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राजस्थान में दुर्ग स्थापत्य: मारवाड़ के विशेष संदर्भ में | |||||||
Paper Id :
16217 Submission Date :
2022-07-18 Acceptance Date :
2022-07-22 Publication Date :
2022-07-25
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सारांश |
प्राचीन युद्ध परम्परा व भोगौलिक स्थिति के कारण राजस्थान में दुर्गों का अत्यधिक महत्त्व रहा है। इस संबंध में प्राचीन मान्यता है कि दुर्ग वह साधन है जिसमें रहने से गढ़पति को अपनी आत्मरक्षा का भरोसा रहता था तथा उसमें रहते हुए उसे बलवान शत्रु भी सहसा सता नहीं सकता। राजस्थान को गढ़ों और दुर्गों का प्रदेश कहा जाए तो इनमें कोई अत्युक्ति नहीं होगी। ये दुर्ग और इनसे जुड़े आख्यान राजस्थान के जनमानस के लिए सदैव प्रेरणा के स्रोत रहे हैं। राजस्थान के प्रमुख दुर्गों में चित्तौड़, मारवाड़, रणथम्भौर, जालौर, सिवाणा, गागरोण, भटनेर, नागौर आदि दुर्ग ऐतिहासिक दृष्टि से बहुत प्रसिद्ध रहे हैं।
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | Forts have been of great importance in Rajasthan due to ancient war tradition and geographical condition. In this regard, there is an ancient belief that the fort is the means by which the Gadhapati was confident of his self-defense, and while living in it, even a strong enemy cannot easily harass him. There will be no exaggeration if Rajasthan is called the state of strongholds and fortifications. These forts and the stories associated with them have always been a source of inspiration for the people of Rajasthan. Among the major forts of Rajasthan, Chittor, Marwar, Ranthambore, Jalore, Siwana, Gagron, Bhatner, Nagaur etc. have been very famous from the historical point of view. | ||||||
मुख्य शब्द | दुर्ग स्थापत्य, मारवाड़, मेहरानगढ़, चिड़ियाटुंक, मंडोर, बुर्जपोल, नागौर दुर्ग, पृथ्वीराज चौहान, सोमेश्वर, सुदृढ़ प्राचीर, महल, प्रवेश द्वार, जालौर दुर्ग, तोपखाना, सिवाणा दुर्ग, जल दुर्ग, पर्वतीय दुर्ग, जलाशय, कुण्ड, बावड़ियाँ। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Fort Architecture, Marwar, Mehrangarh, Chidiyatunk, Mandore, Burjpol, Nagaur fort, Prithviraj Chauhan, Someshwar, Strong Ramparts, Palace, Entrance, Jalore Fort, Artillery, Siwana Fort, Water fort, Mountain Fort, Reservoir, Pool, Stepwell. | ||||||
प्रस्तावना |
दुर्ग स्थापत्य कला तत्कालीन समाज की स्थापत्य कला का दर्पण है। किसी भी राज्य के उत्कर्ष, उत्थान व पतन में दुर्गों का विशेष महत्त्व रहा है, जो आज भी प्रत्यक्षदर्शी बनकर उस समय के इतिहास की गौरवगाथा का वर्णन करते हैं। राजस्थान के हर भौगोलिक क्षेत्र या अंचल का विशिष्ट सांस्कृतिक व गौरवशाली इतिहास रहा है। इसी के तहत मारवाड़ प्रदेश में मेहरानगढ़, नागौर, जालौर, सिवाणा, सोजत, कुचामन आदि दुर्ग प्रमुख है।
दुर्ग स्थापत्य कला इतिहास का एक अजीब आकर्षण एवं गौरव का अनूठा अहसास है जो अपने नामों से संचित स्थानों या प्रदेशों का राजनैतिक अस्तित्व विलुप्त हो जाने के बावजूद भी इन्हें किसी न किसी रूप में बचाए रखना चाहते हैं। राजस्थान में दुर्ग निर्माण की एक अतिशय समृद्ध परम्परा रही है। हमारे प्राचीन भारतीय वास्तुशास्त्र और शिल्पशास्त्र के ग्रंथों में विभिन्न दुर्गों का विश्लेषणात्मक वर्णन प्राप्त होता है।
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अध्ययन का उद्देश्य | वर्तमान युग परिवर्तन का युग है जिसके कारण हमारे स्वर्णिम अतीत की यह अनमोल संपदा तेजी से नष्ट होती जा रही है। अनेक गढ़, दुर्ग तो वर्तमान समय में खंडहर भी हो चुके हैं और जो शेष बचे हैं वे अपने अवसान की प्रतीक्षा में है। इसी कारण समय रहते हमने इनकी सार संभाल नहीं की तथा इनसे संबंधित इतिहास नहीं लिखा तो वह दिन दूर नहीं कि जब ये सदा के लिए काल के गर्त में विलीन हो जायेंगे। इसी कारण हमें स्मरण रखना चाहिए कि हमारे ये गढ़ या दुर्ग उस युग की देन हैं जो अब वापस लौटकर नहीं आने वाला है। इसी कारण राजस्थान के गौरवशाली अतीत की संपदा पर इस शोध-पत्र में प्रकाश डाला गया है। |
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साहित्यावलोकन | डॉ. हीराचन्द गौरीशंकर औझा ने अपने ग्रंथ ‘जोधपुर राज्य का इतिहास’, भाग-1
में मेहरानगढ़ दुर्ग की स्थापना (नींव) पर प्रकाश डाला है तथा साथ ही
मारवाड़ के विभिन्न दुर्गों जैसे जालौर दुर्ग के संस्थापक का विस्तार पूर्वक वर्णन
किया है। |
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मुख्य पाठ |
दुर्ग निर्माण की परम्परा प्राचीन काल से चली आ रही है।
शुक्रनीति[1] के अनुसार राज्य के
सात अंग माने गये हैं, जिनमें एक दुर्ग भी है- स्वाम्यमात्य
सुहृत्कोश राष्ट्र दुर्ग बलानि च।
(अर्थात् स्वामी/राजा, अमात्य/मंत्री, सुहृद् कोश, राष्ट्र,
दुर्ग तथा सेना) सब ही गढ़ां शिरोमणि
अति ही ऊँचों जाण। जोधपुर का
मेहरानगढ़ दुर्ग अपने अनूठे स्थापत्य और विशिष्ट संरचना के कारण अपनी विशिष्ट पहचान
रखता है। लाल पत्थरों से निर्मित और अलंकृत जालियों व झरोखों से सुशोभित यह दुर्ग
राजपूत स्थापत्य कला का उत्कृष्ट उदाहरण है। राठौड़ों की वीरता और पराक्रम का
साक्षी यह दुर्ग[4] विक्रम संवत् 1515 (1458 ई.) में जोधपुर संस्थापक राव जोधा द्वारा बनवाया गया था। यह किला
चिड़ियाटूंक, पंचटेकरिया तथा विहंगकूट पहाड़ी पर बना हुआ है[5]। गौरी शंकर हीराचंद ओझा[6] ने अपने इतिहास लेखन में
इस लोकविश्वास का उल्लेख किया है कि यदि किले की नींव में किसी जीवित व्यक्ति की
बलि दे दी जाये तो वह दुर्ग अपने निर्माता के वंशजों के हाथों से नहीं निकलेगा। इसी
विश्वास के कारण इस दुर्ग की नींव में राजिया नामक व्यक्ति को जिन्दा गाड़ दिया गया
तथा उसके परिवार को इसके बदले जागीर प्रदान की गई [7]। नागौर दुर्ग खाटू तो स्याले भलो, ऊँध्याले अजमेर। राजस्थान के स्थल
दुर्गों में नागौर का प्राचीन दुर्ग उल्लेखनीय है। नागौर का प्राचीन शिलालेखों और
साहित्यिक ग्रंथों में नागदुर्ग, नागउर, नागपुर, नागाणा और अहिछत्रपुर[13] इत्यादि नाम मिलते हैं। इनमें अहिछत्रपुर नगर का वर्णन महाभारत में मिलता
है।[14] जालौर दुर्ग को
अपनी सामरिक स्थिति के कारण प्राचीन काल से ही आक्रांताओं के भीषण प्रहार झेलने
पड़े थे। इस कारण यह दुर्ग मारवाड़ के राजाओं का आश्रय स्थल रहा था। जालौर का गिरी
दुर्ग क्षेत्रफल की दृष्टि से 800 गज लंबा व 400 गज चौड़ा है जो 1200 फीट ऊँचाई पर स्थित है।[21] इस दुर्ग के स्थापत्य की मुख्य विशेषता यह है कि उन्नत प्राचीर और
बुर्जों से निर्मित है इसका प्रवेश द्वार विशाल है जो सुदृढ़ दीवार से ढ़का हुआ है
जिसमें शत्रु प्रवेश द्वार पर आक्रमण नहीं कर सकता है। किलो अणखलो यूं कहे, आव कल्ला राठौड़।
वीरता और शौर्य का साक्षी सिवाणा का दुर्ग जोधपुर के
राजाओं की विपत्ति में आश्रय स्थल रहा है। इस पर्वतीय दुर्ग का निर्माण परमार
वंशीय राजा भोज के पुत्र वीर नारायण के द्वारा 954 ई. में करवाया था।[23] |
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निष्कर्ष |
राजस्थान गढ़ों और किलों के रूप में अतीत की अनमोल ऐतिहासिक और सांस्कृतिक संपदा से सम्पन्न है। यहाँ वास्तुशास्त्र के प्राचीन ग्रंथों में वर्णित प्रायः सभी कोटि के छोटे-बड़े दुर्ग विद्यमान हैं जिनका अपना गौरवशाली इतिहास रहा है। यह दुर्ग उसी प्रतिहास का एक मूर्त उदाहरण है जो अपने इतिहास की स्वयं व्याख्या करते हैं। इस शोधपत्र में उसी अतीत के इतिहास पर प्रकाश डालकर उसे वर्तमान परिप्रेक्ष्य में सजीव रूप प्रदान किया गया है। |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1. शुक्रनीति: चतुर्थ अध्याय, षष्ठं प्रकरणम पृ. 324.326 (सं.) मिश्र, ब्रह्मशंकर
2. राजस्थान का दुर्ग स्थापत्य राजस्थान पत्रिका (रविवारीय) 24 सितम्बर, 1995 ये आलेख राघवेन्द्र सिंह मनोहर
3. शुक्रनीति: चतुर्थ अध्याय, षष्ठं प्रकरणम पृ. 324.326 (सं.) मिश्र, ब्रह्मशंकर
4. रेऊ, विश्वैश्वर नाथ: मारवाड़ का इतिहास, भाग-1, जोधपुर, 2009 पृ. 92
5. टॉड कृत राजस्थान का इतिहास केशव कुमार ठाकुर (हिन्दी अनुवाद) पृ. 359
6. औझा, डॉ. गौरीशंकर हीराचन्द: जोधपुर राज्य का इतिहास, भाग-1 पृ. 21
7. गहलोद, जगदीशसिंह: मारवाड़ राज्य का इतिहास, जोधपुर, 1925, पृ. 3
8. मिश्र, रतन लाल: राजस्थान के दुर्ग, जयपुर, 2008, पृ. 78
9. मिश्र, रतन लाल: राजस्थान के दुर्ग, जयपुर, 2008 पृ. 78-79
10. मनोहर, डॉ. राघवेन्द्रसिंह: राजस्थान के प्रमुख दुर्ग, जयपुर, 2019, पृ. 53-54
11. नागर, डॉ महेन्द्र सिंह व मेहर, प्रो. जहूर खां जोधपुर का ऐतिहासिक दुर्ग मेहरानगढ़़, जोधपुर, 2017, पृ. 88
12. वृही, प्र. 88-89
13. औझा, डॉ. गौरीशंकर हीराचंद: जोधपुर राज्य का इतिहास, भाग-1 पृ. 334
14. महाभारत आदिपर्व 137-73-7
15. शर्मा, डॉ दशरथ: राजस्थान थ्रू द एजेज, भाग 1, राजस्थान राज्य अभिलेखागार बीकानेर, 2014, पृ. 364
16. गहलोद, जगदीश सिंह: मारवाड़ राज्य का इतिहास, जोधपुर पृ. 29।
17. मनोहर, डॉ. राघवेन्द्रसिंह: राजस्थान के प्रमुख दुर्ग, जयपुर, 2019, पृ. 100
18. शर्मा, दशरथ: राजस्थान थ्रू द एजेज, भाग 1, राजस्थान राज्य अभिलेखागार बीकानेर, 2014, पृ. 124
19. वृही पृ. 128
20. औझा, डॉ गौरीशंकर हीराचंद: जोधपुर राज्य का इतिहास, भाग 1, पृ. 334
21. गहलोत, जगदीश सिंह: मारवाड़ राज्य का इतिहास, जोधपुर, 1925, पृ. 277
22. गुप्ता, मोहन लाल: जालौर का राजनीतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास, जोधपुर, 2017 पृ. 234
23. मनोहर, डॉ राघवेन्द्रसिंह: राजस्थान के प्रमुख दुर्ग, जयपुर, 2019, पृ. 58-59
24. रघुवीरसिंह, डॉ. राणावत मनोहर सिंह (सं.): जोधपुर राज्य की ख्यात, पृ. 73
25. मनोहर, डॉ राघवेन्द्र सिंह: राजस्थान के प्रमुख दुर्ग, जयपुर, 2019 पृ. 136-137
26. वृही, पृ. 139-140 |