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सुशासन के नवीन आयाम (भारत के सन्दर्भ में) | |||||||
New Dimensions of Good Governance (In the Context of India) | |||||||
Paper Id :
16330 Submission Date :
2022-08-08 Acceptance Date :
2022-08-19 Publication Date :
2022-08-25
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सारांश |
प्राचीन काल से ही ऐसे अनेक विचारक ऐसे हुये हैं, जिन्होंने अनेक प्रकार की विचारधाराओं का प्रतिपादन किया है, जिसमें राज्य की स्थिरता एवं सुशासन की व्यवस्था प्रमुख है और तो और जिसमें भारत की साँस्कृतिक, सामाजिक, राजनीतिक, ऐतिहासिक, धार्मिक, भौगोलिक विरासत में भी हमें इसकी झलक मिलती है। प्राचीन काल में पश्चिमी जगत के विचारकों में सुकरात, प्लेटो, अरस्तू, कन्फ्यूशियस, मैकियावली, रूसो, हीगल, मार्क्स, मिल आदि अनेक विचारकों ने अलग-अलग तरीके की विचारधारा का प्रतिपादन करके राज्य में सुशासन की कल्पना की थी, जिसमें अरस्तू ने राज्य के सन्दर्भ में कहा है कि राज्य की उत्पत्ति जीवन के लिए हुई और सद्जीवन की प्राप्ति के लिए इसका अस्तित्व बना हुआ है। अरस्तू के इस कथन से हम यह कह सकते हैं कि इन्होंने राज्य की व्यवस्था को बनाये रखने के लिए उसमें सुशासन होना आवश्यक माना है। उन्होंने राज्यों की सरकारों का वर्गीकरण किया, जिसमें राजतन्त्र की व्यवस्था को सबसे अच्छा माना था। विश्व में अनेक विचारधाराओं की उत्पत्ति हुई, जो कि सुशासन की व्यवस्था के सन्दर्भ लिखते हैं और प्रचार करते हैं। कोई भी विचार या विचारधारा गलत नहीं हाती है बल्कि उसको क्रियान्वयन करने वाले व्यक्ति या संस्था, जो व्यवस्था का संचालन करने वाले, इनको सही तरीके से लागू नहीं कर पाते हैं। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि ये व्यक्ति जो भी कार्य करते हैं, वे सभी अपने हित के लिए कार्य करते हैं, न कि जनता और शासन व्यवस्था के लिए। भारत में महाभारत रामायण, वेद, उपनिषद, अर्थशास्त्र (कौटिल्यकृत) आदि में सुशासन की व्यवस्था पढ़ने को मिलती है परन्तु वह व्यवस्था उस समय के लिए ही उपयोगी हो सकती थी, आज के समय में हुए परिवर्तन के अनुसार उस समय के विचारों को जीवन में उतारना पूर्णतया असम्भव प्रतीत होता है क्योंकि आज तकनीकी, वैज्ञानिक एवं प्रौद्योगिकी में इतनी अधिक वृद्धि हुई है कि मनुष्य को यह आध्यात्मिकता की प्रवृत्ति से बहूत दूर ले जाया जा रहा है, इससे मनुष्य के मस्तिष्क में सदैव ही भौतिक प्रवृत्ति की ओर मन का विचलन होना स्वाभाविक हो गया है। मनु, शुक्र, कौटिल्य, बृहस्पति, गाँधीजी, पं. जवाहर लाल नेहरू, राजा राममोहन राय, स्वामी दयानन्द सरस्वती, गोपाल कृष्ण गोखले आदि।
राज्य की व्यवस्था में, संरचना में, कार्यों में, जीवन में, प्रक्रिया में, सुशासन की व्यवस्था किसी न किसी रूप में बनी हुई है। ब्रिटिश विरासत ने भारतीय शासन के लिए इस प्रकार की व्यवस्था की थी, जिससे की भारत में सुशासन की स्थापना न हो सके बल्कि भारत में ऐसा कुशासन का फैलाव हो जाये जिससे कभी भी भारत की स्थिति सुदृढ़ नहीं हो सके तथा इसका यह परिणाम हुआ कि उस समय भारत में ब्रिटिश सत्ता के विरूद्ध में जनविद्रोह बढ़ा। कुशासन की व्यवस्था के आधार पर ब्रिटिश शासन ज्यादा नहीं टिक सकी और उन्हें जल्दी ही भारत को छोड़कर जाना पड़ा। भारत में जो शासन व्यवस्था थी, उसकी तह में जो कुछ था, वह सब कुछ ब्रिटिश उपनिवेश काल में खत्म हो गया। वर्तमान भारतीय शासन व्यवस्था में प्राचीनकाल एवं मध्यकालीन शासन व्यवस्थाओं का भी प्रभाव दृष्टिगोचर होता है, जिसमें मौर्य, गुप्त, राजपूत, सल्तनत, मुगल, मराठों इत्यादि का प्रभाव भी रहा है। इनकी राजनीतिक, सामाजिक आर्थिक, धार्मिक दृष्टिकोण को भी समझकर सुशासन की व्यवस्था को प्राप्त किया जा सकता है।
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | Since ancient times, there have been many such thinkers, who have propounded many types of ideologies, in which the system of stability and good governance of the state is prominent and in which India's cultural, social, political, historical, religious, geographical heritage is important. We also get a glimpse of it. In ancient times, many thinkers like Socrates, Plato, Aristotle, Confucius, Machiavelli, Rousseau, Hegel, Marx, Mill etc. had envisioned good governance in the state by proposing different types of ideology, in which Aristotle considered the state. It has been said in the context of the state that the state originated for life and it continues to exist for the attainment of good life. From this statement of Aristotle, we can say that for maintaining the system of the state, it is necessary to have good governance in it. He classified the governments of the states, in which the system of monarchy was considered the best. Many ideologies originated in the world, which write and propagate the context of the system of good governance. No idea or ideology is wrong, but the person or organization implementing it, those who run the system, are not able to implement them properly. The biggest reason for this is that whatever work these people do, they all work for their own interest and not for the public and the governance system. In India, the system of good governance is read in Mahabharata, Ramayana, Vedas, Upanishads, Arthashastra (Kautilyakrit) etc. It seems completely impossible because today there has been so much progress in technology, science and technology that man is being taken away from the tendency of spirituality, due to this there will always be a deviation of the mind towards the material tendency in the human mind has become natural. Manu, Shukra, Kautilya, Brihaspati, Gandhiji, Pt. Jawaharlal Nehru, Raja Rammohan Roy, Swami Dayanand Saraswati, Gopal Krishna Gokhale etc. In the system of the state, in the structure, in the work, in life, in the process, there is a system of good governance in one form or the other. The British heritage had made such arrangements for the Indian rule, so that good governance could not be established in India, but such misgovernance should spread in India so that the position of India could never be strengthened and this resulted in that. At the time, people's revolt against the British power in India increased. British rule could not last long on the basis of system of misgovernance and they had to leave India soon. Whatever was in its fold, the governance system that existed in India, all that was destroyed during the British colonial period. The influence of ancient and medieval governance systems is also visible in the present Indian system, in which the influence of Maurya, Gupta, Rajput, Sultanate, Mughal, Maratha etc. has also been there. By understanding their political, socio-economic, religious perspective, the system of good governance can be achieved. |
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मुख्य शब्द | सुशासन, विचारधारा, संसदीय शासन प्रणाली, विरासत, आध्यात्मिकता, उपनिवेश, भातृत्व, कालखण्ड, अनवरत, भ्रष्टाचार, आतंकवाद, औचित्यपूर्ण, सहनशीलता, उत्तरदायित्व, प्रतिबद्धता, पारदर्शी, नौकरशाही, सहयोगात्मक, प्रतिनिधियों। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Good Governance, Ideology, Parliamentary Governance, Heritage, Spirituality, Colonialism, Fraternity, Timelessness, Sustainability, Corruption, Terrorism, Just, Tolerance, Accountability, Commitment, Transparent, Bureaucratic, Cooperative, Representatives. | ||||||
प्रस्तावना |
भारतीय संविधान सभा के सदस्यों ने, जो संविधान भारत के लिए बनाया था, वह भारतीय जनता के लिए, भारतीयों द्वारा बनाया गया था, फिर भी भारतीय संविधान में जितना प्रभाव ब्रिटिश शासन व्यवस्था की झलकती है, उतना शायद ही अन्य संविधान की। संसदीय शासन व्यवस्था का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण इंग्लैण्ड की संसदीय शासन व्यवस्था है और अनेक देशों में भी यह शासन व्यवस्था है, जिनमें हॉलैण्ड, बेल्जियम, कनाडा और भारत इत्यादि है।
भारतीय संविधान निर्मात्ताओं ने अच्छे शासन व्यवस्था के लिए संसदीय शासन व्यवस्था की पद्धति को अपनाया था। इसमें कार्यपालिका और व्यवस्थापिका का घनिष्ठ सम्बन्ध होता है और इसे हम मन्त्रिमण्डलीय शासन व्यवस्था भी कह सकते हैं, इसके माध्यम से मन्त्रिमण्डल को व्यवस्थापिका के प्रति उत्तरदायी रहना पड़ता है, जिससे की मन्त्रिमण्डल तानाशाहा नहीं बन सकता है और इसके प्रतिनिधि जनता के प्रति उत्तरदायी होते हैं। इसके माध्यम से सुशासन की कल्पना की जा सकती है। यदि वह शासन व्यवस्था, जो सुशासन नहीं दे सकती है या उसके शासन काल में अत्याचार, भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद, महिलाओं के साथ अत्याचार, चोरी-डकैती इत्यादि होते रहते हैं तो वह सरकार आम चुनाव के समय पराजित हो जाती है क्योंकि इसके पीछे का कारण शासनकाल में सुशासन नहीं बल्कि कुशासन की स्थिति हो गयी थी। सन् 1967 से पूर्व तक केन्द्र और राज्यों में लगभग एकदलीय शासन प्रणाली थी परन्तु सन् 1967 में संसदीय शासन व्यवस्था में पहली बार ऐसी घटना घटी, जिससे संयुक्त दलीय व्यवस्था की उत्पत्ति हुई, जिसमें इन्दिरा गाँधी ने अन्य दलों के सहयोग से सरकार का गठन किया परन्तु वह भी अधिक देर तक सरकार केन्द्र में रह न सकी और सन् 1970 में पुनः चुनाव हुआ, जिसके तहत काँग्रेस ने पूर्ण बहुमत के साथ सरकार बनायी और इस समय एक दलीय प्रणाली पुनः प्रारम्भ हुआ परन्तु सन् 1975 की आपातकालीन घटना से जनता द्वारा काँग्रेस की तानाशाही सरकार को हटाने के लिए सन् 1977 के चुनावों में इस दल को जनता ने हरा दिया और जनता पार्टी की सरकार की स्थापना हुई, जिसमें अनेक दलों को सम्मिलित करके जनता पार्टी की सरकार का गठन किया गया परन्तु वह ज्यादा दिनों तक सरकार चला सके तथा मोरार जी देसाई को प्रधानमन्त्री पद से हटना पड़ा और सन् 1979 में चौधरी चरणसिंह को प्रधानमन्त्री बनाया गया, इस काल में सुशासन की कल्पना तो दूर की बात थी, वे संसद की बैठक तक नहीं करा सके। सन् 1980 में पुनः काँग्रेस का शासन स्थापित हुआ, जो कि सन् 1989 तक चलता रहा, अन्तिम समय में शासन में भ्रष्टाचार होने के कारण सन् 1989 के चुनाव के बाद मिली-जुली सरकार का निर्माण हुआ, प्रधानमन्त्री श्री वी.पी. सिंह को सरकार द्वारा लागू मण्डल आयोग की घटना ने सरकार का पतन कर दिया। काँग्रेस के सहयोग से श्री चन्द्रशेखर प्रधानमन्त्री बने। काँग्रेस पार्टी ने सरकार से अपना समर्थन वापिस ले लिया। सन् 1991 के चुनावों के पश्चात् काँग्रेस ने श्री पी.वी. नरसिम्हाराव को प्रधानमन्त्री बनाया तथा इन्होंने 5 वर्षों तक शासन किया, जिसमें प्रधानमन्त्री की कुछ भूलों के कारण काँग्रेस को सन् 1996 के आम चुनावों में हार का मुख देखना पड़ा। सन् 1996 में 13 दिन के लिए श्री वाजपेयी प्रधानमन्त्री बने, परन्तु उन्हें कुछ दलों को छोड़कर किसी भी अन्य दलों ने सहयोग नहीं दिया। इसी प्रकार से काँग्रेस ने जनता दल के श्री डी.डी. देवगौड़ा को प्रधानमन्त्री बनाना स्वीकार किया, उन्हें 13 दलों का सहयोग प्राप्त था परन्तु 11 महीनों पश्चात् ही काँग्रेस पार्टी ने अपना सरकार से समर्थन वापिस ले लिया, बाद में उनके स्थान पर जनता दल के ही श्री इन्द्रकुमार गुजराल को प्रधानमन्त्री बनाया और पुनः काँग्रेस ने अपनी चाल-चल कर अविश्वास प्रस्ताव रख दिया, काँग्रेस के समर्थन द्वारा संचालित सरकार का अन्त हो गया।
फरवरी, 1998 के चुनावों में किसी भी पार्टी को पुनः पूर्ण बहुमत प्राप्त नहीं हुआ। इसलिए राष्ट्रपति महोदय ने बी.जे.पी. को सरकार गठन करने को कहा तो बी.जे.पी. की सरकार अनेक दलों से समर्थित सरकार बनी, जो कि पूर्ण रूप से सक्षम सरकार नहीं बन सकी तथा 2004 ई. से लेकर मई, 2014 डॉ. मनमोहन सिंह प्रधानमन्त्री रहे तथा मई 2014 से लगातार श्री नरेन्द्र दामोदर मोदी प्रधानमंत्री है और वर्तमान में भारत की संसद में अनेक दल हैं और दलों के अलावा निर्दलीय प्रत्याशी भी है, जो कि अपना स्थान बनाये हुये हैं और शासन की प्रक्रिया में अतिक्रमण करते हैं। जिन्हें टेलीविजन में संसद में चलने वाली संसदीय कार्यवाही को देखते हैं तथा सांसदों के बीच चलने वाद-विवाद एवं वार्ताओं का आंकलन करते हैं। भारत सरकार द्वारा पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेजी के जन्म दिवस 25 दिसम्बर को प्रतिवर्ष सुशासन दिवस मनाने की घोषणा की गयी, जिसके तहत 25 दिसम्बर 2014 से सुशासन का दिवस मनाया गया। 25 दिसम्बर 2018 के सुशासन का सूचनांक शुरू किया गया है, जिसके तहत सभी राज्यों एवं केन्द्रशासित प्रदेशों द्वारा शासन की स्थिति प्रभावी का आंकलन करने के लिये एक समान उपकरण के रूप तैयार किया गया है।
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अध्ययन का उद्देश्य | सुशासन के सन्दर्भ में उद्देश्यों को तय किया गया है, जिसमें निम्नलिखित उद्देश्यो का तय किया गया है:-
1. सुशासन को अर्थ तथा परिभाषा को समझ सकेंगे तथा इसको अलग-अलग अर्थों में व्यक्त कर सकते हैं।
2. सुशासन मे किस प्रकार शासन जनता के प्रति उत्तरदायी है तथा लोकतन्त्र के विभिन्न सिद्धान्त्तों के नाम ज्ञात कर सकेंगे।
3. सुशासन लक्षण या विशेषताओं का उल्लेख करना।
4. इसमें भारत के सुशासन के अवरोधक तत्वों को ज्ञात कर सकेंगे।
5. भारत में सुशासन की बाधाओं को दूर करने के उपायों का ज्ञात करना।
6. सुशासन की सफलता के लिए आवश्यक शर्तों का ज्ञात कर सकेंगे। |
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साहित्यावलोकन | किसी भी शोधकार्य को करने से पहले शोध से सम्बधित अनेक पुस्तकों, लेखों का अध्ययन करना अति आवश्यक होता है, जिसमें इसमें अनेक पुस्तकों, पत्र-पत्रिकाओं का अध्ययन करना तथा अवश्यक समझा गया तथा कम्प्यूटर के माध्यम से ऑनलाइन वेबसाइट का भी अध्ययन किया गया। इसमें विशेष रूप डॉ. मधुमुकुल चतुर्वेदी के द्वारा प्रकाशित पुस्तक ”राजनीति विज्ञान के मूल आधार” तथा डॉ. नन्दिनी उप्रेती की पुस्तक ”राजनीति विज्ञान के मूल आधार” राजस्थान हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, जयपुर, 2003, प्रभुदत्त शर्मा की पुस्तक ”तुलनात्मक राजनीतिक संस्थाएँ” कॉलेज बुक डिपो, जयपुर, धर्मचन्द जैन (सम्पादक) ”राजनीति विज्ञान के मूल सिद्धान्त”, ए.डी. आर्शीवादम̖ की पुस्तक ”राजनीति शास्त्र”, पी.के. चड̖डा की पुस्तक ”राजनीति शास्त्र के सिद्धान्त, आदर्श प्रकाशन, जयपुर तथा पुखराज जैन की पुस्तक ”राजनीतिक सिद्धान्त ”साहित्य भवन पब्लिकेशन्स, आगरा, 2018, संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुसार सुशासन आठ विशेषताएँ तय की है - 1. विधि का शासन (Rule of Law) 2. समानता एवं समावेशन, (Equlity and Inclusiveness) 3. भागीदारी, (Participation) 4. अनुक्रियता, (Responsiveness) 5. बहुमत/मतैक्य, (Consensus Oriented) 6. प्रभावशीलता दक्षता, (Effectiveness and Efficiency) 7. पारदर्शिता, (Transparency) 8. उत्तरदायित्व (Accountabitily) इत्यादि का अध्ययन किया गया। |
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मुख्य पाठ |
सुशासन का अर्थ एवं परिभाषायें सुशासन का विचार केवल वर्तमान की ही देन नहीं है, अपितु यह प्राचीन काल से चला आ रहा एक विचार है। आज तो कोशिश की जा रही है कि सुशासन की प्रक्रिया को किस प्रकार बनाये जाये ? क्या भारत में सुशासन व्यवस्था जैसी कोई व्यवस्था रह गयी है ? या क्या भारत की व्यवस्था में सुशासन की कल्पना की जा सकती है? इत्यादि प्रश्नों का हल निकालना आज की समस्याओं में से एक है। कुशासन की व्यवस्था को दूर करने के लिए सुशासन की कल्पना की जा सकती है। सुशासन दो शब्दों का योग है अर्थात् ‘शासन‘ शब्द में ‘सु‘ उपसर्ग लग जाने से सुशासन शब्द का जन्म होता है। ‘‘सु‘‘ और ‘‘शासन‘‘, जिसमें ‘‘सु‘‘ अर्थ ‘‘अच्छा‘‘ मंगलकारी, शुभ और शासन का अर्थ शासन संचालन से है अर्थात् इसका शाब्दिक अर्थ अच्छा शासन है। सुशासन की कल्पना की उत्पत्ति अच्छे शासन के लिए हुई है, जिससे कि कुशासन की व्यवस्था को दूर किया जा सकता है। ऐसी शासन व्यवस्था, जिसमें लोककल्याण के कार्य लोकहित में सम्पन्न किये जाते हैं, जिसमें किसी प्रकार के भेदभाव की बू (बेईमानी) नहीं आती हो। सुशासन व्यक्ति को भ्रष्टाचार तथा लालफीताशाही से मुक्त कर प्रशासन को स्मार्ट (Smart) – S (Simple) साधारण, M (moral) नैतिक A (accountable), उत्तरदायी, R (Responsible), जिम्मेदारी, T (transparent) पारदर्शी को तय करता है। जिसमें स्वतन्त्रता, समानता और भातृत्व की भावना सन्निहित हो। ऐसी शासन व्यवस्था को सुशासन की व्यवस्था कहते हैं। सुशासन की व्यवस्था को हम विकास के कार्यों, बेरोजगारी को दूर करने के उपायों, जनता के लिए कार्यों को करना, महिलाओं और गरीबों की रक्षा करना, भ्रष्टाचार को न फैलने देना, भाई-भतीजावाद को दूर करना, समानता, स्वतन्त्रता एवं भातृत्व को बढ़ावा देने को कह सकते हैं। किसी भी दल की सरकार, यदि वह जनता के लिए या जनता के प्रति उत्तरदायी नहीं होती है, तो उसेे जनता द्वारा चुनावों के समय हराकर सत्ता से विलग कर दिया जाता है। सुशासन की समस्या में शासन की अस्थिरता एवं शासन की असफलता को प्रमुख कारणों में देखते हैं।
1. कानून का शासन (Rule of Law) ब्रिटेन में सर्वप्रथम डायसी ने अपनी पुस्तक ‘‘विधि का शासन’’ विधि का कानूनी ढाँचे को निष्पक्ष रूप से लागू किया जाये, जो मानवाधिकारों के सन्दर्भ में हो और कानून के शासन के अभाव में राजनीति एक तरह से मत्स्य न्याय अर्थात् ताकतवार व्यक्ति का कमजोर पर शासन करने जैसा होगा, भारत में न्यायालयों में पुनरावलोकन तथा सक्रियता के कदम हमें देखने को मिलता हैं। 2. भागीदारी (Participation) संविधान और जनता के प्रति उत्तरदायित्व निभाना ही प्रतिबद्धता है। भारतीय राजनीति में चुनाव की व्यवस्था होने के कारण निर्वाचित प्रतिनिधि निर्वाचन के पश्चात् जनता के प्रति अपने कर्तव्यों को भूल जाते हैं, इस कारण सुशासन स्थापित नहीं होती अर्थात् उन्हें आने वाले चुनाव में बुरी तरह हार का मुँह देखना पड़ता है। जो राजनीतिक दल और उसके प्रतिनिधि यदि वे जनता के प्रति अपने उत्तरदायित्व को निभाते हैं और संविधान के अनुसार चलते हैं तो उन्हें अगले चुनावों में हार का मुँह नहीं देखना पड़ता और वे पुनः सत्ता में आ जाते हैं। शासन में जनता का प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष किसी न किसी रूप में भागादारी होना आवश्यक है, इसके लिए अभिव्यक्ति एवं संघ, जो देश के विरूद्ध न हो, को गठिन करने की स्वतन्त्रता होनी चाहिए तथा पुरूष तथा महिलाओं और पिछडे़ वर्गों, अल्पसंख्यकों के मध्य किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं हो। 3. आम सहमति उन्मुख (Consensns-Oriented) शासन द्वारा जो भी कार्य किया जाता है, उससें आम जनता सहमति होनी आवश्यक होनी है, अर्थात् आम सहमति उन्मुख निर्णय लेने में यह सुनिश्चित होता है कि प्रत्येक किसी की सामान्य न्यूनतम आवश्यकता को पूरी की जा सके, जो किसी के लिये हानिकारक नहीं होगा तथा आप सहमति ही, जो एक समुदाय के सर्वाेत्तम हितों की पूर्ति करता है और व्यापक सहमति के साथ विभिन्न हितों की मध्यस्थता करता है। सरकार का स्थायी होना अति आवश्यक है। यदि सरकार का एक बार में अनेक दलों द्वारा मिलकर गठन हो जाता है या किया जाता है तो उसका कम से कम 2 वर्ष से पहले किसी भी दल द्वारा अविश्वास का प्रस्ताव पेश नहीं किया जाना चाहिए, यदि कोई भी दल इस प्रकार का अविश्वास प्रस्ताव लाती है तो ऐसे दल की मान्यता को ही सदैव के लिए समाप्त कर दिया जाना चाहिए। संविधान में इस सन्दर्भ मंे परिवर्तन करना अति आवश्यक है, जिससे कि सरकार का ध्यान सरकार बचाने की ओर न लगाकर, देश के विकास कार्यों की ओर होगा और देश की प्रगति और विकास की रफ्तार अधिक होगी। सुशासन के लिए सरकारों का स्थायी रूप से बना रहना आवश्यक हैं। 4. न्यायसंगत एवं समावेशी (Equity are Inclusiveness) समतामूलक समाज के निर्माण के अभाव में सुशासन की कल्पना नहीं की जा सकती है। प्रत्येक व्यक्ति के पास अपने जीवन स्तर को ऊँचा उठाने एवं अपने स्तर में सुधार करने तथा उसे बनाये रखने के लिए अवसर प्रदान करने चाहिए। 5. जवाबदेही (Accountability) सरकारी संस्थाओं जनता के प्रति जवाबदेही हो, जिससे व्यक्तियों के बेहतर जीवन स्तर प्राप्त हो सके अर्थात् प्रत्येक सरकारी संस्थानों, निजी संस्थानों, सहकारी संस्थानों तथा नागरिक संगठनों को सार्वजनिक एवं संस्थागत हितधारकों के प्रति जवाबदेही होना अति आवश्यक हैं। 6. प्रभावशीलता एवं दक्षता (Effectivenss are Efficiency) भारतीय संसदीय शासन व्यवस्था में संविधान सभा द्वारा लोक कल्याणकारी व्यवस्था के साथ व्यवस्थायें स्वस्थ एवं समृद्ध हो सके, ऐसा प्रयास किया गया। राज्य की शासन व्यवस्था कभी भी गलत नहीं होती है अर्थात् हम यह कह सकते हैं कि सरकारों का प्रकार कैसा भी हो ? वह ठीक ही होता है। सरकार को चलाने वाले लोग यदि अच्छे नहीं होते है तो किसी भी प्रकार की शासन प्रणाली को अपना ले तो, उसमें कभी भी सुशासन की स्थापना नहीं कर सकते, सभी राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों को आत्मशुद्धि से कार्य करना चाहिए। उन्हें जनता के प्रति सहनशीलता से एवं उत्तरदायित्व की भावना से कार्य करना चाहिए, न कि सत्ता से चिपके रहने के लिए किसी भी प्रकार के हथकण्डों को अपना ले। आम जनता के लिए विभिन्न संस्थाओं समुदायों की जरूरतों एवं आवश्यकताओं को पूरा करने से जो परिणाम उत्पन्न करने के लिए सक्षम होते हैं तथा समुदाय के द्वारा संसाधनों का उपयोग अधिकतम उत्पाद के लिये प्रभावी एवं स्पष्टता से कार्य किये जाने की आवश्यकता होती हैं। 7. पारदर्शिता (Tronspareney) वह शासन व्यवस्था, जिसमें सरकार की कार्यप्रणाली को जनता देख सके, अनुभव कर सके और सरकार के कार्यों का सही अनुमान लगा सके। सरकार द्वारा जनता के प्रति खुले तौर पर जनहित में कार्य किया जाये, जो देश के विकास में सहायक हो, तो उस शासन व्यवस्था को हम पारदर्शी शासन व्यवस्था कह सकते हैं। जिसमें सरकार के प्रत्येक कार्यों की झलक जनता को देखने को मिलती है। संसद एवं विधान मण्डलों में जो भी कार्य एवं विचार-विमर्श होता है, उसका ज्ञान जनता को होना चाहिए। सरकारों द्वारा जो भी कार्य हो, वह पारदर्शी होना चाहिए, जिसके लिए आवश्यक सूचनाएँ आम जनता के लिए सुलभ हो तथा किये गये कार्यों की जाँच एवं निगरानी होना अति आवश्यक हो अर्थात् मीडिया समाचार एजेंसियों पर किसी भी प्रकार का कोई प्रतिबन्ध नहीं होना चाहिए, जिसके माध्यम से आम जन तक सूचनाओं का लाभ पहुँच सकें। 8. अनुक्रियाशीलता (Transparency) सरकारों एवं संस्थाओं के कार्य समय पर करना चाहिए, जिससे उसका औचित्य बरकरार रह सके, संस्थाओं और प्रक्रियाओं के द्वारा उचित समय में सभी हितधारकों को सेवायें प्रदान करने का प्रयास करना चाहिए। सरकार का स्वयं की शासन संचालन का औचित्य होना चाहिए। सरकार को ऐसे कार्य करवाने चाहिए, जिससे की सुशासन स्थापित हो सके। जैसे गरीबी में कमी, भ्रष्टाचारी दूर हो, जनता की भागीदारी में वृद्धि हो, विकास दर में वृद्धि हो। स्थायी शासन व्यवस्था, औचित्यपूर्ण शासन व्यवस्था, सहनशीलता एवं उत्तरदायित्वपूर्ण शासन व्यवस्था, प्रतिबद्धता और पारदर्शी शासन व्यवस्था के अलावा भी सुशासन को स्थापित करने वाले अनेक आयाम हैं। जिनमें से प्रमुख है- संसदीय शासन व्यवस्था का होना, कार्य की ओर जनप्रतिनिधियों को ध्यान देना, जनता का भी देश के प्रति उत्तरदायित्वों का निर्वाहन करना, विकासोन्मुख प्रक्रिया का पालना करना इत्यादि के साथ भ्रष्टाचार, अंधविश्वास, भाई-भतीजावाद, धर्मोन्धता, साम्प्रदायिक्ता, जातिवाद, क्षेत्रवाद आदि की भावना को समाप्त करके मानवता की भावना का विकास करके भी सुशासन की स्थापना की जा सकती हैं। शिक्षा में सुधार अति आवश्यक है। यदि इसमें सुयोग्य एवं सभी को शिक्षा मिलती हैं तथा शिक्षा को रोजगारोन्मुख बना दिया जाये तो ही देश का बहुमुँखी विकास हो सकेगा। यदि सभी को शिक्षा प्राप्त हो जाएगी, सुयोग्य शिक्षा मिल जाती है तभी सुशासन की स्थापना हो सकती है, जब इन सभी आयामों पर ध्यान दिया जाये और सरकार द्वारा इन पर अमल किया जाये, तो ही सुशासन की कल्पना की जा सकेगी। सुशासन हेतु किये जा रहे प्रयास सुशासन के लिए प्रयास संविधान या कानूनों में संशोधन करके किया जा सकता है। जब भी किसी भी प्रकार की समस्या देश के सामने आयी हो तो शासन सत्ता ने उनमें संशोधन करके समस्या का समाधान कर लिया। भारत में सुशासन के लिये किये गये प्रयास भारत में स्वतंत्रता के पश्चात् 1947 से अब तक सुशासन के लिए निम्नलिखित सराहनीय प्रयास किये गये हैं- 1. सूचना का अधिकार (Right to Information) यह अधिकार RTI अधिनियम, 2005 से भारत में लागू किया गया है, जिसके तहत कोई भी नागरिक सूचना प्राप्त कर सकता है, यह बदलती परिस्थितियों में सामुदायिक आवश्यकताओं के प्रति सरकार को जवाबदेह बनाती है। यह अधिकार नागरिक एवं राजनीतिक अधिकारों पर अन्तर्राष्ट्रीय करार ( International Covenant on civil and Political Right-ICCPR) के तहत भारत में ICCPR के अनुच्छेद 19 के अनुसार नागरिकों को सूचना के अधिकार की प्रभावी रूप में गारंटी देने के लिये एक अन्तर्राष्ट्रीय कर्तव्य का पालन करना होता हैं। 2. ई-गवर्नेंस ( E-Governance). भारत में राष्ट्रीय ई-गवर्नेंस योजना (National E-Governance) के तहत सभी सरकारी सेवाओं को नागरिकों के लिये उनके क्षेत्र में सुलभ बनाने, ‘कॉमन सर्विस’ डिलीवरी आउटलेट के तहत उपलब्ध कराने तथा कम लागत पर ऐसी सेवाओं की दक्षता, पारदर्शिता तथा विश्वसनीयता सुनिश्चित करने के लागू किया गया और भारत में ई-गवर्नेंस प्रभावी रूप से नई उभरती सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी (ICTS) के युग में बेहतर कार्यक्रम और सेवाओं को प्रदान करवाता है और इसके माध्यम से विश्व स्तर पर हाने वाले सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन को आम जनता को ज्ञात हो सके। इससे उन व्यक्तियों पर प्रभाव पड़ता है, जो सरकार के द्वारा दी जाने वाली सहायताओं का प्रत्यक्ष रूप से लाभ प्राप्त कर सकते हैं। सरकारों के द्वारा न्यूनतम सरकार अधिकतम शासन को बल मिलता है तथा इससे कार्यों की तीव्रता बढ़ती है। इसके तहत शुरू किये गये कार्यक्रम प्रगति, डिजिटल इण्डिया कार्यक्रम, एमसीए 21 (जिसके तहत कम्पनी मामलों के मन्त्रालय की सेवाओं के वितरण मे गतिशीलता एवं निश्चितता में सुधार करना), पासपोर्ट सेवा केद्रों की स्थापना, ऑनलाइन आयकार रिटर्न इत्यादि में सेवाओं की सुलभता हो पायी है। 3. कानूनी सुधार (Legal Reforms) भारत में लगातार कानूनों में सुधार किया जा रहा है तथा पारदर्शिता लाने और दक्षता में बढ़ोत्तरी के लिए लगभग 1500 अप्रचलित नियमों एवं कानूनों को समाप्त कर दिया गया है तथा कानून कर प्रक्रियाओं में विभिन्न संस्थाओं के द्वारा की जाने वाली मध्यस्थता को ध्यान देने के साथ ही प्रक्रियात्मक कानूनों में सुधार करने का प्रयास किया जा रहा है। 4. ईज ऑफ डूइंग बिजनेस (Ease of Doing Business) सरकारों के द्वारा व्यापार करने की परिस्थितियों में लगातार सुधार किया जा रहा है, जिसके तहत कई कानून लाये जा रहे है तथा देश का व्यापारिक वातावरण और कानूनी नीतियों से सम्बन्धित परिस्थितिकी तंत्र में सुधार लाने का प्रयास किया हैं, जैसे - दिवालियापन संहिता, वस्तु तथा सेवा कर और एंटी-मनी लॉन्ड्रिंग एक्ट इत्यादि। 5. विकेन्द्रीकरण ( Decentralization) भारतीय संविधान में 73 वें एवं 74 वें संविधान करके क्रमशः पंचायती राज संस्थाओं तथा नगरीय संस्थाओं को और अधिक अधिकार दिये गये, जिससे विकेन्द्रीकरण की प्रवृत्ति में भी वृद्धि हुई, इसके पश्चात् केन्द्रीकृत ‘योजना आयोग’ को समाप्त करके, इसके स्थान पर नीति आयोग की स्थापना करके सहकारी संघवाद में बढ़ोत्तरी का प्रयास किया गया हैं तथा 14 वें वित्त आयोग ने वर्ष 2015 में वर्ष 2020 तक राज्यों के लिये कर (TAX) का हस्तांतरण की सीमा को 32% से बढ़ा कर 42% कर देना अपने आय एक ऐतिहासिक कदम है, और राज्यों को स्थानीय कारकों के आधार पर योजनाओें को आरम्भ करने की अधिक स्वायत्तता प्रदान कर दी गयी है। 6. पुलिस सुधार (Police Reforms) वर्तमान समय में पुलिस के कार्यों में गति प्रदान एवं जनता की सुविधाओं में बढ़ोत्तरी के लिए गौण अपराधों के लिये ई-एफआईआर दर्ज करने सहित प्रथम सूचना रिपोर्ट (First Information Report FIR) तंत्र में सुधार किया गया हैं तथा आम नागरिकों की आपातकालीन सुरक्षा की आवश्यकताओं के लिए एक राष्ट्रव्यापी आपातकालीन नम्बर को तय किया गया है। 7. लॉकपाल (Lokpal) विश्व मे सर्वप्रथम सन् 1809 में स्वीडन के संविधान में ओम्बुडसमैन कर स्थापना की गई थी, फिनलैण्ड में सन् 1918 में, डेनमार्क में 1954 ई., में नार्वे में 1961 में ओम्बुडसमैन (लोकपाल) की स्थापना करके भ्रष्टाचार पर लगाम लगाई गयी थी, भारत में सबसे पहले सन् 1967 में लोकपाल विधेयक को लाया गया, उसके बाद सन् 1977 में, सन् 1985 में, सन् 1989 में और वर्तमान में 5 वीं बार सन् 1998 में विधेयक को लाया गया हैं, वर्तमान में लोकायुक्त एवं लोकपाल जैसी व्यवस्था भारत में लागू कर दी गयी है। शासन में भ्रष्टाचार, धनलोलुपता, भाई-भतीजावाद की प्रवत्ति में लिप्त व्यक्तियों की शासन में कि गयी गलतियों की या अन्य प्रकार के गलत कार्य करने पर उनकी जाँच लोकपाल द्वारा की जाती हैं। लोकपाल के माध्यम से भारतीय शासन व्यवस्था में सुशासन की स्थापना की जा रही हैं। मार्च, 2013 में लाया गया, जिससे भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने क भरसक प्रयास किया जा रहा है। भारत में मार्च, 2019 को पहला लोकपाल अध्ययन की घोषणा की गई, भारत के प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में चयन समिति ने सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश पिनाकी चन्द घोष (पी.सी. घोष) का चयन पहले लोकपाल के लिए विधिवत राष्ट्रपति ने मंजूरी दी, इसमें लोकपाल में अध्यक्ष के अतिरिक्त चार न्यायिक और चार गैर-न्यायिक सदस्यों को भी नियुक्त किया गया। लोकपाल शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा के शब्द लोपाला से हुई हैं, जिसका अभिप्राय लोगों की देखभाल करने वाला होता है। वास्तव में, लोकपाल एक भ्रष्टाचार विरोधी प्राधिकरण है, जो भारत के गणतंत्र में जनता के हितों का प्रतिनिधित्व करता हैं। 8. अन्य (Others) स्वैच्छिक संगठनों द्वारा किये जा रहे प्रयासों के तहत ये सरकार पर दबाव डालकर उनके कुशासन के जगह पर सुशासन की व्यवस्था करवाते हैं। राजनीतिक दलों द्वारा भी सुशासन के लिए प्रयास किये जा रहे हैं, जैसे कि विपक्ष में रहे राजनीतिक दलों द्वारा सरकार को किसी गलत कार्यों को करने पर आगाह किया जाता है और इन पार्टियों द्वारा सरकार को तानाशाही होने से रोका जाता है, इस कारण भी सुशासन की स्थापना होती है। इसलिए विपक्षी दलों का मजबूत होना अति आवश्यक है। निर्वाचन आयोग द्वारा भी समय-समय पर नियमों कानूनों को चुनावों के समय लागू किये जाते हैं। सुशासन के समक्ष चुनौतियाँ मनुष्य के जीवन में अनेक समस्यायें आती है तथा उसी प्रकार से राज्य के जीवन (काल) में अनेक समस्यायें होती है। सुशासन प्राप्त करने की समस्या में शासन की अस्थिरता और शासन की अक्रमणीयता का प्रमुख कारणों में से एक मान सकते हैं। संसार में भारत सबसे बड़ा लोकतान्त्रिक देश है, जिसमें कि निर्वाचन प्रक्रिया द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधि ही शासन का कार्यभार सम्भालते हैं। वे प्रतिनिधि जनता के प्रति उत्तरदायी होते हैं। निर्वाचन प्रक्रिया का कार्य चुनाव आयोग करता है और इसी के माध्यम से राजनीतिक दलों को मान्यता मिलती है। इस प्रकार से स्वातन्त्रयोत्तर भारत का 75 वर्षों का भारतीय राजनीति का काल सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक स्तर पर अनेक उपलब्धियाँ, अनुपलब्धियाँ का कालखण्ड रहा है।
सुशासन की समस्यों के निदान के लिए उपाय 1. उच्च कोटि के राजनेता हो सभी दलों के जो राजनेता या जनप्रतिनिधि होते हैं, उनका चरित्र अच्छा होना चाहिए। जिससे की राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक व्यवस्था में सुधार होगा। अधिक दलों का होना बुरा नहीं बल्कि बुरा इसलिए है क्योंकि इनके जो नेता होते हैं, वे देश का भला नहीं सोच कर अपना ही भला करने की सोचते हैं, जिससे कि दलों में आपसी फुट भी बढ़ती है। इसलिए दलों के संचालत सही नियमों, प्रथाओं एवं परिवर्तन के साथ परिवर्तन करके चलना चाहिए। अच्छे चरित्र वाले नेता होने पर ही सुशासन की कल्पना की जा सकती है। 2. लालफीताशाही पर अंकुश लगाना देश में सुशासन की कल्पना तब तक नहीं की जा सकती है, जब तक की अकुशल, निकम्मे और भ्रष्टाचार में लिप्त अधिकारियों को हटा दिया नहीं जाता तथा इसके लिए इस प्रकार की लालफीताशाही को दूर करना जरूरी है। नौकरशाही ब्रिटिश शासन की देन है, उस समय अधिकारी जनता के सेवक न होकर स्वामी होेते थे। भारत के स्वाधीन होने के बाद लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा का उदय हुआ तथा आज नौकरशाह को सेवक की भूमिका निभानी थी परन्तु ये अपना वर्चस्व बनाये रखना चाहते हैं और जनता के हितों मे कार्य नहीं करते हैं, कार्य में विलम्ब करना, धन का दुरूपयोग करना, केवल कागजी कार्यवाही में लिप्त होना, जनता के प्रति उत्तरदायित्व का अभाव होना, आज भी भारतीय प्रशासनिक व्यवस्था की प्रमुख विशेषता रह गयी है। भारतीय सिविल सेवा में पेंशन लेने कि आयु सीमा घटा देनी चाहिए, जिससे कि भ्रष्ट अधिकारी हट सके और बेराजगार नवयुवकों को रोजगार मिल सके और कार्य भी अच्छा होगा क्योंकि नवयुवकों में कार्य करने की क्षमता एवं उत्साह अधिक होता है और इसमें शासन कार्य में कुशलता अधिक होगी। इसके साथ ही किसी भी अधिकारी को 04 वर्ष से अधिक एक स्थान पर नहीं रहने देना चाहिए, उसका स्थानान्तरण प्रत्येक 4 वर्ष से हो ना ही चाहिए। 3. जनता के प्रति उत्तरदायी हो जनप्रतिनिधियों को एवं अधिकारियों को जनता के प्रति उत्तरदायित्व निभाना चाहिए, तभी सुशासन की कल्पना की जा सकती है। लोकतांत्रिक देश उसे कहते हैं, जिसमें जनता का, जनता द्वारा, जनता के लिए शासन व्यवस्था होती है। यदि जो प्रतिनिधि जनता के प्रति उत्तरदायित्व का वहन नहीं करेगा या सरकार जनता के प्रति उत्तरदायित्व नहीं निभायेगी तो उसका वही हाल होगा, जो अनेक सरकारों का हुआ। इसलिए इनको यदि दोबारा सांसद या विधायक बनना है तो जनता के फायदे के लिए कार्य करे, न कि अपने फायदे के लिए। भारत में तब तक सुशासन कि व्यवस्था नहीं होगी, जब तक ये (प्रतिनिधि/अधिकारी) जनता के प्रति उत्तरदायी नहीं हों। इसलिए इनको नैतिकता के आधार पर सुशासन की व्यवस्था के लिए जनता के प्रति उत्तरदायी रहना आवश्यक है। 4. सहयोगात्मक एवं सहमतिपूर्ण कार्य हो भारत की संसदीय प्रणाली ब्रिटेन की संसदीय प्रणाली से भिन्न है क्योंकि ब्रिटेन की संसद में दो ही दलों का बाहुल्य है जबकि भारत की संसद में अनेक दलों का बाहुल्य है। इसलिए भारत की संसद की कार्यवाही में अनेक बार बाधा आती है क्योंकि अनेक दलों की माँगें अलग-अलग होती है और अलग-अलग नेतृत्व में होता है, जो कि अलग-अलग क्षेत्रों से चुनकर आते हैं, वे अपने क्षेत्र को अधिक महत्व देते हैं। किसी के लिए भी अच्छे निर्णय नहीं होने देते हैं और बार-बार सदन की बहस को आगे जारी रखते हैं। सदन में जब दूरदर्शन में संसदीय कार्यवाही को देखते हैं तो हमें भी हमारे देश के नेतृत्व करने वालों से ऐसी आशा नहीं होती हैं, सदन में अनेक दलों (सभी दलों) को आपस में जनता की समस्यों को हल करने के लिए प्रयास करना चाहिए। सरकार को भी चाहिए कि वह भी अपना कार्य अन्य दलों कि सहमति से ही करें। जिससे कि सहयोगपूर्ण एवं सहमतिपूर्ण कार्य से सुशासन की उत्पत्ति हो सकें। इससे धन और समय दोनों की ही बचत होगी। 5. अयोग्य दलों को सत्ता में भागीदार बनाना सन् 1977, सन् 1989, सन् 1996, सन् 1998 को आम चुनावों में किसी भी एक पार्टी को पूर्ण बहुमत प्राप्त नहीं हुआ। सन् 1998 के चुनावों के बाद बीजेपी की सर्वाधिक सीटे थी परन्तु वह भी पूर्ण बहुमत से बहुत दूर थी। इसी प्रकार से सन् 2004 व सन् 2009 में काँग्रेस सहयोगी दलों का 2014 व सन् 2019 में बीजेपी सहयोगी दलों के माध्यम से सरकार का गठन किया थी। संयुक्त दलीय व्यवस्था की स्थिति में अयोग्य दलों को सत्ता में भागीदारी प्रदान नहीं करना चाहिए क्योंकि इससे संसदीय कार्यवाही सही तरीके से नहीं होती, जो देश के विकासात्मक कार्य करने में बाधा पहुँचायेगा। इस कारण असफलता ही हाथ आएगी, जिससे देश की अकाल मृत्यु होने की आशंका प्रबल होती जायेगी। इससे देश की राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, प्रशासनिक और मनोवैज्ञानिक स्थिति पर कुप्रभाव पड़ता है। इससे सुशासन की स्थापना नहीं की जा सकती है, इसलिए अयोग्य दलों को सत्ता से दूर रखना और इन्हें चुनाव आयोग द्वारा अयोग्य ठहरा दिया जाना चाहिए। 6. देश में सुयोग्य शिक्षा व्यवस्था हो प्राचीन काल में गुरूकुल शिक्षा प्रणाली थी, उसमें गुरू और शिष्य के बीच अच्छा सम्बन्ध था, जिसमे अच्छी शिक्षा दी जाती थी, जिसमें सभी प्रकार की शिक्षा दी जाती थी, जिससे शिष्य जब शिक्षा प्राप्त कर समाज में आता था तो उसे स्वयं भू रोजगार प्राप्त हो जाता और आत्मा को संतुष्टि प्राप्त होती थी। वर्तमान में शिक्षा में अनेक कमजोरियाँ आ गई तथा समय अनुसार तथा परिस्थिति अनुसार शिक्षा में परिवर्तन होता रहा। वर्तमान की शिक्षा ब्रिटिश की शिक्षा व्यवस्था के समान है। सुशासन की व्यवस्था तभी की जा सकती है, जब जनता में जागरूकता हो, जागरूकता तब तक नहीं आ सकती है, जब तक कि सम्पूर्ण जनता को सुयोग्य शिक्षा की प्राप्ति न हो जाये। शिक्षा की व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए, जिससे कि सुयोग्य नागरिकों को प्राप्त किया जा सके। प्राथमिक शिक्षा पर ज्यादा ध्यान देना चाहिये क्योंकि यहाँ से छात्र/छात्राओं दोनों की नींव मजबूत हो सके तथा निःशुल्क शिक्षा के साथ शिक्षा को अनिवार्य कर देना चाहिए, इसमें किसी प्रकार का अभिभावक या अध्यापक द्वारा भेदभाव नहीं करना चाहिए। गाँधीजी ने जो शिक्षा व्यवस्था के संदर्भ में कहा था, उसको अमल में लाना चाहिए। नोबल पुरूस्कार विजेता अमर्त्य सेन ने भी शिक्षा में बुनियादी शिक्षा देने पर जोर दिया। शिक्षा को मौलिक अधिकार बनाया जाना चाहिए। नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2021 आ गयी है, इसके सन्दर्भ में भविष्य में क्या रहेगा ? रोजगारोन्मुख शिक्षा व्यवस्था की गयी है, इससे आगे आने वाले समय में छात्र/छात्राओं में रोजगार के प्रति चिन्ता नहीं रहेगी। इससे लूटपाट, भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद में कमी आयेगी तथा सुशासन की व्यवस्था हो सकेगी। छात्रों और छात्राओं की अलग-अलग पाठशाला न होकर एक ही पाठशाला में शिक्षा देने की व्यवस्था होनी चाहिए, इससे छात्र/छात्राओं में गलत मनोविकार उत्पन्न नहीं होगा तथा अत्याचारों तथा व्यभिचार में भी कमी आयेगी। अतः जब तक सुयोग्य शिक्षा की व्यवस्था नहीं होगी, तब तक सुशासन की व्यवस्था नहीं हो सकेगी, इसलिए सुयोग्य एवं उत्कृष्ट शिक्षा की व्यवस्था हो। वर्तमान में सरकारें ऐसा प्रयास कर रही है, जो कि एक सराहनीय कार्य है। 7. प्रतिनिधियों को वापस बुलाने का अधिकार हो जनता को जो जनप्रतिनिधि, जिस क्षेत्र से चुनकर जाता है, यदि वह उस क्षेत्र की जनता के प्रति उत्तरदायित्वों का निर्वाह नहीं करता है या उस क्षेत्र में किसी भी प्रकार का कार्य नहीं करवाता है तो जनता को उसे वापस बुलाने का अधिकार होना चाहिए, इसके लिए उस क्षेत्र के 2/3 बहुमत की आवश्यकता भी होनी आवश्यक है या 2 वर्ष बाद जनमत सर्वेक्षण होना चाहिए, ऐसी व्यवस्था के कारण प्रतिनिधि जनता के सम्पर्क में रहेगा और जनता के बीच मे रहकर उनकी समस्याओं का समाधान होगा तथा विकास कार्यों में वृद्धि होगी और भ्रष्टाचार, आतंकवाद में भी कमी आयेगी। 8. राजनीतिक चेतना में वृद्धि सुशासन की व्यवस्था तब तक नहीं कि जा सकती है, जब तक कि जनता में जागरूकता पैदा न हो। इसलिए जनता को जागरूक बनाने के लिए, उन्हें सुयोग्य शिक्षा प्रदान की जानी चाहिए। राजनीतिक शिक्षा भी दी जानी चाहिए। एक मत का उपयोग का ज्ञान प्रत्येक मतदाता को होनी चाहिए। इससे अयोग्य उम्मीदवारों को दूर किया जा सकता है, जो भ्रष्टाचार, आतंक, भाई-भतीजावाद में लिप्त हो, उनका हल किया जा सकता हैं। सबसे अधिक आवश्यकता मतदान की अनिवार्यता को लागू किया जाना चाहिए। जो नागरिक मतदान में भाग नहीं लेता है या चुनाव में अपनी मतदान देने के प्रति उदासीन रहता है। उसकी नागरिकता को ही समाप्त कर देना चाहिए। इसमें भी कुछ में छूट होनी चाहिए, जैसे प्रसूत अवस्था में महिलाओं को, विदेशों में गये हुए नागरिकों को, बीमार व्यक्ति को, जो अपना मत का प्रयोग में असमर्थ हो। 9. निर्वाचन सुधार भारतीय संविधान के अनुच्छेद-324 से अनुच्छेद-329 तक चुनाव प्रणाली की व्यवस्था है। आज भी चुनावों में बहुत सारी कमियाँ है, जिसे सुधारना अति आवश्यक है, (चुनावो सुधारों में) जैसे भ्रष्ट, बदमाश व्यक्तियों को टिकट न देना, इलेक्ट्रोनिक मशीनों के प्रयोग को बढाना, चुनावों में बढ़ते धन का दुरूपयोग को रोकना, सरकार द्वारा पेय पदार्थों (दारू) पर पूर्ण प्रतिबंध लगाना, चल मतदान केन्द्रों की व्यवस्था करना, मतदान की अनिवार्यता को लागू करना, प्रतिनिधियों द्वारा चुनाव अधिकारियों पर डालने वाले दबाव को दूर करना, अर्द्धसैनिक बलों की चुनावों में तैनाती करना तथा ऑन लाइन वोटिंग की व्यवस्था करना इत्यादि। संविधान में ऐसा प्रावधान होना चाहिए कि यदि एक बार मन्त्रिमण्डल का गठन हो जाये तो दो वर्ष तक किसी भी प्रकार का अविश्वास का प्रस्ताव नहीं लाया जाना चाहिए। ऐसी व्यवस्था से संसदीय प्रक्रिया सही ढ़ग से संचालित हो सकेगी। 10. राजनीतिक चेतना का विकास देश की जनता की अभी भी अशिक्षा, गरीबी, स्वास्थ्य का अभाव, विकास का अभाव, पानी-बिजली का अभाव एवं भोजन, कपड़ा और मकानों का अभाव के दौर से गुजर रही है। जिसका अब तक पूर्ण समाधान नहीं निकाला जा सका है। इस कारण राजनीतिक विकास होना असम्भव होगा, इसलिए सरकार को ऐसे प्रयास करने चाहिए, जिससे जनता में राजनीतिक चेतना का विकास हो सके। जिससे शासन के प्रति जनता में संतुष्टि होगी और आने वाले दशक में देश विश्व में सबसे शक्तिशाली और समृद्ध हो जाएगा। |
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निष्कर्ष |
वर्तमान मे सुशासन को प्राप्त करने में चुनौतियाँ हैं परन्तु यदि इन सुझावों को लागू किया जाये तो बहुत कुछ मात्रा में सुशासन की स्थापना हो सकेगी। भविष्य में आशा की जा सकती है कि 21 वी शताब्दी का भारत विश्व में सबसे शक्तिशाली ही नहीं बल्कि संसदीय लोकतंत्र का सर्वाेत्तम उदारहणों में से एक होगा। इससे भारत की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता में वृद्धि होगी। |
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