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नवां दशक और कवि महेंन्द्र कार्तिकेय का काव्य-शिल्प | |||||||
Nineties and Poetry of Poet Mahendra Karthikeya | |||||||
Paper Id :
16246 Submission Date :
2022-07-04 Acceptance Date :
2022-07-17 Publication Date :
2022-07-25
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सारांश |
कविता के क्षेत्र में शिल्प का विशेष महत्व होता है । कवि कविता में शब्दों के न्यास, अंलकरण, एवं वाक्य-रचना द्वारा जो कारीगरी करता है, वही शिल्प कहलाता है। शिल्प का संबंध पूर्णतः कला से है। कवि भावानुभूति, संवेदना, विचार आदि का संयोजन कर कविता सृजन करता है। कव्य और कला, शिल्प की कसौटी पर रख कर उसकी श्रेष्ठता की जांच की जाती है। शिल्प के माध्यम से कवि अपनी अभिव्यक्ति को प्रखर बनाता है और कविता को एक रूप प्रदान करता है। अनन्त मिश्र के अनुसार शिल्प का संबंध अभिव्यक्ति की रूप रेखा से है। अभिव्यक्ति को यद्दपि कथन से बिल्कुल पृथक नहीं किया जा सकता, तथापि दोंनों को दो स्तर पर अध्ययन का विषय बनाना प्रयुक्त धारणा के संबंध में एक उपयोगी विभाजन होगा। इस पत्र में महेन्द्र कार्तिकेय जी के द्वारा प्रयुक्त किये गए बिम्ब विधान का विस्तार से अध्ययन कर इस काल के काव्य शिल्प को पाठक के समक्ष रखने का प्रयास रहेगा |
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | Craft has a special importance in the field of poetry. The work that the poet does in the poem through the use of words, embellishments, and syntax is called craft. Craft is completely related to art. The poet creates poetry by combining emotions, feelings, thoughts, etc. Poetry, art and craft are tested on their superiority by putting them on the test. Through craft, the poet intensifies his expression and gives a form to the poem. According to Anant Mishra, craft is related to the form of expression. Although the expression cannot be completely separated from the statement, making the two subject of study at two levels would be a useful division with respect to the notion used. In this paper, an attempt will be made to keep the poetic craft of this period in front of the reader by studying in detail the image law used by Mahendra Kartikeya ji. | ||||||
मुख्य शब्द | शब्द बिम्ब, वर्ण बिम्ब, समानुभूतिक बिम्ब, व्यंजना-प्रवण सामासिक बिम्ब, प्रसृत बिम्ब, दृश्य बिम्ब, दृश्य-श्रव्य बिम्ब, श्रव्य बिम्ब, स्पर्श, गन्ध सम्बन्धी बिम्ब। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Word Image, Character Image, Empathic Image, Euphoric-Prone Composite Image, Diffuse Image, Visual Image, Audio-Visual Image, Audio Image, Touch, Odor Related Image. | ||||||
प्रस्तावना |
रीति कालीन कवियों ने शिल्प को विषेश महत्व दिया है किन्तु तत्कालीन कविता रूढ़ीवादी काव्य- शिल्प के ढाँचे में बन्धी थी। आज युग, परिवेश मानवीय संवेदनाओं के सदर्भ में कव्य-शिल्प की अवधारणा पूर्णतः परिवर्तित हो गयी है। महेन्द्र कार्तिकेय की कविता की संरचना को देखते हुये उनके काव्य-शिल्प के मूल्यांकन में प्रयुक्त बिन्दु योजना, प्रतीक विधान, अप्रस्तुत योजना, वर्णनात्मकता, व्यंग्य तथा भाषा आदि को दृष्टि में रखना उचित होगा। जिस दशक के कवि महेंद्र की हम बात कर रहे हैं उनके शिल्प को निम्न बिन्दुओं के माध्यम से अच्छी तरह से समझा जा सकता है।
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अध्ययन का उद्देश्य | उक्त विषय के अध्ययन करने का उद्देश्य है कि महेंद्र कार्तिकेय और उनके समकालीन साहित्यकारों के काव्य शिल्प को समझा जा सके|
बिम्ब शब्द अंग्रेज़ी के इमेज शब्द का रूपांतर है जिसका सीधा अर्थ शब्द का चित्र रूप में प्रकटीकरण होता है जो कवि कल्पना के ऐनद्रिक अनुभव को पाठक या श्रोता के ह्रदय में उत्पन्न करने का कार्य करता है और महेंद्र कार्तिकेय इस पर खरे उतरे हैं| वास्तव में सरल शब्दों में कहें तो वास्तव में बिम्ब विधान किसी भी पदार्थ का शब्द चित्र है |काव्य साहित्य में ये शैली हिंदी कविता को पाठक या श्रोता के अंतर्मन में आत्मसात करने में महती भूमिका निभाती है| उपरोक्त बिन्दुओं के आधार पर हम केवल महेन्द्र कार्तिकेय के शब्द विधान से ही नहीं अपितु 90वे के दशक के कवियों की कविता और उनमे मौजूद भावों ,विचारों तथा आवश्यकताओं को भी समझ सकते हैं|
इस शोध पत्र का उद्देश्य है कि महेंद्र कार्तिकेय और समकालीन कवियों की इस शैली का अध्ययन और रसास्वादन साहित्य के विद्यर्थियों को हो जिससे बिम्ब के माध्यम से व्यक्त ताज़गी,भावों की सघनता और शब्द चित्रों की अबोध अनुभूति उनकी मानसिक और साहित्यिक क्षुधा को मिटा सकने में सक्षम हो सके| |
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साहित्यावलोकन | उक्त शोध पत्र के अध्ययन हेतु कार्तिकेय जी की पुस्तकों के अतिरिक्त ओम निश्चल नवीन लेखों एवं पुस्तकों का जैसे अध्ययन कर इनके बिम्ब विधान की प्रासंगिकता को सिध्द करने का प्रयास किया गया है| ओम निश्चल:समकालीन हिंदी कविता ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य 1980-2020, (2020)प्राची, 2018 संपादक:राकेश भ्रमर समकालीन हिंदी कविता, विश्वनाथ तिवारी कुमारजीव कुंवरबेचैन:(2020)आधुनिक कविता यात्रा:रामस्वरूप चतुर्वेदी, www.pustak.org आधुनिक कविता का पुनर्पाठ करुणाशंकर उपाध्याय राधाकृष्ण प्रकाशन (2019) (लेख अच्युतानंद मिश्र):कविता का बदलता बोध, डॉ अरुण देव, समालोचना ब्लॉग (2021) आधुनिक हिंदी कविता का इतिहास: kavishala.in (2020). |
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मुख्य पाठ |
बिम्ब योजना काव्य में सटीक बिम्बो की आयोजना द्वारा ही भावों- विचारो
को मूर्त रूप प्रदान किया जाता है। महेन्द्र कार्तिकेय के काव्य में बिम्ब सृष्टि
की अपनी विशिष्टता है। अर्थाति के स्पष्टीकरण हेतु कार्तिकेय जी ने बिम्बों का
आश्रय लिया है। बिम्ब विधान मूलतः काव्य का चित्रधर्म है। किन्तु इसे
अप्रस्तुत और प्रतीक विधान से अलग करके ही समझना चाहिये। बिम्ब के मूल में कवि की
आत्मा का प्रसार होता है। वह कवि अन्तस् की छवियों का अंकन है तथा उसके मर्म की
परतों पर निरन्तर पड़ते ध्वनि-अन्धकार, रागात्मक-विरागात्मक
अनुभूतियों की प्रेरणा अपनी सम्पूर्ण ऊर्जा के साथ निहित रहती है। कवि संसार के बाहर बिखरी छवियों को कल्पना के सहयोग, भावना एवं स्मृति के रंगों से रंगता है और अप्रस्तुत एवं प्रतीकों की
सहायता से उन्हें मूर्त रूप प्रदान कर देता है। यह मूर्तिकरण ही बिम्ब-विधान की
प्रक्रिया का महत्वपूर्ण सोपान है। बिम्ब के विषय में डा0 फूलबदन यादव का कथन विशेष उल्लेख है- बिम्ब शब्दों के माध्यम से उतारा गया
चित्र होता है। जिस प्रकार एक चित्रकार रंगों और रेखाओं के माध्यम से किसी व्यक्ति, वस्तु भाव अथवा दृश्य को मूर्त रूप देता है, उसी
प्रकार कवि भी शब्द-विधान के द्वारा यह कार्य करता है। अन्तर यही है कि चित्र केवल
रेखाओं और रंगों के द्वारा खीचा जाता है, जबकि इस शब्द
चित्र में रेखाओं और रंगों के साथ भाव का रहना भी आवश्यक होता है। यह शब्द चित्र
पाठक के मन को भाव विभोर बनाने की क्षमता रखता है। बिम्ब कितना ही सुन्दर क्यों न
हो, यदि वह भाव जगाने में समर्थ नहीं है तो उसकी सफलता
पर प्रश्न चिन्ह लग जाता है। बिम्ब शब्द अंग्रेजी भाषा के इमेज शब्द का पर्याय है। यह
शब्द स्वतन्त्र अथवा मौलिक नहीं है। डा0 नगेन्द्र इसे इमेज का
हिन्दी रूपान्तर स्वीकाार करते हैं। कुछ प्रमुख अंग्रेजी शब्द-कोषों के अनुसार
इमेज शब्द का अर्थ है- किसी पदार्थ का मनःचित्र या मानसी प्रकृति, कल्पना अथवा स्मृति में उपस्थित चित्र अथवा प्रतिकृति जिसका चक्षुश होना
अनिवार्य नहीं है। इमेज से अभिप्राय है ऐसी सचेत स्मृति का जो मूल उद्दीपन की अनुपस्थिति
में किसी अतीत अनुभव का समग्र अथवा अंश रूप में पुनरूत्पादन करती है। इमेज का
हिन्दी (संस्कृति) रूपान्तर है बिम्ब। इसका शब्दार्थ है- सूर्य-चन्द्र मण्डल, प्रतिछवि, प्रतिछाया, प्रतिबिम्बित अथवा प्रत्यंकित रूप चित्र। पश्चिमी विद्वानों की दृष्टि में काव्य-बिम्ब एक प्रकार का भाव-गर्भित शब्द-चित्र है। भारतीय विद्वानों में डा0 भगीरथ मिश्र के अनुसार-बिम्ब रचना काव्य का मुख्य व्यापार है। बिम्बों के द्वारा कवि वस्तु, घटना, व्यापार, गुण विषेशता, विचार आदि साकार तथा निराकर यथार्थों और मानस क्रियाओं को प्रत्यक्ष एवं इन्द्रियग्राह्म बनाता है। डा0 प्रेमप्रकाश गौतम का मत है - वे बिम्ब जो हमारी कल्पना को दृष्य में
उपस्थित करते हैं, साधारण बिम्ब होते हैं। जो बिम्ब
दृश्य उपस्थित करने के साथ हमारी अन्य इन्द्रियों (जिह्वा, घ्राणेन्द्रियों, स्पर्श चेतना और नाद चेतना)
को भी प्रभावित करते हैं, वे काव्य-दृष्टि से अधिक
उत्कृष्ट हैं। काव्यबिम्ब शब्दार्थ के माध्यम से कल्पना द्वारा निर्मित एक ऐसी
मानव छवि है जिसके मूल में भाव प्रेरणा रहती है। डा0 अनन्त
मिश्र के अनुसार-बिम्ब वास्तव में कवियों का मानसी रूपतामक साक्षात्कार है। दूसरे
शब्दों में यह चित्र भाषा की रचनात्मकता और ऐन्द्रिक स्तर पर सजग परिणति है। इससे
कथ्य में दीप्ति और प्रयोजन में कलात्मकता आती है। महेन्द्र कार्तिकेय के साहित्य में सुन्दर, सटीक एवं जीवन बिम्ब योजना की आयोजना हुई है। यदि कवि प्रकृति एवं जन-जीवन
से सम्बन्ध रखता है तो बिम्ब सुन्दर और सजीव होंगे, प्रायः
यह माना जाता है। कार्तिकेय जी प्रकृति और जन-जीवन के कवि हैं। अतः उनके काव्य में
विविध प्रकार बिम्ब दृष्टिगोचर होते हैं। मौलिक बिम्ब-विधान की दृष्टि से कार्तिकेय जी बिम्ब सृष्टि
को इन विविध वर्गों में विभाजित किया जा सकता है- (अ)-शब्द
बिम्ब (आ)-वर्ण बिम्ब (इ)- समानुभूतिक बिम्ब (ई)-व्यंजना-प्रवण
सामासिक बिम्ब (उ)-प्रसृत बिम्ब (क)-दृश्य बिम्ब (ख)- दृश्य-श्रव्य
बिम्ब (ग)- श्रव्य बिम्ब (घ)-स्पर्श एवं गन्ध सम्बन्धी बिम्ब शब्द बिम्ब अभिव्यक्ति सापेक्ष मूर्त विधान सर्वोत्तम रूप है। इस
प्रकार के बिम्ब विधान में शब्द-शब्द को अर्थ गाम्भीर्य एवं सम्प्रेषण से पूर्ण कर
किसी सन्दर्भ में चमत्कारिक रूप प्रस्तुत किया जाता है। इस बिम्ब में शब्द-चयन
इतना सटीक, सार्थक, बोधमय
होता है कि वह पाठक के मस्तिष्क में जीवन चित्र उपस्थित कर देता है। कवि जमीन से
शब्द उठाता है और चमत्कारिक रूप से पाठक अथवा श्रोता के मस्तिष्क में बो देता है।
महेन्द कार्तिकेय की कविता शब्द बिम्बों का कोष है। कुछ
उदाहरण प्रस्तुत हैं- 1. गोमुख के भीतर बाघ के दाँत/हड्डियां चबाते
हैं कड़-कड़-कड़/कंठधारी गिद्ध/नोंच-नोंच खाता है छाती का मांस रक्त की धमनियों पर/ बैठे हैं बगुला छाप अजगर। 2. कुत्ते भौंकते है/काटने को दौड़ते
हैं/मुर्दाबाद- मुर्दाबाद चीखते हैं सत्य टस से मस/सूरज पूर्व से उगता है/दरवाजे वैसे ही खुलते
हैं/बन्द होते हैं। प्रथम उदाहरण में बाघ द्वारा कड़-कड़ की ध्वनि करते हुए हड्डी चबाते, गिद्ध द्वारा छाती का मांस नोंच-नोंच
कर खाना, रक्त धमनियों पर अजगर का बैठना, में विशिष्ट अर्थ की व्यंजना करते हुए चमत्कृत
शब्द चित्र की आयोजना की गई है। इसी भांति द्वितीय उदाहरण कुत्ते भौंकने, काटने के लिये दौड़ने, मुर्दाबाद-मुर्दाबाद कहकर
चीखने के द्वारा वर्तमान परिवेश में लोगों की परिस्थितियों को जीवन्त करने वालें
शब्द-चित्रों ने कविता को सजीव एवं चमत्कारी बना दिया है। बिम्ब विधान शब्दावित
होता है। इसके दो रूप होते है- भाव बिम्ब तथा ध्वनि बिम्ब। यथा- काशी के घाट/ऊर्जा के बन्ध/ कल-कल जल/ करता ग। निर्मल/ एक
ओर मणिकर्णिका/ दूसरी ओर हरिश्चन्द्र घाट/ धू-धू कर जलता है/ अहर्निश/ काग-क्रोध
गद लोभ । प्रस्तुत उदाहरण में काशी के घाट की अपूर्व ऊर्जा, मन-निर्मलकारी एवं काम, क्रोध, मद, लोभ नाशक शक्ति की स्मृति से भाव बिम्ब की
सर्जना हुई है, तो ’कल कल जल और धू-धू
कर चलने के द्वारा ध्वनि बिम्ब की आयोजना दृष्टिगोचर होती है। . वर्ण बिम्ब जब वर्णों की विशिष्ट योजना तथा संचयन के द्वारा अर्थगर्भित
एवं व्यंजक बिम्बों की सर्जना की जाती है, तो वहां वर्ण बिम्ब होते
हैं। यथा-’देश चाहिए, ले लो/भेष
चाहिए. ले लो/धर्म चाहिए, ले लो/ कर्म चाहिए, ले लो/ कुर्सी चाहिए, ना-ना/ ईमान चाहिए. ले
लो। उपर्युक्त पंक्तियों में ले लो, ना-ना के वर्षों से एक सुन्दर वर्ण विम्व ध्वनित हुआ है। कार्तिकेय जी की
कविता स्त्रीय पद्धति पर आधारित वर्ण बिम्ब अत्यल्प हैं। उन्होंने शब्दों के मध्य
अनुरणनात्मक वर्गों के द्वारा बिम्बों की सृष्टि की है। यथा कुछ तो करो/ कल-कल जल /थल-थल जल/ पल-पल जल/ मछली प्यासी/ भाव उदासी/कुछ तो करो।“ प्रस्तुत उदाहरण में ’ल’ वर्ण
की आवृत्ति से अद्भुत और मनोहर बिम्ब की सृष्टि की गई है। इनके बिना सारा सन्दर्भ
और सौंदर्य समाप्त हो जायेगा। समानुभूतिक बिम्ब महेन्द्र कार्तिकेय के काव्य में रामानुभूतिक विग्खों के
गवस्थित क्रम से दर्शन होते है। प्रायः देखा जाता है कि मानवीकरण, भावमयता और आत्मनिष्ठ - स्थिति के कलात्मक प्रयास मूत तथा विम्बात्मक
धरातल पर अधिष्ठित होने के बाद रामा मलिक बिम्बों का रूप ले लेते हैं। इसी प्रकार
समानुभूतिक बिम्बों में ऐसा तादारा चित्रण मिलता है जो संवेदनशील और
इंद्रियग्राह्य होता है। श्रव्य और विचारक और वस्तु एवं आश्रय तथा आलम्बन परस्पर
गुम्फित हो कर मानस पटल पर एक हो जाते हैं, और एक नवीन
सौन्दर्य की सृष्टि करते हैं। ऐसे अनेक बिम्ब कार्तिकेय जी के काव्य में देखे जा
सकते हैं। जैसे- ओ रे मनीप्लांट/मैं नहीं जानता कि कब/मेरे कमरे में आये/और
कब किताबों के शेल्फ पर चढ़ गये/पर जब से तुम आये/मेरे कमरे में बसन्त का एक
टुकड़ा/कैद हो गया है/जो तुम्हारे साथ ही/हंसता है, रोता है, गाता है। उपर्युक्त उदाहरण में मनीप्लांट का कमरे में आना, शेल्फ पर चढ़ना, बसन्त के टुकड़े का मनीप्लांट के
साथ ही हंसना, रोना और गाना समानुभूतिक बिम्ब की अद्भुत
रचना कर रहा है। ऐसे अनेक बिम्ब कार्तिकेय जी के काव्य में देखे जा सकते हैं समय सूत्रधार है/ मंच पर उठाता रहता है पर्दे/गिराता रहता
है पर्दे/ कथा से गतिमान से/ बजाता है पार्श्व संगीत/ मनोभाव सा घुमाता है
सूरज-चांद। इन पंक्तियों में समय को सूत्रधार के रूप में पर्दे उठाना. गिराना, पार्श्व संगीत का बजाना और सूरज-चांद को घुमाना सुन्दर समानुभूतिक बिम्ब की सृष्टि करता है। एक अन्य उदाहरण दृष्टव्य है अंगुलियों को याद है/टेलीफोन नम्बर/मन चाहे या ना चाहे/अपने
आप छोटी बच्ची-सी मचलती हैं अंगुलियां। प्रस्तुत पंक्तियों में अंगुलियों की स्मृति का होना और
छोटी बच्ची की भांति मचलना सुन्दर समानुभूतिक बिम्ब का निर्माण कर रहा है। व्यंजना-प्रवण सामासिक बिम्ब व्यंजना-प्रवण सामासिक बिम्बों की विशेष पहचान यह है कि
इनमें एक उत्प्रेक्षा-सुलभ कसावट निहित रहती है। ये विस्तृत न होकर संक्षिप्त होते
है। यथा- आकाश से गिरे खजूर पे लटके/तवे से गिरे आगमे पड़े/जी हां यही
हाल है उसका।“ क्रान्तिकारी का आकाश से गिरकर खजूर में लटकना, तवे से गिरकर आग में पड़ना- केवल इन दो पंक्तियों के द्वारा ही एक छोटा-सा
बिम्ब प्रस्तुत कर भाव का समाप्त कर दिया गया है किन्तु इसी से गहन व्यंजना की
अभिव्यक्ति की गई है। इसी प्रकार एक अन्य उदाहरण दृष्टव्य है’ आकाश/एक स्लेट है, कैनवास है,सादा
कागज है/जिस पर बनता मिटता रहता है, लगातार चित्र।“ प्रस्तुत पंक्तियों में आकाश को स्लेट, कैनवास तथा सादे कागज के रूप में चित्रित कर अद्भुत व्यंजना प्रवण सामासिक
बिम्ब योजन किया गया है। प्रसृत बिम्ब प्रस्तुत बिम्ब प्रायः सा, से, सी, सम, सदृश, तुल्य इत्यादि वाचक या लक्षक शब्दों को जोड़कर विस्तृत भावभूमि पर अवस्थित रहते हैं। ऐसे अनेकानेक बिम्ब कार्तिकेय जी के काव्य में प्राप्त होते हैं। जैसे’ धरती के सीने पर शीशे सा मढ़ा हुआ/ झलमलाता/हरा पर्दा रोशनी में जगमगाता। यहां कवि ने धरती पर स्थित समुद्र को धरती के सीने पर स्थित शीशे के समान लिखकर ध्वनित किया है। आया दशानन का दसवां सिर/हर कुर्सी पर उग है/एड्स की बीमारी सा/फैल रहा है मदांधता का ज्वर/इसीलिये बिक रहा है/चरित्र, धर्म, ईमान/देश के नाम/वाटर गेट सा हो गया है देश। इन पंक्तियों में कवि ने कुर्सी की गंदी राजनीति को एड्स तथा वाटरगेट की भांति प्रस्तुत कर सुन्दर प्रसृत बिम्ब की रचना की है। अब हम महेन्द्र कार्तिकेय के काव्य में सृजित बिम्ब विधान को इन्द्रिय बोध के आधार पर देखेंगे। ऐन्द्रिक बिम्बों में दृश्य बिम्ब प्रमुख हैं। साथ ही अन्य बिम्ब भी आते हैं- शब्द, स्पर्श, रूप और गंध के भी अपने-अपने बिम्ब है। दृश्य बिम्ब कार्तिकेय जी के दृश्य बिम्ब नेत्रों के समक्ष सजीव चित्र
प्रस्तुत कर देते हैं। में इस प्रकार के बिम्ब प्रचुरता से प्राप्त होते हैं।
प्रायः प्रणय और प्रकृति से प्रकार के बिम्ब दिखाई पड़ते हैं। एक उदाहरण प्रस्तुत
है ’रोशनी के फव्वारे के नीचे/नहा रही है
/गौरांग चिड़िया/फूट रही अंगो से/चांदनी की शुभ्रता टटकी उगी दूब की कोमलता-सी/गंगा
की पावनता/गौरांग चिड़िया के होंठ/ताजा खिला सेमल पुष्प/गौरांग चिड़िया के वक्ष /
रूई का मुलायम कक्ष/ गौरांग चिड़िया की बाहें/सागर की लहरों को चाहें। यहां कवि ने गौरांग चिड़िया को विविध प्रकृति से चित्रों से
चित्रित किया है और अनेक दृश्य बिम्बों की रचना की है। कार्तिकेय जी ने महानगरीय परिवेश का सटीक चित्र प्रस्तुत
किया है, जहां कभी बसन्त के दर्शन नहीं होते
हैं, जो जेल के समान है और नगरवासी कैदी । उदाहरण
प्रस्तुत है वैसे भी शहरों में आता नहीं है बसन्त/बाहर ही बाहर मंडराता
है बसन्त/शहर तो जेल है/ स्थायी कैदियों के/ स्थाई पतों पर/लिपटे हुए सपने हैं/जेल
के फाटक पर फौज है, फाटा है/ टैक्स है, टोल है, सेना का बाजा है बाहर ही बाहर लौट जाता
है बसन्त। कवि ने कहीं-कहीं बहुत छोटे-छोटे दृश्य बिम्बों की व्यंजना की है- जब घुसा पड़ता है मर्म पर/तब समझा आता है आदमी का चेहरा।
आदमी में/सांप है/बिच्छू है/गोजर है/भेड़िया है/शेर है/आदमी के चेहरे से/झरती
है/जानवरों की शक्लें। प्रस्तुत उदाहरण में आदमी के भ्रष्ट एवं धोखेबाज एवं
अविश्वासी अनेक दृश्य बिन्दुओं के माध्यम से कवि ने जीवन्त किया है। हम हैं कच्चा
श्रमिकों के परिश्रम और उसके शोषण की ओर संकेत किया गया है। अत्यन्त गूढ़ की
व्यंजना की अभिव्यक्ति दृश्य बिम्बों के माध्यम से की गई है- हम नाई हैं/ बाल काटते हैं/हम धोबी हैं / कपड़ा छांटते हैं।
हम चमार हैं/ मोट गांठते हैं/हम बेगार हैं / खेत जोतते हैं/ हमारे ही ईधन
से/चिमनियां उगलती हैं धुआँ / हमारे ही मांस से / बनता है उत्पादन का सूचकांक। “हमारे रक्त से ही/चलता है हवाई जहाज/ और
रेलगाड़ी/हमारी ही सांसों पर टिका हुआ है/यह सारा ठाट। दृश्य-श्रव्य बिम्ब कार्तिकेय जी के काव्य में कुछ बिम्ब दृश्य-श्रव्य मिश्रित भी प्राप्त होते हैं कार्तिकेय जी मूलतः वाराणसी क्षेत्र के निवासी हैं। अतः वहां के अंचल की विशेषताएं उनकी कविता में प्राप्त हो जाती हैं। ये ही विशेषताएं उनसे दृश्य श्रव्य बिम्ब निर्माण करा लेती हैं, जिसका स्वंय हमें भी भान नहीं हो पाता है। देखिए- कमरे में मन छटपटाता है/बैठकर हवाओं पर/गंध की कुमारियों से/गलबहियां उलझाए/दूर-दूर दूर-दूर/तैर-तैर जाता है। प्रस्तुत पंक्तियों में दृश्य बिम्ब मन के छटपटाने, हवाओं पर गन्ध रूपी कुमारियों से गलबहियां करने में प्राप्त हुए हैं। इसके
पश्चात दूर-दूर दूर-दूर तैर-तैर जाने में श्रव्यता ने मधुरता उत्पन्न कर दृश्य श्रव्य
बिम्ब की आयोजना की है। सागर ने ओठों को ओठों से छुआ/ ओठों में आ गये प्राण/ और
हाथों ने/दबोच लिया पूरा सागर/सिर से पांव तक / फैल गई तरंग/बज उठे वीणा, मृदंग/ सागर ने ओठों से छुआ/ जीवन प्राणवान हो गया। प्रस्तुत उदाहरण में सागर के द्वारा ओठों से ओठों को छूने, हाथों द्वारा सागर को तरंगों का दबोचने से दृश्य बिम्ब की सुन्दर सर्जना
हुई है और सिर से पांव तक फैलना, शिरा-शिरा में वीणा
मृदंग के जने से श्रव्यता आयी है। अतः यहाँ सुन्दर दृश्य-श्रव्य बिम्ब का निर्माण
हुआ है। कलना. शिरा-शिरा में श्रव्य बिम्ब दृश्यों की भांति ही श्रव्य बिम्ब भी कार्तिकेय जी के काव्य
में यत्र-तत्र प्राप्त होते हैं। श्रव्य बिम्ब भी अधिकतर प्रकृति की ही पृष्ठभूमि
पर निर्मित हैं। विभिन्न परिस्थितियों में कवि प्रकृति के भिन्न-भिन्न रूपों के
माध्यम से अनेक बिम्बों की सृष्टि करता है। हमारे कानों में वही मूल ध्वनि निरन्तर
गूंजती रहती है। एक उदाहरण प्रस्तुत है मौन ने तुमको झकझोर दिया/ जैसे आया हो झंझा
तूफान और अपने नगर का हर मकान/हर पहचान टूट-टूट कर गिर गई/ खंडहर हो गये स्मृतियों
के लेख, पुरूषार्थ खड़ा नहीं कर सकते, खंड-खंड हुआ नगर। प्रस्तुत पंक्तियां श्रव्य बिम्ब का सुन्दर उदाहरण हैं।
जीवन की सभी आशाएं चूर-चूर हो चुकी हैं। झंझा-तूफान की भांति जीवन का सब कुछ बिखर
चुका है, उड़ चुका है, हर निर्माण खंडहर हो चुका है। मौन के द्वारा झंझा तूफान के समान झकझोरना, हर पहचान का टूटना, नगर का खंड-खंड हो जाना
काव्यात्मक कल्पना है जो कविता में श्रव्यता का समावेश कर रही है। एक अन्य उदाहरण प्रकृति पर आधारित श्रव्य बिम्ब का है। वहाँ धरती के भाग्य जाग उठे हैं क्योंकि मेघों के आने से अंकुर उत्पन्न हो गये हैं, बीजों में सपने जाग रहे हैं, आशाएं जाग उठी हैं, नस-नस चटक उठी है, पक्षी चहचहा उठे हैं, प्राणों में स्फूर्ति आ गयी है। लोकगीतात्मकता के माध्यम से श्रव्य
बिम्बों की सुन्दर आयोजना दृष्टिगोचर होती है धरती के जागे हैं भाग्य/बंजर अंकुरा रहे/वरूण में कौंधा है
प्यार/बादल मंडरा रहे/बीजों में जाग रहे / सपने / बंजर अंकुरा रहे/ धरती के जागे
हैं भाग्य / माटी गमका रहे/ दौड़ रही आशा किरण/नरा-नस है चटक रही/प्राणों में बसी
स्फूर्ति / पक्षी चहचहा उठे/ मेघों में बसा मेह/ बंजर अंकुरा गये। स्पर्श एवं गन्ध सम्बन्धी बिम्ब कार्तिकेय जी ने स्पर्श एवं गन्ध सम्बन्धित अनेक बिम्बों की
सृष्टि की है। यद्यपि इस प्रकार के बिम्ब अल्पमात्रा में ही हैं, फिर भी रूचिकर और सशक्त हैं- और धरती से उठती है/माटी की सुनहरी गंध/ फटी हुई बिवाइयाँ / मिट जाती हैं/चेहरे पर उग आयीं परेशानियां/झुर्रियाँ/एकाएक गायब हो जाती हैं। प्रस्तुत गन्ध चित्र में वर्षा होती है, तो धरती से मधुर-सुनहरी गन्ध उठती है सब लोगों के तन को, मन को संतृप्त कर जाती है, फटी हुई बिवाइयां भर
जाती प्रसन्नता एवं निश्चिन्तता से चेहरे की परेशानियां मिट जाती हैं’कसाई / दूधिया कपड़ों में मुस्कराता है हरी पत्तियों को भूल जाता है, बकरी के/ अंग-अंग को नोंच तोल कर काट-काट कर/पका-पका कर/चबा-चबा कर खाता
अरि है। प्रस्तुत पंक्तियों में ऐंद्रिक बिम्ब है जिसमें कसाई यों तो श्वेत वस्त्र धारण है, शान्ति का रूप दिखाता है, हरी पत्तियां खिलाता है किन्तु भीतर से क्रूर है, जो को काट-काट कर पका-पका कर बड़े स्वाद ले लेकर खाता है। इसी उदाहरण की पंक्तियों में बहुत सुन्दर गन्ध बिम्ब हैं फिर भोंपू बजाता है/ कसाई फिर निकलता है। अपने हाथों में हरी पत्तियां लेकर/बकरी पहचान जाती है/ कि शायद आती है गन्ध/ उसके ही मांस मज्जा/ और रक्त की/ कसाई परेशान हो जाता है/ और बकरी/झांसे में नहीं आती है। इस बिम्ब में कसाई हरी पत्तियां दिखाकर बकरी को फंसाता है, किन्तु एक बार धोखा खा जाने के बाद वह पुनः उसके धोखे में नहीं आती है, क्योंकि उसे अपने पके हुए मांस मज्जा और रक्त की गन्ध का स्मरण हो आती है।
इसी के द्वारा कवि .) सुन्दर गन्ध बिम्ब की रचना की । शहर और बसन्त कविता में कवि
ने एक सुन्दर गन्ध बिम्ब की कुशल आयोजना की है। मौसम आते हैं, अपनी गन्ध फैलाते हैं, हवाओं में आम के बौर की
कसैली-मधुर मिश्रित गन्ध मिल जाती है, किन्तु इससे शहर
की अत्यधिक सड़ांध समाप्त नहीं हो जाती है मौसम तो आते हैं /फैलाते हैं अपने पंख/खोलते हैं अपनी गन्ध/
हवा बौराती है लेकिन सड़ांधों की दीवालों को पार / नहीं कर पाती। आओ समुद्र! आओ कविता में स्पर्श बिम्ब का बहुत ही सुन्दर
उदाहरण प्राप्त होता है। उदाहरण दृष्टव्य है- तुम्हारे तट पर/अन्नंत काल से आनंद पाता रहा हूं मैं ।
तुम्हारे शरीर के स्पर्श /तुम्हारी अंगुलियों के स्पर्श में रहा है मन का संगीत
जैसा भी रहा है हमारा मन/वैसा ही पाया है तुम्हें समुद्र मस्त कलन्दर अलमस्त। सागर के शरीर के स्पर्श से आनन्द की प्राप्ति, अंगुलियों के स्पर्श से मन संगीत की झंकृति, स्पर्श
बिम्ब का अद्भुत अनुभव करा देती है। अपरिचित समुद्र नामक कविता में कार्तिकेय जी ने बहुत ही
सुन्दर तरीके से पहले स्पर्श बिम्ब और गन्ध बिम्ब की रचना की है समुद्र / मैं खोजता हूं तुम्हारे ओठों पर अपने दाँतों के
चिह, तुम्हारे माथे पर अपने ओठों के निशान, तुम्हारी बाहों पर अपने माथे का दबाव /तुम्हारे वक्ष पर अपने आलिंगन की
उष्णता, समुद्र / मैं खोजता हूं। तुम्हारे शरीर की अष्ट
गन्ध की महक / लेकिन/ कुछ भी तो नहीं दिखता/तुम/ निर्बाध निरन्तर लावण्यमय गन्ध
को/ लहराते हुए/ लहराते हो/ मैं / तट पर वैसे अनन्तकाल से पड़ा हूं/रेत-सा
निष्प्राण निस्तेज। (गन्ध बिम्ब) कवि ने अपनी कविताओं में पग-पग पर बिम्बों का निर्माण
कुशलता से किया प्रतीक योजना प्रतीक शब्द अंग्रेजी के सिम्बल शब्द के समकक्ष स्वीकार
किया जाता है। हिन्दी समीक्षा जगत में प्रतीक तथा बिम्ब शब्द पाश्चात्य समीक्षा
शास्त्र से हिन्दी साहित्य में आये हैं। सरल शब्दों में प्रतीक को हम इस प्रकार
परिभाषित कर सकते हैं- वे शब्द जो प्रस्तुत सन्दर्भ से हट कर किसी अन्य की ओर
संकेत करें, प्रतीक कहलाते हैं। प्रतीक बिम्ब का
निकटवर्ती है. किन्तु स्वरूप भिन्नता के कारण अलग अर्थ रखता है। . भारतीय काव्यशास्त्रीय विद्वानों ने जिसे ध्वन्यर्थ, प्रतीयमान अर्थ अथवा व्यंग्यार्थ कहा है, प्रतीक
उसके निकट की वस्तु है। प्रतीक के सन्दर्भ समाज, धर्म, राष्ट्र और वैयक्तिक जीवन के वैशिष्ट्य आदि सभी से जुड़कर चलते हैं। इतिहास
के विकासक्रम की प्रक्रिया जैसे-जैसे बदलती गयी, वैसे-वैसे
प्रतीक के अर्थ भी नवीन सन्दर्भो में बदलते रहे हैं। डा0 छोटेलाल प्रभात प्रतीक की व्याख्या करते हुए कहते हैं- संस्कृत में यह अंग
या अवयव से लेकर विकसित और प्रतिकूल तक का अर्थ देता रहा है। इतिहास के खंडहरों
में भटकने का भी अपना रस है, पर इस सन्दर्भ में इतिहास
की ओर देखना इसलिए आवश्यक कि प्रतीक शब्द के पुराने अर्थों के अवशेष नये अर्थ के
आयामों को निर्धारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं, इससे अवचेतन में छिपी कुण्ठित पीड़ाएं लेखक को समझने में सहायक होती है।
वैसे प्रतीक के पुराने पीछे छूटे हुए विस्तृत अर्थ उसके वर्तमान को परिभाषित करने
में साधक हैं। हिन्दी का प्रतीक शब्द तन से शुद्ध संस्कृत परम्परा का है, पर इसका मन (अर्थ) यूरोपीय परम्परा से विशेष जुड़ा है। सच तो यह है कि
सौन्दर्यशास्त्र तथा कला-चिन्तन के आधुनिक सन्दर्भ में यह अपने से अधिक अंग्रेजी
पर्याय (सिम्बल) के अर्थ की व्यंजना करता है। हिन्दी काव्य में प्रत्येक युग में
प्रतीकों का प्रयोग होता रहा है। आधुनिक कविता में प्रतीक का प्रयोग विकसित होते
हुए भी लाक्षणिक शैली के रूप में विकसित दिखाई पड़ता है, ’पाश्चात्य
अलंकारों को आत्मसात करके नूतन प्रतीक योजना में लक्षण के इतने अधिक प्रयोग हुए कि
लाक्षणिकता इस काल के काव्य की एक शैली ही बन गयी। विषय की दृष्टि से प्रतीकों को पौराणिक रहस्यात्मक बौद्धिक
तथा शुद्ध प्रतीक आदि अनेक रूपों में वर्गीकृत किया जा सकता है। आज प्रतीक को
काव्य का एक विशिष्ट गुण स्वीकार किया जाता है। ’प्रतीक’ अर्न्तमुखी कवि का मूल्यवान, मारक एवं अचूक
अस्त्र हैं। प्रतीक सूक्ष्म की अभिव्यक्ति है। द्विवेदी युग के बाद के काव्य में
प्रभाव साम्य की ओर ध्यान अधिक रहने से धर्मों के प्रभाव को कवि ने अधिक महत्ता
दी। प्रभाव जहां सामान्य है. वहां तक विषय-- प्रधान है। कालिमा देखकर मन में
मलिनता के भाव जाग्रत होते हैं। अतः भारतीय साहित्य में उसे पाप का प्रतीक माना
गया है। चांदनी की स्वच्छता, निष्कपटता के भाव जगाती है, अतः आधुनिक काव्य ने उसे निष्कपटता का प्रतीक माना, सांसों के स्वतः आवागमन ने स्वाभाविकता के भाव प्रकट किये। डा0 भगीरथ मिश्र इस सम्बन्ध में अपना मत प्रकट करते हुए कहते हैं- ’प्रतीक अपने रूप-कुरूपार्थ या विशेषताओं के सादृश्य एवं प्रत्यक्षता के
कारण जब कोई वस्तु या कार्य किसी अप्रस्तुत वस्तु, भाव, विचार, क्रिया-कलाप, देश-जाति, संस्कृति आदि का प्रतिनिधित्व करता
हुआ प्रकट किया जाता है, तब वह प्रतीक कहलाता है।“
डा0 गोविन्द काव्य में प्रतीक का प्रयोग
काव्य-रचना की अन्तः प्रेरणा से सम्बन्धित होता है। इस विधान में कवि की वैयक्तिक
अनुभूतियां और सामाजिकता के जटिल सन्दर्भ परस्पर अन्तः प्रतिक्रिया करते हैं।
प्रतीक भावों की गहनतम् अभिव्यक्ति के साधन हैं, इनके
माध्यम से अमूर्त, अदृश्य, अश्रव्य, अप्रस्तुत, विषय का प्रतिविधान मूर्त दृश्य, श्रव्य, प्रस्तुत द्वारा किया जाता है। प्रतीक
मानव, परिवेष्टन में दृष्टिगत वस्तु का मानव प्रतिमा के
साथ तादात्म्य कर लेता है। कल्पना के पुट द्वारा उसका आदर्शमय स्वरूप प्रस्तुत कर
कला का सृजन करता है। डा0 प्रेमप्रकाश
गौतम के अनुसार- प्रतीक अनुभूति के सम्प्रेषण का साधन है, प्रतीक योजना करते हुए कवि का उद्देश्य अपने को अर्थ की अभिव्यक्ति कराना, अपने अनुभव का प्रेषण करना है। अर्थ-प्रेषण ही कवि को अभिप्रेत होता है, बिम्ब प्रस्तुत करना नहीं। अज्ञेय जी के अनुसार- विवेक की प्रतिभा भी
प्रतीक दृष्टि की प्रतिभा का सहारा लेकर ही प्रतिफलित होती या हो सकती है। मानवेतर
सभी प्राणी, जिन्होंने प्रतीक दृष्टि की, यह प्रतिभा नहीं पायी है, एक सीमित जीवन ही जी
सकते हैं। उनका जीवन स्थूल जगत की अगोचर अनुभूतियों तक ही सीमित रहता है और वे
अनुभूतियां ही एक दूसरे को सम्प्रेष्य नहीं होतीं, क्योंकि
सम्प्रेषण का कोई परिपक्व साधन उनके पास नहीं है। स्पष्ट है कि ’प्रतीकात्मक व्यंजना हमारी
वाणी, ध्वनि, रंग-रूप, प्रवृत्तियों, शोकादिक अनुभवों, विचारों आदि की चेतना का अत्यधिक विस्तार करती है और इस प्रकार हम कवि के
आशय, उसके विस्तृत अनुभव को बहुत कुछ स्वंय ही अनुभव
करने में समर्थ होते हैं, अथवा प्रतीक के माध्यम से
उसका कल्पनात्मक दर्शन करते हैं। कारण यह है कि कवि अपनी विशेष प्रतिभा शक्ति से
अन्तर्जाग्रतिक अनुभूतियों की यथार्थ अभिव्यक्ति के अर्थ- संकेतों से पुष्ट
प्रतीक-शब्दों को बड़ी सतर्कता से प्रयुक्त करने में समर्थ होता है। वह उन पदार्थो, अनुभूतियों और शब्दों के अर्थ-संकेत के आध्यात्मिक सम्बन्ध को भली-भांति
पहचानता है, तभी वह उसका प्रयोग करता है। उनको अपनी
कल्पना से अवेष्टिक करता है। काव्य में प्रतीकों का प्रयोग किसी न किसी रूप में सदैव
होता रहा है। कवियों के काव्य में कहीं सपाटबयानी दिखायी देती है, तो दूसरी ओर प्रतीकों का भी सुन्दर प्रयोग मिलता है। प्रतीक एक प्रकार से
काव्य-मूल्य बन गये हैं। प्रतीक के स्वरूप और उसके काव्य में प्रयुक्त होने की
प्रक्रिया के स्पष्टीकरण के पश्चात अब महेन्द्र कार्तिकेय के काव्य में प्रतीकों
के प्रयोगों का मूल्यांकन किया जायेगा। कार्तिकेय जी के काव्य में कुछ प्रतीक ऐसे हैं जिनकी पुनरावृत्ति हुई है। सम्भव है कि वे उन्हें अधिक प्रिय हैं। जैसे- बसन्त, समुद्र, शब्द, सड़क, शहर, जंगल, महानगर, नाव, गौरांग चिड़िया, धूप आदि, अधिकांश प्रतीक प्रकृति से ही लिये गये हैं। कुछ प्रतीकों का विस्तार से उल्लेख करना यहां आवश्यक है। जैसे-सबसे पहले बसन्त को ही लें। बसन्त का प्रयोग उल्लास, उमंग, यौवन के प्रतीक के रूप में किया गया है। कहीं उसके आने पर प्रसन्नता प्रकट की गई है, तो कहीं उसके आने का उल्लेख मात्र है। उनके काव्य संग्रह धुंध भरे पुल में शहर और बसन्त, मोहरे में बसन्त की प्रतीक्षा, शब्द नहीं मिटते में बसन्त आ गया, हथेली पर समुद् में कब आयेगा बसन्त कविताओं में बसन्त का चित्रण है। शहर और बसन्त में शहरी परिवेश और सभ्यता से बसन्त जैसी उन्मुक्त-मधुर उल्लास और उमंग की ऋतु सामंजस्य स्थापित नहीं कर पाती है। अतः वह नगरों में आते हुए भी घबराती है। नगरों की सड़ांध की दीवालों को पार नहीं कर पाती है। वह नगर के बाहर से ही दस्तक देकर लौट जाती है। ’बसन्त की प्रतीक्षा में बसन्त कवि के लिये मौसम नहीं है, वह अपने स्पर्श से ब्रह्मकाल को जगाता है, तन-मन निर्मल करता है, गन्तव्य तक पहुंचने का राजमार्ग है। कवि अपनी मृत्यु पूर्व ही इस बसन्त का आगमन चाहता है कब तक होगी प्रतीक्षा बसन्त की / मौसम नहीं वह पारस/जो स्पर्श जगाता है ब्रह्मकाल/जो मौसम नहीं/वह से है निर्मल मौसम नहीं/राजमार्ग/ जो यात्रा से बनता है गन्तव्य/ कब होगा अन्त बसन्त की प्रतीक्षा का आज या कल या उन ऊँची पहाड़ियों को धकेलने के बाद या रेत भरे दिये जलते देखकर/ या मेरी शवयात्रा पर/ कब होगा अन्त बसन्त की प्रतीक्षा का। बसन्त का पारम्परिक रूप मन में उल्लास भर देता है, उमंग भर देता है। तन उन्मुक्त हो जाता है। तितली-सा, परी-सा मन फर-फर उड़ जाता है। हवा में छा जाती है. पक्षी पंख फरफराते हैं.
पेड़ों के पुराने पीले पत्ते गिरकर नये हरे हरे आ जाते हैं- लगता है उन्होंने
वस्त्र बदल लिये हैं, पथरायी धरती से अंकुर फूट है-
लाल-लाल, पीले-पीले, नीले-नीले, नवयौवन के आगमन का आभास होता लगता है. बसन्त आ गया, तन मन में उमंगे जगा गया बंधे पाश कटे/ तितली सा फर-फर उड़े सोन परी सा/
लगा बसन्त आ गया / हवा में घुल गया मादकत्व / पाखी फरफराये, पेड़ों ने बदल लिये वस्त्र/ लगा बसन्त आ गया / पथराये धरती से फूटे अंकुर/
लाल, पीले, नीले, लौट आया युवत्व / लगा बसन्त आ गया। बसंत कहीं तो नगरीय सन्त्रासपूर्ण परिवेश के साथ ग्रामीण
उन्मुक्त एवं उल्लास और उमंग से परिपूर्ण परिवेश के साथ तुलना के रूप में प्रतीक
रूप में प्रयुक्त हुआ है, तो कहीं वह सीधे-सीधे उल्लास जगाने
वाली बसंत ऋतु के रूप में लिया गया है। ‘कब आयेगा बसंत’
में हर मौसम में बसंत आता है, वर्ष पर
वर्ष बीतते जाते हैं, हर बार पतझड़ होता है, बसंत आता है, पर पता नहीं मन का उल्लास कहां
चला जाता है, अनुभव ही नहीं होता कि बसंत आ गया बसंत/अब आता ही नहीं है/ बरस पर बरस/बीत रहे हैं / लगातार
झर रहे हैं पत्ते/नयी कोंपले/दिखती ही नहीं हैं/ किसी शाख पर / कहीं/कोई इंद्रधनुष
उगता ही नहीं है/ पता नहीं क्यों रूठ गया है बसंत।’ बरस पर बरस / बीत रहे हैं/ लगातार आ रहे तृण, द्रुम, पत्ते हवा, पानी, धूप/ आकाश, पाताल, जीवन/ लौट नहीं रहा है बसन्त/ लापता बच्चे सा/ पता नहीं चलता / रूठ कर कहां चला गया है। इन कविताओं में कार्तिकेय जी ने व्यंग्य किया है- आज के नगरों की सभ्यता पर जहां नकली बसन्त अर्थात केवल दिखावटी यौवन का बोलबाला है। असली यौवन तो ग्रामीण अंचलो में पलता है। यहां नगरों में उसकी कोई पूछ नहीं है- समस्त वातावरण में ’वास्तविकता’ को प्रमुखता मिली है। समुद्र एक ऐसा प्रतीक है जिसका कवि ने प्रचुरता से प्रयोग किया है। धुंध भरे पुल में चार, मोहरे में बारह, ठहरी हुई लहर में पांच, शब्द नहीं मिटते में तीन, केकड़ों के सिर पर ताज में चार, हथेली पर समुद्र में पांच, सागर स्पर्श में सात, स्मृतिवन में पांच कविताएं स्पष्ट रूप से सागर को लेकर लिखी गयी हैं। समुद्र तथा उसके पर्यायवाची सागर का उपयोग परिवेश और मौसमों का अन्तर, मानव मन की उल्लासहीनता, समाज में व्याप्त जड़ता एंव स्वार्थपरता, सृजनात्मकता की बेचैनी, महानता आदि अनेक अर्थों में किया गया है। जैसे बार-बार समुद्र होने में / देना ही होता है/ अपने भीतर के मत्स्य / मणि, रेत/ लवण/ मेरा निज क्या है/बार-बार होना समुद्र, लगातार करते रहना प्रयत्न/ खुद को रिक्त कर देना, और चन्द्र की रश्मियों में उझक-उझक हिलोरें लेना। सागर सदा दूसरों को देता ही रहता है। इसी भांति कवि भी सागर
से प्रेरणा लेकर दूसरों को देना ही चाहता है, स्वंय को रिक्त करके भी,
समुद्र लहरें मात्र नहीं है, वह तो हवा
भी है, जो कई कई सागर पार करके आती है और अपनी शीतलता
से, तन-मन की थकान और जड़ता हर लेती है, नये जीवन का संचार करती है। सागर जीवन के लिए अपरिहार्य है। वह अपने तट पर विश्राम देता
है, जल से स्फूर्ति देता है, भवसागर के पार जाने की
भावना जगाता है। उसके अमृत से ही देवता अमर हुए, शंकर
विषपायी कहलाए, उसमें उत्पन्न लक्ष्मी से ही विश्व में
ऐश्वर्य पाया। ’तुम्हारे ही अमृत से/जीवित हैं देवता, तुम्हारे ही विष से/ शंकर विषपायी/ तुम्हारी ही लक्ष्मी से / विश्व में
छाया ऐश्वर्य / सागर तुम्हारा होना ही / मेरे जीने के लिए है एक उद्देश्य/एक
ध्येय। सागर ने कवि को अत्यन्त प्रभावित किया है। कवि ने समस्त
विश्व सागरमय माना है. प्रभुमय माना है और सागर को प्रभ के समकक्ष स्थापित कर
सागर-मंच कविता में कवि ने यही बताने का प्रयास किया है’सागर में नदियां हैं/ पर्वत हैं / आकाश है, सागर
की सीमा है धरती धरती की सीमा आकाश है आकाश से / सागर आकाश ही लगता है जैसे प्रभु
ने छुआ हो समय / सब कुछ हो प्रभुमय सागरमय। कार्तिकेय जी ने पुल को प्रतीक बना कर अनेक कविताओं की
रचनाए की हैं । ’धुंध भरे पुल’ काव्य
संकलन में सात कविताएं पुल को प्रतीक मान कर रची गयी हैं। कवि ने पुल को दो
किनारों, सभ्यताओं, हृदयों
का संयोजक, वर्तमान की निराशाजनक स्थितियों में आशा का
प्रतीक मानकर प्रस्तुत किया है। ‘काश मैं पुल होता’ नामक कविता में कवि पुल को ’अपने को अपने से जोड़ने
का प्रतीक मानकर कहता है कि ’मैं सेतु नहीं हूं’. सेतु दो किनारों को जोड़ता है। मैं तो स्वंय एक किनारा हूं जो नदियों से, तालाबों से, सागर से टकराता रहता है। कवि की
अन्तिम इच्छा पुल होने की है जो अपने को अपने से जोड़ देता है। पुल केवल जोड़ना जानता है, उसे परिणाम की चिन्ता
नहीं होती है। उस पर सभी प्रकार की यात्राएं होती रहती हैं, हर सभ्यता में । वेदकाल से लेकर आधुनिक काल तक न जाने कितनी सभ्यताएं बीत
गयीं, किन्तु जर्जर होने पर भी सभ्यताओं को पार
पहुंचाने का, एक सभ्यता से दूसरी सभ्यता को जोड़ने का
कार्य करता रहता है और स्वंय अपने अस्तित्व को बचाये रखने का भी संघर्ष करता रहता
है। यथा चलते रहते हैं सभ्यताओं के चक्र, पुल के माथे
पर ही लिखा है रामायण/महाभारत/ वेद/ उपनिषद/अरण्यक/ और न जाने क्या क्या / प्रभु
की प्रकाश किरण और पुल / जबतक नहीं हो जाता जर्जर/ तब तक / लड़ता रहता है अपने
अस्तित्व का संघर्ष सतत जारी/रहता है संघर्ष। 'कुत्ते भौंकते' कविता प्रतीकात्मक की दृष्टि से सुन्दर कविता
है। जनता अपनी भान परिस्थितियों में जीवन-यापन के लिए विवश है, नित नयी-नयी समस्याओं के बीच फंसी है । वह केवल मुर्दाबाद के नारे लगाकर
ही अथवा व्यवस्था को गाली देकर ही रह जाती है, किन्तु
कुछ कर नही पाती है। लेकिन शासन तंत्र के कानों पर नहीं गती है।“ विशाल भिक्षापात्र को आज के निधन भारत तथा सड़ा नारियल को
भ्रष्ट नेताओं का प्रतीक मान कर रची गयी अस्तित्व बोध नामक छोटी सी कविता प्रतीकों की दृष्टि से
सशक्त कविता है- हमारा देश/ विशाल भिक्षापात्र नेता / सड़ा हुआ नारियल/ हम
अपाहिज अंधे नपुसंक / मृतधर्मी प्रजातंत्र के पोषक। आज के आस्थाहीन समस्याग्रस्त मानव की अपनी विवशता है। वह
अभिमन्यु के समान विभाजित आस्थाओं के चक्र में फंस कर मारा जा रहा है- मेरी आस्थाओं /जलो/ निर्द्वन्द्व /जलो अपनी ही / रोशनी में
/ गल/ गल/कर/छा जाओ/ मेरी आस्थाओं / मुझको ही / ठगो,अभिमन्यु-सा/ चक्रव्यूह में
फास कर / मेरी हत्या कर दो। व्यंग्य विद्वानों की दृष्टि में- व्यंग्य गहरी सामाजिक चिंता से
जुड़ी साहित्यक विधा है। जनता के कल्याण की हार्दिक आकांक्षा ही व्यंग्य को धार
देकर उसके प्रभाव को बढ़ाती है। जुमलेबाजी, भाषा के प्रति खिलदरेपन
कर रवैया किस्सा गोई आदि चीजें व्यंग्य को बहुत दूर तक नहीं ले जातीं । सामाजिक
अन्तर्दृष्टि के अभाव में जनता की वास्तविक प्रतिरोधात्मक शक्तियों के प्रति
उदासीन रहकर सार्थक व्यंग्य नहीं लिखा जा सकता। डा0 रामकुमार
वर्मा ने व्यंग्य के सार्थक उपयोग के संदर्भ में लिखा है- आक्रमण करने की दृष्टि
से वस्तुस्थिति को विकृत कर उससे हास्य उत्पन्न करना ही व्यंग्य है। सटायर’
नामक बहुचर्चित पुस्तक में आर्थर पोलार्ड का कथन है- व्यंग्य वस्तु-
-स्थिति की आलोचना मात्र करके नहीं रह जाता, अपितु उसकी
आदर्श स्थिति का भी निर्देश करता है। डा0 प्रेमशंकर का
मत है कि व्यंग्य वैचारिकता तथा संवेदन के संयोजन से सम्बद्ध होता है और एक ऐसी
रचनात्मक ऊँचाई प्राप्त करता है कि उसका निषेध करना, उसे
नकार पाना लगभग असम्भव हो जाता है। डा0 हजारी प्रसाद
द्विवेदी इस सम्बन्ध में कहते हैं- व्यंग्य वह है जहां कहने वाला अधरोष्ठ में हंस
रहा और सुनने तिलमिला उठा हो और फिर भी कहने वाले को जवाब देना अपने को और भी
उपहास्यास्पद बना लेना हो जाता है। सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई जी का मत
है- व्यंग्य जीवन से साक्षात्कार करता है, जीवन की
आलोचना करता है, विसंगतियों, मिथ्याचारों और पाखण्डों का पर्दाफाश करता है यह नाग नहीं है । मैं यह कह
रहा हूं कि जीवन के प्रति व्यग्यकार की उतनी ही निष्ठा होती है जितनी गभीर रचनाकार
की, बल्कि ज्यादा ही। वह जीवन के प्रति दायित्व का
अनुभव करता है। जिन्दगी बहुत जटिल है। इसमें खालिस हसना या खालिस रोना जैसी चीज
नहीं होती। बहुत सी हास्य रचनाओं में करुणा की धार है। डा0 रामदरस मिश्र के अनुसार- व्यंग्य विधान आधुनिक साहित्य का प्रमुख अंग है।
प्रगतिशील साहित्य ने पहली बार प्रभूत व्यंग्य विधान किया। समाज की सड़ी-गली
शक्तियां, रूढ़िगत परम्परायें, समान्ती और पूंजीवादी समाज की शोषक प्रवृत्तियां, उनकी अमानवीय भूख-प्यास, सुसंस्कृत और शिक्षित
शरीफों की हृदयहीनता और असंगतियां आदि प्रगतिशील साहित्य के व्यंग्य का विषय रहीं।
इनकी कुरूपताओं और अशक्तियों के ऊपर आवृत्त पर्दे को निर्ममता से हटाकर उनका मजाक
करना और उनकी निस्सारता दिखाकर शोषित किसान मजदूर जीवन की जीवन-शक्तिमत्ता का
समर्थन करना प्रगतिशील साहित्य का उद्देश्य था। प्रगतिशील साहित्य का व्यंग्य
हमेशा सोद्देश्य रहा और सोद्देश्यता हमेशा मानवीय संवेदना और नवनिर्माण की
परिकल्पना से प्रेरित रही। कवि महेन्द्र कार्तिकेय ने सामाजिक कुरीतियों, कुपरम्पराओं, रूढ़ियों, अन्धविश्वासों, सामाजिक संत्रास, महानगरीय त्रास आदि को उन्होंने व्यंग्य का विषय बनाया है। ’मुक्ति कहां’ कविता में गृहस्थी की विषम
परिस्थितियों में फंसे पतियों की व्यवस्था पर कवि ने व्यंग्य कसा है नहीं हो सकता पति होना पुण्य/ जानवर को भी जब पालते हैं /
तो करते हैं सेवा नहलाते हैं / खिलाते हैं / लेकिन पति को तो कोल्हू में पेर कर
निकाल लेते हैं तेल / बीवी और बच्चे /घर नहीं हो सकता है / फूलों की सेज वह एक मजबूत
खूटा है जिससे नहीं छूट पाता / कोई भी सांड / चाहे जैसी भी हो नस्ल / या बाड़। देश की वर्तमान भ्रष्ट राजनीति पर व्यंग्य करते हुए
कार्तिकेय जी ने नेताओं पर गहरा व्यंग्य किया है- अब तो पूरे देश में सन्नाटा है शमशानी नहीं है कोई/ देश का
हितैषी / या शुभचिन्तक / चोर उचक्को से भर गयी है ऊंची कुर्सिया । शासक वर्ग पर कार्तिकेय जी गहरा व्यग्य करते हैं- शासक वर्ग की पालकी ढोते हैं /हम और वह / रचता है एक
इंद्रजाल/ बैठाता है हमको / पालकी पर/ और खुद बन जाता है / कहार/ समाजवाद की फसलें
/सरकारी सांड चरते हैं। नेताओं तथा दलालों पर व्यंग्य करते हुये कार्तिकेय जी आज की
राजनीतिक पर जर करते हुए लिखा है- लोकतंत्र में चुनाव का मैदान / वैसा ही होता है जैसा कि/
सट्टा बाजार में शोरगुल से भरे दिन में / पूंजीपतियों की साजिश से /शेयरों के भाव
का बढ़ना / आंधिया चलती हैं /असली और नकली /शब्दों के हुनर बरसते हैं/ और फायदे की
उम्मीद में /अपनी अंटी से पैसा लगाने / वाली जनता को ठग लिया जाता है और / बांट
लेते हैं मुनाफे का हिस्सा / नेता और दलाल।“ हमारे नेता अपनी मातृ-भाषा त्याग कर अंग्रेजी में भाषण देना
गौरवपूर्ण उन पर व्यंग्य करते हुए कार्तिकेय जी ने उन्हे अंग्रेजों का कुत्ता कहा
है- मालिक की आवाज सुनकर/ रिकार्ड पर छपा कुत्ता / भौंकता
है/खोजता है मालिक को / गुमसुम रहता है/ पर क्या हो गया है/भारत के महान जन नेताओं
को/ यह अब भी /भौंकते हैं मालिक से / नाचते हैं मालिक से / गाते गुर्राते हैं
मालिक से/शायद इनके गलों में पट्टे हैं / पेट में भूख/माथे पर मालिक की भाषा। कवि ने अपने समय की भ्रष्ट राजनीति पर ही नहीं, अन्यत्र भी व्यंग्य दृष्टि डाली है। वे कहते हैं- अजीब समय आ गया है / कबीरदास केला बेच रहे हैं तुलसीदास
भांग / गनीमत है पकड़ में नहीं आये हैं / प्रभु राम और कृष्ण /नहीं तो कभी के सफा
हो गये होते उनके भी / नाक, कान। वन के सरल जीवन के माध्यम से वन में नामक कविता में
महेन्द्र कार्तिकेय जी पुलिस की कार्यशैली के साथ-साथ राजनैतिक घोटालों पर की व्यय
किया है। उदाहरण दृष्टव्य है- चाहे वह पेड़ हों / या पक्षी / या पशु / यहां नहीं है कोई
संविधान / कोई न्याय प्रक्रिया / न कोई राशन की दुकान/ तो भी कोई नहीं मरता भूख से
/ कोई नहीं मारा जाता नकली, पुलिस की मुठभेड़ में/ नहीं होता कोई
बोफोर्स या शेयर घोटाला/ कोई नहीं सोता भूख में ।’ जय बोल में मूर्ख जनता को नेताओं की, गरीब पत्नी कहकर और विकास को केवल फाइलों में बताकर गहरा व्यंग्य किया है- बन्द करो विद्यालय / काम-काज बन्द करो, मूर्खा शासन है/ खाली पेट डोलो। भारत की जनता तो / गरीब की लुगाई है / ठेगा छाप लोगों की /
तभी तो कमाई है / कागजी रूपया है / फाइली विकास है / पढ़ना-लिखना छोड़- कोई धंधा
काला खोल। प्रतीकों के माध्यम से मानव मूल्यों के बदलते स्वरूप को
चित्रित करने में कार्तिकेय जी विशेष रूप से सफल रहे हैं। आदमी को आदमी से लगाव
नहीं है, सब ओर स्वार्थ है, उपयोगितावाद की प्रमुखता है। व्यक्ति-व्यक्ति के बीच कटुता बढ़ी है।
आदमी-आदमी से निरन्तर दूर होता जा रहा है- आदमी में / सांप है/ बिच्छू है/ गोजर है/भेड़िया है / शेर है
/ आदमी के चेहरे से / झरती है। / जानवरों की शक्लें। आदमी / कुछ भी हो सकता है / आदमी से सावधान। महेन्द्र कार्तिकेय के प्रतीक इतने सटीक और बेधक हैं कि
पाठक के समक्ष समरस स्थितियां बेनकाब हो जाती हैं। इनके माध्यम से वे युग-जीवन की
विकृतियो, असंगतियाँ एव विडम्बनाओं को पूर्ण
सघनता के साथ अमियंजित करते हैं। उनके व्यय सीने पर धार रखते हुए प्रतीत होते हैं।
विसंगतियों की पहचान तो व्यंग्यपरकता से ही होती है, सामान्य
कथन से नहीं। भाषा प्राचीन आचार्यों और साहित्य-चितंकों की दृष्टि में
भाव-भाषा अधिक महत्वपूर्ण होता है। उनके अनुसार भाषा भाव को अभिव्यक्ति प्रदान
करने का साधन मात्र है, किन्तु भाव धारा की स्वछन्दता के
साथ-साथ भाषा के स्वरूप में परिवर्तन होता रहता है। अब भाव एवं भाषा दोनों ही एक
दूसरे के लिये महत्वपूर्ण हैं। आधुनिक काल में भाषा को अधिक महत्व प्रदान किया गया
है। भाषा के बिना भाव का कोई भी मूर्त स्वरूप सम्भव नहीं है। आधुनिक काल में, विशेषतः छायावादी काल से, भाषा को अधिक महत्व
दिया जाने लगा था। सभी संवेदनशील रचनाकारों ने भाषा की महत्ता को स्वीकार किया है।
भाषा उस संवेदनशील रचनाकार के असम्पृक्त व्यक्तित्व का अविभाज्य अंग है। डा०
रामस्वरूप चतुर्वेदी का मत है- ’प्रत्येक संवेदनशील रचनाकार
भाषा से संघर्ष और असंतोष का अनुभव गहरे स्तर पर बराबर करता है। यह संघर्ष और
असंतोष वस्तुतः उसका अपने आप से है क्योंकि भाषा उसके सम्पृक्त व्यक्तित्व का
अनिवार्य और अविभाज्य अंग है। भाषा के सन्दर्भ में डा0 देवराज
उपाध्याय का यह कथन विशेष ’यह सच है कि भाषा अनुभूतियों की
अभिव्यक्ति का माध्यम है किन्तु यांत्रिक माध्यम नहीं है, वह पुनः सर्जित होती है, निरन्तर सामाजिक
प्रयोग में आती रहने के कारण भाषा का अपना स्वरूप भी होता है जो अपने शब्दों के
भीतर अनेक भाव गंध या रूप-छाया छिपाये रहती है। वास्तविकता यह है कि प्रत्येक कवि अथवा लेखक ऐसी भाषा का
निर्माण करने का प्रयास करता है, जो उसके भावों एवं विचारों के अनुरूप
हो और जिसके द्वारा वह उन्हें सशक्त एवं प्रभावपूर्ण ढंग से अभिव्यक्त कर सके। अतः
भाषा का समर्थ एवं सक्षम होना अत्यावश्यक है। कारण यह है कि कवि के पास
भाषा-संकेतों के अतिरिक्त और कोई साधन, निजी भाव-विनिमय
का नहीं है। भाषा तो वह माध्यम है जो उसके जानने वाले लोगों के मानस-तल को एक कोटि
में लाकर स्थित कर देता है। इस साधन की साधना कवि जितनी कुशलता, सक्षमता से करता है, उसकी अभिव्यक्ति की पहुंच
उतने ऊंचे स्तरों तक पहुंच जाती है, वह उतने ही मधुर
एवं मृसण सौंदर्य के दर्शन कराने में सफल होता है। शब्द योजना महेन्द्र कार्तिकेय की भाषा में विभिन्न भाषाओं की शब्दावली
का प्रयोग हुआ है। भावाभिव्यक्ति के लिये भाषा के अनुकूल ही कवि ने शब्दों का चयन
किया है। महेन्द्र कार्तिकेय जी ने उर्दू (अरबी-फारसी) के शब्दों के
साथ--साथ अंग्रेजी के शब्दों का भी प्रचुर मात्रा में प्रयोग किया है। उन्होंने
जनता की बात को जनता की भाषा में जनता तक पहुंचाने का पूर्ण प्रयास किया है। वे
बेलाग बात करने में विश्वास रखते हैं। फिर भी अर्थ गाम्भीर्य में भी उनका विश्वास
है 1. शब्दों की शक्ति शब्दों में नहीं / होती
है शब्दों के अन्तर से फूटती। 2. यह शब्द मात्र नहीं / होते हैं मंत्र /
ऊर्जा से भरे-भरे / शक्ति के इंजन/ ढकेलते है जीवन के डिब्बों को, पग वश में नहीं रहता / कैसे रहे / शब्द ही खींचते हैं रास सा मन को इशारों
पर साधते। 3. शब्द जहां हैं / चूक जाती है दुनिया /
शब्दातीत हो जाते हैं शब्द खतम हो जाती कथा / चाहे छोटी / या बड़ी / या मझोली ही
क्यों न हो/ शब्द तो भी नहीं होते हैं खतम । कार्तिकेय जी ने सीधी-सादी भाषा का प्रयोग किया है और उसमें
गहन अर्थ भर दिया है। उपर्युक्त उदाहरण इसका उदाहरण है। सरल भाषा किन्तु अर्थ गहन
द्य वस्तुतः उपर्युक्त उदाहरण भाषा के प्रति कवि का मन्तव्य एवं दृष्टिकोण भी
प्रस्तुत करता है। देव दानव संघर्ष / कभी नहीं रूका / कभी नहीं हुआ अंत युद्ध
का/ संघर्ष जारी है / जारी ही रहेगा। अंग्रेजी के शब्दों का भी महेन्द्र कार्तिकेय ने यथास्थान
प्रयोग किया है। यथा रबर बैंड, सिनेमा. बस, रेलगाड़िया, ट्यूब लाइटें फ्लैट, बंगलो, मशीन, रिक्शा, डॉलर, नोट, टेक्टर.
राइसालेट, डीजल, बैंक, होटल, रेस्त्रा, स्लेट, कैनवास इत्यादि। कार्तिकेय जी ने इन शब्दों का प्रयोग निरर्थक अथवा
सप्रयास नहीं किया है। ये शब्द स्वाभविकता एवं भाषा में मारक प्रभाव उत्पन्न करने
के लिये प्रयुक्त हुए हैं। कहीं-कहीं तो इन शब्दों के स्थान पर हिन्दी का कोई भी
शब्द प्रयोग ही नहीं किया जा सकता। यथा- अच्छा नहीं है / रबर बैंड सा उसका फैलना /मन करता है / जल्दी
ही टूट जाये जड़ता। एक अन्य उदाहरण दृष्टव्य है- हर साल / स्टेनली मनाता है अपना जन्म दिन / लोकल ट्रेन में
/ चैम्बूर से बी0टी0 के बीच
/खिलाता है दोस्तों को/ केक और गोलियां। वस्तुतः यहा प्रत्येक अंग्रेजी शब्दों के अर्थ के वजन के
बराबर तथा अन्य कोई उतना ही सार्थक हिन्दी शब्द न मिल पाने के कारण प्रयोग में
लाया गया है। कार्तिकेय जी व्यक्ति के भोगे हुए क्षणों को, झेली हुई जिन्दगी को शब्द-प्रदान करते हैं तथा जीवन को जैसा देखते हैं, वैसे ही शब्दों में अभिव्यकत कर देते हैं- आया है कोई नया चौकीदार / या /है कोई लुटेरों का पुराना
सरदार / चारों ओर लूट है/ भीतर है नोटों का अम्बार/ बाहर है डालर का संसार। एक अन्य उदाहरण में किटकिटाहट, हड़हड़ाहट आदि शब्दों का प्रयोग किया गया है जो कविता की भाषानुकूल नहीं है, किन्तु यथार्थ की अभिव्यक्ति इन्हीं शब्दों से की जा सकती है- फिर भी करती हैं संघर्ष / जोर की होती है। किटकिटाहट, हड़हड़ाहट/ पत्थरों के गोल लुढ़कते हैं। लुढ़कते ही चले जाते हैं। कार्तिकेय जी की कविता में भोजपुरी अंचल विशेष के शब्दों का
भी प्रयोग हुआ है। यह प्रवृत्ति उनके भोजपुरी अंचल का निवासी होने के कारण है।
लुगाई, डोलना, दुपहरिया, ललौहाँ, गमछा, साड़, लंगोट, गमक आदि भोजपुरी शब्दों का कार्तिकेय जी
ने बहुत ही सुन्दर एवं सार्थक प्रयोग किया है। इन शब्दों के उदाहरण दृष्टव्य है- बंद करो विद्यालय/काम काज बंद करो/शासन है/खाली पेट डोलो। भारत की जनता तो / गरीब की लुगाई है / ठेंगा छाप लोगों की
/तभी तो कमाई है। हवा! मेरे घर के सामने के अशोक दल/ को हिला ले/ या सूरज/
अपने ललौहों के साथ डूब जाए । अचार पापड़ों के अम्बार/रिक्शों की घंटियों की टनटनाहट/ सांड़
और पान/लाल लंगोटे, गमछा और चादरें। धरती के जागे हैं भाग्य /माटी गमका रहे। कार्तिकेय जी ने कहीं-कहीं लोकगीत की शैली अपनाई है इससे
उनकी भाषा की मधुरता एवं कोमलता में और भी अभिवृद्धि हो जाती है- धरती के जाग है भाग्य/बंजर अंकुरा रहे/वरूण में कौंधा है
प्यार/ बादल मंडरा रहे/ बीजों में जाग रहे सपने / बंजर अंकुरा रहे/ धरती के जागे
है भाग्य/माटी गमका रहे। कार्तिकेय जी की भाषा में व्यंग्य एवं भाषा की अक्रामकता
हृदय को भीतर तक छीलती चली जाती है। छोटी कविताओं में इस प्रकार की विशेषता विशेष
रूप से देखने को मिलती है। यथा- हमारा देश/विशाल भिक्षापात्र/नेता/सडा हुआ नारियल/हम अपाहिज
अंधे नपुंसक/ मृतधर्मी प्रजातंत्र के पोषक। इसी प्रकार ’नियति’ नामक
लघु कविता में जनता धर्म तथा सहित्य पर तीखा व्यंग्य तिलमिला देता है- जन/सिगरेट की राख/धर्म/लाली पॉप की सड़ांध/साहित्य/चोंचला /
एक ही कैनवास/ कंकालों का ढेर/ रेत का विस्तार। कार्तिकेय जी भावानुसार शब्दों की योजना करते हैं। मानवीय
संवेदना तथा आत्मीयता की बात कहने के लिये सुकोमल एवं मृसण शब्दों का प्रयोग करते
हैं। शोषण और अत्याचार की बात तीखे और कठोर शब्दों में करते हैं।
व्यंग्य-विद्रूपता को अभिव्यक्त करने के लिए तीखे धारदार शब्दों का प्रयोग करते
हैं। दो उदाहरण प्रस्तुत हैं जो दोनों प्रकार की भाषा के अन्तर को स्पष्ट करते
हैं- 1. तुम किरण जब द्वार पर आ/ खींच लोगे हथेली
/ मैं उमगता /भोर का पल / चांदनी-सा चूम लूंगा। 2. वह/सिर्फ मुट्ठियां तानता है / दांत
किटकिटाता है / चीखता चिल्लाता है / नोंचता रहता है अपने बाल/ लोग जानते हैं /
उसकी पीड़ा के पहाड़। कार्तिकेय जी की भाषा में ध्वन्यात्मक एवं वरण निर्माण में
सहायक शब्दों का सुन्दर प्रयोग प्राप्त होता है। दो उदाहरण दृष्टव्य है- 1. पैसा नहीं होता है/ काला/या सफेद/ होता है
टनाटन/टनाटन /जिसके इशारे पर नाचते हैं/राजा और रंक नेता / और बेटा। 2. महानगर के चंगुल से मुक्त हुए/ ये सोनू, मोनू, चोनू, / झुक
झुक गाड़ी में जाते हैं। खिड़की से दिखता / लाल-लाल सूरज का गोला/ दूर कहीं पर
क्षितिज छोर पर/ झक-झक-झक साथ भागता / कभी पेड़ के पीछे सूरज/ कभी टूह को चमकाता /
साथ साथ चलता जाता है/ मंद-मंद डूबे हैं सूरज। महेन्द्र कार्तिकेय अनुभूति के कवि
हैं। वे बिना अनुभूति के नहीं लिखते। वे केवल कागज पर शब्द जोड़ कर लिखने वाले कवि
नहीं हैं। वे सृजन की अनिवार्यता से प्रेरित होकर ही लिखते हैं। डा0 नामवर सिंह के अनुसार- काव्य भाषा की कसौटी पर ’काव्यात्मक
भाषा’ और काव्यभास भाषा बीच भेद करना सम्भव है, जिससे वास्तविक काव्य को काव्य से अलग करने में मदद मिलती है। आज के
मूल्यांकन के लिये भाषा का अत्यन्त महत्व है। इस सन्दर्भ में चतुर्वेदी का कथन
दृष्टव्य है- आज की कविता को जांचने के लिये जो अब सचमुच प्रास के रजतपाश से मुक्त
हो चुकी है, अलंकारों की उपयोगिता अस्वीकार कर चुकी है
और छन्दों की पायल उतार चुकी है, काव्य-भाषा का
प्रतिमान शेष रह गया है, क्योंकि कविता के संगठन में
भाषा-प्रयोग की मूल और केन्द्रीय स्थिति है। कार्तिकेय जी ने अपनी कविताओं में मुहावरों तथा लोकोक्तियों
का बहुत सुन्दर प्रयोग किया है और इस प्रकार भाषा को सशक्त रूप प्रदान किया है।
कुछ मुहावरों के प्रयोग दृष्टव्य हैं 1. हरे हरे नेता/अभिनेता ही हैं/कुछ बिना
हल्दी फिटकरी के रांग चोखा लाने वाल हलवाई हैं। 2. हर आदमी बनना चाहता है राजा / डेढ़ ईट पर
खड़ा करना चाहता है किला। 3. जब सूंघ जाता है सांप/ प्रतिक्रिया कहां
/सिर्फ / खून की जगह पानी / उसी तमाशे में/ मजा है /बिन पेंदी का लोटा / लुढ़कता है
/ मजा देता है। 4. ओ मेरे प्रिय/इसमें शुबहा / नहीं बहुत
कुशलता से रचा है / तुमने यह व्यूह/ जंगल के जानवर ही मिल-जुल कर रहते हैं/ सींकों
के किले फूंक से ही उड़ जाते हैं। इस प्रकार महेन्द्र जी की भाषा अत्यन्त सशक्त है। किन्तु
कहीं-कहीं व्याकरण से च्युत शब्दों का भी कहीं-कहीं प्रयोग हुआ है और कुछ स्थलों
पर ही शब्द को दो रूपों में लिखा गया है। ऐसा कविता और भाव की मांग के अनुसार किया
गया है। दोषपूर्ण प्रयोग दृष्टव्य हैं- अज्ञानता (अज्ञान), मृत्योपरांत(मृत्योपरांत), आदि एक स्थल पर अज्ञान शुद्ध शब्द का प्रयोग भी हुआ है। जैसे- 1. हमारी अज्ञानता ही है। 2. जो जानते है सब कुछ नहीं है अज्ञान। 3. रोज रोज बढ़ता जाता है युग पुरूष का कद
मृत्योपरांत एक स्थल पर 'खत्म' शब्द के साथ-साथ ष्खतमष् भी लिखा गया
है तथा ’किसिम’ भी लिखे गये
हैं जैसे- 1. शब्दातीत हो जाते हैं शब्द खतम हो
जाती है कथा। 2. होना था, वह
तो होना था कंदरा कहां होगी खत्म किसे पता। 1. रंग-बिरंगे किस्म-किस्म के पक्षी
हाथी, शेर, भालू। 2. किसिम-किसम के झंडे के नीचे हैं
किसिम-किसिम के 109 चोरों का हाथ। अंलकार-योजना महेन्द्र कार्तिकेय के काव्य में अंलकार के प्रति मोह
दृष्णिोचर नहीं होता है। उनकी सपाटबयानी वाली सीधी और सरल कविताएं फिर भी
शब्दालंकार एवं अर्थालंकार दोनों ही प्रकार के अंलकार उनके काव्य में स्वाभाविक
रूप से प्रयुक्त हुए हैं। कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं- 1-अनुप्रास (क) जब मैगाटन, मिसाइल्स
के पोतों-परपोतों /भाई-भतीजों को / मेरे वक्ष पर घर दिया जाएगा। (ख) मौत / एक स्याही सोख/ सब कुछ सोख लेती
है। 2-उपमा (क) दिन/कोरे कागज सा आता है। / सब कुछ सोख
लेती है। (ख) मैं खुश हूं / हवा-सा खुश 3-रूपक (क) कुण्ठा पराजय चेतना के विष बुझे तीर /
मोड़ लो। (ख) हृदय के गाछ पीपल पर बिठाओ। 4-पुरूक्तिप्रकाश (क) खाते-खाते बच्चों को पकड़ता है/ जबरन
खिलाता है। 116 (ख) आओ सपनों को सपनों से जोड़े / जोड़-जोड़
देखें। 5-मानवीकरण (क) नारियल वनों में नाचती हैं ध्वनियाँ/
अनवरत/ चलता रहता/आंख मिचौली का खेल। (ख) सागर पिता है /धरती है मां / नदियां
पुत्र, पुत्रियां। 6- सन्देह (क) शायद मैं नहीं करता विश्वास प्रभु पर शायद मैं नहीं करता विश्वास अपने पुरूषार्थ पर शायद मैं नहीं करता विश्वास अपने परिवेश पर। (ख) यह दुनिया क्या है / कोई मेला है / कोई
नाटक है /कोई लीला है / या कोई ग्रामोफोन का रिकार्ड है। 7-भ्रान्तिमान (क) अब इंसान, इंसान
नहीं रहा / वह ढेला है जो दुश्मनों के शीशाघर को तोड़ता है और ढेर हो जाता है। (ख) वह कपास है जो यंत्रों के चरखों पर चढ़
बुन जाता है / नगद ठनठनाता। 8- वीप्सा (क) सांझ/धीरे-धीरे उतर रही है आकाश से /
जैसे कोई बुझा रहा हो / लालटेन दिन की / धीरे......धीरे......धीरे। 9- दृष्टान्त (क) जैसे जंगल में किसी पेड़ के चारों ओर/ नाच
रहे हों जुगनुओं के झुंड। (ख) आंख की पुतलियों में आती है रोशनी/ जैसे
बुझते हुए दिए को/ मिल जाये नेह का जल। 10- ध्वन्यर्थ व्यंजना (क) कुछ तो करो / कल कल जल / थल थल जल / पल
पल जल। (ख) आकाश में फड़फड़ाता नीलकंठी कपोत / हृदय
गाछ पीपल पर बिठाओ। 11-विरोधभास (क) हाथ बेहाथ हो जाता है / बेहाथ हाथ तो
जाता है। 12- विशेषण विपर्यय श्मशान में जलता हुआ आदमी/सुबह फोन पर / प्यारी-प्यारी
गालियां देगा। 13- स्मरण रोज रोज आते हैं सपने / लगता है / अब भी / हमारी अंगुलियों
में है व्याप्त / तुम्हारे अस्तित्व का अहसास। 14- स्वभावोक्ति नेता आते हैं / सहानुभूति दिखाते हैं / कोतवाल आते हैं /
कलक्टर आते हैं / सहानुभूति दिखाते हैं / कहते है च....च....च..../ बेचारा पागल हो
गया है / बुढ़ापा छा गया है 15- विनोक्ति कभी कभी-पत्थरों पर भी उग आते हैं बिन बोये फूल । 16- वक्रोक्ति
ऐसा
क्यों होता है कोई कोई चीज बहुत अच्छी लगती है। |
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निष्कर्ष |
उपर्युक्त उदाहरणों से स्पष्टतः कहा जा सकता है कि कार्तिकेय जी के काव्य में जितने भी अंलकार दृष्टिगोचर होते है, वे सभी नैसर्गिक रूप से प्रयुक्त हुए हैं। कहीं भी बलात् प्रयोग नहीं किया गया है। कबीर की भांति उनकी सपाट बयानी उन्हें अलंकारिकता के मोह से दूर किये रखती है- भावों में भी और शिल्प में भी। महेन्द्र कार्तिकेय की कविताओं का शिल्प पक्ष अत्यन्त सशक्त और सबल है। वह बहुआयामी है। कथ्य पर बल देते समय उसमें सपाटबयानी का समावेश हो गया है। सर्वत्र शिल्प सुगठित, संग्रथित एवं प्रभावपूर्ण है। भाषा भावानुसारिणी, सन्दर्भनुकूल एवं अर्थगाम्भीर्य से अभिमण्डित है। कविता की शब्दावली भावाभिव्यंजक, सघन एवं सान्द्र है जिसमें भावों के अनुरूप रत्नाकर की भांति कठोर एवं अनुरणनात्मक शब्द रूप तथा कोमलकान्त पदावली रूपी रमणीय एवं बहुमूल्य रत्न भी प्राप्त होते हैं। अत: उपरोक्त बिन्दुओं के आधार पर हम केवल महेन्द्र कार्तिकेय के शब्द विधान से ही नहीं अपितु 90वे के दशक के कवियों की कविता और उनमे मौजूद भावों ,विचारों तथा आवश्यकताओं को भी समझ सकते हैं| |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1. मिश्र, डा0 अनन्त: स्वतन्त्रयोत्तर हिन्दी कविता:
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11. कार्तिकेय, महेन्द्र :मोहरे: महेन्द्र कार्तिकेय,
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13. कार्तिकेय, महेन्द्र :सागर स्पर्श: महेन्द्र कार्तिकेय,
14. अवस्थी, डा0 मोहन : आधुनिक हिन्दी काव्य शिल्प, ई-पुस्तकालय http://epustkaly.com
15. मिश्र, भगीरथ : काव्य-शास्त्र, ई-पुस्तकालय http://epustkaly.com
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17. यादव, डा0 फूलबदन : रामदरस मिश्र: व्यक्तित्व और कृतित्व,राधा प्रकाशन ,नयी दिल्ली
18. कार्तिकेय, महेन्द्र :हथेली पर समुद्र:
19. कबीर: डा0 हजारी प्रसाद द्विवेदी,
20. कार्तिकेय, महेन्द्र :पारदर्शी अनन्तः
21. सिंह, डा0 नामवर : कविता के नये प्रतिमान,राजकमल प्रकाशन |