P: ISSN No. 2321-290X RNI No.  UPBIL/2013/55327 VOL.- IX , ISSUE- XII August  - 2022
E: ISSN No. 2349-980X Shrinkhla Ek Shodhparak Vaicharik Patrika
राजस्थानी फड़: चित्रकला, गायन एवं नृत्य कला का अनूठा संगम
Rajasthani Phad: Unique Confluence of Painting, Singing and Dancing
Paper Id :  16436   Submission Date :  2022-08-17   Acceptance Date :  2022-08-22   Publication Date :  2022-08-25
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श्रुति अग्रवाल
सह-आचार्य
गृह विज्ञान विभाग
राजकीय कला कन्या महाविद्यालय
कोटा,राजस्थान, भारत
सारांश
राजस्थान विभिन्न कलाओं से परिपूर्ण राज्य है जिसमे चित्रकारी का एक महत्वपूर्ण स्थान है जो कि क्षेत्रीय आधार पर विकसित हैं| चित्रकला की मेवाड़ शैली के अंतर्गत फड़ निर्माण सेंकड़ों वर्षों पूर्व से किया जाता रहा है| फड़ चित्रण का उद्गम पट चित्रों से हुआ है, फड़ निर्माण मे वस्त्र पर चित्रकारी के साथ गायन, वादन, व नृत्य का भी अहम योगदान होता है जिससे प्रस्तुतीकरण रोचक बनता है| फड़ मे चित्रण एक विशेष क्रम मे ही किया जाता, इसे निर्मित करने वाले कलाकार ‘चितेरे’ स्थानीय देवी देवताओं के जीवन से जुड़े प्रसंग चित्रकारी के माध्यम से उकेरते हैं, फड़ को बाँचने एवं प्रस्तुत करने वाले भोपे इसे अपनी भाव भंगिमाओं व वाद्य यंत्रों के साथ गा-बजाकर प्रस्तुत करते हैं| फड़ एक धार्मिक वस्तु है जिसमें विभिन्न लोक कलाओं का संगम दृष्टिगत होता है, इसे चलता फिरता देवालय माना जाता है तथा इसकी प्रस्तुति मंगलमय जीवन की कामना से करवाई जाती है| कई बार मनोकामना पूर्ण होने पर भी फड़ का वाचन करवाया जाता है|
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Rajasthan is a state full of various arts, in which painting has an important place, which are developed on a regional basis. Under the Mewar style of painting, Phad construction has been done since hundreds of years ago. Phad drawing has its origin from the paintings, along with painting on cloth, singing, playing, and dance also play an important role in making Phad, which makes the presentation interesting. Illustration in Phad is done only in a particular order, the artists who make it 'Chitere' engraved the events related to the life of local deities through painting, the people who weave and present the Phad, make it through their expressions and musical instruments. singing along Phad is a religious object in which the confluence of various folk arts is seen, it is considered to be a moving temple and its presentation is done with the wish of a happy life. Many times the reading of Phad is done even after the wish is fulfilled.
मुख्य शब्द फड़ चित्रकारी, लोक कला, भोपा, वाध्य यंत्र, चितेरा, बांचना|
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Phad Painting, Folk Art, Bhopa, Musical Instrument, Chitera, Banchana.
प्रस्तावना
फड़ चित्रकला राजस्थान की एक पारम्परिक चित्रकला है, जो पूरे विश्व में भारत के गौरव का प्रतीक है। राजस्थान की कई लोककला जैसे मांडणा, साँझी कला, मूर्तिकला, चित्रकला आदि में से अपना प्रमुख स्थान रखती है। फड़ हिन्दी भाषा के ‘पड’ शब्द से लिया गया है जिसका अर्थ है कथावाचन होता है, संस्कृत में ‘पट्’ शब्द भी इसी से संबंधित माना जा सकता है जिसका अर्थ वस्त्र अथवा पर्दा होता है| यह कला संगीत तथा नृत्य से मिलकर तैयार हुई राजस्थानी लोक चित्रकला है। राजस्थान में क्षेत्रीय आधार पर चार प्रकार की चित्रकला शैलीयां है, यथा- मेवाड़ (चावड़, नाथद्वारा, देवगढ़, उदयपुर एवं सावर शैली), मारवाड़ (किशनगढ़, बीकानेर, जोधपुर, नागौर, पाली), हाड़ौती (कोटा, बून्दी, झालावाड़), एवं ढुंढाड़ (जयपुर, शेखावटी, उनियारा)| अन्य प्रसिद्ध शैलीयां जैसे अपभ्रंश, रागमाला उदयपुर की मिनियेचर शैली है, नाथद्वारा की पिछवई, एवं बस्सी की कावड़ शैली जिसमें देवी देवताओं व पुराणों का चित्रण लकड़ी पर किया जाता है। फड़ चित्रकारी मेवाड़ शैली की चित्रकारी है जिसकी शुरूआत मुगल बादशाह शाहजहां के काल (1631) से मानी जाती है, प्रारंभ में यह चित्रकारी भीलवाड़ा जिले के शाहपुरा में की जाती थी। ऐसा माना जाता है कि भगवान देवनारायण के परम भक्त छोछू भाट ने पहली बार फड़ का प्रयोग किया था। किवंदती यह भी है कि रेबारी जनजाति ने सर्वप्रथम फड़ का निर्माण किया था, इसके पीछे की सोच किसी मंदिर/देवालय में न जा पाने की स्थिति मे मंदिर/देवालय का उनके समीप आ जाना था| फड़ में एक प्रकार की वीरगाथा का चित्रण होता है जिसमे खादी या रेजी के कपड़े पर लोक देवताओें के जीवन की गाथाओं, धार्मिक एवं पौराणिक घटनाओं, एवं ऐतिहासिक कथाओं का चित्रण बड़ी कुशलता से किया जाता है। कथा के विविध पहलुओं का चित्रण इसमें क्रमबद्ध न होकर ऊपर, नीचें, दायें, बायें बनाये गये भागों में कहीं भी हो सकता है, किन्तु रूप-आकृतियां नहीं बदलती अर्थात् एक पात्र का चित्रण एक ओर जैसा होता है वैसा ही सभी ओर होता है। फड़ चित्रकला की विशेषता यह है कि इसमें प्रयुक्त कपड़ा, रंग, कूँची इत्यादि सभी वस्तुएं स्थानीय होती है। एक लम्बा कैनवास एक सिरे से उसी घुरी पर लपेटा-समेटा जाता है, इस तरह से तह होने के कारण इसे फड़ कहा जाता है। पहले फड़ का चित्रण रेजे पर किया जाता था जो कि एक विशिष्ट तरह का हस्तनिर्मित वस्त्र होता था, उस पर चांवल का मांड लगाकर उसे चित्रांकन के लिए उपयुक्त बनाया जाता था। अब रेजे के साथ-साथ सामान्य खादी या सूती वस्त्र का उपयोग भी किया जाने लगा है। वस्त्र को तैयार करने हेतु इसे पानी में 12-14 घंटे के लिए भिगोया जाता है फिर मांड लगाया जाता है, मांड लगाने की प्रक्रिया उचित कड़कपन लाने के लिए 3-4 बार दोहराई जाती है। धूप में सुखानें के बाद कपड़े को एक विशेष उपकरण की सहायता से ब्रश किया जाता है जिसे ‘मोहरा’ कहते हैं| मोहरा जिसमे एक विशेष प्रकार का सुलेमानी पत्थर होता है, को वस्त्र पर रगड़ा जाता है जिससे वस्त्र एक समान व चमकीला हो जाता है। शुभ मुहुर्त में ज्ञान की देवी सरस्वती की अर्चना कर फड़ बनाने का कार्य प्रांरभ किया जाता है जिसमे पहला हाथ कुंवारी कन्या का लगवाया जाता है, कन्या पीले रंग द्वारा वस्त्र पर सातिया (स्वास्तिक) बनाती है, जिसे ’’चांका” लगाना’ कहते हैं। इसके पश्चात् पूरे वस्त्र को खण्ड-उपखण्ड में बाँटकर हल्के पीले रंग द्वारा रेखांकन किया जाता है, इसे कच्ची लिखाई करना कहते है। कच्ची लिखाई का कार्य पूर्ण होने पर कलाकार रेखांकित आकृतियों हल्के से गहरे रंग के क्रम मे रंग भरते हैं, यह प्रक्रिया रंग लगाना कहलाती है। नील, हिंगलू, हिरमिच, काजल आदि देशी रंगों को घोट-घोट कर पीसा जाता है फिर निर्धारित स्थानों में भरा जाता है। प्रारंभ में इस कला में वानस्पतिक रंगो का प्रयोग किया जाता था जो लम्बे समय तक पक्के रहते थे तथा जीवन्त लगते थे, आज इन रंगों की अनुपलब्धता के कारण कलाकार जल अवरोधी रंग का प्रयोग करने लगें हैं, कहीं ऐक्रेलिक रंगों का भी प्रयोग किया जाता है। एक परिवर्तन यह भी है कि पहले अधिक रंगों का प्रयोग होता था, अब रेखाचित्र बना कर दोहरे रंग से रंगा जाता है एवं नवाचार के रूप में कोलाज भी बनाये जाने लगें है। फड़ का सम्पूर्ण भाग आकृतियों एवं डिजाइनों से अटा रहता है, ये आकृतियाँ किसी लोक देवता, मानव, पशु-पक्षी या किसी घटना से संबंधित होती है। कथा के मुख्य चरित्र की पोशाक लाल या कत्थई रंग की होती है तथा बुरे नायकों की पोशाक हरे रंग की बनाई जाती है। चित्रों में आकृति थोड़ी मोटी व गोल होती है तथा आंखे अन्य शैलियों की अपेक्षा छोटी होती है। फड़ में मुख्य रूप से घोड़े, हाथी, ऊँट, चीता, हिरण आदि होते है जो प्रतीकात्मक रूप में दिखाई देते हैं। घोड़ा शक्ति और वीरता का (पाबूजी लोक देवता घोड़े पर सवार थे), हाथी सौभाग्य व स्वास्थ्य का, गाय दया का, हिरण सौन्दर्य का तथा चीता क्रोध का प्रतीक है। राजस्थान की प्रसिद्ध लोक कथा के अनुसार ढोला-मारू ऊँट पर ही मिले थे, अतः ऊँट को प्रेम का प्रतीक माना गया है| फड़ चित्रण में यह विशिष्टता होती है कि आकृतियाँ दर्शक की ओर न देखते हुए एक दूसरे की ओर देखती हुयी बनायी जाती है| हालांकि आकृतियां पूरे कैनवास मे समान रूप से चित्रित होती है पर उनका आकार उसके सामाजिक स्तर तथा कथा मे महत्व के आधार पर होता है। मुख्य किरदार का आकार बड़ा एवं मध्य में बनाया जाता है एवं उसके अनुपात में अन्य आकृति को सामन्जस्य से बनाया जाता है। चित्रकार जिन्हें ‘चितेरे’ भी कहा जाता है, आँख की पूतली में पूरी चित्रकारी करने के बाद ही रंग भरने हैं, इसके पीछे यह कारण है कि फड़ का आकार बड़ा होने के कारण चित्रकारी के लिए कई बार फड़ पर बैठ कर भी कार्य करना पड़ता है| आँख की पुतली मे रंग भरने पश्चयात फड़ जीवन्त व पूजनीय हो जाती है जिस पर पैर लगाना वर्जित माना जाता है। फड़ के चारों तरफ तीन बार्डर बनाए जाते हैं, पहला बार्डर महलों के झरोखों एवं शिखरों से मिलती जुलती आकृतियाँ का, दूसरा फूल पत्तों की लताओं का, तथा तीसरा लाल रंग की किनारी का बनाया जाता है| इसके अतिरिक्त फड़ पूर्ण करने के बाद चितेरे द्वारा मध्य में अपनी निशानी भी बनायी जाती है तद्परान्त दोनों हाथों से सम्मानपूर्वक फड़ बनवाने एवं बाँचने वाले भोपे को सूपूर्द की जाती है। फड़ का फलक सामान्यतः 2 से 3 फीट चौड़ा तथा 13 से 24 फीट लंबा होता है किन्तु मांग के अनुसार परिवर्तित आकार की भी बनाई जाती है, जबकि परम्परागत फड़ 30 फीट लम्बी तथा 5 फीट चौड़ी होती थी| फड़ कला की इन सभी विशेषताओं के कारण इसका कला मानचित्र पर इसका विशेष स्थान है, इस कला की पूर्णता वाचन से ही आती है। यह नाट्य, गायन, वादन का अनुठा संगम है जो अन्य किसी कला में मुखरता से देखने को नहीं मिलता। फड़ चित्रण का संबंध मंच कला से भी है, क्योंकि ग्रामीण इलाकों में भोपे, गुर्जर, बलाई आदि जातियों के लोग चित्रित कथा को विभिन्न सांजों के साथ वर्णित कर सुनाते हैं। गायन व वादन के साथ-साथ एक वाचक गीत का कथाक्रम से योग बिठाने के लिए एक लम्बी छड़ी से चित्र की ओर इंगित करता रहता है, एवं कथा सूत्र का तारतम्य बनाये रखने में दर्शकों की सहायता करता है। जिस फड़ का वाचन करना हो उसे दों बासों के सहारे खींचकर तान दिया जाता है फिर नृत्य, संगीत, वार्ता एवं वाद्य यंत्रों की सहायता से रूचिपूर्ण तरीके से वाचन किया जाता है। चित्रित कथा को भोपे द्वारा सुरताल के साथ गाया व पढा जाता है, भोपा कथा वाचन के समय लाल बागा,साफा पहनता है तथा पैर में पहने घूंघरुओं से ताल मिला कर कथा वाचन करता है। फड़ वाचन अधिकांश रात्रि में ही किया जाता है, इसलिए महिला भोपिन अपने हाथ में लालटेन या दीपक ले कर कथा के संबंधित भाग पर रोशनी डालती हुई कथा में भोपे का सहयोग करती है। भोपा व भोपिन आदर स्वरूप फड़ की ओर पीठकर के खड़े नहीं होते हैं। ग्रामीण अंचलों में भोपों को न्यौता देकर फड़-वाचन करने हेतु बुलाया जाता है, माना जाता है कि ऐसा करने से ईश्वर रोग, दुर्भाग्य आदि से उनकी रक्षा करेंगे। फड़ वाचन रात्रि में होने के कारण इसे जागरण भी कहा जाता है, यह पूरी रात्रि चलता है एवं इसे रूचिपूर्ण तरीके से प्रस्तुत करने के लिए भोपे को चित्रित कथा कंठस्थ करनी होती है| कथा से जुड़े प्रसंग आदि को भी मांड शैली में गा कर सुनाया जाता है और ढोलक, मंजीरा, घूंघरू, अलगोजा, थाली इत्यादि विभिन्न देशी वाद्य यंत्रों की सहायता से वाचन को अत्यन्त प्रभावी बनाया जाता है। अलग-अलग समुदाय के लोग विभिन्न प्रकार की फड़ का वाचन विशिष्ट वाद्य यंत्रों की सहायता से करते हैं। राजस्थान के 14वीं शताब्दी के लोक देवता ‘पाबूजी’ की फड़ सर्वाधिक लोकप्रिय फड़ है, यह नायक जाति के भील भोपों द्वारा रात में बांची जाती है। पाबूजी को ग्रामीण लक्ष्मण जी का अवतार मानते हैं व उनके जीवन से जुडे प्रसंग ‘रावणहत्था’ नामक प्रमुख वाद्य यंत्र के साथ गा कर सुनाये जाते हैं। रावणहत्था एक बड़े नारियल की खाली कटोरी पर बकरे की खाल मढकर बनाया जाता है, इसमें बाँस का डंडा लगा होता है जिस पर खुटियां लगाई जाती है एवं नौ तार बांधे जाते हैं। गज की सहायता से नौ तारों पर दबाव देकर वाद्य यंत्र को बजाया जाता है, गज के एक सिरे पर घुंघरू बंधे होने के कारण भोपे के ठुमके के साथ बजते रहते है। 9वीं शताब्दी के लोक देवता देवनारायण जिन्हें विष्णु भगवान का अवतार माना जाता है की फड़ सर्वाधिक लम्बी 30 फीट लम्बी व 5 फीट चौड़ी होती है, इसे दो या अधिक भोपे जंतर वाद्य के साथ प्रस्तुत करते हैं। जंतर वीणा की आकृति के समान होता है जिसमें दो तुम्बें लगे होते हैं, इसे खड़े होकर गले से लगा कर हाथों की उगलियों से बजाया जाता है। राजस्थान के ही अन्य लोक देवता बाबा रामदेव जी की कथा को फड़ के रूप में बांचने का कार्य कामड़ जाति के भोपे करते हैं, इसमें भी रावण हत्थे का प्रयोग किया जाता है। राम व कृष्ण जी की फड़ बाँचते समय किसी भी प्रकार के वाद्य यंत्र का प्रयोग नहीं किया जाता, यह राम तथा कृष्ण के जीवन प्रसंगों पर आधारित होती है तथा भाट जाति के भोपों द्वारा बांची जाती है। वर्तमान में रामायण, महाभारत, हनुमान चालीसा पर भी फड़ बनायी गई है, नवीनतम रूप में तिरूपति बालाजी व ओम बन्ना जी की फड़ भी बनायी गयी है। आजकल घरों में सजावट सामग्री के रूप में उपभोग में लाये जाने हेतु छोटे आकार में भी फड़ बनाई जाने लगी है जिन्हें ‘फडिया’ कहा जाता है, इसमें चित्रण किसी पौराणिक एवं ऐतिहासिक घटना तक सीमित नहीं रहता। पूर्व मे भोपाओं की कुछ विशेष जातियों के लिये देवी काली की फड़ भी बनाई जाती थी किन्तु अब यह प्रचलन में नहीं है, यह फड़ बाटिक कला द्वारा बनायी जाती थी। भैंसासुर की फड़ राजस्थान की एक मात्र ऐसी फड़ है जिसका वाचन नहीं किया बल्कि बावरी या वागरी जाति के लोग चोरी करने निकलने से पूर्व इसे शगुन के रूप में पूजते थे। प्रत्येक फड़ अपनी विशिष्टता लिये होती है जैसे पाबूजी की फड़ पर पाबूजी का भाला, केसर कलमी घोड़ी व युद्ध के दृश्यों का आकर्षक चित्रण होता है, पश्चिमी राजस्थान में राजपूत तथा रेबारी जाति के लोग मनौती पूरी होने पर इस फड़ को बचवाते हैं। देवनारायण जी की फड़ में देवनारायण जी का सर्प, लीलागर घोड़ा प्रमुख रूप से चित्रित होते हैं, इस फड़ के वाचन में सबसे अधिक समय लगता है। फड़ कला के सम्मान में भारतीय डाक विभाग ने 2 सितम्बर 1992 को देवनारायण जयंती पर 2 सेंटीमीटर की सबसे छोटी फड़ को डाक टिकट के रूप में जारी किया है। फड़ का वाचन करने से इसका वस्त्र धीरे-धीरे खराब होने लगता है, इसे देव का स्वरूप माना गया है अतः फाड़कर या फेंककर नष्ट करने के बजाय भोपों द्वारा पवित्र कुंड या नदी मे विसर्जित कर मानव देह की भांति फड़ का अंतिम संस्कार किया जाता हैं जिसे फड़ ठण्डी करना कहते हैं। पुरानी फड़ का अंतिम संस्कार करने के उपरांत ही नई फड़ को प्रयोग में लाया जाता है, यही कारण है कि पुरानी फड़ों के चित्र अभी उपलब्ध नहीं हो पाते हैं|
अध्ययन का उद्देश्य
भारतीय संस्कृति एवं परम्पराओं मे लोक-कलाओं का महत्वपूर्ण स्थान है, जिनकी नई पीड़ी को जानकारी उपलब्ध करवाने हेतु इनका उचित प्रलेखन किया जाना आवश्यक है| कई कलाएं जैसे कठपूतली कला, कावड़ कला इत्यादि समय के साथ परिवर्तन कर अपनी पहचान बनाए रखने मे सक्षम रही है| फड़ चित्रकला बनाने का ढंग, इसमें हुए परिवर्तन, और इस कला को किस प्रकार प्रस्तुत किया जाता है सहित विभिन्न लोकप्रिय फड़ों की जानकारी देना इस अध्ययन का उद्देश्य है|
साहित्यावलोकन

फड़ कला के संदर्भ मे विभिन्न शोध किए गए हैंइस कला का प्रलेखन कर इसे संरक्षित किया जाना नितांत आवश्यक हैराजवंशी एवं श्रीवास्तव (2013) के द्वारा किए गए अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि फड़ बनाने हेतु पूर्व मे प्रयुक्त किए गए खनिज रंजकों की अनुपलब्धता के कारण जल अवरोधी रंजकों को गोंदपानी व इंडिगो मिला कर बारीक पीसकर काम मे लिया जाता हैपीला रंग ‘हरताल’ से बनाया जाता है और केसरिया रंग लाल लैड ऑक्साइड के साथ इसी पीले रंग को मिलाकर बनाया जाता हैहिंगलू रंग बनाने के लिए मर्करी सल्फाइड़ का प्रयोग किया जाता हैकभी कभी कीमत घटाने के लिए इसे लैड ऑक्साइड के साथ मिलाकर काम मे लिया जाता हैकाला रंग नारियल की राख़ या इंडिगो से बनाया जाता है|
फड़ कला से प्रभावित चित्रकार: श्री रामेश्वर सिंह” में डॉ॰ बीना जैन (2017) ने अपने अध्ययन मे यह पाया कि पाबूजी कि फड़ का प्रचलन अधिकांशतः बीकानेरजोधपुरबाड़मेरजैसलमरतथा शेखवाटी क्षेत्रों मे है जबकि देवनारायन तथा बगड़ावतों की फड़ बाँचने वाले कोटाबूंदीअजमेरभीलवाड़ाझालावाड़ आदि क्षेत्रों मे अधिक मिलते हैंअलवर तथा भरतपुर क्षेत्र में रामदला की कथा गाई जाती है तथा कृष्णदला बहुत कम प्रचलन मे हैंदेवनारायणपाबूजीऔर रामदेव जी की कथाएँ रात्री में गाई जाती हैं जबकि रामदला और कृष्णदला दिन मे गाये जाते हैंदेवनारायण जी की फड़ देवोत्थान एकादशी से बांचना शुरू होकर देवशयनी एकादशी तक बंद हो जाती है|
ए लिविंग टैम्पल - फड़ पेंटिंग इन राजस्थान” शोध पत्र मे कृष्णा माहवर (2018) द्वारा यह बताया गया है कि पेशेवर फड़ चित्रकार को चितेरा कहा जाता हैयह मूलतः छीपा समुदाय से होते हैंइस समुदाय के लोग पूर्व में पंच्यांग एवं जन्म पत्रियाँ देखने का कार्य भी करते थे इसलिए इन्हें जोशी उपनाम भी प्राप्त है|

निष्कर्ष
फड़ कलाकार पूर्व मे यह कला अपने व अपने परिवार तक ही सीमित रखना चाहते थे, विवाह पश्चयात यह चित्रकारी किसी अन्य परिवार मे न जा सके इसलिए कलाकार अपने घर की कन्याओं को भी यह चित्रकारी नहीं सिखाते थे| किन्तु पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित फड़ कलाकार श्रीलाल जोशी व उनके वंशजों द्वारा ‘चित्रशाला’ नामक संस्थान की स्थापना की गई है जिसका उद्देश्य फड़ कला को इसके मूल स्वरूप मे संरक्षित करना है, संस्थान मे हजारों शिष्य फड़ निर्माण की बारीकिया सीख चुके हैं| फड़ कला राजस्थानी लोक जीवन का आकर्षक प्रतिबिम्ब है, समय के साथ इस कला मे बाजारी मांग के अनुसार हो रहे परिवर्तनों को दृष्टिगत रखते हुए इसके संरक्षण की आवश्यकता है|
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. “फड़ कला से प्रभावित चित्रकार: श्री रामेश्वर सिंह”; डॉ॰ बीना जैन, इंटरनेशनल जर्नल ऑफ मल्टीडिसीप्लिनरी रिसर्च एंड डवलपमेंट, वॉल्यूम-4, इश्यू-6, जून-2017, पृष्ठ सं.-120 से 123. 2. “राजस्थान की फड़ चित्रशैली तथा चित्रकार ओम प्रकाश जोशी”; आकृति, राजस्थान ललित कला अकादमी, जयपुर, 1987, पृष्ठ सं. 23. 3. “भारतीय कला के विविध स्वरूप”; प्रेम चंद गोस्वामी, 1997, पृष्ठ सं. 78. 4. “राजस्थान की फड़ लोक कला का अध्ययन”; जाहन्वी पाण्डेय,चित्रलेखा सिंह, शब्द भ्रम, वॉल्यूम-7, इश्यू-12, अक्टूबर-2019, पृष्ठ सं. 13 से 15. 5.“मेवाड़ की लोक कला- फड़”; वंदना जोशी, 2012, पृष्ठ सं. 61 से 65. 6. “ए लिविंग टैम्पल - फड़ पेंटिंग इन राजस्थान”; कृष्णा माहवर, इंटरनेशनल जर्नल ऑफ रिसर्च, वॉल्यूम-6, इश्यू-3, मार्च-2018, पृष्ठ सं.-252 से 255. 7. “फड़ पेंटिंग ऑफ भीलवाड़ा राजस्थान”; रूपाली राजवंशी, मीनू श्रीवास्तव; एशियन जर्नल ऑफ होम साइन्स; वॉल्यूम-8, इश्यू-2, दिसम्बर-2013, पृष्ठ सं. 746 से 749.