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भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के दौरान समाजवादी चेतना का हिंदी उपन्यासों में ऐतिहासिक अनुशीलन | |||||||
Historical Study of Socialist Consciousness in Hindi Novels during The Indian National Movement | |||||||
Paper Id :
16380 Submission Date :
2022-08-18 Acceptance Date :
2022-08-20 Publication Date :
2022-08-25
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सारांश |
हिंदी उपन्यास हिंदी साहित्य की ऐसी रमणीय विधा है जिसने भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को अपनी विस्तृत पटभूमि पर कल्पना की कूंची से यथार्थ रूप में उकेरा है राष्ट्रीय आंदोलन के विविध वैचारिक पक्षों जिसमें एक पक्ष समाजवादी चेतना से प्रेरित था यह भी उपन्यासकारों के आकर्षण का केंद्र बना। कई हिंदी उपन्यासकार जहाँ प्रत्यक्ष रूप से समाजवादी आंदोलन से जुड़े और अपनी लेखनी के जरिये समाजवादी आंदोलन के उद्देश्यों, गतिविधियों व कार्यपद्धति को अपने उपन्यासों के माध्यम से जीवंत करने का प्रयास किया, तो कई ने परोक्ष रूप से समाजवादी नेताओं के अथक प्रयासों तथा कथनी-करनी को आमजनमानस तक पहुँचाने का उद्दम किया। ऐसे में राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान समाजवादी चेतना के प्रसार व अभिव्यक्ति में हिंदी उपन्यासों की भूमिका का तथ्यपरक अवलोकन आवश्यक हो जाता है।
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | Hindi novel is such a delightful lore of Hindi literature that has carved the Indian national movement on its broad field of vision with the key of imagination. While many Hindi novelists were directly associated with the socialist movement and through their writings, tried to bring alive the objectives, activities and methodology of the socialist movement through their novels, many indirectly expressed the relentless efforts and sayings of the socialist leaders. In such a situation, it becomes necessary to have a factual overview of the role of Hindi novels in the spread and expression of socialist consciousness during the national movement. | ||||||
मुख्य शब्द | राष्ट्रीय आंदोलन, समाजवादी, साम्यवादी, मजदूर हड़ताल, हिंदी उपन्यास, चित्रण। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | National Movement, Socialist, Communist, Labor Strike, Hindi Novel, Illustration. | ||||||
प्रस्तावना |
बीसवीं शताब्दी का द्वितीय दशक राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय दोनों ही दृष्टियो से काफी उथल-पुथल भरा दशक था। प्रथम विश्वयुद्ध की विभीषिका ने दुनिया को पूंजीवाद का वीभत्स चेहरा दिखलाया। इस विश्वयुद्ध में भारतीयों ने स्वराज की अभिलाषा से अंग्रेजों का सहयोग किया था। किंतु बदले में उसे रोलेट एक्ट व जलियांवाला हत्याकांड मिला। महंगाई व बेरोजगारी अपने चरम पर थी। इसी बीच सोवियत रूस में बोल्शेविक क्रांति संपन्न हुई। मार्क्स के विचारों को लेनिन ने व्यावहारिकता के धरातल पर उतारा। जिससे संपूर्ण विश्व का ध्यान सोवियत रूस की ओर आकर्षित हुआ। भारत भी इससे अछूता नहीं रहा भारत में भी समाजवादी विचारों ने दस्तक दी। इन्हीं परिस्थितियों में भिन्न-भिन्न वामपंथी दलों की स्थापना प्रारंभ हुई। जिससे मजदूर आंदोलन को भी बल मिला। भारतीय नवयुवक किसानों व मजदूरों के क्रियात्मक सहयोग से ब्रिटिश साम्राज्यवाद को उखाड़ फेंकने का स्वप्न देखने लगा। फलतः इन उपेक्षित वर्गों के हितों पर भी राष्ट्रीय स्तर पर मंथन प्रारंभ हुआ। युगीन हिंदी उपन्यासकारों ने भी अपने दायित्व को बखूबी समझा। वह न सिर्फ सीधे तौर पर समाजवादी आंदोलन से जुड़े अपितु उनके उपन्यास समाजवादी विचारधारा व कार्य पद्धति के प्रचार प्रसार का जीवंत दस्तावेज बन गये। इन उपन्यासों में समाजवादियों के संगठनो, क्रियाकलापों, उद्देश्यों व विचार पद्धति की व्याख्या के साथ-साथ कृषक-मजदूर वर्ग के शोषण व उत्पीड़न तथा उससे मुक्ति के सवालों को उठाया जाने लगा। जहां तक सवाल समाजवाद और साम्यवाद में अंतर का है तो प्रस्तावित शोध पत्र में दोनों को एक ही दृष्टि से देखा गया है क्योंकि राष्ट्रीय आंदोलन के परिप्रेक्ष्य साधन भिन्नता होते हुए भी दोनों का साध्य एक ही था।
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अध्ययन का उद्देश्य | प्रस्तावित शोध पत्र का उद्देश्य भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में सक्रिय समाजवादी या साम्यवादी धारा के सैद्धांतिक व व्यवहारिक पक्षों से हिंदी उपन्यास व उपन्यासकारों के सरोकार की पटकथा का ऐतिहासिक विश्लेषण करना है ताकि समाजवादी चेतना के प्रचार प्रसार में हिंदी उपन्यास व उपन्यास कारों की भूमिका को समझा जा सके। |
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साहित्यावलोकन |
डॉ. आर.पी. वर्मा के शोध पत्र 'हिंदी उपन्यासों में राष्ट्रवादी स्वर' के अवलोकन से समाजवाद से प्रेरित राष्ट्रीयता की भावना का विवेच्य काल में पता चलता है। यह पत्र क्रांतिकारियों पर समाजवादी विचारों के पड़ते प्रभाव पर प्रकाश डालता है। डॉ. नीतू शर्मा ने अपने शोध पत्र 'समकालीन हिंदी उपन्यासों में पूंजीवाद का स्वरूप' में ब्रिटिश पूंजीवादी नीतियों के प्रति होने वाली प्रतिक्रिया और युवा वर्ग के साम्यवाद व समाजवाद के प्रति बढ़ती निष्ठा को अभिव्यक्त किया है।डॉ. राजकुमार के शोध पत्र 'यशपाल के उपन्यासों में राष्ट्रीयता' से ज्ञात होता है कि प्रथम विश्व युद्ध व सोवियत रूस की क्रांति के पश्चात भारत में समाजवादी विचारों ने किस प्रकार दस्तक दी और मजदूर हितों पर चर्चा केंद्र में आ गई। |
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मुख्य पाठ |
समाजवाद और साम्यवाद की कोई एक निश्चित परिभाषा दे पाना क्लिष्ट कार्य है फ्रांस के 'लाफिगरों' ने इसकी लगभग छः सौ परिभाषायें दी है। अगर बारीकी से देखा जाये तो समाजवाद व साम्यवाद में बुनियादी अंतर यह है कि जहां साम्यवाद लक्ष्य है तो वहीं समाजवाद उस लक्ष्य तक पहुंचाने का साधन। साम्यवाद का अर्थ है कि समाज में सब समान हो तो वही समाजवाद संसाधनों पर समाज के स्वामित्व की बात करता है। साम्यवादी सशस्त्र क्रांति के जरिए व्यवस्था में परिवर्तन करना चाहता है तो वही समाजवाद प्रगतिशील व वास्तविक तत्वों पर जोर देकर संवैधानिक तरीकों से परिवर्तन लाने का पक्षधर है। बावजूद इसके भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के संदर्भ में समाजवाद या साम्यवाद दोनों ही व्यक्ति के उत्थान, सामाजिक वंचन व विषमता, शोषक- शोषित वर्ग की समाप्ति के पक्षधर थे। संपत्ति की विषमता ही समाज में अशांति का मूल कारण रही है ऐसे में राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान इस अशांति से पीछा छुड़ाने के लिए मुख्य तौर पर दो उपाय प्रस्तुत किए गए समाजवाद या साम्यवाद, सर्वोदय अर्थात गांधीवाद। दोनों ही विचारधारायें समता व शोषणहीन समाज की परिकल्पना में विश्वास करती थी। युगीन हिंदी उपन्यासों में दोनों ही दर्शनों का खंडन व मंडन होने लगा। वर्गहीन समाज की भावना ने उपन्यासकारों को भी नई दृष्टि प्रदान की। पराधीन देश की जनता ने साम्राज्यवाद व पूंजीवाद के खात्मे के लिए समाजवादी संघर्ष का जो रास्ता चुना प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े लेखकों ने उसे अपनी लेखनी में उतार उन भावनाओं को स्वर देने का कार्य किया। हिंदी उपन्यास साहित्य में समाजवादी विचारधारा की अवधारणा के जनक महापंडित राहुल सांकृत्यायन थे। आगे चलकर यशपाल अंचल, भैरव प्रसाद गुप्त, भगवती चरण वर्मा, नागार्जुन आदि ने समाजवादी आंदोलन, विचारधारा व कार्यपद्धति को अपने उपन्यासों में यथोचित यथार्थपरक स्थान दिया। प्रथम महासमर की विभीषिका ने श्रमजीवी वर्ग को स्वचिंतन के लिए विवश किया। 1919 के कांग्रेस के अमृतसर अधिवेशन में मजदूर वर्ग के चतुर्दिक विकास हेतु उनके संगठन निर्माण हेतु प्रस्ताव पारित किया गया। यहीं से ट्रेड यूनियन आंदोलन की शुरुआत मानी जाती है। मजदूर वर्ग में समाजवादी चेतना के प्रचार व प्रसार का एकमात्र उद्देश्य खेत-खलिहांनो के साथ-साथ कल-कारखानों में हड़ताल करवाकर ब्रिटिश साम्राज्यवाद को भारत छोड़ने के लिए विवश कर देना था। वैसे तो वर्ष 1920 से ही भारत में समाजवाद का पदार्पण हो चुका था। मानवेंद्र नाथ राय के दिशा निर्देशन में किसान-मजदूर पार्टी की स्थापना हुई और वर्ष 1924 में अखिल भारतीय साम्यवादी दल का गठन हुआ। राहुल सांकृत्यायन ने अपने 'जीने के लिए' उपन्यास में समाजवादी एवं साम्यवादी दोनों ही जीवन दर्शनों को बखूबी उभारा है। रूस-जापान युद्ध में जापान की विजय से भारतीयों में उत्पन्न राष्ट्रीयता का भाव, बंग-भंग, क्रांतिकारी आंदोलन, नरम व गरम दल के बीच हुआ लखनऊ पैक्ट, गांधीवादी आंदोलन की असफलता, नमक सत्याग्रह पर अनास्था कृषक मजदूर आंदोलन की आशावादिता आदि को उपन्यास का कथानक बनाया गया। उपन्यास में 1905 से 1940 तक की राष्ट्रीय आंदोलन के घटनाक्रम का समाजवादी दृष्टिकोण से अंकन किया गया है। राहुल जी का समाजवादी विचारों के प्रति पूर्ण समर्पण हमे उनके 'भागो नही दुनिया को बदलो' उपन्यास में देखने को मिलता है। 1944 में प्रकाशित इस उपन्यास में तीन-चार कृत्रिम पात्रों के कथोपकथन से समाजवाद की सुंदर छवि उभरती है। जब उपन्यास का पात्र सोहनलाल दूसरे पात्र दुक्खू से पूछता है कि "मरकस (मार्क्स) बाबा का रास्ता हत्या का है।" तब सोहनलाल प्रत्युत्तर देते हुए समझाता है "मरकस (मार्क्स) बाबा हत्या का रास्ता नहीं बताते। वह ऐसा रास्ता बताते हैं कि दुनिया में फिर आदमी को आदमी की हत्या की कभी जरूरत ना पड़े। मरकस (मार्क्स) बाबा ने ऐसा रास्ता बताया कि जोंके (पूंजीपति) ही न रह जाए और दुनिया के सारे आदमियों का एक परिवार बन जाए।" लेकिन गांधीजी इन जोको को रखना चाहते हैं और यही जोके हत्या की जड़ है। समाजवादी विचार पद्धति कार्यक्रमों आदि के अतिरिक्त राहुल जी अपने इस उपन्यास में स्वतंत्रता आंदोलन के विविध पहलुओं को समाहित किया है। यशपाल एक प्रमुख क्रांतिकारी एवं समाजवादी उपन्यासकार थे। हिंदी उपन्यास में समाजवादी परंपरा को राहुल जी के पश्चात उन्होंने ही राष्ट्रीय आंदोलन के समानान्तर आगे बढ़ाया। उनके द्वारा 1948 तक लिखे गए समाजवादी उपन्यासों में- 'दादा कामरेड' 'पार्टी कामरेड' 'देशद्रोही' का उल्लेखनीय स्थान है। इसके अलावा 1949 में प्रकाशित 'मनुष्य के रूप' उपन्यास में भी समाजवाद और साम्यवाद के प्रति उनकी गहरी आस्था दिखाई पड़ती है। आजादी के पश्चात यशपाल ने 'झूठा सच' उपन्यास में भी राष्ट्रीय आंदोलन की घटनाओं पर चिंतन-मनन किया है। 'दादा कामरेड' (1941) उपन्यास पर टिप्पणी करते हुए स्वयं यशपाल कहते हैं कि "संसार में आज जो अनेकों वाद है- पूंजीवाद, समाजवाद, गांधीवाद, नाजीवाद आदि। इनके बीच संघर्ष चल रहा है। इन सब की नीव में परिस्थितियों, व्यवस्था व धारणाओं में सामजस्य ढूंढने का प्रयास है।" यह यशपाल का पहला ऐसा उपन्यास है जिसमें क्रांतिकारी आदर्शों को वाणी देने का काम किया गया। मजदूर आंदोलन को महत्व प्रदान किया गया। गांधीवाद का खंडन व साम्यवाद का मंडन लेखक का मूल मंतव्य रहा है। नारी की भूमिका को भी पूंजीवादी कामुकवृत्ति से निकाल समाजवादी स्वच्छंद भाव से उसका चित्रण किया गया है। यशपाल समाजवाद की व्याख्या करते हुए उपन्यास में कहते हैं "हमारा विश्वास है कि प्रत्येक मनुष्य को अपने फल पर पूर्ण अधिकार है। एक मनुष्य द्वारा दूसरे मनुष्य से, एक श्रेणी द्वारा दूसरी श्रेणी से तथा एक देश द्वारा दूसरे देश से परिश्रम का फल छीनना अन्याय है, अपराध है। समाज में लंबे समय से हो रहे इसी शोषण व हिंसा को समाप्त करना ही समाजवादियों का परम लक्ष्य है दादा के रूप में यशपाल ने चंद्रशेखर आजाद को और हरीश के पात्र के तौर पर स्वयं को चुना है। इसके अलावा क्रांतिकारियों की राजनैतिक डकैतियों व मजदूर हड़ताल का भी सुंदर चित्र 'दादा कामरेड' उपन्यास में देखा जा सकता है। 'देशद्रोही' (1943) समाजवादी व क्रांतिकारी चेतना से प्रेरित यशपाल का दूसरा महत्वपूर्ण राजनैतिक उपन्यास है। इसमें वर्ष 1934 में कांग्रेस के विभाजन एवं विभाजन के पश्चात कांग्रेस समाजवादी पार्टी की स्थापना तथा समाजवादी दल बनने के कारणों पर विधिवत प्रकाश डाला गया है। यशपाल अपने उपन्यास में लिखते हैं कि "ज्यों-ज्यों उग्र कार्यक्रम के पक्षधर समाजवादी लोग परिवर्तन की मांग करते जा रहे थे, भद्रता व शांति के तथाकथित पैरोकार शांति के नाम पर प्राचीनता के समर्थक उनके विरुद्ध होने लगे। कांग्रेस के किसी भी कार्यक्रम को पूरा करने के समय यह प्रश्न अनिवार्य रूप से उठ खड़ा होता कि वह कार्य वामपंथी दल के नेतृत्व में होगा या फिर दक्षिणपंथी नेतृत्व में। "इसके अतिरिक्त समाजवादियों द्वारा आर्थिक कार्यक्रमों पर जोर देना साम्यवाद की रीढ़ मजदूर वर्ग व उनके आंदोलन का चित्रण भी उपन्यास में देखने को मिलता है। अंग्रेजी हुकूमत द्वारा साम्यवादी दल पर प्रतिबंध लगाया जाना, तत्कालीन पूंजीवादी वर्ग में साम्यवादियों के प्रति घृणा भाव एवं अगस्त क्रांति के दौरान फासिस्ट विरोधी नीति व समाजवादी सिद्धांतों की व्याख्या भी उपन्यास में की गई है। कुल मिलाकर कांग्रेस की गांधीवादी नीति व साम्यवादी दल की नीति व उनके सिद्धांत के इर्द-गिर्द पूरा कथानक घूमता हुआ नजर आता है।" यशपाल ने अपने 'पार्टी कामरेड' उपन्यास में साम्यवादी दल के सिद्धांत, दलीय अनुशासन के नियमों एवं उसके कार्यकलापों तथा राजनीतिक दर्शन व जीवन पद्धति का बखूबी चित्रण किया है। इसके अतिरिक्त कम्युनिस्टों पर द्वितीय विश्व युद्ध में अंग्रेजो का साथ देने के लिए भी गद्दारी का जो आरोप लगा उसका भी प्रत्युत्तर उपन्यास में देने का प्रयास किया गया है। उपन्यास में उन कारकों पर प्रकाश डाला गया जिसके चलते कम्युनिस्ट अंग्रेजों के साथ खड़े हुये। स्वयं यशपाल 'पार्टी कामरेड' के संदर्भ में कहते हैं कि इसकी विषय वस्तु आज की कहानी है, पाठक के चारों ओर मौजूद परिस्थितियों की कहानी। यशपाल की साम्यवाद के प्रति आस्था उसके 'मनुष्य के रूप' (1949) उपन्यास में और दृढ़ता से दिखाई देती है। इसकी विषय वस्तु द्वितीय विश्वयुद्ध, अगस्त क्रांति, आजाद हिंद फौज, पूंजीवादी अनैतिकता व अत्याचार तथा पुलिस व प्रशासन के दमन चक्र के आस-पास केंद्रित है "समाज में समता व समान अवसर ह्रदय परिवर्तन से नहीं बल्कि संसाधनों पर सबके समान अधिकार से ही संभव है" यशपाल का यही जीवन दर्शन उनके 'मनुष्य के रूप' में उपन्यास से प्रस्फुटित हुआ है। उपन्यास का पात्र धनसिंह जहाँ सर्वहार वर्ग का प्रतिनिधि पात्र है तो वही सोम जैसे कई कृत्रिम पात्र ब्रिटिश साम्राज्यवाद व पूंजीवाद के प्रतिनिधिकर्ता है। उपन्यास में दर्शाया गया कि जिस प्रकार 'सोमा' 'धनसिंह' का शोषण करता है ठीक उसी प्रकार संपूर्ण भारत का शोषण ब्रिटिश साम्राज्यवाद कर रहा है। राहुल सांकृत्यायन व यशपाल की लेखन परंपरा को रामेश्वर शुक्ल 'अंचल' ने आगे बढ़ाया। उनके उपन्यासों में भी स्वाधीनता आंदोलन को दृष्टि में रखकर समाजवादी भाव की व्याख्या की गई है। 'चढ़ती धूप', 'नई इमारत', 'उल्का' उनके कुछ ऐसे ही उपन्यास है 'चढ़ती धूप' उपन्यास का मोहन नामक कृत्रिम पात्र समाजवाद का लक्ष्य स्पष्ट करते हुये कहता है, "हमारा एक युद्ध है.... एक नारा है....... एक लक्ष्य है। हम राज्य चाहते हैं किसानों का जो भूमि के सच्चे स्वामी हैं..... हम राज्य चाहते हैं मजदूरों का जो कल कारखानों के सच्चे अधिकारी है। हमें शोषण का अंत करना है..... जब तक उसका अंत नहीं होता राजनीतिक स्वतंत्रता के कोई मायने नहीं है" मोहन मजदूरों को उनके कर्तव्य के प्रति आगाह करते हुए कहता है। "सरमायदारी का नाश करो... अपने तबके की आजादी के लिए कुर्बानी का समुद्र खोल दो। हमारे तबके की आजादी... किसान-मजदूर की आजादी... किसान-मजदूर की आजादी... हिंदुस्तान की आजादी है।" इसी इंकलाबी समाजवादी दर्शन को अंचल ने अपने उपन्यास में स्पष्ट करने का प्रयास किया है। पंडित मोहन लाल महतो का 'वियोगी का विसर्जन' (1944) उपन्यास भी मजदूर आंदोलन की पृष्ठभूमि पर आधारित है। उपन्यास में ऐसे भ्रष्ट साम्यवादी नेताओं के चरित्र को उजागर किया गया है जिसकी सरकार से मिलीभगत के चलते मजदूर आंदोलन कमजोर पड़ता है। 'इंसान' उपन्यास में कमला नामक कृत्रिम पात्र मजदूर चेतना पर टिप्पणी करते हुए कहता है कि मजदूर अभी केवल नारों को समझता है सिद्धांतों को नहीं। अभी वह सही ढंग से प्रशिक्षित नहीं हुआ है। जब तक वह यह स्वीकार नहीं कर लेता कि साम्यवाद उसकी अपनी चीज है और इसके अतिरिक्त सब माया जाल है तब तक वह अपनी राह निर्धारित नहीं कर सकता। नियन्त्रण उपन्यास का रचनाकार भी समाजवाद पर अपने विचार व्यक्त करते हुए कहता है कि "उत्पादन के जितने भी साधन है उन पर उस वर्ग का प्रभुत्व है जो ना तो श्रम का वास्तविक मूल्य जानता है और ना ही बौद्धिक प्रयोगों का। यह सूदखोर, महाजन, व्यापारी, रिश्वतखोर, हाकिम आदि संगठित रूप से हमारा शोषण करते हैं। भैरव प्रसाद गुप्त का 'मशाल' उपन्यास भी समाजवादी विचारों से प्रेरित है। इसका कथानक द्वितीय विश्वयुद्ध से लेकर आजाद हिंद फौज तक फैला हुआ है। कानपुर के मजदूर आंदोलन को भी उपन्यास में सजीवता से चित्रित किया गया है।
सविनय अवज्ञा आंदोलन के स्थगन एवं भगत सिंह व चंद्रशेखर आजाद की शहादत के पश्चात क्रांतिकारी आंदोलन के अवसान के फलस्वरुप कांग्रेस के भीतर ही एक उग्र समाजवादी धारा उभरने लगी। स्वयं सरकार के गुप्त दस्तावेजों में यह कहा गया कि साम्यवाद और समाजवाद कांग्रेस में विलीन होकर प्रधान्य होता जा रहा है। परिणामतः वर्ष 1934 में पटना कांग्रेस में वामपंथी विचारों से प्रेरित युवा वर्ग ने कांग्रेस सोसलिस्ट पार्टी का गठन किया। हिंदी के बहुत सारे उपन्यासों में कांग्रेस सोसलिस्ट पार्टी बनने के कारको उसके उद्देश्यों व कार्यकलापों का अंकन देखने को मिलता है। यशपाल के 'देशद्रोही' नागार्जुन के 'बलचनामा' उपन्यास में कांग्रेस समाजवादी दल बनने के कारकों पर प्रकाश डाला गया। 'बलचनामा' का पात्र का कहता है कि "मालूम होता है कि कांग्रेस के भीतर ही समाजवादी लोगों का एक गुट तैयार हुआ है, इस दल में बूढ़े लीडर नहीं है... पर भैया सोसलिस्ट का क्या कहना है।" उसके प्रत्युत्तर में एक अन्य पात्र कहता है "कहना यही है कि दो चार साधु महात्माओं के गिड़गिड़ाने से हुकूमत का दिल नहीं पसीजेगा, जब तक समूची जनता आपसी भेदभाव भुलाकर एक साथ उठ नहीं खड़ी होती तब तक अंग्रेज नहीं भागेंगें।" देवराज पात्र कहता है कि कांग्रेस के भीतर पार्थक्य शुरू हो गया है यह पार्थक्य आर्थिक कार्यक्रम के कारण है। 'नई इमारत' उपन्यास में अंचल समाजवादी दल के उद्देश्य पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं कि समाजवादियों का उद्देश्य कांग्रेस के भीतर रहकर दबाव समूह के रूप में कार्य करना है ताकि कांग्रेस के राइटविंग को फासिज्म की ओर जाने से रोका जा सके। उपन्यास का एक पात्र कहता है कि 'हम राष्ट्रवादी समाजवादी हैं।' समाजवादी नेता-बाबू संपूर्णानंद, आचार्य नरेंद्र देव, जय प्रकाश नारायण आदि के नेतृत्व में युवा वर्ग तेजी से समाजवादी दल की ओर आकर्षित हुआ। 'बलिदान' उपन्यास के पात्र गोपा, नलिन, रागिनी भी सांकेतिक रूप में समाजवादी दल का हिस्सा है। वह दिल्ली में समाजवादी नेताओं की एक बैठक बुलाते हैं। जहां आचार्य नरेंद्र देव, जय प्रकाश नारायण, अच्युत पटवर्धन, बाबा राघव दास आदि सहभागी है। जयप्रकाश नारायण अपने वक्तव्य में कहते हैं- "ईश्वर के भरोसे पर देशी शस्त्रों से युद्ध करना पड़ेगा या मरना पड़ेगा... फौजो में बगावत का मंत्र फूंक दो सन 1857 की तरह आग धंधेकेगी... उससे ही स्वतंत्र भारत निकलेगा। मुंशी प्रेमचंद जिन्होंने किसान के हल की मूठ देखी थी बैल की चाल परखी थी वह भी एक दृढ़ गांधीवादी होने के बावजूद युगीन समाजवादी प्रभाव से अछूते नहीं रहे। उनके 'गोदान' उपन्यास में यत्र तत्र समाजवाद के प्रति बढ़ती उनकी आस्था परिलक्षित हो ही जाती है। चाहे वह ग्रामीण अर्थव्यवस्था व सामंती शोषण का चित्रण हो या फिर शक्कर मिल मजदूरों की हड़ताल का चित्रण हो। उस समय प्रेमचंद्र प्रगतिशील लेखक संघ के कर्ता-धर्ता भी थे उन्होंने समाजवादी दल व फारवर्ड ब्लाक की स्थापना से कांग्रेस अधिवेशनो में हो रहे समाजवादी विचारों के संघर्ष को भी 'गोदान' में चित्रित किया है। वे लिखते हैं "समाजवाद आजकल विचार का मुख्य विषय है और हमें ऐसा प्रतीत होने लगा है कि देश का उद्धार किसी ना किसी रूप में समाजवाद के हाथों ही होगा।" कानपुर षड्यंत्र केस और मेरठ षड्यंत्र केस समाजवादी आंदोलन के लिए करारा आघात थे। भला हिंदी उपन्यासकार इन्हे चित्रित करने में कैसे पीछे रहता। रांगेय राघव ने कानपुर में हुई ऐतिहासिक हड़ताल का अपने उपन्यास में जीवंत चित्रण किया है। ब्रह्मदत्त व संकर जैसे पात्र हड़ताल का आयोजन करते हैं। ब्रह्मदत्त मजदूरों को समझाता है। "देश की बात रोटी की बात है और रोटी की बात देश की बात है। अगर बात रोटी कि नहीं तो वह देश की नहीं हो सकती।" परंतु इसे समझने वाले मजदूर बहुत कम थे। उन दिनों मजदूर चेतना इतनी विकसित नहीं हुई थी। बावजूद इसके देखते ही देखते हजारों की तादात में मजदूर लामबंद हो गए। सरकार ने मजदूर नेताओं पर षड्यंत्र रचने का आरोप मढ़ दिया। अंततः चार मजदूर नेताओं नलिन सेन गुप्त, शौकत उस्मानी, मुजफ्फर अहमद, श्रीपाद अमृत डांगे को 4 वर्ष की सजा सुनाई गई उन पर क्रांतिकारी गतिविधियों से संलिप्त होने का आरोप लगाया गया। सरकार को लगा कि उसने साम्यवादियों की कमर तोड़ दी है किंतु अंग्रेजी जुल्मों के विरुद्ध अबुझ अंगारा दहक उठा जिससे कानपुर का अत्याचारी वर्ग थर्रा गया। 'मशाल' उपन्यास का कामरेड युसुफ पात्र ऐलान करता है- 'हम शांतिपूर्वक हड़ताल चलाना चाहते हैं लेकिन मिल मालिक व पुलिस प्रशासन की मिलीभगत से हड़ताल रोकने का अगर प्रयास करते हैं जो मजदूर सभा अपनी पूरी ताकत से मुकाबला करेगी। कानपुर में मजदूर व मिल मालिको का ऐसा संघर्ष होगा जो मजदूर वर्ग के इतिहास में अमर हो जायेगा। कानपुर षड्यंत्र केस के पश्चात 1927-28 में एक बार पुन: बम्बई में मजदूरों की हड़ताल हुई। इसी प्रकार की हड़ताल बंगाल में भी हुई। जब हड़ताल कमजोर पड़ने लगी ऐसे में सरकार ने ट्रेड यूनियन नेताओं पर एक बार पुनः प्रहार किया। मजदूर नेताओं को गिरफ्तार कर मेरठ लाया गया। उन पर ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध कम्युनिस्ट षड्यंत्र रचकर विद्रोह कराने का आरोप लगाया गया। यही मेरठ षड्यंत्र केस था। जिसमें कुल 31 अभियुक्तों पर मुकदमा चलाया गया। यह षड्यंत्र केस अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का विषय बना। सरकार की चहु ओर से आलोचना हुई। उल्लेखनीय है अभियुक्तों ने ब्रिटिश साम्राज्य का खात्मा करने की बात स्वयं अपनी एक अपील में स्वीकार की। राहुल सांकृत्यायन ने इसी ऐतिहासिक घटना का यथार्थपरक विवरण अपने उपन्यास में दिया है। अभियुक्तों की नामावली भी बिल्कुल सही है। मेरठ षड्यंत्र केस में अभियुक्तों पर लगे आक्षेप का व्याख्यात्मक वर्णन 'निर्देशक' उपन्यास में देखने को मिलता है। "वे सब अट्ठारह से अट्ठाईस वर्ष के नौजवान थे उनके ऊपर पुलिस अफसरों की हत्या व बादशाह के खिलाफ षड्यंत्र रचने और कई अनर्गल आरोप लगाए गये। इसी प्रकार का छायांकन 'अचल मेरा कोई नहीं' उपन्यास में देखने को मिलता है। मजदूर नेताओं की गिरफ्तारी से विचलित अचल का कथन है कि "एक मुकदमा खत्म नहीं हुआ सरकार समाजवादियों पर दूसरा मुकदमा चलाने को तैयार है। इसका स्वरूप सरकार के खिलाफ हथियार इकट्ठे कर षड्यंत्र रचने का है।" मेरठ षड्यंत्र के दौरान पुलिस ने घरों में छापेमारी व तलाशियां ली थी। भगवती चरण वर्मा ने इन कार्यवाइयों को संक्षेप में पात्रों के कथोपकथन द्वारा अभिव्यक्त किया है मेरठ कस्पिरेसी में कुल 32 लोग पकड़े गए थे जिसमें एक को पहले ही छोड़ दिया गया था। बाकी किसी को जमानत नहीं मिली थी इसी का विवरण उनके उपन्यास में मिलता है। |
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निष्कर्ष |
इस प्रकार यदि राष्ट्रीय आंदोलन का गंभीरतापूर्वक अध्ययन किया जाए तो यह स्पष्ट हो जाता है कि इसमें समाजवादी चेतना व मजदूर आंदोलन की विशेष भूमिका रही है। कानपुर, कोलकाता, मुंबई, पंजाब आदि जगहों पर समय-समय पर अनेक हड़ताले हुई है। इन हड़तालों का चित्रण अनेक हिंदी उपन्यासों में हुआ है। 'टेढ़े-मेढ़े रास्ते', 'निदेशक', 'दादा कामरेड', 'देशद्रोही', 'पार्टी कामरेड' जैसे उपन्यासों के कथानक तो मजदूर आंदोलन की ही भित्ति पर खड़े हैं। समाजवादी और साम्यवादी विचार पद्धति व समाजवादियों के संघर्ष का चित्रण 'राहुल सांकृत्यायन', 'यशपाल', 'अंचल', 'भैरव प्रसाद गुप्त' आदि के उपन्यासों में बहुतायत में पाया जाता है। इसके अलावा द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान साम्यवादियों की भूमिका पर जो आरोप लगाए गये उसका भी प्रत्युत्तर 'यशपाल' व 'अचल' के उपन्यासों में देखा जा सकता है। समाजवाद के सैद्धांतिक व व्यावहारिक पक्ष के विविध चित्र यत्र-तत्र उपन्यासों में उकेरे गए हैं। राष्ट्रीय आंदोलन में राजनीतिक दर्शन व विचारधारा की भिन्नता के चलते समाजवाद से प्रेरित उपन्यासों में समाजवाद के मंडन हेतु गांधीवाद के खंडन पर खास जोर दिया गया। ठीक इसके उलट बात गांधीवाद से प्रेरित उपन्यासों के संदर्भ में भी कही जा सकती है। अगर संक्षेप में कहें तो उपन्यासकारों में युगीन राजनीति को अपने चक्षुओ से देखने और परखने का प्रयास किया तथा समाजवाद और साम्यवाद के पक्ष व विपक्ष में सविस्तार अपने उपन्यासों में चर्चा की है। |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1. डॉक्टर ईश्वर दास जौहर; हिंदी उपन्यास साहित्य में राजनैतिक व राष्ट्रीय चेतना (स्वाधीनता आंदोलन के परिप्रेक्ष्य में), शारदा प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण, सन् 2012
2. डॉ देवीदत्त तिवारी; हिंदी उपन्यास; स्वतंत्रता आंदोलन के विविध आयाम; तक्षशिला प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण, सन् 1985
3. नरेंद्र देव (आचार्य); राष्ट्रीयता और समाजवाद, ज्ञानमंडल लिमिटेड, बनारस, सन् 2006
4. भूपेंद्रनाथ सान्याल; साम्यवाद की ओर, श्री सेवाप्रेस, इलाहाबाद, सन् 1931 से (पूर्व इंपीरियल रिकॉर्ड के आधार पर)
5. रामेश्वर शुक्ल (अंचल), नई इमारत, किताब महल, इलाहाबाद, सन् 1955
6. प्रेमचंद; गोदान, सरस्वती प्रेस, बनारस, सन् 1956
7. यशपाल; दादा कामरेड, विप्लव कार्यालय, लखनऊ, सन् 1958
8. यशपाल; पार्टी कामरेड, विप्लव कार्यालय, लखनऊ, सन् 1958
9. यशपाल; देशद्रोही, विप्लव कार्यालय, लखनऊ, सन् 1962
10. यशपाल; मनुष्य के रूप, विप्लव कार्यालय, लखनऊ, सन् 1962
11. राहुल सांकृत्यायन; जीने के लिए, किताब महल, इलाहाबाद, सन् 1969
12. राहुल सांकृत्यायन; भागो नही दुनिया को बदलो, किताब महल, इलाहाबाद सन् 1948 तृतीय संकरण |