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आर्थिक विकास की अवधारणा एवं भारत के आर्थिक प्रगति का परिदृश्य | |||||||
Concept of Economic Development and Scenario of Economic Progress of India | |||||||
Paper Id :
16309 Submission Date :
2022-08-10 Acceptance Date :
2022-08-15 Publication Date :
2022-08-25
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सारांश |
वर्तमान लेख में आर्थिक विकास की विभिन्न अवधारणाओं तथा इसके मापन हेतु प्रचलित मापदण्डों का संक्षिप्त वर्णन करते हुए यह अवलोकन का प्रयास किया गया है कि स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात भारत की जो आर्थिक प्रगति हुई है उसका परिदृश्य किस प्रकार का रहा है। प्रस्तुत लेख में यह निष्कर्ष प्राप्त होता है कि स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात भारत की जो आर्थिक प्रगति हुई है वह विकास के परम्परागत अवधारणा एवं मानदण्डों के दृष्टिकोंण से तो काफी सन्तोषप्रद है परन्तु यदि विकास के आधुनिक अवधारणा के दृष्टिकोंण से देखा जाय तो यह प्रगति कहीं से भी संतोषजनक प्रतीत नहीं होती।
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | In the present article, while briefly describing the various concepts of economic development and the prevailing parameters for its measurement, an attempt has been made to observe that what has been the scenario of India's economic progress after independence. In the present article, it is found that the economic progress made by India after independence is quite satisfactory from the point of view of the traditional concept and norms of development, but if seen from the point of view of the modern concept of development, then this progress has come from somewhere, also does not seem satisfactory. | ||||||
मुख्य शब्द | आर्थिक, विकास, अवधारणा, आर्थिक प्रगति, मापदण्ड। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Economic Development, Concept, Economic Progress, Criteria. | ||||||
प्रस्तावना |
पिछले सात दशकों में आर्थिक विकास की अवधारणा एवं इसके मापन हेतु प्रयुक्त मापदण्डों में उल्लेखनीय रुप से परिवर्तन हुआ है। विकास की परम्परागत अवधारणा के अर्न्तगत विकास का मापन आय अथवा प्रतिव्यक्ति आय में वृद्धि को ही शामिल किया जाता था। परन्तु कालान्तर में आर्थिक विकास के मापन हेतु व्यापक मापदण्डों का प्रयोग करते हुए अनेक मानकों को विकसित किया गया जिसमें आय जैसे विशुद्ध आर्थिक कारकों के अतिरिक्त कई अन्य संरचनात्मक एवं सामाजिक कारकों को शामिलरते हुए नये-नये मापदण्डों को विकसित किया गया। साथ ही साथ, स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात, पिछले सात दशकों में भारत ने आर्थिक स्तर पर उल्लेखनीय रुप से प्रगति की है। इसी परिप्रक्ष्य में वर्तमान लेख में आर्थिक विकास की विभिन्न अवधारणाओं तथा इसके मापन हेतु प्रचलित मापदण्डों का संक्षिप्त वर्णन करते हुए यह अवलोकन का प्रयास किया गया है कि स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात भारत की जो आर्थिक प्रगति हुई है उसका परिदृश्य किस प्रकार का रहा है।
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अध्ययन का उद्देश्य | वर्तमान लेख में यह देखने का प्रयास किया गया है कि स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात भारत की जो आर्थिक प्रगति हुई है वह उसका परिदृश्य किस प्रकार का रहा है। वस्तुतः इस लेख में इस बात का अवलोकन किया गया है कि स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात देश की जो प्रगति हुई वह विकास के आधुनिक अवधारणा, जो व्यापक मापदण्डों पर आधारित है, के अनुरुप है कि नहीं? |
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साहित्यावलोकन | परम्परागत रुप में, 1960 के दशक से पहले, आर्थिक संवृद्धि एवं आर्थिक विकास की प्रक्रिया में कोई भेद नहीं माना जाता
था। इसीलिए परम्परागत रुप में आर्थिक विकास को एक ऐसी प्रक्रिया के रुप में
परिभाषित किया जाता था जिसमें कि देश के आय अथवा प्रतिव्यक्ति आय में दीर्घकालीन
वृद्धि होती रहती है[1]। परन्तु इस परिभाषा के अन्तर्गत प्रतिव्यक्ति
आय के बढ़ने या घटने का बोध नहीं होता है। जबकि दीर्घकाल में जनसंख्या में वृद्धि
के कारण राष्ट्रीय आय में वृद्धि होने के बावजूद प्रतिव्यक्ति आय में कमी हो सकती
है। अतः यह स्थिति आर्थिक विकास की सूचक नहीं हो सकती। इसीलिए कुछ अर्थशास्त्री
आर्थिक विकास को प्रतिव्यक्ति आय के आधार पर परिभाषित करते हैं[2]। ठीक इसी प्रकार, आर्थिक विकास की एक परिभाषा के अनुसार आर्थिक विकास को भौतिक कल्याण के रुप
में व्यक्त किया गया[3]। परम्परागत दृष्टिकोंण के अर्न्तगत ही कुछ
अर्थशास्त्री (क्लार्क[4], फिशर[5]) आर्थिक विकास को ‘व्यावसायिक संरचना’ में परिवर्तन के रुप में व्यक्त करते हैं। फिशर ने यह विचार
व्यक्त किया कि यदि किसी अर्थव्यवस्था में समय के साथ प्राथमिक क्षेत्र के अंशदान
में कमी आती है तथा द्वितीयक एवं तृतीयक क्षेत्र के अंश में वृद्धि होती जाती है
तो यह परिवर्तन आर्थिक विकास का द्दोतक होगा। उपरोक्त परिभाषाओं के आधार
पर ही पारम्परिक रुप से आर्थिक विकास के आंकलन के लिए राष्ट्रीय आय एवं
प्रतिव्यक्ति आय को ही मापदण्ड के रुप में प्रयोग किया जाता रहा। परन्तु, 1970 के दशक में अनेक अध्ययनों में यह पाया गया कि अनेकों ऐसे
देश रहे जहॉ दीर्घकाल में राष्ट्रीय आय एवं प्रतिव्यक्ति आय में तो तीव्र गति से
वृद्धि हुई लेकिन इन देशों के लोगों के जीवन स्तर में कोई सुधार नहीं हुआ। इसलिए
अनेकों विद्वानों ने आर्थिक विकास को आधुनिक ढंग से परिभाषित किया जिसके अन्तर्गत
आर्थिक विकास को आय अथवा प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि के रुप में न व्यक्त करके
बल्कि सामाजिक कल्याण में वृद्धि के रुप में व्यक्त किया जाता है। इस दृष्टिकोंण
के अन्तर्गत, आर्थिक विकास को एक ऐसी प्रक्रिया के रुप में
परिभाषित किया जाता है जिसके फलस्वरुप गरीबी, बेरोजगारी तथा आय की असमानता में कमी होती है। आधुनिक विद्वानों (डूड्ले
सीयर्स[6], डेनिस गाउलेट[7]) का यह मत है कि यदि दीर्घकाल में किसी देश में गरीबी, बेरोजगारी तथा आय की असमानता में कमी होती तथा जीवन स्तर
में सुधार होता है तभी यह माना जाना चहिए कि विकास हुआ है अन्यथा यदि गरीबी, बेरोजगारी तथा आय की असमानता में कमी नहीं हुई है और जीवन
स्तर में सुधार नहीं हुआ है तो यह विकास नहीं कहा जा सकता भले हीं राष्ट्रीय आय
में कितनी ही वृद्धि हुई हो। इसीलिए, आधुनिक दृष्टिकोंण के अर्न्तगत आर्थिक विकास के आंकलन के लिए गरीबी, बेरोजगारी, आय में असमानता, जीवन स्तर जैसे मापदण्डों को ही आधार माना गया। वस्तुतः, आधुनिक विचारधारा के अर्न्तगत एक यह भी मत विकसित हुआ कि
आर्थिक विकास का आकलन राष्ट्रीय आय के बजाय ‘सामाजिक अथवा मूलभूत आवश्यकता’ सम्बन्धी मापदण्ड के आधार पर किया जाना चाहिए। इन अर्थशास्त्रियों ने सामाजिक
सूचक के लिए गरीबी, बेरोजगारी तथा आय में असमानता को आधार बनाया तथा
मूलभूत आवश्यकता सूचक के लिए जिन सामाजिक सूचकों को शामिल किया वे हैं- स्वास्थ्य, शिक्षा, खाद्य, जल आपूर्ति, स्वच्छता तथा आवास। इसी सन्दर्भ में 1970 के दशक में एक अर्थशास्त्री मौरस डी मौरिस ने एक सूचकांक, ‘भौतिक जीवन कोटि सूचकांक (पी0क्यू0एल0आई0)’ का निर्माण किया और इसके लिए उन्होंने ‘जीवन प्रत्याशा’, ‘साक्षरता दर’ तथा ‘शिशु मृत्युदर’ नामक तीन चरों को शामिल कियाख्8,।
आर्थिक विकास के आकलन के
लिए पाकिस्तानी अर्थशास्त्री महबूब-उल-हक ने आर्थिक विकास के सर्वमान्य सूचकांक को
विकसित करने की दिशा में सबसे पहले प्रयास शुरु किया और उन्होंने एक सूचकांक ‘मानव विकास सूचकांक (एच0डी0आई0)’ को विकसित किया। इस सूचकांक को ही ‘संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यू0एन0डी0पी0)’ के अर्न्तगत विभिन्न देशों के विकास के स्तर का
आंकलन किया जाता है। यह सूचकांक इस अवधारणा पर आधारित है कि, ‘‘किसी राष्ट्र में रहने वाले लोग ही उस राष्ट्र की वास्तविक
सम्पत्ति होते हैं। आर्थिक विकास का मूल उद्देश्य एक ऐसा वातावरण तैयार करना है
जिसमें लोग लंबे, स्वस्थ तथा एक सृजनात्मक जीवन का आनंद ले सकें।’’ इसीलिए मानव विकास सूचकांक का निर्माण तीन सूचकों के आधार
पर किया जाता है। ये सूचक हैं- जीवन प्रत्याशा, शिक्षा का स्तर तथा प्रति व्यक्ति वास्तविक आय। मानव विकास के परिदृश्य को और
स्पष्ट करने के लिए यू0एन0डी0पी0 ने दो और सूचकांको को विकसित किया। ये सूचकांक है- लिंगक विकास सूचकांक (जी0डी0आई0), तथा मानव गरीबी सूचकांक (एच0पी0आई0)। इस प्रकार, यू0एन0डी0पी0 के अर्न्तगत वर्तमान समय में एच0डी0आई0, जी0डी0आई0 तथा एच0पी0आई0 तीनों मिलकर किसी देश के विकास की स्थिति का आकलन करते हैं। |
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सामग्री और क्रियाविधि | वर्तमान अध्ययन की प्रकृति विवेचनात्मक है और यह द्वितीयक आंकड़ों तथा विभिन्न सन्दर्भ ग्रन्थों पर आधारित है जिनकों लेख के यथोचित स्थान पर सन्दर्भित किया गया है। अध्ययन के अर्न्तगत, सर्वप्रथम, साहित्यावलोकन के माध्यम से, आर्थिक विकास की अवधारणा एवं इसके मापन हेतु प्रचलित मापदण्डों का संक्षिप्त वर्णन किया गया है। इसके पश्चात, तथ्यों एवं आंकड़ों का प्रयोग करते हुए, स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात भारत के आर्थिक प्रगति का एक अवलोकन प्रस्तुत किया गया है। इन दोनों के आधार पर अध्ययन के निष्कर्ष को प्रस्तुत किया गया है। |
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विश्लेषण | भारत के आर्थिक प्रगति का परिदृश्य देश के विकास यात्रा की एक महत्वपूर्ण विशेषता यह रही कि स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात देश के राष्ट्रीय आय एवं प्रति व्यक्ति आय में उत्तरोत्तर रुप में वृद्धि होती गयी। यह इस बात से स्पष्ट है कि राष्ट्रीय आय जो 1950-51 में 2,69,724 करोड़ रु0 थी वह बढ़करके 1970-71 में 5,96,470 करोड़ रु0, 1980-81 में 7,95,193 करोड़ रु0, 1990-91 में 13,42,031 करोड़ रु0, 2000-01 में 22,91,795 करोड़ रु0, 2010-11 में 46,57,438 करोड़ रु0 तथा 2017-18 में 1,15,31,159 करोड़ रु0 हो गयी। इसी प्रकार प्रतिव्यक्ति आय भी जो 1950-51 में 7,513 रु0 थी वह बढ़करके 1970-71 में 11,025 रु, 1980-81 में 11,711 रु, 1990-91 में 15,996 रु, 2000-01 में 22,491 रु0, 2010-11 में 39,270 रु0 तथा 2017-18 में 87,623 रु0 हो गयी।[8] यद्यपि कि राष्ट्रीय आय एवं प्रति व्यक्ति आय के मूल्यों में तो उत्तरोत्तर रुप से वृद्धि होती गयी परन्तु इनके वृद्धि दर में उतार-चढ़ाव होती रही है। पहली योजना में राष्ट्रीय आय में वृद्धि दर जहॉ 4.6 प्रतिशत थी वहीं यह गिरकरके दूसरी, तीसरी योजना एवं चौथी योजना में क्रमशः 4.1 प्रतिशत, 3.3 प्रतिशत तथा 3.0 प्रतिशत पर आ गयी। परन्तु इसके पश्चात, आंठवीं योजना तक इसमें निरन्तर वृद्धि की प्रवृत्ति जारी रही। राष्ट्रीय आय में होने वाली वृद्धि दर पांचवी योजना में 4.0 प्रतिशत, छठवीं योजना में 5.3 प्रतिशत, सातवीं योजना में 5.8 प्रतिशत तथा आठवीं योजना में 6.5 प्रतिशत पर पहुॅच गयी। परन्तु नवमी योजना में इसमें पुनः गिरावट हुई और यह 5.4 प्रतिशत पर आ गयी। दसवीं तथा ग्यारहवीं योजना में यह पुनः बढ़करके क्रमशः 7.6 प्रतिशत तथा 7.6 प्रतिशत पर पहुँच गयी। लेकिन बारहवीं योजना में इसमें गिरावट दर्ज की गयी और यह 6.7 प्रतिशत पर आ गयी।[9] राष्ट्रीय आय में वृद्धि दर की तरह ही प्रति व्यक्ति आय के वृद्धि दर में भी उपरोक्त प्रवृत्ति ही दर्ज की गयी। क्योंकि पहली योजना में प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि दर जहॉ 2.7 प्रतिशत थी वहीं यह गिरकरके दूसरी, तीसरी एवं चौथी योजना में क्रमशः 2.0 प्रतिशत, 1.0 प्रतिशत तथा 0.7 प्रतिशत पर आ गयी। परन्तु इसके पश्चात, आंठवीं योजना तक इसमें निरन्तर वृद्धि की प्रवृत्ति जारी रही। प्रति व्यक्ति आय में होने वाली वृद्धि दर पांचवी योजना में 2.7 प्रतिशत, छठवीं योजना में 3.1 प्रतिशत, सातवीं योजना में 3.7 प्रतिशत तथा आठवीं योजना में 4.4 प्रतिशत पर पहुॅच गयी। परन्तु नवमी योजना में इसमें पुनः बिरावट हुई और यह 3.4 प्रतिशत पर आ गयी। दसवीं तथा ग्यारहवीं योजना में यह पुनः बढ़करके क्रमशः 6.0 प्रतिशत तथा 6.4 प्रतिशत पर पहुॅच गयी। लेकिन बारहवीं योजना में इसमें गिरावट दर्ज की गयी और यह 5.3 प्रतिशत पर आ गयी।[10] किसी भी देश के आय में वृद्धि के लिए एक आवश्यक घटक बचत एवं पूॅजी निर्माण होता है। देश की विकास यात्रा को शुरु करते समय देश के समक्ष एक चुनौती यह थी कि बचत एवं पूॅजी निर्माण की दर काफी कम थी। योजना काल में इसमें निरन्तर वृद्धि होती गयी है। यह बात इन तथ्यों से स्पष्ट है कि बचत की दर, जी0डी0पी0 के प्रतिशत के रुप में, जो 1950-51 में केवल 9.5 प्रतिशत थी वह बढ़करके 1973-74 में 16.8 प्रतिशत, 1980-81 में 17.8 प्रतिशत, 1990-91 में 22.9 प्रतिशत, 2000-01 में 23.7 प्रतिशत, 2011-12 में 31.3 प्रतिशत हो गयी तथा 2017-18 में 30.5 प्रतिशत रही। इसी प्रकार पूजी निर्माण की दर, जी0डी0पी0 के प्रतिशत के रुप में, भी जो 1950-51 में केवल 9.3 प्रतिशत थी वह बढ़करके 1973-74 में 17.3 प्रतिशत, 1980-81 में 19.2 प्रतिशत, 1990-91 में 26.0 प्रतिशत, 2000-01 में 24.3 प्रतिशत, 2011-12 में 32.5 प्रतिशत हो गयी तथा 2017-18 में 32.3 प्रतिशत रही।[11] जैसा कि लेख के प्रथम भाग में उल्लेख किया गया कि किसी देश के आर्थिक प्रगति का आंकलन देश में हुए संरचनात्मक परिवर्तन के मापदण्ड पर भी किया जा सकता है। इस सन्दर्भ में देश के आर्थिक विकास की एक महत्वपूर्ण विशेषता यह भी रही कि देश के विकास यात्रा के आगे बढ़ने के साथ-साथ इसमें उल्लेखनीय रुप से एक संरचनात्मक परिवर्तन देखने को मिलता है। वह यह कि देश के राष्ट्रीय आय में कृषि क्षेत्र का अंशदान, जो स्वतन्त्रता प्राप्ति के समय आधे से अधिक था, निरन्तर कम होता गया जबकि उद्योग एवं सेवा क्षेत्र का अंशदान लगातार बढ़ता गया। 1950-51 में देश के राष्ट्रीय आय में कृषि क्षेत्र का अंशदान जो 53.71 प्रतिशत था वह घटकरके 1980-81 में 38.2 प्रतिशत, 2000-01 में 15.21 प्रतिशत तथा 2016-17 में 18.24 प्रतिशत रह गया। दूसरी तरफ, 1950-51 में देश के राष्ट्रीय आय में औद्योगिक क्षेत्र का अंशदान जो 14.35 प्रतिशत था वह बढ़करके 1980-81 में 23.03 प्रतिशत, 2000-01 में 24.29 प्रतिशत तथा 2016-17 में 28.44 प्रतिशत हो गया। ठीक इसी प्रकार, 1950-51 में देश के राष्ट्रीय आय में सेवा क्षेत्र का अंशदान जो 31.94 प्रतिशत था वह बढ़करके 1980-81 में 38.77 प्रतिशत, 2000-01 में 50.50 प्रतिशत तथा 2016-17 में 53.32 प्रतिशत हो गया।[12] राष्ट्रीय आय एवं प्रतिव्यक्ति आय तथा संरचनात्मक परिवर्तन के साथ-साथ योजनाकाल में देश के भौतिक संसाधनों- विद्युत, कोयला, इस्पात, सीमेण्ट तथा पेट्रोलियम इत्यादि के उत्पादन की मात्रा में भी उल्लेखनीय रुप से विस्तार हुआ। उदाहरण के लिए विद्युत उत्पादन क्षमता 1950-51 में 5.1 बिलियन किलो वॉट से बढ़कर 2013-14 में 962 बिलियन किलो वॉट हो गया। इसी प्रकार कोयले का उत्पादन जो 1950-51 में 32 मिलियन टन था वह बढ़करके 2013-14 में 565.64 मिलियन टन हो गया। इसी प्रकार पेट्रोलियम का उत्पादन जो 1950-51 में 0.2 मिलियन टन था वह बढ़करके 2013-14 में 230.62 मिलियन टन हो गया[13]। इसके साथ ही साथ योजनाकाल में ही देश में अवस्थापना सुविधाओं- रेलवे, सड़क, जल परिवहन तथा वायु परिवहन इत्यादि सुविधाओं में उल्लेखनीय रुप से विस्तार हुआ। किसी भी देश आर्थिक प्रगति का आंकलन उसके विदेशी व्यापार की स्थिति के आधार पर भी किया जा सकता है जिसमें एक प्रमुख मापदण्ड होता है व्यापार अवशेष (निर्यातों एवं आयातों के बीच अन्तर)। देश के विकास प्रक्रिया में एक प्रमुख समस्या यह रही है कि देश का व्यापार अवशेष अधिकांश वर्षो में घाटे में ही रहा है। इससे देश के समक्ष समय-समय पर विदेशी विनिमय का संकट उत्पन्न होता रहा। स्वतन्त्रता प्राप्ति के समय देश का व्यापार अवशेष अतिरेक की स्थिति में था परन्तु इसके बाद लगातार इसमें घाटे की स्थिति बनी रही। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद लगभग 50 वर्षों अवधि में केवल 1976-77 से 1979-80 की अवधि ऐसी रही जिसमें व्यापार अवशेष में अतिरेक की स्थिति रही शेष सभी वर्षो में घाटे की स्थिति बनी रही। यद्यपि कि इस अतिरेक का आकार बहुत छोटा (0.6 प्रतिशत) था फिर भी यह अवधि देश के भुगतान सन्तुलन की दृष्टिकोंण से ‘स्वर्णिम अवधि’ रहा[14]। परन्तु, देश में 1991 में आर्थिक सुधारों के शुरु होने के पश्चात घाटे के आकार (व्यापार घाटा जी0डी0पी0 के प्रतिशत के रुप में) में कमी हुई जो घाटे की स्थिति में सुधार का द्योतक है। वस्तुतः, स्वतन्त्रता प्राति के बाद देश में यह पहली बार घटित हुआ कि आर्थिक सुधारों की अवधि में ही लगातार तीन वर्षों तक, नवमीं योजना का अंतिम वर्ष (2001-02) तथा दसवीं योजना के दो प्रारम्भिक वर्ष (2002-03 तथा 2003-04), देश का व्यापार आवशेष में अतिरेक की स्थिति बनी रही[15]। इसीलिए इस अवधि को देश के भुगतान अवशेष के सन्दर्भ में ‘स्वर्णिम अवधि’ कहा जाता है। योजनाकाल में देश के विदेशी व्यापार में एक सकारात्मक परिवर्तन भी देखने को मिला है और यह कि देश के, विकास के सन्दर्भ में, विदेशी व्यापार की संरचना में उललेखनीय रुप से परिवर्तन हुआ है। योजनाकाल के प्रारम्भिक वर्षों में देश के निर्यातों में प्राथमिक वस्तुओं अर्थात् कृषि एवं कृषि से सम्बन्धित उत्पादों का अंशदान ज्यादे था तथा औद्योगिक वस्तुओं का अंशदान कम था। परन्तु, बाद के वर्षों में इसमें उल्लेखनीय रुप से परिवर्तन हुआ और देश के निर्यातों में प्राथमिक वस्तुओं के अंशदान में निरन्तर कमी होती गयी जबकि औद्योगिक वस्तुओं के अंशदान में निरन्तर वृद्धि होती गयी। 1960-61 में भारत के कुल निर्यातों में कृषि एवं कृषि से सम्बन्धित उत्पादों का अंश 44.2 प्रतिशत जो घटकरके 1990-91 में 19.4 प्रतिशत तथा 2018-19 में 11.8 प्रतिशत पर आ गया जबकि औद्योगिक वस्तुओं का अंश 1960-61 में 45.3 प्रतिशत था जो बढ़कर 1990-91 में 72.9 प्रतिशत तथा 2018-19 में 70.3 पर पहुँच गया[16]। यह परिवर्तन देश के विकास का द्योतक है क्योंकि सैद्धान्तिक स्तर पर यदि किसी देश के निर्यातों में प्राथमिक वस्तुओं के अंश में कमी हो और आद्योगिक वस्तुओं के अंश में वृद्धि हो तो यह परिवर्तन देश के विकास का परिचायक होता है। इस प्रकार उपरोक्त विश्लेषण से यह स्पष्ट है कि योजनाकाल में देश के न केवल राष्ट्रीय आय एवं प्रतिव्यक्ति आय में वृद्धि हुई बल्कि विकास के अनुरुप संरचनात्मक परिवर्तन होने के साथ-साथ भौतिक संसाधनों एवं अवस्थापना सुविधाओं में उल्लेखनीय रुप से विस्तार हुआ। परन्तु यदि उपरोक्त विस्तार को सामाजिक सुविधाओं- शिक्षा, स्वास्थ्य इत्यादि के सन्दर्भ में देखें तो यह प्रगति संन्तोषजनक नहीं कही जा सकती है। यद्यपि कि योजनाकाल के दौरान देश में सभी स्तर के शिक्षण संस्थाओं की संख्या में उत्तरोत्तर रुप में वृद्धि होती गयी फिर भी इसका प्रभाव संतोषजनक नहीं रहा[17]। यदि शिक्षण सुविधाओं के प्रभाव को एक आधारभूत मापदण्ड- साक्षरता के रुप में देखें तो देश के लिए यह 2011 में 73 प्रतिशत थी। इस प्रकार आजादी प्राप्ति के लगभग छः दशकों के बाद भी 27 प्रतिशत अर्थात् एक चौथाई से भी अधिक जनसंख्या असाक्षर रही। यदि देश की साक्षरता दर को विश्व के अन्य देशों के सन्दर्भ में देखा जाय तो स्थिति और असन्तोषजनक प्रतीत होगी। विश्व बैंक के वर्ल्ड डेवलपमेण्ट इण्डिकेटर रिपोर्ट (2017) के अनुसार 2007 से 2017 की अवधि के बीच देश के वयस्कों के लिए साक्षरता दर 79 प्रतिशत थी जबकि इसी अवधि में श्रीलंका के लिए यह 93 प्रतिशत, फिलीपीन्स के लिए 96 प्रतिशत तथा चीन के लिए यह दर 97 प्रतिशत थी। इसी प्रकार यद्यपि कि योजनाकाल के दौरान देश में स्वास्थ्य संस्थाओं की संख्या में उत्तरोत्तर रुप में वृद्धि होती गयी फिर भी यह वृद्धि न तो पर्याप्त रही और न ही इसका प्रभाव संतोषजनक रहा। यदि देश में स्वास्थ्य सुविधाओं के प्रभाव का आंकलन ‘शिशु मृत्यु दर’ तथा ‘जीवन प्रत्याशा’ के आधार पर करें तो यह पाते हैं कि 2012 में देश के लिए, प्रति 1000 जीवित जन्में शिशुओं के लिए शिशु मृत्यु की संख्या 63 रही तथा जीवन प्रत्याशा 65.8 वर्ष रही। देश की यह स्थिति श्रीलंका तथा बंग्लादेश जैसे देशों की तुलना में असन्तोषजनक रही क्योंकि 2012 में ही श्रीलंका के लिए ‘शिशु मृत्यु दर’ तथा ‘जीवन प्रत्याशा’ क्रमशः 48 तथा 69.2 वर्ष रही और बांग्लादेश के लिए ‘शिशु मृत्यु दर’ तथा ‘जीवन प्रत्याशा’ क्रमशः 17 तथा 75.7 वर्ष रही[18]। देश के विकास यात्रा में गरीबी एक प्रमुख समस्या बनी रही। इसका एक चिन्तनीय पहलू यह है कि इसको परिभाषित करने एवं इसका आंकलन करने में ही व्यावहारिक कठिनाईयाँ उत्पन्न होती हैं। इसीलिए इसको परिभाषित करने एवं आंकलन करने के सन्दर्भ में समय-समय पर न केवल देश में बल्कि वैश्विक स्तर पर भी अनेकों प्रयास होते रहें हैं तथा अनेकों मापदण्ड विकसित किये गये। इसी सन्दर्भ में योजना आयोग द्वारा गठित एक समिति (तेन्दुलकर समिति)[19] ने अपनी रिपोर्ट में उल्लेख किया कि गरीबी का अभिप्राय ‘मूल मानवीय आवश्यकताओं’ को पूरा कर पाने की असमर्थता से होता है। मूल मानवीय आवश्यकता के पूर्ति के लिए समिति ने अनेक कारकों यथा- पर्याप्त पौष्टिक आहार प्राप्त करना, पहनने के लिए उपयुक्त वस्त्र, निवास करने के लिए उपयुक्त आवास, बीमारियों से बचने की क्षमता, एक न्यूनतम स्तर तक शिक्षित होना, तथा सामाजिक अन्तःक्रिया के लिए एवं आर्थिक गतिविधियों में प्रतिभाग करने के लिए गतिशीलता को आवश्यक माना। इस प्रकार इस समिति ने यह मत व्यक्त किया कि गरीबी की समस्या का स्वरुप ‘बहुआयामी’ है। स्पष्ट है कि इस संक्लपना के आधार पर गरीबी का आंकलन करना व्यावहारिक रुप में अत्यन्त ही कठिन है। क्योंकि इसके लिए मात्रात्मक चरों के आंकलन के साथ-साथ अनेकों गुणात्मक चरों का मापन भी आवश्यक होगा जो संभव नहीं है। इसीलिए, सामान्य रुप से, गरीबी को परिभाषित करने के लिए केवल मात्रात्मक चरों को ही आधार बनाया जाता है और इसमें भी केवल ‘जीवन निर्वाह के लिए आवश्यक न्यूनतम उपभोग के स्तर’ पर विचार किया जाता है। योजना आयोग ने इसे ग्रामीण क्षेत्र के लिए प्रति व्यक्ति 2400 कैलोरी तथा शहरी क्षेत्रों के लिए प्रतिव्यक्ति 2100 कैलोरी निर्धारित किया। योजना आयोग द्वारा तथा विभिन्न समितियों द्वारा समय-समय पर प्रचलित कीमतों के आधार पर ‘जीवन निर्वाह के लिए आवश्यक न्यूनतम उपभोग के स्तर’ पूर्ण करने के लिए आवश्यक आय का निर्धारण किया जाता रहा है। इन मापदण्डों के आधार पर ही देश में समय-समय पर योजना आयोग द्वारा तथा भिन्न-भिन्न अर्थशास्त्रियों एवं समितियों द्वारा गरीबी का आंकलन किया जाता रहा है। देश में विद्यमान गरीबी का आंकलन सर्वप्रथम 1960 के दशक में 1967-68 की ग्रामीण जनसंख्या के लिए चार अध्ययन- बी0एस0 मिन्हास, पी0के0 बर्धन, एम0एस0 अहलूवालिया तथा बी0एम0 दाण्डेकर एवं एन0के0 रथ, किया गया। परन्तु इन चारो अध्ययनों द्वारा आंकलित गरीबी के अनुपातों में काफी भिन्नता रही। इन अध्ययनों द्वारा आंकलित गरीबी अनुपात क्रमशः 37.1, 54.0, 56.5 तथा 40.0 प्रतिशत रही। योजना आयोग ने गरीबी के आंकलन का कार्य 1970 के दशक के आरम्भ से करना शुरु किया और सर्वप्रथम वर्ष 1973-74 के लिए गरीबी के अनुपात का आंकलन किया जिसके अनुसार देश में गरीबी का अनुपात 54.9, प्रतिशत था। अर्थात्, देश के स्वतन्त्र होने के लगभग ढाई दशक बाद भी देश की आधे से अधिक जनसंख्या (32 करोड़) गरीबी रेखा के नीचे थी और यह समस्या देश के समक्ष के गंभीर चुनौती उभरकर सामने आयी। यद्यपि कि 1983-84 में गरीबी अनुपात घटकरके 44.5 प्रतिशत, तथा 1993-94 में 36.0 प्रतिशत, अर्थात् 32 करोड़ जनसंख्या, पर आ गया[20]। इस प्रकार यदि इस अवधि के दौरन हुए जनसंख्या वृद्धि पर विचार किया जाय तो यह प्रतीत होता है कि इस समस्या में कोई संतोषजनक सुधार नहीं हुआ क्योंकि देश में गरीबों की संख्या में गिरावट नहीं हुई। नौवीं योजना में आयोग द्वारा सुरेश तेन्दुलकर की अध्यक्षता में गठित विशेषज्ञ समूह की समिति ने आंकलन प्रस्तुत किया किया कि 2004-05 में देश में गरीबी अनुपात 37.2 प्रतिशत थी। इसी प्रकार सरकार द्वारा गठित रंगराजन समिति[21] ने आंकलन प्रस्तुत किया कि 2011-12 के लिए देश में गरीबी अनुपात 29.5 प्रतिशत थी। यदि इसको संख्या के रुप में देखें तो यह लगभग 36 करोड़ है जबकि 1973-74 में गरीबी संख्या के रुप में लगभग 32 करोड़ के बराबर ही थी। इस प्रकार गरीबी अनुपात में भले ही कमी होती गयी फिर भी इस समस्या के भार में कमी नहीं आयी। यदि देश में गरीबी की स्थिति को ‘मानव विकास सूचकांक’ के आधार पर देखा जाय तो भी स्थिति संतोषजनक नहीं प्रतीत होती है क्योंकि 2019 में प्रकाशित ‘मानव विकास सूचकांक रिपोर्ट’ के अनुसार वर्तमान समय में भी देश की 28 प्रतिशत अर्थात् 36.4 करोड़ लोग निर्धन हैं। इस रिपोर्ट के ही अनुसार विश्व के 189 देशों में भारत का स्थान 129वां है तथा एच0डी0आई0 रैकिंग में श्रीलंका तथा फिलीपीन्स जैसे देश भी भारत से काफी ऊपर हैं। |
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निष्कर्ष |
इस प्रकार, देश के विकास के प्रगति के संक्षिप्त अवलोकन से यह स्पष्ट हो रहा है कि यदि विकास के परम्परागत अवधारणा के दृष्टिकोंण से देखा जाय तो निश्चित रुप से पिछले सात दशकों के दौरान, विशेषकरके अस्सी के दशक के प्रारम्भ होने के बाद, देश विकास के पथ पर उल्लेखनीय रुप से अग्रसर है क्योंकि इस अवधि देश के न केवल आय, प्रतिव्यक्ति आय एवं भौतिक संसाधनों में वृद्धि हुई है बल्कि देश के व्यावसायिक संरचना में भी उल्लेखनीय रुप से परिवर्तन हुआ है। इस अवधि में देश के आय में जहॉ प्राथमिक क्षेत्र के अंशदान में कमी हुई वहीं दूसरी तरफ द्वितीयक एवं तृतीयक क्षेत्र के अंशदान में निरन्तर वृद्धि होती गयी है। ठीक इसी प्रकार इस अवधि में देश के व्यापार संरचना में भी जो परिवर्तन हुए हैं वह भी देश के विकास का द्योतक है। परन्तु, यदि विकास के आधुनिक अवधारणा के दृष्टिकोंण से देखा जाय तो यह प्रगति कहीं से भी संतोषजनक प्रतीत नहीं होती क्योंकि पिछले सात दशकों में देश के शिक्षा, स्वास्थ, साक्षरता तथा गरीबी की स्थिति में संतोषजनक सुधार नहीं हुआ है। |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1. A.G.B. Fisher: ‘Production: Primary, Secondary and Tertiary’, Economic Record, June 1939.
2. Bernard Okun and Richard W. Richardson: Economic Development: Concepts and Meaning, in Studies in Economic Development, edited by Bernard Okun and Richard W. Richardson, Holt, Rinehart & Winston, 1961.
3. Bimal Jalan: Indian Economic Crisis – The Way Ahead, Oxford University Press, Delhi, 1991.
4. C. Clark: The Conditions of Economic Progress, Macmillan, 1940.
5. Denis Goulet: “The Cruel Choice-A New Concept in the Theory of Development”, New York: Atheneum(1971).
6. Dudley Seers: “The Meaning of Development”, Paper Presented at the Eleventh World Conference of the Society for International Development, New Delhi (1969).
7. G.M. Meier: Leading Issues in Economic Development, Second Edition, Oxford University Press, 1970.
8. Meir and Baldwin: Economic Development, Wiley, New York, 1957.
9. Morris, MD: “The Physical Quality of Life Index (PQLI)”, Development Digest, 18(1). |
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अंत टिप्पणी | 1. Meir and Baldwin: Economic Development, Wiley, New York, 1957, p. 3. 2. G.M. Meier: Leading Issues in Economic Development, Second Edition, Oxford University Press, 1970, p. 7. 3. Bernard Okun and Richard W. Richardson: Economic Development: Concepts and Meaning, in Studies in 4. Economic Development, edited by Bernard Okun and Richard W. Richardson, Holt, Rinehart & Winston, 1961, p. 230. 5. C. Clark: The Conditions of Economic Progress, Macmillan, 1940. 6. A.G.B. Fisher: ‘Production: Primary, Secondary and Tertiary’, Economic Record, June 1939. 7. Dudley Seers: “The Meaning of Development”, Paper Presented at the Eleventh World Conference of the Society for International Development, New Delhi (1969), p.3. 8. Denis Goulet: “The Cruel Choice—A New Concept in the Theory of Development”, New York: Atheneum (1971), p.23. 9. Morris, MD: “The Physical Quality of Life Index (PQLI)”, Development Digest, 18(1), pp 95-109. 10. Government of India: Economic Survey (2018-19), Vol. II, Statistical Appendix, p. A1-A2. Plan wise Growth Rates has been Calculated from Government of India: Economic Survey (2018-19), Vol. II, Statistical Appendix, p. A3-A5. 1. Plan wise Growth Rates has been Calculated from Government of India: Economic Survey (2018-19), Vol. II, Statistical Appendix, p. A3-A5. 12. Government of India: Economic Survey (2018-19), Vol. II, Statistical Appendix, p. A23 - A25. 13. Government of India: Economic Survey (2018-19), Vol. II, Statistical Appendix, p. A5 - A7. 14. Government of India: Economic Survey (2013-14), Statistical Appendix, p. 26, 28,& 32. 15. Bimal Jalan: Indian Economic Crisis – The Way Ahead, Oxford University Press, Delhi, 1991, P.99-100 16. Government of India: Economic Survey (2004-05), P. 109, Table- 6-2. 17. For 1960-61 and 1990-91 calculated from Government of India: Economic Survey (2001-02), Statistical Appendix, Table- 7-3A and For 2018-19 extracted from Government of India: Economic Survey (2018-19), Statistical Appendix, Table- 7-3B, p. A113. 18. AISER Report 2017. 19. UNDP, Human Devalopment Report (2009) 20. Report of the Expert Group to review the methodology of estimation of poverty (Tendulkar Committee), Submitted in November 2009, p2; Government of India, Planning Commission. 21. Government of India: Economic Survey (2001-02), Chapter 10, Table- 10-4. 22. Rangarajan Committee was set in May 2012 by the gove to review the way India measures povery. The committee submeted its report in July 2014. |