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बाल मानवाधिकारों के आईने में भारत | |||||||
India in The Mirror of Child Human Rights | |||||||
Paper Id :
16535 Submission Date :
2022-09-08 Acceptance Date :
2022-09-19 Publication Date :
2022-09-23
This is an open-access research paper/article distributed under the terms of the Creative Commons Attribution 4.0 International, which permits unrestricted use, distribution, and reproduction in any medium, provided the original author and source are credited. For verification of this paper, please visit on
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सारांश |
विश्व बंधुत्व, न्याय, शांति, समानता व गरिमा से युक्त मानव अधिकारों की लोकतांत्रिक अवधारणा न सिर्फ अपने स्वरूप में सार्वभौमिक व वैश्वीय है अपितु प्रत्येक व्यक्ति के लिए समान रूप से महत्वपूर्ण भी है चाहे वह किसी भी जाति, धर्म, लिंग, समूह, वर्ग अथवा राष्ट्र से संबंधित क्यों न हो। अपनी अबोधता, अज्ञानता व बाल्यावस्था के कारण बच्चों के लिए मूलभूत अधिकारों की व्यवस्था एवं उनका संरक्षण और भी अधिक महत्व रखता है। महात्मा गांधीजी का कथन कि ’’यदि हमें स्थायी शांति प्राप्त करनी है तो इसकी शुरूआत बच्चोें से करनी होगी’’ सत्य ही है क्योंकि बच्चे किसी भी राष्ट्र की बहुमूल्य धरोहर तथा सर्वोत्तम मानव संसाधन होते हैं। स्वस्थ व शिक्षित वातावरण में सिंचित बच्चे ही देश के विकास में अपनी भूमिका का निर्वहन करने में समर्थ व सक्षम होते हैं। इस दृष्टि से 1990 का दशक अति महत्वपूर्ण है जब अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा 20 नवंबर 1989 को 54 अनुच्छेदों से युक्त बाल अधिकार अभिसमय में प्रत्येक बच्चे के जीवन, विकास, सुरक्षा तथा सहभागिता के अधिकार को मान्यता प्रदान की गई। भारत ने वर्ष 1992 में अभिसमय को समर्थित किया है तथा बच्चों के कल्याण तथा विकास की दिशा में अनेक अधिनियमों, योजनाओं तथा नीतियों का निर्माण किया हैं किंतु यह एक कटु सत्य है कि तमाम् संवैधानिक, विधिक प्रावधानों तथा नीतिगत व न्यायिक हस्तक्षेपों के बावजूद भारत में बाल आबादी का बडा प्रतिशत अपने मूलभूत अधिकारों से वंचित हैं। प्रस्तुत शोध पत्र में बाल श्रम, बाल विवाह, अशिक्षा, कुपोषण, बाल तस्करी, बच्चों के शोषण को बाल विकास की प्रमुख चुनौतियों के रूप में प्रस्तुत किया गया है तथा सुझावों के रूप में समाज के सभी वर्गों के समग्र प्रयासों के साथ-साथ बाल अधिकार अधिनियमों के प्रभावी क्रियान्वयन एवं बाल मुद्दों के त्वरित समाधान द्वारा भविष्य को सुरक्षित रखने की आवश्यकता पर बल दिया गया है।
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | The democratic concept of human rights consisting of world fraternity, justice, peace, equality and dignity is not only universal and global in its nature but is also equally important for every person irrespective of caste, religion, gender, group, class. Or why not be related to the nation. Because of their innocence, ignorance and childhood, the arrangement and protection of fundamental rights for children is even more important. Mahatma Gandhi's statement that "If we have to achieve lasting peace, it has to start with children" is true because children are the most valuable asset of any nation and the best human resource. Only children irrigated in a healthy and educated environment are able and capable to discharge their role in the development of the country. From this point of view, the decade of 1990s is very important when on 20th November 1989, at the international level, the United Nations recognized the right of every child to life, development, security and participation in the Convention on the Rights of the Child consisting of 54 articles. India has supported the convention in the year 1992 and has formulated many acts, schemes and policies towards the welfare and development of children, but it is a bitter truth that despite all the constitutional, legal provisions and policy and judicial interventions in India, A large percentage of the child population is deprived of its basic rights. In the presented research paper, child labor, child marriage, illiteracy, malnutrition, child trafficking, exploitation of children have been presented as the main challenges of child development and suggestions have been made for overall efforts of all sections of the society as well as child welfare. Emphasis has been laid on the need to secure the future through effective implementation of the Rights Acts and quick resolution of child issues. | ||||||
मुख्य शब्द | मानव अधिकार, बच्चे, कुपोषण, अशिक्षा, शोषण, बालश्रम, बाललिंग अनुपात। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Human Rights, Uneducation, Child Labour, Child Sex Ratio, Malnutrition and Children | ||||||
प्रस्तावना |
वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार भारत की कुल जनसंख्या का 39 प्रतिशत अर्थात् 472 मिलियन 0-18 आयु वर्ग के, 13.4 प्रतिशत (164 मिलियन) 0-6 आयु वर्ग के तथा 30.8 प्रतिशत (372 मिलियन) 0-14 आयु वर्ग के बच्चे हैं। कुल जनसंख्या में 0-18 आयु वर्ग, 0-6 आयु वर्ग तथा 0-14 आयु वर्ग के बालक बालिकाओं का अनुपात क्रमशः 39.7%, 38.2 प्रतिशत, 13.8; 13.4 प्रतिशत तथा 31.2%, 30.3 प्रतिशत है। राष्ट्रीय स्तर पर 0-6 तथा 0-14 आयु वर्ग के बच्चों का लिंगानुपात क्रमशः 918 तथा 916 है जब किस भी आयु वर्ग के लिए 943 है।[1] प्रति वर्ष भारत में अनुमानित छः मिलियन बच्चे जन्म लेते हैं जो ऑस्टेªलिया की कुल जनसंख्या से 4 मिलियन अधिक हैं।[2]
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अध्ययन का उद्देश्य | 1. अध्ययन का प्राथमिक उद्देश्य बाल विवाह, अशिक्षा, कुपोषण, बाल लिंग अनुपात, बाल अपराध एवं बाल श्रम को प्रमुख बाल मुद्दों के रूप में चिह्नित करना एवं भारत में बाल अधिकारों की सैद्धांतिक एवं व्यवहारिक स्थिति का आलोचनात्मक मूल्यांकन प्रस्तुत करना है।
2. बाल अधिकारों के क्षेत्र में विद्यमान विधिक, कार्यकारी, नीतिगत, संस्थागत हस्तक्षेपों का अवलोकन करना।
3. बाल अधिकारों की व्यवहारिक स्थिति की ओर नीति निर्माताओं का ध्यान आकर्षित करते हुए बच्चों के मूलभूत अधिकारों के संरक्षण की दिशा में आवश्यक सुझाव प्रस्तुत करना । |
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साहित्यावलोकन |
प्रस्तुत शोध पत्र में राष्ट्रीय स्तर पर बाल अधिकारों की समीक्षात्मक मूल्यांकन हेतु विवरणात्मक, विश्लेषणात्मक अध्ययन पद्धति का प्रयोग करते हुए विषय से संबंधित संदर्भ पुस्तकें, शोध पत्रिकाएं, इंटरनेट पर उपलब्ध साम्रगी, समाचार पत्रों में प्रकाशित विषय विशेषज्ञों के लेखों व गैर सरकारी संगठनों की वार्षिक रिपोर्ट का अध्ययन किया गया है। संवैधानिक अनुच्छेदों, संसद द्वारा समय≤ पर पारित नियम एवं अधिनियम, संसदीय रिकार्ड, महिला व बाल विकास मंत्रालय, श्रम मंत्रालय, मानव संसाधन विकास मंत्रालय, राष्ट्रीय परिवार स्वास्थय सर्वेक्षण रिपोर्ट, एनुअल हैल्थ सर्वे, नीति आयोग, एनएसएसओ, दशकीय जनगणना के माध्यम से बाल अधिकारों की स्थिति का आलोचनात्मक मूल्यांकन किया गया है। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की ‘क्राइम इन इंडिया’ 2018 रिपोर्ट उजागर करती है कि बच्चों के विरूद्ध कारित अपराध संख्या में प्रतिवर्ष तीव्र गति से वृद्धि हो रही है। नीति आयोग की 'स्वस्थ राज्य प्रगतिशील भारत’ देश में गिरते लिंग अनुपात की राज्यों का ध्यान केंद्रित करती है।
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मुख्य पाठ |
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् से ही बच्चों का कल्याण व विकास भारत सरकार की शीर्ष प्राथमिकताओं में रहा है। इसकी प्रथम अभिव्यक्ति भारतीय संविधान के अनुच्छेद 39 (च) में देखने को मिलती है जिसमें राज्यों को निर्देशित किया गया है कि बच्चों को स्वस्थ व गरिमामय वातावरण में स्वस्थ विकास के अवसर उपलब्ध कराए तथा बालकों तथा अल्पवय व्यक्तियों की शोषण से तथा नैतिक और आर्थिक परित्याग से रक्षा करे। इसी क्रम में संसद द्वारा अनेक विधानों का निर्माण किया गया है जैसे-अनैतिक तस्करी (रोकथाम) अधिनियम 1956, गर्भ का चिकित्सकीय समापन अधिनियम 1971, बाल श्रम (निषेध एवं नियमन) अधिनियम 1986 व संशोधन अधिनियम 2016, गर्भ धारण पूर्व एवं प्रसव पूर्व निदान तकनीक अधिनियम 1994, बाल अधिकार संरक्षण आयोग अधिनियम 2005, बाल विवाह निषेध अधिनियम 2006, निशुल्क व अनिवार्य बाल शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009, लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण (पोक्सो) अधिनियम 2012, किशोर न्याय (बालकों की देखरेख व संरक्षण) अधिनियम 2000 (2006 एवं 2015 में संशोधित)। इसके अतिरिक्त भारत सरकार द्वारा अनेको नीतियाँ निर्मित की गई हैं जिनमें मुख्य रूप से राष्ट्रीय बाल नीति 1974, राष्ट्रीय बाल श्रम नीति, बच्चों की राष्ट्रीय नीति (चार्टर) 2003, बच्चों के लिए राष्ट्रीय कार्य योजना 2005, बच्चों के राष्ट्रीय नीति 2013 तथा राष्ट्रीय कार्य योजना 2016 है। प्रमुख संस्थागत पहलों में केन्द्रीय दत्तक ग्रहण संसाधन प्राधिकरण (कारा) तथा ‘बालक अधिकार संरक्षण आयोग अधिनियम, 2005‘ के अंतर्गत् मार्च 2007 में राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (एन.सी.पी.सी.आर) का गठन किया गया है। वहीं योजना गत पहलों में स्वास्थय क्षेत्र में एकीकृत बाल विकास सेवा (आइसीडीएस), मिशन इंदधनुष, राष्ट्रीय पोषण मिशन, राष्ट्रीय शिशु गृह योजना, बेटी बचाओ बेटी पढाओ योजना, किशोरी शक्ति योजना, जननी सुरक्षा योजना, जननी शिशु सुरक्षा योजना, प्रधानमंत्री मातृत्व वंदना योजना, राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थय मिशन, सर्व शिक्षा अभियान, कस्तूरबा गााँधी बालिका आवासीय विद्यालय योजना, व मध्याह्यान भोजन योजना है। संघर्षमय, कमजोर व कठिन परिस्थितियों से पीडित बच्चों को प्रत्येक प्रकार के शोषण से सुरक्षा प्रदान करने के उद्देश्य से समन्वित बाल संरक्षण योजना के तहत् खोया-पाया पोर्टल, ट्रैक चाइल्ड पोर्टल तथा निःशुल्क टेलीफोन सेवा 1098 उपलब्ध है। इसके अतिरिक्त प्रथम एजुकेशन फाउंडेशन, बचपन बचाओं आंदोलन, अजीमजी प्रेमजी फाउंडेशन, बटरफलाई, चाइल्ड राइटस एंड यू, अक्षयपात्र फाउंडेशन, इंडस एक्शन जैसे गैर लाभकारी संगठन पूर्ण तत्परता एवं समर्पण के साथ बच्चों को उनके मूलभूत अधिकारों को सुनिश्चित करने की दिशा में प्रयासरत् हैं। निःसंदेह सरकारी व गैर सरकारी स्तर पर किए गए प्रयासों ने पिछले कुछ वर्षों में सराहनीय सफलताएं अर्जित की हैं किंतु इस कटु सत्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि बाल आबादी का बडा प्रतिशत निम्न वर्णित चुनौतियों के कारण शिक्षा, स्वास्थय, पोषण, शोषण से संरक्षण जैसे अपने मूलभूत अधिकारों से वंचित है। बाल श्रम जनगणना 2011 के अनुसार भारत में 5.14 आयु वर्ग के कुल 10,128,663 बच्चे कार्यरत् हैं जोकि इसी आयु वर्ग की कुल जनसंख्या (259.6 मिलियन) का 3.9 प्रतिशत है। कुल 10,128,663 (10.1मिलियन) बाल.श्रमिकों में 8,102,341 ग्रामीण व 2,026,322 शहरी क्षेत्रों में कार्यरत् हैं। हालांकि राष्ट्रीय स्तर पर पिछले कुछ वर्षों में सरकार के बाल श्रम उन्मूलन प्रयासों यथा-बाल श्रम निषेध एवं प्रतिषेध अधिनियम (सीएलपीआरए), बाल श्रम नीतियों, सर्व शिक्षा अभियान व मिडडेमील के कारण बाल श्रमिकों की संख्या में 2.6 मिलियन की कमी आई है तथा स्कूलों में नामांकन प्रतिशत में वृद्धि हुई है किंतु जनगणना 2011 के आंकडे दर्शाते हैं कि मुख्य तथा सीमांत श्रमिकों के रूप में देशभर में क्रमशः 4353247 तथा 5773416 बच्चे विभिन्न आर्थिक क्रियाओं में संलग्न हैं।[3] जनगणना 2011 के अनुसार 5-14 आयु वर्ग के कुल 33 प्रतिशत बच्चे खेतिहर मजदूर तथा 26.1 प्रतिशत बच्चे कृषक के रूप में देश में कार्यरत् हैं। शहरों की तुलना में ग्रामीण क्षेत्रों में यह अनुपात क्रमशः 40.1 तथा 31.5 प्रतिशत है। शहरी क्षेत्रों में अधिकतर बच्चे (83.4 प्रतिशत) अन्य आर्थिक कार्यों में संलग्न हैं।[4] संसदीय रिकार्ड दर्शाते हैं कि बाल श्रम अधिनियमों का अप्रभावी क्रियान्वयन, निम्न रिर्पोटिंग, अभियोजन व दोषसिद्धि का निम्नदर बालश्रम के उन्मूलन में प्रमुख बाधा है। वर्ष 2015 से वर्ष 2018 के बीच बालश्रम अधिनियम के उल्लंघन के कुल 10,826 मामले दर्ज मामलों में से मात्र 56 प्रतिशत मामले ही अभियोजन के स्तर तक पहुंच पाए। दोष सिद्धि के आंकडे तो ओर भी निराशाजनक हैं। उल्लंघन के तहत् दर्ज कुल 10,826 मामलों में से मात्र 25 प्रतिशत (2701) में ही दोष सिद्धि हो पाई। कुल दर्ज मामलों का 42 प्रतिशत (4517) उडीसा राज्य में, उत्तर प्रदेश में 1416, पंजाब में 898, तेलंगना में 747, कर्नाटक में 445, गुजरात में 422, झारखंड में 413, महाराष्ट्र में 352, मध्य प्रदेश में 294, राजस्थान में 148, उत्तराखंड में 97 मामले तथा पश्चिम बंगाल में 61 मामले दर्ज किए गए। आठ राज्यों तथा संघ शासित प्रदेशों में एक भी मामले की रिर्पोटिंग नहीं हुई।[5] बाल लिंग अनुपात एशियन सेंटर फॉर ह्मूमन राइटस के अनुमान के मुताबिक भारत में 1991 से 2011 की अवधि के दौरान लिंग चयन गर्भपात के परिणामस्वरूप 25,49,3,480 लडकियाँ (1,27,4674 प्रति वर्ष) अपने जीवन के अधिकार से वंचित रहीं।[6] देश के पिछले कुछ वर्षों के बाल लिंग अनुपात (सीएसआर) पर दृष्टि डालें तो स्पष्ट है कि इसमें निरंतर गिरावट आई है। वर्ष 1961 में यह अनुपात सभी आयु वर्गों के लिए 941 था जिसमें 2011 में 3 अंकों की मामूली वृद्धि हुई है। 0.6 आयुवर्ग के लिए यह अनुपात 1961 में 976 था जोकि 58 अंको की गिरावट के साथ वर्ष 2011 में 918 हो गया है। राज्यों में सर्वाधिक चिंताजनक स्थिति जम्मू काश्मीर राज्य की है जहां बाल लिंग अनुपात वर्ष 2001 में 941 था जोकि 2011 में 79 अंको की कमी के साथ 862 पर आ गया। गुजरात, उत्तराखंड, पंजाब, हरियाणा में यह अनुपात क्रमशरू 890, 890, 846, 834 है जोकि राष्ट्रीय औसत से काफी कम है। पिछले एक दशक में पंजाब, हरियाणा में बाल लिंग अनुपात में 48 व 15 अंको की व गुजरात में 7 अंकों की बढ़ोत्तरी हुई है जबकि राजस्थान में स्थिति चिंताजनक हैं। वर्ष 2001 में बाल लिंग अनुपात 909 था जोकि 2011 में कम होकर 888 रह गया है। लगभग सभी उत्तर पूर्वी राज्यों में सीएसआर 950 से अधिक हैं किंतु यदि 2001 जनगणना से तुलना करें तो मिजोरम व अरूणाचल प्रदेश राज्य को छोडकर सभी उत्तर पूर्वी राज्यों में इसमें गिरावट दर्ज की गई है।[7] जनसंख्या अनुसंधान संस्थान द्वारा जारी नई रिपोर्ट के अनुसार भारत में हर साल लिंग चयनात्मक गर्भपात के जरिए 5,50,000 अजन्मी लडकियों को मार दिया जाता है। रिपोर्ट इस चौंकाने वाले तथ्य को उजागर करती है कि किस तरह भारत व अन्य देशों में लडकियों को गर्भपात के लिए उकसाया जाता है।[8] नीति आयोग की 'स्वस्थ राज्य प्रगतिशील भारत’ रिपोर्ट में देश में गिरते बाल लिंगानुपात पर गहरी चिंता व्यक्त की गई है। रिपोर्ट के अनुसार देश के 21 बडे राज्यों में से 17 राज्यों में जन्म के समय लिंग अनुपात 950 से भी कम हैं। रिपोर्ट में 2012.14 (आधार वर्ष) से 2013.15 (संदर्भ वर्ष) के बीच गुजरात में 53 अंकों की गिरावट दर्ज की गई है जबकि हरियाणा में 35 पॉइंटस, राजस्थान में 32 पॉइंटस, उत्तराखंड में 27 पॉइंटस, महाराष्ट्र में 18 पॉइंटस, हिमाचल प्रदेश में 14 पॉइंटस, छत्तीसगढ में 12 पॉइंटस व कर्नाटक में 11 पाइंटस की गिरावट दर्ज की गई। रिपोर्ट में बिहार, पंजाब तथा उत्तर प्रदेश की स्थिति में सुधार दर्शाया गया हैं जिसमें क्रमशः 9 पॉइंटस, 19 पॉइंटस व 10 पॉइंटस की वृद्धि हुई है। नीति आयोग की रिपोर्ट में कहा गया है कि ’’राज्यों को प्रभावी ढंग से पीसीपीएनडीटी एक्ट, 1994 को लागू करने तथा बालिका शिशु के महत्व को बढावा देने के लिए उचित उपाय करने की स्पष्ट आवश्यकता है।’’[9] बाल शोषण राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की ‘क्राइम इन इंडिया ’रिपोर्ट के अनुसार बच्चों के यौन शोषण के मामलों में वर्ष 2017 की तुलना में वर्ष 2018 में 22 प्रतिशत की तथा बाल विवाह निषेध अधिनियम के तहत् दर्ज मामलों में 26 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। वर्ष 2017 में जहां पोक्सो एक्ट् के तहत् 32,608 मामले दर्ज किए गए वहीं वर्ष 2018 में ऐसे मामलों की संख्या बढकर 39827 हो गई है। बाल विवाह निषेध अधिनियम के तहत् दर्ज मामले 2017 में दर्ज 395 मामलों से बढ़कर वर्ष 2018 में बढ़कर 501 हो गए हैं। प्रतिशत की दृष्टि से 2018 में बच्चों के विरूद्ध कारित आपराधिक मामलों में सर्वाधिक मामले अपहरण (42.2 प्रतिशत) तथा पोक्सो एक्ट् के (34.7 प्रतिशत) तहत् दर्ज हुए। एनसीआरबी के अनुसार बाल अपराध के दर्ज कुल मामलों का 51 प्रतिशत अकेले उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, दिल्ली तथा बिहार राज्यों में दर्ज हुए। उत्तर प्रदेश में सर्वाधिक 19936 केस, मध्य प्रदेश तथा महाराष्ट्र राज्य से क्रमशः 18992 केस तथा 18992 मामले दर्ज हुए।[10] राष्ट्रीय कार्य योजना के भाग के रूप में महिला एवं बाल विकास मंत्रालय द्वारा गैर सरकारी संगठन चाइल्ड लाइन इंडिया फांउडेशन द्वारा देश के 678 जिलों में 409 जिलों को कवर कर तैयार किया गया ‘चाइल्ड वल्नरेबिलिटी मैप’ जारी किया गया जो देशभर में बाल विवाह, बाल तस्करी, लापता व भागे हुए बच्चों, बाल यौन शोषण, ड्रॅाप आउट और कम साक्षरता दर, कुपोषण, भ्रूण हत्या, एचआईवी और एडस प्रभावित बच्चों जैसी प्रमुख कमजोरियों तथा समस्याओं को उजागर करता है। मैप में ओडिसा, पश्चिम बंगाल, झारखंड तथा महाराष्ट्र को बाल तस्करी प्रभावित राज्यों के रूप में चिह्नित किया गया है। इसके अतिरिक्त मैप दर्शाता है कि जबकि महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश तथा छत्तीसगढ राज्य कुपोषण से सबसे ज्यादा प्रभावित हैं वहीं अरूणाचल प्रदेश, असम, मणिपुर, नागालैंड, मिजोरम सहित उत्तर पूर्वी राज्यों ने बाल कुपोषण से निपटने में खराब प्रदर्शन किया है।[11] बाल स्वास्थ्य यद्यपि सरकार द्वारा स्वास्थय व पोषण की दिशा में किए गए प्रयासों के फलस्वरूप कुपोषण सूचकांक में 2005-2006 में राष्ट्रीय परिवार स्वास्थय सर्वेक्षण-3 (एनएफएचएस-3) की तुलना में 2015-2016 में कमी आई है। 2005-2006 में 5 वर्ष से कम आयु के 48 प्रतिशत बच्चे ठिगने तथा 42.5 प्रतिशत बच्चे कम वजन के थे।[12] एनएफएचएस-4 (2015-2016) के अनुसार भारत में अभी भी 5 वर्ष से कम आयु के 21 प्रतिशत बच्चे (5 में से एक) वेस्टेड, 38 प्रतिशत बच्चे स्टंटड (ठिगने) हैं। शहरी क्षेत्रों की तुलना में (31 प्रतिशत) ग्रामीण क्षेत्रों में (41 प्रतिशत) यह प्रतिशत अपेक्षाकृत अधिक है। 36 प्रतिशत बच्चों का वजन उनकी ऊँचाई के हिसाब से कम है। 18 प्रतिशत बच्चों का वजन जन्म के समय 2.5 किलोग्राम से कम था, 28 प्रतिशत बच्चे हल्के अनीमिया, 29 प्रतिशत बच्चे मध्यम एनीमिया तथा 2 प्रतिशत बच्चे गंभीर रूप से एनीमिया से पीडित थे। 6-23 माह के 9.6 प्रतिशत बच्चों ने ही न्यूनतम स्वीकार्य पर्याप्त आहार प्राप्त किया। 21 प्रतिशत बच्चों का जन्म घर पर हुआ। 12-23 माह के 38 प्रतिशत बच्चे बुनियादी सभी टीकाकरण से वंचित रहे।[13] हाल ही में जारी एनएफएचएस-5 की रिपोर्ट दर्शाती है कि 18 राज्यो और केंद्र शासित प्रदेशों में 5 वर्ष से कम आयु के बच्चों में मृत्युदर तथा शिशु (0-1 वर्ष) मृत्युदर में कमी आई है लेकिन समानांतर 16 राज्यों में से पांच राज्यों में पांच वर्ष से कम आयु के बच्चों में कम भार वाले और अपंनी आयु के अनुरूप कम ऊँचाई वाले बच्चों के अनुपात में वृद्धि दर्ज की गई है। नवजात मृत्युदर (प्रति हजार जीवित जन्म) एनएफएचएस-4 की तुलना में 15 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में कम हो गई है जबकि शिशु मृत्युदर और पांच वर्ष से कम आयु के बच्चों में मृत्युदर गिर गई है। एनएचएफएस-4 की तुलना में एनएफएचएस-5 में 12 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में 5 वर्ष से कम आयु के बच्चों के लिए, उनकी आयु के अनुसार शरीर के वजन प्रतिशत में वृद्धि हुई है। आंकडों ने असम, बिहार, हिमाचल प्रदेश, केरल, मणिपुर, मिजोरम, त्रिपुरा, जम्मू कश्मीर, लद्दाख और लक्ष्द्वीप में बर्बादी में वृद्धि दिखाई जबकि महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल में कोई बदलाव नहीं हुआ। पूर्ण टीकाकरण के मामले में कई राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों की स्थिति बेहतर हुई है। चार वर्ष की अल्प अवधि में 22 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में से 11 में टीकाकरण की वृद्धि दर 10 प्रतिशत से अधिक तथा अन्य चार राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में 5 से 9 प्रतिशत के बीच रही है। नगालैंड, मेघालय और असम को छोडकर सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में दो तिहाई से अधिक बच्चों का टीकाकरण कर उन्हें जानलेवा बीमारियों से बचाया गया। लगभग तीन चौथाई जिलों में 12-23 माह के 70 प्रतिशत या उससे अधिक बच्चों को बचपन की बीमारियों से बचाया गया।[14] बाल विवाह यूनिसेफ के अनुसार अनुमानित तौर पर भारत में प्रत्येक वर्ष 18 वर्ष से कम आयु में लगभग 15 लाख लड़कियों का विवाह होता है। भारत विश्व की सर्वाधिक बाल वधुओं वाला देश है जो विश्व की कुल संख्या का तीसरा भाग है। 15 से 19 आयु वर्ग की 16 प्रतिशत लड़कियां विवाहित हैं। हालांकि वर्ष 2005-2006 से 2015-2016 के दौरान 18 वर्ष से पूर्व विवाहित होने वाली लडकियों की संख्या 47 प्रतिशत से कम होकर 27 रह गया है पर फिर भी यह अधिक है।[15] राष्ट्रीय परिवार स्वास्थय सर्वेक्षण के अनुसार विश्व के 60 मिलियन बाल विवाहों का 40 प्रतिशत भारत में होता है। महिलाओं पर शोध के लिए अंतर्राष्ट्रीय केंदª ‘इंटरनेशनल सेंटर फॉर रिसर्च ऑन वीमेन भी भारत को विश्व में होने वाले बाल विवाह की दृष्टि से 14वें स्थान पर रखता है। बाल विवाह की उच्चतम दर (50 प्रतिशत तथा इससे अधिक) वाले राज्य बिहार, राजस्थान, झारखंड, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश तथा कर्नाटक हैं। स्वास्थय मंत्रालय के लिए किए गए जिला स्तरीय घरेलू सुविधा सर्वेक्षण (डीएलएचएस) के अनुसार बाल विवाह की दृष्टि से सबसे खराब स्थिति बिहार राज्य की है जहां 20 वर्ष की आयु की लगभग 70 प्रतिशत महिलाओं का विवाह 18 वर्ष से कम की आयु में हो गया। सबसे बेहतर स्थिति हिमाचल प्रदेश की दर्शायी गयी जहाँ ऐसी महिलाओं का अनुपात 9 प्रतिशत है। डीएलएचएस के आंकडों के अनुसार शहरी क्षेत्रों की तुलना में (29 प्रतिशत) ग्रामीण क्षेत्रों में 20-24 आयु वर्ग की 48 प्रतिशत महिलाओं का विवाह 18 वर्ष की आयु से पूर्व हो गया।[16] बाल अशिक्षा सर्व शिक्षा अभियान और शिक्षा का अधिकार अधिनियम (आरटीई एक्ट्) जैसे प्रयासों से भारत ने प्राथमिक शिक्षा में शत प्रतिशत नामांकन हासिल करने की दिशा में उल्लेखनीय प्रगति की है। यू-डाइस आंकडों के अनुसार वर्ष 2016-2017 में कक्षा 1 से 5 तक के लिए सकल नामांकन अनुपात 95.1 प्रतिशत था लेकिन आगे की कक्षाओं से जुडे आंकडे कुछ गंभीर मुद्दों की ओर इशारा करते हैं। कक्षा 6 से 8 के लिए सकल नामांकन अनुपात जहां 90.7 प्रतिश तथा, वहीं कक्षा 9-10 और 11-12 के लिए यह क्रमशः 79.3 प्रतिशत और 51.3 प्रतिशत था। इन आंकडों से यह स्पष्ट है कि नामांकित विद्यार्थियों का एक महत्वपूर्ण (बडा) हिस्सा कक्षा 5 के बाद और विशेष रूप से कक्षा 8 के बाद स्कूल छोड देते हैं। आंकडों के अनुसार वर्ष 2015 में स्कूल जाने की आयु (6 से 18 आयु वर्ग) वाले 6.2 करोड बच्चो स्कूल से बाहर थे।[17] यू-डीआईएसई 2016-2017 के आंकडों के अनुसार प्राथमिक स्तर पर लगभग 19.6 प्रतिशत छात्र अनुसूचित जाति के हैं किंतु उच्चतर माध्यमिक स्तर पर यह प्रतिशत कम होकर 17.3 प्रतिशत हो गया है। नामांकनों में ये गिरावट अनुसूचित जनजाति के छात्रों (10.6 प्रतिशत से 6.8 प्रतिशत) और दिव्यांग बच्चों (1.1 प्रतिशत से 0.25 प्रतिशत) के लिए गंभीर है। इनमें से प्रत्येक श्रेणी में महिला छात्रों के लिए इन नामांकनों में और भी अधिक गिरावट आई है।[18] 2014 में राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (एनएसएसओ) के सर्वे के अनुसार भारत में 6-13 आयु वर्ग के अनुमानित कुल 20.41 करोड बच्चों में से 60.64 लाख बच्चे स्कूल से बाहर हैं जोकि इसी आयु वर्ग के कुल बच्चों का 2.97 प्रतिशत है। हालांकि वर्ष 2005 (6.94 प्रतिशत) तथा 2009 (4.53 प्रतिशत) की तुलना में ऐसे बच्चों की संख्या में कमी आई है। शहरी क्षेत्रों की तुलना में (13.69 लाख, 2.54 प्रतिशत) ग्रामीण क्षेत्रों (46.95 लाख, 3.13 प्रतिशत) तथा लडकियों (28.98 लाख) की तुलना में लडकों (31.66 लाख) का उच्च अनुपात स्कूली शिक्षा से बाहर है। प्रतिशत की दृष्टि से अनुमानित बालकों की जनसंख्या 11.44 करोड का 2.77 प्रतिशत तथा बालिकाओं की जनसंख्या 8.97 करोड का 3.23 प्रतिशत स्कूलों में नहीं है। अनुसूचित जनजाति का 4.20 प्रतिशत, अनुसूचित जाति का 3.24 प्रतिशत, अन्य पिछडा वर्ग के 3.07 प्रतिशत तथा अन्य के 1.87 प्रतिशत बच्चे स्कूल से बाहर है। सर्वे रिपोर्ट में 6-13 आयु वर्ग के कुल 21.39 प्रतिशत बच्चे विशेष आवश्यकता वाले चिह्नित किए गए जिसमें से 28.23 प्रतिशत अर्थात 5.94 लाख बच्चे स्कूल से बाहर हैं।[19] इसके अतिरिक्त सरकारी स्कूलों में गिरती छात्र संख्या तथा एकल शिक्षक स्कूल शिक्षा के मूलभूत अधिकार के समक्ष अन्य चुनौतियां हैं। यू-डाइस 2016-2017 के आंकडों के अनुसार भारत के 28 प्रतिशत सरकारी प्राथमिक स्कूलों और 14.8 प्रतिशत उच्चतर प्राथमिक स्कूलों में 30 से भी कम छात्र पढते हैं। कक्षा 1 से 8 तक के स्कूलों में प्रति कक्षा औसतन 14 छात्र हैं जबकि बहुत से स्कूलों में यह औसत मात्र 6 से कम है। वर्ष 2016-2017 में 1,08,017 स्कूल एकल शिक्षक स्कूल थे। इनमें से अधिकांश (85743) कक्षा 1 से 5 वाले प्राथमिक स्कूल थे।[20]
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निष्कर्ष |
बाल अधिकारों की दिशा में विद्यमान संवैधानिक व विधायी उपबंधों, सरकारी व गैर सरकारी प्रयासों, सक्रिय न्याय पालिका के बावजूद वर्तमान में लाखों करोडों बच्चे अपने मूलभूत अधिकारों से वंचित हो नितांत कठिनाई पूर्ण, कमजोर व असहाय परिस्थितियों में रहने को विवश हैं। बाल अपराध एवं बाल शोषण एक सामान्य घटना प्रतीत होती है। इससे पहले की ओर अधिक देर हो देश की 39 प्रतिशत आबादी के भविष्य को संवारने के लिए ठोस कार्य योजना के निर्माण, बाल अधिकार संरक्षण अधिनियमों, नीतियों व योजनाओं के प्रभावी क्रियान्वयन, बालमुददों के शीघ्र समाधान की आवश्यकता है। सामुदायिक भागीदारी, जनसंचार के साधनों, गैरसरकारी संगठनों के माध्यम से सरकार द्वारा संचालित बाल संरक्षणात्मक नीतियों, कार्यक्रमों व योजनाओं, शिकायत निवारण तंत्र का जनजन में व्यापक प्रचार प्रसार किया जाए। जनजागरूकता कार्यक्रमों, नुक्कड नाटकों, के माध्यम से इस कार्य की विभत्सता तथा नकारात्मक परिणामों से जनसामान्य को अवगत कराया जाए। इस कुकर्म में लिप्त चिकित्सकों, अभिभावकों, एवं क्लिनिकों के विरूद्ध कडी कार्यवाही के साथ-साथ पीसीपीएनडीटी एक्ट् के सख्ती से लागू करके ही बालिका शिशु के जीवन को सुरक्षित किया जा सकता है। क्योंकि निर्धनता, अशिक्षा तथा बाल श्रम में त्रिकोणात्मक संबंध होता है। अतः रोजगार परक निर्धनता उन्मूलन योजनाओं का संचालन कर बाल श्रम में लिप्त बच्चों को शिक्षा की मुख्य धारा में सम्मिलित किया जाए। यह भी ध्यान देने की आवश्यकता है कि शिक्षा मात्र साक्षरता प्राप्ति को लक्षित न हो अपितु चरित्र निर्माण, मूल्य संर्वद्धन तथा मानव अधिकारों की संवेदनशील संस्कृति को विकसित करने का साधन बने। देश के भावी कर्णधारों के सर्वागींण विकास हेतु शोषण मुक्त, स्वस्थ, सुरक्षित सामाजिक वातावरण की उपलब्धि सुनिचित की जाए जिसमें सच्चे अर्थों में वे अपने मानवाधिकारों का उपभोग कर पुष्पित, पल्लवित तथा विकसित हो पाएं। |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1. Census of India 2011, Population Enumeration Data (Final Population) Single Year Age Data, TableC-13, Office of Registrar General and Census Commissioner, India, Ministry of Home Affairs, Govt. ofIndia, New Delhi. www.censusindia.gov.in
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19. htttps://www.education.gov.in/en/sites/upload_files/mhrd/files/upload_document/National-Survey-Estimation-School-Children-Draft-Report.pdf
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