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हिन्दुस्तानी संगीत की रागों में निहित सौन्दर्यशास्त्र | |||||||
Aesthetics in the Ragas of Hindustani Music | |||||||
Paper Id :
16469 Submission Date :
2022-09-20 Acceptance Date :
2022-09-23 Publication Date :
2022-09-25
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सारांश |
भारतीय शास्त्रीय संगीत मुख्य रूप से हिंदुस्तानी (उत्तर भारत) और कर्नाटक पद्धति से मिलकर बना है । 'राग’, भारतीय संगीत में ‘माधुर्य’ के पर्याय के रूप में गृहीत होता है। पाप्ली के अनुसार, हिंदुस्तानी संगीत की राग रचना एक कलाप्रिय राष्ट्र का ऐसा प्रयास है, जिसमें लोगों के ओष्ठों पर निरन्तर गाये जाने वाले गीतों को व्यवस्थित और सुसंबद्ध किया जाता है। रागों के माध्यम से विशिष्ट रस की अभिव्यक्ति होती है। जिसमें साहित्य की भी साहयता लेनी पड़ती है और इसी साहित्य के अनुकूल ही ध्वनि की मदद से उचित स्वर व्यवस्था भी रखनी पड़ती है ताकि विशिष्ट भावना उत्पन्न हो सके। रागों का एक स्वतन्त्र व्यक्तित्व है। रागों की स्वर रचना के सौंदर्य के माध्यम से, कलाकार इच्छित रस दर्शा सकते हैं। राग और रस के मध्य सम्बन्ध स्थापित करने के लिये यह आवश्यक है कि, रागों का गूढ़ता से अध्ययन, संगीतकारों का होना चाहिये । प्रस्तुत आलेख में यह बताने का प्रयास किया गया है कि, हिन्दुस्तानी संगीत में किस प्रकार राग में विद्यमान स्वर रसोत्पत्ति के माध्यम से सौन्दर्य उत्पन्न करने में समर्थ होते हैं।
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | 'Raag' is used as a synonym for 'melody' in Indian music. According to Papli, the raga composition of Indian music is an attempt by an art-loving nation to organize and harmonize the songs that are sung continuously on the lips of the people. Special rasa is expressed through ragas. In which the help of literature has to be taken and according to the literature, with the help of sound, proper vocal system has to be maintained so that a specific feeling can be generated. Ragas have an independent personality. The beauty of the diseases is through its literary sound, the artist can show the desired rasa. In order to establish a relationship between raga and rasa, it is necessary that ragas should be studied in depth by musicians. In the present research article, an attempt has been made to explain how the swara groups present in the raga in Hindustani music are capable of producing beauty through generation of Rasa. | ||||||
मुख्य शब्द | रस, सौन्दर्यशास्त्र, हिन्दुस्तानी संगीत , राग | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Rasa, Aesthetics, Hindustani Music, Raga | ||||||
प्रस्तावना |
मनुष्य के अन्तःकरण में ‘स्थाई भाव’ सदा से उपस्थित रहता है। नाद से उत्पन्न आनन्द और सौंदर्य अगाध और अनन्त है। हृदय में निवास करने वाले भाव से ही रस की उत्पत्ति होती है। रस से ही कलाओं में सौंदर्य की अभिव्यक्ति होती है । भाव- प्रधान कला या कृति ही श्रेष्ठ कला के रूप में अपना स्थान रखती है । जो वस्तु हमारे नेत्रों, कर्णो तथा मन को प्रिय लगती है, और व्यक्ति अपने तन मन को एक अद्भुत रस में सराबोर समझने लगता है, उस वस्तु को कला तथा अंग्रेजी में आर्ट कहते हैं। संगीत कला में रागों तथा उसके स्वरों से हुई ‘रस’ की अभिव्यक्ति ही सौन्दर्य शास्त्र कहलाती है। कला का उद्देश्य ही आनंदित करना है। संगीत, भावों के निष्पादन का एक सशक्त माध्यम है।
‘हर्बर रीड के अनुसार 'आर्ट' उन समस्त वस्तुओं में है, जिन्हें हम अपनी इन्द्रियों की तृप्ति के लिये बनाते हैं (शर्मा, 1993) । ध्वनि से शब्द की उत्पत्ति होती है, शब्द से अर्थ उत्पन्न होता है, अर्थ से स्पन्दन होता है, उस स्पन्दन से पुनः स्वर जन्मलेता है और उस स्वर से सौंदर्य की सृष्टि होती है| जब तक हृदय में शब्द निवास करता है तब तक भौतिक आनन्द की अनुभूति रहती और जैसे ही उस शब्द के साथ स्वरों का मेल होता है वैसे ही हृदय आध्यात्मिक आनन्द की अनुभूति करने लगता है। यह आध्यात्मिक आनन्द ही सौन्दर्य का रूप है। प्राचीन संगीतकारों तथा विद्वानों ने अत्यन्त परिश्रम से रागों में कहाँ- कहाँ तथा किस प्रकार से सौन्दर्य निहित हो सकता है, किन स्वरों से रागों में रस की सृष्टि हो सकती है, इस प्रकार अनेक प्रयोगों के द्वारा अनुसंधान किया है तब संगीत में सौंदर्य की अभिव्यक्ति हुई है।
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अध्ययन का उद्देश्य | सौंदर्यशास्त्र में रागों की भूमिका को उजागर करना। |
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साहित्यावलोकन |
गीत की प्रस्तुति करते समय, स्वरों के समूह से रसोत्पत्ति की प्रक्रिया श्रोतागणों को साकार आनंदित करने की दृष्टि से, जिन भावों को अभिव्यक्त करता है वे वास्तविक भावों के अभिनीयमान रूप ही होते हैं। कलाकार करुण भावों की अभिव्यक्ति के लिये हृदय में शोक भाव की अनुभूति नहीं करता अपितु स्वरों के माध्यम से उस रचना की कलात्माक प्रस्तुति करता है। जिस प्रकार एक अभिनेता कुशलता पूर्वक अपना प्रदर्शन करता है (रीज़न इन आर्ट, पृष्ठ 37) । राग और रस का प्रगाढ़ सम्बन्ध है। स्वरों के समूहों से एक राग का निर्माण होता है इसलिये स्वरों को ही रस उत्पादन का साधन मानते हैं। प्रत्येक स्वर की अपनी प्रकृति होती है उसी अनुसार वह दूसरों पर अपना प्रभाव छोड़ता है।
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मुख्य पाठ |
रसों की उत्पत्ति में स्वरों का विशिष्ट योगदान हमारे प्राचीन आचार्यों ने पूर्व में ही अपने विचार
अपने अमुल्य ग्रन्थों में अंकित कर दिये थे कि, किस स्वर से किस प्रकार के भाव
अथवा रस की सृष्टि होती है। सभी स्वरों से रसों की सृष्टि होती है किन्तु राग के अनरूप उपयुक्त अन्य स्वरों की संगति
पाकर इन रसों में उन भावों की अभिव्यंजना की शक्ति और अधिक बढ़ जाती है। स्वर
संगतियों पूर सम्पूर्ण राग की रचना निर्भर होती है तथा रागों से रसोत्पत्ति तभी सम्भव हैं जब उसे उपयुक्त स्वरों का सहयोग
प्राप्त हो जाता है। स्वरों का सम्बन्ध मानव हृदय से
भी है। मानव का मन सदैव परिवर्तन शील रहता है। हर समय वातावरण के अनुसार उसका मन बदलता रहता है, इस बदलते भनोभावों की अभिव्यक्ति के लिये स्वर भी बदलते रहते हैं। जब यह
स्वरों का उपयुक्त समूह हमारे मन की भावनाओं से जुड़
जाता है तो वही एक ‘राग’ के रुप में व्यवस्थित हो जाता है। भारतीय संगीत का रूप अत्यन्त व्यापक है जिसमें न जाने कितने विषय, कितने क्षेत्र बड़ी सरलता से समा जाते हैं। 'सांतायना कहते हैं कि संगीत, गणित के समान अपने आप में एक संसार है। उसमें अनुभूति का
सम्पूर्ण सरगम विद्यमान रहता है ‘(रीजन इन आर्ट, पृष्ठ 37)। हिन्दुस्तानी संगीत की रागों की प्रकृति उसके विशिष्ट स्वरावली से ही निर्धारित की जाती है तथा
उन रागों में हम किस प्रकार से सौन्दर्य का निष्पादन करते हैं वह एक कलाकार की
प्रस्तुति पर पूर्णतया निर्भर करता है। आलापचारी का ढंग, स्वरों का विस्तार तथा गायन- वादन की बारीकियाँ जैसे- गमक, मुर्की मीड़, खटका, ज़मज़मा, कृन्तन,घसीट इत्यादि अनेक तरीकों से राग में सौन्दर्य तथा रस की उत्पत्ति की जा सकती है। भरत मुनि ने रस के महत्व पर बल देते हुए कहा है कि, 'रस, के बिना कोई अर्थ प्रवर्तित हो ही नहीं सकता’ (नाट्यशास्त्र, भरतमुनि, पृष्ठ 272) । रागों में निहित सौंदर्यशास्त्र
हिन्दुस्तानी संगीत में अनेक रागों के
ऐसे उदाहरण हैं जो लगभग एक से प्रतीत होते हैं यानी 'समप्रकृति राग’ किन्तु, केवल राग के स्वरों की प्रस्तुति ही उन रागों की प्रकृति को अलग कर देती है। रागों की प्रस्तुतियां ही यह
स्पष्ट कर देती हैं कि एक राग चंचल प्रकृति का है और दूसरा गम्भीर प्रकृति का । राग
का सौन्दर्य विभिन्न प्रकार के स्वर लगाने पर निर्भर करता है
प्रत्येक स्वर का एक सौन्दर्य होता है। राग प्रस्तुत करने से पहले गायक या वादक के मन में सौंदर्य
का सूक्ष्म रुप होता है उसी को यह नादात्मक रूप में या लयात्मक रूप में व्यक्त
करता है। कलाकार के मन का सौंदर्य आधार बाह्य सौंदर्य-आधार से एकरस जाता है’ (निबन्ध संगीत, लक्ष्मीनारायण गर्ग, पृष्ठ- 218) । रागों
का सौन्दर्य, स्वरों को किस क्रम में
रखा जाय और किस लय में उसका प्रस्तुतीकरण
किया जाय इस पर निर्भर करता है। संगीत
कला में समय का बन्धन है, इसमें एक ध्वनि के उपरान्त दूसरी किस ध्वनि का
समावेश हो या किन स्वरों का
सामूहिक रूप प्रस्तुत किया जा रस भरे सौन्दर्य से युक्त हो, यह
महत्वपूर्ण है। ‘जिस प्रकार केवल ईंट, रोड़ी, चूना
पत्थर इत्यादि को भवन नहीं कहा जा सकता, ठीक उसी प्रकार केवल
स्वरों से संगीत नहीं बनता (निबन्ध संगति- पृष्ठ 299)। किस स्वर को किस प्रकार से प्रस्तुत किया जाय कि उसमें भक्ति रस का प्रवेश हो जाय तथा उन्हीं स्वरों को किस
प्रकार दूसरे ढंग से प्रस्तुत किया जाय
कि सुनने वाला अन्य रसों का अनुभव करने लगे। कहने का तात्पर्य यह है कि, स्वरों
के माध्यम से एवं उसके प्रस्तुतीकरण के तरीके से सम्पूर्ण ‘नवरसों’ की उत्पत्ति हो जाती है। उदाहरणार्थ
कोई गायक कलाकार ‘ठुमरी' प्रस्तुत कर रहा है और गीत के बोल हैं, ‘जिया मोरा न लागे’ अब इन गीत की पंक्तियों
में श्रृंगार, विरह, करुण, विस्मय यह सभी रस केवल उस राग में प्रयुक्त
होने वाले स्वरों की प्रस्तुति पर निर्भर करते हैं और उस प्रस्तुति से अनेक रस
उत्पन्न किये जा सकते हैं। 'संगीत का सौंदर्य नाद और लय के सूक्ष्म तत्वों पर
आधारित होता है। ये तत्व संगीत में प्राण की प्रतिष्ठा करते हैं। श्रुति को स्वर, स्वर
को राग और राग को रस में परिणत करके
उत्साह, विनोद, मादकता, करुणा, चिंता एवं उत्सुकता इत्यादि को
उभारकर प्राणी को तन्मय कर देते हैं’ (निबन्ध संगीत, “संगीत में सौंदर्य बोध”, बालकृष्ण गर्ग -पृष्ठ-221)। |
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निष्कर्ष |
रागों में जो सौंदर्य बिंदु हैं, वह हैं- श्रोताओं में स्वरों द्वारा उत्कंठा का निर्माण करना, उन श्रोताओं की जो अपेक्षायें हैं उन्हें पूर्ण करके उनकी उत्कंठा को समाप्त करना। हिन्दुस्तानी संगीत में यही सौन्दर्य- बिंदु है। रागों में निहित सौन्दर्यशास्त्र को प्रभावशाली बनाने के लिये कुछ बातों का ध्यान रखना अति आवश्यक है। जैसे- राग की प्रकृति के अनुसार तथा गीत के बोलों के अनुसार स्वर विस्तार या आलाप किया जाना चाहिये, स्वरों को चमत्कारिक ढंग से प्रस्तुत करना, सुन्दर स्वर समुदायों का प्रयोग करना, मुख्य स्वरों का उभारने के लिये कण स्वर, गमक, मीड़ इत्यादि का प्रयोग किया जा सकता है। आलाप को जितने सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया जायेगा, राग का स्वरूप उतना ही निखरकर कर सामने आएगा। गायक एवम् वादक रागों के सौन्दर्य को आलाप के माध्यम से अत्यन्त सुन्दरता से प्रस्तुत कर सकते हैं। आलाप एक भावनात्मक तत्व है। संगीत में रसों का वास्तविक जन्मदाता स्वयं कलाकार होता है। |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1. एच ० ए ० पाप्ली, म्यूज़िक ऑफ इण्डिया (पृष्ठ 40)
2. निबन्ध - संगीत और सौन्दर्य, भगवत शरण शर्मा 1993, बालकृष्ण गर्ग (पृष्ठ 218,221 तथा 299)
3. रीज़न इन आर्ट - सातांयन (पृष्ठ 37)
4. भारतीय सौन्दर्य शास्त्र का तात्विक विवेचन- (डा०रामलखन शुक्ल, पृष्ठ- 155)
5. नाट्यशास्त्र-(भरतमुनि, पृष्ठ- 272)
6. निबन्ध संग्रह - भगवत शरण शर्मा (पृष्ठ-10)
7. निबन्ध संगीत संकलन-लक्ष्मीनारायण गर्ग निबन्ध संगीत (पृष्ठ- 218) |