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पर्यावरण अवनयन की अवधारणा | |||||||
Concept of Environmental Degradation | |||||||
Paper Id :
16215 Submission Date :
2022-04-24 Acceptance Date :
2022-06-17 Publication Date :
2022-06-25
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सारांश |
प्रकृति में अद्भुत सामंजस्य एवं संतुलन है। पारिस्थैतिकी का सर्वप्रमुख सिद्धान्त -‘‘पर्यावरण की सकलता एवं एकता है। ‘‘जैविक एवं अजैविक घटकों की अन्यान्यामितता और परस्पर समाकलन के कारण पर्यावरण संतुलन बना रहता है। पृथ्वी के पर्यावरण की भौतिक, सांस्कृतिक एवं जैविकीय विशिष्टताएं एक दूसरे अन्त क्रियात्मक सम्बन्ध से जुड़ी है। यही अन्त क्रियात्मक पर्यावरण मानव के अस्तित्व एवं जीवित रहने का आधार है। मानव के अनियंन्त्रिक क्रियाकलाप सम्पूर्ण जैविक मण्डल की संरचना, संसाधनों तथा भू-पारिस्थिैतिकी पर भी प्रभाव डाल रहें है। पारिस्थैतिकी संकट एवं जनित पर्यावरण असंतुलन की जड़ में दो मूल कारक हैं प्रथम है जनसंख्या विस्फोट और दूसरा ऊर्जा।
प्राकृतिक या मानवीय कारणों से जब पर्यावरण के किसी तत्व को क्षति पहुँचती है तो स्व नियमन व्यवस्था द्वारा पहले संतुलित होने का प्रयास किया जाता है। परन्तु जब वह सहन सीमा से आघात ज्यादा होने लगता है तो संतुलन बिगड़ने लगता है।
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | There is a wonderful harmony and balance in nature. The main principle of ecology is "the totality and unity of the environment". Environmental balance is maintained due to the interdependence and mutual integration of biotic and abiotic factors. The physical, cultural and biological characteristics of the Earth's environment are with each other. This interacting environment is the basis of human existence and survival. Human uncontrolled activities are also affecting the structure, resources and geo-ecology of the entire biological system. There are two fundamental factors at the root of the ecological crisis and the resulting environmental imbalance, first is population explosion and second is energy. When any element of the environment is damaged due to natural or human reasons, then self-regulation system tries to balance it first. But when the trauma starts exceeding the tolerance limit, then the balance starts to deteriorate. |
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मुख्य शब्द | अवनयन, अवधारणा, अनियंन्त्रिक, जैविकीय, पारिस्थैतिकी, तकनीकीकरण, वैज्ञानिक, प्रौद्योगिकी, केन्द्रीयकरण, औद्योगीकरण, अवांछनीय, ठोस अपशिष्ट। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Degradation, Concept, Untechnical, Biological, Ecological, Technological, Scientific, Technological, Centralization, Industrialization, Undesirable, Solid Waste. | ||||||
प्रस्तावना |
पर्यावरण के जैविक और अजैविक संघटकों का समुच्चय जब निवास्य (Habitate) की सुरक्षा में विफल होने लगते है तो जीवधारियों का जीवन संकट में पड़ने लगता है। पर्यावरण की इसी परिवर्तित स्थिति को पर्यावरण अवनयन कहते है। प्रकृति की स्वनियम शक्ति प्रदूषण, विस्तार, वन, विनाश, अधिक जनभार और संसाधनों के अनुचित दोहन के कारण विनष्ट हो जाती है और पर्यावरण के तत्व पंगु बन जाते है।
माक्र्स ने कहा था कि ‘‘ पर्यावरण हृास तभी होता है जबकि प्रकृति के प्रति शत्रुतापूर्ण व्यवहार किया जाता है।’’ माक्र्स के अनुसार पर्यावरण अवनयन प्रक्रिया को निम्न चरण में समझा जा सकता है।
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अध्ययन का उद्देश्य | इस शोध पत्र में पर्यावरण के विभिन्न पहलुओं का अध्ययन किया गया है जिसमें पर्यावरण से सम्बन्धित, पर्यावरण संरक्षण के उपाय एवं दूषित पर्यावरण के कारणों का उल्लेख किया गया है। जिसका वर्गीकरण निम्न है-
1. पर्यावरण का प्रभाव
2. पर्यावरण का बढ़ता दबाव (अधिक भूमि उपयोग)
3. पर्यावरणीय हास
4. पारिस्थितिकी की क्षति या पारिस्थैतिकी का असंतुलन
पर्यावरण अवनयन आधुनिकता की उपज है। इसके लिये मानव समाज की अनुक्रियायें सबसे अधिक जिम्मेदार है। विकास एवं विनाश वर्तमान मानव प्रयास के दो पहलू ही मानव के अनियन्त्रित प्रयास तीव्र गति से पर्यावरण अवनयन को बुलावा दे रहे हैं। पर्यावरणीय अवनयन के प्रमुख कारण हैं-
1. जनसंख्या बहुल्य एवं गुणोत्तर वृद्धि होना।
2. औद्योगिक विकास की होड़ एवं संसाधनों का दुरूपयोग होना।
3. शहरी एवं नगरीकरण का विकास होना।
4. अत्यधिक तकनीकीकरण एवं वैज्ञानिक प्रौद्योगिकी का विकास होना।
5. कोयला पेट्रोलियम एवं गैस के माध्यम से अत्यधिक ऊर्जा का प्रयोग किया जाना।
6. असंयत एवं असुंतुलित नगर विकास एवं औद्योगिक केन्द्रीयकरण होना।
7. पृथ्वी से असीमित खनन किया जाना।
8. औद्योगीकरण आयवृद्धि एवं सुख सुविधा के लिये यातायात के वाहनों में अभिवृद्धि होना।
9. प्राकृतिक वनस्पति एवं वन्य जीवों का विनष्ट होना।
10. कृषि का तकनीकी विकास करना। |
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सामग्री और क्रियाविधि | प्राकृतिक या मानवीय कारणों से जब पर्यावरण के किसी तत्व को क्षति पहुँचती है तो स्व नियमन व्यवस्था द्वारा पहले संतुलित होने का प्रयास किया जाता है। परन्तु जब वह सहन सीमा से आघात ज्यादा होने लगता है तो संतुलन बिगड़ने लगता है। |
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विश्लेषण | इस विषय के अध्ययन का उद्देश्य है पर्यावरण मानव जीवन के लिए अति आवश्यक है।
इसके अध्ययन से मनुष्यों को पर्यावरणीय समस्याओं और उसके निवारण करने की प्रेरणा
मिलेगी। |
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परिणाम |
प्रदूषण को कारकों के आधार पर वर्गीकरण किया जा सकता है। प्रदूषण के प्रकार
है- |
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जाँच - परिणाम | पर्यावरण के असंतुलन से प्राकृतिक आपदाओं, बाढ़, भूकम्प साइकलोन सुनामी तथा सूखा जैसी समस्याओं का आगमन होता है। पर्यावरण प्रदूषण को दूर करने एवं पर्यावरण अवनयन को सुधारने के लिये मानवीय स्तर पर प्रयास किये जाने चाहिये एवं नैतिक मूल्यों में वृद्धि की जा सकती है। तथा दोषियों को कठोर दण्ड दिये जाने का प्रावधान होने चाहिये। | ||||||
निष्कर्ष |
पिछले एक दशक से भारत औद्योगिक देशों से आने वाले खतरनाक और विषैले कचरे का बड़ा आयातक बन गया है। 1996-97 में कचरे की छिलके एवं पीवीसी (प्लास्टिक) कचरे का आयात 33 टन था जो अब 15,224 टन तक जा चुका है। विलासिता वस्तुओं या लग्जरी चीजों के उत्पादन में जो भारी इजाफा हुआ है उससे पर्यावरणीय सन्तुलन पर गहरा प्रभाव पड़ा है। इस प्रक्रिया में संसाधनों को खनन (खदानें, पेड़ों की कटाई) से उत्पादन (प्रदूषण खतरे आदि) तक बहुत सारे दुष्परिणाम सामने आते है।
इस विषय के अध्ययन से भारत के मनुष्यों को अन्य देशों के पर्यावरण से तुलना करके अपने देश में पर्यावरण को संरक्षित करने में एक नयी मिसाल कायम करने में सहायता मिलेगी। ताकि हमारे देश का पर्यावरण दूषित होने से बच सके और फिर मानव एक बेहतर स्वस्थ जीवन व्यतीत कर सके।
वैश्विक धरातल पर भारत सरकार उत्तर के देशों से जबावदेही और पहल कदमी की मांग करती रही है और ये एक जायज बात है लेकिन उसकी अपनी घरेलू नीतियां अभी भी बेहद कमजोर और फिसलनभरी दिखाई देती है। 2009 में भारत सरकार ने वायु मण्डलीय बदलाव हेतु राष्ट्रीय कार्य योजना जारी की थी। इसमें सौर ऊर्जा पर जोर तथा उपर्युक्त मिशनों का गठन करके ऊर्जा कुशलता का बदोबस्त करने जैसे सकारात्मक सुझाव दिये। लेकिन इसमें गम्भीर अवधारणात्मक और क्रियान्वयन सम्बन्धी समस्यायें भी हैं। मसलन सौर ऊर्जा पर तो जोर दिया लेकिन दूसरी पुनर्नवीकरणीय ऊर्जाओं पर ध्यान नहीं दिया। भारत में पानी की कुल प्रयोग लगभग 750 अरब घन मीटर अभी भी उपलब्ध मात्रा (लगभग 1869 अरब घन मीटर से कम है) लेकिन 2025 के बाद यह कभी भी उपलब्ध स्तर को पार कर जाएगा और 2050 तक बहुत ऊंचे स्तर पर जा पहुंचेगा। इसके अलावा आजीविका और रोजगार का संकट भी है। जैसे-जैसे प्रकृति का विखण्डन और जल/जमीन का भरण तेज होता जा रहा है। वैसे-वैसे समुदाय बेरोजगार होने लगते है। जो पहले स्वरोजगार मुक्त हुआ करते थे। |
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भविष्य के अध्ययन के लिए सुझाव | इस प्रकार पर्यावरणीय अवनयन से पर्यावरण में होने वाले वे सारे परिवर्तन आते है जो आंवछनीय है और किसी क्षेत्र विशेष में या पूरी पृथ्वी पर जीवन और संधारणीयता को खतरा उत्पन्न करते है। अतः इससे पर्यावरण में प्रदूषण जलवायु परिवर्तन जैव विविधता का क्षरण और अन्य प्राकृतिक आपादायें आती है जो मानव जाति के लिये खतरा है जिसके लिए सरकार एवं जनमानस को सुधार करने के लिए अनेकों उपाय करने होगें। जिसके लिए विभिन्न प्रकार के अनुसंधान एवं शोध के द्वारा विविधाओं से बचाव करने के तरीके ढूंढने होंगे। | ||||||
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1. डॉ0 माथुर, एच0एम0 2008, डेवलेपमेन्ट एण्ड डिस्प्ले स्पैन्ट 2008
2. डॉ0 बॉसक, अनिदिता, पर्यावरणीय अध्ययन 2014
3. डॉ0 मधु अस्थाना पर्यावरण एक संक्षिप्त अध्ययन 2014
4. डॉ0 आरडी दीक्षित भौगोलिक चिंतन का विकास 2014 (253)
5. श्री सविन्द्र सिंह, जैव भूगोल, प्रयाग पुस्तक भवन 2011 |