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मध्यवर्गीय चेतना से अनुप्राणित हिंदी उपन्यासों का ऐतिहासिक अनुशीलन(1880 to1950) | |||||||
Historical Perusal of Hindi Novels Inspired by Middle Class Consciousness(1880 to1950) | |||||||
Paper Id :
16406 Submission Date :
2022-09-07 Acceptance Date :
2022-09-21 Publication Date :
2022-09-25
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सारांश |
मध्यवर्ग बीसवीं शताब्दी के बहुचर्चित संकल्पना है यह ऐसा वर्ग है जो ना तो अधिक धनवान है और ना ही अत्यधिक निर्धन। सामंती अर्थव्यवस्था के विघटन व पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के नवोन्मेषण से उच्च व निम्न वर्ग के बीच इस तीसरे वर्ग का उद्भव हुआ।भारत में मध्य वर्ग का विकास औपनिवेशी काल में पश्चिमी शक्तियों के संपर्क से हुआ। अंग्रेजी शासन व्यवस्था ने भारत की सामाजिक व्यवस्था को बड़ी ही गहराई से प्रभावित किया। ब्रिटिश नीतियों व उसकी प्रतिक्रिया में उपजे भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन ने मध्य वर्ग के विकास के मार्ग प्रशस्त किये। इसी काल में उपन्यास नामक नई साहित्यिक विधा भी ब्रिटिश प्रभाव से अस्तित्व में आई। अंग्रेजी व बांग्ला भाषा की पगडंडी से होते हुये उपन्यास हिंदी भाषा के चौराहे पर पहुंचा। मध्यवर्ग ने उपन्यास विधा से अपना दोहरा तादात्म कायम किया। एक ओर तो वह स्वयं इसका सृजनकरता बना तो दूसरी ओर उसका पाठक व रसारुवादक भी रहा। अतः मध्यवर्ग का उद्भव एवं विकास हिंदी उपन्यास विधा के उद्भव व विकास से बड़ी ही सूक्ष्मता से जुड़ा हुआ है। अतैव औपनिवेशी काल में हिंदी उपन्यासों में मध्यवर्गीय चेतना के स्वरूप का अवलोकन आवश्यक हो जाता है।
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | The middle class is a popular concept of the twentieth century, it is a class that is neither very rich nor very poor. The disintegration of the feudal economy and the innovation of the capitalist economy led to the emergence of this third class between the upper and lower classes. The development of the middle class in India was through contact with the western powers during the colonial period. The British system of governance affected the social system of India very deeply. The Indian national movement, which arose in response to British policies and its reaction, paved the way for the development of the middle class. In the same period a new literary genre called novel also came into existence under British influence. The novel reached the crossroads of Hindi language through the path of English and Bengali language. The middle class established its dual identity with the novel genre. On the one hand, he himself became its creator and on the other hand he was also a reader and a lyricist. Therefore, the emergence and development of the middle class is closely related to the origin and development of the Hindi novel genre. Therefore, it becomes necessary to observe the nature of middle class consciousness in Hindi novels during the colonial period. | ||||||
मुख्य शब्द | समाज, सामाजिक व्यवस्था, मध्य वर्ग, चेतना, हिंदी उपन्यास, चित्रण, प्रेमचंद्र। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Society, Social System, Middle Class Consciousness, Hindi Novel, Illustration, Premchandra. | ||||||
प्रस्तावना |
मनुष्य समुदाय सदैव से ही वर्गों में विभाजित रहा है। आर्थिक परिवर्तनों से सामाजिक परिवर्तन के मार्ग भी प्रशस्त हुए हैं। सामाजिक बदलाव व समाज के विकास के साथ ही वर्ग भेद भी बदलता रहता है यह वर्ग भेद समाज से व्याप्त असमानता के कारण अस्तित्व ग्रहण करता है। प्रत्येक वर्ग के सदस्यों के कुछ विशिष्ट गुण उन्हें दूसरे वर्ग से प्रथक करते हैं। आधुनिक समय में सामान्यतः सामाजिक वर्गीकरण के तहत प्रत्येक राज्य में तीन वर्ग होते हैं एक अत्यंत संपन्न वर्ग है, दूसरा अत्यंत निर्धन वर्ग होता है और तीसरा इनके बीच का मध्य वर्ग होता है मध्यवर्ग वर्ग को भी सामान्यता उच्च मध्य वर्ग में निम्न मध्य वर्ग में बांटा जा सकता है। मध्यवर्ग इन तीनों वर्गों में उत्तम है क्योंकि यह बुद्धि संगत सिद्धांतों पर आधारित होता है। उच्च मध्यवर्ग उच्च वर्ग से खासा प्रभावित रहता है और उसी की भांति जीवन जीने की जिजीविषा रखता है उच्च वर्ग की भोगवादिता एवं विलासिता से यह वर्ग ग्रस्त रहता है। ऐसे में मध्य वर्गीय परिवारों में अलगावपन, कुण्ठा, निराशा, अशांत, दाम्पत्य जीवन, प्रेम समस्या आदि समस्याएं दिखाई देती हैं। इसके मूल में शहरीकरण, भूमंडलीकरण, औद्योगीकरण का परिवेशीय दबाव होता है। निम्न मध्य वर्ग विचारों व आदर्शों के स्तर पर क्रांतिकारी होता है। यह वर्ग तथाकथित परंपराओं और मर्यादाओं का पालन करते हुए घुटन में जीवन यापन करता है। मध्यवर्ग के तहत छोटे उद्यमी, सफेदपोश, बुद्धिजीवी, नौकरी-पेशा, डॉक्टर, अध्यापक, वकील आदि आते हैं। अतः मध्य वर्ग समाज के आदर्शों व मूल्यों को ढोने के लिए विवश है और आधुनिक युग की समस्याओं में जीने को शापित है।
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अध्ययन का उद्देश्य | प्रस्तावित शोध पत्र का उद्देश्य हिंदी उपन्यासों में मध्यवर्गीय चित्रण परंपरा का ऐतिहासिक अनुशीलन करना है औपनिवेशी काल पर विशेषकर शोध पत्र केंद्रित है क्योंकि मध्य वर्ग व हिंदी उपन्यास विधा दोनों का उद्भव व विकास ब्रिटिश काल में हुआ। अतः इनके पारस्परिक संबंधों को यह शोध पत्र उद्घाटित करता है। |
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साहित्यावलोकन | प्रस्तावित शोध पत्र के लेखन में मूल स्रोत के तौर पर प्रेमचंद्र पूर्व, प्रेमचंद्र युगीन व प्रेमचंदोत्तर काल के कुछ हिंदी उपन्यासों का अवलोकन किया गया। इसके अलावा इस विषय पर पूर्व में हो चुके कुछ शोध कार्यों का भी अवलोकन किया गया है जिसमें आस्मा जावेद द्वारा कृत कार्य "प्रेमचंद के उपन्यासों में मध्य वर्ग की दशा व दिशा" के अवलोकन से प्रेमचंद्र युगीन मध्यवर्गीय चेतना के साथ-साथ मध्यवर्ग के उद्भव व विकास तथा उसकी विविध परिभाषाओं पर यह शोध कार्य बेहतर प्रकाश डालता है। प्रदीप ए. राव ने अपने शोध कार्य 'Being middle-class in India: A way of life' में मध्यवर्गीय जीवन पद्धति व उसकी मनोवृत्ति में व्याप्त द्वंद को उद्घाटित किया है। |
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मुख्य पाठ |
मध्यवर्ग का अपना एक अलग अस्तित्व है। यह वर्ग उच्च वर्ग के साथ खड़ा होना चाहता है उसके विचारों व चुनी हुई राह पर चलना चाहता है। दूसरी ओर अपने परंपरागत आदर्शों रीति-रिवाजों को भी अपने पल्लू से बांध कर रखना चाहता है। यह वर्ग उच्च शिक्षित ज्यादातर नगरों में रहने वाला और अपनी अलग सांस्कृतिक धारणाओं से पोषित है। यह वर्ग उत्पादन, श्रम, प्रतिष्ठा पर आधारित होने के साथ-साथ अधिक आबादी वाला भी है। इसके अंतर्गत कोई विशिष्ट धर्म, संप्रदाय, जाति के लोग नहीं आते बल्कि विशिष्ट आर्थिक स्थिति वाले लोग आते हैं। यह वर्ग समाज के लगभग प्रत्येक क्षेत्र से जुड़ा हुआ है और राष्ट्रीय प्रगति व राष्ट्र निर्माण में अपना बहुमूल्य योगदान देता रहा है। समाज में जो भी महत्वपूर्ण क्रांतियां हुई उसका आधार मध्यवर्ग ही रहा है। अतः स्पष्ट है कि राष्ट्रीय एकता के विकास में प्राचीन काल से लेकर आज तक मध्य वर्ग एक अनिवार्य शर्त रहा है। हिंदी उपन्यास साहित्य में इस वर्ग के बहुमूल्य योगदान का सूक्ष्मता से चित्रण देखने को मिलता है। ऐतिहासिक दृष्टि से देखा जाए तो मध्यवर्ग का उद्भव चौदहवीं शताब्दी में इंग्लैंड में हुआ। तत्पश्चात अमेरिका, फ्रांस आदि देशों में इसका विकास हुआ। यूरोप में हुई पूंजीवादी औद्योगिक क्रांति ने मध्य वर्ग को सामाजिक व्यवस्था का महत्वपूर्ण अंग बना दिया। शिक्षा के प्रसार व औद्योगिक जरूरतों से समाज में लेखा-जोखा रखने वाले व्यापारी, सफेदपोश, नौकरीपेशा वर्ग आदि का उदय हुआ। यही मध्यवर्ग कहलाया। यूरोपीय शक्तियों के संपर्क में आने से भारत की सामाजिक व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन हुआ। प्राचीन काल में भारत जाति व वर्ण व्यवस्था में जकड़ा हुआ था और भारतीय समाज का वर्गीकरण व्यवसाय के आधार पर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, सूद्र वर्ण में हुआ। तत्पश्चात मध्य काल में भारतीय समाज शोषक व शोषित वर्गों में विभाजित हुआ। 16वीं शताब्दी से भारत में पुर्तगाली, अंग्रेज, फ्रांसीसी आदि पश्चिमी शक्तियों का आगमन हुआ। जिनमें अंग्रेज भारत में अपना औपनिवेशी प्रभुत्व कायम रखने में सफल हुए। ब्रिटिश शासन व्यवस्था ने भारतीय सामाजिक व्यवस्था को बड़ी ही गहराई से प्रभावित किया। ब्रिटिश औपनिवेशी नीतियां, 1857 का असफल विद्रोह, प्रथम व द्वितीय विश्व युद्ध, अंग्रेजों द्वारा रेल, डाक, तार व शिक्षा के प्रसार, ब्रिटिश प्रतिक्रियावादी नीतियों से उपजा भारत का राष्ट्रीय आंदोलन आदि तमाम ऐसे कारक थे जिसने भारत की सामाजिक व्यवस्था में बुनियादी बदलाव किये। स्वतंत्रता पूर्व काल में शिक्षा के प्रसार से शिक्षित मध्यवर्ग बढ़ने लगा तथा राजनैतिक सामाजिक परिस्थितियों ने इस वर्ग में व्यक्तिवाद, स्वार्थी वृत्ति, अहंकार आदि कुप्रवृत्तियों को बढ़ावा दिया। राजनैतिक अस्थिरता सदैव से ही सामाजिक गतिरोध का कारण रही है। इसका प्रभाव शिक्षा व समाज पर पड़ना स्वाभाविक है। राजनीतिक भ्रष्टता के चलते ही समाज में भ्रष्टाचार भाई भतीजावाद को बढ़ावा मिला। जिसका शिकार मध्यवर्ग हुआ। देश की अर्थव्यवस्था में भी इस दौर में महत्वपूर्ण बदलाव हुए। औद्योगिकरण, नगरीकरण, आधुनिकीकरण, पूंजीवादी व्यवस्था से जुड़ाव तथा तकनीकी ज्ञान आदि का समाज के सभी क्षेत्रों पर प्रभाव पड़ा। इस से सर्वाधिक प्रभावित मध्यवर्ग ही हुआ। मध्यवर्ग की न सिर्फ आर्थिक स्थिति में परिवर्तन आया अपितु उसके मानसिक व सांस्कृतिक दृष्टिकोण में भी बदलाव देखा गया। नौकरी व शहर के आकर्षण ने मध्यवर्ग की संख्या में तेजी से बढ़ोत्तरी की। पश्चिमी सभ्यता के प्रति आकर्षण व अंधानुकरण तथा आधुनिक परिवेश के चलते मध्यवर्ग तमाम प्रकार की समस्याओं से पीड़ित हुआ। पाश्चात्य शिक्षा व संस्कृति का यह प्रभाव आज भी मध्य वर्ग में सर्वाधिक देखा जा सकता है। इसका चित्रण भी हिंदी उपन्यासों में यंत्र तंत्र देखा जा सकता है। 19वीं सदी के अंतिम दशकों व 20वीं सदी में हिंदी उपन्यास मध्यवर्गीय जीवन चेतना के चौराहे पर पहुंचा। उच्च वर्ग व निम्न वर्ग की तुलना में मध्यवर्ग के पास सृजन क्षमता व परिष्कृत अभिरुचि होती है। क्योंकि जहाँ निम्न वर्ग शारीरिक श्रम से अपनी रोजी-रोटी की जुगत में ही लगा रहता है और उसके पास कला व साहित्य के रसास्वादन व सृजन का समय ही नहीं होता। तो वहीं उच्च वर्ग पूंजी बनाने व उसके संरक्षण में ही व्यस्त रहता है। ऐसे में मध्य वर्ग स्वभावत: कला व साहित्य का संवहन बन जाता है। यही कारण है कि ज्यादातर हिंदी उपन्यास मध्यवर्गीय लेखकों की कलम से लिखे जाने के कारण उनमें मध्यवर्गीय चेतना का स्वरूप अत्यंत यथार्थता के साथ चित्रित हुआ है। प्रेमचंद्र पहले ऐसे उपन्यासकार हैं जिन्होंने अपने हिंदी उपन्यासों में राष्ट्रीय जन चेतना व सुधारवादी अवधारणाओं को मुखरता से अभिव्यक्त किया है। अतः मध्यवर्गीय चित्रण परंपरा का विवेचन प्रेमचंद को केंद्र में रखकर क्रमशः प्रेमचंद्र पूर्व, प्रेमचंद्र कालीन व प्रेमचंदोत्तर युगीन हिंदी उपन्यासों में किया जा रहा है। प्रेमचंद पूर्व हिंदी उपन्यासों में मध्यवर्ग का चित्रण शैशव रूप में ही दिखाई पड़ता है। श्रद्धाराम फुल्लौरी कृत 'भाग्यवती'(1877) मध्यवर्गीय चित्रण परंपरा का प्रथम उपन्यास है। इसमें युगीन मध्यवर्गीय परिवार व उसकी समस्याओं का चित्रण देखा जा सकता है। फुल्लौरी के इस उपन्यास में पढ़े-लिखे मध्य वर्ग में सामाजिक चेतना का संचार किया। 19वीं सदी में विकसित हो रहे मध्यवर्गीय समाज का एक और चित्र लाला श्रीनिवास दास जी के 'परीक्षा गुरु'(1882) उपन्यास में भी रेखांकित हुआ है। इसमें भारतीय मध्यवर्ग में अंग्रेजी शिक्षा व शानो-शौकत के प्रति बढ़ते आकर्षण एवं आडंबरप्रियता का चित्रण नायक मदन मोहन के माध्यम से बड़ी ही सजीवता से किया गया है। मध्यवर्ग चित्रण परंपरा में बालकृष्ण भट्ट का महत्वपूर्ण स्थान है उनके 'नूतन ब्रह्मचारी' व 'सौ अजान एक सुजान' उपन्यासों में मध्यवर्ग के आदर्शों एवं उसकी खुशामदी की प्रवृत्ति का जीवंत वर्णन किया गया है। अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध' के 'ठेठ हिंदी का ठाठ' तथा 'अधखिला फूल' उपन्यास मध्यवर्गीय समाज में प्रेम व विवाह संबंधित समस्याओं तथा सामाजिक विकृतियों विशेषकर नारी जीवन से जुड़ी तमाम प्रकार की समस्याओं को उभारा गया है। आगे चलकर प्रेमचंद काल में मध्यवर्गीय जीवन की एक व्यापक तस्वीर उपन्यासों में दिखाई देती है। प्रेमचंद्र काल में हिंदी उपन्यास विधा को नया कलेवर प्राप्त हुआ और इनमें उत्तरोत्तर मध्यवर्गीय जीवन दर्शन की तस्वीर और अधिक स्पष्ट होती चली गई। प्रेमचंद्र ने उपन्यास को कल्पना की उड़ानों से निकाल सामाजिक, राजनीतिक यथार्थता के धरातल पर उतारा। उनके उपन्यास किसान, मजदूर सामान्य जनमानस की कहानी बयां करते हैं। चूकि प्रेमचंद स्वयं मध्यवर्गीय परिवार से थे अतैव उनका जीवन अनुभव भी युगीन मध्य वर्ग की समस्याओं को यथार्थतापूर्वक कलमबद्ध करने के काम आया है। यही कारण है कि उनके 'सेवा सदन' (1918) उपन्यास से लेकर गोदान (1936) उपन्यास तक मध्यवर्गीय जीवन की एक संपूर्ण तस्वीर उभरती है। प्रेमचंद के 'सेवासदन' (1918) उपन्यास में आर्थिक बदहाली के चलते मध्यवर्ग की पतोंमुख स्थिति का वर्णन किया गया। इसमें वेश्या समस्या से लेकर नारी जीवन की तमाम चुनौतियां जैसे नारी अशिक्षा, दहेज प्रथा आदि का नायिका सुमन के जरिए जीवंत चित्रण हुआ। इसी प्रकार 'रंगभूमि' उपन्यास में पात्र सोफिया व उसका परिवार मध्य वर्ग से संबंधित है तथा बेरोजगारी, आर्थिक तंगी, स्वार्थी प्रवृत्ति व झूठी शान-शौकत जैसी समस्याओं से ग्रस्त है। उनका 'गबन' उपन्यास मध्यवर्गीय चित्रण परंपरा की श्रेणी में एक सशक्त कृति है। इसके रमानाथ व जालपा जैसे पात्र युगीन आर्थिक बदहाली में आत्मप्रदर्शन वादी मनोवृत्ति को प्रदर्शित करते हैं। 1936 में प्रकाशित उनका 'गोदान' उपन्यास सबसे लोकप्रिय रहा। इसका नायक होरी एक किसान है जबकि रिश्वतखोर दरोगा, तहसीलदार, जमीदार, मिस्टर खन्ना, मालती जैसे पात्र मध्यवर्ग की मानसिकता का प्रदर्शन करते हैं। प्रेमचंद्र काल में ही जयशंकर प्रसाद ने 'तितली' उपन्यास में मध्यवर्गीय समाज में आ रहे बदलावों विशेषकर नारी प्रगतिशीलता का वर्णन किया है। तो वही उनका 'कंकाल' उपन्यास मध्य वर्ग की पतोन्मुख प्रवृत्ति पर प्रकाश डालता है। इसी प्रकार सूर्यकांत त्रिपाठी निराला के 'अलका' 'कुल्लीभाट' 'काले-कारनामें' व 'निरुपमा' जैसे उपन्यासों में मध्यवर्ग की दुर्बलता को दर्शाया गया है इस काल के उपन्यासकारों में पाण्डेय बेचेन शर्मा 'उग्र' ने मध्यवर्गीय समाज के घृणित पक्षों को बड़ी ही बेबाकी से चित्रित किया है। उन्होंने अपने 'दिल्ली का दलाल', 'बुधुवा की बेटी', 'सरकार तुम्हारी आंखों में' तथा ऋषभचरण जैन के 'तपोभूमि', 'दिल्ली का व्यभचारी' व 'वेश्यापुत्र' आदि उपन्यासों में मध्य वर्ग की कुत्सित मानसिकता, अनैतिकता, विधवाओं व वेश्याओं की दुर्गति का जीवंत चित्रण किया है। तो वही प्रताप नारायण श्रीवास्तव ने 'विदा', 'विजय', 'विसर्जन', 'बयालीस' आदि उपन्यासों में मध्यवर्गीय प्रगति, राजनैतिक आदर्श, पाश्चात्य विचारों के बढ़ते प्रभाव को रेखांकित किया है। प्रेमचंदोत्तर हिंदी उपन्यासों में मध्यवर्ग व भारतीय समाज के बदलते स्वरूप का चित्रण देखने को मिलता है। भारतीयों के बीच स्वतंत्रता आंदोलन, क्रांतिकारी राष्ट्रवाद, सामाजिक, अशांतता, वैमनस्य व विभाजन आदि परिस्थितियों ने सामाजिक जीवन व उपन्यास साहित्य को गहराई से प्रभावित किया। इसी प्रक्रिया में भारतीय मध्यवर्ग में भी तेजी से बदलाव आया। मध्यवर्ग जैसे-जैसे विकसित होता गया उसकी व्यक्तिवादिता बढ़ती गई। प्रेमचंदोत्तर हिंदी उपन्यासों में मध्य वर्ग में प्रखर होते व्यक्तिवाद को कई तरीके से व्यक्त किया गया। जैनेंद्र, इलाचंद्र जोशी, अज्ञेय आदि ने मध्य वर्ग की मानसिकता, मनोवृत्ति व उसमे व्याप्त अंतर्द्वंद को भीतर तक झांककर देखा। जैनेंद्र ने 'सुनीता' उपन्यास में नायिका सुनीता के माध्यम से मध्यवर्गीय नारी के त्याग, कर्तव्य व अंतर्द्वंद को उभारने का प्रयास किया। 'त्यागपत्र' उपन्यास में मध्यवर्गीय नारी की दीन-हीन दशा, परिवारों के खोखले आदर्श व संकुचित मनोवृत्ति का चित्रण किया गया है। 'त्यागपत्र' की नायिका मृणाल शारीरिक शुद्धता व सतित्व के स्थान पर मानसिक शुद्धता व नये सतित्व की तलाश में अपना पूरा जीवन लगा देती है। नायिका खुद को सामाजिक बंधनों, रूढ़ियों, आदर्शों और रीति-रिवाजों से मुक्त करना चाहती है। यह मृणाल की व्यक्तिवादिता है। जैनेंद्र ने अपने 'कल्याणी' व 'सुखदा' जैसे उपन्यासों में परिवार के बनते-बिगड़ते रिश्तो, दांपत्य जीवन, जर्जित विवाह संस्था व नारी के मानसिक, शारीरिक शोषण को बड़ी ही संवेदनशीलता से चित्रित किया है। अज्ञेय, भगवतीचरण वर्मा, ऊषा देवी मिश्रा ने अपने उपन्यासों में मध्यवर्ग की अधुनातन तस्वीर प्रस्तुत की है। उषा देवी मिश्रा ने अपने 'वचन के मोल', 'जीवन की मुस्कान', 'आवाज', 'नष्ट नीड़' आदि उपन्यासों में वकील, अध्यापक, छात्र, पत्रकार, कलाकार जैसे मध्यवर्ग को चित्रित किया। तो वही प्रेमचंद के पश्चात अज्ञेय ने 'शेखर एक जीवनी' उपन्यास में नायक शेखर के जरिये मध्यवर्ग के आक्रोश, मानसिक द्वंद, जागरूकता व सामाजिक सजगता को कलमबद्ध किया। भगवती चरण वर्मा के 'सन्यासी' 'मृणमयी' व 'जीवन का पंक्षी' उपन्यासों के मध्य वर्ग की आर्थिक तंगी, कुंठा, घुटन, अनैतिकता, व्यभचार, प्रेम समस्या आदि को अभिव्यक्ति मिली। मार्क्सवादी लेखक यशपाल ने 'दादा कामरेड' 'देशद्रोही' 'झूठा सच' 'वचन के मोल' आदि उपन्यासों में मध्य वर्ग की आर्थिक, सामाजिक व राजनीतिक स्थिति का अध्ययन किया है। तो वहीं राज्ञेय राघव व नागार्जुन ने अपने अंचलिक उपन्यासों में ग्रामीण मध्यवर्गीय जीवन स्थिति, स्वरूप व गति को रेखांकित किया है। |
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निष्कर्ष |
वास्तव में हिंदी उपन्यास का इतिहास भारतीय मध्यवर्ग का ही इतिहास है। यह मध्य वर्ग द्वारा मध्य वर्ग के लिए लिखा गया इतिहास है। मध्य वर्ग व उपन्यास विधा दोनों का उदय ब्रिटिश काल में हुआ। फलत: दोनों में अनूठा तादात्म कायम हो सका। सामाजिक क्रांति, औद्योगीकरण, नगरीकरण, आधुनिकीकरण तथा गतिशील महानगरीय जीवन ने मध्यवर्गीय जीवन शैली में निरंतर बदलाव किये। युगीन हिंदी उपन्यासों में इनका यथार्थपरक चित्रण किया गया। इसमें लेखक का स्वअनुभव भी काफी काम आया जिससे मध्यवर्ग की व्यथा व दशा का वास्तविक चित्र उकेरा जा सका। 'भाग्यवती' व 'परीक्षा गुरु' जैसे उपन्यासों से मध्य वर्ग के जीवंत चित्रण की जो परंपरा प्रारंभ हुई प्रेमचंद्र काल में वह और अधिक परिपक्व हुई। प्रेमचंद्र का काल सामाजिक संक्रमण का काल था। पाश्चात्य सभ्यता व संस्कृति के प्रति मध्यवर्ग के आकर्षण से एक ओर तो मध्यवर्ग प्रगतिशील विचारों की ओर उन्मुख था तो वहीं दूसरी ओर परंपरागत रीति-रिवाजों व रूढ़ियों व आदर्शों को भी ढोने को विवश था। प्रेमचंद्र युगीन उपन्यासों में बड़ी ही सजगता से मध्य वर्ग की इस विडंबना को रेखांकित किया गया। प्रेमचंदोत्तर काल में भी इसी प्रकार का चित्रण देखने को मिलता है। मध्य वर्ग में व्याप्त सामाजिक और पारिवारिक विघटन की समस्या हो या फिर अर्थाभाव के चलते घुटन, कुंठा व आपसी एकता की कमी आदि इन सभी पहलुओं का हिंदी उपन्यासों में जीवंत चित्रण देखा जा सकता है। |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1. डॉ ईश्वरदास जौहर; हिंदी उपन्यास साहित्य में राजनैतिक एवं राष्ट्रीय चेतना (स्वाधीनता आंदोलन के परिप्रेक्ष्य में) शारदा प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण, सन् 2012
2. डॉ. देवीदत्त तिवारी; हिंदी उपन्यास: स्वतंत्रता आंदोलन के विविध आयाम तक्षशिला प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण, सन् 1985
3. डॉ. गोपाल राय, हिंदी उपन्यास कोश (खंड-1), ग्रंथ निकेतन, पटना, प्रथम संस्करण, सन् 1968
4. अज्ञेय, हीरानंद सच्चिदानंद वात्सायन, शेखर, एक जीवनी (भाग-1, भाग-2), सरस्वती प्रेस, बनारस, सन् 1957
5. प्रेमचंद्र, रंगभूमि, सरस्वती प्रेस, इलाहाबाद, सन् 1961
6. प्रेमचंद्र, प्रेमाश्रय, सरस्वती प्रेस, इलाहाबाद, सन् 1962
7. प्रेमचंद, गोदान, सरस्वती प्रेस, बनारस, सन् 1965
8. जैनेंद्र, कल्याणी, हिंदी ग्रंथ रत्नाकर, मुंबई, सन् 1958
9. डॉ. मंजुलता सिंह, हिंदी उपन्यास में मध्यवर्ग, आर्य बुक डिपो, नई दिल्ली, सन् 1971
10. डॉ. रामदरश मिश्र, हिंदी उपन्यास; एक अंतर्यात्रा, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, सन् 1968 |