P: ISSN No. 2321-290X RNI No.  UPBIL/2013/55327 VOL.- IX , ISSUE- X June  - 2022
E: ISSN No. 2349-980X Shrinkhla Ek Shodhparak Vaicharik Patrika
आध्यात्मिक जीवन पद्धति में श्रद्धा--श्रीमद्भगवद्गीता के परिप्रेक्ष्य में
Faith in the Spiritual Way of Life - In the Perspective of Shrimad Bhagavad Gita
Paper Id :  16138   Submission Date :  2022-06-09   Acceptance Date :  2022-06-14   Publication Date :  2022-06-25
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आराधना वर्मा
एसोसिएट प्रोफेसर
संस्कृत विभाग
केशव प्रसाद मिश्र राजकीय महिला महाविद्यालय
औराई, भदोही,उत्तर प्रदेश, भारत
सारांश
अनन्त ज्ञान एवं नित्य नवीन व्याख्याओं को अपने में समाहित किये हुए श्रीमद्भगवद्गीता मानव जीवन को सुख एवं शान्ति प्रदान करने वाली दिग्दर्शिका है। इसी परिप्रेक्ष्य में मनुष्य का आध्यात्मिक जीवन-पद्धति को व्याख्यायित करती हुई ‘गीता’ में ‘श्रद्धा’ के महत्व को विशेष रुप से प्रतिपादित किया गया है। वर्तमान काल में जब संसार विभिन्न उद्वेगों से व्यथित है, तब इस आध्यात्मिक जीवन-पद्धति को अपनाकर सर्वजनसुखाय की भावना से आप्यायित होकर मनुष्य परम पुरुषार्थ की ओर अग्रसर हो सकता है। आध्यात्मिक उन्नति प्राप्त करते हुए स्वंय सुख का अनुभव करने के साथ ही समाज की उन्नति एवं सुख में सहायक होता है।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Shrimad Bhagvad Gita is a guide to provide happiness and peace to human life, having infinite knowledge and constantly new interpretations in it. In this context, while explaining the spiritual way of life of man, the importance of 'Shraddha' has been specially propounded in 'Gita'. In the present times, when the world is troubled by various aggravations, then by adopting this spiritual way of life, one can move towards the supreme purushartha, being filled with the feeling of the happiness of all. While achieving spiritual progress, along with experiencing happiness in itself, it helps in the progress and happiness of the society.
मुख्य शब्द लौकिक, पारलौकिक, श्रद्धा, सर्वजनहिताय, सर्वजनसुखाय, प्रबल अनुभूति, निकृष्ट, निषिद्ध, सत्कर्मो, महत्वाकांक्षाओं, श्रेयस्कर, कर्मबन्धन, क्षणिक, आध्यात्मिक।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Worldly, Transcendental, Reverent, All-Public, Universal-Pleasure, Strong Feeling, Inferior, Forbidden, Good Deeds, Ambitions, Preferable, Karmic Bondage, Momentary, Spiritual.
प्रस्तावना
वैदकि ज्ञान का रहस्योद्घाटन करती हुई लौकिक एवं पारलौकिक ज्ञान की असीमित स्रोत श्रीमद्भगवद्गीता सांसारिक मनुष्यों के लिये परम पुरुषार्थ मोक्ष के द्वार स्वरुप है। मनुष्य के जीवन से जुड़े विभिन्न विषयों पर गीता का ज्ञान पाथेय की भॉति समय-समय पर उर्जस्वित करता रहता है। इसी परिप्रेक्ष्य में मनुष्य जाति की आध्यात्मिक जीवन-पद्धति किस प्रकार की होनी चाहिए और उसमें श्रद्धा का क्या स्थान है? इस विषय पर गीता में विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है। ‘अध्यात्म’ (अधि+आत्मा )शब्द का अर्थ है - ‘आत्मा में’ । ‘आत्मा में’ अर्थात् स्वंय के विषय में अध्ययनरत रहना ही अध्यात्म है। गीता के आठवे अध्याय में अर्जुन द्वारा भगवान श्रीकृष्ण से ‘अध्यात्म’ के विषय में पूछे जाने पर भगवान् कहते हैं- ‘स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते’ (8/3) अर्थात् ‘स्वभाव’ ही अध्यात्म है। वासुदेवशरण अग्रवाल गीता नवनीत में लिखते हैं- ‘‘जो अपना भाव अर्थात् प्रत्येक जीव की एक-एक शरीर में पृथक्-पृथक् सत्ता है, वही ’अध्यात्म’ है।’’[1] इसी प्रकार वृहदारण्यक उपनिषद्[2] में भी अध्यात्मक की व्याख्या की गयी है, जिसका तात्पर्य ‘स्व’ से ही है। डॉ0 राधकृष्णनन् ‘अध्यात्म’ की व्याख्या करते हुए कहते हैं- ‘‘यह ब्रह्म की प्रावस्था है, जो वैयक्तिक बनती है।’’[3]
अध्ययन का उद्देश्य
वर्तमान काल मे जब प्रगतिशील जीवन की व्याख्याएं निरन्तर परिवर्तित होती जा रही हैं और नैतिक मूल्यों का पतन अपने चरम पर है। भौतिक संसाधनों से सम्पन्न होते हुए भी व्यक्ति दुखी एवं अशान्त अनुभव कर रहा है। ऐसे समय में भारतीय संस्कृति के अनुरुप आध्यात्मिक जीवन पद्धति को भली भांति जानकर अपने जीवन में आत्मसात करने का प्रयास करना चाहिये। जिससे सुख एवं शांति को प्राप्त करते हुए आनंदानुभूति की ओर अग्रसर हो सके।
साहित्यावलोकन

प्रस्तुत विषय पर किये गए अध्ययनों में  'श्रद्धा', स्वामी रामस्वरूप, (2018), 'आध्यात्मिकता से एकता एवं समन्वय' डॉ निरंजन मोहनलाल व्यास  मई (2018), 'जीवन के समग्र विकास में यज्ञ की भूमिका-वैदिक वाङ्गमय के परिप्रेक्ष्य में' इन्द्राणी  त्रिवेदी व सरस्वती देवी (मई 2019) एवं 'वैदिक संस्कृति में यज्ञ- एक समग्र जीवन दर्शन एवं साधना पथ' सुखनंदन सिंह (दिसम्बर 2019) प्रमुख हैं

मुख्य पाठ

इस प्रकार ‘अध्यात्म’ अर्थात् ‘स्व’ के विषय में निरन्तर ज्ञान प्राप्त करते रहनाउसका विश्लेषण करनातत्पश्चात् दुर्गुणों से मुक्ति पाते हुए सद्गुणों की ओर उन्मुख होते रहना ही आध्यात्मिक जीवन है। इस आध्यात्मिक जीवन में श्रद्धा का होना अति आवश्यक है। 
श्रद्धा’ शब्द (श्रत्$धा ) श्रत् अर्थात् ‘सत्य’ को धारण करना । यहाँ श्रत् विशेषण है। गीता में वर्णित है- 

‘‘श्रद्धामयोऽयं पुरुषःयो यच्छ्ऋद्वः सः एवं सः’’। (17/3)

अर्थात् श्रद्धा व्यक्ति के स्वभाव के अनुसार ही होती हैजैसा स्वभाव होता हैवैसी ही श्रद्धा होती है। यही ‘सत्य को धारण करना’ कहलाता है और यही ‘श्रद्धा’ है। इस प्रकार सभी व्यक्ति ‘ श्रद्धामय’ हैं और प्रत्येक व्यक्ति का स्वरुप उसकी श्रद्धा के अनुरुप होता है अथवा व्यक्ति के अनुरुप श्रद्धा होती है। दोनो ही सत्य हैं। 
श्रीमद्भगवद्गीता के सत्रहवें अध्याय में तीन प्रकार की श्रद्धा बतायी गयी हैजो पूर्ण रुपेण गुणों (अर्थात् सत्त्वरज एवं तम ) पर आश्रित है। इसलिये इन्हें सात्विकराजसिक एवं तामसिक ‘श्रद्धा’ कहा गया है।[4] ये तीनों प्रकार के गुण भाव स्वरुप हैंजिनसे युक्त होकर व्यक्ति सांसारिक क्रियाकलापों रुपी धर्म एवं व्यवहार को धारण करता है। गीता के चौदहवें अध्याय में तीनों गुणों का लक्षण[5] विस्तार पूर्वक वर्णित हैं। जिसके अनुसार सत्वगुण प्रकाशक एवं दोषरहित हैजो व्यक्ति को सुख एवं ज्ञान से संयुक्त करता है। रजोगुण रागात्मक होने के कारण अनन्त अभिलाषाओं के प्रति आसक्त रहता है। तमोगुण व्यक्ति को विवेकरहित बनाता हुआ प्रमाद एवं आलस्य से संयुक्त करता है। तात्पर्य यह हैकि प्रकृति के त्रिगुणात्मक होन के कारण उक्त जिन गुणों की अधिकता अथवा प्रधानता जिस व्यक्ति में होती हैवह वैसे ही भाव को धारण करता है एवं उसी प्रकार की श्रद्धा से युक्त व्यक्ति की जीवन-पद्धति  होती है। 
भगवान् श्रीकृष्ण स्पष्ट रुप से कहते है कि व्यक्ति की श्रद्धा के अनुरुप ही उस व्यक्ति का स्वरुप होता है- ‘‘सत्त्वानुरुपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत।’’ (17/3)
मनुष्य के विचार ही उसे व्यवहार प्रदान करते है। अतः मनुष्य जिस विचार अथवा भाव का चिन्तन मनन निरन्तर करता हैउसी विचार के प्रति उसकी श्रद्धा होती है और उसी श्रद्धा में प्रभु उसे स्थिर कर देते हैं।[6] तत्पश्चात् वही उसके लौकिक व्यवहार में प्रकट होता है। इसलिए वैदिक ऋषियों के द्वारा की गयी प्रार्थनाओं में
विचार शुद्धि पर विशेष बल दिया गया हैं। अथर्ववेद में उत्तम ज्ञान प्राप्त करते हुए दिव्य मन से युक्त होने की प्रार्थना की गयी है- 

‘‘सं जानामहै मनसा सं चिकित्वा

म युष्महि मनसा दैव्येन’’ । (7/52/2)

इसी प्रकार एक अन्य स्थल[7] पर दुर्भावना आदि कुविचारों से पृथक् करने की प्रार्थना की गयी है। 
हमारे विचार ही हमारे आध्यात्मिक जीवन-पद्धति के आधार हैं। ये विचार यदि सतोगुण प्रधान होगें तो निश्चित रुप से व्यक्ति का अध्यात्मिक जीवन प्रबल होगा एवं जीवन में सुख की अनुभूति होगी । सुख के होने से अधिक महत्वपूर्ण है ‘सुख की अनुभूति का होना। क्योंकि सुख-दुख परिवर्तनशील हैं। 
आध्यात्मिक जीवन-पद्धति  में उपर्युक्त तीनों प्रकार की श्रद्धा (सत्वरजतम) से युक्त व्यक्ति अपनी श्रद्धा के अनुरुप ही पूजन कार्य सम्पन्न करता है। भगवान् श्रीकृष्ण कहते है- सत्वगुण प्रधान व्यक्ति देवताओं का यजन करते हैं। रजोगुण प्रधान व्यक्ति यक्ष एवं राक्षसों तथा तमोगुण प्रधान व्यक्ति प्रतादि का यजन करते हैं।[8] तात्पर्य यह हैकि सतोगुणी व्यक्ति की श्रद्धा भी सत्वगुण युक्त देवताअेंउनके सत्कर्मों एवं दैवीगुणोन्मुखी होती हैं। रजोगुणी व्यक्ति की श्रद्धा अपनी सांसारिक महत्वाकांक्षाओं के प्रति होती है। जिसके कारण निरन्तर अपनी अभिलाषाओं को पूर्ण करने वाले कर्मों में संलग्न रहते हैं। इसके लिये वे यक्ष एवं राक्षसों का यजन करते हैं। तमोगुणी व्यक्ति निकृष्ट एवं निषिद्ध कर्मों में रत रहते हैं और इसके लिये प्रेतादि शक्तियों की उपासना करते हैं। 
इसी प्रकार गुणों की अनुरुप ही भोजनयज्ञतप और दान में भी त्रिविध श्रद्धा मनुष्यों में देखने को मिलती है।[9] सात्विक मनुष्य को आयुसत्वबलआरोग्यसुख और प्रीति को वर्द्धित करने वाले रसपूर्णस्निग्ध आहार प्रिय होतें हैं।[10] राजसिक मनुष्य को कड़वे खट्ठेनमकीनअत्यन्त गर्मरुखेदाहकता उत्पन्न करने वालेदुख रोगादि उत्पन्न करने वाले भोजन प्रिय होते हैं।[11] तामसिक मनुष्यों को यातयाम (घन्टे पूर्व)रसहीनबासीजूठादुर्गन्ध से युक्त भोजन प्रिय होता हैं।[12] यातयाम का अर्थ है तीन घण्टे पूर्व अर्थात् तीन घण्टे पहले बना भोजन तामसिक की श्रेणी में आता है। यह इसलिये भी कहा गया हैकि तीन घण्टे पहले बना भोजन ठण्डा हो जाता है और पुनः गर्म किया जायतो वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी ठीक नहीं हैक्योंकि भोजन को बार-बार गर्म करने से उसके पौष्टिक तत्व नष्ट हो जाते हैं। 
       त्रिविध श्रद्धा के अनुरुप ही मनुष्यों के जीवन में किया जाने वाला यज्ञ भी तीन प्रकार का है। ‘यज्ञ’ का अर्थ शुभ कर्मों से हैं- ‘यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म’ (यजुर्वेद)। अर्थात ‘स्वार्थरहित होकर किया गया कर्म’ जो ‘सर्वजनहिताय’ एवं सर्वजसुखाय’ हो। ऐसे कर्म कर्म-बन्धन से मुक्त करते हैं।[13] इसके विपरित यज्ञ के लिये किये गये कर्म से अन्य कर्म में संलग्न व्यक्ति कर्म -बन्धन से युक्त होता है- 
       ‘यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः। (गीता 3/9) फल की आकांक्षा से रहित शास्त्रोक्त विधिपूर्वक स्वयं का कर्त्तव्य मानते हुए किये जाने वाला कर्म ही सात्विक यज्ञ हैं।[14] जबकि राजस यज्ञ व्यक्तिगत फल की कामना से दम्मार्थ अर्थात् प्रदर्शन हेतु किया जाता है।[15] शास्त्रोक्त विधिरहितअन्नदान विरहितमंत्ररहितदक्षिणारहित एवं श्रद्धारहित जो यज्ञ होता हैवह तामस यज्ञ की श्रेण में आता है।[16] 
उपर्युक्त तीनों प्रकार के यज्ञों में सात्विक यज्ञ ही आध्यात्मिक जीवन पद्धति के योग्य हैक्योंकि उसमें ही सर्वजनसुखाय की भावना निहित है। अन्य दोनों यज्ञों में न तो समाज और न ही व्यक्तिगत सुख शान्ति की प्राप्ति होती है। इसी प्रकार तप भी त्रिगुणों के अनुरुप तीन प्रकार का है। इसके साथ ही तप करने के तीन माध्यमों को वर्णित किया गया है। जिसके अनुसार तपाचरण शरीरवाणि एवं मन से किया जाता है। 
       देवद्विजगुरु ज्ञानियों का पूजनशुद्धतासरलताब्रह्मचर्य एवं अहिंसा शारीरिक तप की श्रेणी में आते हैं।[17] उद्वेगरहित , सत्यप्रियहितकारी एवं स्वाध्याय के अभ्यास में निरन्तर जिस वाणी का प्रयोग होता हैवह वाणी तप है।[18] मन की प्रसन्नतासौम्यत्वमौनआत्मसंयम आदि मानस तप के अन्तर्गत आते हैं।[19] 
उपर्युक्त तीनो प्रकार के तप सात्विक तप कहे गये हैं। इसके साथ ही सतोगुणी पुरुष आकांक्षारहित होकर पूर्णरुपेण श्रद्धा के साथ अपने जीवन में तप का आचरण करता है।[20]  परन्तु रजोगुणी पुरुष उपर्युक्त तीनो माध्यमों से किये जाने वाले तप को मान-सम्मान की लालसावश प्रदर्शन के लिये अनिश्चित एवं क्षणिक रुप से ही करता है।[21] अतः इससे प्राप्त फल भी क्षणिक ही होते हैं। भगवान श्रीकृष्ण तामस तपाचरण के विषय में बताते हुए कहते हैंकि मूर्खता के कारण स्वयं को कष्ट देते हुए किसी अन्य के अनिष्ट के लिये किया गया तपाचरण तामस तप है।[22] मूर्खता से तात्पर्य शास्त्रोक्त विधि का सम्यक ज्ञान न होना एवं प्रयोजन का भी द्वेषपूर्ण होना है। किसी अन्य को पीड़ा पहुँचाने में सर्वप्रथम वह पीड़ा किसी न किसी रुप में स्वयं के अन्दर उत्पन्न होती हैक्योंकि व्यक्ति वही दे सकता हैजो उसके पास हैं। ऐसे प्रयोजन निकृष्ट की श्रेणी में आते है और ऐसे तपाचरण का न होना ही श्रेयस्कर है।
इसी प्रकार अपना कर्तव्य समझते हुए उपकार के बदले उपकार की अपेक्षा से रहित योग्यपात्र को दिया गया दान सात्विक दान की श्रेणी में है।[23] योग्यपात्र से तात्पर्य उस व्यक्ति से हैजिसे दान की सर्वाधिक आवश्यकता है और जो उस दिये गये दान का उपयोग अच्छे कार्यों में करे। इसके विपरीत उपकार की अपेक्षा रखते हुए दुखी मन से दिया गया दान राजसिक दान माना गया है।[24] सबसे निकृष्ट श्रेणी का दान जो तिरस्कार के साथगलत कार्यों में संलग्न (जैसे-अपराधीचोरमद्यपान करने वाले) व्यक्ति को दिया जाये। ऐसा दान तामसिक दान माना गया हैं।[25]

निष्कर्ष
इस प्रकार गीता में वर्णित त्रिविध श्रद्धा के स्वरुप को देखते हुए निश्चित रुप से कहा जा सकता है कि आध्यात्मिक जीवन-पद्धति के लिये सतोगुण प्रधान श्रद्धा को धारण करना चाहिए। सात्विक श्रद्धा के अनुरुप ही देवताओं का पूजन, भोजन, यज्ञ,तप एवं दान करना चाहिए। श्रद्धारहित यज्ञ, तप एवं दान को ‘असत’् कहा गया है।26 अपनी आध्यात्मिक उन्नति के लिये मनुष्य को सात्विक श्रद्धा की ओर उन्मुख होने का निरन्तर प्रयास करते रहना चाहिए । निरन्तर किया गया प्रयास ही बाद में स्वभाव बन जाता हैं। गीता में भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं- ‘सत्त्वं सुखे संजयति’ (14/9) सुखसंगेन बध्नाति ज्ञानसंगेन चानघ (14/6) सत्व गुण ही मनुष्य को सुख एवं ज्ञान में संयुक्त करता है। इस प्रकार सात्विक श्रद्धा से परिपूर्ण जीवन ही आध्यात्मिक जीवन है।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. गीता नवनीत (पृष्ठ 55) 2. वृहदारण्यक उपनिषद् (2/3/4) 3. श्रीमदभगवद्गीता - डॉ0 राधाकृष्णनन् (पृ0 207) 4. त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा। सात्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां शृणु।। (गीता 17/2) 5. तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात्प्रकाशकमनायम्। सुखसंगेन बध्नाति ज्ञानसंगेन चानघ।। रजो रागात्मक विद्धि तृष्णासंगसमुद्भवम्। तन्निबध्नाति कौन्तेय कर्मसंगेन देहिनम्।। तमस्त्व ज्ञानजं विद्धि मोहनं सर्वदेहिनाम्। प्रमादलस्यनिद्राभिस्तन्निबध्नाति भारत ।। (गीता 14/6,7,8) 6. यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति। तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम्।। (वही 7/21) 7. श्रेष्ठो .....................................................................। ...... स्वस्ति विश्वा अभीतिरपसो युयोधि । (अथर्ववेद2/33/3) 8. यजन्ते सात्विका देवान्यक्षरक्षांसि राजसाः। प्रेतान्भूतगणंाश्चान्ये यजन्ते तामसा जनाः।। (गीता 17/4) 9. आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रियः। यज्ञस्तपस्तथा दानं तेषां भेदमिमं शृणु।। (वही 17/7) 10. वही (17/8) 11. वही (17/9) 12. वही (17/10) 13. गतसंगस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः। यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते।। (वही 4/23) 14. वही (17/11) 15. वही (17/12) 16. वही (17/13) 17. वही (17/14) 18. वही (17/15) 19. वही (17/16)