रह
सोमनाथ द्वारा बनाई गई कलाकृतियाँ राष्ट्रीय और
अंतराष्ट्रीय स्तर पर कला के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण योगदान रखती है। आज चाहे वो
दुनियां में नहीं हो, परन्तु उनके द्वारा किया गया कला कार्य उनकी हमेशा याद दिलाता रहेगा। आपके द्वारा
निर्मित कलाकृतियों में आप आज भी जीवित है। वर्तमान समय में कलाप्रेमियों ने उनकी
कलाकृतियों को बहुत से सरकारी और निजी संग्राहलयों में संग्रहित कर रखा है। आपकी
कलाकृतियों का संग्रह करने वाले संग्रहालयों में ललित कला अकादमी, नई दिल्ली, नेशनल गैलरी ऑफ़ मॉडर्न
आर्ट, नई दिल्ली, भारत सरकार के शिक्षा
मंत्रालय, बहाई संग्रहालय, बहाई, दिल्ली आर्ट गैलरी, नई दिल्ली, आदि के अलावा भारत और
विदेशों के विभिन्न राजकीय व निजी संग्रह आदि में संग्रहित है।
|
||||||
निष्कर्ष |
आधुनिक समय की इस उथल-पुथल भरी दुनिया में कलाकारों ने कठिन में हनत और परिश्रम से अपनी कलाभिव्यक्ति का चिंतन कर अपने सौन्दर्यपूर्ण विचारों को पूरी लग्न के साथ प्रस्तुत करके कला की नई-नई शैलियों को जागृत करने में सफल रहें है। कलाकार अपनी शैलियों को जागृत करके अपनी कला को सम्पूर्ण अभिव्यक्ति देने में जुटे है। वर्तमान कलाकार प्राचीन विषयगत बन्धनों से मुक्त होकर नये-नये आधार और माध्यमों का प्रयोग करके निरन्तर बदलाव और नवीनता लाने के प्रयासो में जुटे रहे है। वर्तमान समय में ग्राफिक कला के क्षेत्र में नये-नये प्रयोग होते ही रहते है। ऐसे ही ग्राफिक कलाकार थे सोमनाथ होर जिन्होने कई ऐसे प्रयोगो के माध्यम से अपने कार्य को विकसित करने में लगे रहे थे। उन्होने ग्राफिक कला के अलावा अन्य विद्याओं में भी प्रयोग किए और कला के क्षेत्र में सफलता हांसिल की। वर्तमान समय में उनकी कलाकृतियाँ आधुनिकता का परिचय देती है। कला के प्रारम्भिक दौर को देखे तो यह बात तो पूर्ण स्पष्ट हो जाती है कि कलाकार अपने आस-पास के दृश्य जगत को प्राथमिकता देकर उसे ही अपनी कलाकृतियों में चित्रित करता आया है। कला के क्षेत्र में सोमनाथ होर ने बखूबी सफलता प्राप्त की है। जहाँ कलाकारों के दृश्य यर्थाथ के भीतर छिपे वस्तुनिरपेक्ष गुणधर्मो को पहचान कर उनके आंतरिक अमूर्त सोन्दर्य को स्वीकार किया है, वही सोमनाथ होर ने सामाजिक जीवन और अपने आस-पास की गरीबी और दुःख से भरे वातावरण को अपनी कलाकृतियों में स्थान दिया है। उन्होने अपनी कलाकृतियों में अधिकतर शान्त, दुःख और गरीबी के आघात से भरी दुनिया को चित्रित किया है, परन्तु सामाजिक वातावरण के अलावा स्वयं के नये प्रयोगो द्वारा अपनी कलाकृतियों में काल्पनिक अभिव्यक्ति को प्रमुख स्थान देकर कला निर्मिती की है। आपकी कलाकृतियाँ आधुनिक कला के क्षेत्र में विशेष पहचान रखती है। आपकी कला ने केवल भारत में ही नही बल्की विदेशो में भी अपनी पहचान कायम की और सफलता हांसिल की है। आपने भविष्य में आने वाले कलाकारों के लिए सृजनात्मकता के क्षेत्र में नये रास्ते दिखाए है। जिससे नये कलाकार आपकी कला से प्रभावित होकर स्वतंत्र रूप से कला सृजन कर रहें है। |
||||||
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1. Wikipedia.com
2. https://jnaf.org/artist/somnath-hore/
3. https://dagworld.com/artists/somnath-hore/
4. कुमार, डॉ. सुनील . भारतीय छापाकला, भारतीय कला प्रकाशन, दिल्ली, 2000, पृ. स. - 15
5. सिन्हा, गायत्री. प्रिंट में ट्रांजिशन, पैलेट आर्ट गैलरी प्रकाशन, दिल्ली, 2007, पृ. स. - 7
6. कुमार, डॉ. सुनील . भारतीय छापाकला, भारतीय कला प्रकाशन, दिल्ली, 2000, पृ. स. - 76
7. कुमार, डॉ. सुनील . भारतीय छापाकला, भारतीय कला प्रकाशन, दिल्ली, 2000, पृ. स. - 76
8. Jaya Appaswamy, Contemporary Magazine–11, The Graphic art of Somenath Hore, Lalit Kala Academy, New Delhi, P. No. 29
9. Kali Biswas, Contemporary Magazine –18, Lalit Kala Academy, New Delhi, P. No. 42
10. Kali Biswas, Contemporary Magazine–18, Lalit Kala Academy, New Delhi, P. No. 43
11. Kali Biswas, Contemporary Magazine–18, Lalit Kala Academy, New Delhi, P.No. 42
12. Jaya Appaswamy, Contemporary Magazine–11, The Graphic art of Somenath Hore, Lalit Kala
Academy, New Delhi, P. No. 29
13. Kali Biswas, Contemporary Magazine–18, Lalit Kala Academy, New Delhi, P.No. 42
14. Ananda, Das Gupta, Indian Printmaking Today, Jehangir Art Gallery, Bombay, 1985, P.No. 90
15. कुमार, डॉ. सुनील . भारतीय छापाकला, भारतीय कला प्रकाशन, दिल्ली, 2000, पृ. स.-76
16. Jaya Appaswamy, Contemporary Magazine–11, The Graphic art of Somenath Hore, Lalit Kala Academy, New Delhi, P.No. 30
17. Kali Biswas, Magazine Contemporary–18, Lalit Kala Academy, New Delhi, P.No. 42 |