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रामस्नेही सम्प्रदायः शाहपुरा के विशेष संदर्भ में | |||||||
Ramsnehi Sampradaya: With Special Reference to Shahpura | |||||||
Paper Id :
16456 Submission Date :
2022-09-04 Acceptance Date :
2022-09-22 Publication Date :
2022-09-25
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सारांश |
परिस्थितियों में जब संपूर्ण जगह अराजकता व्याप्त हो गई थी राजनीतिक, सामाजिक ,आर्थिक, धार्मिक स्थिति पतन की तरफ जा रही थी, ऐसे में संतों ने अपनी महती भूमिका अदा की। रामस्नेही संप्रदाय की 4 शाखाएं स्थापित हुई इनमें शाहपुरा के संत राम चरण जी द्वारा अनभेवाणी का उच्चारण किया गया यह ग्रंथ ही इस संप्रदाय की नींव है।
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | Under the circumstances, when anarchy prevailed all over the place, the political, social, economic, religious situation was going towards downfall, in such a way saints played their important role. Four branches of the Ramsnehi sect were established, in which Anbhevaani was pronounced by Sant Ram Charan ji of Shahpura, this book is the foundation of this sect. | ||||||
मुख्य शब्द | सांप्रदायिक, अद्वैत, किंकर्तव्यविमूढ़ ,निरपेक्ष, निस्प्रही, निरिछ, ऋतुराज। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Communal, Advaita, Kinkartavyavimudh, Absolute, Nisprahi, Nirich, Rituraj. | ||||||
प्रस्तावना |
रामस्नेही शब्द का प्रयोग राम से स्नेह करने वाले भक्तों के रूप में हुआ है। संत राम चरण जी ने भी रामसनेही शब्द का प्रयोग राम से स्नेह करने वाले भक्तों के रूप में किया है मध्यकाल में भी राम नाम का स्मरण करने वाले संतों को रामस्नेही नाम से जाना जाता था। और जब इन संतों ने अपनी विशेष आचार पद्धति का निर्माण किया तो यह वर्ग विशेष एक सांप्रदायिक स्वरूप के रूप में सामने आया जिसे रामस्नेही संप्रदाय के नाम से जाना जाता है। इसमें शाहपुरा भीलवाड़ा मैं संत रामचरण जी की गिनती प्रमुखता की जाती है और इनके उपदेशों पर ही यह शाखा आगे विकास कर पाई है।
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अध्ययन का उद्देश्य |
धार्मिक आंदोलन की एक कड़ी के रूप में रामस्नेही संप्रदाय ने जन सेवा के लिए और जनहितार्थ अनेकानेक कार्य किए हैं और निरंतर जारी हैं । विद्यालय, कॉलेज, अस्पताल सदमार्ग के अनेकानेक कार्यों से रामस्नेही संप्रदाय की महती भूमिका है। |
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साहित्यावलोकन | प्रस्तुत विषय में और भी लेखको में कई काम किये हैं जिनमे विनती राम सनेही द्वारा रचित 'श्री राम चरण जी महाराज का जीवन चरित्र' (1984) और राम प्रसाद दाधीच का 'राजस्थान संत संप्रदाय' (1995) मुख्य है। |
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मुख्य पाठ |
रामस्नेही
सम्प्रदायः स्वरूप अठारहवीं, सदी का राजस्थान एक प्रकार से आपसी कलह, षड्यंत्र, और विद्रोह की
घटनाओं का पिटारा था। जिस शौर्य और आत्माभिमानी कूटनीति मध्ययुगीन शासकों ने अपनाई
थी वह शौर्य, आत्माभिमान व कूटनीति इस युग के शासकों के लिए
एक कथानक मात्र रह गये थे। यदा-कदा इन नरेशों के गठबंधन होते थे तो वे केवल एक
राजवंश के द्वारा दूसरे राजवंश को नीचा दिखाने के लिए ही होते थे। इस समय राजस्थान
के राज्य समस्या ग्रस्त थे। एक तो मुगल साम्राज्य के पतन ने राजस्थान के नरेशों को
असहाय और अकर्मण्य बना दिया, दूसरी और मराठा
आक्रमणों ने इन राज्यों को निर्बल और आभाहीन कर दिया। मुगल सर्वोच्चता के समय दिल्ली की केन्द्रीय सत्ता राजस्थान के सभी राज्यों पर
नियंत्रण रखती थी। परन्तु औरंगजेब की मृत्यु के बाद अब मुगल सर्वोच्चता नाम मात्र
की रह गई। मुगल सम्राट का प्रभाव अब नहीं रहा। ऐसे में राजपूत राज्यों को अनुशासित
करने वाली शक्ति भी समाप्त हो गई। अब ऐसी कोई सर्वोच्च शक्ति नहीं थी जो राजपूत
राज्यों को अनुशासित करती, आदेशों का पालन करवा सकती, और इन राज्यों के पारस्परिक युद्धों को रोकती और इन राज्यों
के आंतरिक झगड़ों को निपटा सकती। अठारहवीं शताब्दी में राजस्थान में राज्यों की
आंतरिक समस्यायें भी उभरकर सामने आ गई। सरदारों की आपसी फूट ने राज्य में विरोधी
दलों का निर्माण कर दिया। इन दलों ने उत्तराधिकार संबंधी मामलों में बढ़-चढ़कर भाग
लिया जिसके परिणामस्वरूप उत्तराधिकार संघर्ष हुए। इससे राज्यों की आंतरिक शक्ति
कमजोर हो गई। 18वीं शताब्दी में मुगलों की केन्द्रीय सत्ता के
पतन के साथ ही राजस्थान के राजपूत राज्यों में अराजकता तथा अशांति के साथ
गृहयुद्धों का सिलसिला प्रारंभ हुआ। बूँदी के आंतरिक झगड़े में जब सवाई जयसिंह ने
बूँदी के राव बुद्धसिंह को पद्च्युत कर दिया तब बुद्धसिंह की रानी ने जयपुर के
विरूद्ध मराठों को अपनी सहायता के लिए आमंत्रित किया। इसी के साथ राजस्थान की
राजनीति में मराठों का पदार्पण हुआ। इसके बाद तो मराठों ने जयपुर के उत्तराधिकार
संघर्ष में बारी-बारी से दावेदारों का पक्ष लिया। इसी प्रकार मारवाड़ और मेवाड़ के
उत्तराधिकार संघर्ष में भी मराठों ने हस्तक्षेप किया और इन राज्यों को यथाशक्ति
लूटा। इसके फलस्वरूप यह राज्य शक्तिहीन हो गए। कोटा और बूँदी में तो मराठों की
लूटमार से सारी शासन व्यवस्था और जनजीवन ही अस्त-व्यस्त हो गया था। ऐसे समय धर्मों
के बीच एवं समाज के विभिन्न वर्गों के बीच स्थित द्वन्द्व एवं तनाव को मिटाने के
लिए सन्तों का आर्विभाव हुआ। इन सन्तों ने समन्वय, समानता एवं हृदय की शुद्धि व ईश्वर-भक्ति पर जोर देते हुए सगुण व निर्गुण में
हिन्दू व मुस्लिम समाज के उच्च व निम्न वर्ग में समन्वय स्थापित करने का प्रयास
किया। धर्म को संकुचित दायरे से बाहर निकालकर इसके सार्वभौमिक संदेश को जन-जन तक
पहुँचाया, धर्म के असली मर्म को समझाया। उँच-नींच के
भेदभावों को मिटाने से नवजागरण के प्रयास सुधारवादी बन गये और जन समुदाय इससे
लाभान्वित हुआ। समन्वय की भावना, आचरण की शुद्धता, ईश्वर-साधना और आत्म-कल्याण के आदर्श सिद्धान्तों के कारण
तथा लोक-भाषा के प्रयोग के कारण ये पंथ और सम्प्रदाय बड़े लोकप्रिय हुए। राजस्थान
में भी अनेक संतों एवं सम्प्रदायों का उद्भव हुआ। इन धन्ना में धन्ना, पीपा, रैदास, जांभोजी, जसनाथजी, दादूदयाल, लालदास, चरणदास, मीराबाई, संत दरिया साहब, रामचरणजी, हरिरामदासजी एवं रामदासजी आदि प्रमुख हुए।
राजस्थान में इस धार्मिक आन्दोलन का श्रीगणेश धन्ना और पीपा ने किया था, जो रामानंद और कबीर से प्रेरणा ले रहे थे। संत धन राजस्थान के धार्मिक
आन्दोलन के प्रणेता माने जाते हैं। इनका जन्म 1415 ई. में टोंक के धुवन ग्राम के जाट परिवार में हुआ था। बचपन से ही आप ईश्वर
भक्ति में लीन रहते थे अतः काशी जाकर सन्त रामानंद के शिष्य हो गये। रामानंद जी की
प्रेरणा से उन्होंने निर्गुण भक्ति ग्रहण कर ली। पीपा राजस्थान में गागरोण के
खींची राजपूत थे। बाल्यावस्था से ही इनके हृदय में भक्ति-भावना अंकुरित हो चुकी
थी। जांभोजी उस युग की
साम्प्रदायिक संकीर्णताओं, आडम्बरों एवं कुरीतियों के प्रति जागरूक थे।
उनका कहना था कि ईश्वर, सर्वव्यापक है और यदि आत्मा को, जो अमर है, वश में कर लिया
जाए तो मुक्ति का मार्ग खुल जाता है। संत दादूयाल का जन्म गुजरात प्रान्त के
अहमदाबाद नगर में वि.सं. 1601 फाल्गुन शुक्ला अष्टमी को हुआ। दादू का ब्रह्म
निराकार, निरंजन, निर्गुण है। वह स्वयंभू, परम-प्रभावस्वरूप, परमज्योति रूप माया से परे, क्रियारहित सुस्थित तथा सदा-एकरस है। दादू की दृष्टि में मनुष्य का अंतःकरण ही
सच्चा उपासना गृह है। मनुष्य मात्र की समानता और एकता में ही इनका विश्वास है। जनसनाथजी जांभोजी के
समकालीन संत थे। यह हम्मीरजी नामक जाणी जाट और उनकी पत्नी रूपादे के पौष्य पुत्र
थे। इनका जन्म वि.सं. 1539 कार्तिक शुक्ला एकादशी के दिन कतरियासर
(बीकानेर) नामक गाँव में हुआ था। इन्होंने वि.सं. 1551 की आश्विन शुक्ल सप्तमी के दिन गोरखनाथ की परम्परा के किसी साधु से दीक्षा
ली। संत लालदास का जन्म वि.सं. 1597 की श्रावण
कृष्णा पंचमी (रविवार) को मेवात प्रदेश के धोलीदूब नामक ग्राम में हुआ था। इनके
पिता का नाम चांदमल तथा माता का नाम समदा था। लालदासजी मेव जाति के लकड़हारे थे।
तिजारा के एक मुस्लिम संत गदन चिश्ती से इन्होंने दीक्षा लेकर बाधोली (अलवर) में
एक पहाड़ी पर कुटिया बनाकर रहने लगें वहाँ भक्तों की भीड़ जुटने लगी कुछ विरोधी भी
हो गये। आखिर में वे नगला आ गये जहाँ 108 वर्ष की आयु में वि.सं. 1705 में वे
ब्रह्मलीन हो गये। इनकी कब्र और मकबरा दोनेां शेरपुर (अलवर) में बना हुआ है। संत
लालदास एक ऐसे ईश्वर में विश्वास करते थे जो सबका स्वामी है, उसके अनेक नाम हैं, वह सर्वशक्तिमान है, वह सर्वत्र विद्यमान है। उसके स्मरण मात्र से सब
दुख मिट जाते हैं। सद्गुरू का महत्व इनके पंथ में भी बताया गया है। साधु-संगत पर
भी यह पंथ जोर देता है। हृदय की शुद्धता, शील, दया, समदृष्टि, अपरिग्रह आदि मानवीय गुणों के पालन का उपदेश
इनकी वाणियों का मुख्य विषय है। मध्यकालीन संतों ने ‘राम से स्नेह रखने वाला भक्त’ एवं ‘राम द्वारा स्नेह पाने वाला भक्त’ दोनों अर्थों में रामस्नेही शब्द का प्रयोग किया है। संत
नामदेव (1270-1350 ई.) में रामस्नेही शब्द का
प्रयोग राम द्वारा स्नेह पाने वाले भक्त के अर्थ में प्रयोग किया है। मोकउ मिलिउ
रामस्नेही, संत कबीर ने (1440-1510 ई.) ने रामस्नेही शब्द के अर्थ ‘राम जो भक्त से प्रेम करते हैं’’ के रूप में प्रयोग किया है। कबहूँ देखूं
मेरे रामस्नेही। गोस्वामी तुलसीदास (1532-1623 ई.) ने रामस्नेही शब्द का प्रयोग ‘‘राम से प्रेम पाने वाले भक्त’’ के अर्थ में किया है। भरत सरिस को
रामस्नेही। रामस्नेही सम्प्रदाय में
रामस्नेही शब्द का प्रयोग सभी संतों ने ‘‘राम से स्नेह करने वाले भक्त’’ के अर्थ के रूप
में प्रयोग किया है। संत दरिया साहब ने जब ज्येष्ठ शिष्य पूरणदास को वि.सं. 1772 को आश्विन पूर्णिमा को दीक्षा प्रदान की तो रामस्नेही कहकर
सम्बोधित किया जिसका अर्थ राम से स्नेह रखने वाला भक्त है। कृपा कर सतगुरू
कहै, पूरण सुन मम बात। संत हरिरामदासजी ने अपनी
अनुभववाणी में रामस्नेही शब्द का प्रयोग राम से स्नेह रखने वाले भक्त के रूप में
किया हैं - सब जग बिंध्या
जेवरी, निरबंधन नहीं कोय। संत रामचरणजी ने भी
रामस्नेही शब्द का प्रयोग राम से स्नेह करने वाले भक्त के अर्थ में किया है। रामस्नेही राम
को नहीं आन का दास। मध्यकाल से ही केवल राम-नाम
का स्मरण करने वाले संतों को रामस्नेही नाम से जाना जाता था। जब संत दरिया साहब, संत रामचरण और संत हरिरामदास ने अपने देशेां में विशेष तौर
पर राम-नाम स्मरण का आग्रह किया और राम-नाम स्मरण पर बल देते थे तब वे रामस्नेही
नाम से पुकारे गये। जब इन्होंने अपनी विशेष आचार-पद्धति का निर्माण किया तो यह
वर्ग विशेष एक साम्प्रदायिक स्वरूप के रूप में सामने आया, जिसे ‘रामस्नेही
सम्प्रदाय’ के नाम से जाना जाता है। रैण रामस्नेही
सम्प्रदाय दरिया साहब द्वारा स्थापित किया गया है। रामस्नेही जके
सभा सर व संगत बैठी। दरिया साहब के परचीकार
पदुमदास के अनुसार तत्कालीन जनमानस द्वारा दरिया साहब व इनकी शिष्य मंडली को
राम-नाम का बार-बार स्मरण करने के कारण रामस्नेही की संज्ञा से अभिहीन किया। यही
रामस्नेही सभा कालांतर में रामस्नेही सम्प्रदाय के रूप में सामने आया। सिंहथल रामस्नेही सम्प्रदाय
के प्रवर्तक संत हरिरामदास का जन्म वि.सं. 1770 को भागचन्द गरू के घर हुआ। इन्होंने रामानंदी सम्प्रदाय के सन्त जैमलदास जी
से आषाढ़ कृष्ण 13 संवत् 1800 में दीक्षा ग्रहण कर राम-नाम का प्रचार प्रारंभ किया। रामचरण जी के मन में
भक्ति को लेकर ऊहापोह की स्थिति पैदा हो गई तो कृपाराम जी ने इन्हें गूदड़ वेश
उतारकर विरक्त होकर राम का अनुसरण करने को कहा। इसी विरक्त वेष में वे अपने गुरू
के साथ जयपुर आ गए और इसके बाद कृपारामजी से वृंदावन जाने की इच्छा व्यक्त की।
वृंदावन जाते समय एक संत ने उन्हें ‘‘रामस्नेही तुम कहाँ चले’’? कहकर जाने से
मना किया। गुपत संत रसता
माही मिलिया। इससे यह स्पष्ट होता है कि
उस समय तक निर्गुण राम की साधना पद्धति वाले संतों का आचार-व्यवहार नियम भेष सब तय
हो चुका था। अतः रामचरण जी के विरक्त स्वरूप को देखकर उसने उन्हें रामस्नेही कहकर
पुकारा है। इस घटना के बाद रामचरण जी वृंदावन से शाहपुरा (भीलवाड़ा) आ गए और
निर्गुण भक्ति का प्रचार-प्रसार करना प्रारम्भ किया। पाँच पचीस भया
जग्यासी। रामस्नेही छाप का प्रवर्तन
का काल वि.सं. 1817 माना जाता है, यही रामस्नेही छाप शाहपुरा रामस्नेही सम्प्रदाय का प्रवर्तन था। निष्कर्षतः हम
कह सकते हैं कि मध्यकाल में प्रचलित रामस्नेही शब्द (राम के स्नेही) का प्रयोग 18वीं शताब्दी में धार्मिक समूह विशेष एवं ऐसे साधु संतों के
लिए प्रयुक्त होने लगा था जो निर्गुण रामोपासक थे। यही कारण है कि तीनों संतों
(दरिया साहब, हरिरामदासजी, रामचरण जी) के अनुयायी भी निर्गुण रामोपासक होने के कारण आमजन, अन्य साधु संतों द्वारा उन्हें रामस्नेही नाम दिया गया। रामस्नेही संतों को किसी मत
सम्प्रदाय अथवा पंथ के प्रवर्तक के रूप में ख्याति प्राप्त करने का लोभ नहीं था। न
ही इन्होंने अपनी वाणी में किसी सम्प्रदाय पंथ या मत विशेष का प्रचार करने का
संकेत दिया है। तथापि इनके शिष्यों, प्रशिष्यों व अनुयायियों की संख्या बढ़ जाने के कारण इनके आचार-विचारेां को एक
स्वरूप देना जरूरी हो गया। इसका परिणाम यह हुआ कि कालांतर में इसका विकास एक
सम्प्रदाय के रूप में होने लगा। यद्यपि मौलिक रूप से एक जैसी विचारधारा होने के
बावजूद गुरू परम्परा के आधार पर इनकी पृथक्-पृथक् परम्परा कुछ भिन्नता लिए अब भी
जारी हैं। विविध रामस्नेही सम्प्रदाय 1. रैण रामस्नेही सम्प्रदाय - नागौर - संत दरिया शाहपुरा का
रामस्नेही सम्प्रदाय यदा यदा हि
धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारतः। हे भारत! जब-जब धर्म की
हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं
अपने रूप को रचता हूँ, अर्थात् साकार रूप में प्रकट होता हूँ। साधु
पुरूषों का उद्धार करने के लिए, पाप कर्म करने
वालों का विनाश करने के लिए और धर्म की अच्छी तरह से स्थापना करने के लिए युग-युग
में प्रकट हुआ करता हूँ। यह कथन श्रीकृष्ण का अर्जुन के प्रति है जिसका मन्तव्य है
कि जब-जब पृथ्वी पर अधर्म, अत्याचार, अनाचार, कदाचार आदि अपनी चरम सीमा पर पहुँच जाते हैं, तब स्वयं भगवान धराधाम पर अवतरित होते हैं। दुष्टों का
अनाचारियों का अधर्मियों का संहार करके वे धर्मात्माओं, सदाचारियों का परित्राण करते हैं। राम नाम को निरंजन स्वरूप
बताकर इससे इतर समस्त को अंजन स्वरूप माया बताया गया है। शब्द काल व काया से परे
है। शब्द ही सृष्टि का अभिन्न निमित्तोपादानकारण है। फिर भी यह सृष्टि में लिप्त
नहीं होता है और न ही अविद्या जन्य संसार से आच्छादित होता हैं। असंख्य युग बीत
चुके है और अनन्त युग आगे बीतेंगे, फिर भी शब्द एकरस रहेगा। रामचरण जी ऐसे ही निर्गुण-निराकार, निर्विकार, अद्वैत स्वरूपी
शब्द के आराधक थे और उन्होंने विक्रम की उन्नीसवीं शताब्दी में ऐसे ही राम-नाम
शब्द स्वरूपी ब्रह्म की भक्ति का सघन प्रचार-प्रसार करके भारतवर्ष के असंख्य जीवों
को सद्मार्ग पर चलने को प्रेरित किया। शाहपुरा केन्द्र
के प्रमुख सन्त/प्रवर्तक संत रामचरण- रामचरण जी का जन्म ननिहाल सोडा नामक गाँव में माँ देवहुति
के गर्भ से माघ शुक्ला चतुदर्शी, शनिवार, विक्रम संवत् 1776 को हुआ। इनके पिता बखतराम कापड़ी गोत्रीय विजयवर्गीय वैश्य थे, जो बनवाड़ा ग्राम के निवासी थे। इनका परिवार राज्य-ठिकाने की
नौकरी करता था। राज्य-कर्मचारी होने से इनका परिवार प्रतिष्ठित और सर्वविध सम्पन्न
था। 31 वर्ष की उम्र होने पर एक रात इन्होंने स्वप्न
देखा कि ये एक नदी में बहे जा रहे हैं, बचाने वाला कोई नहीं है। नदी का प्रवाह इतना प्रबल था कि ये असहाय
किंकर्तव्यविमुढ़ इतने में ही एक वृद्ध महात्मा ने इनको बहने से बचाकर किनारे लाकर
नदी से बाहर निकाल दिया। जागने पर स्वप्नगत संकेतों पर गंभीर चिन्तन किया और समझा
कि संसार और संसार के काम-काज ही प्रबल वेग से बहती नदी हैं। बहने वाला व्यक्ति
मैं ही हूँ। नदी से बाहर निकालने वाले गुरू ही हैं। अतः मुझे ऐसे ही परमार्थी
अहैतुक कृपा करने वाले ब्रह्मनिष्ठ सद्गुरू की शरणावलम्बन करनी चाहिए, ताकि में स्वात्मसाक्षात्कार रूप आत्मकल्याण प्राप्त कर
सकूँ। बिना समय गँवाए, ये तत्काल दाँतड़ा पहुँच गए। संत कृपाराम जी से मिलकर इनको
विश्वास हो गया कि ये ही वे महापुरूष हैं जिन्होंने मुझे वेगवती नदी में बहते हुए
से बचाया था। संत कृपाराम से इनका सम्वाद पूरे 15 दिन तक चलता रहा। ये शिष्यता ग्रहण करने पर सुदृढ़ थे तो स्वामीजी इन्हें
बार-बार समझाते रहे कि घर-गृहस्थी छोड़कर वीतरागी बनकर राम-नाम जापक बनना असि-धार
पर चलने के समान है। संत कृपाराम ने वैष्णवीय
पंच संस्कार करते हुए इनको भाद्रपद शुक्ला सप्तमी, सम्वत् 1808 को शिष्य बना लिया और इनका नाम रामकिशन के
स्थान पर रामचरण रखा। विक्रम संवत् 1815 में गलता (जयपुर) में विशाल वैष्णव-मेला आयोजित हुआ जिसमें
कृपाराम जी के साथ ये भी गलता जयपुर गये। वहाँ साधु-सन्तों को पारस-पूजा के लिए
झगड़ते देख इनका मन इन मेलों से खिन्न हो गया और इन्होंने संत कृपाराम से निवेदन
किया कि अब मैं पंथ संप्रदाय के इन झगड़े-झंझटों में न रहकर एकाकी रहना चाहता हूँ
ताकि चित्तवृत्ति को सभी औरों से समेटकर एकमात्र परब्रह्म-परमात्मा में लगा सकूँ।
इन्होंने भेषरूपी प्रवृत्तिमार्ग को त्यागकर निवृत्तिमार्ग को अंगीकार कर लिया। पाँच पचीस भया
जिग्यासी, रामस्नेही छाप प्रकासी। वि.सं. 1808 से 1820, 12 वर्षों तक की
अखंड साधना के उपरांत रामचरण जी को स्वात्म साक्षात्कार हुआ। जिसका वर्णन नवलराम
मंत्री ने अनुभववाणी का सम्पादन करते हुए किया है। वि.सं. 1820 में अनुभववाणी का उच्चारण शुरू हुआ जिसको नवलराम तत्काल
लिख लिया करते थे। इस प्रकार नवलराम ने संत रामचरण की 1820 से 1827 के मध्य
उच्चरित समस्त वाणी को विभिन्न अंगों, ग्रंथों व रागों में विभाजित करके सम्पादित किया। इसी को अंगबद्ध वाणी कहा
जाता है। इसके बाद समस्त वाणी 09 ग्रंथों में
रामजन जी द्वारा सम्पादित की गई। संत रामचरण 1817-1824 तक भीलवाड़ा में रहे। 1826 के कार्तिक माह में स्वामीजी सोलह शिष्यों के
साथ शाहपुरा नरेश राजा रणसिंह के निमंत्रण पर शाहपुरा पधारे यहाँ ये अपने अंतिम
समय वैशाख कृष्ण-पंचमी वि.सं. 1855 तक रहे। कई
चातुर्मास भीलवाड़ा में किये। रामचरण जी के 225 विरक्त शिष्यों में से 12 को प्रधान
शिष्य होने का गौरव प्राप्त है। इनमें से तीन आगे चलकर
आचार्य गद्दी पर पदारूढ़ हुये। इनकी शिष्य परम्परा
थाम्बायती परम्परा न कहलाकर खालशाही परम्परायें कहलाई। संत रामचरण जी शाहपुरा में
वैशाख कृष्ण पंचमी को विक्रम संवत् 1855 को ब्रह्मलीन हुए। प्राणांत हो जाने पर भी संत रामचरण के दोनेां होठ हिलते
रहे और राम-नाम की ध्वनि आती रही, इन्होंने स्वयं
द्वारा कही गई साखी को पूर्णरूपेण चरितार्थ किया। राम नाम सूँ
प्रीति करि, तन मन सूँज समेत। अर्थात् राम नाम से कुछ इस
तरह की प्रीति हुई हैं कि तन-मन की कोई सुध नहीं हैं, प्राण-पखेरू उडने पर भी राम नाम ही आता रहा ऐसा प्रेम रहा
कि जैसे वृक्ष का शाखा से हो। संत रामचरण
द्वारा संप्रदाय प्रवर्तन एवं आचार संहिता का प्रकाशन संत रामचरणजी परम वीतराग, निरपेक्ष, निस्पृही, निरीच्छ, विरक्त शिरोमणि
महापुरूष थे। उन्हें पर्यटन भी प्रिय नहीं था, नहीं उन्हें शिष्य बनाने या उपदेश सुनाने और ना ही कोई उन्हें आमंत्रित करके
उनका आतिथ्य करे यह अपेक्षाऐं उन्हें होती थी। वे रामरजा जी में, सहज में रामभजन करते हुए कलाक्षेप किया करते थे। संत रामचरण ने
निर्गुण-निराकार, एक अद्वैत, परब्रह्म परमात्मा को अपना इष्ट उपास्य स्वरूप माना है। रामजी के अतिरिक्त सभी
कुछ असत्य, भ्रम, माया व कलने (नष्ट होने) वाला विनाशी है। उन्होंने सच्चिदानन्द ब्रह्म की
परिभाषा ही बदल दी जिसमें- 1. सत् - तीनों कालों में एकरस रहने वाला। संत रामचरण ने अपने
निर्गुण-निराकार राम की व्याख्या करते हुए उसे सचराचर का अधिष्ठान कहा है। ब्रह्म
के विषय में कहा है कि ब्रह्म निर्लिप्त है, वह कहीं भी लिपायमान नहीं होता है। इसी सम्बन्ध में स्पष्ट किया है कि लिप्त
वह होता हैं जो सकाम होता है, ब्रह्म तो अकाम
है। सच्चिदानंद निरावलम्ब, अकल व, अकाम ब्रह्म है। मोक्ष के सम्बन्ध में कहा है कि यह ‘अगमपद’ है जिसमें जीव
के अहम् की समाप्ति हो वह जन्म-मरण ओर जरा से मुक्त हो जाता है। आपा मेट आप मैं
मिलिया, आप रूप होइ रहिया। संत रामचरण ने स्पष्ट किया
हैं कि मोक्ष की प्राप्ति में अहम् ही बाधक है। शाहपुरा के रामस्नेही-दर्शन
एवं सिद्धांत 1. शाहपुरा केन्द्र के रामस्नेही संतों में
राम-नाम की उपासना, इष्ट के प्रति दृढ़ता प्रथम एवं अनिवार्य हैं। शाहपुरा केन्द्र के
सिद्धान्तों का अवलोकन करने से पता चलता हैं कि रामस्नेही संतों का जीवन अत्यंत
सादा एवं मोह-माया के बंधन से कई कोस दूर है। इन्हें अपने जीवन को गुरू की सेवा
एवम् गुरू चरणों में अर्पित करते हुए मोक्ष की प्राप्ति करनी होती है। संत रामचरण ने सन्तों
के निम्न लक्षण बताये 1. रामस्नेही संत माँगता नहीं अर्थात्
भिक्षावृत्ति नहीं। शाहपुरा के
रामस्नेहियों के प्रमुख केन्द्र 1. ईडरगढ़ का रामद्वारा इनके अतिरिक्त भी संत
रामचरण के शिष्यों ने थाम्बायत रामद्वारों की परम्परा में कई जगह रामद्वारों की
स्थापना की। लेकिन इस थाम्बायत परम्परा के संतों का केन्द्र (शाहपुरा) में
प्रमुखता से रहा है। रामस्नेही फूलडोल महोत्सव के समय पर संतों को भोजन परोसने का
कार्य भी संत पंक्ति में परम्परा से ही थाम्बायती संत ही करते हैं। समाज में संत
संख्या भी थाम्बायती की अधिक रहती है, यह परम्परा अति समृद्धिशील व समाज की सेवा में इनका प्रमुख स्थान रहा है। रामस्नेही वेश
का पंथ परिचय 1. रैण रामस्नेहीः सम्प्रदाय के संत गुलाबी रंग की
चादर के दोनों छोरों को पार्श्वों से लाकर गर्दन पर बाँध लेते है तथा उपर से एक
गुलाबी रंग की अतिरिक्त चादर लपेटते हैं, साध्वियाँ गुलाबी, सफेद या काले रंग की धोती पहनती है। 2. सिंहथल, खेड़ापा रामस्नेहीः खेड़ापा रामस्नेही संप्रदाय में संत गोल पगडी, धोती, दुपट्टा तथा
बगलबंदी पहनते थे, परन्तु वर्तमान में गुलाबी रंग के वस्त्र धारण
करते है। 3. शाहपुरा रामस्नेहीः शाहपुरा रामस्नेही
सम्प्रदाय के संत प्रारम्भ से हिरमिच रंग से रंगे वस्त्र पहनते हैं। ये कोपीन धारण
कर चादर को विशेष रूप से ओढ़ लेते हैं। इसे ब्रह्म चोला कहा जाता है। पूरा शरीर
चादर से ढ़का रहता है। शाहपुरा रामस्नेही संत
गुरूवाणी का गुटका साथ रखते है। तुम्बी रखते हैं, हाथ में चन्दन की माला और ललाट पर गोपी चन्दन का तिलक लगाते
हैं। धातु पात्रों का प्रयोग वर्जित होने के कारण लकड़ी तथा मिट्टी के पात्रों का
प्रयोग करते हैं। रामस्नेही संतों ने हठयोग साधना पद्धति के विपरीत सहज अनुभव
सिद्ध साधना पद्धति को अपनाया है। शाहपुरा के
रामस्नेही सम्प्रदाय का प्रमुख महोत्सव- फूलडोल महोत्सवः रामस्नेही धर्म के प्रचार-प्रसार के
उद्देश्य से फाल्गुन के महीने में जिसे ऋतुराज वसन्त का मौसम कहा जाता है, इसे मनाने के लिए तिथि निर्धारित हैं- ऋतु वसन्त फागुण
में होइ पूरणमासी जाणौ सोई। भक्तों के लिए होली के
त्यौहार के दिन शहर के धानमंडी नामक स्थान पर सम्पूर्ण व्यवस्था कर स्वामीजी को
शहर में पधराने की स्वीकृति के पश्चात् सभी गाजे-बाजे व भजनों के साथ उत्सव स्थान
पर पहुँचते हैं। नाम प्रताप-ग्रंथ व प्रहलाद चरित्र का पाठ होता है।इसका नाम फूलडोल इसलिये पड़ा कि देवताओं ने अपने डोलों में बैठकर फूलों की वृष्टि की थी। देवन आइ पुष्प
बरसाइए। फूलडोल ता नाम
कहाए।। वर्तमान में यह उत्सव
फाल्गुन शुक्ल 11 से चैत्र शुक्ला पंचमी तक 25 दिन रहता है। इस फूलडोल उत्सव में रामस्नेही - सम्प्रदाय
के संत एवं देशों-विदेशों के श्रद्धालु भक्तजन हजारों मील की दूरी तय करते हुए
पवित्र धाम शाहपुरा में उपस्थित होकर त्रिवेणी संगम-1 धाम दर्शन-2 सन्त दर्शन-3 उपदेश श्रवण के स्नान का लाभ उठाते हैं।शाहपुरा में इस महोत्सव में सम्पूर्ण रात्रि जागरण होता है। तत्पश्चात् वाणीजी का पठन होता है। फिर सूर्योदय वेला से प्रवचन चलते हैं। संध्या समय बारहदरी में आरती का आयोजन किया जाता है। राम-भजन प्रत्येक कार्यक्रम के साथ चलता है। इस अवसर पर सम्प्रदाय में प्रवेश पाने वाले इच्छुक व्यक्तियों को दीक्षित करने की विधि का निर्वाह किया जाता है। गूदड़ी दर्शन का कार्यक्रम बारहदरी में होता है। इस उत्सव में ही आचार्यश्री के चातुर्मास का निर्णय भी हो जाता है। |
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निष्कर्ष |
रामचरण जी के वाणी उच्चारण के पश्चात् रामस्नेही सम्प्रदाय के अनेकानेक शिष्य बने। कृपारामजी ने अनुभववाणी का अवलोकन किया और उन्हें ऐसा लगा कि इस वाणी के पीछे, महती साधना अनुभूति की स्वच्छता एवं भावों की सहज गरिमा है। यह वाणी तो ऐसे महापुरूष की वाणी के समान है जिसने आत्मतत्व का साक्षात्कार कर लिया है। |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची |
1. सर्वंसारः सन्त गुरूमुख रामस्नेही श्री रामनिवास धाम ट्रस्ट, शाहपुरा भीलवाड़ा प्रथम संस्करण वि.स. 2055
2. सर्वंसार गाथा प्रसंग - सन्तगुरूमुख रामस्नेही रामद्वारा गंगापुर महेन्द्रगढ़ भीलवाड़ा द्वितीय संस्करण 2015
3. रज्जब की सर्वंगी - ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल श्री दयाल ट्रेडर्स पुराना सदर बाजार रायगढ़ (छत्तीसगढ़) 2010
4. स्वामी हरिराम रामस्नेही - ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल, श्री रामद्वारा व्यापार (अजमेर) प्रथम संस्करण 2015
5. रज्जब दास की सरबंगी - सं. शहाबुद्दीन इराकी ग्रंथायन अलीगढ़, 1985
6. आदि श्री गुरू ग्रंथ साहिब - सं. डॉ. मनमोहन सहगल, भुवन वाणी ट्रस्ट लखनऊ (दूसरी सैची) चतुर्थ संस्करण 1995 ई.
7. आदि श्री गुरूग्रंथ साहिब - सं. डॉ. मनमोहन सहगल, भुवन वाणी ट्रस्ट लखनऊ (तीसरी सैची) चतुर्थ संस्करण 1995 ई.
8. आदि श्री गुरूग्रंथ साहिब - सं. डॉ. मनमोहन सहगल, भुवन वाणी ट्रस्ट लखनऊ (चौथी सैची) चतुर्थ संस्करण 1995 ई.
9. राजस्थानी संत साहित्य - स्वामी नारायणदास, श्री दादूदयाल महाराज, जयपुर परिचय सं. 2037 वि.
10. श्री दादू वाणी - स्वामी नारायण दास अजमेर 1967 |