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वैवाहिक स्थायित्व के प्रति युवा वर्ग का बदलता दृष्टिकोण अविवाहित महिलाओं के सर्न्दभ में | |||||||
Changing Attitude of Youth towards Marital Stability in Relation to Unmarried Women | |||||||
Paper Id :
16013 Submission Date :
2022-08-17 Acceptance Date :
2022-08-23 Publication Date :
2022-11-30
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सारांश |
प्रस्तुत अध्ययन वैवाहिक स्थायित्व के प्रति युवा वर्ग का बदलते दृष्टिकोण से सम्बन्धित है। इस अध्ययन में अविवाहित युवा वर्ग की कामकाजी महिलाओं को सम्मलित किया गया और यह जानने का प्रयास किया गया कि आज का अविवाहित युवा ;विशेषकर महिलायेद्ध वैवाहिक मान्यताओ,ं जातिगत बन्धनो व विवाह संस्था से जुडे परम्परागत मूल्यों के सन्दर्भ में क्या दृष्टिकोण रखती है? तथ्यों का संकलन साक्षात्कार अनुसूची और अनौपचारिक वार्तालाप के माध्यम से किया गया । अध्ययन में विवाह के प्रति दृष्किोण, लडकियो के लिये विवाह की आवश्यकता, विवाह के धार्मिक स्वरूप, और वैवाहिक मान्यताओं के प्रति उनके दृष्टिकोण को सम्मलित किया गया। तथ्यों के विश्लेषण उपरान्त यह देखा गया कि शिक्षा का स्तर बढने व अर्थोपार्जन में लगने के कारण वैवाहिक मान्यतायें टूट रही है। आज का युवा धीरे-धीरे परम्पराओं से हटता जा रहा है और उसके स्थान पर नये मूल्य सृजित हो रहे है।
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | The present study is related to the changing attitude of the youth towards marital stability. In this study, working women of unmarried youth were included and an attempt was made to know what attitude today's unmarried youth (especially women) holds in terms of marital beliefs, caste bonds and traditional values associated with the institution of marriage? The facts were collected through interview schedule and informal conversation. The study included attitudes towards marriage, the need for marriage for girls, the religious nature of marriage, and their attitudes towards marital beliefs. After analyzing the facts, it was seen that due to increasing level of education and getting involved in earning money, marital beliefs are breaking down. Today's youth is slowly moving away from the traditions and in its place new values are being created. | ||||||
मुख्य शब्द | कामकाजी महिला, वैवाहिक स्थायित्व, वैवाहिक मान्यताये, परम्परागत मूल्य। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Working Women, Marital Stability, Marital Beliefs, Traditional Values. | ||||||
प्रस्तावना |
विश्व के हर समाज में परिवार व विवाह नामक संस्थायें प्रमुख एवं सार्वभोैमिक महत्व रखती है। परम्परागत रूप से हम विवाह को एक धार्मिक संस्कार मानते रहे है । यह एक ऐसा बन्धन रहा है जो केवल मृत्यू के द्वारा ही भंग हो सकता है। हिन्दू धर्मशास्त्र कहते है कि विवाह केवल दो शरीरों का ही मिलन नही बल्कि दो आत्माओं का मिलन है। हमारी संस्कृति में विवाह के अटूट स्वरूप पर विशेष बल दिया गया, पर इसका स्वरूप धर्मनिरपेक्ष होता जा रहा है। स्वतन्त्रता से समसामकि तक का अवलोकन करने पर हम पाते है कि भारतीय समाज में परिवार व विवाह जैसी संस्थाओं में महत्वपूर्ण परिवर्तन आये है। विवाह पूर्व और विवाह अतिरिक्त सहवास, सहवास विहिन विवाह, विवाह रहित सन्तानोत्पादन और उनका लालन पालन, उच्च तलाक दर जैसी घटनाओं ने विवाह की अवधारणा को नये सिरे से सोचने की पृष्ठभूमि तैयार कर दी है। फिर भी सामाजिक परिवर्तन और गतिशीलता जितना व्यावसायिक, आर्थिक व राजनीतिक क्षेत्रो में देखने को मिलती है, उतना वैवाहिक क्षेत्रो में नही।
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अध्ययन का उद्देश्य | वैवाहिक सम्बन्धों में अन्य सम्बन्धों की तुलना में सर्वथा धनिश्ठ व आजीवन होते है। इनमें जातिगत नियमो और उपनियमों को ध्यान में रखा जाता है। ऐसी स्थिति में यह जानना आवश्यक हो गया कि आज का युवा वर्ग वैवाहिक सम्बन्धों के प्रति किस प्रकार का दृष्टिकोण रखता है? विवाह के उददेश्य और कार्यो के प्रति इनकी कया सोच है? क्या ये इन बन्धनो से नियन्त्रित हाते है या इनमें परिवर्तन चाहते है? जाति के बाहर विवाह को स्वीकारने या अस्वीकारने के प्रति इनका क्या द्ष्टिकोण है? इन तथ्यों की जानकारी प्राप्त करना और तथ्यात्मक विश्लेषण आज समय की मांग है। प्रस्तुत शोध पत्र में विवाह संस्था से जुडे विशेष कर परम्परागत मूल्यों के सन्दर्भ में युवा वर्ग का दृष्टिकोण क्या है, इसका अध्ययन करने का यहां प्रयास किया गया। इस सन्दर्भ में हमाराी प्राककल्पना यह है कि जातिगत मान्यताओं में ह्रास होने के कारण, शैक्षिणिक स्तर बढने व समतावादी समाज की आधुनिक विचारधारा के कारण विवाह संस्था से जुडी अनेक मान्यतायें टूट रही है। |
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साहित्यावलोकन | अर्न्तविवाह सम्बन्धी
नियम ;वैवाहिक मानयताओंद्ध का उल्लेख प्रमुख हिन्दू ग्रन्थो में
मिलता है। विवाह के लिये जाति व धर्म सम्बन्धी किसी भी प्रकार की मान्यता को न मानने
पर दण्डित करने का विधान पहले भी था और आज भी अपनी ही जाति व धर्म में विवाह करना कठोर
लोकाचार बना हुआ है। पर वर्तमान में जाति सम्बन्धी अर्न्तविवाही नियम में परिवर्तन
आ रहा है। पाश्चात्य शिक्षा व सांस्कृतिक सम्पर्क, औद्यौगिकरण
और नगरीकरण, प्रजातांत्रिक विचार धारा और समानता की भावना,
महिला आन्दोलन व सामाजिक विधान और महिलाओं की बढती हुई आर्थिक स्वतन्त्रता
ने वैवाहिक स्थायित्व को कमजोर किया है। परिणाम स्वरूप वैवाहिक नियमो के प्रति लोगों
के दृष्किोण में परिवर्तन देखने को मिल रहा है। एक ओर वैवाहिक मान्यतायें शिथिल हो
रही है तो दूसरी ओर विवाह विच्छेद की धटनाये निरन्तर बढ रही है। श्री मति जे बी देसाई
(1945), बी वी शाह (1968), के एम, कपाडिया (1950) और आभा अवस्थी (1979) आदि विद्वानो के अध्ययनो से पता
चलता है कि अधिक्तर लोग अर्न्तविवाह के नियमो के विरूद्ध और अर्न्तजातीय विवाह के पक्षधर
है। |
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मुख्य पाठ |
युवा महिलाओं का विवाह के प्रति दृष्टिकोण- आज हमारा परम्परागत समाज आधुनिक समाज में बदल रहा है। एक सामाजिक संस्था के रूप में विवाह व परिवार की प्रकृति, आधार, प्रकार और उसके उददेश्यों में तीब्र परिवर्तन हो रहा है। शिक्षित युवा वर्ग विवाह के अपेक्षा कैरियर को अधिक महत्व दे रहा है क्योकि अर्थोपार्जन, सामाजिक प्रतिष्ठा, आत्मनिर्भरता, निर्णायक क्षमता आदि ऐसे महत्वपूर्ण आवश्यकतायें है जो प्रत्येक व्यक्ति अर्जित करना चाहता है। वर्तमान समय में महिलाओं की सोच में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन यह आया है कि वह एक कार्यकारी महिला को आदर्श मानकर चलती है और उसके समान शिक्षा ग्रहण कर के व्यवसाय के क्षेत्र में आ कर अपनी एक अलग पहचान बनानें के लिये उत्साहित है जिस कारण वह विवाह व परिवार की अपेक्षा कैरियर व नौकरी को अधिक महत्ता दे रही है। इस सन्दर्भ में उत्तर दाताओं से जो अभी तक अविवाहित है, उनका विवाह के प्रति दृष्टिकोण जानने का प्रयास किया गया। उनके सामने कुछ विकल्प रखा गया और उस पर उनकी प्रतिक्रिया जानी गयी। प्राप्त प्रतिक्रियायों को हम निम्न सारणी मे रख रहे है-
उक्त सारणी में प्राप्त तथ्यों के विश्लेषण से यह स्पष्ट होता है कि कुल का 45.5 प्रतिशत भाग उपयुक्त जीवन साथी की तलाश में है और मिलते ही वैवाहिक बन्धन में बधना चाहेगी। वार्तालाप के दौरान ऐसा महसूस हुआ कि उत्तरदाता अपने विवाह के सम्बन्ध में कम से कम इतनी स्वतन्त्र अवश्य है कि वह अपने पसन्द के युवक के साथ विवाह करने के लिये अपने माता पिता को सहमत कर लेगी जब कि 15.5 प्रतिशत उत्तरदाता विवाह के बारे में किसी भी प्रकार के निर्णय लेने में स्वतन्त्र नही है बल्कि पूर्ण रूपेण वे अपने माता पिता या अभिभावको पर ही निर्भर है। वही दुसरी ओर लगभग इतनी ही उत्तरदाता ऐसी हैं जिन्होने अभी विवाह के प्रति विचार ही नही किया है। यद्यपि बातचीत के दौरान इन्होने विवाह के लिये मना तो नही किया, किन्तु हाल फिलहाल इनके मन में विवाह के प्रति कोई विचार नही है। हमारी उत्तरदाताओं का लगभग एक चौथाई भाग 24 प्रतिशत का विचार विवाह के प्रति नकारात्मक है। इन उत्तरदाताओं ने बताया कि विवाह बन्धन अनावश्यक है। इससे आजादी का हनन होता है। यद्यपि इनमें से कुछ ने कहा कि आगे जैसी परिस्थिति बनेगी, विवाह कर भी लेगी । अवलोकन से यह स्पष्ट हुआ कि इनमें से कई उत्तरदाता ऐसी थी जिन्होने विवाह के बारे में पूर्व में सोचा नही या परिस्थितियां अनुकूल न होने के कारण अविवाहित रह गयी और अधिक उम्र होने के कारण विवाह के बारे में सोचना बन्द कर दिया। इस प्रकार हमने अपने अध्ययन में देखा कि तीन चौथाई से अधिक 76 प्रतिशत उत्तरदाता विवाह के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण रखती है और जल्दी ही जीवन साथी की तलाश कर विवाह वन्धन में बधना चाहती है। इसी प्रकार के निष्कर्ष मर्चेन्ट 1938, हार्टे 1930, रामनम्मा 1979 तथा फोनेस्का 1980 ने अपने अध्ययनो में दिया है। यहां यह ध्यान देने योग्य है कि उक्त विद्वानो द्वारा किये गये सभी अध्ययन मुम्बई, पूना और दिल्ली जैसे महानगरो में सम्पादित किये गये जब कि हमारा यह अध्ययन ग्वालियर नगर में सम्पादित किया गया जो तुलनात्मक रूप से परम्परागत है। अतेव चयनित उत्तरदाताओं की मनोवृत्ति भी तुलनात्मक रूप से परम्परागत है। लड़कियों के लिये विवाह की आवश्यकता के प्रति दृष्टिकोण- विवाह स्वभाविक, प्राकृतिक, धार्मिक व सामाजिक कारणो से व्यक्ति के जीवन की एक आधारभूत आवश्यकता है। इस आवश्यकता को पूरा न करने से शरीर को तो आधात पहुँचता ही है, बल्कि आत्मिक व मानसिक क्षति भी पहुँचती है। इस प्रकार परिवार व समाज की सुरक्षा के लिये विवाह आवश्यक है। निश्चित रूप से विवाह वह बन्धन है जो व्यक्ति को गलत व अनैतिक कार्यो की तरफ जाने से रोकता है। भारतीय आदर्श बेद पुराण के अनुसार विवाह के बाद गृहस्थ आश्रम का आरम्भ होता है। बिना विवाह के व्यक्ति अपूर्ण है। विवाह द्वारा ही वह जीवन में पूर्णता प्राप्त करता है और इस प्रकार सृष्टि के क्रम की निरन्तरता बनी रहती है। उक्त सन्दर्भ में विवाह की अनिवार्यता के सम्बन्ध में उत्तरदाताओ की प्रतिक्रिया जानी गयी। उनसे यह पुछा गया कि आप की दृष्टि में लडकियो के लिये विवाह क्यो आवश्यक है? प्राप्त तथ्यों को हम निम्न सारणी में रख रहे है-
नोट- इसमे उन उत्तरदाताओं को नही रखा जो विवाह के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण रखती है। उक्त सरणी में प्राप्त तथ्य यह स्पष्ट करते है कि सर्वाधिक उत्तरदाता लडकियों के विवाह की अनिवार्यता को स्वीकार करती है। चयनित उत्तरदाताओं का 76 प्रतिशत भाग यह मानता है कि समय और उम्र के अनुसार लडकियों का विवाह अनिवार्यत कर दिया जाना चाहिये। इन उत्तरदाताओं का कहना है कि विवाह बन्घन व्यक्ति के न केवल जैविकीय आवश्यकता की पूर्ति करता है बल्कि सामाजिक दायित्व का निर्वहन भी है जिसके अभाव में सामाजिक विकृतियां पैदा हो सकती है। हमारे 45.4 प्रतिशत उत्तरदाता सम्पूर्ण सामाजिक सुरक्षा की दृष्टि से लडकियों को विवाह करना आवश्यक मानती है इन उत्तरदाताओं ने बताया कि विवाह के द्वारा जीवन में एक शक्ति का अहसास होगा जो जीवन पर्यन्त उनके साथ रहेगा और उनके मन में एकाकीपन और अलगाव की भावना नही आयेगी। उनके विचारो से यह स्पष्ट होता है कि प्रत्येक समाज में महिलाओं के प्रति बढ रहे अपराधों के कारण वे स्वयं को असुरक्षित महसूस कर रही है क्योकि इनके कार्यक्षेत्र का विस्तार केवल घर तक ही नही रह गया है। वे आज जोखिम भरे कार्यक्षेत्र में प्रवेष कर रही है। इसलिये सभी लडकियो को विवाह करना आवश्यक है। हमारी 34.2 प्रतिशत उत्तरदाता महत्वपूर्ण सामाजिक बन्धन की दृष्टि से विवाह को आवश्यक मानती है ।इन लोगो ने बताया कि हर व्यक्ति का समाज में कुछ दायित्व व कर्तव्य है जिनकी पूर्ति विवाह के माध्यम से ही सम्भव है क्योंकि लडकियों के लिये विवाह ही एक मात्र संस्कार है। 15.1 प्रतिशत उत्तरदाता उपयुक्त जीवन साथी की दृष्टि से विवाह को अनिवार्य मानती है वही यौन सन्तुष्टि के लिये इनकी प्रतिक्रिया नगण्य रही है। इस विश्लेषण से यह स्पष्ट होता है कि विवाह सहचर्य, सम्पूर्ण सामाजिक सुरक्षा, महत्वपूर्ण सामाजिक बन्धन व यौनसन्तुष्टि की दृष्टि से अति आवश्यक है। इसी प्रकार के निष्कर्ष रामनम्मा 1979 और राठौर 1990 ने अपने अध्ययनो में दिये है। इन दोनो विद्वानो ने अपने अध्ययनो में पाया कि सहचर्य और स्थिरता तथा महत्वपूर्ण सामाजिक बन्धन की दृष्टि से लडकियों का विवाह आवश्यक है। यौन सन्तुष्टि के लिये विवाह को आवश्यक मानने वाली उत्तरदाताओं की उम्र 35 वर्ष से कम है। हमने अपने अध्ययन मे देखा कि कृल उत्तर दाताओं का 24 प्रतिशत भाग विवाह के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण रखता है। इन उत्तरदाताओं का मानना है कि विवाह बन्धन अनावश्यक है और इससे आजादी का हनन होता है। ये महिलायें मानती है कि व्यक्तिगत स्वतन्त्रता सर्वोपरि है और वे अपनी नीजता, व्यक्तिगत स्वतन्त्रता और व्यक्तिगत दायरे के साथ किसी प्रकार का सामन्जस्य नही करना चाहती। वे विवाह से जादा कैरियर को महत्वपूर्ण मानती है। उनका मानना है कि विवाह बन्धन में बधने का अर्थ है - अपने जीवन साथी से कई मुददों पा तालमेल बैठाना। क्योंकि वैवाहिक जीवन व्यक्तिगत सामन्जस्य का प्रर्याय है औैर वे अपनी व्यक्तिगत पहचान एवं स्वतऩ्त्रता को बरकरार रखना चाहती है। उन्हें अशंका है कि किसी भी पुरूष के अहंकार को वे किसी भी कीमत पर बर्दाश्त नही कर पायेगी। अतेव परिवार मे तनाव पैदा हो सकता है। इस कारण ये महिलायें विवाह करने से कतरा रही है। जैविकीय काम की इच्छा की सन्तुष्टि के विकल्प के रूप में वे आत्मनियन्त्रण द्वारा, अपने कार्य में अपने को व्यस्त रख कर, अपने आप को समाज सेवा के कार्य से जोड कर पूरा करने का प्रयास करेगी। ऐसा करते समय वे अपनी जिम्मेदारी की भावना से मुक्त रहना चाहेगी और दुसरे के बच्चों की परवशि कर अधिक सुखी और गौरान्वित महसूस करती है। विवाह का उददेश्य- परिवार का आरम्भ विवाह से होता है और पूर्णता सन्तति से। विवाह का प्रमुख प्रयोजन सन्तानोत्पादन है। इसके बिना मनुष्य अपूर्ण है और सच्चे अर्थ में परिवार का निर्माण नही कर पाता। सन्तान बिहिन पति पत्नी केवल दम्पित होते है , सन्तान होने पर वे परिवार बनाते है। विवाह परिवार व समाज के प्रति एक कर्तव्य माना जाता था। इसमें व्यक्तिगत हित की कोई भावना नही होती थी, पर आज इसका क्रम बिल्कुल विपरीत हो चुका है। आज का युवा पाश्चात्यवादी विचार धारा से प्रेरित हो कर अपना जीवन साथी चाहते है न कि धर्मिक उददेश्य की पूर्ति हेतु। विवाह के धार्मिक स्वरूप को ध्यान में रखते हुए उत्तरदाताओं से यह पूछा गया कि आप की राय में विवाह का मुख्य उददेश्य क्या है ? प्राप्त उत्तरो को हम निम्न सारणी मे रख रहे है-
उक्त सारणी में प्राप्त तथ्यों से यह स्पष्ट होता है कि सर्वाधिक दो तिहाई से अधिक 67.5 प्रतिशत उत्तर दाता विवाह को एक मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध मानती है जब कि 26 प्रतिशत उत्तरदाता इसे एक सामाजिक समझौता। केवल 6.5 प्रतिशत लोग ही विवाह को एक धार्मिक बन्धन के रूप में स्वीकार किया। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि विवाह का धार्मिक स्वरूप समाप्त होता जा रहा है। इसलिये आज का युवा विवाह को न तो जन्मजन्मान्तर का सम्बन्ध मानते है और न ही अटूट बन्धन। इस प्रकार विवाह का उददेष्य धर्म से सहयोगी की रूप में परिवर्तित होता जा रहा है। वैवाहिक मान्यतायें- अर्न्तविवाह नियम और बर्हिविवाह निषेध- परम्परागत भारतीय समाज जाति व्यवस्था द्वारा संचालित एवं नियन्त्रित एक बन्द समूह के रूप में देखा जा सकता है जो सामाजिक गतिशीलता का निषेध करता है। यद्यपि आज एकाधिक कारणों एवं कानूनी प्रवाधानो के कारण विशेष रूप से नगरीय परिवेश में उल्लेखन्नीय परिवर्तन देखा जा सकता है। जहां तक विवाह का प्रश्न है, विशेष कर हिन्दुओं में अपनी ही जाति व उपजाति में वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करना जातिव्यवस्था की अनिवार्य एवं महत्वपूर्ण विशेषता रही है। इसका पालन न करने पर विवाह की वैधता पर तो प्रश्न उठता ही है, सामाजिक दृष्टि से उसे एक अपराध भी माना जाता है और उसे दण्डित करने की भी व्यवस्था है ,पर वर्तमान समय में विवाह सम्बन्धी मान्यताओं में परिवर्तन आ रहा है। पाश्चात्य शिक्षा व सांस्कृतिक सम्पर्क, औद्योगीकरण और नगरीकरण, प्रजातांत्रिक विचारधारा व समानता की भावना, महिला आन्दोलन व सामाजिक विधान, जाति व्यवस्था में परिवर्तन और व्यावसायिक गतिशीलता, तथा महिलाओं की बढती हुई आर्थिक स्वतन्त्रता अर्न्तविवाह के नियम को तोडकर अर्न्तजातीय विवाह को प्रोत्साहित करने में सहायक सिद्ध हुई है ।उक्त कारणों के परिणामस्वरूप अर्न्तजातीय विवाहो के प्रति लोगो के दृष्टिकोण में परिवर्तन आ रहा है। लोगों की अभिवृत्तियों में यह परिवर्तन अनेक अनुभविक अध्ययनो से स्पष्ट हुआ है। कोरमक 1953 और कुप्पुस्वामी 1957, जैसे विद्वानों ने अपने अध्ययनो में पाया कि आज अधिकतर लोग अर्न्तजातीय विवाह के पक्षधर हो सकते है, पर व्यावहारिक रूप में वे अपनी ही जाति में विवाह के पक्षधर है। दुसरी ओर जी.एस. घुरिये 1961 और हार्टे 1964, आदि विद्वानो द्वारा समाज शास्त्रीय अध्ययन किये गये और इन अध्ययनो से पता चलता है कि लोगो की मनोवृत्ति अर्न्तजातीय विवाहो के प्रति बनती जा रही है। इन अध्ययनो के आधार पर यह कहा जा सकता है कि आज अर्न्तविवाह के नियमो में परिवर्तन आ रहा है। इस सम्बन्ध में प्रस्तुत अध्ययन में यह जानने का प्रयास किया गया कि ग्वालियर के उत्तरदाता अपने विवाह के सम्बन्ध में उक्त मान्यताओं को किस रूप में लेती है। यह आवश्यक नही है कि जैसा वे सोचती है विवाह भी उसी प्रकार का हो, फिर भी यह महत्वपूर्ण है कि वे अपने विचारो में कितनी गतिशील है। क्या वे सजातीय विवाह को उचित मानती है या अर्न्तजातीय विवाह की हिमायती है। प्राप्त उत्तरो को निम्न सारणी मे रखा जा रहा है-
उक्त सारणी में प्राप्त तथ्यों के विश्लेषण से यह पता चलता है कि सर्वाधिक 55 प्रतिशत उत्तरदाता वैवाहिक मान्यताओं यथा अर्न्तविवाही नियम और बर्हिविवाही निषेध्ध को उचित मानती है और इसे पसन्द भी करती है। बातचीत के दौरान इन्होने बताया कि प्रत्यक जाति या उपजाति की अपनी पारिवारिक, सामाजिक व सांस्कृतिक नियम व परम्परायें होती है और उसी आधार पर उनका जीवन व्यवस्थित होता ह। यदि वे अपनी जाति या उपजाति के बाहर विवाह करते है तो उनका पारिवारिक जीवन सुखमय नही होगा । इन महिलाओं की दृष्टि में रक्त की पवित्रता को बनाये रखन, सांस्कृतिक विषमता को समाप्त करने, पारिवारिक जीवन को शान्तीमय बनाये रखने, के लिये उक्त मान्यताओं का पालन किया जाना चाहिये। इसके विपरीत 45 प्रतिशत महिलाये ं ये मानती है कि लडके और लडकियों को उनके जीवन में सम्पूर्ण स्वतन्त्रता मिलना चाहिये ।इन महिलाओं का मानना है कि जाति व्यवस्था के संकीर्ण दायरे में रखकर व्यक्ति व समाज की उन्नति नही हो सकती । दूसरी बात यह है कि जो दम्पति वैवाहिक सूत्र में बध रहे है उनको एक दूसरे को जानना, अपनाना और मनपसन्द वैवाहिक जीवन आरम्भ करना सुखमय भविष्य के लिये आवश्यक है। अतेव सामाजिक कुरीतियों को दूर कर उपयुक्त जीवन साथी का चयन करने, दहेज व जातिवाद की समस्या को समाप्त करने के लिये अर्न्तजातीय विवाह को प्रोत्साहित किया जाना चाहिये । इसकी पुष्टि प्रसाद 1956 और कपाडिया 1977 के अध्ययनो से होती है। प्रसाद 1956 ने अपने अध्ययन में पाया कि नगरीय क्षेत्रोे में 85 प्रतिशत उत्तरदाता अपनी जाति के बाहर विवाह करने के पक्ष में थे, वही कपाडिया 1977 ने अपने अध्ययन में देखा कि 51 प्रतिशत उत्तरदाता अपनी जाति के बाहर विवाह करने के पक्षधर है । इस प्राकार यह कहा जा सकता है कि विवाह के प्रति लोगो के दृष्किोण में परिवर्तन आ रहा है जिसमें जाति व्यवस्था का बदलता स्वरूप, पारिवारिक व्यवस्था में परिवर्तन, शिक्षा का प्रसार, स्त्रियों का आर्थिक रूप से निर्भर होना, व्यावसायिक गतिशीलता, औद्योगीकरण और नगरीकरण ऐसे कारण है जो समाज को एक नयी दिशा की ओर ले जाने अपनी भूमिका निभा रहे है। अर्न्तविवाही नियमो की भांति समाज में बर्हिविवाह निषेध कठोर रीति रिवाज के रूप में मान्य है। गोत्र, पिण्ड और प्रवर के बाहर विवाह करना प्रत्येक व्यक्ति का एक कर्तव्य माना जाता है। आज भारतीय समाज में प्रवर की मान्यता लगभग समाप्त हो चुकी है, पर सगोत्र विवाह और सपिण्ड विवाह का स्पष्टत निषेध किया गया है। आधनिक समाज शास्त्रियों ने इस व्यवस्था की प्रशंसा की है और यह विचार तैयार किया है कि अर्न्तविवाह रूढिवादि है जबकि बर्हिविवाह प्रगतिशील। वस्तुत बर्हिविवाह समाज के लिेये उपयोगी और लाभप्रद रही है जिससे सामजिक व सांस्कृतिक विकास होता रहा । जब सगोत्र और सपिण्ड विवाह की बात उत्तरदाताओं से पुछा गया तो इसके अप्रत्याशित उत्तर प्राप्त हुए । अपवाद स्वरूप दो तीन उत्तरदाताओं को छोड सभी उत्तरदाताओं ने एक मत से गोत्र के बाहर विवाह करना स्वीकार किया । इस प्रकार प्राप्त तथ्यों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि वैवाहिक मान्यतायें विवाह के स्थायित्व में अपना योगदान देती है पर वैवाहिक मान्यताओं के प्रति युवा वर्ग का दृष्टिकोण बदल रहा है। हालांकि उत्तरदाताओं का बहुलाशं विवाह के प्रति परम्परावादी है और वैवाहिक नियमो का उलंान नही करती, फिर भी वे उत्तरदातायें जा वैवाहिक नियमों को नही मानती या विवाह बन्धन को अनावश्यक मानती है उन्हें निश्चित ही गतिशील कहा जा सकता है। विवाह विच्छेद और युवा वर्ग- परम्परागत रूप से महिलाओं की स्थिति समाज में उपेक्षित रही है क्योंकि समाज मुख्य रूप से पुरूषों द्वारा शासित होता आया है। प्राय समाज के आधे भाग की उपेक्षा होती रही है। व्यावहारिक रूप से महिलाओं को उनके समाज में सही स्थान नही मिल पाया। प्राय उन्हें दमित और शोषित किया गया। सबसे बडा अत्याचार एक पुरूष का जो एक स्त्री पर होता है, वह है हिन्दू पति द्वारा पत्नी को उसके स्थान से च्युत करने के अधिकार का भोग। इस अत्याचार को हम एक ओर द्विविवाह की प्रथा का निषेध करके और दुसरी ओर स्थान च्युत पत्नी को विवाह विच्छेद का अवसर प्रदान करके कम कर सकते है। परम्परागत धर्म शास्त्रों में विवाह विच्छेद का खण्डन मिलता है, किन्तु कौटिल्य के अनुसार विवाह विच्छेद तब उचित माना जाता है, जब उसका पति दष्चरित्र हो, उसका ठौर ठिकाना न हो, रिश्तेदारों के प्रति विश्वासघाती हो, पत्नी के जीवन को खतरा पहॅुचा रहा हो या जातिगत नियमो का उलधन कर रहा हो। पर इन अधार्मिक विवाहों में भी वैवाहिक सम्बन्धों को तोडने के लिये पारस्परिक सहमति या अनुमति आवश्यक थी। यहां पर इस तथ्य से अवगत कराना होगा कि केवल विवाह विच्छेद के द्वारा ही स्त्रियों की स्थिति में सुधार नही हो सकता क्योंकि बहुसंख्यक स्त्रियां आर्थिक दृष्टि से अपने पतियों पर ही निर्भर होती है। जिनका विवाह विच्छेद हो गया है, ऐसी स्त्री को विवाह के लिये दूसरा पति प्राप्त करना कठिन हो जायेगा पर इससे उसकी मानसिक यान्त्रणा व ्रसथान च्युति की असहनीय पीडा में अवश्य कुछ सीमा तक कमी आयेगी। विवाह विच्छेद की दिशा में सबसे पहला कानून 1942 में बडौदा राज्य में बनाया गया । इस कानून में यह व्यवस्था की गयी थी की यदि पति पत्नी दोनो में कोई भी सात वर्ष से गायब हो, सन्यासी हो गया हो, अन्य धर्म में दीक्षित हो गया हो, ऐसी निर्दयता का अपराधी हो, जिससे जीवन का खतरा पैदा हो गया हो , तीन वर्ष से अधिक समय तक अपना वैवाहिक उत्तरदायित्व पुरा न कर पा रहा हो, अथवा दुसरा विवाह कर लिया हो, ऐसी स्थिति में विवाह को समाप्त किया जा सकता है। इस कानून की सबसे बडी उपलब्धी यह रही कि इसके द्वारा स्त्री को अपनी पति से अलग रहने की आज्ञा दे दी गयी और एकपक्षीय निष्ठा दोनो पक्षों से अपेक्षित की गयी । इस कानून के बाद अन्य राज्यों में भी इसी प्रकार का कानून बने, जिसमे बम्बई में 1946 में,मद्रास में 1949 में तथा सौराष्टृ में 1952 में विवाह सम्बन्धी कानून बना कर विवाह विच्छेद की व्यवस्था अपने अपने राज्यों मे किया। हिन्दू विवाह अधिनियम 1955 में अब विवाह विच्छेद की अनुमति सम्पूर्णदेश के लिये प्रदान करता है। इसमे विवाह की वैधता निम्न शर्तो के आधार पर तय की गयी - 1, किसी पक्ष का जीवित साथी न हो। 2. कोई पक्ष पागल न हो। 3. वर-वधु की आयु 21 और 18 वर्ष से कम न हो। 4. कन्या की आयु 18 वर्ष से कम होने पर संरक्षक की अनुमति हो। 5. वैवाहिक बन्धन में आबद्ध होने वाला आपस में सपिण्डि न हो। 6. कोई पक्ष निषेधात्मक सम्बन्धों के अन्तर्गत न आता हो। इस प्रकार यह अधिनियम न्यायिक पृथक्करण विधान के द्वारा एक ओर विवाह विच्छेद की सहसा मांग को रोकने का प्रयास करता है तो दुसरी ओर इन शर्तो के द्वारा सामन्जस्यहीन दम्पत्ति को पर्नमिलन के लिये एक अवसर प्रदान करता है। विवाह विच्छेद के प्रति बदलते प्रतिमान का पता लगाने के लिये अनेक समाजशास्त्रीय अध्ययन किये गये, जिसमें के.टी. मर्चेन्ट (1930-33), श्री मति फोनेस्का (1964-65), रमा मेहता (1970), कुप्पु स्वामी (1957) आदि का अध्ययन मुख्य है। इन अध्ययनो से पता चलता है कि एक बडी संख्या में स्त्री पुरूष विवाह विच्छेद के पक्ष में है। हाल के वर्षो में यद्यपि कोई अध्ययन प्रसिद्ध विद्वानो द्वारा नही किया गया, पर महिलाओं की पत्रिकाओं और इस विषय पर की गयी पी-एच. डी. शोध ग्रन्थो से यह पता चलता है कि एक बडी संख्या में स्त्री पुरूष विवाह विच्छेद के समर्थक है। हमने जब अपने उत्तरदाताओं से इस पर प्रतिक्रिया मांगी तो पता चलता है कि युवावर्ग की मनोवृत्ति विवाह विच्छेद के प्रति धीरे धीरे बनती जा रही है। तथ्यों के विश्लेषण में यह देखा गया कि तीन चौथाई से अधिक युवा विवाह विच्छेद के पक्ष में है और इसको एक वांछनीय तथ्य मानते है। शेष ने इनको हानिकारक माना। वैयक्तिक अध्ययन- किसी भी छोटी बात को तुल दे कर क्लेश की नैबत ले आना, दुसरे से खुद को सर्वश्रेष्ठ मानते हुए इगोस्टिक हो जाना और हर बात पर अहम का टकराव आज कई दाम्पत्य जीवन को बिखेर रहा है। सात जन्म का बन्धन मानने वाले वैवाहिक सम्बन्ध अब कुछ साल भी नही निभा पा रहे है । खास बात यह है कि इसमें आरेन्ज मैरेज के साथ साथ लव मैरिज वाले कपल भी शामिल है। इस सन्दर्भ में हमने कुछ बुज्रर्ग दम्पत्तियों से बात की जिन्होने न केवल आने विवाह के 50 वर्ष पुरे किये, बल्कि आज भी उनमें प्यार कायम है। वैवाहिक जीवन 50 वर्ष पुरे करने वाले बुजुर्ग दम्पत्ति एक दुसरे को प्यार व सम्मान दिया जाना इस रिश्तें की मजबूत नीव मानते है। ग्वालियर के माधव नबर निवासी प्रेमनाथ गोसाई और उनकी पत्नी सन्तोष गोसाई की शादी को 50 वर्ष पुरे हो चुके । वे अपने रिश्ते में मजबूत स्तम्भ विश्वास व सम्मान को मानते है। प्रेम नाथ गोसाई कहते है कि मैं अपनी पत्नी के हर काम में सहयोग करता रहा। इनका मानना है कि विवाह को हम सात जन्म को बन्धन मानते है पर आज उसके मायने बदल गये है। वैवाहिक जीवन के 50 वर्ष पुरे करने वाले प्रेम छब्बर और उनकी पत्नी कहती है कि शादी के बाद शायद ही कभी हम लोग एक दुसरे पर गुस्सा हुए हो। हालांकि नाराजगी के कई मौके कई बार आये। एक दुसरें की जो बात पसन्द नही आती , हम उसे आराम से जानने और उसे हल करने की कोशिश करते थें। कभी आपस की नाराजगी को दंसरे के सामने नही आने दी, पर आज की युवा पीढी एक दुसरे को गुस्से में कही हुई बात सहन नही कर पा रहे है। ललितपुर कालोनी निवासी डा दिवाकर विद्यालंकार और उनकी पत्नी सन्तोष विद्यालंकार के बीच कई बार मतभेद हुए। लेकिन कभी भी एक दुसरे के सम्मान को ठेस नही पहॅुचने दिया। उनका मानना है कि विवाह भगवान का बनाया हुआ रिश्ता है, इसलिये उसे बिपरीत परिस्थिति में भी निभाने की कोशिश की। लेकिन अब परिंस्थितियां बदल गयी है। आत नवदम्पत्ति के बीच एक दुसरें के प्रति समर्पण भाव लगभग समाप्त हो चुका है। सर्राफा बाजार निवासी मनमोहन मुदडा और उनकी पत्नी सुशील मुदडा कहती है कि उनके विवाह के 50 वर्ष कब निकल गये, इसका पता ही नही चला। एक दुसरें के प्रति अटूट विश्वास ही हमारे इस सफल रिश्ते की वजह है। कई बार हम लोगो के बीच मनमुटाव हुआ, पर कौन पहले किसको मनाता है, इस बात की होड लगी रहती थी। अपनी गलतियां मानने में हम जरा भी नही हिचकिचाते थें, जब कि आज का युवा दम्पत्ति में छोटी सी छोटी बात इगो का कारण बन जा रही है। उक्त बैयक्तिक अध्ययनो के आधार पर हम की सकते है कि एक दुसरे पर अटूट विश्वास, एक दुसरे की बातो का सम्मान, मामले को मिलजुल कर निपटाने की प्रवृत्ति, रिश्ते तोडने नही निभाने पर जोर और भावनाओं का आदर करने से वैवाहिक रिश्ते सफल हो सकते है। आज रिश्ते बिखरने का मुख्य कारण यही है कि यवा वर्ग में एक दुसरें के प्रति सम्मान में कमी है। इसके अतिरिक्त विचारों में मेल न खाना, वैवाहिक संस्कार में कमी और भावनाओं का कद्र न करना आदि है।
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सामग्री और क्रियाविधि | विवाह के स्थायित्व में आ रहे परिवर्तनो के प्रति युवा वर्ग के दृष्टिकोण से सम्बन्धित यह प्रपत्र मेरे द्वारा किये गये एक शोध अध्ययन पर आधारित है जो ग्वालियर नगर में सम्पादित किया गया। ग्वालियर नगर में स्थित विभिन्न महाविद्यालयों में कार्यरत महिला प्राध्यापको, अतिथि विद्वाना और शोध कार्य में संलग्न अविवाहित युवा महिलाओं को अध्ययन में सम्मलित किया गया। कार्यरत महिलाओं और शोधार्थियों की कुल संख्या ज्ञात कर 200 अविवाहित युवा महिलाओं सूचनादाता के रूप में चयन किया गया। सूचनादाताओं का चयन करते समय इस बात का विशेष ध्यान रखा गया कि वे समग्र का प्रतिनिधित्व करने वाली हो। अध्ययन से सम्बन्धित प्राथमिक तथ्यों का संकलन साक्षात्कार अनुसूची, अनौपचारिक वार्तालाप और अवलोकन विधि द्वारा किया गया। क्षेत्रीय अनुसन्धान के समय सूचनादाताओं के व्यवहार, मनोवृत्ति व विचारधारा के बारे में आवश्यक सूचनायें प्राप्त की गयी। सूचनादाताओं से विवाह संस्था से जुडे अनेक आयामों यथा विवाह के प्रति दृष्टिकोण, लडकियों के लिये विवाह की आवश्यकता, विवाह के धार्मिक स्वरूप व वैवाहिक मान्यताओं के प्रति दृष्टिकोण, अर्न्तजातीय विवाह के प्रति दृष्टिकोण तथा उसके स्थायित्व के सम्बन्ध में उनके विचारों को समावेशित किया गया। इसके अतिरिक्त चार दम्पत्तियों का वैयक्तिक अध्ययन किया गया जिनके विवाह के 50 वर्ष पूर्ण हो चुके थे। उनसे उनकी विचारधाराओं, आदर्शों और मूल्यों को वर्तमान सन्दर्भ में जानने की कोशिश की गयी। अध्ययन की उपलब्धियों को हम निम्न विन्दुओं मे रख रहे है। |
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निष्कर्ष |
अध्ययन से यह स्पष्ट हुआ कि आज का युवा वर्ग धार्मिक कृत्यों की पुर्ति के लिये विवाह नही कर रहे है अर्थात इसे एक जन्म जन्मान्तर का बन्धन मानने के बजाय बहुत हल्के एवं सामान्य रूप से ले रहे है। यह इस बात की ओर ईशारा करता है कि आज भारतीय संस्कृति के परम्परात्मक मूल्य और आदर्श, जो व्यक्ति को सामान्यत सर्वार्थवादी मानको के तहत एक दुसरें को बाधे हुए थे और उसकी गम्भीरता को प्रत्येक व्यक्ति अपने अर्न्तमन से स्वीकार करता था, के स्थान पर पश्चिम से आयातित पृथकतावादी मानको ने प्रभावित करना शुरू कर दिया है। इस अध्ययन से यह भी संकेत मिलता है कि युवा वर्ग में श्क्षिा का प्रसार के कारण, रोजगार के अवसरो में वृद्धि के कारण, और उनकी भूमिकाओं में परिवर्तन आने के कारण जहां एक ओर विवाह सम्बन्धी परम्परागत मूल्य टूट रहे है और उनके स्थान पर नये मूल्य स्थापित हो रहे है, वही दुसरी ओर व्यक्तिगत स्वतन्त्रता की भावना में वृद्धि हो रही है और सामूहिक दवाव को महसूस करने की प्रवृत्ति कम होती जा रही है। यह दवाव विशेष कर महिलाओं के लिये और कम हो गया जिन पर पहले सबसे अधिक प्रभाव इन्ही पर था। यही कारण है कि विवाह सम्बन्धी मान्यताओं के प्रति मनोवृत्ति में परिवर्तन आ रहा है, वही निषेधो यथा सगोत्रीय, सपिण्ड व सप्रवर आदि से सम्बन्धित धारणायें अनावश्यक और बेकार की माने जानी लगी है। इससे वैवाहिक असामंजस्य की स्थिति पैदा हो रही है और परिवार में तनाव पैदा हो रही है। |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1. राम आहूजा 1985 भारतीय सामाजिक व्यवस्था, जयपुर।
2. एम. पी सिंह 1986 ग्रामीण युवा पीढी बर्हिविवाह और अर्न्तविवाह के प्रति बदलता दृष्टिकोण, सामाजिकी, खण्ड-7 अंक 1-2।
3. के.एम. कपाडिया 1977 भारत वर्ष में विवाह और परिवार, मोतीलाल बनारसीदासं।
4. जी. एस. घुरिये 1961 जाति, व्यवसाय और वर्ग, बम्बई।
5. वी.वी. शाह 1964 सौशल चेन्ज एण्ड कालेज स्टुडेण्टस आफ गुजरात, बडौदा।
6. आभा अवस्थी 1989 मैटसिलेक्शन थ्योरिज एण्डएजकेटेड हिन्दू युथ,एटीटयूडस सेलेक्शन, सम्पादक नारायण धीरेन्द्र टेकर एण्ड कम्पनी, बम्बई।
7. रमा मेहता 1975 डायवोर्स इन हिन्दू विमेन, नयी दिल्ली।
8. के.टी. मर्चेण्ट 1935 चैनिजंग व्यूज आन मैरिज एण्ड फैमिली इन इण्डिया, जयपुर।
9. जे. एन. चौधरी 1988 डायबोर्स इन इण्डियन सोसायटी, जयपुर।
10. एम. फोनेस्का 1980 फैमिली एण्ड मैरिज इन इण्डिया , जयपुर।
11. कुप्पु स्वामी 1957 ए स्टडी आफ ओपिनियन रिगार्डिगं मैरिज एण्ड डिवोर्स, मुम्बई ।
12. गिरजा प्रसाद दूबे 1987 हिन्दू विवाह के सन्दर्भ में सामाजिक विधान,समाजिकी, खण्ड-8 अंक 1,2।
13. मन्जुलता राठोर 1990 अनमैरिड वर्किगं वुमेन इन वाराणसी, नयी दिल्ली।
14. नर्मदेश्वर प्रसाद 1956 द मिथ आफ द कास्ट सिस्टम, पटना।
15. दैनिक भास्कर 2013 फरवरी 17। |