P: ISSN No. 2321-290X RNI No.  UPBIL/2013/55327 VOL.- IX , ISSUE- XII August  - 2022
E: ISSN No. 2349-980X Shrinkhla Ek Shodhparak Vaicharik Patrika
भारतीय समाज के परिवर्तन में महात्मा बुद्ध और डाॅ0 अम्बेडकर की भूमिका
Role of Mahatma Buddha and Dr. Ambedkar in The Transformation of Indian Society
Paper Id :  16336   Submission Date :  2022-08-14   Acceptance Date :  2022-08-20   Publication Date :  2022-08-25
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सुष्मिता बनर्जी
शोधकर्त्री
दर्शन और धर्म विभाग
बनारस हिंदू विश्वविद्यालय
वाराणसी, यूपी, भारत
सरिता रानी
असिस्टेंट प्रोफेसर
दर्शन और धर्म विभाग
बनारस हिंदू विश्वविद्यालय
वाराणसी, यूपी, भारत
सारांश
समाज में व्याप्त कुरीतियों के साथ उत्पन्न रूढ़ियाँ उस समाज की गति को अवरूद्ध कर देती है। महात्मा बुद्ध और डॉ. अम्बेडकर ऐसे ही महापुरूष थे, जिन्होंने अपने समाज में व्याप्त विसंगतियों के प्रति जागृत करने हेतु तथा मानव समाज व संस्कृति में परिवर्तन की प्रमुख धाराओं को रेखांकित करने की दिशा में उल्लेखनीय कार्य किया है। प्राचीन भारत के सांस्कृतिक धरोहर का सबसे उत्तम योगदान बुद्ध का आविर्भाव था। बुद्ध के आविर्भाव से मरी हुई मानवता जाग उठी। भारत में धर्मों और आध्यात्मिक विचारधाराओं में बौद्ध धर्म एक प्रमुख धर्म है। बुद्ध जटिल दार्शनिक समस्याओं में कभी नहीं उलझे तथा एक नैतिक दार्शनिक के रूप में उन्होंने मनुष्य के नैतिक तथा सामाजिक गुणों के विकास पर ही बल दिया। विश्व के शैक्षणिक संस्थानों का सबसे महान आधुनिक योगदान डॉ. अम्बेडकर का रहा। बुद्ध ने मानव जाति को समानता का आदर्श प्रस्तुत किया। महात्मा बुद्ध के इसी आदर्श से प्रभावित होकर डॉ. अम्बेडकर ने बौद्ध दर्शन की पुनर्व्याख्या करके उसके महत्वपूर्ण तथ्यों का विश्लेषण किया तथा उसके भारतीय सामाजिक समस्या के निराकरण हेतु एक हल के रूप में प्रस्तुत किया। डॉ. अम्बेडकर ने धर्म को वैयक्तिक आत्माओं के आध्यात्मिक मोक्ष के एक साधन के रूप में नहीं देखा, अपितु एक ‘सामाजिक आदर्श’ समझा जो मानव-मानव के बीच सम्यक् सम्बन्ध स्थापित करने का एक सशक्त माध्यम बने।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद The customs created along with the evils prevailing in the society block the pace of that society. Mahatma Buddha and Dr. Ambedkar were such great men, who have done remarkable work in order to awaken to the discrepancies prevailing in their society and in the direction of highlighting the main currents of change in human society and culture.
The greatest contribution of the cultural heritage of ancient India was the appearance of Buddha. The appearance of Buddha awakened the dead humanity. Buddhism is a major religion among religions and spiritual ideologies in India. Buddha never got involved in complex philosophical problems and as a moral philosopher he emphasized only on the development of moral and social qualities of man.
The greatest modern contribution of the educational institutions of the world was of Dr. Ambedkar. Buddha presented the ideal of equality to mankind. Impressed by this ideal of Mahatma Buddha, Dr. Ambedkar reinterpreted Buddhist philosophy and analyzed its important facts and presented it as a solution to solve the Indian social problem. Dr. Ambedkar did not see religion as a means of spiritual salvation of individual souls, but as a 'social ideal' which became a powerful means of establishing right relationship between human beings.
मुख्य शब्द परिवर्तन, समाज, संस्कृति, नैतिक, बुद्ध, सामाजिक क्रान्ति, शोषण, दलित, तथागत बुद्ध, मानवीयता, बाबासाहेब अम्बेडकर, बुनियादी, आदर्श।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Change, Society, Culture, Moral, Buddha, Social Revolution, Exploitation, Dalit, Tathagata Buddha, Humanity, Babasaheb Ambedkar, Basic, Ideal.
प्रस्तावना
परिवर्तन प्रकृति का नियम है। प्रकृति हो अथवा समाज या संस्कृति कुछ भी शाश्वत या स्थायी नहीं है। सभी परिवर्तनशील हैं और सभी में परिवर्तन कमोबेश होता रहता है। समाज व संस्कृति में परिवर्तन या तो आन्तरिक कारणों से होता है या बाह्य कारणों से अथवा दोनों ही प्रकार के कारणों से हो सकता है। वैसे समाज व संस्कृति में परिवर्तन परिलक्षित तो होता है, किन्तु यह बताना मुश्किल होता है कि कौन-सा परिवर्तन कब घटित हुआ। समाज में कब कोई नया परिवर्तन आया और कब खत्म हो गया।[1] दूसरे शब्दों में, परिवर्तन के अध्ययन के साथ समाज वैज्ञानिक परिवर्तन के दौरान समाज व संस्कृति में उन्नति व विकास अथवा अवनति या ह्नास की क्या दशा व दिशा रहीं, यह जानने का भी प्रयास करते हैं। वैसे यह सच है कि मौसम विज्ञान की भाँति वातावरण में चौबीस घण्टे के भीतर होने वाले बदलाव की माप की तरह समाज विज्ञान में समाज व संस्कृति में होने वाले बदलाव को मापा नहीं जा सकता किन्तु लम्बे ऐतिहासिक दौर में इनमें परिवर्तन की मुख्य धाराओं को रेखांकित अवश्य किया जा सकता है और उनकी व्याख्या भी की जा सकती है। भारतीय समाज की रचना का आधार वर्ण-व्यवस्था है। यह वर्णाश्रम धर्म, कर्म व पुनर्जन्म पर आधारित हिन्दू वैचारिकी द्वारा संपोषित व तद्जनित शास्त्रीय विधान द्वारा संचालित होती रही है। इसका उद्भव आज से करीब पाँच हजार वर्ष पूर्व हुआ। यद्यपि इसमें मौखिक परिवर्तन के लिए अतीत में अनेक प्रयास हुए और समय के साथ इसमं परिवर्तन भी हुए तथापि इसके मूल स्वरूप में कभी कोई स्थायी बदलाव नहीं आया। इसलिए हिन्दू समाज इसे एक सनातन व आदर्श व्यवस्था निरूपित करता रहता है। हालांकि आधुनिक युग की आवश्यकताओं व चुनौतियों को दृष्टिगत रखते हुए स्वाधीन भारत के विधान में वर्ण एवं जाति-व्यवस्था को कोई स्थान नहीं दिया गया है, तथापि भारतीय समाज में वर्ग व जाति का उच्छेद अभी भी नहीं हो पाया है। समाज व संस्कृति में परिवर्तन की मुख्य धाराओं की व्याख्या कई आधारों पर की जा सकती है। इन आधारों में एक विश्वसनीय आधार इनमें परिवर्तन को प्रेरित करने वाले मूल प्रेरणास्त्रोत हैं जिन्होंने समाज में नई सांस्कृतिक मान्यताओं व मूल्यों की स्थापना के माध्यम से सामाजिक संबंधों को नया स्वरूप प्रदान करने के प्रयास किए। भारतीय समाज व संस्कृति में क्रांतिकारी परिवर्तन की पहल वस्तुतः उत्तर महाभारत काल में महावीर स्वामी व भगवान बुद्ध द्वारा की गई। मध्यकाल में रविदास, कबीर व नानक आदि सन्तों ने इसे आगे बढ़ाया। आधुनिक काल में ज्योतिबा फुले, नारायण गुरू, रामास्वामी नायकर तथा अम्बेडकर ने इसे साकार करने का काम किया।
अध्ययन का उद्देश्य
भारतीय समाज वर्णाश्रम धर्म, कर्म व पुनर्जन्म पर आधारित हिन्दू वैचारिकी द्वारा संपोषित व तद्जनित शास्त्रीय विधान द्वारा संचालित होती रही है। इसका उद्भव आज से करीब पाँच हजार वर्ष पूर्व हुआ। यद्यपि इसमें मौखिक परिवर्तन के लिए अतीत में अनेक प्रयास हुए और समय के साथ इसमें परिवर्तन भी हुए तथापि इसके मूल-स्वरूप में कभी कोई स्थायी बदलाव नहीं आया। इसी समस्या के निवारण हेतु भारतीय समाज में एक ऐसे धर्म की आवश्यकता है, जिसमें मनुष्य को समानता व वैचारिक स्वतंत्रता प्राप्त हो सके। समाज में व्याप्त परम्परागत रूढ़ियों का अन्त करना अति आवश्यकता है। जिससे समाज में समानता व नैतिकता का स्तर ऊँचा हो सके।
साहित्यावलोकन

हिन्दी दलित साहित्य में डॉ0 बाबासाहेब अम्बेडकर और तथागत बुद्ध के जीवनचरित से सम्बन्धित साहित्य की बहुत बड़ी संख्या है। हर दलित लेखक, रचनाकार, साहित्यकार स्वयं डॉ0 अम्बेडकर के जीवन संघर्ष को, विचारों को जानना चाहता है, समझना चाहता है। उसी प्रकार तथागत बुद्ध के जीवन को, विचारों को दर्शन को, भारतीय प्राचीन इतिहास को, भारतीय संस्कृति को, हिन्दू संस्कृति को जानना चाहता है। इसलिए वह डॉ0 अम्बेडकर के जीवन के बारे में लिखता है, तथागत बुद्ध के जीवन के बारे में लिखता है और सामाजिक परिवर्तन की, सामाजिक क्रान्ति की, सामाजिक प्रतिबद्धता की प्रेरणा भी ग्रहण करता है।
प्रस्तुत शोध पत्र के माध्यम से डॉ0 अम्बेडकर और तथागत बुद्ध के आदर्शो को खड़ा करने का प्रयास किया है।
निःसन्देह भगवान बुद्ध ने जीवन की ओर देखने की एक नई दृष्टि दी है। भगवान बुद्ध को एक लौकिक पुरूष ऐतिहासिक पुरूष माना जाता है। एक महामानव माना जाता है। जिन्होंने मानव समाज को शान्ति का, समानता काअहिंसा का, भाईचारे का, सामाजिक लोकतंत्र का उपदेश दिया है। हिन्दी साहित्य में जो स्थिति कबीर और रैदास की थी वही स्थिति तथागत बुद्ध के बारे में भी थी। आज भी बहुत सारे हिन्दूवादी लेखक साहित्यकार तथागत बुद्ध को विष्णु का नौवां अवतार मानकर ही लिखते है।[2] हिन्दी साहित्य में तथागत बुद्ध का जो बहुत ही सुनियोजित ढंग से हिन्दू करण किया गया था। उसको नष्ट करने का काम बोधानन्द महाथेरा, धम्मानद कोसम्बी, महापण्डित राहुल सांकृत्यायन, डॉ0 भदन्त आनन्द कौसल्यायन, भिक्खु जगदीश कश्यप, डॉ0 भिक्खु धर्मरक्षित, डॉ0 पी0एल0 नरसू, डॉ0 सी0एस0 उपासक, प्रो0 जगन्नाथ उपाध्याय आदि भारतीय बौद्ध भिक्षुओं ने और बौद्ध विद्वानों ने किया है।
महास्थविर भदन्त बोधानन्द जी ने लखनऊ में सन् 1925 में बुद्ध बिहार की स्थापना की थी। उन्होंने इस बुद्ध बिहार के संचालन की व्यवस्था करते हुए लिखा था कि मनुष्य जाति में भगवान बुद्ध प्रदर्शित उस लोकोत्तर धर्म का पूर्ण रूप से प्रसार करना है, जिसके द्वारा मनुष्य अपने जीवन में करूणा, मैत्री, समता, संयम, सेवा, सहानुभूति आदि पवित्र भावों का विकास करें तथा अपने सब प्रकार के दोषों और दुःखों का विरोध करके इस व्यक्तिगत जीवन के बाद निर्वाण लाभ करेंऔर इस बिहार के कार्यों के बारे में लिखते है कि- 1. सब प्राणियों के सुख-दुःखों को अपने ही सुख-दुःखों के समान समझना। 2. जाति भेद के ऊँच-नीच भावों को दूर करके मनुष्य मात्र में समता और सद्योग का प्रचार करना तथा मानवीय उन्नति-विकास और अधिकार की भावनाओं को जागृत करना। इसी उद्देश्य को लेकर महास्थविर बोधानन्द जी ने सन् 1916 में लखनऊ में अपने कार्य को प्रारम्भ किया था। बोधानन्द जी के विचारों का और कार्यों को हिन्दी भाषी लेखकों, साहित्यकारों और विद्वानों पर निश्चित रूप से प्रभाव पड़ा। क्योंकि उन्होंने तथागत बुद्ध के मानवीय रूप को लोगों के सामने रखने का महान कार्य किया था।
महापण्डित राहुल सांकृत्यायन ने भी बुद्ध चर्चाऔर महामानव बुद्धआदि ग्रन्थों के माध्यम से हिन्दी साहित्य में तथागत बुद्ध के मानवीय स्वरूप को रखने का महान् कार्य किया है। आजादी से पहले भारत में जिस तरह से बौद्ध साहित्य का, पालि त्रिपिटक के ग्रन्थों के हिन्दी अनुवाद का आन्दोलन चला उसका परिणाम यह हुआ कि हिन्दी में और हिन्दी भाषी क्षेत्रों के लेखकों, साहित्यकारों, विद्धानों में बुद्ध की ओर बुद्ध के धम्म को देखने की दृष्टि में बहुत कुछ बदलाव आया। फिर भी कई हिन्दूवादी लेखक, साहित्यकार बुद्ध और उनके धम्म दर्शन को हिन्दू धर्म का ही एक अंग मानते थे और मानते है कि तथागत बुद्ध ने कुछ भी नया नहीं बताया है, जो उपनिषदों में है उसी को बुद्ध ने बताया है इस तरह से उनकी बुद्ध और उनके धम्म, दर्शन की ओर देखने की उनकी दृष्टि है।
लेकिन डॉ0 बाबासाहेब अम्बेडकर के आन्दोलन के बाद और विशेष तौर पर उनके बौद्ध आन्दोलन के बाद बुद्ध और उनके धम्म-दर्शन के बारे में सोच में बदलाव आया है।[3] वर्तमान भारत में बुुद्ध और उनके धम्म-दर्शन में व्याप्त सामाजिक बदलाव, सामाजिक परिवर्तन, सामाजिक समानता, अनीश्वरवाद, अनात्मवाद, प्रतीत्यसमुत्पाद, चार आर्य सत्य, आर्य आस्टांगिक मार्ग, परिवर्तनवाद को विशेष महत्व प्राप्त हुआ है।
डॉ0 बाबासाहेब अम्बेडकर जिस तरह वर्गीय जातीय शोषण, उत्पीड़न के विरोधी थे, उसी प्रकार वे वर्गीय शोषण के घोर विरोधी थे। लेकिन उनकी पहली मान्यता यह थी कि भारत जैसे देश में कुछ सामाजिक वर्गों का जन्म के आधार पर शोषण, उत्पीड़न हो रहा है। जैसे- अछूत जातियों का शोषण, उत्पीड़न और पिछड़ी जातियों का शोषण और उत्पीड़न। इसलिए भारत जैसे देश से सबसे पहले जाति आधारित शोषण उत्पीड़न को समाप्त करने के लिए संघर्ष करना चाहिए। दलित साहित्य केवल दलित शोषण और उत्पीड़न को व्यक्त करने वाला मात्र साहित्य नहीं है। बल्कि दलित साहित्य भारत की ब्राम्हण और हिन्दू व्यवस्था को एक विकल्प देने वाला साहित्य है। दलित साहित्य दलितों को और शोषित तथा पिछड़ी जातियों को एक अलग पहचान, एक अस्मिता, एक अस्तित्व प्रदान करने वाला साहित्य है।
वास्तव में आधुनिक भारत में डॉ0 बाबासाहेब अम्बेडकर ने ही दलितों को पिछड़ी जातियों को स्वतंत्र पहचान, स्वतंत्र अस्मिता देने का काम किया है। दलित साहित्य की मूल प्रेरणा है अम्बेडकरवाद और बौद्ध धर्म।[4]

मुख्य पाठ

वैदिक धर्म के कर्मकाण्डों तथा यज्ञीय विधि-विधानों के विरूद्ध प्रतिक्रिया वस्तुतः उत्तर वैदिक काल में ही प्रारम्भ हो चुकी थी। वैदिक धर्म की व्याख्या एक नये सिरे से की गयी तथा यज्ञ एवं कर्मकाण्डों की निन्दा करते हुए धर्म के नैतिक पक्ष पर बल दिया गया। ईसा पूर्व छठीं शताब्दी की बौद्धिक क्रान्ति के लिये तत्कालीन सामाजिक व आर्थिक कारण भी कम उत्तरदायी न थे। वर्ण व्यवस्था की निस्सारता स्पष्ट हो चुकी थी तथा वर्ण कठोर होकर जाति का रूप ले चुके थे। इन बदलती हुई नवीन सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों ने नयी-नयी विचारधाराओं के उद्भव एवं विकास में सहायता प्रदान किया। ईसा पूर्व छठीं शताब्दी तक आते-आते वैदिक यज्ञों तथा कर्मकाण्डों के ऊपर की जाने वाली अपव्ययता भी आलोचना का विषय बन गयी।[7]

समय के प्रवाह के साथ नवीन विचारधाराओं का आविर्भाव हुआ। इस प्रसंग में उल्लेखनीय है कि इस समय भारत के बाहर भी अनेक देशों में धार्मिक उथल-पुथल मची हुई थी तथा बहुसंख्यक स्वतंत्र विचारक नये-नये सिद्धान्तों का प्रतिपादन कर रहे थे। जिस समय भारत में महावीर तथा बुद्ध का उदय हुआ उसी समय चीन में कनफ्यूशियस तथा लाओत्सेईरान में जरधुस्त्रजूडिया में जेरेमिआ तथा यूनान में पाइथागोरस का आविर्भाव हुआ। इन्होंने भी अपने-अपने देशों के परम्परागत धर्मों में व्याप्त कुरीतियों एवं पाखण्डों तथा सामाजिक कुप्रथाओं का खण्डन करते हुए जनता के समक्ष एक सरल तथा आडम्बररहित धर्म का विधान प्रस्तुत किया।

महामानव बुद्ध  

ईसा पूर्व छठीं शताब्दी के नास्तिक सम्प्रदाय के आचार्यों में महात्मा गौतम बुद्ध’ (563-483 ईसा पूर्व) का नाम सर्वप्रमुख है। उन्होंने जिस धर्म का प्रवर्तन किया वह कालान्तर में एक अन्तर्राष्ट्रीय धर्म बन गया।[8] पिछले ढ़ाई हजार वर्षों में भारतीय समाज में परिवर्तन के लिए अनेक मसीहोंसंतोंमहात्माओंसमाज सुधारकों व राजनीतिज्ञों द्वारा पहल की गईजिनमें बुद्ध अग्रणी हैं।

वैदिक अनुष्ठानोंयज्ञीय कर्मकाण्डों तथा पशुबलि जैसी कुप्रथाओं का बुद्ध ने जमकर विरोध किया। वे मानव जाति की समानता के अनन्य पोषक थे। अतः उन्होंने ब्राह्मणों की जन्मना श्रेष्ठता के दावे का खण्डन किया। एक सच्चे समाज सुधारक के रूप में वे अपने समकालीन समाज को जाति तथा धर्म के दोषों से मुक्त करना चाहते थे। यही कारण था कि उन्होंने अपने संघ का द्वारा सभी जाति के लिए खोल दिया था। बुद्ध जटिल दार्शनिक समस्याओं में कभी नहीं उलझें तथा एक नैतिक दार्शनिक के रूप में उन्होंने मनुष्य के नैतिक तथा सामाजिक गुणों के विकास पर ही बल दिया।[9]

उन्होंने तत्कालीन समाज में प्रचलित अनेक मान्यताओं तथा अंधविश्वासों जैसे-नदियों के जल की पवित्रतास्वप्न-विचारजादूगरीचमत्कारपूर्ण प्रदर्शनों आदि की निन्दा करते हुए उन्हें त्याज्य बताया। काया-क्लेशघोर तपस्यासंसार-त्याग के भी वे पक्ष में नहीं थेकिन्तु अपने कुछ उत्साही अनुयायियों को उन्होंने संसार त्यागकर भिक्षु जीवन व्यतीत करने को प्रोत्साहित कियाक्योंकि सांसारिक सुखों को वे निर्वाण प्राप्ति के मार्ग में बाधक समझते थे। उनके उपदेशों में आद्योपान्त सरलता एवं व्यावहारिकता दिखायी देती है। बुद्ध के उपदेशों का मूल लक्ष्य मानव जाति को उसके दुःखों से त्राण दिलाना था और इस रूप में उनका नाम मानवता के महान् पुजारियों में सदैव अग्रणी रहेगा।

अनीश्वरवादी बुद्ध ने ईश्वर के स्थान पर मानव प्रतिष्ठा पर ही बल दिया। महात्मा बुद्ध मानवतावाद के प्रबल व्याख्याकार थे। उनके अनुसार मानव का लौकिक और पारलौकिक उत्कर्ष धर्म की आधारशिला पर होता है।[10] महाकरूणा बौद्ध धर्म की आधारशिला है। जिस ओर महाकरूणा की प्रवृत्ति होती है उसी ओर समस्त बौद्ध धर्म की प्रवृत्ति होती है। समस्त जीवों का हितसुख-सम्पादन ही बोधिसत्व का उद्देश्य है। जब तक विश्व के क्षुद्रातिक्षुद्र जीवों को दुःख से मुक्ति नहीं मिल जातीतब तक बोधिसत्व व मुक्ति की कामना नहीं करते हैं।

प्रतीत्यसमुत्पाद’ ही बुद्ध के उपदेशों का सार है तथा बुद्ध की समस्त शिक्षाओं का आरम्भ-स्तम्भ है।[11] सर्वत्र दुःख की अपरिहार्यता का अनुभव कर भगवान बुद्ध ने सम्पूर्ण मानव जाति को इस दुःख से छुटकारा दिलाने हेतु चार आर्य सत्यों का उपदेश दिया। प्रतीत्यसमुत्पाद में दुःख के कारणों को निर्दिष्ट करके उनसे मुक्ति के उपाय बताए गए है। वस्तुतः उनका धर्म था मोक्ष के मार्ग का निर्देशन करना। उनके धर्म का लक्ष्य था मनुष्य को सांसारिक वेदना और कष्ट से मुक्त करना। 

संसार के आवागमन के चक्र से बचने के लिए अर्थात् सम्पूर्ण दुःखों को अन्त कर निर्वाण प्राप्ति के लिए आष्टाँगिक मार्ग के अनुपालन का निर्देश दिया।[12] शील तथा समाधि से प्रज्ञा की प्राप्ति होती है जो सांसारिक दुःखों से मुक्ति पाने का मूल साधन है। बौद्ध धर्म में मानवता के विकास के लिए ‘पारमिता-साधना’ की व्यवस्था है। पालि बौद्ध शास्त्र में दानशीलक्षान्तिवीर्यध्यान एवं प्रज्ञा पारमिताओं का उल्लेख किया गया है।

 महात्मा बुद्ध जीव और जगत् के प्रति व्यावहारिक दृष्टिकोण रखते थे। उनके विभिन्न प्रवचनों और उपदेशों में उनके जीवन-दर्शन की स्पष्ट झलक मिलती है। इस प्रकार बुद्ध एक नए प्रकार से मुक्त मानव के विकास का उद्देश्य लेकर चले थे। वे मानव को पूर्वाग्रहों से मुक्त देखना चाहते थे। एक ऐसा मानव उनका उद्देश्य था जो अपनी आत्मा को अपना दीपक- आत्मदीप’ बनाकर अपने भविष्य का स्वयं निर्माण करने के लिए संकल्पित हो।[13] उनका मानववाद जातीय एवं राष्ट्रीय अवरोधों को पार कर जाता है। दासता से उन्हें घृणा थी। स्वतंत्रता और स्वच्छन्दता के वे पोषक थे।

वे सार्वभौम उत्थान में विश्वास रखते थे इसलिए समस्त मानव को सत्य के निकट लाना चाहते थे। बुद्ध ने मानव जाति की समानता का आदर्श प्रस्तुत किया था। इसके कारण ही भारत का विश्व के देशों पर नैतिक आधिपत्य कायम हुआ।

डॉ. भीमराव अम्बेडकर - 

आधुनिक युग में दलितों की स्थिति में सुधार में अन्य किसी व्यक्ति की तुलना में ‘डॉ.अम्बेडकर’ (1891-1956) का योगदान अधिक मौलिक व महत्वपूर्ण  हैजिसे देखते हुए उन्हें दलितों का मसीहा भी कहा जाता है। किन्तु उनका कार्य दलितों की मुक्ति तक सीमित नहीं था। व्यापक परिपे्रक्ष्य में विचार करने पर हम पाते हैं कि उनका वास्तविक उद्देश्य एक न्यायपूर्ण समाज की रचना करना थाजिसमें वर्ण और जाति का कोई स्थान नहीं हो और एक ऐसी संस्कृति को स्थायित्व प्रदान करना था जो भारतीय तो हो किन्तु वर्ण और जाति के स्थान पर वह लोकतांत्रिक समाज को संपोषित करती हो। अपने चार दशकों के सार्वजनिक जीवन में वे अपने इस उद्देश्य की पूर्ति में निरन्तर लगे रहे। लोकतांत्रिक संविधान के निर्माण तथा बौद्ध धर्मांतरण के माध्यम से देश में सांस्कृतिक क्रान्ति के आगाज में महत्वपूर्ण भूमिका के निर्वाह के द्वारा उन्हें इस उद्देश्य की पूर्ति में काफी कुछ सफलता भी मिली।[14]

डॉ. अम्बेडकर के बहुमुखी चिंतनअनुशीलन एवं शोध का सारभूत तत्व है आदर्श समाज की उनकी परिकल्पनाजिसे साकार करने के लिए वे जीवनपर्यंत संघर्ष करते रहे। हजारों साल की विरासत के रूप में जो समाज आज़ादी के समय लोगों को मिला वह असमानता और भेदभाव पर आधारित था। उनके अनुसारभारतीय समाज व्यवस्था एक अन्यायपूर्ण समाज व्यवस्था थी।

डॉ. अम्बेडकर की विभिन्न रचनाओं विशेष रूप में कास्ट इन इंडिया (1977)’, ‘एनिहिलेशन ऑफ कास्ट’ (1937), ‘हू वेयर द शूद्राज़’ (1946), ‘द अनटचेबुल्स’ (1948) तथा द रिडल्स  ऑफ हिंदुइज़्म’ (1987) को यदि देखा जाए तो यह पता लगता है कि उन्होंने ऐतिहासिक तथ्यों के वैज्ञानिक विश्लेषण के माध्यम से परम्परागत समाज में अन्याय के विद्यमान स्वरूपों की परत-दर-परत खोलने की कोशिश की ताकि उसकी जड़ों तक पहुँचकर उसके सही कारणों को ढूँढ़ा जा सके और उसका सही निदान प्रस्तुत किया जा सके।

अम्बेडकर समाजवाद के पक्षधर तो थे किन्तु भारत में वे समाजवादी आर्थिक क्रान्ति की जगह सामाजिक क्रान्ति लाए जाने पर ज्यादा ज़ोर देते थेक्योंकि उनका मानना था कि सामाजिक क्रान्ति के बिना आर्थिक व राजनैतिक क्रान्तियों का भारतीय समाज में कोई अर्थ नहीं है और यदि ये क्रांतियाँ घटित भी होती हैं तो सामाजिक क्रान्ति के अभाव में ये कभी स्थायी नहीं हो सकती।[15]

डॉ. अम्बेडकर के अनुसारएक आदर्श समाज में स्वतन्त्रतासमानता और भ्रातृत्व तीनों का होना जरूरी है। स्वतंत्रतासमानता और भ्रातृत्व अम्बेडकर की दृष्टि में जहाँ सामाजिक न्याय के निर्णायक ताव तव हैं वहीं लोकतांत्रिक समाज के आधारभूत सिद्धान्त भी हैं। डॉ. अम्बेडकर ने वंचित पीड़ित और दमित मानवता को मौलिक स्वतंत्रता व नागरिक अधिकार दिलाने के लिए संघर्ष शुरू किया।

फ्रेंच दार्शनिक रूसों के तीन शब्दों समानतास्वतंत्रता और भ्रातृत्व से वह अत्यन्त प्रभावित थे। समानता पर आधारित न्याय की अवधारणा को स्वीकार कर वह रूसों से आगे बढ़ गए। डॉ. अम्बेडकर की न्याय सम्बन्धी अवधारणा एक ऐसी सामाजिक पद्धति के पक्ष में है जो जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में मनुष्य के मनुष्य से सम्बन्धों पर आधारित न्याय की अवधारणा को स्वीकार कर वह रूसों से आगे बढ़ गए। डॉ0 अम्बेडकर की न्याय सम्बन्धी अवधारणा एक ऐसी सामाजिक पद्धति के पक्ष में है जो जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में मनुष्य के मनुष्य से सम्बन्धों पर आधारित हो। सामाजिक क्रान्ति को साकार करने के उद्देश्य से बौद्ध धर्मांतरण द्वारा अम्बेडकर ने धम्म चक्र प्रवर्तन कर देश में सामाजिक व सांस्कृतिक क्रान्ति का शंखनाद कर दिया।

बौद्ध दर्शन की पुर्नव्याख्या करके उसके महत्वपूर्ण तथ्यों का विश्लेषण किया तथा उसके भारतीय सामाजिक समस्या के निराकरण हेतु एक हल के रूप में प्रस्तुत किया। डॉ0 अम्बेडकर ने अपनी सुप्रसिद्ध पुस्तक ‘Buddha and his Dhamma’ में भगवान बुद्ध के धर्म का वर्गीकरण किया है- पहला वर्ग ‘धर्म’ है, दूसरा वर्ग ‘अधर्म’ एवं तीसरा वर्ग जिसे उन्होंने ‘सद्धर्म’ कहा है। तीसरा वर्ग ‘धर्म के दर्शन’ के लिए है।[16] इस प्रकार बुद्ध का शासन अपनी मौलिकता लिये हुए है। बौद्धमत को भारत में पुर्नजीवित करने का श्रेय डॉ0 अम्बेडकर को जाता है। बुद्ध के मौलिक सिद्धांतो पर आधारित इस धर्म को उन्होंने ‘नव-बौद्ध’ की संज्ञा से अभिहित किया।

निष्कर्ष
कभी-कभी समाज की प्राचीनता के साथ उत्पन्न रूढ़ियाँ उस समाज की गति को अवरूद्ध कर देती हैं। उसके तरूणों की धमनियों का रक्त जमा हुआ दीखता है। लोग निराशा और हतोत्साह में अपना जीवन जीते रहते है। उस समय कोई व्यक्ति अपनी अकल्पनीय संघर्ष शक्ति से उस समाज को झकझोंर कर उठाता है और आगे बढ़ने की सामथ्र्य उत्पन्न करता है। धीरे-धीरे समाज स्वयं अपने सामथ्र्य को पहचानता है और उस व्यक्ति के कृतित्व से प्रेरणा ग्रहण करता हुआ आगे बढ़ता चलता है। ‘महात्मा बुद्ध’ एवं ‘बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर’ ऐसे ही महापुरूष थे, जिन्होंने अपने समाज में व्याप्त विसंगतियों के प्रति जागृत करने हेतु तथा मानव समाज व संस्कृति में परिवर्तन की प्रमुख धाराओं को रेखांकित की दिशा में उल्लेखनीय कार्य किया हैं। इस चिरंजीवी राष्ट्र के नवनिर्माण को ही अपना साध्य समझा।[17] भारत में धर्मों और आध्यात्मिक विचारधाराओं में बौद्ध धर्म एक प्रमुख धर्म है। बौद्ध धर्म जीवन का एक ऐसा मार्ग है जिसमें स्वतंत्रता, समानता, तर्क प्राणिमात्र के दया, करूणा एवं सदाचार पर विशेष बल दिया गया है। विदेशों में बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार ने भारत को विश्व के नैतिक व आध्यात्मिक गुरू के स्थान पर प्रतिष्ठित किया। बौद्ध धर्म अपनी ही जन्मस्थली से लुप्तप्राय हो गया था। जिसे पुर्नजीवित करने का श्रेय डॉ. भीमराव अम्बेडकर को जाता है। डॉ. बाबासाहेब अम्बेडकर एक दार्शनिक थे जिन्होंने विश्व के प्रमुख धर्मो के मूल सिद्धान्तों की भारत में विद्यमान सामाजिक स्थिति की दृष्टि से समीक्षा की। डॉ. साहेब ने धर्म को वैयक्तिक आत्माओं के आध्यात्मिक मोक्ष के एक साधन के रूप में नहीं देखा, अपितु एक ‘सामाजिक आदर्श’ समझा जो मानव-मानव के बीच सम्यक् सम्बन्ध स्थापित करने का एक सशक्त माध्यम बने। उनके अनुसार स्वतंत्र समाज के लिए धर्म आवश्यक है। धर्म का अर्थ दैवी शासन की आदर्श योजना का प्रतिपादन करना है, जिसका उद्देश्य एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था बनाना है, जिसमें मनुष्य नैतिक जीवन व्यतीत कर सके।
आभार शोध निर्देशिका एवं पुस्तकालय सहयोग
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. राम गोपाल सिंह - डॉ0 अम्बेडकर: सामाजिक न्याय एवं परिवर्तन, पृ0 174. (नेशनल पब्लिशिंग हाउस, 2006)। 2. डॉ0 विमल कीर्ति - दलित साहित्य में बौद्ध धम्म दर्शन और चिन्तन का प्रभाव, पृ0 163 (नवभारत प्रकाशन, 2018-19)। 3. डॉ0 विमल कीर्ति - दलित साहित्य में बौद्ध धम्म दर्शन और चिन्तन का प्रभाव, पृ0 164 (नवभारत प्रकाशन, 2018-19)। 4. डॉ0 विमल कीर्ति - दलित साहित्य में बौद्ध धम्म दर्शन और चिन्तन का प्रभाव, पृ0 161 (नवभारत प्रकाशन, 2018-19)। 5. डॉ0 विमल कीर्ति - दलित साहित्य में बौद्ध धम्म दर्शन और चिन्तन का प्रभाव, पृ0 169 (नवभारत प्रकाशन, 2018-19)। 6. डॉ0 विमल कीर्ति - दलित साहित्य में बौद्ध धम्म दर्शन और चिन्तन का प्रभाव, पृ0 175 (नवभारत प्रकाशन, 2018-19)। 7. कृष्ण चन्द्र श्रीवास्तव - प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, पृ0 818 (यूनाइटेड बुक डिपो, 2012-13)। 8. कृष्ण चन्द्र श्रीवास्तव - प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, पृ0 824 (यूनाइटेड बुक डिपो, 2012-13)। 9. कृष्ण चन्द्र श्रीवास्तव - प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, पृ0 827 (यूनाइटेड बुक डिपो, 2012-13)। 10. डॉ0 किरण कुमारी - धर्म और दर्शन, पृ0 135 (न्यू भारतीय बुक कॉर्पोरेशन, 2004)। 11. कृष्ण चन्द्र श्रीवास्तव - प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, पृ0 826 (यूनाइटेड बुक डिपो, 2012-13)। 12. डॉ0 किरण कुमारी - धर्म और दर्शन, पृ0 138 (न्यू भारतीय बुक कॉर्पोरेशन, 2004)। 13. डॉ0 किरण कुमारी - धर्म और दर्शन, पृ0 134 (न्यू भारतीय बुक कॉर्पोरेशन, 2004)। 14. राम गोपाल सिंह - डॉ0 अम्बेडकर: सामाजिक न्याय एवं परिवर्तन, पृ0 191-192 (नेशनल पब्लिशिंग हाउस, 2006)। 15. राम गोपाल सिंह - डॉ0 अम्बेडकर: सामाजिक न्याय एवं परिवर्तन, पृ0 6 (नेशनल पब्लिशिंग हाउस, 2006)। 16. डॉ0 ए0वी0 कौर - भारत में बौद्ध धर्म के प्रमुख प्रणेता, पृ0 153 (यूनिवर्सिटी पब्लिकेशन, 2013)। 17. डॉ0 कृष्ण गोपाल - बाबा साहब व्यक्ति और विचार, पृ0 4 (सुरूचि प्रकाशन, 1994)।