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किरातार्जुनीयम् में शृङ्गारिक वर्णन | |||||||
Sngarika Description in Kiratarjuniyam | |||||||
Paper Id :
15789 Submission Date :
2022-02-02 Acceptance Date :
2022-02-22 Publication Date :
2022-02-25
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सारांश |
श्रृंगार को रसों का राजा माना जाता है क्योंकि यदि हम वैदिक काल से ही प्रारम्भ करें तो वेदों में भी गायन-वादन एवं नृत्यादि से सम्बन्धित वर्णन प्राप्त हो जाते हैं। इसीलिए हमारे यहाँ कहा गया है -’’ सत्यं शिवं सुन्दरम् ‘‘
अर्थात् हम लोग सत्य और शिव के साथ-साथ सुन्दर के भी उपासक रहे हैं। इसी कारण प्राचीन भारत में विभिन्न कलाओं के क्षेत्र में आश्चर्यजनक उन्नति हुई थी, जिनमें सौन्दर्य की परमाभिव्यक्ति हुई है। सौन्दर्य और श्रृंगार दोनों परस्पर में सम्बन्ध रखते हैं।
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | Shringar is considered to be the king of rasas because if we start from the Vedic period, then we get descriptions related to singing, playing and dancing etc. in the Vedas also. That is why we have been told here - "Satyam Shivam Sundaram". That is, we have been worshipers of Truth and Shiva as well as Sundar. For this reason, amazing progress was made in the field of various arts in ancient India, in which beauty has been expressed. Beauty and makeup are related to each other. |
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मुख्य शब्द | किरातार्जुनीयम् , श्रृंगार, नाट्यशास्त्र, आस्वादनीय। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Kiratarjuniyam, Makeup, Theatrical Science, Tasteful. | ||||||
प्रस्तावना |
भरतमुनि ने अपने नाट्यशास्त्र में विचार व्यक्त करते हुए कहा है कि - ’’ काव्य में रस ही सर्वोपरि चमत्कारपूर्ण आस्वादनीय पदार्थ है, रस के स्वरुप का ज्ञान और इसका आस्वाद्य ही काव्य के अध्ययन का सर्वोपरि फल है। [1]
महाकवि राजशेखर ने लिखा है कि - ’’ रस का निर्माण सर्वप्रथम ’’नन्दिकेश्वर‘‘ ने ब्रह्मा जी के उपदेश पर किया था।
लौकिक संस्कृत साहित्य में भी यह परम्परा अनवरत होती रही और श्रृंगार का वर्णन अपनी श्रेष्ठता के शिखर को छूता चला गया। यदि हम महाकवि कालिदास की चर्चा करें तो श्रृंगार रस की मनमोहक प्रस्तुति अपने काव्य एवं नाट्य ग्रंथों में की है। श्रृंगार के दोनों पक्षों संयोग और वियोग के चित्रण में उन्होंने श्रेष्ठता प्राप्त की थी। उनकी प्रसिद्ध नाट्यकृति ’’ अभिज्ञानशाकुंतलम् ‘‘ तो श्रृंगार का एक अनुपम उदाहरण माना जा सकता है।
कुमारसंभवम् का आठवां सर्ग और रघुवंशम् का 19 वाँ सर्ग भी संयोग श्रृंगार के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। इनका प्रसिद्ध खण्डकाव्य ’’ मेघदूतम् ‘‘ वियोग श्रृंगार का अद्वितीय उदाहरण है।
कवि भर्तृहरि ने तो श्रृंगार रस का सन्निवेश कर एक छोटा सा ’’ श्रृंगार-शतकम् ‘‘ नामक शतक काव्य ही लिख दिया।
इसके अतिरिक्त भी महाकाव्य और नाटक आदि में प्रधानरस चाहे जो भी रहा हो परन्तु श्रृंगार का वर्णन कहीं न कहीं अवश्य मिल जाता है।
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अध्ययन का उद्देश्य | शोध-पत्र में श्रृंगार रस के प्रयोग का वर्णन करने का प्रयास किया गया है। |
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साहित्यावलोकन | संस्कृत के साथ-साथ हिन्दी साहित्य भी श्रृंगार रस से परिपूर्ण मिलता है। हिन्दी में बिहारी ने बिहारी सतसयी में एवं तुलसीदास जी ने अपने रामचरित मानस आदि काव्यों में श्रृंगार रस का चित्रण किया है। |
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मुख्य पाठ |
किरातार्जुनीयम्
में श्रृंगारिक वर्णन महाकवि भारवि के काव्य का मुख्य रस वीर है, परन्तु
फिर भी काव्य की कथावस्तु को मनोरंजक बनाने के लिए श्रृंगार रस का प्रयोग महाकवि
द्वारा किया गया है। किरातार्जुनीयम् महाकाव्य में जब इन्द्र का संदेश प्राप्त कर देवाङ्गनायें
अर्जुन की तपस्या को भंग करने के लिए पृथ्वी-लोक पर आती हैं, तो उनके द्वारा जो श्रृंगारिक क्रियाकलाप किये गये उनका वर्णन अष्टम् एवं
नवम् सर्ग में मुख्यतः मिलता हैं। महाकवि भारवि अपने काव्य किरातार्जुनीयम् में वर्णन करते हैं कि कोई सखी
प्रणय से क्रोधित किसी स्वाभिमानी नायिका से कहती है कि:- ’’ जहीहि कोषं दयितोऽनुगम्यतां पुरानुशेते तव चंचलं मनः। इतिप्रियं
कांचिदुपैतुमिच्छतीं पुरोनुनिन्ये निपुणः सखीजनः।। ‘‘ 2 ’मान त्याग दो‘ अपने प्रियतम के पास चलो
तुम्हारा मन चंचल है, आगे चलकर पछताओगी। अपने प्रियतम
केे पास जाने के लिए इच्छुक किसी नायिका से उसकी चित्तवृत्ति कोिा समझने वाली किसी
सखी ने इस प्रकार की बातें करके उसे पहले ही प्रसन्न कर लिया। अर्थात् एक नायिका
जो प्रणय-कुपिता है, अपने मान की रक्षा हेतु प्रियतम के
पास नहीं जाती हैं, परन्तु उसकी सखी उससे कहती है कि
तुम मान त्यागकर चंचल मन होने के कारण प्रियतम के पास चलो। इस
प्रकार वह सखी उस नायिका की जो श्रंगारिक चित्तवृत्ति है, उसके कारण प्रणय पूर्ण वार्तालाप कर उसके मन को हर्षित कर देती है। वर्तमान समय के लिये हमें शिक्षा प्राप्त होती है कि हमें भी अपने मित्रजन आदि की मनोवृत्तियों को समझकर उसके अनुरुप व्यवहार करने का प्रयास करना चाहिए। महाकवि भारवि इन्द्र द्वारा अर्जुन की तपस्या को भङ्ग करने के लिए भेजी गई देवाङ्गनाओं का शृंगारिक वर्णन करते है कि उन सुरबालाओं को पैदल चलना आनन्ददायक हो रहा है। यथा:- ’’ वर्तमान समय के लिये हमें शिक्षा प्राप्त होती है कि हमें भी अपने मित्रजन आदि की मनोवृत्तियों को समझकर उसके अनुरुप व्यवहार करने का प्रयास करना चाहिए। महाकवि भारवि इन्द्र द्वारा अर्जुन की तपस्या को भङ्ग करने के लिए भेजी गई देवाङ्गनाओं का शृंगारिक वर्णन करते है कि उन सुरबालाओं को पैदल चलना आनन्ददायक हो रहा है। यथा:- ’’ निवृत्तवृत्तोरुपयोधरक्लमः प्रवृत्तनिर्ह्रादिविभूषणारवः। नितम्बिनीनां
भृशमादधे धृतिं नभः प्रयाणादवनौ परिक्रमः।। ‘‘ 3 उन
नितम्बिनी सुरबलाओं को पृथ्वी पर पैदल चलना आकाश के संचरण से अधिक रुचिकर प्रतीत
हुआ क्योंकि इससे उनके गोले-गोले जघनस्थलों एवं स्तनों की थकावट दूर हो रही थी और
साथ ही उनके नूपुरों से मंजुल ध्वनि भी हो रही थी। इस प्रकार यहाँ पर सुरबलाओं के
जघनस्थल और स्तन भारी होने के कारण थक जाते परन्तु आकाश के संचरण से उन्हें पैदल
चलना आनन्ददायक हो गया। अतः यहाँ पर सुरबलाओं का शृंगारिक वर्णन कवि के द्वारा किया गया है। इसी क्रम
में किसी नायिका द्वारा अपनी शृंगारिक क्रियाओं से अपने प्रियतम को प्रसन्न करने
का वर्णन करते हुये महाकवि भारवि कहते है कि:- ’’सलीलमासक्तलतान्त भूषणं समासजन्त्या कुसुमावतंसकम्। स्तनोपीडं नुनुदे नितम्बिना घनेन कश्चिज्जघनेन कान्तया।। ‘‘ 4 किसी
नायिका के प्रियतम द्वारा दिए गए नूतन कोमल पल्लवों के साथ बनाए गए पुष्प के
मस्तकाभूषण को लीला-पूर्वक धारण किये हुये किसी सुन्दरी ने स्तनों का गाढ़ आलिङ्गन
देकर अपने सघन जघनस्थलों से अपने नायक को प्रसन्न कर लिया। अर्थात्
जैसे ही किसी नायक द्वारा नायिका को पुष्प से बना मस्तकाभूषण दिया तो नायिका ने
स्तनों से गाढ़ आलिङ्गन कर उस प्रियतम को प्रसन्न कर दिया। इस प्रकार यहाँ पर देवाङ्गनाआोें के अपने प्रियतमों के साथ पुष्पादि चुनते
हुये शृंगारिक वर्णन किया गया है। इसी
प्रकार एक देवाङ्गना द्वारा अपने प्रियतम के मन को अपनी तरफ आकर्षित करने का
शृंगारिक वर्णन महाकवि भारवि दो पद्यों में करते हुये कहते हैं। यथा:- ’’ कलत्रभारेण
विलोलनीविना गलद्दुकूलस्तनशालिनोरसा। वलिव्यपायस्फुटरोमराजिना
निरायतत्वादुदरेण ताम्यता।। विलम्बमानाकुलकेश पाशया
कयाचिदाविष्कृतबाहुमूलया। तरुप्रसूनान्यपदिश्य
सादरं मनोधिनाथस्य मनः समाददे।। ‘‘
5 एक
दूसरी देवाङ्गना के जिसके नितम्ब के भारी होने के कारण उसके भार से नीवी-बन्धन
ढीले हो गये थे, जिसके वक्षस्थल के वस्त्रों के उड जाने से दोनों स्तन स्पष्ट दिखाई पडते
रहे थे और अति विस्तृत न होने के कारण जिसके दुर्बल उदर भाग पर त्रिवली के न होने
से रोमावली स्पष्ट दिखाई पड रही थी, पीठ पर लंबी-लंबी
केशराशि लटक रही थी और उसके बाहुओं के मूलभाग भी खुले हुए थे। इस प्रकार फूलों के
चुनने के बहाने से अत्यन्त अभिलाषा के साथ उसने अपने प्रियतम के मन को अपनी ओर
खींच लिया। महाकवि भारवि वर्णन करते हैं कि स्त्रियाँ बनावटी चेष्टाओं के द्वारा भी प्रेमियों के मन को मोह लेती हैं। यथा:-’’भयादिवाश्लिष्य झषाहतेऽम्भसि प्रियं मुदानन्दयति स्म मानिनी। अकृत्रिमप्रेम
रसा हितैर्मनो हरन्ति रामाः कृतकैरपीहितैः।।‘‘ 6 एक
मानिनी नायिका एक बडी मछली द्वारा जल में धक्का लग जाने से मानों भयभीत सी होकर
अत्यन्त उत्सुकतापूर्वक अपने प्रेमी से लिपट कर उसे आनन्दित करने लगी। सच है, स्त्रियाँ
अपनी बनावटी चेष्टाओं से भी, यदि वे स्वाभाविक प्रेम-रस
से परिपूर्ण होती हैं तो प्रेमियों का मन मोह लेती हैं। अर्थात् वह नायिका
वास्तविक रुप से तो भयभीत नहीं थी, परन्तु अपने प्रेम
से प्रियतम को आनन्दित करने के लिए ऐसी बनावटी चेष्टा कर रही थी। इस प्रकार
जलक्रीडा करते हुए प्रेमी-प्रेमिका का श्रंगारिक वर्णन इंगित होता है। इसी
प्रकार जलविहार अथवा जलक्रीडा करती हुई किसी देवाङ्गना का शृंगारिक वर्णन महाकवि
करते हैं। यथा:-करौ धुनाना नवपल्लवाकृति पयस्यगाधे किल जातसम्भ्रमा। सखीषु
निर्वाच्यमधार्ष्ट्यदूषितं प्रियाङ्गसंश्लेषमवाप मानिनी।। ‘‘ 7 एक
मानिनी नायिका अगाध जल में डूब जाने की शङ्का से त्रस्त होकर नूतन पल्लव के समान
अपने मनोहर हाथों को कँपाती हुई अपने प्रेमी के अङ्गो से लिपट गई। उसके इस व्यवहार
पर उसकी सखियों ने धृष्टता का आरोप नही लगाया। अर्थात् जल क्रीडा के समय नायिका को
ऐसा लगा कि वह डूब जायेगी इस कारण वह अपने प्रेमी के अङ्गो से लिपट गई। अतः प्रेमी
से लिपटना यहाँ पर शृंगारिकता को प्रकट करता है। जल विहार करती हुई किसी विलासिनी नायिका को जब प्रियतम द्वारा जल का छींटा
देने से रोका गया, तो उसके हाव-भावों का शृंगारिक वर्णन
महाकवि भारवि करते हैं। यथा:- ’’प्रियैः
सलीलं करवारिवारितः प्रवृद्धनिःश्वासविकम्पितस्तनः। सविभ्रमाधूतकराग्रपल्लवो
यथार्थतामाप विलासिनीजनः।। ‘‘
8 प्रेमियों
द्वारा लीलापूर्वक हाथों से जल का छींटा देते हुए विलासिनियाँ जब रोक दी गयीं तो
लम्बी-लम्बी साँसें खींचने लगी और उनके स्तन काँपने लगे और वे हाव-भाव के साथ अपनी
पल्लवानुकारिणी हथेलियाँ हिलाने लगीं। इस प्रकार उन्होंने अपने विलासिनी नाम की
सार्थकता सिद्ध कर दी। अर्थात् जैसे ही प्रियतमों द्वारा जल विहार करती नायिकाओं
के हाथों को पकडा तो वह विलासिनियाँ लम्बी-लम्बी साँस खींचने लगी और उनके स्तन
काँपने लगे। इस प्रकार यहाँ पर विलासिनी नायिकाओं का शृंगारिक वर्णन महाकवि भारवि
ने किया है। अतः प्रेमी का स्पर्श करना उनके हाव-भाव को प्रदर्शित कर शृंगारिकता को
व्यक्त करता है। इसी क्रम में महाकवि वर्णन करते हैं कि प्रियतम के स्पर्श से किसी नायिका
के चित्त में काम-भाव उत्पन्न हो गया। यथा:- ’’विहस्य
पाणौ विधृते धृताम्भसि प्रियेण वध्वा मदनार्द्र चेतसः। सखीव
कांची पयसा घनीकृता बभार वीतोच्चयबन्धमंशुकम्।। ‘‘ 9 अपने
प्रियतम के ऊपर डालने के लिए किसी सुन्दरी ने ज्योंही अपनी अंजली में पानी लिया
त्यों ही उसके प्रियतम ने हँसकर उसका हाथ पकड लिया। इससे चित्त में
कामोद्रेक होने से परवश उस सुन्दरी का नीवी बन्धन ढीला हो गया और वस्त्र खिसकने
लगा किन्तु उसे उसी क्षण जल में भींगने से कडी हुई करधनी ने मानों सखी की भाँति
खिसकने से रोक लिया। इस प्रकार यह स्वाभाविक ही है कि जैसे ही कोई प्रियतम नायिका को स्पर्श
करता है, तो उसके चित्त में
काम-भावना उत्पन्न हो जाती है एवं कामभावना के कारण जैसे ही उस नायिका ने लम्बी
साँस खींची उसका नीवी बन्धन ढीला हो गया। इस प्रकार यहाँ पर नायिका का शृंगारिक
वर्णन अभिव्यक्त किया गया है। अपने प्रेमियों के समीप जलक्रीडा करती हुई रमणियों के जो कामपीडित होने के
संकेत मिलते हैं, इसका शृंगारिक वर्णन करते हुये महाकवि
भारवि वर्णन करते है कि:- यथा:- ’’निमीलदाकेकरलोलचक्षुषां
प्रियोपकण्ठं कृतगात्रवेपथुः। निमज्जतीनां
श्वसितोद्धतस्तनः श्रमो नु तासां मदनो नु पप्रथे।। ‘‘ 10 प्रेमियों
के अत्यन्त समीप में स्नान करने के कारण अर्द्धनिमीलित एवं तिरछे कटाक्षों वाली उन
रमणियों के शरीर के कम्पन एवं लम्बी साँसे के लेने से हिलते हुए स्तन पता नहीं
उनके थके होने की सूचना दे रहे थे या उनके कामपीडित होने की। इस प्रकार प्रेमियों के समीप स्नान करने के कारण रमणियों के शरीर में
कम्पन होने लगा, जिससे उनके कामपीडित होने की सूचना मिल
रही थी। अतः उनका शृंगारिक वर्णन प्रस्तुत श्लोक में प्राप्त होता है। इसी प्रकार आगे सायङ्काल के समय अभिसार को उद्धत रमणियों का शृंगारिक
वर्णन करते हुये महाकवि भारवि वर्णन करते हैं। यथा:- ’’कान्तदूत्य
इव कुङ्कुमताम्राः सायमण्डलमभित्वरयन्त्यः। सादरं
ददृशिरे वनिताभिः सौधजालपतिता रविभासः।। ‘‘ 11 कुंकुम
के समान लाल, रमणियों को अभिसार तथा रमण के उपयुक्त वस्त्राभूषणादि प्रसाधनों को
शीघ्रता से सम्पन्न करने के लिए उकसाती हुई, खिड़कियों
की जालियों से आने वाली सूर्य की किरणों को, देवाङ्गनाओं
ने प्रिय की दूती के समान बडे सम्मान से देखा। अर्थात् सायङ्काल की उन किरणों
द्वारा शीघ्र ही प्रिय समागम की सूचना प्राप्त हुई तो देवाङ्गनाओं ने उन किरणों का
दूती के समान आदर किया। इस प्रकार समागम को उद्धत देवाङ्गनाओं की शृंगारिकता
व्यक्त हो रही है। इसी क्रम में महाकवि भारवि ने देवाङ्गनाओं के रति-क्रीडा के समय के समीप
आने का शृंगारिक वर्णन किया गया है। यथा:- ’’सद्मनां
विरचनाहितशोभैरागतप्रियकथैरपि दूत्यम्। सन्निकृष्टरतिभिः
सुरदारैभूषितैरपि विभूषणमीषे।।‘‘ 12 रति-क्रीडा का समय समीप आ जाने पर देवाङ्गनाएँ पहले ही से केलि विलास के लिए सुसज्जित भवनों को पुनः सजाने, अपने प्रियतम के आगमन का सन्देश मिले रहने पर भी दूती भेजने एवं वस्त्राभूषणों से भली भाँति अंलङ्कृत होने पर भी पुनः अलङ्कृत होने की अभिलाषा करने लगी। अर्थात् देवाङ्गनायें रति-क्रीडा के लिए इस प्रकार आतुर हो रही है कि सजे हुये भवनों को पुनः सजाने लग गई एवं प्रियतम के आगमन का सन्देश प्राप्त हो गया परन्तु तथापि दूती को बुलाने के लिए भेजना एवं स्वयं अलङ्कृत होना, उनकी रति-क्रीडा की आतुरता को व्यक्त करते हैं। इस प्रकार देवाङ्गनाओं की शृंगारिकता का वर्णन यहाँ किया गया है। इसी क्रम में रति के लिए उद्धत रमणियों का वर्णन किया गया है कि वह
रमणियाँ कामदेव के द्वारा नष्टबुद्धि वाली हो गई। यथा:- कान्तवेश्म बहु सन्दिशतीभिर्यातमेव रतये रमणीभिः। मन्मथेन
परिलुप्तमतीनां प्रायशः स्खलितमप्युपकारि।। ’’ 13 रति
के लिए सन्देश पर सन्देश भेजती हुई रमणियाँ अपने प्रियतमों के निवास-स्थल पर पहुँच
ही गयीं। बीच में मार्ग नही भूलीं। प्रायः कामदेव के द्वारा नष्टबुद्धि वाले
व्यक्तियों की भूल भी उपकार ही हो जाती है। अर्थात् किसी रमणी ने रति के लिए प्रियतम
को बार-बार सन्देश भेजा। परन्तु नहीं आने पर वह स्वयं ही प्रियतम के पास चलीं गई।
इस प्रकार यहाँ पर उसकी रति-क्रीडा का शृंगारिक वर्णन किया गया है। प्रियतम के साथ
समागम का शृंगारिक वर्णन महाकवि भारवि करते हैं। यथा:- ’’योषितः
पुलकरोधि दधत्या धर्मवारि नवसङ्गमजन्म। कान्तवक्षसि बभूव पतन्त्या मण्डनं लुलितमण्डनतैव।।‘‘ 14 अर्थात्
प्रियतम के नूतन समागम के कारण पुलकावली तक में व्याप्त स्वेद बिन्दुओं को धारण
करने वाली, प्रियतमों के वक्षस्थल पर लेती हुई उन रमणियों के तिलकादि अलङ्कार यद्यपि
छूट गये थे तथापि उनका वह छूटना ही अलङ्कार बन गया। इस प्रकार यहाँ पर प्रियतम के साथ समागम से रमणी ने स्वेद बिन्दुओं तक में हर्ष को धारण किया और अलङ्कार आदि से भी रहित होने पर वह अलङ्कृत सी होने लगी। अतः रमणी की श्रृंगारिकता प्रदर्शित होती है। किसी प्रियतम द्वारा अपनी प्रियतमा का मुख चुम्बन आदि का श्रृंगारिक वर्णन करते हुये कहा है कि:- यथा:- ’’लोलदृष्टि
वदनं दयितायाश्चुम्बति प्रियतमे रभसेन। व्रीडया सह विनीवि
नितम्बादंशुकं शिथिलतामुपपेदे।। ‘‘ 15 प्रियतम
द्वारा चंचल नेत्रों वाली प्रियतमा का मुख बल-पूर्वक चुम्बन कर लेनेे पर नीवी का
बंधन छूट जाने से उसका वस्त्र नितम्ब प्रदेश से लज्जा के साथ ही शिथिलित हो गया।
अर्थात् वस्त्र तो ढीला हो ही गया उसकी लज्जा भी शिथिलित हो गयी। इस
प्रकार यहाँ पर नायक-नायिकाओं का श्रृंगारिक वर्णन दृष्टिगोचर होता है। इसी
क्रम में महाकवि भारवि द्वारा किसी लज्जित प्रियतमा द्वारा प्रियतम के गाढ़ आलिङ्गन
का श्रृंगारपूर्ण वर्णन किया है। यथा:- ’’ह्रीतया
गलितनीवि निरस्यन्नन्तरीयमवलम्बितकांचि। मण्डलीकृतपृथुस्तनभारं सस्वजे दयितया हृदयेश:।। ‘‘ 16 नीविबन्धन के छूट जाने से करधनी के सहारे रुके हुए अन्तरीय अर्थात् अधोवस्त्र को खींचते हुए अपने प्रियतम का, लज्जित प्रियतमा ने ऐसा गाढ़ा आलिङ्गन किया कि उसके उन्नत एवं विस्तृत स्तन मण्डल गोलाकार बन गए थे। अर्थात्
अपने प्रियतम की दृष्टि को रोक रखने के लिए उसने यह चतुराई की थी। इस प्रकार
प्रियतमा द्वारा प्रियतम का गाढ आलिङ्गन रुपी श्रृंगारिक वर्णन यहाँ
पर किया गया है। महाकविभारवि केलि भवन का श्रृंगारिक वर्णन
महाकाव्य किरातार्जुनीयम् में करते हुये कहते हैं कि:- ’’पाणिपल्लवविधूननमन्तः सीत्कृतानि नयनार्धनिमेषा। योषितां
रहसि गद्गदवाचाम स्त्रतामुपययुर्मदनस्य।। ‘‘ 17 अत्यंत
एकान्त में अर्थात् केलि-भवन में गद्गद् वाणी में बोलने वाली रमणियों का
पाणि-पल्लवों का हिलाना सी-सी करना एवं आधे मुंदे हुए नेत्रों से देखना-ये सब उनके
प्रियतमों के लिए कामदेव के अस्त्रों के समान उद्दीपन हो गए। इस प्रकार यहाँ पर
क्रीडा-भवन में रमणी की जो क्रियायें हैं, वह प्रियतम के लिए उद्दीपन का कार्य
कर रही हैं। अतः यहाँ पर नायक-नायिका काश्रृंगारिक वर्णन किया गया है। प्रियतम के साथ समागम करने से स्वाभिमानी रमणियों का क्रोध दूर हो गया, इस प्रकार का श्रृंगारिक वर्णन यहाँ किया गया है। यथा:- ’’कान्तसङ्गमपराजितमन्यौ
वारुणीरसनशान्तविवादे। मानिनीजन
उपहितसंधौ संदधे धनुषि नेषुमनङ्गः।। ‘‘ 18 प्रियतम
के समागम से मानिनी रमणियों का क्रोध दूर हो गया, मदिरा के पान से विवाद शान्त हो गया, इस प्रकार प्रिय के सङ्ग उनकी सुलह हो गयी, अतः
उन पर आक्रमण करने के लिए कामदेव ने अपने धनुष पर बाण नहीं चढाया। इस प्रकार किसी
स्वाभिमानी नायिका का जब प्रियतम के साथ समागम हुआ तो उसका क्रोध जाता रहा और
विवाद शान्त होकर दोनों की सुलह हो गई।अतः यह सभी कार्य प्रियतम के समागम से हुए
है, अतः श्रृंगारिकता ही
इन सबका कारण बनी। इसी प्रकार महाकवि भारवि वर्णन करते हैं कि मदिरा के द्वारा कामदेव का उदय
नूतन रुप में हो गया। यथा:- ’’अहिते
नु मधुना मधुरत्वे चेष्टितस्य गमिते नु विकासम्। आबभौ
नव इवोद्धतरागः कामिनीष्ववसरः कुसुमेषोः।। ‘‘19 मदिरा के द्वारा रति-क्रीडा में अत्यन्त मधुरता आ जाने पर अथवा उसके आनन्द के और अधिक बढ़ जाने पर उन रमणियों में कामदेव का उदय अत्यन्त उद्रेक के साथ मानों नूतन रुप में हो गया। इस प्रकार मदिरा के द्वारा रमणियों में श्रृंगार रस की अधिकता हो गई और रति-क्रीडा में मधुरता आ गई। अतः यहाँ पर श्रृंगारिकता व्यक्त हो रही है। |
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निष्कर्ष |
इस प्रकार इस शोध-पत्र में किरातार्जुनीयम् महाकाव्य में वर्णित श्रृंगारिकता का वर्णन करने का प्रयास किया गया है। तत्कालीन श्रृंगारिकता का वर्णन कर उस समय की परिस्थितियों में महाकाव्य को मनोरंजक बनाने के लिए विद्वान् कवियों द्वारा इस प्रकार के श्रृंगारिक वर्णनों का प्रयोग किया जाता रहा है। इसका अध्ययन करने से तत्समय का ज्ञान प्राप्त करने में सक्षम हो सकेंगे। |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1. भरतमुनि-नाट्यशास्त्र कारिका - 06
2. किरातार्जुनीयम् - 08/08
3. किरातार्जुनीयम् - 08/03
4. किरातार्जुनीयम् - 08/16
5. किरातार्जुनीयम् - 08/17-18
6. किरातार्जुनीयम् - 08/46
7. किरातार्जुनीयम् - 08/48
8. किरातार्जुनीयम् - 08/49
9. किरातार्जुनीयम् - 08/51
10. किरातार्जुनीयम् - 08/53
11. किरातार्जुनीयम् - 09/06
12. किरातार्जुनीयम् - 09/34
13. किरातार्जुनीयम् - 09/37
14. किरातार्जुनीयम् - 09/41
15. किरातार्जुनीयम् - 09/47
16. किरातार्जुनीयम् - 09/48
17. किरातार्जुनीयम् - 09/50
18. किरातार्जुनीयम् - 09/52
19. किरातार्जुनीयम् - 09/69
संस्करण :- सुधाकर मालवीयः प्रकाशक:-चौखम्बा कृष्णदास अकादमी, वाराणसी तृतीय संस्करण वि.सं. २०७१ सन् -२०१४
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