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आध्यात्मिक जीवन पद्धति में श्रद्धा--श्रीमद्भगवद्गीता के परिप्रेक्ष्य में | |||||||
Faith in the Spiritual Way of Life - In the Perspective of Shrimad Bhagavad Gita | |||||||
Paper Id :
16138 Submission Date :
2022-06-09 Acceptance Date :
2022-06-14 Publication Date :
2022-06-25
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सारांश |
अनन्त ज्ञान एवं नित्य नवीन व्याख्याओं को अपने में समाहित किये हुए श्रीमद्भगवद्गीता मानव जीवन को सुख एवं शान्ति प्रदान करने वाली दिग्दर्शिका है। इसी परिप्रेक्ष्य में मनुष्य का आध्यात्मिक जीवन-पद्धति को व्याख्यायित करती हुई ‘गीता’ में ‘श्रद्धा’ के महत्व को विशेष रुप से प्रतिपादित किया गया है। वर्तमान काल में जब संसार विभिन्न उद्वेगों से व्यथित है, तब इस आध्यात्मिक जीवन-पद्धति को अपनाकर सर्वजनसुखाय की भावना से आप्यायित होकर मनुष्य परम पुरुषार्थ की ओर अग्रसर हो सकता है। आध्यात्मिक उन्नति प्राप्त करते हुए स्वंय सुख का अनुभव करने के साथ ही समाज की उन्नति एवं सुख में सहायक होता है।
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | Shrimad Bhagvad Gita is a guide to provide happiness and peace to human life, having infinite knowledge and constantly new interpretations in it. In this context, while explaining the spiritual way of life of man, the importance of 'Shraddha' has been specially propounded in 'Gita'. In the present times, when the world is troubled by various aggravations, then by adopting this spiritual way of life, one can move towards the supreme purushartha, being filled with the feeling of the happiness of all. While achieving spiritual progress, along with experiencing happiness in itself, it helps in the progress and happiness of the society. | ||||||
मुख्य शब्द | लौकिक, पारलौकिक, श्रद्धा, सर्वजनहिताय, सर्वजनसुखाय, प्रबल अनुभूति, निकृष्ट, निषिद्ध, सत्कर्मो, महत्वाकांक्षाओं, श्रेयस्कर, कर्मबन्धन, क्षणिक, आध्यात्मिक। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Worldly, Transcendental, Reverent, All-Public, Universal-Pleasure, Strong Feeling, Inferior, Forbidden, Good Deeds, Ambitions, Preferable, Karmic Bondage, Momentary, Spiritual. | ||||||
प्रस्तावना |
वैदकि ज्ञान का रहस्योद्घाटन करती हुई लौकिक एवं पारलौकिक ज्ञान की असीमित स्रोत श्रीमद्भगवद्गीता सांसारिक मनुष्यों के लिये परम पुरुषार्थ मोक्ष के द्वार स्वरुप है। मनुष्य के जीवन से जुड़े विभिन्न विषयों पर गीता का ज्ञान पाथेय की भॉति समय-समय पर उर्जस्वित करता रहता है। इसी परिप्रेक्ष्य में मनुष्य जाति की आध्यात्मिक जीवन-पद्धति किस प्रकार की होनी चाहिए और उसमें श्रद्धा का क्या स्थान है? इस विषय पर गीता में विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है।
‘अध्यात्म’ (अधि+आत्मा )शब्द का अर्थ है - ‘आत्मा में’ । ‘आत्मा में’ अर्थात् स्वंय के विषय में अध्ययनरत रहना ही अध्यात्म है। गीता के आठवे अध्याय में अर्जुन द्वारा भगवान श्रीकृष्ण से ‘अध्यात्म’ के विषय में पूछे जाने पर भगवान् कहते हैं- ‘स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते’ (8/3)
अर्थात् ‘स्वभाव’ ही अध्यात्म है। वासुदेवशरण अग्रवाल गीता नवनीत में लिखते हैं-
‘‘जो अपना भाव अर्थात् प्रत्येक जीव की एक-एक शरीर में पृथक्-पृथक् सत्ता है, वही ’अध्यात्म’ है।’’[1] इसी प्रकार वृहदारण्यक उपनिषद्[2] में भी अध्यात्मक की व्याख्या की गयी है, जिसका तात्पर्य ‘स्व’ से ही है। डॉ0 राधकृष्णनन् ‘अध्यात्म’ की व्याख्या करते हुए कहते हैं- ‘‘यह ब्रह्म की प्रावस्था है, जो वैयक्तिक बनती है।’’[3]
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अध्ययन का उद्देश्य | वर्तमान काल मे जब प्रगतिशील जीवन की व्याख्याएं निरन्तर परिवर्तित होती जा रही हैं और नैतिक मूल्यों का पतन अपने चरम पर है। भौतिक संसाधनों से सम्पन्न होते हुए भी व्यक्ति दुखी एवं अशान्त अनुभव कर रहा है। ऐसे समय में भारतीय संस्कृति के अनुरुप आध्यात्मिक जीवन पद्धति को भली भांति जानकर अपने जीवन में आत्मसात करने का प्रयास करना चाहिये। जिससे सुख एवं शांति को प्राप्त करते हुए आनंदानुभूति की ओर अग्रसर हो सके। |
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साहित्यावलोकन | प्रस्तुत विषय पर किये गए अध्ययनों में 'श्रद्धा', स्वामी रामस्वरूप, (2018), 'आध्यात्मिकता से एकता एवं समन्वय' डॉ निरंजन मोहनलाल व्यास मई (2018), 'जीवन के समग्र विकास में यज्ञ की भूमिका-वैदिक वाङ्गमय के परिप्रेक्ष्य में' इन्द्राणी त्रिवेदी व सरस्वती देवी (मई 2019) एवं 'वैदिक संस्कृति में यज्ञ- एक समग्र जीवन दर्शन एवं साधना पथ' सुखनंदन सिंह (दिसम्बर 2019) प्रमुख हैं। |
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मुख्य पाठ |
इस प्रकार ‘अध्यात्म’ अर्थात् ‘स्व’ के
विषय में निरन्तर ज्ञान प्राप्त करते रहना, उसका विश्लेषण
करना, तत्पश्चात् दुर्गुणों से मुक्ति पाते हुए
सद्गुणों की ओर उन्मुख होते रहना ही आध्यात्मिक जीवन है। इस आध्यात्मिक जीवन में
श्रद्धा का होना अति आवश्यक है। ‘‘श्रद्धामयोऽयं पुरुषः, यो यच्छ्ऋद्वः सः एवं सः’’। (17/3) अर्थात् श्रद्धा व्यक्ति के स्वभाव के अनुसार
ही होती है, जैसा स्वभाव होता है, वैसी ही श्रद्धा होती है।
यही ‘सत्य को धारण करना’ कहलाता
है और यही ‘श्रद्धा’ है। इस
प्रकार सभी व्यक्ति ‘ श्रद्धामय’ हैं और प्रत्येक व्यक्ति का स्वरुप उसकी श्रद्धा के अनुरुप होता है अथवा
व्यक्ति के अनुरुप श्रद्धा होती है। दोनो ही सत्य हैं। ‘‘सं जानामहै मनसा सं चिकित्वा म युष्महि मनसा दैव्येन’’ । (7/52/2) इसी प्रकार एक अन्य स्थल[7] पर
दुर्भावना आदि कुविचारों से पृथक् करने की प्रार्थना की गयी है। |
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निष्कर्ष |
इस प्रकार गीता में वर्णित त्रिविध श्रद्धा के स्वरुप को देखते हुए निश्चित रुप से कहा जा सकता है कि आध्यात्मिक जीवन-पद्धति के लिये सतोगुण प्रधान श्रद्धा को धारण करना चाहिए। सात्विक श्रद्धा के अनुरुप ही देवताओं का पूजन, भोजन, यज्ञ,तप एवं दान करना चाहिए। श्रद्धारहित यज्ञ, तप एवं दान को ‘असत’् कहा गया है।26 अपनी आध्यात्मिक उन्नति के लिये मनुष्य को सात्विक श्रद्धा की ओर उन्मुख होने का निरन्तर प्रयास करते रहना चाहिए । निरन्तर किया गया प्रयास ही बाद में स्वभाव बन जाता हैं। गीता में भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं-
‘सत्त्वं सुखे संजयति’ (14/9)
सुखसंगेन बध्नाति ज्ञानसंगेन चानघ (14/6)
सत्व गुण ही मनुष्य को सुख एवं ज्ञान में संयुक्त करता है। इस प्रकार सात्विक श्रद्धा से परिपूर्ण जीवन ही आध्यात्मिक जीवन है। |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1. गीता नवनीत (पृष्ठ 55)
2. वृहदारण्यक उपनिषद् (2/3/4)
3. श्रीमदभगवद्गीता - डॉ0 राधाकृष्णनन् (पृ0 207)
4. त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा।
सात्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां शृणु।। (गीता 17/2)
5. तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात्प्रकाशकमनायम्।
सुखसंगेन बध्नाति ज्ञानसंगेन चानघ।।
रजो रागात्मक विद्धि तृष्णासंगसमुद्भवम्।
तन्निबध्नाति कौन्तेय कर्मसंगेन देहिनम्।।
तमस्त्व ज्ञानजं विद्धि मोहनं सर्वदेहिनाम्।
प्रमादलस्यनिद्राभिस्तन्निबध्नाति भारत ।। (गीता 14/6,7,8)
6. यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति।
तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम्।। (वही 7/21)
7. श्रेष्ठो .....................................................................।
...... स्वस्ति विश्वा अभीतिरपसो युयोधि । (अथर्ववेद2/33/3)
8. यजन्ते सात्विका देवान्यक्षरक्षांसि राजसाः।
प्रेतान्भूतगणंाश्चान्ये यजन्ते तामसा जनाः।। (गीता 17/4)
9. आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रियः।
यज्ञस्तपस्तथा दानं तेषां भेदमिमं शृणु।। (वही 17/7)
10. वही (17/8)
11. वही (17/9)
12. वही (17/10)
13. गतसंगस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः।
यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते।। (वही 4/23)
14. वही (17/11)
15. वही (17/12)
16. वही (17/13)
17. वही (17/14)
18. वही (17/15)
19. वही (17/16) |