ISSN: 2456–5474 RNI No.  UPBIL/2016/68367 VOL.- VII , ISSUE- I February  - 2022
Innovation The Research Concept
राजेन्द्र मोहन भटनागर के ऐतिहासिक उपन्यासों में धर्म का स्वरूप
Form of Religion in The Historical Novels of Rajendra Mohan Bhatnagar
Paper Id :  15816   Submission Date :  2022-02-02   Acceptance Date :  2022-02-11   Publication Date :  2022-02-22
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संजय कुमार मीना
शोध छात्र
हिंदी
एम्.डी.एस.यू., अजमेर
राजकीय महाविद्यालय, टोंक,राजस्थान
भारत
रेणु वर्मा
सह - प्राध्यापक
हिंदी
राजकीय महाविद्यालय
टोंक, राजस्थान
सारांश
भारतीय समाज का संस्कृति व धर्म के नाम पर विभाजन करने का प्रयास किया गया। समाज को धर्म जाति वंश और परम्पराओं से जोडा गया जिसे सही दिशा देने का कार्य भारतीय साहित्यकारों ने किया है भटनागर ने भी इस दिशा अच्छा कार्य उपन्यासों के माध्यम से किया है।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Tried to divide Indian society, culture, religion, society was connected with religion, caste, lineage and traditions, which Indian litterateurs have done the work of giving the right direction, Bhatnagar has also done good work in this direction through novels.
मुख्य शब्द संस्कृति, धर्म, धार्मिक और सांस्कृतिक, समाज।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Culture, Religion, Religious and Cultural, Society.
प्रस्तावना
राजेन्द्र मोहन भटनागर ने तत्कालीन समाज के धार्मिक और सांस्कृतिक पक्ष को भी प्रस्तुत किया है। मध्ययुगीन भारत वैसे भी धर्म और संस्कृति के दृष्टिकोण से काफी परिवर्तनशील और महत्त्वपूर्ण रहा है। उस समय प्राचीन संस्कृति पुरानी पडती जा रही थी। नई संस्कृति के विकास से धर्म पर भी प्रभाव पड रहा था। अंग्रेजी शासन के कारण वैज्ञानिक प्रगति और शैक्षिक विकास हुआ। भारतीय व्यक्त्ति भी अपने मन-मस्तिष्क को इस ओर लगाने लगा। विकास के रूप में कुछ अच्छे और कुछ बुरे प्रभाव भारतीय समाज पर पडे। प्राचीन संस्कृति पतन होने लगी नैतिक मूल्यों का हृास हुआ। अध्यात्म का स्थान भौतिकता ने ले लिया। भारतीय समाज का दर्शन लुप्त होने लगा इसलिए विभिन्न महापुरूषों ने इस भटकाव को रोकने का प्रयास किया। राजेन्द्र मोहन भटनागर ने अनेक महापुरूषों के प्रयासों का उल्लेख अपने उपन्यासों में किया है उनकी जीवनियां प्रेरणास्रोत रही। इन महापुरूषों ने भारतीय संस्कृति और धार्मिक प्रगति के बारे में सोचा और प्रयासो से देश को परतन्त्रतामुक्त किया। जब मानव की स्वस्थ सम्पन्न व विवेकसंगत समाज की कल्पना निराधार हुई जा रही थी तो उसका भारतीय मूल्यों, धर्म एवं संस्कृति से भी विश्वास उठने लगा था परन्तु विवेकानन्द ने अपने बहूमूल्य विचारों से भारतीय समाज की इस असमंजसपूर्ण स्थिति को दूर किया। वे धर्म को अपवित्र या मार्ग भ्रष्ट करने वाला नही मानते थे। उनके विचारानुसार - ‘‘धर्म पाप नही है। धर्म पतन का कारण भी नही है। नही..... नही, असत्य है। कुछ समाज सुधारकों ने कुछ धर्मोचार्य पुरोहितों के अन्याय अत्याचारों से पीडित जगत की और उसके मिली अवनति और पराजय को जी भर कर धर्म के नाम पर लांछित किया है। उन सबने धर्म के दुर्भेद्य दुर्ग को ध्वस्त करना चाहा है। धर्म से जाति को जोडा। समाज के पतन का मूल कारण धर्म को माना। यही उनकी सबसे बडी भूल थी। जाति-भेद एक सामाजिक विज्ञान है। यही कारण है कि धर्म सबके आक्रमणों को सहता हुआ आज भी समाज का सिरताज बना हुआ है। धर्म जाति नही देता और न वर्ग बनाता है, अपितु वह उनको तोडता है और मानव मन को मानव मन से जोडता है।[1] उन्होनें सभी प्रकार आकांक्षाओ के त्याग करने वाले को सुखी माना। स्वामी सच्चिदानन्द भी संस्कृति पर विचार प्रकट करते हुए लिखते है ‘‘आज हमारी संस्कृति बची हुई है इसका कारण ऊपर का वर्ग नही, निचला वर्ग है। प्रायः पंडितो ने गुमराह करने की कोशिश की है, अंधविश्वास फैलाया है और धार्मिक तानाशाही का अवलम्ब लिया है। ये ही वर्ग हमारी गुलामी के लिए जिम्मेदार है।’’[2] विचारों की गुलामी ही सही मायने में गुलामी होती है। संस्कृति का भटकाव वास्तव में देश का भटकाव होता है। अतः संस्कृति को बचना भी हमारा कर्तव्य हैं। राजेन्द्र मोहन भटनागर ने विवेकानन्द एवं सच्चिदानन्द जैसे महापुरूषों के विचार प्रस्तुत करके धर्म एवं संस्कृति की परिभाषाएं और रूपरेखा सुनिश्चित की है। उन्होनें विवेकानन्द के गुरू रामकृष्ण परमहंस के विचारों को भी स्पष्ट किया है। नरेन्द्रदत्त यानी विवेकानन्द रामकृष्ण परमहंस से पूछते है कि धर्म क्या है ? तो वे उत्तर देते हए धर्म को व्याख्यायित करते है- ‘‘मानव धर्म से ऊपर कोई धर्म नही है। धर्म का अभिप्रायः सेवा है। जहाँ निःस्वार्थ भाव है, वही धर्म है। निःस्वार्थ सेवा के अभाव में धर्म अधर्म है। अधर्म से पाप फैलता है। पाप से क्रोध, अहम, दुराचार, अशान्ति और शत्रुता बढती है।’’[3] अपने गुरू के विचारों से प्रभावित होकर विवेकानन्द धर्म को मानव धर्म के रूप में सबके समक्ष प्रस्तुत किया। इस मानव धर्म का प्रचार-प्रसार केवल भारत ही नहीं बल्कि विदेशों में भी किया और सभी धर्म देश अपनी संस्कृति का प्रचार-प्रसाद करते हैं।
अध्ययन का उद्देश्य
धर्म और संस्कृति को प्राचीन भारत के आधार पर बनाये रखना मध्यकालीन और अंग्रेजी शासन में भारतीय संस्कृति और धर्म को विखण्डित करने का कार्य किया परंतु भारतीय लेखक और कवियों ने धर्म और संस्कृति को बनाये रखने का कार्य किया वर्तमान में भी इसे बचाये रखने के लिए कार्य करना प्रमुख उद्देश्य है।
साहित्यावलोकन
स्वामी सच्चिदानन्द के विचार प्रस्तुत करके राजेन्द्र मोहन भटनागर ने संस्कृति को सही अर्थ में प्रस्तुत किया है। ‘‘मन्दिर हमारी संस्कृति नही है। यो हर घर मन्दिर है और उसमें रहने वाले देवी देवता है। हम इन मूर्तियों के भरोसे रहे तभी तो सोमनाथ मन्दिर कई बार लुटा, मूर्ति भंजक जब काशी तक पहुंचे तब पुजारियों ने उस पाषाण लिंग को कुए में डाल दिया और वेणीमाथव को एक ब्राह्मण के घर छिपाया। क्यो ? वे अपनी रक्षा नही कर सके, तो हमारी रक्षा करने का प्रश्न ही नहीं उठता।’’[4] धर्म और संस्कृति हमारी रक्षा के लिए होते है। यदि वे हमारी रक्षा नही कर सकते तो अर्थ है कि उन धारणाओं में कमी है। धर्म और संस्कृति को सही दिशा देश समाज का कार्य हैं। राजेन्द्र मोहन भटनागर ने इन महापुरूषों व योगी ज्ञानियों के द्वारा धर्म और संस्कृति का स्पष्टीकरण किया है कि धर्म न तो जातिमूलक है और न ही मूर्ति पूजा का आधार है। अपितु इनमें वे सभी आदर्श आते है जिनमें इनका रूप श्रेष्ठ कहलाता है।
मुख्य पाठ

भारतीय समाज और धर्म

भारतीय समाज में धर्म का आरम्भ से ही बहुत महत्व रहा है। धर्म शब्द ‘‘धृ’’ धातु से निर्मित है। जिसका अर्थ ‘‘धारण करना’’ होता है।  विद्वानो ने धर्म को नियम भी बताया है। धर्म ऐसे नियम से जुडा होता है जो आत्मा और परमात्मा को मिलता है। मानवीय मूल्यों को बढाता है। हिन्दी शब्दकोश के अनुसार, धर्म, को ईश्वर श्रद्धा, पूजा-पाठ तथा  लौकिक व सामाजिक कर्तव्यों से जोडा गया है।’’[5]  महर्षि कणाद ने धर्म को लौकिक सुख से जोडते हुए कहा है ‘‘जिसके द्वारा लौकिक सुख और अन्तिम लक्ष्य की सिद्धि हो सके, वही धर्म है।’’[6]  पौराणिक शब्दकोश में धर्म को देवता माना है। संस्कृत शब्दार्थ कौस्तुभ के अनुसार ‘‘धरती लोकान् इति धर्मः।’’[7] अर्थात् जिसके करने से करने वाले का इस लोक में अभ्युदय हो और परलोक में मोक्ष की प्राप्ति हो, वही धर्म है। धर्म का उद्देश्य मानव और समाज का कल्याण करना है। धर्म को विश्वास और प्राकृतिक शक्तियों से जोडा गया है। इस विषय में अर्नाल्ड ग्रीन के विचार है ‘‘धर्म ऐसे विश्वासों की प्रतीकात्मक क्रियाओं की प्रणाली है जो ज्ञान की अपेक्षा विश्वास द्वारा शासित होती है और जो मनुष्य की अनदेखी एवं नियन्त्रण क्षेत्र से दूर अति आवश्यक शक्ति के रूप में संबंध कर देती है। सर जेम्स फ्रेजर धर्म को मानव से श्रेष्ठ उन शक्तियों की सन्तुष्टि या आराधना मानते है। कि जिनके संबंध में यह विश्वास किया जाता है  कि वे प्रकृति और मानव जाति को मार्ग दिखाती है।[8]  धर्म को मानव प्रवृत्ति से जोडते हुए डॉ. डी आर सचदेव कहते है ‘‘धर्म अति मानवीय शक्तियों के प्रति  मनोवृत्ति है।[9]  धार्मिक व्यक्ति  समाज को प्रभावित करता है। भारतीय समाज में धर्म सर्वोपरि माना है। डॉ. राधाकृष्णन धर्म के बारे में लिखते है ‘‘धर्म का उद्देश्य चिन्तन या भाव समाधि नही है। अपितु जीने की धारा के साथ एकात्म्य स्थापित करना और उनके लिए सृजनात्मक प्रगति में भाग लेना है। धर्म परायण मनुष्य उसके ऊपर भौतिक प्रकृति या सामाजिक दशाओं द्वारा थोपी गई मर्यादाओं से ऊपर उठ  जाता है और सृजनात्मक उद्देश्य विशालतर बनाता है। धर्म एक गतवर (गत्यात्मक) प्रक्रिया है, सृजनशील है।’’[10] धर्म मानव समाज के लिए मार्गदर्शक ही नही बल्कि उसे मोक्ष प्रदान करने की भूमिका भी निभाता है। ‘‘धर्म एक ऐसा तरीका है जिसके माध्यम से मनुष्य अपनी अभिलाषाओं को प्रकट कर उन पर विजय प्राप्त कर सकता है।’’[11]   धर्म संयम प्रदान करता है और संयम से व्यक्ति व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन सुखमय बनाता है और आडम्बरयुक्त हो जाता है तो समाज का पतन भी कर देता है। मध्ययुगीन भारत में इसका उदाहरण है। भारत-पाक विभाजन की पृष्ठभूमि धर्म ही है जिसे राजेन्द्र मोहन भटनागर ने अत्यन्त गंभीरता से प्रस्तुत किया है। राजनीति भी यदि धर्म से प्रभावित होती है तो समाज और मानव जीवन को भी प्रभावित करती है। जिसे भटनागर ने प्रमुख रूप से उभारा हैं। 

भारतीय समाज और संस्कृति

किसी भी देश की संस्कृति उसकी पहचान होती है समाज मानव से जुडा होता है और मानव अध्यात्मिक नैतिक व आचार विचार संस्कृति से प्रभावित होते है। संस्कृति शब्द की उत्पत्ति संस्कार शब्द से हुई है। संस्कार शब्द सम् उपसर्ग ‘‘कृ’’ धातु में धअ् प्रत्यय लगने से बनता है। इसका मूल अर्थ सुधारना होता है। हिन्दी शब्दकोश में संस्कृति शब्द का अर्थ संस्कृत रूप देने की क्रिया, परिष्कृति और संस्कार आदि रूपों में  लिया गया है।[12]   हिन्दी भाषा एवं साहित्य कोश में डॉ. गणपति चन्द्र गुप्त लिखते है- सभ्यता की तरह संस्कृति को सुनिश्चित कर दिया गया है। सभ्यता का संबंध मनुष्य के ब्राह्मण से है और संस्कृति का संबंध मनुष्य की मानसिकता से है।’’[13]  संस्कृति हमें वर्ग व समाज में रहने के संस्कार सिखाती है और संस्कृति से समाज प्रमुख रूप से प्रभावित होता है। 

मैकाइवर और पेज  संस्कृति को केवल दैनिक व्यवहार से संबंधित ही नही मानते बल्कि मनोरंजन में  संस्कृति को निहित मानते है- संस्कृति हमारे दैनिक व्यवहार में कला में, साहित्य में, धर्म में मनोरंजन में तथा आनन्द में पाए जाने वाले रहन सहन और विचार के तरीकों में हमारी प्रवृत्ति की अभिव्यक्त है।’’[14]  संस्कृति मानव जीवन से जुडी है। डॉ. राधाकृष्ण संस्कृति को जीवन दर्शन से जोडते हुए कहते है। ‘‘संस्कृति मानव को प्रभावित करती है जिससे समाज भी प्रभावित होता है। राष्ट्र का सृजन भी संस्कृति पर आधारित होता है। संस्कृति धार्मिक दृष्टिकोण से राष्ट्र को प्रभावित करती है।  डॉ. सत्यकेतु के अनुसार ‘‘चिन्तन द्वारा अपने जीवन को सरस, सुन्दर और कल्याणमय बनाने के लिए मनुष्य जो प्रयत्न करता है उसका परिणाम संस्कृति के रूप में प्राप्त होता है।[16]  संस्कृति जीवन जीवने का एक तरीका है। यदि मानव में  संस्कार नहीं होंगे तो वह समाज के साथ व उसके अनुरूप नहीं ढल पाएगा। मानव द्वारा समाज को जानना भी अतिआवश्यक है और वह यह कार्य संस्कृति से ही कर सकता है। रामधारी सिंह दिनकर के अनुसार ‘‘संसार भर में जो भी सर्वोत्तम बातें जानी या कही गयी, उनसे अपने आपकों परिचित करना संस्कृति हैं संस्कृति शारीरिक या मानसिक शक्तियों का प्रशिक्षण दृढिकरण या विकास अथवा उससे उत्पन्न अवस्था है। यह मन, आचार अथवा रूचियों की परिष्किृति या शुद्धि है[17]  संस्कृति का अर्थ अत्यन्त व्यापक है। संस्कृति केवल मानव संस्कार तक ही नहीं बल्कि उसके पूरे जीवन को प्रभावित करती है।[15] इसलिए इसे सैद्धान्तिक प्रक्रिया कहा जाता है। भारतीय संस्कृति इसलिए व्यापक है क्योकि भारत एक बहुभाषीय, बहुजातीय देश है। इसलिए काफी संस्कृतियां इसमें  सम्मिलित है। डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ‘‘संस्कृति को मनुष्य के विविध साधनो की सर्वोत्तम परिणति मानते है।[18]  इससे अलग विचार बिन्दु डॉ. बलदेव प्रसाद मिश्रा के है। ‘‘संस्कृति मानव जीवन के विचार आधार का परिमार्जित रूप है।[19]  संक्षिप्त रूप में कहा जा  सकता है धर्म, नीति  साहित्य, शिल्प, कला, बुद्धि, सामाजिक परिवेश व परम्पराएं आदि सब का विशाल भण्डार ही संस्कृति है। संस्कृति समाज के प्रत्येक क्षेत्र में समाहित है। भारतीय संस्कृति मं इन्ही गुणों के कारण पूरे विश्व को प्रभावित कर रखा है तथा हर देश की कला एवं संस्कृति अलग-अलग हैं और वह सभी को प्रभावित करती हैं। 

भारतीय समाज की रूढिवादिता व जड़ परम्पराएँ

विकायशील देशों में सबसे बडी व्यथा यही होती है कि वे अपने पिछडेपन के कारण उन्नति नही कर पाते। उनकी परम्पराएं अत्यन्त जटिल होती है। जिन्हें तोड पाना अत्यन्त कठिन होता है। भारत में भी पुरानी रूढियों व परम्पराओं में जकडा हुआ समाज व्याप्त रहा है। धाार्मिक और सांस्कृतिक भिन्न्ताओं ने इसे और अधिक जड बना रखा है। जिसे सामाजिक रूप से हर वर्ग, क्षेत्र प्रभावित होते हैं।

अनिरूद्ध झा इन परम्पराओं को प्रथा को रूप में व्यक्त  करते हुए कहते है ‘‘प्रथा की सतह में व्यक्ति दूसरों की नकल करता है पर अन्तःकरण की सतह में अपने समाज की प्रथाओं पर विचार विमर्श करता है। इस विचार विमर्श के फलस्वरूप यह स्थापित प्रथाओं के संबंध में विभिन्न निष्कर्षो पर पहुँचता है। इसके कारण वह पता चलता है कि कुछ प्रथाएं जो पहले लाभदायक थी अब नही है बल्कि वे समाज मे हानिकारक हो जाती है।[20]  जब व्यक्ति इस स्थिति का मूल्यांकन करता है और हानियों को परखता है तो अनिरूद्ध इसका पालन न करना आवश्यक मानते है- व्यक्ति उन नैतिक नियमों का पालन करना छोड देता है जिनका अर्थ तथा जिनकी उपयोगिता वह नही समझता। इसका समाज पर बडा बुरा असर होता है । अतः हमें परम्परागत प्रथाओं का परित्याग तभी करना चाहिए जब हम यह देख पाएं कि निश्चित रूप में हानिकारक है।[21]  क्योंकि यही परम्परागत प्रथाएं एवं रूढिया फिर संघर्ष पैदा करती है।

राजेन्द्र मोहन भटनागर ने केवल स्वतंत्रता प्राप्ति के संबंधित संघर्ष का शब्द चित्र ही नही खींचा है बल्कि स्वातत्र्य पूर्व भारत की भी दशा प्रस्तुत की है। विभिन्न प्रकार के धर्म व सम्प्रदायों और उनकी संस्कृतियों ने एक लम्बे संघर्ष के बाद अपनी संभव स्थिति प्राप्त की है।

राजेन्द्र मोहन भटनागर ने दंश नामक उपन्यास में ऐसी ही जडता का परिचय दिया। राजकुमार धनुर्विधा के लिए गुरू प्राप्त कर सकते है परन्तु भील संस्कृति का युवक नही। पूर्व जन्म नामक धारण को संकीर्ण विचारों के साथ बांधा गया है। एकलव्य को गुरू द्रोणाचार्य ऐसी रूढिवादिता के बारे में बताते है - ‘‘मनुष्य को अपनी मर्यादा में  रहना शोभा देता है। प्रकृति ने भी सबकों एक सा नही बनाया है। हर एक में अन्तर रखा है। वही अन्तर मनुष्य की सीमा निर्धारित करता है। माना कि तुम एक अच्छे धनुर्धर के गुण रखते हो, राजकुमारों के साथ प्रशिक्षण लेने की योग्यता क्षमता भी रखते हो, परन्तु तुम राजकुमार नही हो। तुम इस जन्म में भी पूर्व जन्म के परिणामों से बंधे हुए हो। अतः तुम राजकुमार के साथ युद्ध नहीं कर सकते हैं। 

अन्तर का यह कारण भी है। पूर्व जन्म के परिणाम भोगना हर छोटे-बडे मनुष्य की नियति है। यही राजा और रंक होने की अन्तर्कथा है। पूर्व जन्म के परिणाम तुम्हारे वर्तमान का रास्ता रोक रहे है। पहले तुम पूर्व जन्म के बंधनों से मुक्त होने की दिशा में आगे बढो।[22]  ऐसी धारणाएं परम्परा का रूप ले लेती है और परम्परा रूढि बन जाती है।

एकलव्य की शिक्षा-दीक्षा को लेकर सुदास ने जो सन्देह स्पष्ट प्रकट किया वह भी इसी रूढिवादी परम्परा का सत्य है। ‘‘सच यह है कि शिक्षा दिक्षा देने वाले प्रायःब्रह्मण होते है उनका समूचा गणित यह कहता है राज्य की सेवा करें क्योंकि वहां से उन्हें सम्मान, यश और धन तीनों प्रकारों का विशेष लाभ रहता है। मुझे याद नही पडता कि कभी किसी  ऋषि-महर्षि ने किसी भील को शिक्षा दी हो।[23]      जो सदा से चलता आ रहा था वही हुआ यह सच था एकलव्य को भी इसके लिए बहुत बडा मूल्य चुकाना पडा। गुरू द्रोणाचार्य समाज की रूढीवादिता से बाधित एकलव्य को अपना शिष्य नही मानते। इसलिए इन्होनें गुरू दक्षिणा में उससे उसका अगूंठा मांग कर उसे सदा के लिए अपाहिज दिया। समाज को उस समय भी विभेद उत्पन्न करने का कार्म किया। 

एकलव्य की विडम्बना को देखते हुए बाबा ने कहा ‘‘एकलव्य ये बडे लोग आज से नही सदियां से इसी प्रकार जन शक्ति की मेधा को ठगकर निष्क्रिय करते आ रहे है और मुझे लगता है कि आगे भी यह क्रम जारी रहेगा। कभी थमेगा नही। अभागी, उपेक्षित और समर्पित पीढी को विष दंश की अदृश्य असहनीय पीडा हर युग में भोगनी पडेगी।[24]  युगों-युगों से चलने वाली रीत ही इतनी कठोर हो जाती है कि उसके प्रति लोगों की मानसिकता बदलनी भी मुश्किल हो जाती है।

ये जड़ परम्पराएं समाज को खोखला कर देती है। इन पर आधारित संस्कृति का पक्ष इतना कमजोर हो जाता है कि मानवता भी व्यथित हो जाए। डॉ. अम्बेडकर अछूतों की स्थिति पर गंभीरता से चिन्तन करते हुए ऐसी ही परम्पराओं की और संकेत करते है ‘‘मलाबार के अछूतो की दशा से वे बिलख पडते थे क्योंकि उन्होने स्वयं देखा था कि मलाबार के ब्राह्मण बहुत कट्टर थे। वे अपनी स्त्रियों को भी शूद्र मानते थे। वहां अछूत ऊंचे मकान नही बना सकते थे। दूध घी नही खा सकते थे। घुटनों के नीचे कपडे नही पहन सकते थे सिर पर बाल नही रख सकते थे। सुबह 11 बजे से पहले बाजार नही जा सकते थे[25]  अछूतो के प्रति घृणा रूढियां जितनी अधिक जटिल होती है उतना ही इनको तोडना कठिन हो जाता है। जिसे वर्तमान में  भी ऊँच नीच का भाव समाज से समाहित हैं। 

निष्कर्ष
हिन्दू जाति का यह भाग ऐसी ही परम्पराओं का दुख झेल रहा था डॉ. अम्बेडकर इन रूढियो को तोडना चाहते थे। पढ़ लिखकर ओर अमेरिका जैसे देश मे रहकर वे जो देख को जान नहीं पाए, उससे वे चाहकर भी अपने आपको समझा नही सकते थे। यही उनकी लाचारी थी जो उन्हें अन्दर ही अन्दर विद्रोहाग्नि से जलाती रहती थी। वह कैसा समाज है जो अपनी स्वतंत्रता का अलख जगा रहा था और अपने भाइयों को आजाद करना नही चाहता। कैसी हिन्दू आबादी का एक तिहाई भाग गुलामों से बदतर जीवन जी रहा है। वे स्वयं कुछ होकर भी उपेक्षित है।[26] राजेन्द्र मोहन भटनागर ने इन जड परम्पराओं के समक्ष व्यक्ति की विवशता दिखाई है। हरिजन समाज के लिए यह पुरानी रूढियां अत्यन्त जटिल थी। वे सार्वजनिक तालाब से पानी नही पी सकते। किसी भी वस्तु को छू नही सकते। हरिजन बच्चे श्यामपट्ट को छू नही सकते। इन्हें न्याय दिलाने के लिए कई समाज सेवियों ने कडा संघर्ष किया। राजेन्द्र मोहन भटनागर ने इस संघर्ष की गहनता दिखाने के लिए समाज की इस जटिल रूढिवादिता को प्रकट किया है तथा समाज में होने वाले संघर्षों को सभी वर्गों के सामने प्रस्तुत करने का प्रयास किया हैं और इनका प्रभाव वर्तमान समाज पर दिखाई देता हैं। वर्तमान में होने अत्याचारो, छुआ छूत आदि में परिवर्तन होने लगा है।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
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